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सच्चा गुरु तो यह खल है जिसके निपुण समीक्षण से उसकी आँखे खुली
दोषों का भान हुआ। ८६. मृत्यु के उपरान्त करुण रस की अभिव्यक्ति होती है। यहाँ अजितसेन की मृत्यु
नहीं हुई, अनिष्ट की प्राप्ति हुई— इसी दृष्टि से करुण रस अभिव्यक्त हआ है। 'इष्टनाशादनिष्टाप्तेः करुणाख्यो रसो भवेत्' (साहित्यदर्पण ३, २२२)। काव्यानुशासन (२, पृष्ठ ९१) और अलङ्कारचिन्तामणि (५, १०१) से भी इसका समर्थन होता है, अत: चन्द्रप्रभचरित के उक्त सन्दर्भ में करुणरस
मान्य है। ८७. सभी अलङ्कारों के लक्षण घटाने में प्राय: कुवलयानन्द का उपयोग किया
गया है। ८८. सभी छन्दों के लक्षण वृत्तरत्नाकर के अनुसार घटाये गये हैं। ८९. जस्स पायपसायेण णंतसंसारजलहिमुत्तिण्णो। वीरिंदणंदिवच्छो णमामि तं
अभयणंदिगुरुं।।गा० ४३३।। ९०. णमिऊण अभयणंदिं सुदसागरपारगिंदणंदिगुरुं। वरवीरणंदिणाहं पयडीणं पच्चयं
गोच्छं।।गा०७५८।। णमह गुणरयणभूसणसिद्धंतामियमहद्धिभवभावं। वरवीरणंदिचंद
णिम्मलगुणमिदंणदिगुरुं। ।गा०८९६।। ९१. चन्द्रप्रभाभिसंबद्धा रसपुष्टा मनः प्रियम्। कुमुद्वतीव नो धत्ते भारती
वीरनन्दिनः।।१.३०।। ९२. चन्द्रप्रभजिनेशस्य चरितं येन वर्णितम्। तं वीरनन्दिनं वन्दे कवीशं
ज्ञानलब्धये।। १.१९।। ९३. श्रीवीरनन्दिदेवो धनञ्जयासगौ हरिश्चन्द्रः। व्यधुरित्याद्याः कवयः काव्यानि
सदुक्तियुक्तीनि।। – 'जैनग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह', पृष्ठ १२७ से उद्धृत. ९४. तुलना कीजिए- चन्द्रप्रभचरित १८, २ तथा धर्मशर्माभ्युदय २१, ८;
चन्द्रप्रभचरित १८,७८ तथा धर्मशर्माभ्युदय २१, ९०; चन्द्रप्रभचरित १८,८८
तथा धर्मशर्माभ्युदय २१, ९९ इत्यादि. ९५. इससे उक्त दोनों ग्रन्थों के कर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती और उनके
सहयोगियों- वीरनन्दी, इन्द्रनन्दी, कनकनन्दी- का समय भी विक्रम की ग्यारहवीं सदी का पूर्वार्ध ठहरता है।- जैन साहित्य और इतिहास, पृष्ठ २७४. वीरनन्दी (१३०० ई०)- चन्द्रप्रभचरित। -- संस्कृत साहित्य का इतिहास,
पृष्ठ २७३. ९७. संस्कृत साहित्य का इतिहास (१३वीं शताब्दी के महाकाव्य) पृष्ठ ८६८.
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