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________________ जैन व जैनेतर ग्रन्थों के साथ की गयी चन्द्रप्रभचरित की इस संक्षिप्त तुलना से वीरनन्दी के व्यापक अध्ययन का पता चलता है। ८. चन्द्रप्रभचरित की साहित्यिक सुषमा - 1 चन्द्रप्रभचरित एक महाकाव्य — निर्दोष, सगुण, सालङ्कार और कहीं (जहाँ रस आदि की स्पष्ट प्रतीति हो) निरलङ्कार भी शब्द और अर्थ दोनों का जहाँ सुन्दर सन्निवेश हो उसे काव्य कहते हैं । ५४ दृश्य की भाँति श्रव्यकाव्य की भी अनेक विधाएँ हैं । महाकाव्य उन्हीं में से एक है। आठ सर्गों से अधिक सर्गबद्ध रचना को महाकाव्य कहते हैं । इसमें देव या धीरोदात्तत्व आदि गुणों से विभूषित कुलीन क्षत्रिय एक नायक होता है । कहीं एक वंश के कुलीन अनेक राजा भी नायक होते हैं। इसमें शृङ्गार, वीर और शान्तइन तीनों में से कोई एक रस अङ्गी (प्रधान) होता है और शेष अङ्ग (अप्रधान) । नाटकों की भाँति इसमें भी मुख, प्रतिमुख, गर्भ, विमर्श और निर्वहण - ये पाँच सन्धियाँ होती हैं। इसकी कथा ऐतिहासिक या लोकविख्यात सज्जन से सम्बद्ध होती है। इसमें धर्म आदि चारों पुरुषार्थों की चर्चा रहती है, पर फल का सम्बन्ध एक से ही रहता है। इसका आरम्भ आशीर्वाद, नमस्कार या वर्ण्य वस्तु के निर्देश से होता है, इसमें दुर्जनों की निंदा और सज्जनों की प्रशंसा रहती है। प्रत्येक सर्ग में एक ही छन्द का प्रयोग रहता है, पर उसके अन्त में अन्य छन्दों का भी । किसी एक सर्ग में अनेक छन्द भी प्रयुक्त होते हैं। सर्ग के अन्त में अगले सर्ग की कथा की सूचना रहती है । ५५ इसके वर्ण्य विषय हैं— राजा, ५७ रानी, ५८ पुरोहित, ५९ कुमार, ६० अमात्य, सेनापति, देश, ६१ ग्राम, पुर, सरोवर, समुद्र, ६५ सरित्, ६६ उद्यान, ६७ पर्वत, ६८ अटवी,' मन्त्रणा, दूत, प्रयाण,७२ मृगया-अश्व,७३ गज, ७४ ऋतु, ७५ सूर्य, ७६ चन्द्र, ७७ आश्रम, ७८ युद्ध, ७९ विवाह, वियोग, सुरत, १ स्वयंवर, पुष्प वचय' और जलक्रीड़ा। ८३ आलङ्कारिकों के अभिप्रेत महाकाव्य के लक्षण की कसौटी पर चन्द्रप्रभचरित का महाकाव्यत्व खरा उतरता है, जो सर्वमान्य है । ६ ६२ ६३ ६४ ६९ ७० ७१ ८० ४७ नामकरण— साहित्यदर्पण (६, ३२४) के अनुसार महाकाव्य का नाम कवि के नाम पर, जैसे माघ; वर्ण्यविषय के नाम पर, जैसे कुमारसम्भव; नायक के नाम पर, जैसे विक्रमाङ्कदेव चरित; अथवा रघुवंश आदि की भाँति वंश आदि के नाम पर भी रखा जाता है। प्रस्तुत चन्द्रप्रभचरित का नामकरण इसके नायक चन्द्रप्रभ के नाम के आधार पर हुआ है, जो सद्वंश क्षत्रिय रहे । मङ्गलाचरण ४- काव्यादर्श (१,१४) के अनुसार महाकाव्य का प्रारम्भ आशीर्वादात्मक किंवा नमस्कारात्मक मङ्गलाचरण से या सीधे वस्तु निर्देश से भी होता है । चन्द्रप्रभचरित का प्रारम्भ आशीर्वादात्मक (तीन पद्य) और नमस्कारात्मक (चतुर्थ पद्य) मङ्गलाचरण से हुआ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525039
Book TitleSramana 1999 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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