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________________ ही समय के पश्चात् इन्द्र की आज्ञा से आठ दिक्कमारियाँ उनके यहाँ रानी लक्ष्मणा की सेवा के लिए उपस्थित होती हैं। उनके साथ हुए वार्तालाप से उनका आश्चर्य दूर हो जाता है। महासेन से अनुमति लेकर वे उनके अन्तःपुर में प्रवेश करती हैं और लक्ष्मणा के गर्भशोधन आदि कार्यों में संलग्न हो जाती हैं। शुभ स्वप्न- महारानी सुखपूर्वक सोयी हुई थीं, इतने में उन्हें रात्रि के अन्तिम प्रहर में सोलह२३ शुभ स्वप्न हुए। प्रभात होते ही वे अपने पति के पास पहुँचती हैं। स्वप्नफल- पत्नी के मुख से क्रमश: सभी स्वप्नों को सुनकर महासेन ने उनका शुभफल बतलाया, जिसे सुनकर उसे अपार हर्ष हुआ। गर्भावतरण- आयु के समाप्त होते ही पूर्वचर्चित अहमिन्द्र वैजयन्त नामक अनुत्तर विमान से चयकर प्रशस्त (चैत्र कृष्णा पञ्चमी के)२४ दिन महारानी लक्ष्मणा के गर्भ में प्रवेश करता है। गर्भकल्याणक महोत्सव-इसके पश्चात् इन्द्र महासेन के राजमहल में पहुंचकर गर्भकल्याणक महोत्सव मनाते हैं। माता के चरणों की अर्चना करके वे वहाँ से वापिस चले जाते हैं, पर श्री, ह्री और धृति देवियाँ वहीं रहकर उनकी सेवा-शुश्रूषा करती है। जन्म- पौष कृष्णा एकादशी२५ के दिन लक्ष्मणा सुन्दर पत्र- चन्द्रप्रभ को जन्म देती हैं। इस शुभ बेला में दिशाएँ स्वच्छ हो जाती हैं; आकाश निर्मल हो जाता है; सुगन्धित वायु का संचार होता है; दिव्यपुष्पों की वृष्टि होती है; कल्पवासी देवों के यहाँ मणिघण्टिकाएँ, ज्योतिष्कों के यहाँ सिंहनाद, भवनवासियों के यहाँ शङ्ख और व्यन्तरों के यहाँ दुन्दुभि बाजे स्वयमेव बजने लगते हैं- इन हेतुओं तथा आसन के कम्पन से इन्द्र चन्द्रप्रभ के जन्म को जानकर देवों के साथ चन्द्रपुरी की ओर प्रस्थान करते हैं। अभिषेक- इन्द्राणी माता के निकट मायामयी शिशु को सुलाकर वास्तविक शिशु को राजमहल से बाहर ले आती है। सौधर्मेन्द्र शिशु को दोनों हाथों में लेकर ऐरावत पर सवार होता है और सभी देवों के साथ सुमेरु पर्वत की ओर प्रस्थान करता है। वहाँ पाण्डुक शिला पर शिशु को बैठाकर देवों द्वारा लाये गये क्षीरसागर के जल से अभिषेक करता है और विविध अलंकारों से अलंकृत करके उनका चन्द्रप्रभ नाम रख देता है। इसके उपरान्त सौधर्मेन्द्र अन्य इन्द्रों के साथ चन्द्रप्रभ की२६ स्तुति करता है और फिर उन्हें माता के पास पहुँचाकर महासेन से अनुमति लेकर वापिस चला जाता है। ___ बाल्यकाल- शिशु अमृतलिप्त अपनी अंगुलियों को चूसकर ही तृप्त रहता है, उसे माँके दूध की विशेष लिप्सा नहीं होती। चन्द्रकलाओं की भाँति उसका विकास होने लगता है। धीरे-धीरे वह देव कुमारों के साथ गेंद आदि लेकर क्रीड़ा करने योग्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525039
Book TitleSramana 1999 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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