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________________ ४३ को देखकर सेठ समुद्रदत्त की दृष्टि दूषित हो जाती है, फलत: वह जिनदत्त को समुद्र में गिराकर अपने जलयान को द्रुतगति से आगे बढ़ा ले जाता है। जिनदत्त एक लकड़ी का सहारा लेकर तट की ओर बढ़ने का यत्न करता है। इतने में दो व्यक्ति आकाशमार्ग से वहाँ पहुँचकर उसे धमकाने लगते हैं पर उस (जिनदत्त) के वीरतापूर्ण वचनों को सुनकर वे पानी-पानी हो जाते हैं और उसे अशोकश्री नामक विद्याधर के पास लिवा जाते हैं। वह अपनी कन्या शृङ्गारमती का उसके साथ ब्याह कर देता है। चन्द्रप्रभचरित में चर्चित हिरण्यदेव पहले अजितसेन को धमकाता है, पर बाद में उसकी वीरता से प्रसन्न होकर उसकी सहायता करता है। राजा जयवर्मा के प्रतिद्वन्द्वी धरणीध्वज को मारने में अजितसेन को यही देव सहयोग देता है। अन्ततोगत्वा राजा जयवर्मा प्रसन्न होकर अपनी कन्या शशिप्रभा का अजितसेन के साथ विवाह कर देता है। सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर जिनदत्तचरित और चन्द्रप्रभचरित की उक्त घटनाओं में पर्याप्त समानता है, अत: यह स्पष्ट है कि वीरनन्दी ने जिनदत्तचरित से भी सहायता थी। गुणभद्र ने जिन घटनाओं से जिनदत्त का उत्कर्ष सिद्ध किया है, उन्हीं जैसी घटनाओं से वीरनन्दी ने अजितसेन का। (१३,१७,२३) सुवर्णमाला, कनकमाला; चन्द्रपुरी, चन्द्रपुर; सकलर्तु, सर्वर्तक-ये नाम कुछ भिन्न से प्रतीत होते हैं, पर इनका अभिप्राये भिन्न नहीं है। सुवर्ण कनक का, पुरी पुर का और सकल सर्वका पर्यायवाचक है। इनमें छन्द के अनुरोध से थोड़ा-सा अन्तर आया है। (१५) पद्मनाभ की राजधानी में एक जंगली हाथी के प्रवेश की घटना जो चन्द्रप्रभचरित में वर्णित है, उसका आधार उत्तरपुराण के स्थान में जिनदत्तचरित (६,८१-९१) प्रतीत होता है। इन दोनों कृतियों में वर्णित घटनाओं में अत्यधिक साम्य है। उक्त घटनाओं के अतिरिक्त दोनों में पद्यगत साम्य भी यत्र-तत्र हैं। चन्द्रप्रभचरितम् और जिनदत्तचरितम् के कतिपय पद्यों की क्रमश: तुलना कीजिए- चन्द्रप्रभचरित १,१७, २,१२४; २,११६; ३,३१; ३,३२, ३,६७, ३,७४; ६,१७, ६,१९; ६,२१, ११,७६-९० क्रमश: जिनदत्तचरित १,१३, २,७; ३,७४; १,६१; १,६३; १,७२; १,७५-७६; ६,७, ६,९; ६,१३, ६,७७-९१। अतएव यह स्पष्ट है कि चन्द्रप्रभचरित का कथानक गुणभद्र के उत्तरपुराण से तथा कतिपय घटनाओं के स्रोत उन्हीं के जिनदत्तचरित से लिये गये हैं। 4 (१८) चन्द्रप्रभचरित में उत्तरपुराण की भाँति पाँच कल्याणकों की पाँच मितियाँ न देकर 'नेमिनिर्वाणम्' की भाँति केवल दो ही मितियाँ दी गयी हैं। इसका कारण कौन-सी परम्परा रही है, यह ज्ञात नहीं हो सका। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525039
Book TitleSramana 1999 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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