Book Title: Shatkhandagama Pustak 02
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Catalog link: https://jainqq.org/explore/001396/1
JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
धवला-टीका-समन्वितः
षट्खडागमः
जीवस्थान - सत्मरूपणा २
खंड १
भाग १
पुस्तक २
सम्पादक हीरालाल जैन
wwwjalnelibrary.org
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री भगवत्-पुष्पदन्त-भूतबलि-प्रणीतः
षटखंडागमः
श्रीवीरसेनाचार्य-विरचित-धवला-टीका-समन्वितः।
तस्य प्रथम-खंडे जीवस्थाने हिन्दीभाषानुवाद-संदृष्टि-प्रस्तावनानेकपरिशिष्टैः सम्पादिता
सत्प्ररूपणा २
सम्पादकः अमरावतीस्थ-किंग-एडवर्ड-कालेज-संस्कृताध्यापकः एम्. ए., एल् एल्. बी., इत्युपाधिधारी
हीरालालो जैनः
सहसम्पादको पं. फूलचन्द्रः सिद्धान्तशास्त्री * पं. हीरालालः सिद्धान्तशास्त्री, न्यायतीर्थः
__ संशोधने सहायको व्या. वा., सा. सू., पं. देवकीनन्दनः * डा. नेमिनाथ-तनय-आदिनाथः सिद्धान्तशास्त्री
उपाध्यायः; एम्. ए., डी. लिट्. प्रकाशकः श्रीमन्त सेठ शितावराय लक्ष्मीचन्द्र जैन-साहित्योद्धारक-फंड-कार्यालयः
अमरावती ( बरार )
वि. सं. १९९७ ]
वीर-निर्वाण-संवत् २४६६
[ ई. स. १९४०
मूल्यं रूप्यक-दशकम्
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रकाशकः श्रीमन्त सेठ शितावराय लक्ष्मीचन्द्र, जैन-साहित्योद्धारक-फंड-कार्यालय
अमरावती ( बरार )
मुद्रक
टी. एम्. पाटील,
मॅनेजर सरस्वती प्रिंटिंग प्रेस, अमरावती ( बरार)
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
THE
ȘAȚKHAŅDĀGAMA
OF PUSPADANTA AND BHŪTABALI
WITH
TILE COMMENTARY DILI VALĀ OF TIRASEX
VOL. 11
SATPRARŪPAŅĀ
Edited with introduction, translation, notes, and indexes
BY HIRALAL JAIN, M. A., LL.D. C. P. Educational Service King Elward College, Amraoti.
ASSISTED BY
Pandit Phoolchandra
Siddhanta Shăstri
Pandit Hiralal Sildhänta Shastri,
Nyāyatirtha.
Will the cooperation of
Pandit Devakinandana
Siddhānta Shastri
Dr. A. N. Upadhye,
M. A., D. Litt.
Published by
Shrimanta Seth Shitabrai Laxmichandra, Jaina Sahitya Uddhāraka lund Karyalaya.
AMRAOTI (Berar.
1940
Price rupees ten only.
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
Published by Shrimant Seth Shitabrai Laxmichandra, Jaiva Sahitya Uddharaka Fund Karyalaya,
AMRAOTI (Berar ).
Printed by T. M. Patil, Manager, Saraswati Printing Press,
AMRAOTI ( Perer)
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषय सूची
विषय पृष्ट नं. ! विषय
पृष्ठ नं. पाक कथन
१-३ ५ बारहवें श्रुतांग दृष्टिवादका . प्रस्तावना
परिचय ४१-६८ ग्रंथकी प्रस्तावना (अंग्रेजी में) I-VI १परिकर्म १ ताड़पत्रीय प्रतिके लेखनकालका
२ सूत्र निर्णय १-१४
३ पूर्वगत १ सत्प्ररूपणाके अन्तकी प्रशस्ति १
४ प्रथमानुयोग २ धवलाके अन्तकी प्रशस्ति
५ चूलिका २ सत्प्ररूपणा विभाग
महाकम्मपयडिपाहुड ३ वर्गणाखंड विचार
कसायपाहुड १ वेयणकसिण पाहुड और वेदनाखंड १६
६ ग्रंथका विषय २ वर्गणा नामपर खंडसंज्ञा १७
७ रचना और भाषाशैली ३ वेदनाखंडके आदिका
विपय-सूची __ मंगलाचरण १९
१ सत्प्ररूपणा-आलापसूची ७२ ४ वेदनाखंड समाप्तिकी पुष्पिका २१
२ आलापगत विशेष-विषयसूची ८२ ५ इन्द्रनन्दिकी प्रामाणिकता २२ ६ मूडविद्रीसे प्रतिलिपि
शुद्धिपत्र _करनेवालेकी प्रामाणिकता २३
सत्प्ररूपणा २ ७ वेदनाखंडके आदि अवतर
मूल, अनुवाद और संदृष्टियां ४११-८५५ णोंका ठीक अर्थ २५ १ वेदना और वर्गणाखंडोंकी
परिशिष्ट सीमाओंका निर्णय ३० १ पारिभाषिक शब्दसूची २ वर्गणा निर्णय
२ अवतरण गाथासूची ४ णमोकार मंत्रके आदिकर्ता ३३-४१ ३ प्रतियोंके पाठभेद १धवलाकारका मत
४ प्रतियोंमें छूटे हुए पाठ २ श्वेताम्बर मान्यता विचार ३५
५ विशेष टिप्पण
३१
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राक कथन
श्रीधवलसिद्धान्त प्रथम विभागके प्रकाशित होनेसे हमें जो आशा थी, उसकी सोलहों आने पूर्ति हुई । हमें यह प्रकट करते हुए अत्यन्त हर्ष और संतोष है कि मूडबिद्री मटको भेट की हुई शास्त्राकार और पुस्तकाकार प्रतियोंके वहां पहुंचनेपर उन्हें विमानमें विराजमान करके जुलूस निकाला गया, श्रुतपूजन किया गया और सभा की गई, जिसमें वहांके प्रमुख सज्जनों और विद्वानोंद्वारा हमारी संशोधन, सम्पादन और प्रकाशन व्यवस्थाकी बहुत प्रशंसा की गई और यह मत प्रगट किया गया कि आगे इस सम्पादन कार्यमें वहांकी मूल प्रतिसे मिलानकी सुविधा दी जाना चाहिये, नहीं तो ज्ञानावरणीय कर्मका बंध होगा । यह सभा मूडबिद्री मठके भट्टारकजी श्री चारुकीर्ति पंडिताचार्यवर्यके ही सभापतित्वमें हुई थी।
उक्त समारंभके पश्चात् स्वयं भट्टारकजीने अपना अभिप्राय हमें सूचित किया और प्रति मिलानकी व्यवस्थादिके लिये हमें वहां आनेके लिये आमंत्रित किया। इसी बीच गोम्मटस्वामीके महामस्तकाभिषेकका सुअवसर आ उपस्थित हुआ। यद्यपि छुट्टियां न होनेके कारण हम उक्त महोत्सवमें सम्मिलित होनेके लिये नहीं जा सके, किंतु हमारे कार्यमें अभिरुचि रखने और सहायता पहुंचानेवाले अनेक श्रीमान् और धीमान् वहां पहुंचे और उनमेंसे कुछने मूडविद्री जाकर ग्रंथराज महाधवलकी भी प्रतिलिपि कराकर प्रकाशित कराने के लिये भट्टारकजी व पंचोंकी अनुमति प्राप्त कर ली। समयोचित उदारता और सद्भावनाके लिये मूडबिद्री मठका अधिकारी वर्ग अभिनन्दनीय है और उस दिशामें प्रयत्न करनेवाले सज्जन भी धन्यवादके पात्र हैं। अब हम उस सम्बंधमें पत्र-व्यवहार कर रहे हैं, और यदि सब सुविधाएं मिल सकीं, जिनके लिये हम प्रयत्नशील हैं, तो हम शीघ्र ही मूडबिद्रीकी समस्त धवलादि श्रुतोंकी प्रतियोंकी ( फोटोस्टाट मशीन या माइक्रो फिल्मिंग मशीन द्वारा ) प्रतिलिपियां कराकर ग्रंथराजका चिरस्थायी उद्धार करनेमें सफलीभूत हो सकेंगे। इस महान कार्यके लिये समस्त धर्मिष्ठ और साहित्यप्रेमी सज्जनोंकी सहानुभूति और क्रियात्मक सहायताकी आवश्यकता है, जिसके लिये हम समाजभर का आह्वान करते हैं
प्रथम विभागका प्रकाशनोत्सव ४ नवम्बर सन् १९३९ को किया गया था। तबसे आज ठीक आठ मास हुए हैं । इतने अल्पकालमें द्वितीय विभागका संशोधन सम्पादन होकर मुद्रण भी पूरा हो रहा है, यद्यपि कार्यमें कठिनाइयां अनेक उपस्थित होती रहती हैं। इस सफलतामें समाजकी सद्भावना और दैवी प्रेरणा बहुत कुछ कार्यकारी दिखाई देती है । यदि समय अनुकूल रहा तो आगे प्रायः वर्षमें दो भागोंका प्रकाशन करानेका प्रयत्न किया जायगा।
इस विभागके सम्पादनमें भी पूर्वोक्त सहयोग पूर्ववत् ही चलता रहा है, अर्थात्
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
(३) पं. फूलचंद्रजी शास्त्री और पं. हीरालाल जी शास्त्री स्थायी रूपसे सम्पादन कार्यमें हमारे साथ संलग्न रहे, तथा पं. देवकीनन्दनजी शास्त्री और डा. आदिनाथजी उपाध्यायसे हमें संशोधनमें यथावसर वांछित साहाय्य मिलता रहा। धवलाकी जो प्रशस्तियां इस विभागके साथ प्रकाशित हो रही हैं, उनका सहारनपुरकी प्रतिसे अक्षरशः मिलान वीरसेवामंदिरके अधिष्ठाता पं. जुगलकिशोरजी ने करके भेजनेकी कृपा की। उन्हीं प्रशस्तियों के कनाडी पाठोंके संशोधनका अत्यन्त कठिन कार्य डा. उपाध्येके सहयोगी, राजाराम कालेज, कोल्हापुरमें कनाडीके प्रोफेसर श्रीयुत कुन्दनगारजी द्वारा किया गया है। वीरसेवामंदिरके पं. परमानन्दजी शास्त्रीने प्रस्तुत विभागमें आई हुई अवतरणगाथाओंके प्राकृत पंचसंग्रहमें होने न होने की हमें सूचना दी। बीनाके पं. वंशीधरजी व्याकरणाचार्यने पृ. ४४१-४४३ पर आये हुए व्याकरण संबंधी कठिन प्रकरणपर अपनी सम्मति विस्तारसे हमें लिख भेजनेकी कृपा की। पं. महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यने इस भागके प्रथम फार्मका ग्रूफ देखकर मुद्रण-संबंधी अनेक सूचनाएं देनेकी कृपा की। इस सब सहायताके लिये हम इन विद्वानोंके बहुत ही अनुगृहीत हैं । और भी अनेक विद्वानोंने अपनी बहुमूल्य सम्मतियां हमें या तो व्यक्तिगत पत्र द्वारा या समालोचनाके रूपमें पत्रोंमें प्रकाशित कराकर देनेकी कृपा की। उन सबसे भी हमने लाभ उठानेका प्रयत्न किया है । अतएव वे सब हमारे धन्यवादके पात्र हैं। उन सम्मतियों आदि परसे जो संशोधन या सूचनाएं प्रथम खंडके विषयमें हमें आवश्यक प्रतीत हुईं, उनका भी समावेश इस विभागके शुद्धिपत्रमें किया जाता है। पाठक उससे प्रथम खडमें उचित सुधार कर लें।
हमारे अनेक प्रेमी पाठकोंने कुछ सूचनाएं ऐसी भी भेजी थी जिनका, खेद है, हम पालन करनेमें असमर्थ रहे । इनमें एक सूचना तो प्राकृत अंशोंका या उनके कठिन स्थलोंका संस्कृत रूपान्तर देते जानेके सम्बंध थी। इसको स्वीकार न कर सकने का कारण हम प्रथम जिल्दके प्राक्कथनमें ही दे चुके है और हमारा वह मत अब भी कायम है । दूसरी सूचना हमारे वयोवृद्ध पाठकोंकी ओर से यह थी कि भाषान्तरका टाइप छोटा पड़ता है, उसे और भी बड़ा कर दिया जाय तो उन्हें पढने में सुविधा होगी। हम बहुत चाहते थे कि अपने वृद्ध पाठकोंकी इस मूर्तिमान् कठिनाई को दूर करें। किन्तु पाठक देखेंगे कि मूलके टाइपसे अनुवादका टाइप बहुत कुछ छोटा होते हुए भी उसमें मूलसे कहीं अधिक स्थान लगता है । अब हम यदि उसे और भी बड़े टाइपमें लें तो हमारी निश्चित की हुई खंड-व्यवस्था और व्हाल्यूममें बड़ी गड़बड़ी उत्पन्न होती है । अतएव विवश होकर हमें अपनी पूर्व पद्धति ही कायम रखना पड़ी। आशा है हमारे वृद्ध पाठक प्रकाशन संबंधी इस कठिनाईको समझकर हमें क्षमा करेंगे ।
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
इस विभागके संशोधनमें भी हमें अमरावती जैनमन्दिरकी प्रतिके अतिरिक्त आराके सिद्धान्त भवन तथा कारंजाके महावीरब्रह्मचर्याश्रमकी प्रतियोंका लाभ मिलता रहा तथा सहारनपुरकी प्रतिके जो कुछ पाठभेद पहलेसे नोट थे उनसे लाभ उठाया गया है। अतएव इन सब प्रतियोंके अधिकारियोंके हम अनुगृहीत हैं।
श्रीमन्त सेठ लक्ष्मीचन्द्रजी और जैन साहित्योद्धारक फंडकी ट्रस्ट कमेटीके अन्य सब सदस्योंका इस कार्यको प्रगतिशील बनाये रखनेमें पूरा उत्साह है, और इस कारण हमें व्यवस्था किसी विशेष कठिनाईका अनुभव नहीं हुआ, बल्कि आगे सफलताकी पूरी आशा है ।।
यूरोपीय महासमरके कारण इस खंडके लिये यथेष्ट कागज आदिका प्रबंध करनेमें बड़ी कठिनाई उपस्थित हुई, जिसको हल करनेमें हमारे निरन्तर सहायक पंडित नाथूरामजी प्रेमीका हमपर बहुत उपकार है।
सत्साहित्यकी कदर करनेवाले मर्मज्ञ पाठकोंने प्रथम जिल्दका जो खागत किया है और उसके लिये हमारी ओर जो प्रशंसाके भाव व्यक्त किये हैं, उसके लिये हम उनकी गुणग्राहकताके कृतज्ञ हैं । पर हम यह फिर भी व्यक्त कर देते हैं कि इस महान् कठिन कार्यमें यदि हमें सचमुच कुछ सफलता मिल रही है तो उसका श्रेय हमें नहीं, किन्तु समाजकी उसी सद्भावना और समयकी प्रेरणाको है जो उचित कालमें उचित कार्य किसी न किसीसे करा लेती है। इस सम्बंध हमारी तो, महाकवि कालिदासके शब्दोंमें, यही धारणा है कि
सिध्यन्ति कर्मसु महत्स्वपि यन्नियोज्याः सम्भावनागुणमवेहि तमीश्वराणाम् । किंवाऽभविष्यदरुणस्तमसा विभेत्ता तं चेत्सहस्रकिरणो धुरि नाकरिष्यत् ॥
किंग एडवर्ड कालेज,
अमरावती १५/७/४०
हीरालाल जैन
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रस्तावना
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
INTRODUCTION
1. Age of the palm-leaf manuscript of Dhavala
at Mudbidri.
In the introduction to Vol. 1 we had conjectured that the palm-leaf manuscript of Dhavalá deposited at Mudbidri was at least five or six hundred years old. We are now in a position to throw some more light on the subject of tho manuscript tradition. At the end of Satprarupaņā after the colophon we find some text which when reconstructed, yields three verses in Kenarese in praise of Padmanandi, Kulabhushana and Kulacandra respectively. The relation between these three notabilities has not been mentioned here, but there is no doubt that they are identical with the teachers of the same names mentioned in the Sravana Belgola inscription No. 40 (64) as succes. sively related to each other in a spiritual geneological order. There is similarity in the adjectives used for them at both the places. The inscription also tells us that the teachers belonged to the brilliant line of Desigana, a branch of the Nandigana of Mulasamgha which had owned, amongst others, Kundakunda, Umāsvāti, Samantabhadra, Pujyapāda and Akalamka. One of the pupils of Padmanandi was Prabhācandra who is said to have been the author of a celebrated work on Logic. He, thus, appears to be identical with the author of Prameyakamala-mārtanda and Nyāya-kumuda-candrodaya. This inscription is noi dated, but the line extends upto the third generation beyond Kulacandra, and there we find Devakirti Muni who, according to inscription No. 39 (03), attained heaven in 1163 A. D. The immediate successor of Kulacandra Muni was Māghanandi whose lay disciple Nimbadeva Samanta has also found mention in the Sukrabara Basti inscription of Kolhapur as a feudatory of the Silāhāra king Gandarādityadeva for whom there are mentions from 1108 to 1136 A. D. Taking all these factors into consideration we may safely conclude that the persons mentioned in the Satprarupaņā Prasasti flourished probably during the eleventh century A. D. The Kanarese verses being obviously the interpolations of the scribe who may have been the pupil of the last teacher, we might infer that a copy of the Dhavala was made about this period.
The Prasasti found at the end of the Dhavala Ms throws atill mora light on the subject. The text of this long Prasasti is partly in Kanarese and partly in Sanskrit, and the Kanarese portion is very corrupt. But the fact that emerges from it promi. nently is that the Ms. of Dhavala was presented to the famous teacher Subhacandra Siddhantadeva of the Banniyakere temple on the occasion of the completion of her Srutapancami vow by Demiyakka who was the aunt of Bhujabalaganga Permadideva of Mandali Nadu. Subhacandradeva is said to have belonged to the Desigana. His line begins from Kundakunda, and the other names of teachers mentioned are Griddhapiccha, Balakapiccha, Gunanandi, Devendra, Vasunandi, Ravicandra, Dāmanandi, Viranandi, Sridharadeva, Maladhārideva, Candrakirti, Divākaranandi and, lastly, Subhacandradeva. On scrutinizing these facts in the light of epigraphic references that
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
(ii)
are available to us, we find that the Subhacandradeva to whom the Ms. of Dhavala was given is identical with that Subhacandradeva whose death is commemorated in Sravana Belgola inscription No. 45 (117) of 1123 A. D., because the spiritual geneology of Subhacandra as given at the two places agrees entirely. We even find three verses that are common between our Prasasti and the inscription, the numbers of these verses in the inscription being 12, 18 and 21. The Banniyakere temple with which Subhacandradeva, the recepient of the Ms, has been associated, was built, according to Shimoga inscription No. 97 (Ep. Carus. Vol. VII) in 1113 A. D. In this inscription Bhujabalaganga Permadideva, also mentioned in our Prasasti, makes a grant to the temple, and at the close of the record Subhacandradeva of Desigana is praised. Thus, the temple of Banniyakere with which Subhacandradeva was associated was built in 1113 A. D., while he died in 1123 A. D. The Ms. of Dhavala was, therefore, presenterl to Subhacandradeva by Demiyakka between 1113 and 1123 A. D.
We also get some light about the donor of the Ms. from epigraphic records. Sravana Belgola Inscription No. 49(129) is in commemoration of a lady variously named as Demati, Demavati Devamati and Demiyakka, who is said to have been a pupil of Subhacandradeva of Desigana and to have died by the Jaina form of renunciation on the 11th day of the dark fortnight in Saka 1042 (A. D. 1120). In the inscription the lady is highly eulogised for her four forms of charity which included gifts of shastras or holy books. These mentions leave no doubt in our mind that this lady is the same as the donor of the Dhavala Ma. The date of the gift is, therefore, brought within closer limits i. e. between 1113 and 1120 A D.
The upshot of the above discussion is that we are confronted with three facts about Dhavala Ms. namely
1. A copy of the Dhavala was made probably about three generations prior to the death of Devakirti Muni in 1163 A. D., i e. about 1100 A D.
A Ma. of Dhavala was presented to Subhacandradeva by lady Demiyakka sometime between 1113 and 1120 A. D.
3. A palm-leaf Ms. of Dhavala making mention of the above fact and indienting fact No. 1 exists at Mudbidri.
The probability in my mind is that it was the present palm leaf Ms, at Mudbidri which was copied by a pupil of Kulacandra and presented by Demiyakka to Subhacandradeva. But the possibility of the object of Demiyakka's gift being a later copy of the first Ms. and the present Ms. being a still more subsequent copy of the second, mechanically reproducing the eulogistic verses and the Prasastis of the former ones, cannot be entirely precluded until the present palm-leaf Ms. at Mudbidri is thoroughly examined from all points of view internally as well as externally.
2. Is Vargana Khanda included in the available
Mss. of Dhavala ?
The six main divisions of the present work, on account of which it aequired the title of Satkhandagama, were Jivatthana, Khuddabandha, Bandhasamitta-vicaya,
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
(ii)
Vedana, Vaggana and Mahabandha. We had already stated in the previous volume that of these six Khandas, the last i, e, the Mahabandha exists in a separate manuscript and is not included in the Mss. of Dhavala which contain all the remaining five Khandas. To this an objection was raised from one quarter that the available Mss. of Dhavala contain not even five, but only the first four Khandas, Vaggana Khandr being also missing from them. This view was based upon a misinterpretation of one text and a wrong reading of another text found at the beginning of the Vedana Khanda and then support was sought for the view by a series of wrong co-relations and a number ol allegations against the old reporters like Indranandi and the recent copyist from Mudbidri Ms. These have been critically examined by me from every possible point of view on the basis of all availalle material, with the result that my previous statements have been fuily confirmed. The last word on this subject, as well as on others of a similar nature, however, could only be said when the Mudbidri Mss. have also bren thoroughly examined and the whole work has been critically edited.
3. Authorship of the Namokara Mantra Pancı-namokara Mantra is the most sacred formula of Jaina religion. It forms part of the daily prayers of all the Jainas whether Digambura or Svetambara. It has been regarded almost as an eternal revelation and the question of its author-- ship was never raised. It is this very formula that forms the benedictory text at the beginning of Jivatthu and th author of Dhavala throws important light upon its authorship. He divides sacred writings into two kinds according as their benedictory text forms their integral part or not. Now, different benedictory texts are found at the beginning of the Jivatthana Khanda and that of the Vedana Khanda. But the author of the Dhavalā places the first Khanda in one category and the other in the second category on the clearly stated ground that at the second place the benedictory text was not an integrel part of the writings because it was not the original composition of the author who had merely borrowed it from elsewhere. But he regards the Namokara formula as integrally connected with the Jivatthana. This shows that in the opinion of the author of Dhavala the Namokara formula was the original composition of Puspadanta the author of the Satprarūpanā which was the first part of Jivatthāna.
I tried to pursue the inquiry further and found that in the Svetāmbara Agama, Ajja Vaira is credited with having interpolated the formula in one of the Mülasūtras. A survey of the Svetāmbara Pattāvalis and equivalent mentions in the Digambara texts revealed a number of points of contact and of difference between them in the names and dates of various notabilities like Ajja Vaira. Ajja Mankhu or Mangu and Nāgahatthi, associated with this sacred formula and with the study and preservation of portions of the lost canon. But a clarification of these and ultimate conclusions on the points raised must await further investigation and study.
4. A comparative review of the contents of
Ditthivada The twelfth Jaina Srutânga Ditthivada, according to the traditions of both the Digambaras and the Svetambaras, was irretrievably lost. But a brief résumé of its
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
(iv)
contents is found in the literature of both the sects. The Digambara work Satkhandagama of Puspadanta and Bhūtabali as well as Kasāya-pähud:1 of Gunadharācārya are claimed to be directly based upon it. It would, therefore, be interesting to take a bird's eye view of the contents of this most important Jaina Srutānga, leading up to the portions that have been preserved.
The Ditthivåda was divided into five parts, Parikamma, Sutta, Padhamānioga, Puvvagaya and Cūliā. The Svetāmbaras place Puvvagaya first and Anuoga, with its subdivisions Mula padhamānuoga, aod Gandiánuoga, instead of Padhamūnioga, next in the above order. The two schools differ entirely in the matter of the subsections of the first part, Parikamma. The Digambaras name five Pannattis under it, namely, Canda, Sura, Jambudiva, Divasāyara and Viyaha; while the Svetāmbaras count under it seven Seniäs, namely, Siddha, Manussa, Pattha, Ogādha, Uvasampajjana, Vippajahana and Cuācua, each of which is again divided into fourteen or eleven sections like Māugāpayāim, Egatthiapayāim Atthapayaim, Pāhoā māsa payaim, Keubhuam, Rāsi baddham, Eggunam, Dugunam, Tigunam, Keubhuam, Padiggaho, Samsāra padiggaho, Nandāvattam and Siddhāvattam, The nature of the subject-matter of these is shrouded in mystery. The Digambara subdivisions, on the other hand, are quite intelligible and their contents are also clearly stated. There is, however, one thing remarkable about the Svetambara subdivision that the first six divisions of Pari kamma are said to be in accordance with the Jaina view which recognised four Nayas, while the seventh was an addition of the Ajivikas who recognised three Rasis or Nayas. It appears from this that the Ajivika view-point was also accomodated in the Jaina Agama and that at one time the Jainis recognised only four instead of seven Nayas.
The second division of Ditthivāda was Sutta which, according to the Digambaras, dealt, firstly, with the philcsophy of the soul according to their own ideas; and, secondly, with the philosophical theories of others, such as Terūsiya, Niyativada Saddarāda and the like. They also speak of eightyeight divisions of Sutta of which, they say, the names have been forgotten. The Svetāmbaras mention twentytwo subdivisions of Sutta and point out that they may be studied according to four Nayas, namely, Chinnacheda, Achinnacheda, Trika and Catuska, of which the first and the fourth Nayas are followed by the Jainas, while the second and the third are adopted by the Ajivikas. In this way, Sutta is shown to possess eightyeight subdivisions. Here again, the mention of the Ajivika view-point and its accomodation are remarkable.
Padhamānioga division of Ditthivāda, according to the Digambaras, deals with Paurānic accounts. As mentioned before, the Svetāmbaras give the name of this division as Anuoga and subdivide it as Mula-padhamānuoga dealing with the lives of the Tirthamkaras, and Gandianuoga dealing with the lives of Kulakaras and other distinguished persons in separate sections (Gandikās). Amongst these the account of the Citrāntara Gandikā is very astonishing and staggering.
Puvvagaya was the most imporant division of Ditthivāda because its fourteen subdivisions, known as Puvvas, contained, in fact, all the essential wisdom of the
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
Tirthamkaras. There is no substantial difference in the name or in the nature of the contents of the fourteen Puvvas in the Digambark and the Svetārbara accounts of them, except that the eleventh Pavva is called Kallānn by one and Avanjham by the other, while there is also some difference in the extent (number of padas) of the twelfth Puvva, Pānāvāya. Both schools agree that some studied the entire Sruta while others stopped at the tenth Puyva. This view, in a way, shows the significance of placing Anuoga or Padhamānuoga before Puvvagaya, for, otherwise, those that stopped at the tenth Puvva could have no knowledge of Anuoga.
The fifth and the last division of Ditthivāda is Culia, which, according to the Digambara school, dealt with the sciences pertaining to Jala, Sthala, Maya, Rupa and Akasa The other school has no account of the Culikas to give except that they were appendexes of the first four Puvvas and that their number was, in all, thirtyfour. But if they were appended to the Puvvas, it remains unexplained why a separate division for them was thought necessary.
The Puvvas are said to have been divided into Vatthus and each Vattbu was subdivided into twenty Pahudas, their total number, according to the Digambara school, being 195 and 3900 respectively. The Kammapayadi - Pahuda, of which the subject--matter has been preserved with all its twentyfour Adhikaras, in the Satkhandāgama, was one of the 280 Pahudas included in the second Puvva Aggeniyam Similarly, the Kasāya-Pāhua of Gunadharacarya is hased upon one of the Pahudus included in the fifth Puvva Ņānapavāda. Nothing corresponding to these portions in age and subject-matter is yet found in the Svetambara literature.
5. Subject-matter, language and style. This volume is entirely devoted to the specification of the various soul qualities under different stages of spiritual advancement and under various conditions of life and existence, which have already been lealt with, in a general way, in the first volume. It is entirely the work of the commentator Virasena who takes his stand upon the foregone Sutras; but the idea of the twenty categories that form the basis of his treatment here is borrowed from elsewhere. He starts by quoting an old verse which names the twenty categories. The earliest work where we find the treatment of the subject under the same twenty categories is the Tiloya--paņnatti. It is, however, still a matter for investigation as to who started the idea of the twenty categories first.
We have tabulated the numerical specifications on each page in order to show the subject at a glance and facilitate reference, and the number of tables is in all 546. The various divisions and subdivisions leading to this high number would become clear by a glance at the table of contents.
The language is throughout Prakrit except for a few Sanskrit passages in the beginning, and by the very nature of the subject matter which consists mostly of enumeration, the style is very indifferent to grammatical forms. In the enumerations
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
(vi)
of the soul-qualities words have frequently been used without inflections. In fact, abbreviated forms with dots are also met with all over in the Mss. But since the Mss, used by us were not uniform on the point, we preferred to give the fuller forms, and have also taken the liberty to complete the enumerations where omissions in the Mss. were obvious But we have not attempted to make the words inflected for fear of changing the entire character of the author'a style which is so natural in its own way under the circumstances.
The number of older verses found quoted in this volume is thirteen, all in Prakrit. One of them (No. 228, on page 788 ) is said to have been taken from Pindia 'a work which is otherwise unknown.
As before, I have, in this brief survey, avoided details which the interested reader would find in the Hindi translation.
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
१ ताडपत्रीय प्रतिके लेखनकालका निर्णय
सत्प्ररूपणाके अन्तकी प्रशस्ति धवल सिद्धान्तकी प्राप्त हस्तलिखित प्रतियोंमें सत्प्ररूपणा विवरणके अन्तमें निम्न कनाड़ी पाठ पाया जाता है
संततशांतभावनदः पावनभोगनियोग वाकांतेय चित्तवृत्तियलविं नललंदनं गरूपं तदिदं गर्ज परिपोगेज सोशतपद्मगंदिसिद्धांतमुनींद्रचन्द्रनुदयं बुधकरवषंडमंडनं मंतणमेणोसुद्गुणगणक भेदवृद्धि अनन्तनोन्त वाक्कांतेय चित्तवल्लीय पदर्पिण 'दर्पबुधालि हृत्सरोजांतररागरंजितदिनं कुलभूषण "दिव्यसैद्धान्तमुनींद्रनुज्वलयशोजंगमतीर्थमलरु संततकालकायमतिसच्चरितं दिनदि दिनक्के वीर्य तउतिईदुश्य वियमइममेयो लांतवविट्ठमोहदाहं तवे कंतु मुन्तुगिदे सच्चरित कुलचन्द्रदेवसैद्धान्तमनीन्द्ररूर्जितयशोज्वलजंगमतीर्थ
मल्लरू"
मैंने यह कनाड़ी पाठ अपने सहयोगी मित्र डाक्टर ए. एन्. उपाध्याय प्रोफेसर राजाराम कालेज कोल्हापुर, जिनकी मातृभाषा भी कनाड़ी है, के पास संशोधनार्थ भेजा था। उन्होंने यह कार्य अपने कालेजके कनाड़ी भाषाके प्रोफेसर श्री. के. जी. कुंदनगार महोदयके द्वारा करा कर मेरे पास भेजनेकी कृपा की । इसप्रकार जो संशोधित कनाड़ी पाठ और उसका अनुवाद मुझे प्राप्त हुआ, वह निम्न प्रकार है । पाठक देखेंगे कि उक्त पाठ परसे निम्न कनाड़ी पद्य सुसंशोधितकर निकालनेमें संशोधकोंने कितना अधिक परिश्रम किया है ।
संततशांतभावनेय पावनभोगनियोग (वाणि) वाकांतेय चित्तवृत्तियोलविं नल (विं गड मोहनां) गरूपं तळेदं गडं प्रचुरपंकजशोभितपद्मणंदिसिद्धान्तमुनीन्द्रचंद्रनुदयं बुधकैरवर्षडमंडनम् ॥१॥
मंत्रणमोक्षसद्गुणगणाब्धिय वृद्धिगे चंद्रनंते वाकांतेय चित्तवल्लिपदपंकजप्तबुधालिहृत्सरोजांतररागरंजितमनं कुलभषणदिव्यसेव्यसैद्धांतमुनीन्द्ररूर्जितयशोज्वलजंगमर्थिकल्परु ॥२॥
१ प्राप्त प्रतियोंमें इस प्रशस्तिमें अनेक पाठभेद पाये जाते हैं। यहाँ पर सहारनपुरकी प्रतिके अनुसार पाठ रखा गया है जिसका मिलान हमें वीरसेवा मंदिरके अधिष्ठाता पं. जुगलकिशोरजी मुख्तारके द्वारा प्राप्त हो सका । केवल हमारी अ. प्रतिमें जो अधिक पाठ पाये जाते हैं वे टिप्पणमें दिये गये हैं। २ अनन्तज्वनोन्त । ३ पदप्पिणनदर्प। ४ प्रहृत् । ५ दिव्यसेव्य । ६ तीर्थदमयस्स्र्थे । ७ महरूहरू।
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
षट्खंडागमकी प्रस्तावना
संततकालकायमतिसच्चरितं दिनदिं दिनके वीये तळेदंदु मिक नियमंगळनांतुविवेकबोधदाहं तवे कंतु मम्युगिदे सचरितं कुलचन्द्रदेवसै
द्वांतमुनीन्द्ररूर्जितयशोज्वलजंगमतीर्थरुद्भवम् ॥ ३ ॥ इसका हिन्दीमें सारानुवाद हम इसप्रकार करते हैं
श्रीपअनन्दि सिद्धान्तमुनीन्द्ररूपी चन्द्रमाका उदय विद्वद्गणरूपी कुमुदिनी समूहका मंडन था। वे प्रफुल्ल कमलके समान सुशोभित थे, तथा उनके मनमें निरंतर शान्त भावना और पावन सुख-भोगमें निमग्न सरस्वती देवीका निवास होनेसे वे सहज ही सुंदर शरीरके अधिकारी हो गये थे।
वे दिव्य और सेव्य कुलभूषण सिद्धान्तमुनीन्द्र अपने ऊर्जित यशसे उज्वल होनेके कारण जंगम तीर्थके समान थे। मंत्रण, मोक्ष और सद्गुणोंके समुद्रको बढ़ानेमें वे चन्द्रके समान थे, तथा सरस्वती देवीके चित्तरूपी वल्लीके पदपंकज (के निवास ) से गर्वयुक्त विद्वत्समुदायके हृदयकमलके अंतर रागसे उनका मन रंजायमान था ।
ऊर्जित यशसे उज्वल कुलचन्द्र सैद्धान्तमुनीन्द्रका उद्भव जंगमतीर्थके समान था। निरन्तर कालमें काय और मनसे सच्चारित्रवान् , दिनोंदिन शक्तिमान् और नियमवान् होते हुए उन्होंने विवेकबुद्धिद्वारा ज्ञान-दोहन करके कामदेवको दूर रखा। यह सच्चारित्र ही कामदेवके क्रोधसे वचनेका एकमात्र मार्ग है ।
इसप्रकार इन तीन कनाड़ी पद्योंकी प्रशस्तिमें क्रमशः पद्मनन्दि सिद्धान्तमुनीन्द्र, कुलभूषण सिद्धान्तमुनीन्द्र और कुलचन्द्र सिद्धान्तमुनीन्द्रकी विद्वत्ता, बुद्धि और चारित्रकी प्रशंसा की गई है । पर उनसे उनके परस्पर सम्बन्ध, समय व धवलग्रंथ या उसकी प्रतिसे किसी प्रकारके सम्बन्धका कोई ज्ञान नहीं होता । अतएव इन बातोंकी जानकारीके लिए अन्यत्र खोज करना भावश्यक प्रतीत हुआ।
श्रवणवेल्गुलके अनेक शिलालेखोंमें पद्मनन्दि मुनिके उल्लेख आये हैं। पर सब जगह एक ही पअनन्दिसे तात्पर्य नहीं है । उन लेखोंसे ज्ञात होता है कि भिन्न भिन्न कालमें पानन्दि नाम व उपाधिधारी अनेक मुनि आचार्य हुए हैं। किन्तु लेख नं. १० (६४ ) में हमारे प्रस्तुत पअनन्दिसे अभिप्राय रखनेवाला उल्लेख ज्ञात होता है, क्योंकि, उसमें पमनन्दि सैद्धान्तिकके
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्प्ररूपणाके अन्तकी प्रशस्ति शिष्य कुलभूषण और उनके शिष्य कुलचन्दका भी उल्लेख पाया जाता है। वह उल्लेख इसप्रकार हैं
अविद्धकर्णादिकपद्मनन्दी सैद्धान्तिकाख्योऽजनि यस्य लोके । कौमारदेवव्रतिताप्रसिद्धिर्जीयात्त सो ज्ञाननिधिः सधीरः ॥
तच्छिष्यः कुलभूषणाख्ययतिपश्चारित्रवारनिधिस्सिद्धान्ताम्बुधिपारगो नतविनेयस्तत्सधर्मो महान् । शब्दाम्भोरुहभास्करः प्रथिततर्कग्रंथकारः प्रभाचन्द्राख्यो मुनिराजपंडितवरः श्रीकुण्डकुन्दान्वयः॥ तस्य श्रीकुलभूषगाख्यसुमुनेश्शिष्यो विनेयस्तुत
स्सद्वृत्तः कुलचन्द्रदेवमुनिपस्सिद्धान्तविद्यानिधिः । यहां पद्मनन्दि, कलभूषण और कुलचन्द्र के बीच गुरु शिष्य-परम्पराका स्पष्ट उल्लेख है । पद्मनन्दिको सैद्धान्तिक ज्ञाननिधि और सधीर कहा है। कुलभूषणको चारित्रवारांनिधिः और सिद्धान्ताम्बुधिपारग, तथा कुलचन्द्रको विनेय, सद्वृत्त और सिद्धान्तविद्यानिधि कहा है। इस परम्परा और इन विशेषणोंसे उनके धवला-प्रतिके अन्तर्गत प्रशस्तिमें उल्लिखित मुनियोंसे अभिन होनेमें कोई सन्देह नहीं रहता। शिलालेखद्वारा पद्मनन्दिके गुणोंमें इतना और विशेष जाना जाता है कि वे अविद्धकर्ण थे अर्थात् कर्णच्छेदन संस्कार होनेसे पूर्व ही बहुत बालपनमें वे दीक्षित होगये थे और इसलिए कौमारदेवव्रती भी कहलाते थे । तथा यह भी जाना जाता है कि उनके एक और शिष्य प्रभाचन्द्र थे, जो शब्दाम्भोरुहभास्कर और प्रथित तर्कग्रन्थकार थे।
इसी शिलालेखसे इन मुनियोंके संघ व गण तथा आगे पीछेकी कुछ और गुरु-परम्पराको भी ज्ञान हो जाता है । लेखों गौतमादि, भद्रबाहु और उनके शिष्य चन्द्रगुप्तके पश्चात् उसी अन्वयमें हुए पद्मनन्दि, कुन्दकुन्द, उमास्वाति गृद्धपिच्छ, उनके शिष्य बलाकपिच्छ, उसी आचार्य परम्परामें समन्तभद्र, फिर देवनन्दि जिनेन्द्रबुद्धि पूज्यपाद और फिर अकलंकके उल्लेखके पश्चात् कहा गया है कि उक्त मुनीन्द्र सन्ततिके उत्पन्न करनेवाले मूलसंघमें फिर नन्दिगण और उसमें देशीगण नामका प्रभेद हो गया। इस गणमें गोल्लाचार्य नामके प्रसिद्ध मुनि हुए । ये गोल्लदेशके अधिपति थे । किन्तु, किसी कारण वश संसारसे भयभीत होकर उन्होंने दीक्षा धारण करली थी। उनके शिष्य श्रीमत् त्रैकाल्ययोगी हुए और उनके शिष्य हुए उपर्युक्त अविद्धकर्ण पमनन्दि सैदान्तिक कौमारदेव, जो इसप्रकार मूलसंघ नन्दिगणान्तर्गत देशीगणके सिद्ध होते हैं।
लेखमें पद्मनन्दि, कुलभूषण और कुलचन्द्रसे आगेकी परम्पराका वर्णन इसप्रकार दिया गया है:
कुलचन्द्रदेवके शिष्य माघनन्दि मुनि हुए, जिन्होंने कोल्लापुर (कोल्हापुर) में तीर्थ स्थापित किया। वे भी राद्धान्तार्णवपारगामी और चारित्नचक्रेश्वर थे, तथा उनके श्रावक शिष्य थे
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
षट्खंडागमकी प्रस्तावना सामन्त केदार नाकरस, सामन्त निम्बदेव और सामन्त कामदेव । माघनन्दिके शिष्य हुएगंडविमुक्तदेव, जिनके एक छात्र सेनापति भरत थे, व दूसरे शिष्य भानुकीर्ति और देवकीर्ति । गंडविमुक्तदेवके सधर्म भूतकीर्ति विद्यमुनि थे, जिन्होंने विद्वानोंको भी चमत्कृत करनेवाले अनुलोम-प्रतिलोम काव्य राघव-पांडवीयकी रचना करके निर्मल कीर्ति प्राप्त की थी और देवेन्द्र जैसे विपक्ष वादियोंको परास्त किया था। श्रुतकीर्तिकी प्रशंसाके ये दोनों पद्य कनाड़ी काव्य पम्परामायणमें भी पाये जाते हैं। विपक्ष सैद्धान्तिकसे संभव है उन्हीं देवेन्द्रसे तात्पर्य हो, जिनके विषयमें श्वेताम्बर ग्रन्थ प्रभावकचरितमें कहा गया है कि उन्होंने वि० सं० ११८१ में दि० आचार्य कुमुदचन्द्रको वाद में परास्त किया था। इन्हींके अग्रज ( सधर्म ) थे कनकनन्दि और देवचन्द्र । कनकनन्दिने बौद्ध, चार्वाक और मीमांसकों को परास्त किया था, और देवचन्द्र भट्टारकोंके अग्रणी तथा वेताल झोटिंग आदि भूत पिशाचोंको वशीभूत करनेवाले बड़े मंत्रवादी थे। उनके अन्य सधर्म थे माघनन्दि त्रैविद्यदेव, देवकीर्ति पंडितदेवके शिष्य शुभचन्द्र विद्यदेव, गंडविमुक्त वादिचतुर्मुख रामचन्द्र विद्यदेव और वादिवज्रांकुश अकलंक त्रैविद्यदेव । गंडविमुक्तदेवके अन्य श्रावक शिष्य थे माणिक्य भंडारी मरियाने दंडनायक, महाप्रधान सर्वाधिकारी ज्येष्ठ दंडनायक भरतिमय्य हेगडे बूचिमय्यंगलु और जगदेकदानी हेगडे कोरय्य।
इन उल्लेखोंसे हमें पद्मनन्दि कुलभूषणके संघ व गणके अतिरिक्त उनकी पूर्वापर सुविख्यात, विचक्षण और प्रभावशाली गुरुपरम्पराका अच्छा ज्ञान हो जाता है । तथा, जो और भी विशेष बात ज्ञात होती है, वह यह कि, हमारे पद्मनन्दिके एक और शिष्य तथा कुलभूषण सिद्धान्तमुनिके सधर्म जो प्रभाचन्द्र ‘शब्दाम्भोरुहभास्कर ' और प्रथित-तर्कग्रन्थकार' पदोंसे विभूषित किये गए हैं; वे संभवतः अन्य नहीं, हमारे सुप्रसिद्ध तर्कग्रन्थ प्रमेयकमलमार्तण्ड और
न्यायकुमुदचन्द्रके कर्ता प्रभाचन्द्राचार्य ही हों। ... यह गुरु परम्परा इस प्रकार पाई जाती है: -
गौतमादि (उनकी सन्तानमें)
भद्रबाहु
चन्द्रगुप्त (उनके अन्वयमें) पद्मनन्दि कुन्दकुन्द (उनके अन्वयमें)
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्प्ररूपणाके अन्तकी प्रशस्ति उमास्वाति गृद्धपिच्छ
बलाकपिच्छ (उनकी परम्परामें)
समन्तभद्र (उनके पश्चात् ) देवनन्दि, जिनेन्द्रबुद्धि पूज्यपाद ( उनके पश्चात् )
अकलंक ( उनके पश्चात् मूलसंघ, नन्दिगणके देशीगणमें)
गोल्लाचार्य त्रैकाल्य योगी पद्मनन्दि कौमारदेव
कुलभूषण
प्रभाचन्द्र
कुलचन्द्र माघनन्दिमुनि ( कोल्लापुरीय )
गंडविमुक्तदेव, श्रुतकीर्ति कनकनन्दि देवचंद्र, माघनन्दि
विद्यदेव, देवकीर्ति पं. दे. के शिष्य भानुकीर्ति
देवकीर्ति शुभचंद्र त्रै. दे., रामचंद्र न. देव. अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि उक्त पद्मनन्दि आदि आचार्य किस कालमें उत्पन्न हुए ! जिस उपर्युक्त शिलालेखमें उनका उल्लेख आया है, उसमें भी समयका उल्लेख कुछ नहीं पाया जाता । किन्तु वहां उस लेखका यह प्रयोजन अवश्य बतलाया गया है कि महामंडलाचार्य देवकीर्ति पंडितदेवने कोल्लापुरकी रूपनारायण वसदिके अधीन केल्लंगेरेय प्रतापपुरका पुनरुद्धार कराया था, तथा, जिननाथपुरमें एक दानशाला स्थापित की थी। उन्हीं अपने गुरुकी परोक्ष विनयके लिए महाप्रधान सर्वाधिकारी हिरिय भंडारी अभिनव-गंग-दंडनायक श्री हुल्लराजने उनकी निषद्या निर्माण कराई । तथा गुरुके अन्य शिष्य लक्खनंदि, माधव और त्रिभुवनदेवने महादान व पूजाभिषेक करके प्रतिष्ठा की। हुल्लराज अपरनाम हुल्लप वाजिवंशके यक्षराज और
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
षट्खंडागमकी प्रस्तावना
लोकाम्बिकाके पुत्र तथा यदुवंशी राजा नारसिंहके मंत्री कहे गए हैं। इन यादव व होय्सलवंशीय राजा नारसिंह तथा उनके मंत्री हुल्लराज या हुल्लपका उल्लेख अन्य अनेक शिलालेखोंमें भी पाया जाता है, जिनसे उनकी जैनधर्म में श्रद्धाका अच्छा परिचय मिलता है। (देखो जैन शिलालेख संग्रह, भू. पृ. ९४ आदि) । पर उक्त विषय पर प्रकाश डालनेवाला शिलालेख नं० ३९ है जिसमें देवकीर्तिकी प्रशस्तिके अतिरिक्त उनके स्वर्गवासका समय शक १०८५ सुभानु संवत्सर आषाढ़ शुक्ल ९ बुधवार सूर्योदयकाल बतलाया गया है, और कहा गया है कि उनके शिष्य लक्खनंदि, माधवचन्द्र और त्रिभुवनमल्लने गुरुभक्तिसे उनकी निषद्याकी प्रतिष्ठा कराई ।
देवकीर्ति पद्मनन्दिसे पांच पीढी, कुलभूषणसे चार और कुलचन्द्रसे तीन पीढी पश्चात् हुए हैं । अतः इन आचायोंको उक्त समयसे १००-१२५ वर्ष अर्थात् शक ९५० के लगभग हुए मानना अनुचित न होगा । न्यायकुमुदचन्द्रकी प्रस्तावनाके विद्वान् लेखकने अत्यन्त परिश्रमपूर्वक उस ग्रन्यके कर्ता प्रभाचन्द्र के समयकी सीमा ईस्वी सन ९५० और १०२३ अर्थात् शक ८७२
और ९४५ के बीच निर्धारित की है । और, जैसा ऊपर कहा जा चुका है, ये प्रभाचन्द्र वे ही प्रतीत होते हैं जो लेख नं० ४० में पद्मनन्दिके शिष्य और कुलभूषणके सधर्म कहे गए हैं। इससे भी उपर्युक्त कालनिर्णयकी पुष्टि होती है। उक्त आचार्योंके कालनिर्णयमें सहायक एक और प्रमाण मिलता है । कुलचन्द्रमुनि के उत्तराधिकारी माघनन्दि कोल्लापुरीय कहे गये हैं। उनके एक गृहस्थ शिष्य निम्बदेव सामन्त का उल्लेख मिलता है जो शिलाहार नरेश गंडरादित्यदेवके एक सामन्त थे। शिलाहार गंडरादित्यदेवके उल्लेख शक सं. १०३० से १०५८ तक के लेखों में पाये जाते हैं । इससे भी पूर्वोक्त कालनिर्णयकी पुष्टि होती है।
पद्मनन्दि आदि आचार्योंकी प्रशस्तिके सम्बन्धमें अब केवल एक ही प्रश्न रह जाता है, और वह यह कि उसका धवलाकी प्रतिमें दिये जानेका अभिप्राय क्या है ? इसमें तो संदेह नहीं कि वे पद्य मुडविद्रीकी ताडपत्रीय प्रतिमें हैं और उन्हींपरसे प्रचलित प्रतिलिपियोंमें आये हैं। पर वे धवलाके मूल अंश या धवलाकारके लिखे हुए तो हो ही नहीं सकते। अतः यही अनुमान होता है कि वे उस ताड़पत्रवाली प्रतिके लिखे जानेके समय या उससे भी पूर्वकी जिस प्रति परसे वह लिखी गई होगी उसके लिखनेके समय प्रक्षिप्त किये गये होंगे । संभवतः कुलभूषण या कुलचन्द्र सिद्धान्तमुनिकी देख-रेखमें ही वह प्रतिलिपि की गई होगी। यदि विद्यमान ताडपत्र की प्रति लिखनेके समय ही वे पद्य डाले गये हों, तो कहना पड़ेगा कि वह प्रति शककी दशवीं
१. जैन शिलालेखसंग्रह, लेख में. ४.
2. Sukrabara Basti Inscription of Kolhapur, in Graham's Statistical Report on Kolhapur.
न्यायकुमुदचन्द्र, भूमिका पृ. ११४ आदि.
www.jainelit
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
धवलाके अन्तकी प्रशस्ति शताब्दिके मध्य भागके लगभग लिखी गई है। इन्हीं प्रतियोंमेंसे कहीं एक और कहीं दोके प्रशस्त्यात्मक पद्य धवलाकी प्रतिमें और भी बीच बीचमें पाये जाते हैं जिनका परिचय व संग्रह आगे यथावसर देनेका प्रयत्न किया जायगा ।
धवलाके अन्तकी प्रशस्ति मूडबिद्रीकी ताडपत्रीय प्रतिके प्रसंगमें हमारी दृष्टि स्वभावतः धवलाकी प्राप्त प्रतियों के अन्तम पायी जानेवाली प्रशस्ति पर जाती है । धवलाके अन्तमें धवलाकार वीरसेनाचार्यसे सम्बंध रखनेवाली वे नौ गाथाएं पाई जाती हैं जिनको हम प्रथम भागमें प्रकाशित कर चुके हैं। उन गाथाओंके पश्चात् निम्न लम्बी प्रशस्ति पाई जाती है, जिसके कनाड़ी अंश पूर्वोक्त प्रो. कुंदनगार व प्रो. उपाध्याय द्वारा बड़े परिश्रमसे संशोधित किये गये हैं ।
शब्दब्रह्मेति शाब्दैर्गणधरमुनिरित्येव राद्धान्तविद्भिः, साक्षात्सर्वज्ञ एवेत्यभिहितमतिभिः सूक्ष्मवस्तुप्रणीतः । यो दृष्टो विश्वविद्यानिधिरित जगति प्राप्तभट्टारकाख्या, स श्रीमान् वीरसेनो जयति परमतवान्तभित्तन्त्रकारः ॥ १ ॥
श्रीचारित्रसमृद्धिमिक्वविजयश्रीकर्मविच्छित्तिपूर्वकं ज्ञानावरणीयमूलनिर्नाशनं भूचक्रेशं बेसकेय्ये संदर्भमुनिवृन्दाधीश्वरकुन्दकुन्दाचार्यतधैर्य [गर्यतेयिने (१)] नाचार्यरोळ्वर्यरु जितमदविनिर्गतमलर्चतुरंगुलचारणद्धिनिरतर्गणधर [रैरेकैतिगे (2) ] गुणगणधरर् यतिपतिगणधररेनिसिद कुंदकुन्दाचार्यर् । अवरन्वयदोळ् सिद्धान्तविदाकरणवेदिगळ् षट्तप्रवणर्द्धिसिद्धिसंजुत्तपारस्तुतरप्प गृथपिच्छाचार्यधैर्यपर.गर्दगांभीर्यगुणोदधिगळुचितशमदमयमतात्पर्यरेने गृद्धपिच्छाचार्यर शिष्यर्बलाकपिच्छाचार्यगुणनन्दिपंडितनिजगुणनन्दिपंडितजनंगळं मेश्चिसि मैगुणद पेसरेसेये विद्वद्गगतिलकर्सकलमुनीन्द्रशिष्यपदार्थदोळर्थशास्त्रदोळु जिनागमदोळु तंत्रदोळु महाचरितपुराणसंततिगळोळ् परमागमदोळ् पेरर्सम दोरे सरि पाटिपासटि समानमेनल् कृतविद्यरारेनुत्तिरे बुधकोटिसंदर्भवीतळदोळु । गुणनन्दिपण्डितशिष्यार्वहितविदर्गे सूनुर्वराशिष्यरोळ तपश्चरणसिद्धान्तपारायणरेणिकेगोळकदिर्वर्तपोविच्छिन्नानंगरेबी महिमेयिनेसदेवाधियेंतंतदारस्वच्छर्दिनकरकिरणमे बेळगे देवेन्द्रसिद्धान्तरु ॥ अन्तुनेगर्तेवेत्तवर शिष्यकदम्बकदोळ् समस्तसिद्धान्तमहापयोनिधियेनिसि तडंबरेगं तपोबलाक्रान्तमनोजरागि मदवर्जितरागि पोगतेवेत्तराशांतं नेगर्द कीर्ति वसुनन्दिमुनीन्द्ररुदात्तवृत्तियिनुदधिगे कलाधरं पुट्टिदनेन्तवर्गे शिष्यरादर् गुणदोळेदडे रविचंद्रसिद्धांतदेवरेंबर् जगद्विशेषकचरितर् । अंतु दयावनीधरकृतोदयनादशशांकनिंदे शार्वरि' गित्तु धरातलमं मत्ते दुर्णयध्वान्तविद्यातमागिरे तदुरि सले पूर्णचन्द्रसिद्धान्तमुनीन्द्र निगदितान्तप्रतिशासनम् जैनशासनम् ।।
१ अ. प्रतिमें 'शार्वरिकपराधिगितु ' ऐसा पाठ है ।
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
षट्खंडागमकी प्रस्तावना इन्दु शरदद बेळ् दिंगळ् पुदिदुदु देसेदेसेयोळेनिप जसदोळ्पं साळिद दामनन्दिसिद्धान्तदेवरवरग्रशिष्यरधिगततस्वर ।
शान्ततेवेत्तचित्त जनोळाद विरोधमिदेत्त ? निस्पृहर । स्वांततेवेत्तकांक्षे परमार्थदोलिंतु नेग ळते वेत्तिदा ॥ नींतन [रिन्मरा (2)] रेने [जन्य ?] जिनेन्द्रवीरनन्दिसिद्धान्तमुनीन्द्ररें सुचरितक्रमदोळू विपरीत वृत्तरो॥ बोधितभव्यरचित-वर्धमान श्रीधरदेवरेंबर वर्गग्रतनूभवरादरा...। श्रीधरर्गादशिष्यरवरोळनेगळ्दर मलधारिदेवरु श्रीधरदेवलं ॥ नतनरेन्द्र किरीटतदार्चितक्रार अनुवशनागि बर्पनेनगंबुरुहोदरनोंदे पूविनं । बिनोळे बसक्के बंदने भवं जलजासननेत्रमीनके ॥ तन मनक...............' करीन्द्रमदोद्धत नप्प चित्तज-।
न्मनेनल [दोरलन्मने ? ] नेमिचन्द्रर्मलधारिदेव [रंतेरेयेन ?] ॥ श्रुतधर [वलित्तिने ?] मेय्यनोमयुं तुरिसुवुदिल्ल निद्देवरेमर्गुलनिकुबुदिल्ल वागिलं किरुतेरे युवुदिल्ल गुर्वदिल्ल (महेन्द्रनु) नेरे [ओण ? ] बण्णिसल् गुणगणावलियं मलधारिदेवरं ॥
आमलधारिदेवमुनिमुख्यर शिष्यरोळग्रगण्यरुर्विमाहित [पायगुर्व ? ] जितकषायक्रोध' लोभमानमायामदवर्जितर्नेगर्दरिन्दुमरीचिगळंद्र (दि ? ) यशः श्री नेमिचन्द्रकीर्तिमुनिनाथरुदात्तचरित्रवृत्तियिं ॥ मलधारिदेवरिंदं । बेळागिदुदु जिनेन्द्रशासनं मुन्नं निर्मलमागि मत्तमीगळ् । बेळगिदपुदु चन्द्रकीर्तिभट्टारकरिं॥
बेळगुव कीर्तिचंद्रिके मृदूक्तिसुधारसपूर्णमूर्तयो बूबेळेदमलं पोदर्द सितलांछनमागिरे चन्द्रनंदमं ।। तळेद जनं मनंगोळे दिगंतर............विकसितो
ज्वलशुभचन्द्रकीर्तिमुनिनाथरिदं विबुधाभिवंद्यरो ॥ (पयितुं ? ) प्रसरकिरणारातीयचन्द्रकीर्तिमुनींद्रराशांतवर्तितकीर्तिगळ् मुनिवृन्दवंदितरादरा. शांतचित्तर शिष्यरादर्दिवाकरणंदिसिद्धान्तदेवरिदें जिनागमवार्धिपारगरादरो । इदावुदरिदेदिळिकेदु सिद्धान्तवारिधिय तळदेवंदरेंदोडानेन्सुलिसुवेनेनळ् दिवाकरणदिसिद्धांतदेवराखिलागममक्तरमार्गमंतिमसुधांबुप्रचुरपूरनिकरं व्याख्यानघोषं मरुञ्चलितोत्तुंगतरंगघोषमेने मिकौदार्यदि दोषनिर्मलधर्मामृतदिनलंकरिसे गंभीरत्वमं ताळि भूवलयके पवित्ररागि नेगळ्दरा सिद्धान्तरत्नाकरर ॥ अवरग्रशिष्यर
मरेदुमदोम्भे लौकिकदवार्तेयनाडद केत्तबागिलं । तेरेयद भानुवस्तमितभागिरेपोगद मेय्यनोम्मेयं ॥ तुरिसदकुक्कुटासनके सोलद गंडविमुक्तवृत्तियं । मरेयदघोरदुश्चरतपश्चरितं मळधारिदेवर ॥ अवरमशिष्यर
श्रीदः श्रीगणवार्धिवर्धनकरश्चन्द्रावदातोल्वणः स्थेयान् श्रीमलधारिदेवयमिनः पुत्रः पवित्रो भुवि ।
१ अ. प्रतिमें यहाँ ' तत्तदेवप्रकर' ऐसा पाठ है । २ स. प्रतिमें ' गुर्वजितकषायक्रोध ' इतना पाठ नहीं है।
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
धवलाके अन्तकी प्रशस्ति
सद्धमैकशिखामणिर्जिनपतेर्भव्यैकचिन्तामणिः स श्रीमान् शुभचन्द्रदेवमुनिपः सिद्धान्तविद्यानिधिः॥॥
२ शब्दाधिष्ठितभूतले परिलसत्सार्कोल्लसस्तंभके (1) साहित्यस्यधिकाश्मभित्तिचिते (१) ज्योतिर्मये मंडले। सद्रत्नत्रयमूलरत्नकलशे स्याद्वादहवें मदा, यो (2) देवेन्द्रसुरार्चितैर्दिविषदैस्सनिर्विरेजुस्तु (1) तत् ॥ २॥
देवेन्द्र सिद्धान्तमुनीन्द्रपादपंकेज,गः शुभचन्द्रदेवः । यदीयनामापि विनेयचेतोजातं तमो हर्तुमलं समर्थः॥३॥
परमजिनेश्वरविरचितवरसिद्धान्ताम्बुराशिपारगरेंदी । घरे बणिसुगुं गुणगणधररं शुभचन्द्रदेवसिद्धान्तिकरं ॥४॥
श्रीमजिनेन्द्रपदपद्मपरागतुङ्गः श्रीजैनशासनसमुद्तवार्षिचन्द्रः। सिद्धान्तशास्त्रविहितावितदिव्यवाणी धर्मप्रबोधमुकुरः शुभचन्द्रसरिः॥५॥
चित्तोद्भतमदेभकन्ददलनप्रोत्कण्ठकण्ठीरवो भव्याम्भोजकुलप्रबोधनकृते विद्वज्जनानन्दकृत् । स्थेयात्कुन्दहिमेन्दुनिर्मलयशोवल्लीसमालम्बनः स्तम्भः श्रीशुभचन्द्रदेवमुनिपः सिद्धान्तरत्नाकरः॥॥
कुवलयकुलबन्धुध्वस्तमीहातमिस्त्रे विकसितमुनितत्त्वे सजनानन्दवृत्ते। विदितविमलनानासत्कलान्विद्धमूर्तिः शुभमतिशुभचन्द्रो राजवराजतेऽयम् ॥ .॥
दिग्दतिदन्तान्तरवर्शिकीर्चिः रत्नत्रयालंकृतचारुमूर्तिः । जीयाचिरं श्रीशुभचन्द्रदेवो भव्याब्जिनीराजितराजहंसः॥८॥
श्रीमान् भूपालमौलिस्फुरितमणिगणज्योतिरुयोतितांघ्रिः, भव्याम्भोजातजातप्रमदकरनिधिस्त्यक्तमायामयादिः। इयत्कन्दर्पदर्पप्रवलितगिलितस्वर्णितश्चार्यशस्यः, जीयाज्जैनाब्जभास्वाननुपमविनयो नोचसिद्धान्तदेवः (१)॥९॥
जीयादसावनुपमं शुभचन्द्रदेवो भावोद्भवोद्भवविनाशनमूलमंत्रः । निस्तन्द्रसान्द्रविबुधस्तुतिभूरिपात्रं त्रैलोक्यगेहमणिदीपसमानकीर्तिः ॥१०॥
११ मूर्तिश्शमस्य नियमस्य विनूतपात्रं क्षेत्रं श्रुतस्य यशसोऽनघजन्मभूमिः। भूविभुतश्रितवतासुरभोजकल्पानपायुधानिवसताच्छुभचन्द्रदेवः॥१६
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
षट्खंडागमकी प्रस्तावना
स्वस्ति श्रीसमस्तगुणगणालंकृत सत्यशौचाचारचारुचरित्रनयविनयशीलसंपन्नेयुं
विबुधप्रसन्नेयुं आहारा भय भैषज्यशास्त्रदान विनोदेयुं गुणगणा जिनस्तवनसमयसमुच्छलित दिव्यगन्धबन्धुरगंधोदकपवित्रगात्रेयुं गोत्रपवित्रेयुं सम्यक्त्वचूड़ामणियुं मण्डलिनादश्री भुजबल गंगपेर्माडिदेवर त्तेयस्मप रविदेवि (?) यक्कं श्रुतपंचमियं नों तुजवणेयानाडवन्निय केरे युत्तुंग चैत्यालय दाचार्यरुं भुवनविख्यातरुमेनिसिदतम्म गुरुगळु श्रीशुभचन्द्र सिद्धान्तदेवर्गे श्रुतपूजेयं माडि बरेथिसि कोट्ट धवलेयं पुस्तकं मंगलमहा ॥ श्रीकुपणं (कोपणं) प्रसिद्धपुरमापुरदोळगे वंशवार्धि शोभाकरमूर्जितं निखिलसाक्षरिकास्यविलासदर्पणं । नाकजनाथवंद्य जिनपादपयोरुह भृङ्गनेन्दु भूलोकमेदं वर्णिपुदु जिन्नमनं मनुनीतिमार्गनं । जिनपदपद्माराधकमनुपमविनयां बुराशि दान विनोदं मनुनीतिमार्गनसतीजनदूरं लौकिकार्थदानिगजिन्नम् । वारिनिधियोळगेमुत्तम् नेरिदुवं कोंडुकोरेदु वरुणं मुददिं भारतियकोरळोळि क्किदहारमननु करिसले सेवरेवों जिन्नम् ॥
यह प्रशस्ति बहुत अशुद्ध और संभवतः स्खलन प्रचुर है । इसमें गद्य और पद्य तथा संस्कृत और कनाड़ी दोनों पाये जाते हैं । विना मूडबिद्रीकी प्रतिके मिळान किये सर्वथा शुद्ध पाठ 1 तैयार करना असंभवसा प्रतीत होता है । लिपिकारोंने कहीं कहीं कनाडीको विना समझे संस्कृतरूप देनेका भी प्रयत्न किया जान पड़ता है जिससे बड़ी गड़बड़ी उत्पन्न होगई है । उदाहरणार्थ - कर्त्ता एक वचनका रूप कुन्दकुन्दाचार्यर् तृतीयामें परिवर्तित कुन्दकुन्दाचार्यैर् पाया जाता है । ऐसे स्थलोंको विद्वान् संशोधकोंने खूब संभाला है । पर कई स्खलनों की पूर्ति फिर भी नहीं की जा सकी, कनाड़ी पथ भी बहुत भ्रष्ट और गधके रूपमें परिवर्तित हो गये हैं जिनका अर्थ भी समझना कठिन हो गया है । तथापि उससे निम्न बातें स्पष्टतः समझमें आती हैं:
I
१. धवलाकी प्रति बन्नियकेरे चैत्यालयके सुप्रसिद्ध आचार्य शुभचन्द्र सिद्धान्तदेवको समर्पित की गई थी ।
२. शुभचन्द्रदेव देशीगणके थे और उनकी गुरुपरंपरा में उनसे पूर्व कुन्दकुन्द, गृद्धपिच्छ । बलाकपिच्छ, गुणनन्दि, देवेन्द्र, वसुनन्दि, रविचन्द्र, दामनन्दि, वीरनन्दि, श्रीधरदेव, मलधारिदेव, ( नेमि ) चन्द्रकीर्ति और दिवाकरनन्दि आचार्य हुए ।
३. पुस्तक समर्पण कार्य मंडलिनाडुके भुजबलगंगपेर्माडिदेवकी काकी देमियक्कने श्रुतपंचमी व्रत उद्यापन के समय किया था ।
शुभचन्द्रदेवकी उक्त गुरुपरंपरा परसे उनका पता लगाना सुलभ हो गया । उक्त परम्परा, एक दो नामोंके कुछ भेदके साथ प्रायः वही है, जो श्रवणबल्गुलके शिलालेख नं. ४३ ( ११७ ) में पाई जाती है । यही नहीं, किन्तु धवलाकी प्रशस्तिके तीन पद्य ज्योंके त्यों उक्त शिलालेख में भी पाये जाते हैं ( पद्य नं. १२, १३ और २१ ) । लेखमें शुभचन्द्रदेवके स्वर्गवासका समय निम्न प्रकार दिया गया है
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
धवलाके अन्तकी प्रशस्ति
वाणाम्भोधिनभश्शशांकतुलिते जाते शकाब्दे ततो वर्षे शोभकृताहये व्युपनते मासे पुनः श्रावणे । पक्षे कृष्णविपक्षवर्तिनि सिते वारे दशम्यां तिथी
स्वर्यातः शुभचन्द्रदेवगणभृत् सिद्धांतवारांनिधिः ॥ अर्थात् शुभचन्द्रदेवका स्वर्गवास शक संवत् १०४५ श्रावण शुक्ल १० दिन सितवार ( शुक्रवार ) को हुआ। उनकी निषद्या पोय्सल-नरेश विष्णुवर्धनके मंत्री गंगराजने निर्माण कराई थी।
शिमोगसे मिले हुए एक दूसरे शिलालेखमें बन्नियकेरे चैत्यालयके निर्माणका समय शक सं० १०३५ दिया हुआ है और उसमें मन्दिरके लिये भुजबलगंगाडिदेवद्वारा दिये गये दानका भी उल्लेख है । अन्तमें देशीगणके शुभचंद्रदेवकी प्रशंसा भी की गई है। (एपीग्राफिआ कर्नाटिका, जिल्द ८, लेख नं. ९७)
खोज करनेसे धवला प्रतिका दान करनेवाली श्राविका देमियकका पता भी श्रवणबेल्गुलके शिलालेखोंसे चल जाता है । लेख नं० ४६ में शुभचन्द्र मुनिकी जयकारके पश्चात् नागले माताकी सन्तति दंडनायकित्ति लक्कले, देमति और बूचिराजका उल्लेख है और बूचिराजकी प्रशंसाके पश्चात् कहा गया है कि वे शक १०३७ वैशाख सुदि १० आदित्यवारको सर्व परिग्रह त्याग पूर्वक स्वर्गवासी हुए और उन्हींकी स्मृतिमें सेनापति गंगने पाषाण स्तम्भ आरोपित कराया। लेखके अन्तमें ' मूलसंघ देशीगण पुस्तक गच्छके शुभचंद्र सिद्धान्तदेवके शिष्य बूचणकी निषद्या' ऐसा कहा गया है । इस लेखमें जो बूचणकी ज्येष्ठ भगिनी देमतिका उल्लेख आया है, उसका सविस्तर वर्णन लेख नं. ४९ (१२९) में पाया जाता है जो उनके संन्यासमरणकी प्रशस्ति है। यहां उनके नाम-देमति, देमवती, देवमती तथा दोबार देमियक दिये गये हैं और उन्हें मूलसंघ देशीगण पुस्तक गच्छके शुभचन्द्र सिद्धान्तदेवकी शिष्या तथा श्रेष्ठिराज चामुण्डकी पत्नी कहा है। उनकी धर्मबुद्धिकी प्रशंसा तो लेखमें खूब ही की गई है। उन्हें शासन देवताका आकार कहा है, तथा उनके आहार, अभय, औषध और शास्त्रदानकी स्तुति की गई है। उस लेखके कुछ पद्य इस प्रकार हैं:
आहारं ब्रिजगज नाय विभयं भीताय दिव्यौषधं, व्याधिव्यापदपेतदीनमुखिने श्रोत्रे च शास्त्रागमम् । एवं देवमतिस्सदेव ददती प्रप्रक्षये स्वायुषामहदेवमतिं विधाय विधिना दिव्या वधूः प्रोदभूत् ॥ ४ ॥
आसीत्परक्षोभकरप्रतापाशेषावनीपाल कृतादरस्य । चामुण्डनान्नो वणिजः प्रिया स्त्री मुख्या सती या भुवि देमतीति ॥ ५॥
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
षट्खंडागमकी प्रस्तावना
भूलोकचैत्यालयचैत्यपूजाब्यापारकृत्यादरतोऽवतीर्णा । स्वर्गात्सुरस्त्रीति विलोक्यमाना पुण्येन लावण्यगणेन यात्र ॥६॥
आहारशास्त्राभयभेषजानां दायिन्यलं वर्णचतुष्टयाय । पश्चात्समाधिक्रियया मृदन्ते स्वस्थानवत्स्वः प्रविवेश योच्चैः ॥७॥
सद्धर्मशत्रु कलिकालराज जित्वा व्यवस्थापितधर्मवृत्या।
तस्या जयस्तम्भनिभं शिलाया स्तम्भं व्यवस्थापयति स्म लक्ष्मीः॥८॥ लेखके अन्तमें उनके संन्यासविधिसे देहत्यागका उल्लेख इसप्रकार है
श्री मूलसंघद देशिगगणद पुस्तकगच्छद शुभचन्द्रसिद्धान्तदेवर् गुड्डि सक वर्ष १०४२ नेय विकारि संवत्सरद फाल्गुण ब. ११ बृहबार दन्दु संन्यासन विधियि देमियक मुडिपिदल ।
____ अर्थात् मूलसंघ, देशीगण, पुस्तकगच्छके शुभचन्द्रदेवकी शिष्या देमियक्कने शक १०४२ विकारिसंवत्सर फाल्गुन ब. ११ वृहस्पतिबारको संन्यासविधिसे शरीरत्याग किया।
उक्त परिचय परसे संभव तो यही जान पड़ता है कि धवलाकी प्रतिका दान करनेवाली धर्मिष्ठा साध्वी देमियक ये ही होंगी, जिन्होंने शक १०४२ में समाधिमरण किया। तथा उनके भतीजे भुजबलिX गंगाडिदेव जिनका धवलाकी प्रशस्तिमें उल्लेख है उनके भ्राता बूचिराजके ही सुपुत्र हों तो आश्चर्य नहीं । उस व्रतोद्यापनके समय बूचिराजका स्वर्गवास हो चुका होगा, इससे उनके पुत्रका उल्लेख किया गया है। यदि यह अनुमान ठीक हो तो धवलाकी प्रति जो संभवतः मूडबिद्रीकी वर्तमान ताडपत्रीय प्रति ही हो और जो शक ९५० के लगभग लिखाई गई थी, बूचिराजके स्वर्गवासके पश्चात् और देमियक्कके स्वर्गवासके पूर्व अर्थात् शक १०३७
और १०४२ के बीच शुभचन्द्रदेवके सुपुर्द की गई, ऐसा निष्कर्ष निकलता है। पर यह भी संभव है कि श्रीमती देमियक्कने पुरानी प्रतिकी नवीन लिपि कराकर शुभचंद्रको प्रदान की और उसमें पूर्व प्रतिके बीच-बीचके पद्य भी लेखकने कापी कर लिये हों।
प्रशस्तिके अन्तिम भागमें तीन कनाडीके पध हैं जिनमेंसे प्रथम पद्य 'श्री कुपणं' आदिमें कोपण नामके प्रसिद्ध पुरकी कीर्ति और शेष दो पद्यों में जिन्न नामके किसी श्रावकके यशका वर्णन किया गया है। कोपण प्राचीन कालमें जैनियोंका एक बड़ा तीर्थस्थान रहा है।
- भुजबलवीर होयसल नरेशोंकी उपाधि पाई जाती है। देखो शिलालेख नं० १३८, १४३, ४९१, ४९४,४९७.
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
धवलाके अन्तकी प्रशस्ति चामुंडराय पुराणके ' असिधारा व्रतदिदे' आदि एक पद्यसे अवगत होता है कि तत्कालीन जैनी कोपर्णमें सल्लेखना पूर्वक देहत्याग करना विशेष पुण्यप्रद मानते थे । श्रवणबेलगोलके अनेक लेखोंमें इस पुण्य भूमिका उल्लेख पाया जाता है । लेख नं० ४७ ( १२७ ) शक संवत् १०३७ का है। इसके एक पद्यमें कहा गया है कि सेनापति गंगने असंख्य जीर्ण जैनमंदिरोंका उद्धार कराकर तथा उत्तम पात्रोंको उदार दान देकर गंगवाडिदेश को 'कोपण' तीर्थ बना दिया। यथा
मत्तिन मातवन्तिरलि जीर्ण जिनाश्रयकोरिय क्रम बेत्तिरे मुन्निनन्तिरनितूगर्गलोलं नेरे माडिसुत्तमत्युचमपात्रदानदोदवं मेरेवुशिरे गणवाडितो
म्बचरु सासिरं कोपणमादुदु गङ्गणदण्डनाथनि ॥ ३९ ॥ इससे कोपण तीर्थकी भारी महिमाका परिचय मिलता है।
लगभग शक सं० १०८७ के लेख नं. १३७ ( ३४५) में हुल्ल सेनापतिद्वारा कोपण महातीर्थमें जैन मुनिसंघके निश्चिन्त अक्षय दानके लिये बहुत सुवर्ण व्ययसे खरीदकर एक क्षेत्रकी वृत्ति लगाई जानेका उल्लेख है । यथा
प्रियदिन्द हुलसेनापति कोपणमहातीर्थदोळधात्रियुवाद्धियमल्लनं चतुविंशति-जिन-मुनि संघक्के निश्चिन्तमाग क्षय दानं सल्व पाङ्गि बहु-कनक-मना-क्षेत्र-जिर्गतु सङ्क
त्तियनिन्तीलोक मेल्लम्पोगळे विडिसिदं पुण्यपुंजैकधामं ॥ २७ ॥ इससे ज्ञात होता है कि यहां मुनि आचायोंका अच्छा जुटाव रहा करता था और संभवतः कोई जैन शिक्षालय भी रहा होगा ।
लगभग १०५७ के लेख नं. १४४ (३८४) के एक पद्यम सेनापति एच द्वारा कोपण व अन्य तीर्थस्थानोंमें जिनमंदिर बनवाये जाने का उल्लेख है । यथा -
माडिसिदं जिनेन्द्रभवनङ्गलना कोपणादि तीर्थदळु रूढियिनेल्दो-वेसेसेव बेल्गोलदळु बहुचित्रभिसियं । नोडिदरं मनकोळि पुवेम्बिनमेच-चमूपनथि कै
गूडे धारित्रिकोण्डु कोनेदाडे जसम्नलिदाडे लीलेयिं ॥ १३ ॥ निजाम हैद्राबाद स्टेटके रायचूर जिलेमें एक कोप्पल नामका ग्राम है, यही प्राचीन कोपण सिद्ध होता है। वर्तमानमें वहां एक दुर्ग तथा चहार दीवाली है जो चालुक्य कालीन कलाके द्योतक समझे जाते हैं । इनके निर्माणमें प्राचीन जैन मंदिरोंके चित्रित पाषाण आदिका उपयोग दिखाई दे रहा है। एक जगह दीवालमें कोई बीस शिलालेखोंके टुकड़े चुने हुए पाये
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४
षट्खंडागमकी प्रस्तावना जाते हैं । इस स्थानपर व उसके आसपास कोई दस बीस कोसकी इर्दगिर्दमें अशोकके कालसे लगाकर इस तरफके अनेक लेख व अन्य प्राचीन स्मारक पाये जाते हैं ।
__कोपणके समीप ही पाल्कीगुण्डु नामक पहाड़ी पर, अशोकके शिलालेखके पास वरांगचरितके कर्ता जटासिंहनन्दि के चरणचिन्ह भी, पुरानी कन्नडमें लेखसहित, अंकित हैं। (वरांगचरित, भूमिका पृ. १७ आदि)
इसप्रकार यह स्थान बड़ा प्राचीन, इतिहास प्रसिद्ध और जैनधर्म के लिये बहुत महत्त्वपूर्ण रहा है ।
२. सत्प्ररूपणा विभाग षट्खंडागमकी पूर्व प्रकाशित प्रथम पुस्तक तथा अब प्रकाशित होनेवाली द्वितीय पुस्तकको हमने 'सत्प्ररूपणा' के नामसे प्रकट किया है। प्रथम जिल्दके प्रकाशित होनेपर शंका उठाई गई है कि उस ग्रंथको सत्प्ररूपणा न कहकर 'जीवस्थान-प्रथम अंश' ऐसा लिखना चाहिये था। इसके उन्होंने दो कारण बतलाये हैं । एक तो यह कि इस विभागके भीतर जो मंगलाचरण है वह केवल सत्प्ररूपणाका नहीं है बल्कि समस्त जीवस्थान खंडका है और दसरे यह कि इसके आदिमें जो विषय-विवरण पाया जाता है वह सत्प्ररूपणाके बाहरका है. सत्प्ररूपणाका अंग नहीं ४ । इन दोनों आपत्तियोंपर विचार करके भी हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि हमने जो इस विभागको 'जीवस्थानका प्रथम अंश' न कहकर 'सत्प्ररूपणा' कहा है वही ठीक है । इसके कारण निम्न प्रकार हैं
१. यह बात ठीक है कि आदिका मंगलाचरण केवल सत्प्ररूपणाका ही नहीं, किन्तु समस्त जीवस्थानका है । पर, अवान्तर विभागोंकी दृष्टिसे सत्प्ररूपणाके भीतर उसे लेनेसे भी यह समस्त जीवस्थानका बना रहता है । सब ग्रंथोंमें मंगलाचरणकी यही व्यवस्था पायी जाती है कि वह ग्रंथके आदिमें किया जाता है और जो भी खंड, स्कंध, सर्ग, अध्याय व विषयविभाग आदिमें हो उसीके अन्तर्गत किये जाने पर भी वह समस्त ग्रंथका समझा जाता है । समस्त ग्रंथपर उसका अधिकार प्रकट करनेके लिये उसका एक स्वतंत्र विभाग नहीं बनाया जाता । अतएव जीवस्थान ही क्यों, जहांतक ग्रन्थमें सूत्रकारकृत दूसरा मंगलाचरण न पाया जावे वहांतक उसी मंगलाचरणका अधिकार समझना चाहिये, चाहे विषयकी दृष्टि से ग्रंथमें कितने ही विभाग क्यों न पड़ गये हों। स्वयं धवलाकारने आगे वेदनाखंड व कृति अनुयोगद्वारके आदिमें आये हुए मंगलाचरणको शेष दोनों खंडों व तेवीस अधिकारोंका भी मंगलाचरण कहा है। यथा
* देखो जैनसि. भा. ५,२ पृ. ११० .x अनेकान्त, वर्ष २, किरण ३, पृ. २०१
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्गणाखंड-विचार
उवरि उच्चमाणेसु तिसु खंडेसु कस्सेदं मंगलं? तिण्णं खंडाणं । xxx कधं वेयणाए आदीए उत्तं मंगलं सेस-दो-खंडाण होदि? ण, कदीए आदिम्हि उत्तस्स एदस्स मंगलस्स सेस-तेवीस-अणि योगद्दारेसु पउत्ति-दसणादो ।
ऐसी अवस्थामें णमोकार मंत्ररूप मंगलाचरणके सत्प्ररूपणाके आदिमें होते हुए भी उसके समस्त जीवस्थानके मंगलाचरण समझे जानेमें कोई आपत्ति तो नहीं होना चाहिये ।।
२. यथार्थतः तो वह मंगलाचरण सत्प्ररूपणाका ही है । आचार्य पुष्पदन्तने उस मंगलाचरणको आदि लेकर सत्प्ररूपणा मात्रके ही सूत्रोंकी तो रचना की है। यदि हम इसे भूतबलि आचार्यकी आगेकी रचनासे पृथक् कर लें तो पुष्पदन्तकी रचना उस मंगलसूत्र सहित सत्प्ररूपणा ही तो कहलायगी । जीवस्थानका प्रथम अंश यही सत्प्ररूपणा ही तो है ।
३. यदि इस अंशको सत्प्ररूपणा न कह कर जीवस्थानका प्रथम अंश कहते तो पाठक उससे क्या समझते ? इस नामसे उसके विषय पर क्या प्रकाश पड़ता ? वह एक अज्ञात कुलशील और निरुपयोगी शीर्षक सिद्ध होता।
४. हमने जो ग्रंथका विषय-विभाग किया है वह मूलग्रन्थ पुप्पदन्त और भूतबलिकृत षट्खंडागमकी अपेक्षासे है, और उसमें सत्प्ररूपणासे पूर्व किसी और विषयविभागके लिये स्थान नहीं है । मंगलाचरणके पश्चात् छह सात सूत्रोंमें सत्प्ररूपणाका यथोचित स्थान और कार्य बतलानेके लिये चौदह जीवसमासों और आठ अनुयोगद्वारोंका उल्लेखमात्र करके सत्प्ररूपणाका विवेचन प्रारम्भ कर दिया गया है। धवलाटीकाके कर्ताने उन सूत्रोंकी व्याख्याके प्रसंगसे जीवस्थानकी उत्थानिकाका कुछ विस्तारसे वर्णन कर डाला तो इससे क्या उस विभागको सत्प्ररूपणासे अलग निर्दिष्ट करनेके लिये एक नये शीर्षककी आवश्यकता उत्पन्न होगई ? ऐसा हमें जान नहीं पड़ता । षट्खंडागमके भीतर जो सूत्रकारद्वारा निर्दिष्ट विषय विभाग हैं उन्हींके अनुसार विभाग रखना हमने उचित समझा है। धवलाकारने भी आदिसे लगाकर १७७ सत्रोंकी क्रमसंख्या लगातार रखी है और उनकी एक ही सिलसिलेसे टीका की है जिसे उन्होंने 'संतसुत्तविवरण ' कहा है जैसा कि प्रस्तुत भागके प्रारंभिक वाक्यसे स्पष्ट है । यथा'संपहि संत-सुत्त-विवरण-समत्ताणंतरं तेसिं परूवणं भणिस्सामो' ।
३. वर्गणाखंड-विचार षट्खंडागमके छह खंडोंका परिचय प्रथम जिल्दकी भूमिकामें कराया जा चुका है। वहां यह बतलाया गया है कि उन छह खंडोंमें से प्रथम पांच अर्थात् जीवट्ठाण, खुदाबंध, बंधसामित्तविचय, वेदणा और वग्गणा उपलब्ध धवलाकी प्रतियोंमें निबद्ध हैं तथा शेष छठवां अर्थात् महाबंध स्वतंत्र पुस्तकारूढ़ है, जिसकी प्रतिलिपि अभीतक मूडविद्री मठके बाहर उपलब्ध नहीं
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
"
१६
षट्खंडागमकी प्रस्तावना
है । इनमें से चार खंडों के सम्बधमें तो कोई मतभेद नहीं है, किन्तु वेदना और वर्गणा खंडकी सीमाओंके सम्बंध में एक शंका उत्पन्न की गई है जो यह है कि " धवलप्रंथ वेदना खंडके साथ ही समाप्त हो जाता है- वर्गणाखंड उसके साथमें लगा हुआ नहीं है "। इस मतकी पुष्टिमें जो युक्तियां दी गई हैं वे संक्षेपतः निम्न प्रकार हैं
१. जिस कम्मपयडिपाहुडके चौवीस अधिकारोंका पुष्पदन्त - भूतबलिने उद्धार किया है उसका दूसरा नाम ' वेयणकसिणपाहुड ' भी है जिससे उन २४ अधिकारोंका ' वेदनाखंड ' के ही अर्न्तगत होना सिद्ध होता है ।
२. चौवीस अनुयोगद्वारों में वर्गणा नामका कोई अनुयोगद्वार भी नहीं है । एक अवान्तर अनुयोगद्वारके भी अवान्तर भेदान्तर्गत संक्षिप्त वर्गणा प्ररूपणाको ' वर्गणाखंड ' कैसे कहा जा सकता है !
३. वेदनाखंडके आदिके मंगलसूत्रों की टीकामें वीरसेनाचार्यने उन सूत्रोंको ऊपर कहे हुए वेदना, बंधसामित्तविचय और खुदाबंधका मंगलाचरण बतलाया है और यह स्पष्ट सूचना की है कि वर्गणाखंडके आदिमें तथा महाबंध खंडके आदिमें पृथक् मंगलाचरण किया गया है उपलब्ध धवला के शेष भागमें सूत्रकारकृत कोई दूसरा मंगलाचरण नहीं देखा जाता, इससे वह वर्गणाखंड की कल्पना गलत है ।
४. धवलामें जो ' वेयणाखंड समत्ता ' पद पाया जाता है वह अशुद्ध है । उसमें पड़ा हुआ ' खंड ' शब्द असंगत है जिसके प्रक्षिप्त होने में कोई सन्देह मालूम नहीं होता ।
५. इन्द्रनन्दि व विबुधश्रीधर जैसे प्रथकारोंने जो कुछ लिखा है वह प्रायः किंवदन्तियें अथवा सुने सुनाये आधारपर लिखा जान पड़ता है। उनके सामने मूल ग्रंथ नहीं थे, अतएव उनकी साक्षीको कोई महत्व नहीं दिया जा सकता ।
६. यदि वर्गणाखंड धवला के अन्तर्गत था तो यह भी हो सकता है कि लिपिकारने शीघ्रता वंश उसकी कापी न की हो और अधूरी प्रतिपर पुरस्कार न मिल सकने की आशंकासे उसने ग्रंथकी अन्तिम प्रशस्तिको जोड़कर ग्रंथको पूरा प्रकट कर दिया हो । x
अब हम इन युक्तियों पर क्रमशः विचार कर ठीक निष्कर्ष पर पहुंचनेका प्रयत्न करेंगे ।
१. वेयणकसिणपाहुड और वेदनाखंड एक नहीं हैं ।
यह बात सत्य है कि कम्मपय डिपाहुडका दूसरा नाम वेयणकसिणपाहुड भी है और यह गुण नाम भी है, क्योंकि वेदना कर्मोंके उदयको कहते हैं और उसका निरवशेषरूपसे जो वर्णन
x जैन सिद्धान्त भास्कर ६, १ पृ. ४२; अनेकान्त ३, १ पृ. ३.
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
बर्गणाखंड-विचार करता है उसका नाम वेयणकसिणपाहुड (वेदनकृत्स्नप्रामृत ) है। किन्तु इससे यह आवश्यक नहीं हो जाता कि समस्त वेयणकसिणपाहुड वेदनाखंडके ही अन्तर्गत होना चाहिये, क्योंकि यदि ऐसा माना जावे तब तो छह खंडोंकी अवश्यकता ही नहीं रहेगी और समस्त षट्खंड वेदनाखंड के ही अन्तर्गत मानना पडेंगे चूंकि जीवट्ठाण आदि सभी खंडोंमें इसी वेयणकसिणपाहुडके अंशों का ही तो संग्रह किया गया है जैसा कि प्रथम जिल्दकी भूमिकामें दिये गये मानचित्रों तथा संतपरूवणा पृ. ७४ आदिके उल्लेखोंसे स्पष्ट है । यह खंड-कल्पना कम्मपयडिपाहुड या वेयण. कसिणपाहुडके अवान्तर भेदोंकी अपेक्षासे की गई है किसी एक खंडको समूचे पाहुडका अधिकारी नहीं बनाया गया । स्वयं धवलाकारने वेदनाखंडको महाकम्मपयडिपाहुड समझ लेनेके विरुद्ध पाठकोंको सतर्क कर दिया है। वेदनाखंडके आदिमें मंगलके निबद्ध अनिबद्धका विवेक करते समय वे कहते हैं
'ण च वेयणाखंडं महाकम्मपयडिपाहुडं, अवयवस्स अवयवित्तविरोहादो'
अर्थात् वेदनाखंड महाकर्मप्रकृतिप्राभृत नहीं है, क्योंकि अवयवको अवयवी मान लेनेमें विरोध उत्पन्न होता है। यदि महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके चौवीसों अनुयोगद्वार वेदनाखंडके अन्तर्गत होते तो धवलाकार उन सबके संग्रहको उसका एक अवयव क्यों मानते ! इससे बिलकुल स्पष्ट है कि वेदनाखंडके अन्तर्गत उक्त चौवीसों अनुयोगद्वार नहीं हैं। २. क्या वर्गणा नामका कोई पृथक् अनुयोगद्वार न होनेसे उसके नामपर खंड
संज्ञा नहीं हो सकती ? कम्मपयडिपाहुडके चौवीस अनुयोगद्वारोंमें वर्गणा नामका कोई अनुयोगद्वार नहीं है, यह बिलकुल सत्य है, किन्तु किसी उपभेदके नामसे वर्गणाखंड नाम पड़ना कोई असाधारण घटना तो नहीं कही जा सकती । यथार्थतः अन्य खंडोंमें एक वेदनाखंडको छोड़कर अन्य शेष सब खडोंके नाम या तो विषयानुसार कल्पित हैं, जैसे जीवट्ठाण, खुद्दाबंध, व महाबंध । या किसी अनुयोगद्वारके, उपभेदके नामानुसार हैं, जैसे बंधसामित्तविचय । उसीप्रकार यदि वर्गणा नामक उपविभाग पदसे उसके महत्त्वके कारण एक विभागका नाम वर्गणाखंड रखा गया हो तो इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं है । चौवीस अधिकारोंमेंसे जिस अधिकार या उपभेदका प्रधानत्व पाया गया उसके नामसे तो खंड संज्ञा की गई है, जैसा कि धवलाकारने स्वयं प्रश्न उठाकर कहा है कि कृति, स्पर्श, कर्म और प्रकृतिका भी यहां प्ररूपण होनेपर भी उनकी खंडग्रंथ संज्ञा न करके केवल तीन ही खंड कहे जाते हैं क्योंकि शेषमें कोई प्रधानता नहीं है और यह उनके संक्षेप प्ररूपणसे जाना जाता है । इसी संक्षेप प्ररूपणका प्रमाण देकर वर्गणाको भी खंड संज्ञासे
- देखो संतपरूपणा, जिल्द , भूमिका पृ. १५ टिप्पणी.
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
षट्खंडागमकी प्रस्तावना धुत करनेका प्रयत्न किया जाता है । पर संक्षेप और विस्तार आपेक्षिक शब्द हैं, अतएव वर्गणाका प्ररूपण धवलामें संक्षेपसे किया गया है या विस्तारसे यह उसके विस्तारका अन्य अधिकारोंके विस्तारसे मिलान द्वारा ही जाना जा सकता है। अतएव उक्त अधिकारोंके प्ररूपण-विस्तार को देखिये । बंधसामित्तविचयखंड अमरावती प्रतिके पत्र ६६७ पर समाप्त हुआ है। उसके पश्चात् मंगलाचरण व श्रुतावतार आदि विवरण ७१३ पत्र तक चलकर कृतिका प्रारंभ होता है जिसका ७५६ तक ४३ पत्रोंमें, वेदनाका ७५६ से ११०६ तक ३५० पत्रों में, स्पर्शका ११०६ से १११४ तक ८ पत्रोंमें, कर्मका १११४ से ११५९ तक ४५ पत्रों में, प्रकृतिका ११५९ से १२०९ तक ५० पत्रोंमें और बंधन के बंध और बंधनीयका १२०९ से १३१२ तक १२३ पत्रोंमें प्ररूपण पाया जाता है । इन १२३ पत्रोंमेंसे बंधका प्ररूपण प्रथम १० पत्रों में ही समाप्त करदिया गया है, यह कहकर कि
'एस्थ उद्देसे खुद्दाबंधस्स एक्कारस-अणियोगद्दाराणं परूवणा कायब्बा'। इसके आगे कहा गया है कि
ण बंधणिज्ज-परूवणे कीरमाणे वग्गण-परूवणा णिच्छएण कायब्वा, अण्णहा तेवीस-वग्गणासु हमा चेव वग्गणा बंधपाओग्गा अण्णाओ बंधपाओग्गाओ ण होति सि अवगमाशुववत्तीदो। वग्गणाणमएमग्गणदाए तत्थ इमाणि अट्ठ अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति' इत्यादि ।
अर्थात् बंधनीयके प्ररूपण करनेमें वर्गणा की प्ररूपणा निश्चयतः करना चाहिये, अन्यथा तेईस वर्गणाओंमें ये ही वर्गणाएं बंधके योग्य हैं अन्य वर्गणाएं बंधके योग्य नहीं हैं, ऐसा ज्ञान नहीं हो सकता । उन वर्गणाओंकी मार्गणाके लिये ये आठ अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं । इत्यादि । . इस प्रकार पत्र १२१९ से वर्गणाका प्ररूपण प्रारंभ होकर पत्र १३३२ पर समाप्त होता है, जहां कहा गया है कि--
__ ' एवं विस्ससोवचयपरूवणाए समत्ताए बाहिरियवग्गणा समत्ता होदि।।
इसप्रकार वर्गणाका विस्तार ११३ पत्रोंमें पाया जाता है, जो उपर्युक्त पांच अधिकारोंमेंसे बेदनाको छोड़कर शेष सबसे कोई दुगुना व उससे भी अधिक पाया जाता है। पूरा खुद्दाबंधखंड १०५ से ५०६ तक १०१ पत्रोंमें तथा बंधसामित्तविचयखंड ५७६ से ६६७ तक ९१ पत्रोंमें पाया जाता है। किन्तु एक अनुयोगद्वारके अवान्तरके भी अवान्तर भेद वर्गणाका विस्तार इन दोनों खंडोसे अधिक है । ऐसी अवस्थामें उसका प्ररूपण संक्षिप्त कहना चाहिये या विस्तृत और उससे उसे खंड संज्ञा प्राप्त करने योग्य प्रधानत्व प्राप्त होसका या नहीं, यह पाठक विचार करें।
.
V
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्गणाखंड-विचार ३. वेदनाखंडके आदिका मंगलाचरण और कौन कौन खंडोंका है ?
वेदनाखंडके आदिमें मंगलसूत्र पाये जाते हैं। उनकी टीकामें धवलाकारने खंडविभाग व उनमें मंगलाचरणकी व्यवस्था संबंधी जो सूचना दी है उसको निम्न प्रकार उद्धृत किया जाता है
उवरि उच्चमाणेसु तिसु खंडेसु कस्सेदं मंगलं तिषणं खंडाणं । कुदो? वग्गणा-महाबंधाणमादीए मंगलकरणादो। ण च मंगलेण विणा भूदबलिभडारओ गंथस्स पारभदि, तस्स अणाइरियत्तपसंगादोxx कदि-पास-कम्म-पयडि-अणियोगद्दाराणि वि एत्थ परूविदाणि, तेसिं खंडगंथसण्णमकाऊण विपिण चैव खंडाणि त्ति किमर्ट उच्चदे ण, तेसिं पहाणत्ताभावादो । तं पि कुदो णब्धदे ? संखेवेण परूवणादो'।
__ वर्गणाखंडको धवलान्तर्गत स्वीकार न करनेवाले विद्वान् इस अवतरणको देकर उसका यह अभिप्राय निकालते हैं कि-" वीरसेनाचार्यने उक्त मंगलसूत्रोंको ऊपर कहे हुए तीनों खंडों वेदना, बंधसामित्तविचओ और खुद्दाबंधो-का मंगलाचरण बतलाते हुए यह स्पष्ट सूचना की है कि वर्गणाखंडके आदिमें तथा महाबंधखंडके आदिमें पृथक् मंगलाचरण किया गया है, मंगलाचरणके विना भूतबलि आचार्य ग्रंथका प्रारंभ ही नहीं करते हैं। साथ ही यह भी बतलाया है कि जिन कदि, फास. कम्म, पयडि ( बंधण) अणुयोगद्वारोंका भी यहां ( एत्थ )-इस वेदनाखंडमें प्ररूपण किया गया है उन्हें खंडग्रंथ संज्ञा न देनेका कारण उनके प्रधानताका अभाव है, जो कि उनके संक्षेप कथनसे जाना जाता है। उक्त फास आदि अनुयोगद्वारों से किसीके भी शुरूमें मंगलाचरण नहीं है और इन अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा वेदनाखंडमें की गई है, तथा इनमेंसे किसीको खंडग्रंथकी संज्ञा नहीं दी गई यह बात ऊपरके शंका समाधानसे स्पष्ट है ।"
अब इस कथनपर विचार कीजिये । ' उवरि उच्चमाणेसु तिसु खंडेसु ' का अर्थ किया गया है • ऊपर कहे हुए तीन खंड, अर्थात् वेदना, बंधसामित्त और खुद्दाबंध ' । हमें यहॉपर यह याद रखना चाहिये कि खुद्दाबंध और बंधसामित्त खंड दूसरे और तीसरे हैं जिनका प्ररूपण हो चुका है, और अभी वेदनाखंडके केवल मंगलाचरणका ही विषय चल रहा है, खंडका विषय आगे कहा जायगा । ' उवरि उच्चमाण' की संस्कृत छाया, जहांतक मैं समझता हूं · उपरि उभ्यमान ' ही हो सकती है, जिसका अर्थ ' ऊपर कहे हुए ' कदापि नहीं हो सकता । ' उच्यमान ' का तात्पर्य केवल प्रस्तुत या आगे कहे जानेवालेसे ही हो सकता है । फिर भी यदि ऊपर कहे हुए ही मानलें तो उससे ऊपरके दो और आगेके एक का समुच्चय कैसे हो सकता है ! ऊपर कहे हुए तीन खंड तो जीवहाण आदि तीन हैं, बाकी तीन आगे कहे जानेवाले हैं । इसप्रकार उपर्युक्त वाक्यका जो अर्थ लगाया गया है वह बिलकुल ही असंगत है।
अब आगेका शंका-समाधान देखिये । प्रश्न है यह कैसे जाना कि यह मंगल उवरि
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०
षट्खंडागमकी प्रस्तावना
उम्च्चमाण ' तीनों खंडोंका है ? इसका उत्तर दिया जाता है ' क्योंकि वर्गणा और महाबंध के आदिमें मंगल किया गया है ' । यदि यहां जिन खंडों में मंगल किया गया है उनको अलग निर्दिष्ट कर देना आचार्यका अभिप्राय था तो उनमें जीवट्ठाणका भी नाम क्यों नहीं लिया, क्योंकि तभी तो तीन खंड शेष रहते, केवल वर्गणा और महाबंधको अलग कर देनेसे तो चार खंड शेष रह गये । फिर आगे कहा गया है कि मंगल किये विना भूतबलि भट्टारक ग्रंथ प्रारंभ ही नहीं करते, क्योंकि उससे अनाचार्यत्वका प्रसंग आ जाता है । पर उक्त व्यवस्थाके अनुसार तो यहां एक नहीं, दो दो खंड मंगलके विना, केवल प्रारंभ ही नहीं, समाप्त भी किये जा चुके; जिनके मंगलाचरणका प्रबंध अब किया जा रहा है, जहां स्वयं टीकाकार कह रहे हैं कि मंगलाचरण आदिम ही किया जाता है, नहीं तो अनाचार्यत्वका दोष आ जाता है । इससे तो धवलाकारका
स्पष्ट है कि प्रस्तुत ग्रंथरचना आदि मंगलका अनिवार्य रूपसे पालन किया गया है। हमने आदिमंगलके अतिरिक्त मध्यमंगल और अन्तमंगलका भी विधान पढ़ा है । किन्तु इन प्रकारोंमेंसे किसी भी प्रकार द्वारा वेदनाखंडके आदिका मंगल खुदाबंधका भी मंगल सिद्ध नहीं किया जा सकता । इसप्रकार यह शंका समाधान विषयको समझाने की अपेक्षा अधिक उलझन में ही डालने वाला है।
आगे शंका समाधानकी और भी दुर्दशा की गई है । प्रश्न है कृति, स्पर्श, कर्म और प्रकृति अनुयोगद्वार भी यहां प्ररूपित हैं, उनकी खंडसंज्ञा न करके केवल तीन ही खंड क्यों कहे जाते हैं ? यहां स्वभावतः यह प्रश्न उपस्थित होता है कि यहां कौनसे तीन खंडोंका अभिप्राय है ? यदि यहां भी उन्हीं खुदाबंध, बंधसामित्त और वेदनाका अभिप्राय है तो यह बतलाने की आवश्यकता है कि प्रस्तुतमें उनकी क्या अपेक्षा है । यदि चौवीस अनुयोगद्वारोंमेंसे उत्पत्तिकी यहां अपेक्षा है तो जीवस्थान, वर्गणा और महाबंध भी तो वहीं से उत्पन्न हुए हैं, फिर उन्हें किस विचारसे अलग किया गया ? और यदि वेदना, वर्गणा और महाबंध से ही यहां अभिप्राय है तो एक तो उक्त क्रममें भंग पड़ता है और दूसरे वर्गणाखंडके भी इन्हीं अनुयोगद्वारों में अन्तर्भावका प्रसंग आता है । जिन अनुयोगद्वारोंकी ओरसे खंड संज्ञा प्राप्त न होने की शिकायत उठायी गई है उनमें वेदनाका नाम नहीं है । इससे जाना जाता है कि इसी वेदना अनुयोगद्वार परसे वेदनाखंड संज्ञा प्राप्त हुई है । पर यदि ' एत्थ ' का तात्पर्य " इस वेदनाखंड में " ऐसा लिया जाता है तब तो यह भी मानना पड़ेगा कि वे तीनों खंड जिनका उल्लेख किया गया है, वेदनाखंडके अन्तर्गत हैं । पयडिके आगे बन्धन और क्यों अपनी तरफसे जोड़ा गया जबकि वह मूलमें नहीं है, यह भी कुछ समझमें नहीं आता । इसप्रकार यह प्रश्न भी बड़ी गड़बड़ी उत्पन्न करनेवाला सिद्ध होता है ।
1
. अतः वेदनाखंडके आदिमें आये हुए मंगलाचरणको खदाबंध और बंधसामितका भी सिद्ध
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्गणाखंड-विचार करना तथा कृति आदि चौवीसों अनुयोगद्वारोंको वेदनाखंडान्तर्गत बतलाना बड़ा वेतुका, वे आधार और सारे प्रसंगको गड़बड़ीमें डालनेवाला है। यह सब कल्पना किन भूलोंका परिणाम है और उक्त अवतरणोंका सच्चा रहस्य क्या है यह आगे चलकर बतलाया जायगा ! उससे पूर्व शेष तीन युक्तियोंपर और विचार करलेना ठीक होगा।
४. वेदनाखंड समाप्तिकी पुष्पिका धवलामें जहां वेदनाका प्ररूपण समाप्त हुआ है वहां यह वाक्य पाया जाता है
एवं वेयण-अप्पाबहुगाणिओगहारे समत्ते वेयणाखंड समत्ता ।
इसके आगे कुछ नमस्कार वाक्योंके पश्चात् पुनः लिखा मिलता है 'वेदनाखंड समाप्तम् ' । ये नमस्कार वाक्य और उनकी पुष्पिका तो स्पष्टतः मूलग्रंथके अंग नही हैं, वे लिपिकार द्वारा जोडे गये जान पड़ते हैं । प्रश्न है प्रथम पुष्पिकाका जो मूल ग्रंथका आवश्यक अंग है । पर उसमें भी 'वेयणाखंड समत्ता' वाक्य व्याकरण की दृष्टिसे अशुद्ध है। वहां या तो 'वेयणाखंडो समत्तो' या · वेयणाखंडं समत्तं ' वाक्य होना चाहिये था। समालोचकका यह भी अनुमान गलत नहीं कहा जा सकता कि इस वाक्यमें खंड शब्द संभवतः प्रक्षिप्त है, उस शब्दको निकाल देनेसे 'वेयणा समत्ता' वाक्य भी ठीक बैठ जाता है। हो सकता है वह लिपिकार द्वारा प्रक्षिप्त हुआ हो । पर विचारणीय बात यह है कि वह कब और किस लिये प्रक्षिप्त किया गया होगा। इस प्रक्षेपको आधुनिक लिपिकारकृत तो समालोचक भी नहीं कहते। यदि वह प्रक्षिप्त है तो उसी लिपिकारकृत हो सकता है जिसने मूडविद्रीकी ताडपत्रीय प्रति लिखी । हम अन्यत्र बतला चुके हैं कि वह प्रति संभवतः शककी ९ वी १० वीं शताब्दिकी, अर्थात् आजसे कोई हजार आठसौ वर्ष पुरानी है । उस प्रक्षिप्त वाक्यसे उस समयके कमसे कम एक व्यक्तिका यह मत तो मिलता ही है कि वह वहां वेदनाखंडकी समाप्ति समझता था। उससे यह भी ज्ञात हो जाता है कि उस लेखककी जानकारोंमें वहींसे दूसराखंड अर्थात् वर्गणाखंड प्रारंभ हो जाता था, नहीं तो वह वहां वेदनाखंडके समाप्त होनेकी विश्वासपूर्वक दो दो वार सूचना देने की धृष्टता न करता । यदि वहां खंडसमाप्ति होनेका इसके पास कोई आधार न होता तो उसे जबर्दस्ती वहाँ खंड शब्द डालनेकी प्रवृत्ति ही क्यों होती ! समालोचक लिपिकारकी प्रक्षेपकप्रवृत्ति को दिखलाते हुए कहते हैं कि अनेक अन्य स्थलोंपर भी नानाप्रकारके वाक्य प्रक्षिप्त पाये जाते हैं । यह बात सच है, पर जो उदाहरण उन्होंने बतलाया है वहां, और जहांतक मैं अन्य स्थल ऐसे देख पाया हूं वहां सर्वत्र यही पाया जाता है कि लेखकने अधिकारोंकी संधि आदि पाकर अपने गुरु या देवता का नमस्कार या उनकी प्रशस्ति संबंधी षाक्य या पथ इधर उधर डाले हैं। यह पुराने लेखकोंकी शैली सी रही है। पर ऐसा स्थल
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
षट्लंडनगमकी प्रस्तावना एक भी देखनेमें नही आता जहां पर लेखकने अधिकार संबंधी सूचना गलत सलत अपनी ओरसे जोड़ या घटा दी हो । अतएव चाहे वह खंड शब्द मौलिक हो और चाहे किसी लिपिकार द्वारा प्रक्षिप्त, उससे वेदना खंडके वहां समाप्त होने की एक पुरानी मान्यता तो प्रमाणित होती ही है।
५ इन्द्रनन्दिकी प्रामाणिकता इन्द्रनन्दि और विवुध श्रीधरने अपने अपने श्रुतावतार कथानकोंमें षट्खंडागमकी रचना व धवलादि टीकाओंके निर्माणका विवरण दिया है। विबुध श्रीधरका कथानक तो बहुत कुछ काल्पनिक है, पर उसमें भी धवलान्तर्गत पांच या छह खंडोंवाली वार्ता में कुछ अविश्वसनीयता नहीं दिखती। इन्द्रनन्दिने प्रकृत विषयसे संबंध रखनेवाली जो वार्ता दी है उसको हम प्रथम जिल्दकी भूमिकामें पृ.३० पर लिख चुके हैं। उसका संक्षेप यह है कि वीरसेनने उपरितन निबन्धनादि अठारह अधिकार लिखे और उन्हें ही सत्कर्मनाम छठवां खंड संक्षेपरूप बनाकर छह खंडोंकी बहत्तर हजार ग्रंथप्रमाण, प्राकृत संस्कृत भाषा मिश्रित धवलाटीका बनाई । उनके शब्दोंका धवलाकारके उन शब्दोंसे मिलान कीजिये जो इसी संबंधके उनके द्वारा कहे गये हैं । निबन्धनादि विभागको यहां भी — उवरिम ग्रंथ ' कहा है और अठारह अनुयोगद्वारोंको संक्षेपमें प्ररूपण करनेकी प्रतिज्ञा की गई है । धरसेन गुरुद्वारा श्रुतोद्धारका जो विवरण इंद्रनन्दिने दिया है वह प्रायः ज्यों का त्यों धवलाकार के वृत्तान्त से मिलता है । यह बात सच है कि इन्द्रनन्दि द्वारा कही गयीं कुछ बातें धवळान्तर्गत वातासे किंचित् भेद रखती हैं। किन्तु उनपरसे इन्द्रनन्दिको सर्वथा अप्रामाणिक नहीं ठहराया जा सकता, विशेषतः खंडविभाग जैसे स्थूल विषयपर । यद्यपि इन्द्रनन्दिका समय निर्णीत नहीं है, पर उनके संबंधमें पं. नाथूरामजी प्रेमीका मत है कि ये वे ही इन्द्रनन्दि हैं जिनका उल्लेख आचार्य नेमिचन्द्रने गोम्मटसार कर्मकाण्डकी ३९६ वी गाथामें गुरुरूपसे किया है जिससे वे विक्रमकी ११ हवीं शताब्दिके आचार्य ठहरते हैं * । इसमें कोई आश्चर्य भी नहीं है । वीरसेन व धवलाकी रचनाका इतिहास उन्होंने ऐसा दिया है जैसे मानो वे उससे अच्छी तरह निकटतासे सुपरिचित हों। उनके गुरु एलाचार्य कहां रहते थे, वीरसेनने उनके पास सिद्धान्त पढ़कर कहां कहां जाकर, किस मंदिरमें बैठकर, कौनसा ग्रंथ साम्हने रखकर अपनी टीका लिखी यह सब इन्द्रनन्दिने अच्छी तरह बतलाया है जिसमें कोई बनावट व कृत्रिमता दृष्टिगोचर नहीं होती, बल्कि बहुत ही प्रामाणिक इतिहास जंचता ह । उन्होंने कदाचित् धवला जयधवलाका सूक्ष्मावलोकन भले ही न किया हो और शायद नोट्स ले रखनेका भी उस समय रिवाज़ न हो, पर उनकी सूचनाओंपरसे यह बात सिद्ध नहीं होती कि धवल
* मा. दि. जै. ग्रंथमाला नं. १३, भूमिका पृ. २
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्गणाखंड - विचार
२३
जयधवल ग्रंथ उनके साम्हने मौजूद ही नहीं थे । उन्होंने ऐसी कोई बात नहीं लिखी जिसकी इन ग्रंथोंकी वार्तासे इतनी विषमता हो जो पढ़कर पछि स्मृतिके सहारे लिखनेवाले द्वारा न की जा सकती हो। इसके अतिरिक्त उनका ग्रंथ अभीतक प्राचीन प्रतियोंपर से सुसंपादित भी नहीं हुआ है । किसी एकाध प्रतिपरसे कभी छाप दिया गया था, उसीकी कापी हमारे साम्हने प्रस्तुत है । उन्होंने जो वार्ता किवदन्तियों व सुने सुनाये आधारपर से लिखी हो वह भी उन्होंने बहुत सुव्यवस्थित करके, भरसक जांच पड़तालके पश्चात्, लिखी है और इसीतरह वे बहुतसी ऐसी बातोंपर प्रकाश डाल सके जो धवलादिमें भी व्यवस्थित नहीं पायी जाती, जैसे धवलासे पूर्वकी टीकायें व टीकाकार आदि । वे कैसे प्रामाणिक और निर्भीक तथा अपनी कमजोरियों को स्वीकार करलेनेवाले निष्पक्ष ऐतिहासिक थे यह उनके उस वाक्य परसे सहज ही जोना जा सकता है जहां उन्होंने साफ साफ कह दिया है कि गुणधर और धरसेन गुरुओंकी पूर्वापर आचार्य परम्परा हम नहीं जानते क्योंकि न तो हमें वह बात बतलानेवाला कोई आगम मिला और न कोई मुनिजन x कितनी स्पष्टवादिता, साहित्यिक सचाई और नैतिकबल इस अज्ञानकी स्वीकारतामें भरी हुई हैं ? क्या इन वाक्योंको लिखनेवालेकी प्रामाणिकतामें सहज ही अविश्वास किया जा सकता है ?
६. मूडविद्री प्रतिलिपि करनेवाले लेखककी प्रामाणिकता
जिस परिस्थितिमें और जिस प्रकारसे घबला और जयघवलाकी प्रतियां मूडबिद्री से बाहर निकली हैं उसका हम प्रथम जिल्दकी भूमिकामें विवरण दे आये हैं । उस परसे उपलब्ध प्रतियोकी प्रामाणिकतामें नाना प्रकारके सन्देह करना स्वाभाविक है । अतएव जो धवलाके भीतर वर्गणाखंडका होना नहीं मानते उन्हें यह भी कहनेको मिल जाता है कि यदि मूल धवलामें वर्गणाखंड रहा भी हो तो उक्त लिपिकारने उसे अपना परिश्रम बचानेके लिये जानबूझकर छोड़ दिया होगा और अन्तिम प्रशस्ति आदि जोड़कर अपने ग्रंथको पूरा प्रकट कर दिया होगा ताकि उसके पुरस्कारादिमें फरक न पड़े । इस कल्पनाकी सचाई झुठाई का पूरा निर्णय तो तभी हो सकता है जब यह ग्रंथ ताडपत्रीय प्रतिसे मिलाया जा सके । पर उसके अभाव में भी हम इसकी संभावना की जांच दो प्रकारसे कर सकते हैं । एक तो उस लेखक के कार्यकी परीक्षा द्वारा और दूसरे विद्यमान धवलाकी रचना की परीक्षा द्वारा । धवलाके संशोधन संपादन संबंधी कार्यमें हमें इस बातका बहुत कुछ परिचय मिला है कि उक्त लेखकने अपना कार्य कहांतक ईमानदारी से किया है । हमें जो प्रतियां उपलब्ध हुई हैं वे मूडविद्रीसे आई हुई कनाड़ी प्रतिलिपिकी नागरी प्रतिकी कापी की भी कापियां हैं । वे बहुत कुछ स्खलन - प्रचुर और अनेक प्रकारसे दोष पूर्ण हैं ।
1
x संतपरूवणा, जिल्द १, भूमिका पृ. १५
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१
षट्खंडागमको प्रस्तावना पर तो भी तीन प्रतियोंके मिलानसे ही पूरा और ठीक पाठ बैठा लेना संभव हो जाता है। इससे ज्ञात होता है कि जो स्खलन इन आगेकी प्रतियोंमें पाये जाते हैं वे उस कनाडी प्रतिलिपिमें नहीं हैं। यद्यपि कुछ स्थल इन सब प्रतियोंके मिलानसे भी पूर्ण या निस्सन्देह निर्णीत नहीं हो पाते और इसलिये संभव है वे स्खलन उसी प्रथम प्रतिलिपिकार द्वारा हुए हों, पर इस ग्रंथकी लिपि, भाषा
और विषय संबंधी कठिनाइयोंको देखते हुए हमें आश्चर्य इस बातका नहीं है कि वे स्खलन हैं, किन्तु आश्चर्य इस बातका है कि वे बहुत ही थोड़े और मामूली हैं, जो किसी में लेखकके द्वारा अपनी शक्तिभर सावधानी रखनेपर भी, हो सकते हैं । जो लेखक एक खंडके खंडको छोड़कर प्रशस्ति आदि मिलाकर ग्रंथको पूरा प्रकट करनेका दुःसाहस कर सकता है, उसके द्वारा शेष लिखाई भी ईमानदारीके साथ किये जानेकी आशा नहीं की जा सकती। पर उक्त लेखकका अभी तक हम जो परिचय धवलापर परिश्रम करके प्राप्त कर सके हैं, उसपरसे हम दृढ़ताके साथ कह सकते हैं कि उसने अपना कार्य भरसक ईमानदारी और परिश्रमसे किया है । उसपरसे उसके द्वारा एक खंडको छोड़कर ग्रंथको पूरा प्रकट कर देने जैसे छल-कपट किये जानेकी शंका करनेको हमारा जी बिलकुल नहीं चाहता।
पर यदि ऐसा छल कपट हुआ है तो धवलाकी जांच द्वारा उसका पता लगाना भी कठिन नहीं होना चाहिये । धवलाकी कुल टीकाका प्रमाण इन्द्रनन्दिने बहत्तर हजार और ब्रह्महेमने सत्तर हजार बतलाया है। हमारे सन्मुख धवलाकी तीन प्रतियां मौजूद हैं, जिनकी श्लोक संख्याकी हमने पूरी कठोरतासे जांच की। अमरावतीकी प्रतिमें १४६५ पत्र अर्थात् २९३० पृष्ठ हैं और प्रत्येक पृष्ठपर १२ पंक्तियां लिखी गई हैं । प्रत्येक पंक्तिमें ६२ से ६८ तक अक्षर पाये जाते हैं जिससे औसत ६५ अक्षरोंकी ली जा सकती है। तदनुसार कुल ग्रंथमें २९३०x १२ x ६५४ = २२८५४०० अक्षर पाये जाते हैं जिनकी श्लोकसंख्या ३२ का भाग देकर ७१,४१५ आई । इसे सामान्य लेखेमें चाहे आप सत्तर हजार कहिये, चाहे बहत्तर हजार । कारंजा व आराकी प्रतियोंकी भी उक्त प्रकारसे जांच द्वारा प्रायः यही निष्कर्ष निकलता है। इससे तो अनुमान होता है कि प्रतियोंमेंसे एक खंडका खंड गायब होना असंभवसा है, क्योंकि उस खंडका प्रमाण और सब खंडोंको देखते हुए कमसे कम पांच सात हजार तो अवश्य रहा होगा । यह कर्मा प्रस्तुत प्रतियोंमें दिखाई दिये विना नहीं रह सकती थी।
विषयके तारतम्यकी दृष्टिसे भी धवला अपने प्रस्तुत रूपमें अपूर्ण कहीं नज़र नहीं आती। प्रथम तीन खंड तो पूरे हैं ही । चौथे वेदना खंडके आदिसे कृति आदि अनुयोगद्वार प्रारम्भ हो जाते हैं । इनमें प्रथम छह कृति, वेदना, फास, कम्म, पयडि और बंधन स्वयं भगवान् भूतबलिद्वारा प्ररूपित हैं। इनके अन्तमें धवलाकारने कहा है
'भूदबलिभडारएण जेणेदं सुत्त देसामासियभावेण लिहिदं तेणेदेण सूचिद-सेस-भट्ठारस-अणिपोगहाराणं किंचि संवेण पकवणं कस्सामो (अवटा प. पत्र १९१२).
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्गणाखंड-विचार इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि आचार्य भूतबलिकी रचना यहीं तक है। किन्तु उक्त प्रतिज्ञा वाक्यके अनुसार शेष निबन्धनादि अठारह आधिकारोंका वर्णन धवलाकारने स्वयं किया है और अपनी इस रचनाको उन्होंने चूलिका कहा है
एत्तो उवरिमगंथो चूलिया णाम । इन्हीं अठारह अनुयोगद्वारोंकी वीरसेनद्वारा रचनाका विशद इतिहास इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें दिया है * । इसी चूलिका विभागको उन्होंने छठवां खंड भी कहा है। इसप्रकार चौवीसों अनुयोगद्वारोंके कथनके साथ ग्रंथ अपने स्वाभाविक रूपसे समाप्त होता है । अब यदि इन्हीं अनुयोगद्वारोंके भीतर वर्गणाखंड नहीं माना जाता तो उसके लिये कौनसा विषय व अधिकार शेष रहा और वह कहांसे छूट गया होगा ? लेखकद्वारा उसके छोड़ दिये जानेकी आशंकाको तो इस रचनामें बिलकुल ही गुंजाइश नहीं रही।
वेदनाखंडके आदि अवतरणोंका ठीक अर्थ वेदनाखंडके आदि मंगलाचरणकी व्यवस्था संबंधी सूचनाका जो अर्थ लगाया जाता है और उससे जो गड़बड़ी उत्पन्न होती है उसका हम ऊपर परिचय करा चुके हैं। अब हमें यह देखना आवश्यक है कि उक्त भूलोंका क्या कारण है और उन अवतरणोंका ठीक अर्थ क्या है। ' उवरि उच्चमाणेसु तिसु खंडेसु' का अर्थ 'ऊपर कहे हुए तीन खंड' तो हो ही नहीं सकता। पर ऐसा अर्थ किये जानेके दो कारण मालूम होते हैं। प्रथम तो ' उवरि ' से सामान्य ऊपर अर्थात् पूर्वोक्त का अर्थ ले लिया गया है और दूसरे उसकी आवश्यकता भी यों प्रतीत हुई क्योंकि आगे वर्गणा और महाबंधों अलग मंगल करनेका उल्लेख पाया जाता है। पर खोन और विचारसे देखा जाता है कि ' उवरि' शब्दका धवळाकारने पूर्वोक्तके अर्थमें कहीं उपयोग नहीं किया । उन्होंने उस शब्दका प्रयोग सर्वत्र ‘आगे' के अर्थमें किया है और पूर्वोक्तके लिये 'पुन्व' या पुवुत्त का । उदाहरणार्थ, संतपरूवणा, पृष्ठ १३० पर उन्होंने कहा है
संपहि पुव्वं उत्त-पयाडिसमुक्तित्तणा ............एदण्हं पंचण्हमुवरि संपहि पुव्वुत्त-जहण्णहिदि ........''च पक्खित्ते चूलियाए णव अहियारा भवंति ।
अर्थात् पूर्वोक्त प्रकृति समुत्कीर्तनादि पांचोंके ऊपर अभी कहे गये जघन्यस्थिति आदि जोड़ देनेपर चूलिकाके नौ अधिकार हो जाते हैं। यहां ऊपर कहे जा चुकेके लिये 'पुव्वं उत्त' व 'पुव्वुत्त' शब्द प्रयुक्त हुए हैं और — उवरि ' से आगेका तात्पर्य है।
पृ. ७३ पर ' उवरि' से बने हुए उवरीदो (उपरितः) अव्ययका प्रयोग देखिये । आचार्य कहते हैं
* सं. प. भू.पू. ३८,६७,
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६
षट्खंडागमकी प्रस्तावना
पुव्वाणुपुवी पच्छाणुपुब्बी जत्थतत्थाणुपुची चेदि तिविहा आणुपुची। जं मूलादो परिवाडीए उच्चदे सा पुवाणुपुवी। तिस्से उदाहरणं 'उसहमजियं च वंदे'। इच्चेवमादि । जं उवरीदो हेट्रा परिवाडीए उच्चदि सा पच्छाणुपुवी । विस्से उदाहरणं-एस करेमि य पणमं जिणवरवसहस्स वड्डमाणस्स। सेसाणं च जिणाणं सिवसहखा विलोमेण ॥
यहां यह बतलाया है कि जहां पूर्वसे पश्चातकी ओर क्रमसे गणना की जाती है उसे पूर्वानुपूर्वी कहते हैं, जैसे 'ऋषभ और अजितनाथको नमस्कार'। पर जहां नीचे या पश्चात्से ऊपर या पूर्वकी ओर अर्थात् विलोमक्रमसे गणना की जाती है वह पश्चादानुपूर्वी कहलाती है जैसे मैं वर्द्धमान जिनेशको प्रणाम करता हूं और शेष ( पार्श्वनाथ, नेमिनाथ आदि ) तीर्थंकरोंको भी । यहां 'उवरीदो' से तात्पर्य 'आगे' से है और पीछे की ओरके लिये हेट्ठा [ अधः ] शब्दका प्रयोग किया गया है।
धवलामें आगे बंधन अनुयोगद्वारकी समाप्तिके पश्चात् कहा गया है ' एत्तो उवरिमगंथो चूलिया णाम ' । अर्थात् यहांसे ऊपरके ग्रंथका नाम चूलिका है। यहां भी ' उवरिम' से तात्पर्य आगे आनेवाले ग्रंथविभागसे है न कि पूर्वोक्त विभागसे ।
और भी धवलामें सैकडों जगह ' उवरि' शब्दका प्रयोग हमारी दृष्टि में इसप्रकार आया है " उवरि भण्णमाणचुण्णिसुत्तादो," उवरिमनुत्तं भणदि ' आदि । इनमें प्रत्येक स्थलपर निर्दिष्ट सूत्र आगे दिया गया पाया जाता है। उवरिका पूर्वोक्तके अर्थमें प्रयोग हमारी दृष्टिमें नहीं आया
इन उदाहरणोंसे स्पष्ट है कि उवरिका अर्थ आगे आनेवाले खंडोंसे ही हो सकता है, पूर्वोक्तसे नहीं। और फिर प्रकृतमें तो — उच्चमाण ' पद इस अर्थको अच्छी तरह स्पष्ट कर देता है क्योंकि उसका अभिप्राय केवल प्रस्तुत और आगे आनेवाले खंडोंसे ही हो सकता है । पर यदि आगे कहे जानेवाले तीन खंडोंका यह मंगल है तो इस बातका वर्गणा और महाबंधके आदिमें मंगलाचरणकी सूचनासे कैसे सामञ्जस्य बैठ सकता है ? यही एक विकट स्थल है जिसने उपर्युक्त सारी गड़बड़ी विशेषरूपसे उत्पन्न की है । समस्त प्रकरणपर सब दृष्टियोंसे विचार करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि धवलाकी उपलब्ध प्रतियोंमें वहां पाठ की अशुद्धि है । मेरे विचारसे ' वगणामहाबंधाणमादीर मंगल-करणादो' की जगह 'वागणामहाबंधाणमादीए मंगलाकरणादो' पाठ होना चाहिये। दीर्घ 'आ' के स्थानपर हस्व 'अ' की मात्रा की अशुद्धियां तथा अन्य स्वरों में भी व्हस्व दीर्घके व्यत्यय इन प्रतियोंमें भरे पड़े हैं। हमें अपने संशोधनमें इसप्रकारके सुधार सैकड़ों जगह करना पड़े हैं। यथार्थतः प्राचीन कन्नड लिपिमें हस्व और दीर्घ स्वरोंमें बहुधा विवेक नहीं किया जाता था ४ । हमारे अनुमान किये हुए सुधारके साथ पढ़नेसे पूर्वोक्त
x डा. उपाध्ये, परमात्मप्रकाश, भूमिका, पृ. ८३.
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्गणाखंड-विचार समस्त प्रकरण व शंका-समाधानक्रम ठीक बैठ जाता है। उससे उक्त दो अवतरणोंके बीचमें आये हुए उन शंका समाधानोंका अर्थ भी सुलझ जाता है जिनका पूर्वकथित अर्थसे बिलकुल ही सामञ्जस्य नहीं बैठता बल्कि विरोध उत्पन्न होता है। वह पूरा प्रकरण इस प्रकार है
उरि उच्चमाणेसु तिसु खंडेसु कस्सेदं मंगलं ? तिण्णं खंडाणं । कुदो? वग्गणा-महाबंधाणमादीए मंगलाकरणादो। ण च मंगलेण विणा भूतबलिभडारओ गंथस्त पारभदि, तस्स अणाइरियत्तपसंगादो । कधं वेयणाए आदीए उत्तं मंगल सेस दो-खंडाणं होदि? ण, कदीए आदिम्हि उत्तस्स एदस्लेव मंगलस्स सेसतेवीस अणियोगद्दारसु पउत्तिदंसणादो। महाकम्मपडिपाहुडत्तणेण चउवीसहमणियोगद्दाराणं भेदाभावादो एगत्तं, तदो एगस्स एवं मंगलं तत्थ ण विरुदे। ण च एदेसिं तिहं खंडाणमेयत्तमेगखंडत्तपसंगादो त्ति, ण एस दोसो, महाकम्मपयडिपाहुडत्तणेण एदेसि पि एगत्तदंसगादो । कदि-पास-कम्म-पयडि-अणियोगद्दाराणि विएत्थ परूविदाणि, तेसिं खंडग्गंथसण्णमकाऊण तिणि चेव खंडाणित्ति किमढे उच्चदे ? ण, तेसिं पहाणत्ताभावादो। तं पि कुदो गधदे ? संखेवेग परूवणादो ।
इसका अनुवाद इस प्रकार होगा
शंका-आगे कहे जाने वाले तीन खंडों ( वेदना वर्गणा और महाबंध) में से किस खंड का यह मंगलाचरण है ?
समाधान- तीनों खंडोंका। शंका- कैसे जाना ?
समाधान- वर्गणाखंड और महाबंध खंडके आदिमें मंगल न किये जानेसे । मंगलकिये विना तो भूतबलि भट्टारक ग्रंथका प्रारंभ ही नहीं करते क्योंकि इससे अनाचार्यत्वका प्रसंग आ जाता है।
शंका-वेदनाके आदिमें कहा गया मंगल शेष दो खंडोंका भी कैसे हो जाता है ?
समाधान-क्योंकि कृतिके आदिमें किये गये इस मंगलकी शेष तेवीस अनुयोगद्वारोंमें भी प्रवृत्ति देखी जाती है।
शंका- महाकर्मप्रकृतिपाहुडत्वकी अपेक्षासे चौबीसों अनुयोगद्वारोंमें भेद न होनेसे उनमें एकत्व है, इसलिये एकका यह मंगल शेष तेवीसोंमें विरोधको प्राप्त नहीं होता। परंतु इन तीनों खंडोंमें तो एकत्व है नहीं, क्योंकि तीनोंमें एकत्व मान लेनेपर तीनोंके एक खंडत्वका प्रसंग आजाता है?
समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि-महाकर्मप्रकृतिपाहुडत्वकी अपेक्षासे इनमें भी एकत्व देखा जाता है।
शंका-कृति, स्पर्श, कर्म और प्रकृति अनुयोगद्वार भी यहां (ग्रंथके इस भागमें) प्ररूपित किये गये हैं, उनकी भी खंड ग्रंथ संज्ञा न करके तीन ही खंड क्यों कहे जाते हैं ?
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
षट्खंडागमकी प्रस्तावना समाधान-क्योंकि इनमें प्रधानताका अभाव है। शंका--यह कैसे जाना ? समाधान-उनका संक्षेपमें प्ररूपण किया गया है इससे जाना ।
इस परसे यह बात स्पष्ट समझमें आजाती है कि उक्त मंगलाचरणका सम्बन्ध बंधसामित्त और खुद्दाबंध खंडोसे बैठाना बिलकुल निर्मूल, अस्वाभाविक, अनावश्यक और धवलाकार के मतसे सर्वथा विरुद्ध है । हम यह भी जान जाते हैं कि वर्गणाखंड और महाबंधके आदिमें कोई मंगलाचरण नहीं है, इसी मंगलाचरणका अधिकार उनपर चालू रहेगा। और हमें यह भी सूचना मिल जाती है कि उक्त मंगलके अधिकारान्तर्गत तीनों खंड अर्थात् वेदना, वर्गणा और महाबंध प्रस्तुत अनुयोगद्वारोंसे बाहर नहीं हैं। वे किन अनुयागद्वारोंके भीतर गर्भित हैं यह भी संकेत धवलाकार यहां स्पष्ट दे रहे हैं । खंड संज्ञा प्राप्त न होने की शिकायत किन अनुयोगद्वारोंकी ओरसे उठाई गई ? कदि, पास, कम्म और पयडि अनुयोगद्वारोंकी ओरसे । वेदणाअनुयोगद्वारका यहां उल्लेख नहीं है क्योंकि उसे खंड संज्ञा प्राप्त है। धवलाकारने बंधन अनुयोगद्वारका उल्लेख यहां जान बूझकर छोड़ा है क्योंकि बंधनके ही एक अवान्तर भेद वर्गणासे वर्गणाखंड संज्ञा प्राप्त हुई है और उसके एक दूसरे उपभेद बंधविधानपर महाबंधकी एक भव्य इमारत खड़ी है। जीवट्ठाण, खुद्दाबंध और बंधसामित्तविचय भी इसीके ही भेद प्रभेदोंके सुफल हैं। इसलिये उन सबसे भाग्यवान पांच पांच यशस्वी संतानके जनयिता बंधनको खंड संज्ञा प्राप्त न होने की कोई शिकायत नहीं थी। शेष अठारह अनुयोगद्वारोंका उल्लेख न करनेका कारण यह है कि भूतबलि भट्टारकने उनका प्ररूपण ही नहीं किया। भूतबलिकी रचना तो बंधन अनुयोगद्वारके साथ ही, महाबंध पूर्ण होने पर, समाप्त हो जाती है जैसा हम ऊपर बतला चुके हैं ।
इसी अवतरणसे ऊपर धवलाकारने जो कुछ कहा है उससे प्रकृत विषयपर और भी बहुत विशद प्रकाश पड़ता है । वह प्रकरण इसप्रकार है
तत्थेदं किं णिबद्धमाहो अणिबद्धमिदि ? ण ताव णिबद्धमंगलमिदं महाकम्मपयडीपाहुडस्स कदियादि-चउवीसअणियोगावयवस्य आदीए गोदमसामिणा परुदिदस्स भूतवलिभडारएण वेयणाखंडस्स आ मंगलटुं तत्तो आणेदूण ठविदस्स णिबद्धत्तविरोहादो। ण च वेयणाखंड महाकम्मपयडीपाहुडं अवयवस्स अवयवित्तविरोहादो। ण च भूदवली गोदमो विगलसुदधारयस्स धरसेणाइरियसीसस्त भूदवलिस्स सयलसुधारयवड्डमाणतेवासिगोदमत्तविरोहादो । ण चाण्णो पयारो णिबद्धमंगलत्तस्स हेदुभूदो आथि । तम्हा अणिबद्धमंगलमिदं। अधवा होदु णिबद्धमंगलं । कथं वेयणाखंडादिखंडगयस्स महाकम्मपयडिपाहुडत्तं ? ण, कदिया (दि)चउवीस-अणियोगद्दारेहिंतो एयंतेण पुधभूदमहाकम्मपयडिपाहुडाभावादो। एदेसिमणियोगद्दाराणं कम्मपयडिपाहडते संते पाहुड-बहत्तं पसजदे ण एस दोसो, कथंचि इच्छिजमाणतादो। कधं घेयणाए
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्गणाखंड-विचार
२९
महापरिमाणाए उवसंहारस्स इमस्स वेयणाखंडस्स वेयणा-भावो?ण, अवयवेहिंतो एयतेण पुधभूदस्सअवयविस्स अणुवलंभादो। ण च वेयणाए बहुत्तमणिट्टमिाञ्छजमाणत्तादो। कधं भूदवलिस्स गोदमत्तं ? किं तस्स गोदमत्तेण? कधमण्णहा मंगलस्स णिबद्धत्तं ? ण, भूदबलिस्स खंड-गंथं पडि कत्तारत्ताभावादो। ण च अण्णेण कय-गंथा. हियाराणं एगदेसस्स पुब्विहा (पुब्विल्ल) सद्दथ-संदब्भस्स परूवओ कत्तारो होदि, अइप्पसंगादी। अधवा भूदबली गोदमो चेव एगाहिप्पायचादो। तदो सिद्धं णिबद्धमंगलत्तं पि । उवरि उच्चमाणेसु तिसु खंडेसु... इत्यादि।
१ शंका- इनमें से, अर्थात् निबद्ध और अनिबद्ध मंगलोंमेंसे, यह मंगल निबद्ध है या अनिबद्ध ?
समाधान-यह निबद्ध मंगल नहीं है, क्योंकि कृति आदि चौवीस अवयवोंधाले महाकर्मप्रकृतिपाहुडके आदिमें गोतमस्वामीद्वारा इसका प्ररूपण किया गया है । भूतबलि स्वामीने उसे वहांसे लाकर वेदनाखंडके आदिमें मंगलके निमित्त रख दिया है। इसलिये उसमें निबद्धत्वका विरोध है। वेदनाखंड कुछ महाकर्मप्रकृतिपाहुड तो है नहीं, क्योंकि अवयवको ही अवयवी मानने विरोध आता है। और भूतबलि गौतमस्वामी हो नहीं सकते, क्योंकि विकल श्रुतके धारक और धरसेनाचार्य के शिष्य ऐसे भूतबलिमें सकलश्रुतके धारक और वर्धमानस्वामीके शिष्य ऐसे गौतमपनेका विरोध है। और कोई प्रकार निबद्ध मंगलपनेका हेतु होता नहीं है, इसलिये यह मंगल अनिबद्ध मंगल है । अथवा, यह निबद्ध मंगल भी हो सकता है।
२ शंका-वेदनाखंड आदि खंडोंमें समाविष्ट (ग्रंथ ) को महाकर्मप्रकृतिपाहुडपना कैसे प्राप्त हो सकता है ?
__ समाधान-क्योंकि कृति आदि चौवीस अनुयोगद्वारों से सर्वथा पृथक्भूत महाकर्मप्रकृतिपाहुडकी कोई सत्ता नहीं है ।
३ शंका-इन अनुयोगद्वारोंमें कर्मप्रकृतिपाहुडत्व मान लेनेसे तो बहुतसे पाहुड माननेका प्रसंग आ जाता है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यह बात कथंचित् अर्थात् एक दृष्टिसे अभीष्ट है।
४ शंका-महापरिमाणवाली वेदनाके उपसंहाररूप इस वेदनाखंडको वेदना अनुयोगद्वार कैसे माना जाय !
समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि अवयवोंसे एकान्ततः पृथक्भूत अवयवी तो पाया नहीं जाता। और इससे यदि एकसे अधिक वेदना माननेका प्रसंग आता है तो वेदनाके बहुत्वसे कोई अनिष्ट भी नहीं, क्योंकि वह बात इष्ट ही है।
५ शंका-भूतबलिको गौतम कैसे मान लिया जाय ?
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
षट्खंडागमकी प्रस्तावना
समाधान — भूतबलिको गौतम माननेका प्रयोजन ही क्या है ?
६ शंका - यदि भूतबलिको गौतम न माना जाय तो मंगलको निबद्धपना कैसे प्राप्त हो सकता है ?
३०
समाधान - क्योंकि भूतबलिके खंडग्रंथ के प्रति कर्तापनेका अभाव है । कुछ दूसरे के द्वारा रचे गये ग्रंथाधिकारोंमेंसे एक देशका पूर्व प्रकारसे ही शब्दार्थ और संदर्भका प्ररूपण करनेवाला ग्रंथकर्ता नहीं हो सकता क्योंकि इससे तो अतिप्रसंग दोष अर्थात् एक ग्रंथके अनेक कर्ता होनेका प्रसंग आ जायगा । अथवा, दोनोंका एक ही अभिप्राय होनेसे भूतबलि गौतम ही है । इसप्रकार यहां निबद्ध मंगलत्व भी सिद्ध हो जाता है ।
पर प्रथम शंका समाधानमें यह स्पष्ट कर दिया गया है कि वेदनाखंड के अन्तर्गत पूरा वेदना और वर्गणा- महाकम्मपयडिपाहुडका विषय नहीं है - वह उस पाहुडका एक अवयव मात्र है, अर्थात् उसमें उक्त पाहुडके चौवीसों अनुयोगद्वारोंका अन्तर्भाव नहीं किया जा सकता । महाकर्मप्रकृतिपाहुड अवयवी है और वेदनाखंड उसका एक अवयव ।
खंडोंकी सीमाओं का निर्णय
दूसरे शंका समाधानसे यह सूचना मिलती है कि कृति आदि चौवीस अनुयोगद्वारों में अकेला वेदनाखंड नहीं फैला है, वेदना आदि खंड हैं अर्थात् वर्गणा और महाबंध का भी अन्तर्भाव वहीं है । तीसरे शंका समाधानमें कर्मप्रकृतिपाहुड के कृति आदि अवयवों में भी एक दृष्टिसे पाहुडपना स्थापित करके चौथेमें स्पष्ट निर्देश किया गया है कि वेदनाखंड में गौतमस्वामीकृत बड़े विस्तारवाले वेदना अधिकारका ही उपसंहार अर्थात् संक्षेप है । यह वेदना धवलाकी अ. प्रतिमें पृ. ७५६ पर प्रारम्भ होती है जहां कहा गया है
कम्म जणिय वेयण उवहि समुत्तिष्णए जिणे णमिउँ । यणमहाहियारं विविहहियारं परूवेमो ॥
और वह उक्त प्रतिके ११०६ वें पत्रपर समाप्त होती है जहां लिखा मिलता है-
' एवं वेयण - अप्पा बहुगाणिओगद्दारे समन्ते वेयणाखंड समन्ता ।
इसप्रकार इस पुष्पिकावाक्यमें अशुद्धि होते हुए भी वहां वेदनाखंडकी समाप्तिमें कोई शंका नहीं रह जाती ।
पांचवें और छठवें शंका समाधानमें भूतबलि और गौतममें ग्रंथकर्ता व अभिप्रायकी अपेक्षा एकत्व स्थापित किया गया है जो सहज ही समझमें आजाता है । इसप्रकार उक्त मंगल निबद्ध भी सिद्ध करके बता दिया गया है ।
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्गणाखंड - विचार
३१
इसप्रकार उक्त शंका समाधान से वेदनाखंडकी दोनों सीमायें निश्चित हो जाती हैं । कृति तो वेदनाखंडके अन्तर्गत है ही क्योंकि उक्त शंका समाधानकी सूचना के अतिरिक्त मंगलाचरणके साथ ही वेदनाखंडका प्रारंभ माना ही गया है ।
वेदनाखंडके विस्तारका एक और प्रमाण उपलब्ध है । टीकाकारने उसका परिमाण सोलह हजार पद बतलाया है । यथा, ' खंडगंथं पडुच्च वेयणाए सोलसपदसहस्साणि ' । यह पदसंख्या भूतबलिकृत सूत्र-ग्रंथकी अपेक्षा से ही होना चाहिये । अतएव जबतक यह न ज्ञात हो जावे कि पदसे यहां धवलाकारका क्या तात्पर्य है तथा वेदनादि खंडोंके सूत्र अलंग करके उन पर वह माप न लगाया जावे तबतक इस सूचनाका हम अपनी जांच में विशेष उपयोग नहीं कर सकते । तो भी चूंकि टीकाकारने एक अन्य खंडकी भी इसप्रकार पद संख्या दी है और उस खंडकी सीमादिके विषयमें कोई विवाद नहीं है इसलिये हमें उनकी तुलनासे कुछ आपेक्षिक ज्ञान अवश्य हो जायगा । धवलाकारने जीवट्ठाण खंडकी पद संख्या अठारह हजार बतलाई है - ' पदं पडुच अट्ठारहपदसहस्सं ' ( संत प. पू. ६० ). इससे यह ज्ञात हुआ कि वेदनाखंडका परिमाण जीवट्ठाणसे नवमांश कम है । जीवाण के ४७५ पत्रोंका नवमांश लगभग ५३ होता है, अतः साधारणतया वेदनाखंडकी पत्र संख्या ४७५-५३=४२२ के लगभग होना चाहिये । ऊपर निर्धारित सीमाके अनुसार वेदनाकी पत्र संख्या प्रत्यक्षमें ६६७ से ११०६ तक अर्थात् ४३८ है जो आपेक्षिक अनुमानके बहुत नजदीक पड़ती है । समस्त चौवीस अनुयोगद्वारोंको वेदना के भीतर मान लेनेसे तो जीवद्वाणकी अपेक्षा वेदनाखंड धवला के तिगुनेसे भी अधिक बड़ा हो जाता है ।
जब वेदनाखंडका उपसंहार वेदनानुयोगद्वार के साथ हो गया तब प्रश्न उठता है कि उसके आगे फास आदि अनुयोगद्वार किस खंडके अंग रहे ? ऊपर वेदनादि वर्गण निर्ण तीन खंडोंके उल्लेखोंके विवेचन से यह स्पष्ट ही है कि वेदनाके पश्चात् वर्गणा और उसके पश्चात् महाबंधकी रचना है । महाबंधकी सीमा निश्चितरूपसे निर्दिष्ट है क्योंकि धवला में स्पष्ट कर दिया गया है कि बन्धन अनुयोगद्वारके चौथे प्रभेद बन्धविधानके चार प्रकार प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबंधका विधान भूतबलि भट्टारकने महाबंध में विस्तारसे लिखा है, इसलिये वह धवला के भीतर नहीं लिखा गया । अतः यहाँतक वर्गणाखंडकी सीमा समझना चाहिये। वहांसे आगेके निबन्धनादि अठारह अधिकार टीकाकी सूचनानुसार चूलिका रूप हैं । वे टीकाकार कृत हैं भूतबलिकी रचना नहीं हैं ।
उक्त खंड विभागको सर्वथा प्रामाणिक सिद्ध करनेके लिये अब केवल उस प्रकारके किसी प्राचीन विश्वसनीय स्पष्ट उल्लेखमात्रकी अपेक्षा और रह जाती है । सौभाग्यसे ऐसा एक
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२
षट्खंडागमको प्रस्तावना उल्लेख भी हमें प्राप्त हो गया है। मूडविद्रीके पं. लोकनाथजी शास्त्रीने वीरवाणीविलास जैन सिद्धांतभवनकी प्रथम वार्षिक रिपोर्ट (१९३५) में मूडविदीकी ताडपत्रीय प्रतिपरसे महाधवल ( महाबंध ) का कुछ परिचय अवतरणों सहित दिया है । इससे प्रथम बात तो यह जानी जाती है कि पंडितजीको उस प्रतिमें कोई मंगलाचरण देखनेको नहीं मिला । वे रिपोर्ट में लिखते हैं " इसमें मंगलाचरण श्लोक, ग्रंथको प्रशस्ति वगैरह कुछ भी नहीं है।" पं. लोकनाथजी की यह रिपोर्ट महत्वपूर्ण है क्योंकि पंडितजीने ग्रंथको केवल ऊपर नीचे ही नहीं देखा-उन्होंने कोई चार वर्षतक परिश्रम करके पूरे महाधवल ग्रंथकी नागरी प्रतिलिपि तैयार की है जैसा कि हम प्रथम जिल्दकी भूमिकामें बतला आये हैं । अतएव उस ग्रंथका एक एक शब्द उनकी दृष्टि
और कलमसे गुज़र चुका है । उनके मतसे पूर्वोक्त ' मंगलकरणादो' पदमें हमारे ‘मंगलाकरणादो' रूप सुधार की पुष्टि होती है
दूसरी बात जो महाधवलके अवतरणोंमें हमें मिलती है वह खंडविभागसे संबंध रखती है । महाबंधपर कोई पंचिका भी उस प्रतिमें प्रथित है जैसा कि अवतरणकी प्रथम पंक्तिसे ज्ञात होता है
'वोच्छामि संतकम्मे पंचियरूवेण विवरणं सुमहत्थं' इसी पंचिकाकारने आगे चलकर कहा है--
'महाकम्मपयडिपाहुडस्स कदि-वेदणाओ(दि) चौव्वीसमणियोगहारेसु तस्थ कदि-वेदणा त्ति जाणि अणियोगहाराणि वेदणाखंडम्हि, पुणो पास (-कम्म-पयडि-बंधणाणि) चत्तारि अणियोगदारेसु तत्थ बंध बंधणिज्जणामणियोगेहि सह वग्गणाखंडम्हि, पणो बंधविधाणमणियोगो खुदाबंधम्मि सप्पवंचेण परविदाणि । पुणो तेहिंतो सेसट्टारसणियोगद्दाराणि सत्तकम्मे सव्वाणि परविदाणि । तो वि तस्सइगंभीरत्तादो अस्थविसमपदाणमस्थे थोरुद्धयेण पंचियसरूवेण भणिस्सामो' |
इस अवतरणमें शब्दोंमें अशुद्धियां हैं। कोष्टकके भीतरके सुधार या जोड़े हुए पाठ मेरे हैं । पर उसपरसे तथा इससे आगे जो कुछ कहा गया है उससे यह स्पष्ट जान पड़ा कि यहां निबंधनादि अठारह अधिकारोंकी पंजिका दी गई है। उन अठारह अधिकारोंका नाम ‘सत्तकम्म' था, जिससे इन्द्रनन्दिके सत्कर्मसंबंधी उल्लेखकी पूरी पुष्टि होती है। प्राप्त अवतरण परसे महाधवल की प्रति व उसके विषय आदिके संबंधमें अनेक प्रश्न उपस्थित होते हैं, और प्रतिकी परीक्षाकी बड़ी अभिलाषा उत्पन्न होती है, किन्तु उस सबका नियंत्रण करके प्रकृत विषयपर आनेसे उक्त अवतरणमें प्रस्तुतोपयोगी यह बात स्पष्ट रूपसे मालूम हो जाती है, कि कृति
.........................
x यह अवतरण सं. प. जिल्द १ की भूमिका पृ. ६८ पर दिया जा चुका है। पर वहां भूलसे 'पुणोते. हिंडो' आदि बाथ छूट गया है। अतः प्रकृतोपयोगी उस अवतरणको यहां फिर पूरा दे दिया है।
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
णमोकार मंत्रके आदिकर्ता
३३
और वेदना अनुयोगद्वार वेदनाखंडके तथा फास, कम्म, पयडि और बंधन के बंध और बंधनीय भेद वर्गणाखंड के भीतर हैं । इससे हमारे विषयका निर्विवादरूपसे निर्णय हो जाता I
प्रथम जिल्दकी भूमिका में ठीक इसीप्रकार खंडविभागका परिचय कराया जा चुका है उस परिचयकी ओर पाठकों का ध्यान पुनः आकर्षित किया जाता है ।
४. णमोकार मंत्रके आदिकर्ता -
१.
जो ख्याति और प्रचार
हिन्दुओं में गायत्री मन्त्रका है तथा बौद्धोंमें त्रिसरण मन्त्रका था, वही जैनियोंमें णमोकार मन्त्रका है । धार्मिक तथा सामाजिक सभी कृत्यों व विधानोंके आरम्भमें जैनी इस मन्त्रका उच्चारण करते हैं । यही उनका दैनिक जपमन्त्र है । इसकी 1 प्रख्यातिका एक पथ निम्न प्रकार है, जो नित्य पूजनविधान में उच्चारण किया जाता है-
एसो पंच-मोयारो सव्वपापप्पणासणो । मंगलाणं च सव्वेसिं पढमं होइ मंगलं ॥
अर्थात् यह पंच नमस्कार मन्त्र सब पापों का नाश करने वाला है और सब मंगलों में प्रथम [ श्रेष्ठ ] मंगल है |
इस मन्त्रका प्रचार जैनियोंके तीनों सम्प्रदायों - दिगम्बर, श्वेताम्बर और स्थानकवासियोंमें समानरूपसे पाया जाता है । तीनों सम्प्रदायोंके प्राचीनतम साहित्य में भी इसका उल्लेख मिलता है । किंतु अभी तक यह निश्चय नहीं हुआ कि इस मन्त्रके आदिकर्ता कौन हैं । यथार्थतः यह प्रश्न ही अभी तक किसी ने नहीं उठाया और इस कारण इस मन्त्रको अनादिनिधन जैसा पद प्राप्त हो गया 1
किन्तु षट्खंडागम और उसकी टीका धवलाके अवलोकनसे इस णमोकार मन्त्र के कर्तृस्वके सम्बन्धमें कुछ प्रकाश पड़ता है, और इसीका यहां परिचय कराया जाता है ।
षट्खंडागमका प्रथम खण्ड जीवट्ठाण है और इस खंडके प्रारम्भ में यही सुप्रसिद्ध मन्त्र पाया जाता है । टीकाकार वीरसेनाचार्य के अनुसार यही उक्त ग्रन्थका सूत्रकारकृत मंगलाचरण है । वे लिखते हैं कि
मंगल - णिमित्त - हेऊ - परिमाणं णाम तह य कत्तारं । वागरिय छप्पि पच्छा वक्खाणउ सत्थमाइरियो ॥ इदि णायमाइरिय - परंपरागयं मणेणावहारिय पुव्वाइरियायाराणुसरणं तिरयणहेउ त्ति पुप्फदंताइरियो मंगलादीणं छष्णं सकारणाणं परूवणटुं सुत्तमाह
णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं ॥
(सं० प० १, पृ० ७ अर्थात् ' मंगल, निमित्त, हेतु परिमाण, नाम और कर्ता. इन छहों का प्ररूपण करके
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
षट्खंडागमकी प्रस्तावना पश्चात् आचार्यको शास्त्रका व्याख्यान करना चाहिये । ' इस आचार्य परम्परागत न्याय को मनमें धारण करके पुष्पदन्ताचार्य मंगलादि छहोंके सकारण प्ररूपणक लिये सूत्र कहते हैं, ' णमो अरिहंताणं ' आदि ।
इसके आगे धवलाकारने इसी मंगलसूत्रको 'तालपलंब' सूत्रके समान देशामर्षक बतलाकर पूर्वोक्त मंगल, निमित्त आदि छहों का प्ररूपक सिद्ध किया है । तत्पश्चात् मंगल शब्दकी व्युत्पत्ति व अनेक दृष्टियोंसे भेद प्रभेद बतलाते हुए मंगलके दो भेद इसप्रकार किये हैं
तच मंगलं दुविहं णिबद्धमणिबद्धमिदि । तत्थ णिबद्धं णाम जो सुत्तस्सादीए सुत्त कत्तारेण णिबद्धदेवदा-णमोकारो तं णिबद्ध-मंगलं । जो सुत्तस्सादीए सुतकत्तारण कयदेवदाणमोकारो तमणिबद्ध-मंगलं । इदं पुण जीवट्ठाणं णिबद्ध-मंगलं, यत्तो 'इमेसिं चोद्दसण्हं जीवसमाणं' इदि एदस्स सुत्तस्सादीए णिबद्ध-णमो अरिहंताणं' इच्चादिदेवदा-णमोकारदंसणादो।
(सं० प० १, पृ० ४१) अर्थात् मंगल दो प्रकारका है, निबद्ध और अनिबद्ध । सूत्रके आदिमें सूत्रकर्ता द्वारा जो देवता-नमस्कार निबद्ध किया जाय वह निबद्ध मंगल है और जो सूत्रके आदिमें सूत्रकर्ता द्वारा देवताको नमस्कार किया जाता है (किन्तु वह नमस्कार लिपिबद्ध नहीं किया जाता) वह अनिबद्ध-मंगल है। यह जीवट्ठाणं निबद्ध मंगल है, क्योंकि इसके 'इमेसिं चोदसण्हं' आदिसूत्रके पूर्व ' णमो अरिहंताणं' इत्यादि देवतानमस्कार पाया जाता है ।
इससे यह सिद्ध हुआ कि जीवट्ठाणके आदिमें जो यह णमोकार मंत्र पाया जाता है वह सूत्रकार पुष्पदन्त आचार्य द्वारा ही वहां रखा गया है और इससे उस शास्त्रको निबद्ध-मंगल संज्ञा प्राप्त हो जाती है। किन्तु इससे यह स्पष्ट ज्ञात नहीं होता कि यह मंगलसूत्र स्वयं पुष्पदन्ताचार्यने रचकर यहां निबद्ध किया है, या कहीं अन्यत्र से लेकर यहां रख दिया है । पर अन्यत्र धवलाकार ने इसका भी निर्णय किया है।
वेदनाखंडके आदिमें ‘णमो जिणाणं' आदि मंगलसूत्र पाये जाते हैं, जिनकी टीका करते हुए धवलाकारने उनके निबद्ध अनिबद्ध स्वरूप का विवेचन किया है । वे लिखते है--
तत्थेदं किं णिबद्धमाहो अणिबद्धमिदि ? ण ताव णिबद्ध-मंगलमिदं, महाकम्मपयडिपाहुडस्स कदियादि-चउवीस-अणियोगावयवस्स आदीए गोदमसामिणा परूविदस्स भूदबलिभडारएण वेयणाखंडस्स आदीए मंगलटुं तत्तो आणेदूण ठविदस्स णिबद्धत्त-विरोहादो। ण च बेयणाखंडं महाकम्मपयडिपाहुडं अवयवस्स अवयवित्तविरोहादो । ण च भूदबली गोदमो, विगलसुदधारयस्स धरसेणाइरियसीसस्स
गंतेवासि-गोदमत्तविरोहादो। ण चाण्गो पयारो णिबद्धमंगलत्तस्स हेदुभूदो अस्थि ।
अर्थात् यह मंगल (णमो जिणाणं, आदि) निबद्ध है या अनिबद्ध ! यह निबद्ध-मंगल तो नहीं है क्योंकि महाकर्मप्रकृतिपाहुडके कृति आदि चौवीस अनुयोगद्वारोंके आदिमें गौतमस्वामीने इस
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
णमोकार मंत्र आदिकर्ता
३५
मंगलका प्ररूपण किया है और भूतबलि भट्टारकने उसे वहांसे उठाकर मंगलार्थ यहां वेदनाखंडके आदिमें रख दिया है, इससे इसके निबद्ध - मंगल होने में विरोध आता है । न तो वेदनाखंड महाकर्मप्रकृतिपाहुड है, क्योंकि अवयवको अवयवी माननेमें विरोध आता है । और न भूतबली ही गौतम हैं क्योंकि विकलश्रुतके धारक और धरसेनाचार्य के शिष्य भूतबलिको सकलश्रुतके धारक और वर्धमान स्वामी के शिष्य गौतम माननेमें विरोध उत्पन्न होता है । और कोई प्रकार निबद्ध मंगलवका हेतु हो नहीं सकता ।
आगे टीकाकारने इस मंगलको निबद्धमंगल भी सिद्ध करने का प्रयत्न किया है, पर इसके लिये उन्हें प्रस्तुत ग्रन्थका महाकर्मप्रकृतिपाहुडसे तथा भूतबलिस्वामीका गौतमस्वामीसे बड़ी खींचातानी द्वारा एकत्व स्थापित करना पड़ा है । इससे धवळाकारका यह मत बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि दूसरे के बनाये हुए मंगलको अपने ग्रन्थ में जोड़ देनेसे वह शास्त्र निबद्धमंगल नहीं कहला सकता, निबद्ध - मंगलवकी प्राप्तिके लिये मंगल ग्रन्थकारकी ही मौलिक रचना होना चाहिये । अतएव जब कि धवलाकार जीवद्वाणको णमोकार मन्त्ररूप मंगलके होनेसे निबद्ध - मंगल मानते हैं तब वे स्पष्टतः उस मंगलसूत्रको सूत्रकार पुष्पदन्तकी ही मौलिक रचना स्वीकार करते हैं, वे यह नहीं मानते कि उस मंगल को उन्होंने अन्यत्र कहीं से लिया है । इससे धवलाकार आचार्य वरिसेनका यह मत सिद्ध हुआ कि इस सुप्रसिद्ध णमोकार मंत्र के आदिकर्ता प्रातः स्मरणीय आचार्य पुष्पदन्त ही हैं ।
२
णमोकार मंत्र के संबन्धमें श्वेताम्बर सम्प्रदायकी क्या मान्यता है और उसका पूर्वोक्त मतसे कहां तक सामञ्जस्य या वैषम्य है, इस पर भी यहां कुछ विचार किया जाता है । श्वेताम्बर आगमके अन्तर्गत छह छेदसूत्रोंमेंसे द्वितीय सूत्र ' महानिशीथ ' नामका है । इस सूत्र णमोकार मन्त्र के विषय में निम्न वार्ता पायी जाती है
एवं तु जं पंचमंगलमहासुयक्खंधस्स वक्खाणं तं महया पबंघेणं अनंतगमपजवेहिं सुत्तस्स य पियभूयाहिं णिज्जुत्ति-भास-चुन्नीहिं जहेव अनंत-नाण- दंसणधरेहिं तित्थयरेहिं वक्खाणियं तहेव समास वक्खाणिज्जं तं आसि । अहन्नया कालपरिहाणिदोसेणं ताओ णिज्जुत्ति-भास-चुन्नीओ वुच्छिन्नाओ । इओ य वणं कालेणं समएणं महिड्डिपत्ते पयाणुसारी वइरसामी नाम दुवालसंगसुअहरे समुपने । तेण य पंचमंगल- महासुयक्खंधस्स उद्धारो मूलसुत्तस्स मज्झे लिहिओ । मूलसुतं पुण सुत्तत्ताए गणहरेहिं अत्यत्ताए अरिहंतेहिं भगवंतेहिं धम्मतित्थयरेहिं तिलोगमहिएहिं वीरजिनिंदेहिं पन्नवियं ति एस वुडसंपयाओ । ( महानिशीथ सूत्र, अध्याय ५ )
इसका अर्थ यह है कि इस पंचमंगल महाश्रुतस्कंधका व्याख्यान महान प्रबंधसे, अनन्त गम और पर्यायों सहित, सूत्रकी प्रियभूत निर्युक्ति, भाष्य और चूर्णियों द्वारा जैसा अनन्त ज्ञान - दर्शन के
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६
षट्खंडागमकी प्रस्तावना
धारक तीर्थंकरोंने किया था उसीप्रकार संक्षेपमें व्याख्यान करने योग्य था । किन्तु आगे कालपरिहानिके दोषसे वे निर्युक्ति, भाष्य और चूर्णियां विच्छिन्न हो गई । फिर कुछ काल जाने पर यथासमय महाऋद्धिको प्राप्त पदानुसारी वइरसामी ( वैरस्वामी या वज्रस्वामी ) नामके द्वादशांग श्रुतके धारक उत्पन्न हुए । उन्होंने पंचमंगल महाश्रुतस्कंधका उद्धार मूलसूत्र के मध्य लिखा । यह मूलसूत्र सूत्रत्वकी अपेक्षा गणधरों द्वारा तथा अर्थकी अपेक्षासे अरहंत भगवान, धर्मतीर्थकर त्रिलोकमहित वीरजिनेंद्र के द्वारा प्रज्ञापित है, ऐसा वृद्धसम्प्रदाय है ।
यद्यपि महानिशीथसूत्र की रचना श्वेताम्बर सम्प्रदाय में बहुत कुछ पीछेको अनुमान की जाती है, तथापि उसके रचयिताने एक प्राचीन मान्यताका उल्लेख किया है जिसका अभिप्राय यह है कि इस पंचमंगलरूप श्रुतस्कंधके अर्थकर्ता भगवान् महावीर हैं और सूत्ररूप ग्रंथकर्ता गौतमादि गणधर हैं । इसका तीर्थंकर कथित जो व्याख्यान था वह कालदोषसे विच्छिन्न हो गया । तब द्वादशांग श्रुतधारी वइरस्वामीने इस श्रुतस्कंधका उद्धार करके उसे मूल सूत्रके मध्य में लिख दिया । श्वेताम्बर आगममें चार मूल सूत्र माने गये हैं- आवश्यक, दशत्रैकालिक, उत्तराध्ययन और पिंडनिर्युक्ति । इनमें से कोई भी सूत्र वज्रसूरि के नामसे सम्बद्ध नहीं है । उनकी चूर्णियां भद्रबाहुकृत कही जाती हैं । उन मूल सूत्रोंमें प्रथम सूत्र आवश्यक के मध्य में णमोकार मंत्र पाया जाता है । अतएव उक्त मान्यता के अनुसार संभवतः यही वह मूलसूत्र है जिसमें वज्रसूरिने उक्त मंत्रको प्रक्षिप्त किया ।
कल्पसूत्र स्थविरावली में
दूसरे के गुरु-शिष्य थे । यथा
वइर
' नामके दो आचार्योंका उल्लेख मिलता है जो एक
थेरस्स णं अज्ज-सीहगिरिस्स जाइस्सरस्स कोसियगुत्तस्स अंतेवासी थेरे अजवइरे गोयमसगुते । थेरस्स णं अज्जवइरस्स गोयमसगुत्तस्स अंतेवासी थेरे अजवइरसेणे उक्कोसियगुत्ते ।
अर्थात् कौशिक गोत्रीय स्थविर आर्य सिंहगिरिके शिष्य स्थविर आर्य वइर गोतम गोत्रीय हुए, तथा स्थविर आर्य वइर गोतम गोत्रीय के शिष्य स्थविर आर्य वइरसेन उक्को सय गोत्रीय हुए । विक्रमसंवत् १६४६ में संगृहीत तपागच्छ पट्टावली में वइरखामीका कुछ विशेष परिचय पाया जाता है । यथा—
तेरसमो वयरसामि गुरु |
व्याख्या - तेरसमोति श्रीसीह गिरिपट्टे त्रयोदशः श्रीवज्रस्वामी यो बाल्यादपि जातिस्मृतिभाग्, नभोगमनविद्यया संघरक्षाकृत्, दक्षिणस्यां बौद्धराज्ये जिनेन्द्र पूजानिमित्तं पुष्पाद्यानयनेन प्रवचनप्रभावनाकृत्,
× Winternity : Hist. Ind. Lit. II, P. 465.
* पट्टावली समुच्चय, (पृ. ३ )
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
णमोकार मंत्रके आदिकर्ता
३७ देवाभिवंदितो दशपूर्वविदामपश्चिमो वज्रशाखोत्पत्तिमूलम् । तथा स भगवान् षण्णवत्यधिकचतुःशत ४९६ वर्षान्ते जातः सन् अष्टौ ८ वर्षाणि गृहे, चतुश्वरवारिंशत् ४४ वर्षाणि व्रते, पत्रिंशत् ३६ वर्षाणि युगप्र. सर्वायरष्टाशीति ८८ वर्षाणि परिपाल्य श्रीवीरात् चतुरशीत्यधिकपंचशत ५८४ वर्षान्ते स्वर्गभाक । श्रीवनस्वामिनो दशपूर्व-चतुर्थ-संहननसंस्थानानां व्युच्छेदः।।
चतुष्कुलसमुत्पत्तिपितामहमहं विभुम् ।
दशपूर्वविधिं वन्दे वज्रस्वामिमुनीश्वरम् ॥ * इस उल्लेखपरसे वइरस्वामीके संबंधमें हमें जो बातें ज्ञात होती हैं वे ये हैं कि उनका जन्म वीरनिर्वाण से ४९६ वर्ष पश्चात् हुआ था और स्वर्गवास ५८४ वर्ष पश्चात् । उन्होंने दक्षिण दिशामें भी विहार किया था तथा वे दशपूर्वियोंमें अपश्चिम थे। वीरवंशावलीमें भी उनके उत्तरदिशासे दक्षिणापथको विहार करनेका उल्लेख किया गया है, और यह भी कहा गया है कि वहांके ' तुंगिया' नामक नगरमें उन्होंने चातुर्मास व्यतीत किया था। वहांसे उन्होंने अपने एक शिष्यको सोपारक पत्तन (गुजरात) में विहार करनेकी भी आज्ञा दी थी। इन उल्लेखोंपरसे उनके पुष्पदन्ताचार्यकी विहारभूमिसे संबन्ध होनेकी सूचना मिलती है।
तपागच्छ पट्टावलीमें वइरस्वामीसे पूर्व आर्यमंगुका उल्लेख आया है जिनका समय नि. सं. ४६७ बतलाया गया है । यथा
___ सप्तषष्टयधिकचतुःशतवर्षे ४६७ आर्यमंगुः । आर्यमंगुका कुछ विशेष परिचय नन्दीसूत्र पट्टावलीमें इसप्रकार आया है। -
भणगं करगं सरगं पभावगं णाण-दसण-गुणाणं ।
वंदामि अजमंगुं सुयसागरपारगं धीरं ॥ २८ ॥ । अर्थात् ज्ञान और दर्शन रूपी गुणोंके वाचक, कारक, धारक और प्रभावक, तथा श्रुतसागरके पारगामी धीर आर्यमंगुकी मैं वन्दना करता हूं। इसके अनन्तर अजधम्म और भगुत्तके उल्लेखके पश्चात् अजवयरका उल्लेख है। इन उल्लेखोंपरसे जान पड़ता है कि ये आर्यमंगु अन्य कोई नहीं, धवला जयधवलामें उल्लिखित आर्यमंखु ही हैं, जिनके विषयमें कहा गया है कि उन्होंने और उनके सहपाठी नागहथीने गुणधराचार्य द्वारा पंचमपूर्व ज्ञानप्रवादसे उद्धार किये हुए कसायपाहुडका अध्ययन किया था और उसे जइवसह ( यतिवृषभाचार्य) को सिखाया था । उक्त नन्दीसूत्र पट्टावलीमें अज्जवयरके अनन्तर अजरक्खिअ और अन्ज नन्दिलखमणके पश्चात् अज्ज नागहत्थी का भी उल्लेख इसप्रकार आया है
* पट्टावली समुच्चय, पृ. ४७. x जैन साहित्य संशोधक १, २, परिशिष्ट, पृ. १४. + पहावली समुच्चय, पृ. १३.
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
षट्खंडागमको प्रस्तावना वडर वायगवंसो जसवंसो अज-नागहस्थीणं ।
वागरण-करणभंगिय-कम्मपयडी-पहाणाणं ॥ ३०॥ अर्थात् व्याकरण, करणभंगी व कर्मप्रकृतिमें प्रधान आर्य नागहस्तीका यशस्वी वाचक वंश वृद्धिशील होवे ।
इसमें सन्देहको स्थान नहीं कि ये ही वे नागहत्थी हैं जो धवलादि ग्रंथोंमें आर्यमंखु के सहपाठी कहे गये हैं । उनके व्याकरणादिके अतिरिक्त ' कम्मपयडी' में प्रधानताका उल्लेख तो बड़ा ही मार्मिक है। श्वेताम्बर साहित्यमें कम्मपयडी नामका एक ग्रंथ शिवशर्मसूरि कृत पाया जाता है जिसका रचनाकाल अनिश्चित है। एक अनुमान उसके वि. सं. ५०० के लगभगका लगाया जाता है । अतएव यह ग्रंथ तो नागहस्ती के अध्ययनका विषय हो नहीं सकता। फिर या तो यहां कम्मपयडीसे विषयसामान्य का तात्पर्य समझना चाहिये, अथवा, यदि किसी ग्रंथ-विशेष से ही उसका अभिप्राय हो तो वह उसी कम्मपयडी या महाकम्मपयडिपाहुड से हो सकता है जिसका उद्धार पुष्पदन्त और भूतबलि आचार्योंने षटखंडागम रूपसे किया है।
तपागच्छ पट्टावलीसे कोई सवा तीनसौ वर्ष पूर्व वि. सं. १३२७ के लगभग श्री धर्मघोष सरि द्वारा संगृहीत ‘सिरि-दुसमाकाल-समणसंघ-थयं' नामक पट्टावली में तो 'वइर' के पश्चात् ही नागहथिका उल्लेख किया गया है । यथा
बीए तिवीस बरंच नागहत्थि च रेवईमित्तं ।
सीहं नागजुणं भइदिक्षियं कालयं वंदेx॥१३॥ ये वइर, वइर द्वितीय या कल्पसूत्र पट्टावलीके उक्कोसिय गोत्रीय वईरसेन हैं जिनका समय इसी पट्टावलीकी अवचूरीमें राजगणनासे तुलना करते हुए नि. सं. ६१७ के पश्चात् बतलाया गया है। यथा
पुष्पमित्र (दुर्बलिका पुष्पमित्र)२०॥ तथा राजा नाहडः॥१०॥ (एवं)६०५ शाकसंवत्सरः॥ अत्रान्तरे वोटिका निर्गता । इति ६१७ ॥ प्रथमोदयः । वयरसेण ३ नागहस्ति ६९ रेवतिमित्र ५९ बंभदीवगसिंह ७८ नागार्जुन ७८
पणसयरी सयाई तिग्नि-सय-समनिआई अइकमऊ।
विकमकालाओ तो बहुली (वलभी) भंगो समुप्पनी ॥१॥ इसके अनुसार वीरसंवत्के ६१७ वर्ष पश्चात् वयरसेनका काल तीन वर्ष और उनके अनन्तर नागहस्तिका काल ६९ वर्ष पाया जाता है ।
पूर्वोक्त उल्लेखोंका मथितार्थ इस प्रकार निकलता है-श्वेताम्बर पट्टावलियोंमें 'वर' नामके दो आचार्योंका उल्लेख पाया जाता है जिनके नाममें कहीं कहीं 'अज वइर' और 'अज वइरसेन'
४ पट्टानली समुच्चय, पृ. १६.
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
णमोकार मंत्र आदिकर्ता
३९
इसप्रकार भेद किया गया है । कल्पसूत्र स्थविरावली में एकको गौतम गोत्रीय और दूसरेको उक्कोसिय गोत्रीय कहा है और उन्हें गुरु-शिष्य बतलाया है । किन्तु अन्य पीछेकी पट्टावलियोंमें उनके बीच कहीं कहीं एक दो नाम और जुड़े हुए पाये जाते हैं । प्रथम अज्जवइरके समयका उल्लेख उनके वीरनिर्वाणके ५८४ वर्षतक जीवित रहनेका मिलता है व अज्ज वइरसेनका उल्लेख वीरनिर्वाणसे ६१७ वर्ष पश्चात्का पाया जाता है । इन दोनों आचार्योंसे पूर्व अज्जमंगुका उल्लेख है, तथा उनके अनन्तर नागहत्यिका । अतः इन चारों आचार्योंका समय निम्न प्रकार पड़ता है
-
वीर निर्वाण संवत्
४६७
४९६-५८४
६१७-६२०
६२०-६८९
अज्ज मंगु
अज्ज वइर
अज्ज वइरसेन अज्ज नागहत्थी
अज्ज वर दक्षिणापथको गये, वे दशपूर्खोके पाठी हुए और पदानुसारी थे तथा उन्होंने पंच णमोकार मंत्र का उद्धार किया । नागहत्थी कम्मपयडिमें प्रधान हुए ।
दिगम्बर साहित्योल्लेखों के अनुसार आचार्य पुष्पदन्तने पहले पहले ' कम्मपयडी ' का उद्धार कर सूत्ररचना प्रारंभ की और उसीके प्रारंभ में णमोकार मंत्र रूपी मंगल निबद्ध किया, जो धवलाटीका के कर्ता वीरसेनाचार्य के मतानुसार उनकी मौलिक रचना प्रतीत होती है । अज्जमंखु और नागहत्थि - दोनोंने गुणधराचार्य रचित कसायपाहुडको आचार्य परंपरा से प्राप्तकर यतिवृषभाचार्यको पढ़ाया, और यतिवृषभाचार्यने उसपर चूर्णिसूत्र रचे, ऐसा उल्लेख धवलादि ग्रंथों में मिलता है । यतिवृषभकृत ' तिलोयपण्णत्ति ' में ' वइरजस' नामके आचार्यका उल्लेख मिलता है जो प्रज्ञाश्रमणों में अन्तिम कहे गये हैं । यथा -
पन्हसमणेषु चरिमो वइरजसो णाम । x
आश्चर्य नहीं जो ये अन्तिम प्रज्ञाश्रमण वइरजस ( वज्रयश ) श्वेताम्बर पट्टावलियोंके पदानुसारी बहर (वज्रस्वामी ) ही हों । पदानुसारित्व और प्रज्ञाश्रमणत्व दोनों ऋद्धियोंके नाम हैं और ये दोनों ऋद्धियां एक ही बुद्धि ऋद्धिके उपभेद हैं* । धवलान्तर्गत वेदनाखंड में निबद्ध गौतमस्वामीकृत मंगलाचरणमें इन दोनों ऋद्धियोंके धारक आचार्यों को नमस्कार किया गया है, यथाणमो पदानुसारीणं ॥ ८ ॥ णमो पण्हसमणाणं ॥ १८ ॥
G
* संतपरूवणा १, भूमिका पृ. ३०, फुटनोट
* राजवार्तिक पृ. १४३
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
षट्खंडागमकी प्रस्तावना इसप्रकार इन आचार्योकी दिगम्बर मान्यताका क्रम निम्न प्रकार सूचित होता हैधरसेन
, अन्तिमप्रज्ञाश्रमण
गुणधर
गुणधर
वहरजस पुष्पदन्त भूतबलि
आर्यमंखु नागहत्थी
यतिवृषभ वइरजसका नाम यतिवृषभसे पूर्व ठीक कहां आता है इसका निश्चय नहीं। आर्यमंखु और नागहत्यीके समकालीन होनेकी स्पष्ट सूचना पाई जाती है क्योंकि उन दोनोंने क्रमसे यतिवृषभको कसायपाहुड पढ़ाया था । क्रमसे पढ़ानेसे तथा आर्यमंखुका नाम सदैव पहले लिये जानेसे इतना ही अनुमान होता है कि दोनोमें आर्यमंखु संभवतः जेठे थे। ये दोनों नाम श्वेताम्बर पट्टावलियोंमें कोई १३० वर्षके अन्तरसे दूर पड़ जाते हैं जिससे उनका समकालीनत्व नहीं बनता । किन्तु यह बात विचारणीय है कि श्वेताम्बर पट्टावलियोंमें ये दोनों नाम कहीं पाये जाते हैं और कहीं छोड़ दिये जाते हैं, तथा कहीं उनसे एकका नाम मिलता है दूसरेका नहीं। उदाहरणार्थ, सबसे प्राचीन कल्पसूत्र स्थविरावली' तथा ' पट्टावली सारोद्धार ' में ये दोनों नाम नहीं हैं, और 'गुरु पट्टावली' में आर्यभंगुका नाम है पर नागहत्थीका नहीं है । फिर आर्यमंखु
और नागहथीने जिनका रचा हुआ कसायपाहुड आचार्य-परंपरासे प्राप्त किया था वे गणधराचार्य दिगम्बर उल्लेखोंके अनुसार महावीर स्वामीसे आचार्य-परम्पराकी अट्ठाईस पीढ़ी पश्चात् निर्वाण संवत्की सातवीं शताब्दिमें हुए सूचित होते हैं जब कि श्वेताम्बर पट्टावलियोंमें उन दोनोंमें से एक पांचवीं और दूसरे सातवीं शताब्दिमें पड़ते हैं। इसप्रकार इन सब उल्लेखों परसे निम्न प्रश्न उपस्थित होते हैं:
१. क्या · तिलोय-पण्णत्ति' में उल्लिखित 'वइरंजस' और महानिशीथसूत्रके पदानुसारी ' वइरसामी ' तथा श्वेतांबर पट्टावलियोंके ' अज्ज वइर' एक ही हैं ?
२. 'वइरस्वामीने मूलसूत्रके मध्य पंचमंगलश्रुतस्कंधका उद्धार लिख दिया' इस महानिशीथसूत्रकी सूचनाका तात्पर्य क्या है ? क्या उनकी दक्षिण यात्राका और उनके पंचमंगलसूत्रकी प्राप्तिका कोई सम्बन्ध है ? क्या धवलाकारद्वारा सूचित णमोकार मंत्रके कर्तृत्वका इससे सामञ्जस्य बैठ सकता है ?
३. क्या धवलादिश्रुतमें उल्लिखित आर्यमखु और नागहत्थी तथा श्वेताम्बर पट्टावलियोंके अज्जमंगु और नागहत्थी एक ही हैं ! यदि एक ही हैं, तो एक जगह दोनोंकी समसामयिकता
x देखो पट्टावली समुच्चय ।
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
बारहवें श्रुताङ्ग दृष्टिवादका परिचय प्रकट होने और दूसरी जगह उनके बीच एकसौ तीस वर्षका अन्तर पड़नेका क्या कारण हो सकता है ? पट्टावलियोंमें भी कहीं उनके नाम देने और कहीं छोड़ दिये जानेका भी कारण क्या है ?
४. जिस कम्मपयडीमें नागहत्थीने प्रधानता प्राप्त की थी क्या वह पुष्पदन्त भूतबलि द्वारा उद्धारित कम्मपयडिपाहुड हो सकता है !
५. दिगम्बर और श्वेताम्बर पट्टावलियों आदिमें उक्त आचार्योंके कालनिर्देशमें वैषम्य पड़नेका कारण क्या है ?
इन प्रश्नोंमेंसे अनेकके उत्तर पूर्वोक्त विवेचनमें सूचित या ध्वनित पाये जावेंगे, फिर भी उन सबका प्रामाणिकतासे उत्तर देना विना और भी विशेष खोज और विचारके संभव नहीं है। इस कार्यके लिये जितने समयकी आवश्यकता है उसकी भी अभी गुंजाइश नहीं है । अतः यहां इतना ही कहकर यह प्रसंग छोड़ा जाता है कि उक्त आचार्यों संबंधी दोनों परम्पराओंके उल्लेखोंका भारी रहस्य अवश्य है, जिसके उद्घाटनसे दोनों सम्प्रदायोंके प्राचीन इतिहास और उनके बीच साहित्यिक आदान प्रदानके विषय पर विशेष प्रकाश पड़नेकी आशा की जा सकती है।
इस प्रकरणको समाप्त करनेसे पूर्व यहां यह भी प्रकट कर देना उचित प्रतीत होता है कि श्वेताम्बर आगमके अन्तर्गत भगवतीसूत्रमें जो पंच-नमोकार-मंगल पाया जाता है उसमें पंचम पद अर्थात् ' णमो लोए सव्वसाहूणं ' के स्थानपर ' णमो बंभीए लिवीए' ( ब्राह्मी लिपिको नमस्कार ) ऐसा पद दिया गया है। उड़ीसाकी हाथीगुफामें जो कलिंग नरेश खारवेलका शिलालेख पाया जाता है और जिसका समय ईस्वी पूर्व अनुमान किया जाता है, उसमें आदि मंगल इसप्रकार पाया जाता है
णमो अरहंताणं । णमो सव सिधाणं ।
ये पाठभेद प्रासंगिक हैं या किसी परिपाटीको लिये हुए हैं, यह विषय विचारणीय है। श्वेताम्बर सम्प्रदायमें किसी किसीके मतसे णमोकार सूत्र अनार्ष है ।
५ बारहवें श्रुताङ्ग दृष्टिवादका परिचय हम सत्प्ररूपणा प्रथम जिल्दकी भूमिकामें कह आये हैं कि बारहवां श्रुतांग दृष्टिवाद श्वेताम्बर मान्यताके अनुसार भी विच्छिन्न होगया, तथा दिगम्बर मान्यतानुसार उसके कुछ अंशोंका
.............
x • ये तु वदन्ति नमस्कारपाठ एव नार्ष ... ... ... ... ' इत्यादि । देखो अभिधानराजेन्द्र-णमोकार, पृ. १८३५.
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२
षट्खंडागमकी प्रस्तावना उद्धार षट्खंडागम और कषायप्राभृतमें पाया जाता है। किन्तु शेष भागोंके प्रकरणों व विषय आदिका संक्षिप्त परिचय दोनों सम्प्रदायोंके साहित्यमें विखरा हुआ पाया जाता है। अतः लुप्त हुए श्रुतांगके इस परिचयको हम दोनों सम्प्रदायोंके प्राचीन प्रमाणभूत ग्रंथोंके आधारपर यहां तुलनात्मकरूपमें प्रस्तुत करते हैं, जिससे पाठक इस महत्त्वपूर्ण विषयमें रुचि दिखला सकें और दोनों सम्प्रदायोंकी मान्यताओंमें समानता और विषमता तथा दोनोंकी परस्पर परिपूरकताकी ओर ध्यान दे सकें। इस परिचयका मूलाधार श्वेताम्बर सम्प्रदायके नन्दीसूत्र और समवायांगसूत्र हैं तथा दिगम्बर सम्प्रदायके धवल और जयधवल ग्रंथ ।
धवलामें दृष्टिवादका स्वरूप इसप्रकार बतलाया है
तस्य दृष्टिवादस्य स्वरूपं निरूप्यते । कौत्कल-काणेविद्धि-कौशिक-हरिश्मश्रु-मादपिक-रोमश-हारीतमुण्ड-अश्वलायनादीनां क्रियावाददृष्टीनामशीतिशतम् , मरीचि-कपिलोलू क-गार्य-व्याघ्रभूति-वाद्वालि-माटरमौद्गलायनादीनामक्रियावाददृष्टीनां चतुरशीतिः, शाकल्य-वल्कल-कुथुमि-सात्यमुनि-नारायण-कण्व-माध्यंदिनमोद-पैप्पलाद-बादरायण-स्वेष्टकृदैतिकायन-वसु-जैमिन्यादीनामज्ञानिकदृष्टीनां सप्तपष्टिः, वशिष्ठ-पाराशर-जतुकर्ण-वाल्मीकि-रोमहर्षणी-सत्यदत्त-व्यासैलापुत्रौपमन्यवैन्द्रदत्तायस्थूणादीनां वैनयिकदृष्टीनां द्वात्रिंशत् । एषां दृष्टिशतानां त्रयाणां त्रिषष्टयुत्तराणां प्ररूपणं निग्रहश्च दृष्टिवादे क्रियते। (सं. प., पृ० १०७)
इसका अभिप्राय यह है कि दृष्टिवाद अंगमें १८० क्रियावाद, ८४ अक्रियावाद, ६७ अज्ञानिकवाद और ३२ वैनयिकवाद, इसप्रकार कुल ३६३ दृष्टियोंका प्ररूपण और उनका निग्रह अर्थात् खंडन किया गया है । इन वादों और दृष्टियोंके कर्ताओंके जो नाम दिये गये हैं, उनमेसे अनेक नाम वैदिक धर्मके भिन्न भिन्न साहित्यांगोंसे सम्बद्ध पाये जाते हैं। उदाहरणार्थ, हारीत, वशिष्ठ, पाराशर सुप्रसिद्ध स्मृतिकारोंके नाम हैं। व्यासकृत स्मृति भी प्रसिद्ध है और वे महाभारत के कर्ता कहे जाते हैं। वाल्मीकि कृत रामायण सुविख्यात है, पर धर्मशास्त्रसंबंधी उनका बनाया ग्रंथ नहीं पाया जाता । आश्वलायन श्रौतसूत्र भी प्रसिद्ध है। गर्गका नाम एक ज्योतिषसंहितासे सम्बद्ध है । कण्व ऋषिका नाम भी वैदिकसाहित्यसे सम्बंध रखता है। माध्यंदिन एक वैदिक शाखाका नाम है। बादरायण वेदान्तशास्त्रके और जैमिनि पूर्वमीमांसाके सुप्रसिद्ध संस्थापक हैं। किन्तु शेष अधिकांश नाम बहुत कुछ अपरिचितसे हैं। इन नामोंके साथ उन उन दृष्टियोंका संबंध किन्हीं ग्रंथोंपरसे चला है या उनकी चलाई कोई अलिखित विचारपरम्पराओंपरसे कहा गया है यह जानना कठिन है । पर तात्पर्य यह स्पष्ट है कि दृष्टिवादमें अनेक दार्शनिक मत-मतान्तरोंका परिचय और विवेक कराया गया था। दृष्टिवादके जो भेद आगे बतलाये गये हैं उनमें सूत्र और पूर्वोके भीतर ही इन वादोंके परिशीलनकी गुंजाइश दिखाई देती है ।
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
बारहवें श्रुताङ्ग दृष्टिवादका परिचय
श्वेताम्बर मान्यता
दिगम्बर मान्यता दिट्टिवाद' के ५ भेद
दिट्टिवाद' के ५भेद १ परिकम्म
१ परिकम्म' २ सुत्त
२ सुत्त ३ पुवगय
३ पढमाणिओग ४ अणुओग
४ पुव्वगय ५ चूलिया
५ चूलिया दोनों संप्रदायोंमें दृष्टिवादके इन पांच भेदोंके नामोंमें कोई भेद नहीं है, केवल अणियोगकी जगह दिगम्बर नाम पढमाणियोग पाया जाता है। इसका रहस्य आगे बताये हुए प्रभेदोंसे जाना जायगा। दूसरा कुछ अन्तर पुव्वगय और अणियोगके क्रममें है। श्वेताम्बर पुव्वगयको पहले और अणियोगको उसके पश्चात् गिनाते हैं; जब कि दिगम्बर पढमाणियोगको पहले और पुव्यगयको उसके अनन्तर रखते हैं। यह भेद या तो आकस्मिक हो, या दोनों सम्प्रदायोंके प्राचीन पटनक्रमके भेदका द्योतक हो । दिगम्बरीय क्रमकी सार्थकता आगे पूों के विवेचनमें दिखायी जावेगी। परिकर्मके ७ भेद
परिकर्मके ५ भेद १ सिद्धसेणिआ
१ चंदपण्णत्ती २ मणुस्ससेणिआ
२ सरपग्णत्ती ३ पुट्ठसेणिआ
३ जंबूदीवपप्णत्ती ४ ओगाढसेणिआ
४ दीवसायरपण्णत्ती ५ उपसंपजणसेणिआ
५ वियाहपण्णत्ती ६ विप्पजहणसेणिआ ७ चुआचुअसेणिआ
१ अथ कोऽयं दृष्टिवादः ? दृष्टयो दर्शनानि, वदनं
वादः। दृष्टीना बादो दृष्टिवादः। अथवा पतनं पातः, दृष्टीना पातो यत्र स दृष्टिपातः ।
(नंदीसूत्र टीका) २ तत्र परिकर्म नाम योग्यतापादनम् । तद्धेतुः शास्त्र-
मपि परिकर्म। xxx तथा चोक्तं चूर्णी-परिकम्मे त्ति योग्यताकरणं । जह गणियस्स सोलस परिकम्मा तग्गहिय-मुत्तत्थो सेस गणियस्स जोग्गो भवइ, एवं गहियपरिकम्मसुत्तत्थो सेस-सुत्ताइ-दिटिवायस्स जोग्गो भवह त्ति ।
(नंदीसूत्र टीका)
१पृष्टीन त्रिषष्टयुत्तरत्रिशतसंख्यानी मिध्यादर्शनाना वादोऽनुवादः, तन्निराकरणं च यस्मिन्क्रियते तद दृष्टिवादं नाम ।
(गोम्मटसार टीका) २ परितः सर्वतः कर्माणि गणितकरणसूत्राणि यस्मिन् तत् परिकर्म ।
(गोम्मटसार टीका)
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
४४
षट्खंडागमकी प्रस्तावना । ये परिकर्मके भेद दोनों सम्प्रदायोंमें संख्या और नाम दोनों बातोंमें एक दूसरेसे सर्वथा भिन्न हैं। सिद्धश्रेणिकादि भेदोंका क्या रहस्य था, यह ज्ञात नहीं रहा। समवायांगके टीकाकार कहते हैं
'एतच सर्व समूलोत्तरभेदं सूत्रार्थतो व्यवच्छिन्नं ' अर्थात् यह सब परिकर्मशास्त्र अपने मूल और (आगे बतलाये जानेवाले ) उत्तर भेदोसहित सूत्र और अर्थ दोनों प्रकारसे नष्ट होगया। किन्तु सूत्रकार व टीकाकारने इन सात भेदोंके सम्बन्धमें कुछ बातें ऐसी बतलायी हैं जो बड़ी महत्त्वपूर्ण हैं । परिकर्मके सात भेदोंके सम्बन्धमें वे लिखते
इथेयाई छ परिकम्माई ससमइयाई, सत्त आजीवियाई छ चउक-णइयाइं, सत्त तेरासियाई
।(समवायांगसूत्र) एतेषां च परिकर्मणां षट् आदिमानि परिकर्माणि स्त्रसामयिकाम्येव । गोशालक-प्रवर्तिताजाविकपाखण्डक-सिद्धान्तमतेन पुनः च्युताच्युतश्रेणिकापरिकर्मसहितानि सप्त प्रज्ञाप्यन्ते । इदानी परिकर्मसु नयचिन्ता। तत्र नैगमो द्विविधः सांग्राहिकोऽसांग्राहिकश्च । तत्र सांग्राहिकः संग्रहं प्रविष्टोऽसांग्राहियश्च व्यवहारम् । तस्मारसंग्रहो व्यवहार ऋजुसूत्रः शब्दादयश्चैक एवेत्येवं चत्वारो नयाः । एतैश्चतुभिर्नयः षट् स्वसामयिकानि परिकर्माणि चिन्त्यन्ते, अतो भणितं 'छ चउक-नयाई' ति भवन्ति | त एव चाजीविकास्पैराशिका भणिताः । कस्माद? उच्यते, यस्मात्ते सर्व ध्यात्मकमिच्छन्ति, यथा जीवोऽजीवो जीवाजीवः, लोकोऽलोको लोकालोकः, सत् असत् सदसत् इत्येवमादि । नयचिन्तायामपि ते त्रिविधं नयमिच्छन्ति । तद्यथा हव्यार्थिकः पर्या उभयार्थिकः । अतो भणितं 'सत्त तेरासिय' त्ति । सप्त परिकर्माणि त्रैराशिकपाखण्डिकास्त्रिविधया नयचिन्तया चिन्तयन्तीत्यर्थः । (समवायांग टीका)
इसका अभिप्राय यह है कि परिकर्मके जो सात भेद ऊपर गिनाये गये हैं उनमेंसे प्रथम छ भेद तो स्वसमय अर्थात् अपने सिद्धान्तके अनुसार हैं, और सातवां भेद आजीविक सम्प्रदायकी मान्यताके अनुसार है। जैनियोंके सात नयोंमेंसे प्रथम अर्थात् नैगम नयका तो संग्रह और व्यवहारमें अन्तर्भाव हो जाता है, तथा अन्तिम दो अर्थात् समभिरूढ़ और एवंभूत शब्दनयमें प्रविष्ट हो जाते हैं । इस प्रकार मुख्यतासे उनके चार ही नय रहते हैं, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द । इस अपेक्षासे जैनी चउक्कणइक अर्थात् चतुष्कनयिक कहलाते हैं। आजीविक सम्प्रदायवाले सब वस्तुओंको त्रि-आत्मक मानते हैं, जैसे जीव, अजीव और जीवाजीव; लोक, अलोक और लोकालोक; सत् , असत् और सदसत् , इत्यादि । नयका चिन्तन भी वे तीन प्रकारसे करते हैं-द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक और उभयार्थिक । अतः आजीविक तेरासिय अर्थात् त्रैराशिक भी कहलाते हैं । उन्हींकी मान्यतानुसार परिकर्मका सातवां भेद 'चुआचुअसेणिआ' जोड़ा गया है।
इस सूचनासे जैन और आजीवक सम्प्रदायोंके परस्पर सम्पर्कपर बहुत प्रकाश पड़ता है। मंखलिगोशाल महावीरस्वामी व बुद्धदेवके समसामयिक धर्मोपदेशक थे। उनके द्वारा स्थापित
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
बारहवें श्रुताङ्ग दृष्टिवादका परिचय
४५ आजीविक सम्प्रदायके बहुत उल्लेख प्राचीन बौद्ध और जैन ग्रंथोंमें पाये जाते हैं। प्रस्तुत सूचना पर से जाना जाता है कि उनका शास्त्र और सिद्धान्त जैनियोंके शास्त्र और सिद्धान्तके बहुत ही निकटवर्ती था, केवल कुछ कुछ भेद-प्रभेदों और दृष्टिकोणोंमें अन्तर था। भूमिका जैनियों
और आजीविकोंकी प्रायः एक ही थी। आगे चलकर, जान पड़ता है, जैनियोंने आजीविकोंकी मान्यताओं को अपने शास्त्रमें भी संग्रह कर लिया और इसप्रकार धीरे धीरे समस्त आजीविक पंथका अपने ही समाजमें अन्तर्भाव कर लिया। ऊपरकी सूचनामें यद्यपि टीकाकारने आजीविकोंको पाखंडी कहा है, पर उनकी मान्यताको वे अपने शास्त्रमें स्वीकार कर रहे हैं ।
परिकर्मके पूर्वोक्त सात भेद दिगम्बर मान्यतामें नहीं पाये जाते । पर इस मान्यताके जो पांच भेद चंदपण्णत्ति आदि हैं, उनमें से प्रथम तीन तो श्वेताम्बर आगमके उपांगोंमें गिनाये हुए मिलते हैं, तथा चौथा दीवसायरपण्णत्ती व जंबूदीवपण्णत्ती और चंदपण्णत्तीके नाम नंदीसूत्रमें अंगबाह्य श्रुतके भावश्यकव्यतिरिक्त भेदके अन्तर्गत पाये जाते हैं। किन्तु पांचवां भेद वियाहपण्णत्तिका नाम पांचवें श्रुतांगके अतिरिक्त और नहीं पाया जाता ।
सिद्धसेणिआ परिकम्मके १४ उपभेद १. चंदपण्णत्ती- छत्तीसलक्खपंचपदसहस्सेहि १. माउगापयाई
(३६०५०००) चंदायु-परिवारिद्धि-गइ२. एगट्टिअपयाई
बिंबुस्सेह-वण्णणं कुणइ । ३. अट्ठ या पादोदृपयाई ४. पाढोआमास या आगास' पयाई २. सूरपण्णत्ती-पंचलक्खतिण्णिसहस्सेहि ५. केउभूअं
पदेहि (५०३०००) सूरस्सायु-भोगोव६. रासिबद्धं
भोग-परिवारिद्धि-गइ-बिंबुस्सेह-दिणकिर७. एगगुणं
गुज्जोव-वण्णणं कुणइ । ८. दुगुणं ९. तिगुणं
३. जंबूदीवपण्णत्ती-तिण्णिलक्खपंचवीस१०. केउभूअं
पदसहस्सेहि ( ३२५०००) जंबूदीवे ११. पडिग्गहो
णाणाविहमणुयाणं भोग-कम्मभूमियाणं १२. संसारपडिग्गहो
अण्णेसिं च पव्वद-दह-णइ-वेइयाणं १३. नंदावत्तं
वस्सावासाकट्टिमजिणहरादीणं वण्णणं कुणइ । ११. सिद्धावत्तं
मणुस्ससणिआ परिकम्मके भी १४ भेद ४. दीवसायरपण्णत्ती- वावण्णलक्खछत्तीसहैं जिनमें प्रथम १३ भेद उपर्युक्त ही हैं। १४ पदसहस्सेहि (५२३६०००) उद्धार
१. ये पाठभेद नंदीस्त्र और समवायांगके हैं।
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
षट्खंडागमकी प्रस्तावना वां भेद ' मणुस्सावत्तं ' नामका है।
पल्लपमाणेण दीवसायरपमाणं अण्णं पि ___पुट्ठसेणिआदि शेष पांच परिकर्मों में प्रत्येक दीवसायरंतब्भूदत्थं बहुभेयं वण्णेदि । के ११ उपभेद हैं जो प्रथम तीनको छोड़ कर शेष पूर्वोक्तही हैं। अन्तिम भेदके स्थानमें स्वनामसूचक भेद है, जैसे पुट्ठावत्तं, ओगाढा- ५. वियाहपण्णत्ती- चउरासीदिलक्खछत्तीसवत्तं, उवसंपज्जणावत्तं, विप्पजहणावत्तं और पदसहस्सेहि ( ८४३६०००) रूविचुआचुआवत्तं । इसप्रकार ये सब मिलकर अजीवदव्वं अरूवि-अजीवदव्वं भवसिद्धिय८३ प्रभेद होते हैं ।
अभवसिद्धियरासिं च वण्णेदि । परिकर्मके इन माउगापयाई आदि उपभेदोंका कोई विवरण हमें उपलभ्य नहीं है । किन्तु मातृकापदसे जान पड़ता है उसमें लिपि विज्ञानका विवरण था । इसीप्रकार अन्य भेदोंमें शिक्षाके मूलविषय गणित, न्याय आदिका विवरण रहा जान पड़ता है। सुत्तके ८८ भेद
सुत्तके अन्तर्गत विषय १. उज्जुसुयं या उजुगं
सुत्तं अहासीदिलक्खपदेहि (८८०००००) २. परिणयापरिणयं
अबंधओ, अवलेवओ, अकत्ता, अभोत्ता, ३. बहुभंगिअं
णिग्गुणो, सव्वगओ, अणुमेत्तो, णास्थ १. विजयचरियं, विप्पचइयं या विनयचरियं जीवो, जीवो चेव अस्थि, पुढवियादीणं ५. अणंतरं
समुदएण जीवो उप्पज्जइ, णिच्चेयणो, ६. परंपरं
णाणेण विणा, सचेयणो, णिच्चो, अणिच्चो ७. मासाणं ( समाण-स. अं.)
अप्पेत्ति वण्णेदि । तेरासिय, णियदिवादं, ८. संजूहं ( मासाण-,,)
विण्णाणवाद, सद्दवादं, पहाणवादं, दव्व९. संभिण्णं
वादं, पुरिसवादं च वण्णेदि । उत्तं च१०. आहव्वायं (अहाच्चायं-स. अं.) ११. सोवत्थिअवत्तं
अट्ठासी अहियारेसु चउण्हमहियाराणमथि १२. नंदावत्तं
णिदेसो । पढमो अबंधयाणं, विदियो १३. बहुलं
तेरासियाण बोद्धव्वो ॥ तदियो य १४. पुट्ठापुढं
णियइपक्खे हवइ चउत्थो ससमयम्मि । १५. विआवत्तं
(धवला सं. प., पृ. ११०)
१. सिद्धसेणिकादिपरिकर्म मूलभेदतः सप्तविध, उत्तरभेदतस्तु ध्यशीतिविधं मातृकापदादि।
(समवायांग टीका).
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
४७
बारहवें श्रुताङ्ग दृष्टिवादका परिचय १६. एवंभूअं
सुत्ते अट्ठासीदि अत्याहियारा, ण तेसि १७. दुयावत्तं
णामाणि जाणिज्जति, संपहि विसिट्ठवएसा१८. वत्तमाणप्पयं
भावादो (जयधवला) १९. समभिरूढं २०. सव्वओभई २१. पस्सास ( पणाम-स. अं.) २२. दुप्पडिग्गहं
ये ही २२ सूत्र चार प्रकारसे प्ररूपित हैं१ छिण्णछेअ-णइयाणि २ अछिण्णछेअ-णइयाणि ३ तिक-णइयाणि ४ चउक्क-णइयाणि
इसप्रकार सूत्रोंकी संख्या २२४ ४ = ८८ हो जाती है।
श्वेताम्बर सम्प्रदायमें सूत्रके मुख्य भेद बावीस हैं। उनके अठासी भेदोंकी सूचना समवायांगमें इस प्रकार दी गई है
इच्चेयाई वावीसं सुत्ताइं छिपणछेअणइआई ससमय-सुत्तपरिवाडीए, इश्वेआई वासिं सुत्ताई अछिन्नछेयनइयाई आजीवियसुत्तपरिवाडीए। इआई वावीसं सुत्ताई तिक-णइयाई तेरासियसुत्तपरिवाडीए, इच्चेआई वावीसं सुत्ताई चउक्कणइयाई ससमयसुत्तपरिवाडीए। एवमेव सपुवावरणं अट्टासीदि सुत्ताई भवंतीति मक्खयाई।
यहां जिन चार नयोंकी अपेक्षासे वावीस सूत्रोंके अठासी भेद हो जाते हैं, उनका स्पष्टीकरण टीकामें इसप्रकार पाया जाता है--
एतानि किल ऋजुकादीनि द्वाविंशतिः सूत्राणि, तान्येव विभागतोऽष्टाशीतिर्भवन्ति । कथम् ? उच्यते-'इच्चेइयाइं वावीसं सुत्ताई छिन्नछेयनइयाई ससमयसुत्तपरिवाडीए' ति । इह यो नयः सूत्रं छिन्नं छेदेनेच्छति स छिनच्छेदनयो, यथा 'धम्मो मंगलमुक्किटुं' इत्यादि श्लोकः सूत्रार्थतः प्रत्येकछेदेन स्थितो न द्वितीयादिश्लोकमपेक्षते, प्रत्येककल्पितपर्यन्त इत्यर्थः । एतान्येव द्वाविंशतिः स्वसमयसूत्रपरिपाव्य। सूत्राणि स्थितानि । तथा इत्येतानि द्वाविंशतिः सूत्राणि अच्छिन्नच्छेदनयिकान्याजीविकसूत्रपरिपाव्येति, अयमर्थः - इह यो नयः सूत्रमच्छिन्नं छेदेनेच्छति सोऽछिमछेदनयो यथा, 'धम्मो मंगलमुक्टिं,' इत्यादि श्लोक एवार्थतो द्वितीयादिश्लोकमपेक्षमाणो द्वितीयादयश्च प्रथममिति अन्योऽन्यसापेक्षा इत्यर्थः। एतानि द्वाविंशतिराजीविकगोशालकप्रवर्तितपाखंडसूत्रपरिपाट्या अक्षररचनाविभागस्थितान्यप्यर्थतोऽन्योन्यमपेक्षमाणानि भवन्ति । 'इच्चेयाई' इत्यादिसूत्रम् । तत्र तिकणइयाई ति नयत्रिकाभिप्रायतश्चिन्स्यन्त इत्यर्थराशिकाश्चाजीविका एवोच्यन्ते इति । तथा 'इच्चेयाई' इत्यादिसूत्रं । तत्र 'चउकणइयाई' ति
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
षट्खंडागमकी प्रस्तावना
नयचतुष्काभिप्राय तश्चिन्त्यन्त इति भावना, एवमेवेत्यादिसूत्रम् । एवं चतस्रो द्वाविंशतयोऽष्टाशीतिः सूत्राणि भवन्ति ।
४८
इस विवरण से ज्ञात होता है कि उपर्युक्त वावीस सूत्रोंका चार प्रकारसे अध्ययन या व्याख्यान किया जाता था। प्रथम परिपाटी छिन्नछेदनय कहलाती थी जिसमें सूत्रगत एक एक वाक्य, पद या श्लोकका स्वतंत्रता से पूर्वापर अपेक्षारहित अर्थ लगाया जाता था । यह परिपाटी स्वसमय अर्थात् जैनियोंमें प्रचलित थी। दूसरी परिपाटी अछिन्नछेदनय थी जिसके अनुसार प्रत्येक वाक्य, पद या श्लोकका अर्थ आगे पीछेके वाक्योंसे संबंध लगाकर बैठाया जाता था । यह परिपाटी आजीविक सम्प्रदाय में चलती थी। तीसरा प्रकार त्रिकनय कहलाता था जिसमें द्रव्यार्थिक, पर्यायाथिक और उभयार्थिक व जीव, अजीब और जीवाजीव आदि उपर्युक्त त्रि-आत्मक व त्रिनय रूपसे वस्तुस्वरूपका चिन्तन किया जाता था । पूर्वोक्तानुसार यह परिपाटी आजीवकोंकी थी । तथा जो वस्तुचिन्तन पूर्वकथित चार नयोंकी अपेक्षासे चलता था वह चतुर्नय परिपाटी कहलाती थी और वह जैनियों की चीज़ थी । इस प्रकार निरपेक्ष शब्दार्थ और चतुर्नय चिन्तन, ये दो परिपाटियां जैनियोंकी और सापेक्ष शब्दार्थ तथा त्रिकनय चिन्तन, ये दो परिपाटियां आजीविकोंकी मिलकर बावीस सूत्रों के अठासी भेद कर देती थीं । आजीविक ज्ञानशैलीको जैनियोंने किस प्रकार अपने ज्ञानभंडार में अन्तर्भूत कर लिया यह यहां भी प्रकट हो रहा है ।
दिगम्बर सम्प्रदाय में सूत्रों के भीतर प्रथम जीवका नाना दृष्टियोंसे अध्ययन और फिर दूसरे अनेक वादोंका अध्ययन किया जाता था, ऐसा कहा गया है। इन वादों में तेरासिय मतका उल्लेख सर्व प्रथम है जिससे तात्पर्य त्रैराशिक - आजीविक सिद्धान्तसे ही है, जो जैन सिद्धान्तके सबसे अधिक निकट होनेके कारण अपने सिद्धान्तके पश्चात् ही पढ़ा जाता था । धवला में सूत्रके ८८ अधिकारोंका उल्लेख है जिनमें से केवल चारके नाम दिये हैं । जयधवलामें स्पष्ट कह दिया है कि उन ८८ अधिकारोंके अब नामोंका भी उपदेश नहीं पाया जाता । किन्तु जो कुछ वर्णन दिगम्बर सम्प्रदाय में शेष रहा है उसमें विशेषता यह है कि वह उन लुप्त ग्रंथों के विषयपर बहुत कुछ प्रकाश डालता है; श्वेताम्बर श्रुतमें केवल अधिकारोंके नाममात्र शेष हैं जिनसे प्रायः अब उनके विषयका अंदाज लगाना भी कठिन है ।
पुव्वगयके १४ भेद तथा उनके अन्तर्गत वत्थू और चूलिका
१. उपाय ( १० वत्थू + ४ चूलिआ ) २. अग्गाणीयं (१४ वत्थू + १२ चूलिआ ) ३. वीरिअं ( ८ " ४. अत्थिणत्थिष्पवायं
>
33
+ ८ ( १८ + १० )
पुव्वगयके १४ भेद तथा उनके अन्तर्गत वत्थू
( १० वत्थू )
१. उप्पाद
२. अग्गेणियं
( १९४ वत्थू )
""
३. वीरियाणुपवादं ( ८ > ४. अत्थिणत्थिपवादं ( १८,, )
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
बारहवें श्रुताङ्ग दृष्टिवादका परिचय ५. नाणप्पवायं (१२ वत्थू )
५. णाणपवादं (१२ वत्थू) ६. सच्चप्पवायं ( २ , )
६. सच्चपवादं (१२,) ७. आयप्पवायं (१६, )
७. आदपवादं (१६, ) ८. कम्मप्पवायं (३० ,, )
८. कम्मपवाद (२०, ) ९. पच्चक्खाणप्पवायं (२० , )
९. पच्चक्खाणं (३०, ) १०. विज्जागुप्पवायं (१५ , )
१०. विजाणुवादं
(१५ ११. अवंझं (१२ ,, )
११. कल्लाणवादं (१० १२. पाणाऊ (१३ , )
१२. पाणावायं (१०, १३. किरिआविसालं (३०,)
१३. किरियाविसालं (१०,) १४. लोकविंदुसारं (२५ , )
१४. लोकविंदुसार (१०,) दृष्टिवादके इस विभागका नाम पूर्व क्यों पड़ा, इसका समाधान समवायांग व नन्दीसूत्रक टीकाओंमें इसप्रकार किया गया है
अथ किं तत् पूर्वगतं ? उच्यते । यस्मात्तर्थिकरः तीर्थप्रवर्तनाकाले गणधराणां सर्वसूताधारत्वेन पूर्व पूर्वगतं सूत्रार्थं भाषते तस्मात् पूर्वाणीति भणितानि । गणधराः पुनः श्रुतरचनां विदधाना आचारादिक्रमेण रचयन्ति स्थापयन्ति च । मतान्तरेण तु पूर्वगतसूखार्थः पूर्वमहता भाषितो गणधरैरपि पूर्वगतश्रुतमेव पूर्वं रचितं, पश्चादाचारादि । नन्वेवं यदाचारनिर्युक्त्यामभिहितं 'सब्बोसं आयारो पढमो' इत्यादि, तत्कथम् ? उच्यते । तत्र स्थापनामाश्रित्य तथोक्तमिह त्वक्षररचनां प्रतीत्य भाणितं पूर्वं पूर्वाणि कृतानीति ।
. (समवायांग टीका) इसका तात्पर्य यह है कि तीर्थप्रवर्तनके समय तीर्थंकर अपने गणधरोंको सबसे प्रथम पूर्वगत सूत्रार्थका ही व्याख्यान करते हैं, इससे इन्हें पूर्वगत कहा जाता है। किन्तु गणधर जब श्रुतकी ग्रंथरचना करते हैं तब वे आचारादिक्रमसे ही उनकी रचना व व्यवस्था करते हैं, और इसी स्थापनाकी दृष्टि से आचारांगकी नियुक्तिमें यह बात कही गई है कि सब श्रुतांगोंमें आचारांग प्रथम है । यथार्थतः अक्षररचनाकी दृष्टिसे पूर्व ही पहले बनाये गये ।।
एक आधुनिक मतx यह भीहै कि पूर्वोमें महावीरस्वामीसे पूर्व और उनके समयमें प्रचलित मत-मतान्तरोंका वर्णन किया गया था, इस कारण वे पूर्व कहलाये ।
चौदह पूर्वोके नामोंमें दोनों सम्प्रदायोंमें कोई विशेष भेद नहीं है, केवल ग्यारहवें पूर्वको श्वेताम्बर · अवंझं' कहते हैं और दिगम्बर — कल्लाणवाद ' । अझंका जो अर्थ टीकाकारने अवंध्य अर्थात् ' सफल' बतलाया है वह 'कल्याण' के शब्दार्थके निकट पहुंच जाता है, इससे संभवतः वह उनके विषयभेदका द्योतक नहीं है । छठवें, आठवें, नवमें और ग्यारहसे चौदहवें तक इस
x डॉ. जैकोबी; कल्पसूत्रभूमिका.
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
खंडागमकी प्रस्तावना
प्रकार सात पूर्वोके अन्तर्गत वस्तुओंकी संख्या में दोनों सम्प्रदायोंमें मतभेद है । शेष सात पूर्वोकी वस्तु संख्या में कोई भेद नहीं है । श्वेताम्बर मान्यतामें प्रथम चार पूर्वे के अन्तर्गत वस्तुओं के अतिरिक्त चूलिकाओंकी संख्या भी दी गई है, और दृष्टिवादके पंचमभेद चूलिकाके वर्णनमें कहा है कि वहां उन्हीं चार पूर्वोकी चूलिकाओंसे अभिप्राय है । यदि ये चूलिकाएं पूर्वोके अन्तर्गत थीं, तो यह समझ में नहीं आता कि उनका फिर एक स्वतंत्र विभाग क्यों रखा गया । दिगम्बरीय मान्यतामें पूर्वोके भीतर कोई चूलिकाएं नही गिनायी गईं और चूलिका विभागके भीतर जो पांच चूलिकाएं बतलायी हैं उनका प्रथम चार पूर्वोसे कोई संबंध भी ज्ञात नहीं होता ।
५०
समवायांग और नन्दी सूत्र में पूर्वोके अन्तर्गत वस्तुओं और चूलिकाओं की संख्या -सूचक निम्न तीन गाथाएं पाई जाती हैं
धवला ( वेदनाखंड के आदिमें ) पूर्वोके अन्तर्गत वस्तुओं और वस्तुओंके अन्तर्गत पाहुडोंकी संख्याकी द्योतक निम्न तीन गाथाएं पाई जाती हैं
दस चोद्दस अट्ठारस (अट्ठारस ) वारस य दोसु पुब्वैसु । सोलस वीस तीसं दसमंमि य पण्णरस वत्थू ॥ १ ॥ एदेसिं पुग्वाणं एवदिओ वत्थुसंगहो भणिदो । सेसाणं पुत्राणं दस दस वत्थू पणिवयामि ॥ २ ॥ एकेक य वत्थू वीसं वीसं च पाहुडा भणिदा ।
विसम-समा हि यवत्थू सच्चे पुण पाहुडेहि समा ॥ ३ ॥
इनके अंक भी धवलामें दिये हुए हैं जिन्हें हम निम्न तालिकाद्वारा अच्छीतरह प्रकट कर
सकते हैं।
पूर्व १ २
वत्थू
पाहुड २०० २८० १६० ३६० २४० २४० ३२० ४००
१०
दस चोट्स अट्ठारसेव बारस दुवे य वत्थूणि । सोलस तीसा वीसा पण्णरस अणुष्पवामि ॥ १ ॥ बारस एक्कारसमे बारसमे तेरसेव वत्थूणि । तीसा पुण तेरसमे चउदसमे पन्नवीसाओ ॥ २ ॥ चत्तारि दुवास अटु चैव दस चेव चूलवत्थूणि । आइलाण चउन्हं सेसाणं चूलिया णत्थि ॥ ३ ॥
१४
४ ३
.
५ ६ ७
१२ ૧૮ | ૨૨
१६
८
२०
९
३०
सव्व वत्थु समासो पंचाणउदिसदमेत्तो १९५ । सव पाहुड समासो ति सहस्स-णव-सद-मेत्तो ३९०० ।
१०
१५
६०० ३००
११
१०
२००
१२
१०
१४ १३
१०
कुल
१०
१९५
२०० २०० २०० ३९००
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
बारहवें श्रुताङ्ग दृष्टिवादका परिचय
५१ जयधवलामें यह भी बतलाया गया है कि एक एक पाहुडके अन्तर्गत पुनः चौवीस चौवीस अनुयोगद्वार थे । यथा
एदेसु अस्थाहियारेसु एकेकस्स अस्थाहियारस्स वा पाहुडसण्णिदा वीस वीस अस्थाहियारा । तेसिं पि अत्याहियाराणं एकेकस्स अत्याहियारस्स चउवीसं चउवीसं अणिओगद्दाराणि सण्णिदा अत्याहियारा ।
इससे स्पष्ट है कि पूर्वोके अन्तर्गत वस्तु अधिकार थे, जिनकी संख्या किसी विशेष नियमसे नहीं निश्चित थी। किन्तु प्रत्येक वस्तुके अवान्तर अधिकार पाहुड कहलाते थे और उनकी संख्या प्रत्येक वस्तुके भीतर नियमतः वीस वीस रहती थी और फिर एक एक पाहुडके भीतर चौवीस चौवीस अनुयोगद्वार थे । यह विभाग अब हमारे लिये केवल पूर्वोकी विशालता मात्रका द्योतक है क्योंकि उन वत्थुओं और उनके अन्तर्गत पाहुडोंके अब नाम तक भी उपलब्ध नहीं हैं । पर इन्हीं ३९०० पाहुडोंमेंसे केवल दो पाहुडोंका उद्धार पटखंडागम और कसायपाहुड (धवला और जयधवला ) में पाया जाता है जैसा कि आगे चलकर बतलाया जायगा। उनसे
और उनकी उपलब्ध टीकाओंसे इस साहित्यकी रचनाशैली व कथनोपकथन पद्धतिका बहुत कुछ परिचय मिलता है।
चौदह पूर्वोका विषय व परिमाण चौदह पूर्वोका विषय व पदसंख्या १ उप्पादपुर-तत्र च सर्वव्याणां पर्यत्राणां १ उप्पादपुव्वं जीव-काल-पोग्गलाणमुप्पादचोत्पादभावमंगीकृत्य प्रज्ञापना कृता ।
वय-धुवत्तं वण्णेइ । (१०००००००) (१०००००००) २ अग्गेणीयं-तत्रापि सर्वेषां द्रव्याणां पर्य- २ अग्गेणियं अंगाणमग्गं वण्णेइ । अंगाणमग्गंवाणां जीवविशेषाणां चामं परिमाणं वर्ण्यते। पदं वण्णेदि त्ति अग्गेणियं गुणणामं । (९६०००००)
(९६०००००) ३ वीरियं-तत्राप्यजीवानां जीवानां च सकर्मे- ३ वीरियाणुपवादं अप्पविरियं परविरियं उभतराणां वीर्य प्रोच्यते । (७००००००) यविरियं खेत्तविरियं भवविरियं तवविरियं
वण्णेइ।
(७००००००) ४ अत्थिणत्थिपवाद-यघल्लोके यथास्ति यथा ४ अत्थिणत्थिपवादं जीवाजीवाणं अस्थि
वा नास्ति, अथवा स्याद्वादाभिप्रायतः तदे- णत्थित्तं वण्णेदि। (६००००००) वास्ति तदेव नास्तीत्येवं प्रवदति ।
(६००००००) ५ णाणपवाद-तस्मिन् मतिज्ञानादिपंचकस्य ५ णाणपवादं पंच णाणाणि तिणि अण्णाभेदप्ररूपणा यस्मात्कृता तस्मात् ज्ञानप्रवादं। णाणि वण्णेदि। (९९९९९९९)
(९९९९९९९)
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
षट्खंडागमकी प्रस्तावना ६ सच्चपवाद-सत्यं संयम सत्यवचनं वा ६ सच्चपवाद-वाग्गुप्तिः वाक्संस्कारकारण
तद्यत्र सभेदं सप्रतिपक्षं च वर्ण्यते तत्सत्य- प्रयोगो द्वादशधा भाषावक्तारश्च अनेकप्रवादम् । (१००००००६) प्रकार मृषाभिधानं दशप्रकारश्च सत्य
सद्भावो यत्र निरूपितस्तत्सत्यप्रवादम् ।
७ आदपवाद-आत्मा अनेकधा यत्र नयदर्शन- ७ आदपवादं आदं वण्णेदि वेदेत्ति वा विण्हु वर्ण्यते तदात्मप्रवादं । (२६०००००००) त्ति वा भोत्तेत्ति वा बुद्धेत्ति वा इच्चादिसरू
वेण ।
(२६०००००००) ८ कम्मपवाद-ज्ञानावरणादिकमष्टविधं कर्म ८कम्मपवादं अट्ठविहं कम्मं वण्णेदि।। प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशादिभिर्मेदैरन्यैश्चोत्तरो
(१८००००००) त्तरभेदैर्यत्र वर्ण्यते तत्कर्मप्रवादम् ।
(१८००००००) ९ पचक्खाणं-तत्र सर्व प्रत्याख्यानखरूपं ९ पच्चक्खाणं दव्व-भाव-परिमियापरिमियवर्ण्यते । (८४०००००) पच्चवखाणं उववासविहिं पंच समिदीओ तिणि गुत्तीओ च परूवेदि ।
(८४०८०००) १० विजाणुवाद-तत्रानेके विद्यातिशया १० विज्जाणुवादं अंगुष्ठप्रसेनादीनां अल्पविद्यानां वर्णिताः। (११००००००) सप्तशतानि रोहिण्यादीनां महाविद्यानां पञ्च
शतानि अन्तरिक्ष--भौमाङ्गस्वर-स्वप्न-लक्षणव्यंजनछिन्नान्यष्टौ महानिमित्तानि च कथयति ।
(११००००००) ११ अवंझं-वन्ध्यं नाम निष्फलम् , न वन्ध्यम- ११ कल्याणं रवि-शशि-नक्षत्र-तारागणानां
पन्ध्यं सफलमित्यर्थः । तत्र हि सर्वे ज्ञानतपः- चारोपपाद -गति-विपर्ययफलानि शकुनसंयमयोगाः शुभफलेन सफला वर्ण्यन्ते, व्याहृतमहद्बलदेव - वासुदेव- चक्रधरादीनां अप्रशस्ताश्च प्रमादादिकाः सर्वे अशुभफला गर्भावतरणादिमहाकल्याणानि च कथयति । वर्ण्यन्ते, अतोऽवन्ध्यम् ।
(२६०००००००) (२६०००००००) १२ पाणावायं-तत्राप्यायुःप्राणविधानं सर्व १२ पाणावायं कायचिकित्साद्यष्टांगमायुर्वेद सभेदमन्ये च प्राणा वर्णिताः।
भूतिकर्म जांगुलिप्रक्रमं प्राणापानविभागं च (१५६०००००) विस्तरेण कथयति । (१३०००००००)
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
बारहवें श्रुताङ्ग दृष्टिवादका परिचय १३ किरियाविसालं-तत्र कायिक्यादयःक्रिया १३ किरियाविसालं लेखादिकाः द्वासप्ततिकलाः
विशाल त्ति सभेदाः संयमक्रिया छन्दक्रिया- स्त्रैणांश्चतुःषष्टिगुणान् शिल्पानि काव्यगुणविधानानि च वर्ण्यन्ते ।
दोपक्रियां छन्दोविचितिक्रियां च कथयति ।
1 ण्यन्त ।
१४ लोकबिंदुसारं-तच्चास्मिन् लोके श्रुतलोके १४ लोकबिंदुसारं अष्टौ व्यवहारान् चत्वारि
वा बिन्दुरिवाक्षरस्य सर्वोत्तममिति, सर्वाक्षर- बीजानि मोक्षगमनक्रियाः मोक्षसुखं च सन्निपातप्रतिष्ठितत्वेन च लोकबिन्दुसारं कथयति । (१२५००००००) भणितम् । (१२५००००००)
पूर्वोके अन्तर्गत विषयोंकी सूचना समवायांग व नन्दीसूत्रोंमें नहीं पायी जाती, वहां केवल नाम ही दिये गये हैं। विषयकी सूचना उनकी टीकाओंमें पायी जाती है। उपर्युक्त श्वेताम्बर मान्यताका विषय समवायांग टीकासे दिया गया है। उस परसे ऐसा ज्ञात होता है कि वहां विषयका अंदाज बहुत कछ नामकी व्युत्पत्ति द्वारा लगाया गया है । धवलान्तर्गत विषयसूचना कुछ विशेष है । पर विषयनिर्देशों शब्दभेदको छोड़ कोई उल्लेखनीय अन्तर नहीं है । अवन्ध्य और कल्याणवादमें जो नामभेद है, उसीप्रकार विषयसूचनामें भी कुछ विशेष है । धवलामें उसके अन्तर्गत फलित ज्योतिष और शकुनशास्त्रका स्पष्ट उल्लेख है जो अवन्ध्यके विषयमें नहीं पाया जाता। उसी प्रकार बारहवें प्राणावाय पूर्व के भीतर धवलामें कायचिकित्सादि अष्टांगायुर्वेदकी सूचना स्पष्ट दी गई है, वैसी समवायांग टीकामें नहीं पायी जाती। वहां केवल 'आयुपाणविधान' कहकर छोड़ दिया गया है । तेरहवें क्रियाविशालमें भी धवलामें स्पष्ट कहा है कि उसके अन्तर्गत लेखादि बहत्तर कलाओं, चौसठ स्त्री कलाओं और शिल्पोंका भी वर्णन है। यह समवायांग टीकामें नहीं पाया जाता।
पदप्रमाण दोनों मान्यताओंमें तेरह पूर्वोका तो ठीक एकसा ही पाया जाता है, केवल बारहवें पूर्व पाणावायकी पदसंख्या दोनोंमें भिन्न पाई जाती है। धवलाके अनुसार उसका पदप्रमाण तेरह कोटि है जब कि समवायांग और नन्दीसूत्रकी टीकाओंमें एक कोटि छप्पन लाख ( एका कोटी षट्पञ्चाशच्च पदलक्षाणि ) पाया जाता है ।
प्रथम नौ पूर्वोका विषय तो अध्यात्मविद्या और नीति-सदाचारसे संबंध रखता है किन्तु आगेके विद्यानुवादादि पांच पूर्वोमें मंत्र तंत्र व कला कौशल शिल्प आदि लौकिक विद्याओंका वर्णन था, ऐसा प्रतीत होता है । इसी विशेष भेदको लेकर दशपूर्वी और चौदहपूर्वी का अलग अलग उल्लेख पाया जाता है। धवलाके वेदनाखंडके आदिमें जो मंगलाचरण है वह स्वयं इन्द्रभूति गौतम गणधरकृत और महाकम्मपयडिपाहुडके आदिमें उनके द्वारा निबद्ध कहा गया है। वहींसे
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
५४
षट्खंडागमकी प्रस्तावना उठाकर उसे भूतबलि आचार्यने जैसाका तैसा वेदनाखंडके आदिमें रख दिया है, ऐसी धवलाकारकी सूचना है । इस मंगलाचरणमें ४४ नमस्कारात्मक सूत्र या पद हैं। इनमें बारहवें और तेरहवें सूत्रोंमें क्रमसे दशपूर्वियों और चौदह पूर्वियोंको अलग अलग नमस्कार किया गया है, जिसके रहस्यका उद्घाटन धवलाकारने इसप्रकार किया है----
णमो दसपुधियाणं ॥१२॥
एस्थ दसपुग्विणो भिण्णाभिण्णभेएण दुविहा होति । तत्थ एककारसंगाणि पढिऊण पुणो परियम्मसुत्तपढमाणियोगपुब्धगयचूलिया ति पंचहियारणिबद्धदिट्टिवादे पढिजमाणे उप्पायपुवमादिं कादूण पढ़ताण दसपुव्वीविजापवादे समत्ते रोहिणी-आदिपंचसयमहाविजाई अंगुटपसेणादिसत्तसयदहरविजाहि अणुगयाओ किं भयवं आणवेवत्ति दुक्कंति । एवं दुक्काणं सव्वविजाणं जो लोभो गच्छदि सो भिण्णदसपुवी । जो पुण ण तासु लोभं करेदि कम्मक्खयत्थी होतो सो अभिण्णदसपब्बी णाम । तस्थ अभिग्णदसपब्बीजिणाणं णमोकारं करेमि त्ति उत्तं होदि । भिण्णदसपुवीण कथं पडिणिविधी? जिणसहाणुववत्तीदो, ण च तेसिं जिणत्तमस्थि, भग्गमहब्वएसु जिणत्ताणुववत्तीदो।
णमो चोदसपुब्बियाणं ॥ १३॥
जिणाणमिदि एत्थाणुवढदे । सयलसुदणाणधारिणो चोद्दसपुब्धिणो, तेसिं चोद्दसपुव्वणिं जिणाणं णमो इदि उत्तं होदि। सेसहेटिमपुव्वणिं णमोकारो किण्ण कदो ? ण, तेसि पि कदो चेव तेहिं विणा चोद्दसपुवाणुववत्तीदो। चोद्दसपुवस्सेव णामणिद्देसं कादूण किमढें णमोकारो कीरदे ? विजाणुपवादस्स समत्तीए इव चोहस्स पुव्वसमतीए वि जिणवयणपञ्चयदसणादो। चोद्दसपब्वसमत्तीए को पच्चओ? चोद्दसपुब्वाणि समाणिय रति काउस्सग्गेण टिदस्स पहादसमए भवणवासियवाणवेंतरजोदिसियकप्पवासियदेवेहि कयमहापूजा संखकाहलातूररवसंकुला । होदु एदेसु दोसु हाणेसु जिणवयणपच्चओवलंभो, जिणवयणतं पडि सवंगपुव्वाणि समाणाणि त्ति तसिं सवसिं णामणिद्देसं काऊण णमोक्कारो किण्ण कदो? ण, जिणवयणतणेण सवंगपुवंम्हि सरिसत्ते संते वि विज्जाणुप्पवादलोगबिदुसाराणं महल्लत्तमस्थि, एत्थेव देवपूजोवलंभादो । चोद्दसपुब्वहरो मिच्छत्तं ण गच्छदि तम्हि भवे असंजमं च ण पडिवज्जदि, एसो एदस्स विसेसो।
यहां धवलाकारने दशपूर्वियों और चौदहपूर्वियोंको अलग अलग नामनिर्देशपूर्वक नमस्कार किये जानेका कारण यह बतलाया है, कि जब श्रुतपाठी आचारांगादि ग्यारह श्रुतोंको पढ चुकता है और दृष्टिवादके पांच अधिकारोंका पाठ करते समय क्रमसे उत्पादादि पूर्व पढ़ता हुआ दशम पूर्व विद्यानुवादको समाप्त कर चुकता है, तब उससे रोहिणी आदि पांच सौ महाविद्याएं और अंगुष्टप्रसेणादि सात सौ अल्प विद्याएं आकर पूछती हैं 'हे भगवन् , क्या आज्ञा है' ? इसप्रकार सब विद्याओंके प्राप्त हो जानेपर जो लोभमें पड़ जाता है वह तो भिन्नदशपूर्वी कहलाता है, और जो उनके लोभमें न पड़कर कर्मक्षयार्थी बना रहता है वह अभिन्नदशपूर्वी होता है। ये अभिन्नदशपूर्वी ही 'जिन' संज्ञाको प्राप्त करते हैं और उन्हींको यहां नमस्कार किया गया है । किन्तु जो महाव्रतोंका भंग कर देनेसे जिनसंज्ञाको प्राप्त नहीं कर पाते उन्हें यहां नमस्कार नहीं किया गया।
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
बारहवें श्रुताङ्ग दृष्टिवादका परिचय
५५
आगे यह प्रश्न उठाया गया है कि जब दश और चौदह पूर्वियोंको अलग अलग नमस्कार किया तब बीचके ग्यारहपूर्वी, बारहपूर्वी और तेरहपूर्वियों को भी क्यों नहीं पृथक् नमस्कार किया । इसका उत्तर दिया गया है कि उनको नमस्कार तो चौदहपूर्वियों के नमस्कारमें आ ही जाता है, पर जैसा जिनवचनप्रत्यय विद्यानुवाद की समाप्ति के समय देखा जाता है वैसा ही चौदहपूर्वोकी समाप्तिपर पाया जाता है । जब चौदहपूर्वोको समाप्त करके रात्रिमें श्रुत- केवली कायोत्सर्ग से विराजमान रहते हैं तब प्रभात समय भवनवासी, बाणव्यंतर, ज्योतिषी, और कल्पवासी देव आकर उनकी शेखसूर्य के साथ महापूजा करते हैं । इसप्रकार यद्यपि जिनवचनत्वकी अपेक्षासे सभी पूर्व समान हैं, तथापि विद्यानुप्रवाद और लोकबिन्दुसारका महत्त्व विशेष है, क्योंकि यहीं देवोंद्वारा पूजा प्राप्त होती है । दोनों अवस्थाओं में विशेषता केवल इतनी है कि चतुर्दशपूर्वधारी फिर मिथ्यात्व में नहीं जा सकता और उस भवमें असंयमको भी प्राप्त नहीं होता ।
इससे जाना जाता है कि श्रुतपाठियों की विधा एक प्रकारसे दशम पूर्वपर ही समाप्त हो जाती थी, वहीं वह देवपूजाको भी प्राप्त कर लेता था और यदि लोभमें आकर पथभ्रष्ट न हुआ तो 'जिन' संज्ञाका भी अधिकारी रहता था । इससे दिगम्बर सम्प्रदाय में दृष्टिवादके प्रथमानुयोग नामक विभागको पूर्वगत से पहले रखने की सार्थकता भी सिद्ध हो जाती है । यदि पूर्वगतके I पश्चात् प्रथमानुयोग रहा तो उसका तात्पर्य यह होगा कि दशपूर्वियोंको उसका ज्ञान ही नहीं हो पायगा । अतएव इस दशपूर्वीकी मान्यता के अनुसार प्रथमानुयोगको पूर्वोसे पहले रखना बहुत सार्थक है । आगेके शेष पूर्व और चूलिकाएं लौकिक और चमत्कारिक विद्याओंसे ही संबंध रखती हैं, वे आत्मशुद्धि बढ़ाने में उतनी कार्यकारी नहीं हैं, जितनी उसकी दृढ़ताकी परीक्षा कराने हैं ।
भिन्न और अभिन्न दशपूर्वीकी मान्यताका निर्देश नंदीसूत्र में भी है, यथा
इच्छेनं दुवालसंगं गणिपिडगं चोदसपुव्विस्ल सम्मसुअं अभिण्णदसपुव्विस्स सम्मसुअं, तेण परं भिण्णेसु भयणा से तं सम्मसु ' (सू. ४१ )
टीकाकारने भिन्न और अभिन्न दशपूर्वीका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया है
इत्येतद् द्वादशांग गणिपिटकं यश्चतुर्दश पूर्वी तस्य सकलमपि सामायिकादि बिन्दुसार पर्यवसानं नियमात् सम्यक् श्रुतं । ततो अधोमुखपरिहान्या नियमतः सर्वं सम्यक् श्रुतं तावद् वक्तव्यं यावदभिन्नदशपूर्विणः - सम्पूर्णदश पूर्वधरस्य । सम्पूर्णदश पूर्वधरत्वादिकं हि नियमतः सम्यग्दृष्टेरेव, न मिथ्यादृष्टेः, तथा स्वाभाव्यात् । तथाहि यथा अभव्यो ग्रंथिदेशमुपागतोऽपि तथा स्वभावत्त्वात् न ग्रंथिभेदमाधातुमलम्, एवं मिथ्यादृष्टिरपि भुतमवगाहमानः प्रकर्षतोऽपि तावदवगाहते यावत्किश्चन्न्यूनानि दशपूर्वाणि भवन्ति, परिपूर्णानि तु तानि नावगाढुं शक्नोति तथा स्वभावत्वादिति । ' इत्यादि
C
6
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
षट्खंडागमकी प्रस्तावना इसका तात्पर्य यह है कि जो सम्मग्दृष्टि होता है वह तो दश पूर्वोका अध्ययन कर लेता है और आगे भी बढता जाता है, किन्तु जो मिथ्यादृष्टि होता है वह कुछ कम दश पूर्वोतक तो पढता जाता है, किन्तु वह दशमेको भी पूरा नहीं कर पाता। इसका उदाहरण उन्होंने एक अभव्यका दिया है जो किसी ग्रंथि-देशपर आजानेसे उस ग्रंथिका भेदन नहीं कर पाता। पर टीकाकारने यह नहीं बतलाया कि कुछ कम दशवें पूर्वमें श्रुतपाठी कौनसी ग्रंथि पाकर रुक जाता है और उसका भेदन क्यों नहीं कर पाता । अनुयोगके दो भेद
प्रथमानुयोगका विषय १. मूलपढमाणुओग
पढमाणिओए चउवीस अत्याहियारा तित्थयर२. गणिआणुओग
पुराणेसु सव्वपुराणाणमंतब्भावादो (जयधवला) __ मूलप्रथमानुयोगका विषय पढमाणियोगो पंच-सहस्सपदेहि (५०००) अरहंताणं भगवंताणं पुव्वभवा देवगमणाई आउं- पुराणं वण्णेदि । उत्तं चचवणाई जम्मणाई अभिसेआ रायवरसिरीओ पव्व- वारसविहं पुराणं जं दिटुं जिणवरेहि सव्वेहिं । जाओ तवा य उग्गा केवलनाणुप्पयाओ तित्थ- तं सव्व् वण्णेदि हु जिणवंसे रायवंसे य ॥१॥ पवत्तणाणि सीसा गणा गणहरा अज्जपवत्तिणीओ पढमो अरहंताणं विदियो पुण चक्कवट्टिवंसो संघस्स चउव्विहस्स जं च परिमाणं जिण मण दु । विज्जाहराण तदियो चउत्थओ वासुपज्जव आहिनाणी सम्मत्त सुअनाणिणो वाई देवाणं ॥२॥ चारणवसो तह पंचमो दु छट्ठो य अणुत्तरगई उत्तरवेउविण्णो मुणिणो जत्तिआ पण्णसमणाणं । सत्तमओ कुरुवंसो अट्ठमओ तह सिद्धा सिद्धीवहो जहदेसिओ जच्चिरं च कालं य हरिवंसो ॥३॥ णवमो य इक्खयाणं दसमो वि य पाओवगया जे जेहिं जात्तियाई भत्ताई छेइत्ता कासियाणं बोद्धव्वो। वाईणेक्कारसमो बारसमो अंतगडे मुणिवरुत्तमे तमरओघविप्पमुक्के मुक्ख- णाहवंसो दु ॥४॥ सुहमणुत्तरं च पत्ते एवमन्ने अ एवमाइभावा मूलपढ माणुओगे कहिआ।
गंडिआणुओग गंडिआणुओगे कुलगर-तित्थथर-चक्कवट्टि-दसारवलदेव-वासुदेव-गणधर-भद्दवाहु-तवोकम-हरिवंसउस्सप्पिणी-चित्तंतर-अमर-नर-तिरिय-निरय-गइगमण-विविहपरियट्टणेसु एवमाइआओ गंडिआओ आघविज्जति पण्णविज्जति ।
श्वेताम्बर सम्प्रदायमें दृष्टिवादके चौथे भेदका नाम अणुयोग है जिसके पुनः दो प्रभेद होते हैं, मूलप्रथमानुयोग और गंडिकानुयोग । दिगम्बर सम्प्रदायमें प्रथमानुयोग ही दृष्टिवादका तीसरा भेद है। अनुयोगका अर्थ समवायांग टीकामें इसप्रकार दिया है
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
बारहवें श्रुताङ्ग दृष्टिवादका परिचय
अनुरूपोऽनुकूलो वा योगोऽनुयोगः सूत्रस्य निजेनाभिधेयेन सार्द्धमनुरूपः सम्बन्ध इत्यर्थः । अर्थात् — सूत्रद्वारा प्रतिपादित अर्थके अनुकूल संबंधका नाम ही अनुयोग है । तात्पर्य यह कि जिसमें सूत्र कथित सिद्धांत या नियमों के अनुकूल दृष्टान्त और उदाहरण पाये जावें वह अनुयोग है | उसके दो भेद करनेका अभिप्राय नंदीसूत्रकी टीकामें यह बतलाया गया है कि
1
५७
इह मूलं धर्मप्रणयनात् तीर्थकरास्तेषां प्रथमः सम्यक्त्वाप्तिलक्षणपूर्वभवादिगोचरोऽनुयोगो मूलप्रथमानुयोगः । इक्ष्वादीनां पूर्वापरपर्वपरिच्छिन्नो मध्यभागो गण्डिका, गण्डिकेव गण्डिका, एकार्थाधिकारा ग्रंथपद्धतिरित्यर्थः । तस्या अनुयोगो गण्डिकानुयोगः ।
इसका अभिप्राय यह है कि धर्मके प्रवर्तक होनेसे तीर्थंकर ही मूल पुरुष हैं, अतएव उनका प्रथम अर्थात् सम्यक्त्वप्राप्तिलक्षण पूर्वभव आदिका वर्णन करनेवाला अनुयोग मूलप्रथमानुयोग है । और जैसे गन्ने आदिको गंडेरी आजू बाजूकी गांठोंसे सीमित रहती है ऐसे ही जिसमें एक एक अधिकार अलग अलग हो उसे गंडिकानुयोग कहते हैं, जैसे कुलकरगंडिका आदि । किन्तु यह विभाग कोई विशेष महत्व नहीं रखता क्योंकि दोनोंमें विषयकी पुनरावृत्ति पायी जाती है। जैसे तीर्थंकर और उनके गणधरोंका वर्णन दोनों विभागों में आता है । दिगम्बरोंमें ऐसा कोई विभाग नहीं किया गया और साफ सीधे तौरसे बतलाया गया है कि दृष्टिवादके प्रथमानुयोगमें चौबीस अधिकारोंद्वारा बारह जिनवंशों और राजवंशोंका वर्णन किया गया है।
दिगम्बर सम्प्रदाय में प्रथमानुयोगका अर्थ इसप्रकार किया गया है
प्रथमं मिथ्यादृष्टिमव्रतिकमन्युत्पन्नं वा प्रतिपाद्यमाश्रित्य प्रवृत्तोऽनुयोगोऽधिकारः प्रथमानुयोगः ( गोम्मटसार टीका )
इसका अभिप्राय यह है कि ' प्रथमं ' का तात्पर्य अत्रती और अव्युत्पन्न मिथ्यादृष्टि शिष्यसे है और उसके लिये जिस अनुयोग की प्रवृत्ति होती है वह प्रथमानुयोग कहलाता है । इसीके भीतर सब पुराणोंका अर्न्तभाव हो जाता है । किन्तु इसका पद- प्रमाण केवल पांच हजार बतलाया गया है । इससे जान पड़ता है कि दृष्टिवादके अन्तर्गत प्रथमानुयोगमें सर्व कथावर्णन बहुत संक्षेपमें किया गया था । पुराणवादका विस्तार पीछे पीछे किया गया होगा ।
नन्दिसूत्रकी टीका में गंडिकानुयोगके अन्तर्गत चित्रान्तरगण्डिकाका बड़ा ही विचित्र और विस्तृत परिचय दिया है । पहले उन्होंने बतलाया है कि
' कुलकराणां गण्डिकाः कुलकरगण्डिकाः, तत्र कुलकराणां विमलवाहनादीनां पूर्वभवजन्मादीनि सप्रपञ्चमुपवर्ण्यन्ते । एवं तीर्थकरगण्डिकादिष्वाभिधानवशतो भावनीयं ' जाव चित्तंतर गंडिभाऊ 'ति ।
अर्थात् कुलकरगण्डिकामें विमलवाहनादि कुलकरोंके पूर्वभव जन्मादिका सविस्तर वर्णन किया गया है । इसीप्रकार तीर्थंकरादि गंडिकाओं में उनके नामानुसार विषय वर्णन समझ लेना चाहिये
1
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
५८
षट्खंडागमकी प्रस्तावना जहांतक कि चित्रान्तरंगंडिका नहीं आती। फिर चित्रान्तरगण्डिकाका परिचय इस प्रकार प्रारम्भ किया गया है
'चित्रा अनेकार्थाः, भन्तरे ऋषभाजिततीर्थकरापान्तराले गण्डिका: चित्रान्तरगाण्डिकाः। एतदुक्तं भवति-ऋषभाजितीर्थकरान्तराले ऋषभवंशसमुद्भूतभूपत्तीनां शेषगतिगमनम्युदासेन शिवगतिगमनानुत्तरोपपातप्राप्तिप्रतिपादिका गण्डिकावित्रान्तरगण्डिकाः। तासां च प्ररूपणा पूर्वाचायरेवमकारि-इह सुबुद्धिनामा सगरचक्रवर्तिनो महामात्योऽष्टापदपर्वते सगरचक्रवर्तिसुतेभ्य आदित्ययशःप्रभृतीनां भगवदृषभवंशजानां भूपतीनामेवं संख्यामाण्यातुमपक्रमते स्म । आह च
" आइच्चजसाईणं उसमस्स परंपरानरवईणं ।
सयरसुयाण सुबुद्धी इणमो संखं परिकहेइ ॥५॥ आदित्ययशःप्रभृतयो भगवन्नामेयवंशजास्त्रिखण्डभरतार्द्धमनुपाल्य पर्यन्ते पारमेश्वरीं दीक्षामाभगृह्य तत्प्रभावत: सकलकर्मक्षयं कृत्वा चतुर्दश लक्षा निरन्तरं सिद्धिमगमन् । तत एकः सर्वार्थसिद्धौ, ततो भूयोऽपि चतुर्दश लक्षा निरन्तरं निर्वाणे, ततोऽप्येकः सर्वार्थसिद्धे महाविमाने | एवं चतुर्दशलक्षान्तरितः सर्वार्थसिद्धावकैकस्ताबदतब्यो यावत्तेऽप्येकका असंख्यया भवन्ति । ततो भूयश्चतुर्दश लक्षा नरपतीनां निरन्तरं निर्वाणे, ततो द्वौ सर्वार्थसिद्धे । ततः पुनरपि चतुर्दश लक्षा निरन्तरं निर्वाणे । ततो भूयोऽपि द्वौ सर्वार्थसिद्धे । एवं चतुइंश लक्षा २ लक्षान्तरितौ द्वौ २ सर्वार्थसिद्धे तावद्वक्तव्यो यावत्तेऽपि द्विक २ संख्यया असंख्यया भवन्ति । एवं त्रिक २ संख्यादयोऽपि प्रत्येकमसंख्येयास्तावद्वक्तव्याः यावनिरन्तरं चतुर्दश लक्षा निर्वाणे । ततः पत्राशत्सर्वार्थसिद्धे। ततो भूयोऽपि चतुर्दश लक्षा निर्वाणे । ततः पुनरपि पञ्चाशत्सासिद्धे। एवं पञ्चाशत्संख्याका भपि चतु ईश २ लक्षान्तरितास्तावद्वक्तव्या यावत्तेऽप्यसंख्यया भवन्ति । उक्तंच
"चोइस लक्खा सिद्धा णिवईणेको य होइ सबढे। एवेकेके ठाणे पुरिसजुगा होंतिऽसंखेज्जा ॥१॥ पुणरपि चौदस लक्खा सिद्धा निम्वईण दो वि सम्बट्रे। दुगठाणेऽवि असंखा पुरिसजुगा होतिं नायव्वा ॥२॥ जाव य लक्खा चोद्दस सिद्धा पण्णास होतिं सबढे। पन्नासट्टाणे विउ पुरिसजुगा होतिऽसंखेज्जा ॥३॥ एगुत्तरा उ ठाणा सबढे चेव जाव पन्नासा । एकेकंतरठाणे पुरिसज़ुगा होति असंखेज्जा ॥ ४ ॥
इत्यादि। इसका तात्पर्य यह है कि ऋषभ और अजित तीर्थंकरोंके अन्तराल कालमें ऋषभ वंशके जो राजा हुए उनकी और गतियोंको छोडकर केवल शिवगति और अनुत्तरोपपातकी प्राप्तिका प्रतिपादन करनेवाली गंडिका चित्रान्तरगंडिका कहलाती है। इसका पूर्वाचार्योंने ऐसा प्ररूपण किया है कि सगरचक्रवर्तीके सुबुद्धिनामक महामात्यने अष्टापद पर्वतपर सगरचक्रीके पुत्रोंको भगवान् ऋषभके वंशज आदित्ययश आदि राजाओंकी संख्या इस प्रकार बताई-उक्त आदित्ययश आदि नाभयवंशके राजा त्रिखंड भरतार्धका पालन करके अन्त समय पारमेश्वरी दीक्षा धारण कर उसके प्रभावसे सब कर्मोंका क्षय करके चौदह लाख निरन्तर क्रमसे सिद्धिको प्राप्त हुए और
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
बारहवें श्रुताङ्ग दृष्टिवादका परिचय
५९ अनन्तर एक सर्वार्थसिद्धिको गया। फिर चौदह लाख निरन्तर मोक्षको गये और पश्चात् एक फिर सर्वार्थसिद्धिको गया । इसीप्रकार क्रमसे वे मोक्ष और सर्वार्थसिद्धिको तबतक जाते रहे जबतक कि सर्वार्थसिद्धिमें एक एक करके असंख्य होगये। इसके पश्चात् पुनः निरंतर चौदह चौदह लाख मोक्षको और दो दो सर्वार्थसिद्धिको तबतक गये जबतक कि ये दो दो भी सर्वार्थसिद्धिमें असंख्य होगये । इसीप्रकार क्रमसे फिर चौदह लाख मोक्षगामियोंके अनन्तर तीन तीन, फिर चार चार करके पचास पचास तक सर्वार्थसिद्धिको गये और सभी असंख्य होते गये। इसके पश्चात् क्रम बदल गया और चौदह लाख सर्वार्थसिद्धिको जाने के पश्चात् एक एक मोक्षको जाने लगा और पूर्वोक्त प्रकारसे दो दो फिर तीन तीन करके पचास तक गये और सब असंख्य होते गये। फिर दो लाख निर्वाणको, फिर दो लाख सर्वार्थसिद्धिको, फिर तीन तीन लाख । इस प्रकारसे दोनों ओर यह संख्या भी असंख्य तक पहुंच गई। यह सब चित्रान्तरगंडिकामें दिखाया गया था। उसके आगे चार प्रकारकी और चित्रान्तरगंडिकायें थीं-एकादिका एकोत्तरा, एकादिका द्वयुत्तरा, एकादिका त्र्युत्तरा और त्र्यादिका द्वयादिविषयोत्तरा, जिनमें भी और और प्रकारसे मोक्ष और सर्वार्थसिद्धिको जानेवालोंकी संख्याएं बतायीं गई थीं।
जान पड़ता है, इन सब संख्याओंका उपयोग अनुयोगके विषयकी अपेक्षा गणितकी भिन्नभिन्न धाराओंके समझाने में ही अधिक होता होगा । चूलिका
पांच चूलिकाओंके अन्तर्गत विषय प्रथम चार पूर्वोकी चलिकाएं ही इसके अन्त- १ जलगया-जलगमण--जलत्थंभण--कारणर्गत हैं । उन चलिकाओंकी संख्या ४+१२+ मंत-तंत-तपच्छरणाणि वण्णेदि । ८+१०-३. है
२ थलगया- भूमिगमणकारण-मंत-तंत-तव
छरणाणि वत्थुविजं भूमिसंबंधमण्णं पि महासुहकारणं वण्णेदि। ३ मायागया-इंदजालं वण्णेदि ४ रूवगया-सीह-हय-हरिणादि--रूवायारेण.
परिणमणहेदु-मंत-तंत-तवच्छरणाणि चित्त
कह-लेप्प-लेणकम्मादि-लक्खणं च वण्णेदि । ५ आयासगया- आगासगमणणिमित्त--मंत
तंत-तवच्छरणाणि वण्णेदि । श्वेताम्बर ग्रंथोंमें यद्यपि चूलिका नामका दृष्टिवादका पांचवां भेद गिना गया है, किन्तु उसके भीतर न तो कोई ग्रंथ बताये गये और न कोई विषय, केवल इतना कह दिया गया है कि
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
षट्खंडागमकी प्रस्तावना
से किं तं चूलिआओ ? चूलिआओ आइलाणं चउण्हं पुष्वाणं चूलिआ, सेसाई पुग्वाई अचूलिआई, से तं चूलिआओ ।
अर्थात् प्रथम चार पूर्वोकी जो चूलिकाएं बता आये हैं वे ही चूलिकाएं यहां गिन लेना चाहिये । किन्तु यदि ऐसा है तो चूलिकाको पूर्वोका ही भेद रखना था, दृष्टिवादका एक अलग भेद बताकर उसका एक दूसरे भेदके अन्तर्गत निर्देश करनेसे क्या विशेषता आई ! फिर भी टीकाकार यह तो स्पष्ट बतलाते हैं कि दृष्टिवादका जो विषय परिकर्म, सूत्र, पूर्व और अनुयोग में अनुक्त रहा वह चूलिकाओंमें संग्रह किया गया
' इह चूला शिखरमुच्यते, यथा मेरौ चूला । तत्र चूला इव चूला । दृष्टिवादे परिकर्म-सूत्र-पूर्वानुयोगेऽ मुकार्थसंग्रहपरा ग्रंथपद्धतयः । xxx एताश्च सर्वस्यापि दृष्टिवादस्योपरि किल स्थापितास्तथैव च पज्यन्ते । ' (नन्दी सूत्र टीका)
इससे तो जान पडता है कि उन्हें पूर्वोके भीतर बतलाने में कुछ गड़बड़ी हुई है ।
दिगम्बर मान्यतामें पूर्वोके भीतर कोई चूलिकाएं नहीं दिखाई गई । उसके जो पांच प्रभेद बतलाये गये हैं उनका प्रथम चार पूर्वोसे विषयका भी कोई सम्बंध नहीं है । वे जल, थल, माया, रूप और आकाश सम्बंधी इन्द्रजाल और मंत्र-तंत्रात्मक चमत्कारका प्ररूपण करती हैं, तथा अन्तिम पांच पूर्वोके मंत्रतंत्रात्मक विषयकी धाराको लिये हुए हैं । प्रत्येक चूलिकाकी पदसंख्या २०९८९२०० बतलाई है, जिससे उनके भारी विस्तारका पता चलता है ।
अब यहां पूर्वोके उन अंशोंका विशेष परिचय कराया जाता है जो धवला जयधवलाके भीतर प्रथित हैं और जिनकी तुलनाकी कोई सामग्री श्वेताम्बरीय उपर्युक्त आगमोंमें नही पायी जाती । इनकी रचना आदिका इतिहास सत्प्ररूपणा प्रथम जिल्दकी भूमिकामें दिया जा चुका है जिसका सारांश यह है कि भगवान् महावीरके पश्चात् क्रमशः अट्ठाईस आचार्य हुए जिनका श्रुतज्ञान धीरे धीरे कम होता गया । ऐसे समय में दो भिन्न भिन्न आचार्योंने दो भिन्न भिन्न पूर्वोके अन्तर्गत एक एक पाहुडका उद्धार किया । घरसेनाचार्यने पुष्पदंत और भूतबलिको जो श्रुत पढ़ाया उसपर से उन्होंने द्वितीय पूर्व आप्रायण के एक पाहुडका उद्धार सूत्ररूपसे किया । आप्रायणीपूर्वके अन्तर्गत निम्न चौदह " वस्तु ' नामक अधिकार थे - पुव्वंत, अवरंत, धुव, अधुव, चयणलद्धी, अधुषम, पणिधिकष्प, अट्ठ, भौम्म, वयादिय, सव्वट्ट, कप्पणिज्जाण, अतीद- सिद्ध-बद्ध और अणागय-सिद्ध-बद्ध ।
हम ऊपर बतला ही आये हैं कि पूर्वोकी प्रत्येक वस्तुमें नियमसे वीस वीस पाहुड रहते थे । अप्रायणी पूर्वी पंचम वस्तु चयनलब्धिके वीस पाहुडोंमें चौथे पाहुडका नाम कम्मपयडी या महाकम्मपयडी अथवा बेयणकसिणपाहुड x था । इसीका उद्धार पुष्पदंत और भूतबलि
1
x कम्माणं पयडिसरूवं वण्णेदि, तेण कम्मपयडिपाहुडे ति गुणणामं । वेयणकसिणपाहुडे त्ति वितर विदियं णाममत्थि । वेयणा कम्माणमुदयो तं कसिणं णिरवसेसं वण्णेदि अदो वेयणकसिणपाहुडमिदि एदमवि गुणणाममेव (सं.प. १, पृ. १२४, १२५ )
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
बारहवें श्रुताङ्ग दृष्टिवादका परिचय
६१ सूत्ररूपसे षट्खंडागमके भीतर किया। इस पाहुडके जो चौवीस अवान्तर अधिकार थे, उनके विषयका संक्षेप परिचय धवलाकारने वेदनाखंडके आदिमें कराया है जो इस प्रकार है१ कदि-कदीए ओरालिय-वेउब्विय-तेजाहार- १ कृति-कृति अर्थाधिकारमें औदारिक, कम्मइयसरीराणं संघादण-परिसादणकदी- वैक्रियिक, तैजस, आहारक और कार्मण, ओ भव-पढमापढम-चरिमम्मि हिंदजीवाणं इन पात्रों शरीरोंकी संघातन और परिकदि-णोकदि-अवत्तव्वसंखाओ च परूवि- शातनरूप कृतिका तथा भवके प्रथम, जंति ।
अप्रथम और चरम समयमें स्थित जीवोंके कृति, नोकृति और अवक्तव्यरूप संख्या
ओंका वर्णन है। २ वेदणा-वेदणाए कम्म-पोग्गलाणं वेदणा- २ वेदना-वेदना अर्थाधिकारमें वेदनासंज्ञिक सण्णिदाणं वेदण-णिक्खेवादि-सोलसेहि कर्मपुद्गलोंका वेदनानिक्षेप आदि सोलह अणिओगद्दारेहि परूवणा कीरदे।
अधिकारोंके द्वारा वर्णन किया गया है। ३ फास-फासणिओगद्दारम्मि कम्म-पोग्गलाणं ३ स्पर्श-स्पर्श अर्थाधिकारमें स्पर्श गुणके
णाणावरणादिभेएण अट्ठभेदमुवगयाणं फास- संबन्धसे प्राप्त हुए स्पर्शनिर्माण, स्पर्शगुणसंबंधेण पत्त-फासणीमाण-फासणिक्खे- निक्षेप आदि सोलह अधिकारोंके द्वारा वादिसोलसेहि अणियोगद्दारेहि परूवणा ज्ञानावरणादिके भेदसे आठ भेदको प्राप्त कीरदे ।
हुए कर्मपुद्गलोंका वर्णन किया गया है । ४ कम्म-कम्मेत्ति अणिओगद्दारे पोग्गलाणं ४ कर्म-कर्म अर्थाधिकारमें कर्मनिक्षेप आदि
णाणावरणादिकम्मकरणक्खमत्तणेण पत्त- सोलह अधिकारोंके द्वारा ज्ञानावरणादि कम्मसण्णाणं कम्मणिक्खेवादिसोलसेहि कर्मकरणमें समर्थ होनेसे जिन्हें कर्मसंज्ञा अणियोगद्दारेहि परूवणा कीरदे ।
प्राप्त हो गई है, ऐसे पुद्गलोंका वर्णन
किया गया है। ५ पयडि-पयडि त्ति अणियोगद्दारम्हि पोग्ग. ५ प्रकृति-प्रकृति अर्थाधिकारमें कृति अधि
लाणं कदिम्हि परूविद-संघादाणं वेदणाए कारमें कहे गये संघातनरूप, वेदना अधिपण्णविदावस्थाविसेस-पच्चयादीणं फासम्मि कारमें कहे गये अवस्थाविशेष प्रत्ययादिणिरूविद-वावाराणं पयडिणिक्खेवादि-सोलस- रूप, स्पर्शमें कहे गये जीवसे संबद्ध अणियोगदारेहि सहाव-परूवणा कीरदे। और जीवके साथ संबद्ध होनेसे उत्पन्न
हुए गुणके द्वारा कर्म अधिकारमें कथित रूपसे व्यापार करनेवाले पुद्गलोंके स्वभाव
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
६२
षट्खंडागमकी प्रस्तावना
६ बंधण - जं तं बंधणं तं चउग्विंह-बंधो बंधगा बंधणिज्जं बंधविधाणमिदि । तत्थ बंधो जीवकम्मपदेसाणं सादियमणादियं च बंधं वदि । बंधगाहियारो अट्ठविहकम्मबंधगे परुवेदि, सोच खुदाबंधे परुविदो | बंधणिज्जं बंधपाओग्ग-तदपाओग्ग-पोग्गलदवं परुवेदि । बंधविहाणं पयडिबंधं ठिदिबंधं अणुभागबंधं पदेसबंधं च परुवेदि ।
७ निबंध - णिबंधणं मूलुत्तरपयडीणं निबंधणं वदि । जहा चक्खिदियं रूवम्मि निबद्धं, सोदिदियं सद्दम्मि णिवद्धं, घाणिदियं गंधम्मि णिबद्धं, निब्भिंदियं रसम्मि णिबद्धं, फासिंदियं कक्खदादिफासेसु णिबद्धं, तहा इमाओ पयडीओ एदेसु अत्थेसु निबद्धाओ णिबंधणं परुवेदि, एसो भावत्थो ।
८ पकम - पक्कमेत्ति अणियोगद्दारं अकग्मसरूवेण द्विदाणं कम्मइयवग्गणाखंधाणं मूलत्तरपयडिसरूवेण परिणममाणाणं पयडि-हिदिअणुभागविसेसेण विसिद्वाणं पदेसपरूवणं
का निरूपण प्रकृतिनिक्षेप आदि सोलह अधिकारोंके द्वारा किया गया है ।
६ बन्धन - बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान, इसप्रकार बन्धन अर्थाधिकार के चार भेद हैं । उनमें से बन्ध अधिकार जीव और कर्मप्रदेशों का सादि और अनादिरूप बन्धका वर्णन करता है । बन्धक अधिकार आठ प्रकारके कर्मों के बन्धकका प्रतिपादन करता है जिसका कथन क्षुल्लकबन्ध में किया जा चुका 1 बन्धके योग्य पुद्गलद्रव्यका कथन बन्धनीय अधिकार करता है । बन्धविधान अधिकार प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध इन चार बन्धके भेदों का कथन करता है ।
७ निबन्धन - निबन्धन अधिकार मूलप्रकृति और उत्तर प्रकृतियोंके निबन्धनका कथन करता है । जैसे, चक्षुरिन्द्रिय रूपमें निबद्ध है । श्रोत्रेन्द्रिय शब्दमें निबद्ध है । घ्राणेन्द्रिय गन्धमें निबद्ध है । जिह्वा इन्द्रिय रसमें निबद्ध है और स्पर्शनेन्द्रिय कर्कश आदि स्पर्शमें निबद्ध है । उसीप्रकार ये मूलप्रकृतियां और उत्तरप्रकृतियां इन विषयोंमें निबद्ध हैं, इसप्रकार निबन्धन अर्थाधिकार प्ररूपण करता है यह भावार्थ जानना चाहिये ।
८ प्रक्रम - प्रक्रम अर्थाधिकार जो वर्गणास्कन्ध अभी कर्मरूपसे स्थित नहीं हैं, किंतु जो मूलप्रकृति और उत्तरप्रकृतिरूपसे परिणमन करनेवाले हैं और जो प्रकृति, स्थिति और
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुणदि ।
बारहवें श्रुता दृष्टिवादका परिचय
९ उबक्कम - उबक्कमेत्ति अणियोगद्दारस्स चत्तारि अहियारा - बंधणोवक्कमो उदीरणोवक्कमो उवसामणोवक्कम विपरिणामोवक्कमो चेदि । तत्थ बंधोवक्कमो बंधविदियसमय पहुडि अgoणं कम्माणं पयडि-हिदि- अणुभाग-पदेसा बंधवण्णणं कुणदि । उदीरणोवक्कमो पर्यीडदि - अणुभाग पदे साणमुदीरणं परुवेदि । उवसामणोवक्कमो पसत्थोवसामणमप्पसस्योत्रसामणाणं च पयडि-हिदि- अणुभागपदेसभेदभिण्णं परुवेदि । विपरिणाममुवकम पड - ट्ठदि - अणुभाग-पदेसाणं देसणिज्जरं सयलणिज्जरं च परूवेदि ।
१० उदय - उदयाणियोगद्दार अणुभाग - पदे सुदयं परुवेदि ।
पयडि-द्विदि
११ मोक्ख - मोक्खो पुण देस-सयलणिज्जराहि परपयडिसंकमोकडणुक्कड्डण - अद्धडिदिगलपयडि-हिदि- अणुभाग-पदेसभिणं मोक्खं वदिति अत्थभेदो ।
हि
१२ संकम-संकमेत्ति अणियोगद्दार पयडि-हिदिअणुभाग-पदेससंकमे परूवेदि ।
.६३
अनुभागकी विशेषतासे वैशिष्टयको प्राप्त हैं ऐसे कर्मवर्गणास्कन्धों के प्रदेशोंका प्ररूपण करता है ।
९ उपक्रम - उपक्रम
अर्थाधिकार के चार
अधिकार हैं बन्धनोपक्रम, उदीरणोपक्रम, उपशामनोपक्रम और विपरिणामोपक्रम | उनमें से बन्धनोपक्रम अधिकार बन्ध होने के दूसरे समयसे लेकर प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूप ज्ञानावरणादि आठों कर्मो के बन्धका वर्णन करता है । उदीरगोपक्रम अधिकार प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंकी उदीरणाका कथन करता है । उपशामनोपक्रम अधिकार, प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशके भेदसे भेदको प्राप्त हुए प्रशस्त पशमना और अप्रशस्तोपशमनाका कथन करता है । विपरिणामोपक्रम अधिकार प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंकी देशनिर्जरा और सकलनिर्जराका कथन करता है ।
१० उदय - उदय अर्थाधिकार प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंके उदयका कथन करता है ।
११ मोक्ष - मोक्ष अर्थाधिकार देशनिर्जरा और सकलनिर्जरा केद्वारा परप्रकृतिसंक्रमण, उत्क र्षण अपकर्षण और स्थितिगलनसे प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धका आत्मासे भिन्न होना मोक्ष है, इसका वर्णन करता है ।
१२ संक्रम-संक्रम अर्थाधिकार प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंके प्ररूपण करता है ।
संक्रमणका
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
षट्खंडागमकी प्रस्तावना १३ लेस्सा-लेस्सेत्ति अणिओगद्दारं छदव्वले- १३ लेश्या-लेश्या आनुयोगद्वार छह द्रव्य स्साओ परूवेदि ।
लेश्याओंका प्रतिपादन करता है। १४ लेस्सायम्म-लेस्सापरिणामेत्ति अणियोग- १४ लेश्याकर्म-लेश्याकर्म अर्थाधिकार अन्तरंग
हारमंतरंग-छलेस्सा-परिणयजीवाणं बज्झ- छह लेश्याओंसे परिणत जीवोंके बाह्य कज्जपरूपण कुणदि ।
कार्योंका प्रतिपादन करता है। १५ लेस्सापरिणाम-लेस्सापरिणामेत्ति अणि- १५ लेश्यापरिणाम-लेश्यापरिणाम अर्थाधिकार
योगद्दारं जीव-पोग्गलाणं व्व-भावलेस्साहि जीव और पुद्गलोंके द्रव्य और भावरूपसे परिणमणविहाणं वण्णेदि।
परिणमन करनेके विधानका कथन करता
१६ सादमसाद-सादमसादेत्ति अणियोगद्दारमे. १६ सातासात-सातासात अर्थाधिकार एकान्त
यंतसाद-अणेयततोदाणं (?) गदियादि- सात, अनेकान्त सात, एकान्त असात, मग्गणाओ अस्सिदूण परूवणं कुणइ । अनेकान्त असातका गति आदि मार्गणा
ओंके आश्रयसे वर्णन करता है। १७ दहिरहस्स-दीहेरहस्सेत्ति अणिओगद्दारं १७ दीर्घहस्व-दीर्घ-हस्व अधिकार प्रकृति,
पयडि-हिदि -अणुभाग-पदेसे अस्सिदूण स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंका आश्रय दीहरहस्सत्तं परूवेदि।
लेकर दीर्घता और ह्रस्वताका कथन
करता है। १८ भवधारणीय-भवधारणीए त्ति अणियोग- १८ भवधारणीय-भवधारणीय अर्थाधिकार,
दारं केण कम्मेण णेरइय-तिरिक्ख-मणुस- किस कर्मसे नरकभव प्राप्त होता है, देवभवा धरिज्जति ति परूवेदि ।
किससे तिर्यचभव, किससे मनुष्यभव
और किससे देवभव प्राप्त होता है, इसका
कथन करता है। १९ पोग्गलत्त-पोग्गलअत्येत्ति अणिओगद्दारं गह- १९ पुद्गलात्त-पुद्गलार्थ अनुयोगद्वार दण्डादिके
णादो अत्ता पोग्गला परिणामदो अत्ता पोग्गला ग्रहण करनेसे आत्त पुद्गलोंका, मिथ्याउवभोगदो अत्ता पोग्गला आहारदो अत्ता
त्वादि परिणामोंसे आत पुद्गलोंका, पोग्गला ममत्तीदो अत्ता पोग्गला परिग्गहादो उपभोगसे आत्त पुद्गलोंका, आहारसे आत्त अत्ता पोग्गला त्ति अप्पणिज्जाणप्पणिज्ज- पुद्गलोंका, ममतासे आत्त पुद्गलोंका और पोग्गलाणं पोग्गलाणं संबंधेण पोग्गलत्तं परिग्रहसे आत्त पुद्गलोंका, इसप्रकार पत्तजीवाणं च परूवणं कुणदि ।
आत्मसात् किये हुए और नहीं किये हुए
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
बारहवें श्रुताङ्ग दृष्टिवादका परिचय
६५ , पुद्गलोंका तथा पुद्गलके संबन्धसे पुद्गलत्वको
प्राप्त हुए जीवोंका वर्णन करता है । २० णिवत्तमणिधत्त- णिधत्तमणिधत्तमिदि २० निधत्तानिधत्त-निधत्तानिधत्त अर्थाधिकार
अणियोगदार पयाडि--हिदि -अणुभागाणं प्रकृति, स्थिति और अनुभागके निधत्त णिधत्तमणिधत्तं च परूवेदि । णिवत्तमिदि ... और अनिधत्तका प्रतिपादन करता है । किं ? जं पदेसग्गं ण सक्कमुदए दादु जिसमें प्रदेशाग्र उदय अर्थात् उदीरणामें अण्णपयाडं वा संकामेदं तं णिवत्तं णाम । नहीं दिया जा सकता है और अन्य तबिवरीयमणिधत्तं ।
प्रकृतिरूप संक्रमणको भी प्राप्त नहीं कराया जा सकता है, उसे निधत्त कहते
हैं । अनिधत्त इससे विपरीत होता है। २१ णिकाचिदमणिकाचिद--णिकाचिदमणि- २१ निकाचितानिकाचित--निकाचितानिका.
काचिदमिदि अणियोगद्दारं पयडि-हिदि - चित अर्थाधिकार प्रकृति, स्थिति और अनुअणुभागाणं णिकाचणं परूवेदि । णिकाच- भागके निकाचित और अनिकाचितका णमिदि किं ? जं पदेसग्गं ण सक्कमोक- वर्णन करता है । जिसमें प्रदेशाप्रका उत्कड्डिदुमण्णपयडिं संकामेंदुमुदए दातुं वा पण, अपकर्षण, परप्रकृतिसंक्रमण नहीं हो तण्णिकाचिदं णाम । तबिवरीदमणिका- सकता और न वह उदय अथवा उदारणा चिदं।
में ही दिया जा सकता है उसे निकाचित कहते हैं। अनिकाचित इससे विपरीत
होता है। २२ कम्मद्विदि-कम्महिदि त्ति अणियोगद्दार २२ कर्मस्थिति-कर्मस्थिति अनुयोगद्वार संपूर्ण
सव्वकम्माणं सत्तिकम्मट्ठिदिमुक्कड्डणोकड्डण- कर्मोकी शक्तिरूप कर्मस्थितिका और जणिदहिदिंच परूवेदि ।
उत्कर्षण तथा अपकर्षणसे उत्पन्न हुई
कर्मस्थितिका वर्णन करता है। २३ पच्छिमक्खंध-पच्छिमक्खंधेति अणिओग- २३ पश्चिमस्कन्ध-पश्चिमस्कन्ध अर्थाधिकार
द्दार दंड-कपाट-पदर-लोगपूरणाणि तत्थ दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरणरूप हिदि-अणुभागखंडयघादणविहाणं जोग- समुद्घातका, इस समुद्वातमें होनेवाले किट्टीओ काऊण जोगणिरोहसरूवं कम्म- स्थितिकांडकघात और अनभागकाण्डकक्खवणविहाणं च परूवेदि ।
घातके विधानका, योगोंकी कृष्टि करके होनेवाले योगनिरोधके खरूपका और. कर्मक्षपणके विधानका वर्णन करता है।
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
६६
षट्खंडागमकी प्रस्तावना २४ अप्पाबहुग- अप्पाबहुगाणिओगदार २४ अल्पबहुत्व-अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार
अदीदसव्वाणिओगद्दारेसु . अप्पाबहुगं अतीत संपूर्ण अनुयोगद्वारोंमें अल्पबहुत्वका पख्वेदि ।
प्रतिपादन करता है। इन चौवीस अधिकारोंके विषयका प्रतिपादन पुष्पदन्त और भूतबलिने कुछ अपने स्वतंत्र विभाग से किया है जिसके कारण उनकी कृति षट्खंडागम कहलाती है । उक्त चौवीस अधिकारोंमें पांचवां बंधन विषयकी दृष्टि से सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण प्रतीत होता है। इसीके कुछ अवान्तर अधिकारोंको लेकर प्रथम तीन खंडों अर्थात् जीवट्ठाण, खुद्दाबंध और बंधसामित्तविचयकी रचना हुई है । इन तीन खंडोंमें समानता यह है कि उनमें जीवका बंधककी प्रधानतासे प्रतिपादन किया गया है। उनका मंगलाचरण भी एक है । इन्हीं तीन खंडोंपर कुन्दकुन्दद्वारा परिकर्म नामक टीका लिखी कही गयी है। इन्हीं तीन खंडोंके पारंगत होनेसे अनुमानतः त्रैविद्यदेवकी उपाधि प्राप्त होती थी। इन्हीं तीन खंडोंका संक्षेप सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्रकृत गोम्मटसारके प्रथम विभाग जीवकांडमें पाया जाता है।
इन तीन खंडोंके पश्चात् उक्त चौवीस अधिकारोंका प्ररूपण कृति वेदनादि क्रमसे किया गया है और प्रथम छह अर्थात् बंधन तकके प्ररूपणको अधिकार व अवान्तर अधिकारकी प्रधानतानुसार अगले तीन खंडों वेदणा, वग्गणा और महाबंधमें विभाजित कर दिया गया है। इन तीन खंडोंके विषय-विवेचनकी समानता यह है कि यहां बंधनीय कर्मकी प्रधानतासे विवेचन किया गया है। इनमें अन्तिम महाबंध सबसे बड़ा है और स्वतंत्र पुस्तकारूढ है। जो उपर्युक्त तीन खंडोंके अतिरिक्त इन तीनोंमें भी पारंगत हो जाते थे, वे सिद्धान्तचक्रवर्ती पदके अधिकारी होते थे । सि. च. नेमिचन्द्रने इनका संक्षेप गोम्मटसार कर्मकांडमें किया है।
भूतबलि रचित सूत्रग्रंथ छठवें बंधन अधिकारके साथही समाप्त हो जाता है। शेष निबन्धनादि अठारह अधिकारोंका प्ररूपण धवला टीकाके रचयिता वीरसेनाचार्यकृत है, जिसे उन्होंने चूलिका कहकर पृथक् निर्देश कर दिया है।
उपर्युक्त खंडविभागादिका परिचय प्रथम जिल्दकी भूमिकामें दिये हुए मानचित्रोंसे स्पष्टतया समझमें आजाता है। उन चित्रोंमें बतलायी हुई जीवट्ठाणकी नवमीं चूलिका गति-आगतिकी उत्पत्तिके विषयमें एक सूचना कर देना आवश्यक प्रतीत होता है। वह चूलिका धवलामें वियाहपण्णत्ति से उत्पन्न हुई कही गयी है। मानचित्रमें व्याख्याप्रज्ञप्तिके आगे (पांचवां अंग ) ऐसा लिख दिया गया है, क्योंकि यह नाम पांचवें अंगका पाया जाता है। किन्तु दृष्टिवादके प्रथम विभाग परिकर्मके पांच भेदोंमें भी पांचवां भेद वियाहपण्णत्ति नामका पाया जाता है । अतएव संभव है कि गति-आगति चूलिकाकी उत्पादक वियाहपण्णत्तिसे इसीका अभिप्राय हो !
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
बारहवें श्रुताङ्ग दृष्टिवादका परिचय
६७
पांचवें पूर्व णाणपवाद (ज्ञानप्रवाद) के एक पाहुडका उद्धार गुणधराचार्यद्वारा गाथारूपमें किया गया । णाणपवादकी बारह वस्तुओंमेंसे दशम वस्तुके तीसरे पाहुडका नाम 'पेज' या 'पेज्जदोस ' या ' कसाय ' पाहुड था । इसीका गुणधराचार्यने १८० गाथाओं ( और ५३ विवरणगाथाओं में ) उद्धार किया, जिसका नाम कसायपाहुड है । इसका परिचय स्वयं सूत्रकार व टीकाकार के शब्दों में संक्षेपतः इसप्रकार है
**
*
माहासदे असीदे अस्थे पण्णरसधा विहन्त्तम्मि |
वोच्छामि सुत्तगाहा जइ गाहा जम्मि अत्थमिम ॥
टीका - सोलसपद सहस्सेहि वे कोडाकोडिएक्स डिलक्ख-सत्तावण्णसहस्स - वेसद-वाणउदिकोटिवासट्ठिलक्ख अट्टसहस्सक्खरूपपणेहि जं भणिदं गणहरदेवेण इंदभूदिणा कसायपाहुडं तमसीदि - सदगाहाहि चेव जाणावेमि ति गाहासदे असीदे त्ति पढमपइजा कदा । तत्थ अणेगेहि अस्थाहियारेहि परूविदं कसायपाहुडमेत्य पण्गारसेहि चैव अत्याहियारेहि परूमि त्ति जाणावणटुं अत्थे पण्णारसधा विहत्तम्मिति विदियपइज्जा कदा | xxx ।
*
*
संपहि कसा पाहुडस पण्णारस अत्याहियार- परूवणटुं गुणहरभडारओ दो सुत्तगाहाओ पठदि
पेजदोस विहत्ती द्विदि-अणुभागे च बंधगे चेय | वेद एवजोगे विय चउट्ठाण-वियंजणे चे य ॥ सम्मत्त देसविरयी संजम उवसामणा च खवणा च । दंसण-चरितमोहे अद्धापरिमाणणिसो ॥
पुत्रम् पंचमम्मि दु इसमे वत्थुम्मि पाहुडे तदिये । पेज्जं ति पाहुडम्मि दु हवदि कसायाण पाहुडं णाम ॥ १ ॥
*
इसका तात्पर्य यह है कि यह कसायपाहुड पंचम पूर्वकी दसम वस्तुके पेजनामक तृतीय पाहुडसे उत्पन्न हुआ है | इन्द्रभूति गौतमकृत उस मूलमंथका परिमाण बहुत भारी था और अधिकार भी अनेक थे । प्रस्तुत कसायपाहुडमें १८० गाथाएं १५ अधिकारों में विभक्त हैं । गाथाओंमें सूचित पन्द्रह अधिकार जयधवलाकारने तीन प्रकारसे बतलाये हैं । इनमें से जो विभाग उन्होंने चूर्णिकार यतिवृषभ के आधारसे दिये हैं, वे निम्नप्रकार हैं-
1
१ पेज्जदोस
२ वित्ती-द्विदि- अणुभाग ३ बंधग ( अकर्मबंध ४ संकम
कर्मबंध )
बंधग
५ उदय ( कर्मोदय ) ६ उदीरणा ( अकर्मोदय )
७ उवजोग
८ चउट्ठाण
1)} वेदग
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
षटखंडागमकी प्रस्तावना ९ वंजण
१३ चरित्तमोहणीयस्स उवसामणा.. १० दसणमोहणीयस्स उवसामणा ।
१४ , ,, खवणा। ११ , , खवणा
समत्त
N १५ अद्धापरिमाणणिद्देस । १२ देसविरदी
इस प्राभूतके आगे पीछेका इतिहास संक्षेपमें धवलाकारने इसप्रकार दिया है'एसो अस्थो विउलगिरिमत्थयत्येण पर वक्खीकय-तिकालगोयरछण
णभडारएण गोदमथेरस्स कहिदो । पुणो सो अत्यो आइरियपरंपराए आगंतूग गुणहरभडारयं संपत्तो। पुणो तत्तो आइरियपरंपराए आगंतूग अज्जमंखु-नागहत्थीगं भडारयाणं मूलं पत्तो। पुगो तेहि दोहि यि कमेण जदिवसहभडारयस्स वक्खाणिदो । तेण वि x x सिस्साणुग्गहट्टं चुणिसुत्ते लिहि दो' ।
अर्थात् इस कसायपाहुडका मूल विषय वर्धमान स्वामीने विपुला चलपर गौतम गणधरको कहा। वही आचार्य-परंपरासे गुणधर भट्टारकको प्राप्त हुआ। उनसे आचार्य-परंपराद्वारा वही आर्थमंखु और नागहस्ती आचार्योंके पास आया, जिन्होंने क्रमसे यतिवृषभ भट्टारकको उसका व्याख्यान किया । पतिवृषभने फिर उसपर चर्णिसूत्र रचे ।
गुणधराचार्यकृत गाथारूप कसायपाहुड और यतिवृषभकृत चर्णिसूत्र वीरसेन और जिनसेनाचार्यकृत जयधवलामें प्रथित हैं जिसका परिमाण ६० हजार श्लोक है। इस टीकामें आर्यमंखु और नागहस्थिके अलग अलग व्याख्यानके तथा उच्चारणाचार्यकृत वृत्तिसूत्रके भी अनेक उल्लेख पाये जाते हैं । यतिवृषभके चूर्णिसूत्रोंकी संख्या छह हजार और वृत्तिसूत्रोंकी बारह हजार बताई जाती है।
नंदीसूत्रमें पूर्वोके प्रभेदोंमें पाहुडों और पाहुडिकाओंका भी निम्नप्रकार उल्लेख है, किन्तु उनका विशेष परिचय कुछ नहीं पाया जाता
सेणं अंगट्टयाए बारसमे अंगे एगे सुअखंधे चोद्दस पुवाई, संखेज्जा वत्थू, संखेजा चूलवत्थू, संखेजा पाहुडा, संखेज्जा पाहुडपाहुडा, संखेज्जाओ पाहुडिआओ, संखेज्जाओ पाहुडपाहडि आओ संखेज्जाई पप्पसहस्साइं पयग्गेणं संखेज्जा अक्खरा, अणंता गमा अणंता पज्जवा ' आदि
६. ग्रंथका विषय सत्प्ररूपणाके प्रथम भागमें आचार्य गुणस्थानों और मार्गणास्थानोंका विवरण कर चुके हैं। अब इस भागमें पूर्वोक्त विवरणके आश्रयसे धवलाकार वीरसेन स्वामी उन्हींका विशेष प्ररूपण करते हैं
संपहि संतसुत्तविवरणसमत्ताणतरं तेसिं परूवणं भणिस्सामो। (पृ. ४११)
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्रंथका विषय किन्तु इस विशेष प्ररूपणमें उन्होंने गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति आदि वीस प्ररूपणाओं द्वारा जीवोंकी परीक्षा की है। यह वीस प्ररूपणाओंका विभाग पूर्वोक्त सत्प्ररूपणाके सूत्रोंमें नहीं पाया जाता, और इसीलिये टीकाकारने एक शंका उठाकर यह बतला दिया है कि सूत्रोंमें स्पष्टतः उल्लिखित न होने पर भी इन पीस प्ररूपणाओंका सूत्रकारकृत गुणस्थान और मार्गणास्थानोंके भेदोमें अन्तर्भाव हो जाता है, अतः ये .रूपणाएं सूत्रोक्त नहीं हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता (पृ. ४१४)।
'सूत्रेण सूचितार्थानां स्पष्टीकरणा) विंशतिविधानेन प्ररूपणोच्यते ' | 'न पौनरुक्तयमपि कथंचित्तेभ्यो भेदात् ' । (पृ. ४१५)
इससे यह तो स्पष्ट है कि यह वीस प्ररूपणारूप विभाग पुष्पदन्ताचार्यकृत नहीं है । वह स्वयं धवलाकारकृत भी नहीं है, क्योंकि उन्होंने उन प्ररूपणाओंका नामनिर्देश करनेवाली एक प्राचीन गाथाको · उक्तं च ' रूपसे उद्धृत किया है । इस विभागका प्राचीनतम निरूपण हमें यतिवृषभाचार्य कृत तिलोयपण्णत्तिों मिलता है । यथा
गुण-जीवा पज्जत्ती पाणा सण्णा य मग्गगा कमसो । उवजोगा कहिदव्या णारइयाणं जहाजोगं ॥२७३॥
गुग-जीवा पज्जती पाणा सण्णा य मग्गणा कमसो। उवजोगा कहिदव्या एदाण कुमारदेवाणं ॥१८३॥
आदि. किन्तु यह अभी निश्चयतः नहीं कहा जा सकता कि इस वीस प्ररूपणारूप विभागका आदिकर्ता कौन है ? यह विषय अन्वेषणीय है।
गुणस्थानों व मार्गणास्थानके अनेक भेद प्रभेदोंका विशिष्ट जीवोंकी अपेक्षासे सामान्य, पर्याप्त व अपर्याप्त रूप प्ररूपण करनेसे आलापोंकी संख्या कई सौ पर पहुंच जाती है। इस आलाप विभागका परिचय विषय-सूचीको देखनेसे मिल सकता है । अतः उस सम्बंधमें यहां विशेष कथनकी आवश्यकता नहीं है। प्रथम भागकी भूमिकामें गुणस्थानों और मार्गणाओंका सामान्य परिचय देकर यह सूचित किया गया था कि अगले खंडमें विषयका विशेष विवेचन किया जायगा । किन्तु इस भागका कलेवर अपेक्षासे अधिक बढ़ गया है और प्रस्तावना भी अन्य उपयोगी विषयोंकी चर्चासे यथेष्ट विस्तृत हो चुकी है। अतः हम उक्त विषयके विशेष विवेचन करनेकी आकांक्षाका अभी फिर भी नियंत्रण करते हैं।
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
पट्खंडागमकी प्रस्तावना
७. रचना और भाषाशैली प्रस्तुत ग्रंथविभागमें सूत्र नहीं हैं। सत्प्ररूपणाका जो विषय ओघ और आदेश अर्थात् गुणस्थान और मार्गणास्थानोंद्वारा प्रथम १७७ सूत्रोंमें प्रतिपादित हो चुका है उसीका यहां वीस प्ररूपणाओं द्वारा निर्देश किया गया है।
इस वीस प्रकारको प्ररूपणाके आदिमें टीकाकारने 'ओघेण अत्थि मिच्छाइट्ठी० सिद्धा चेदि' इस प्रकारसे सूत्र दिया है और उसे ओघसूत्र कहा है। हमारी अ. प्रतिमें इसपर ७४, आ. में १७४, तथा स. में १७२ की संख्या पायी जाती है जो उन प्रतियों की पूर्व सूत्रगणनाके क्रमसे है। पर स्पष्टतः वह सूत्र पृथक् नहीं है, धवलाकारने पूर्वोक्त ९ से २३ तकके ओघ सूत्रोंका प्रकृत विषयकी वहांसे उत्पत्ति बतलाने के लिये समष्टिरूपसे उल्लेख मात्र किया है।
इस भागमें गाथाएं भी बहुत थोड़ी पायी जाती है, जिसका कारण यहां प्रतिपादित विषयकी विशेषता है। अवतरण गाथाओंकी संख्या यहां केवल १३ है जिनमें से एक ( नं २२० ) कुंदकुंदके बोधपाहुडमें और दो (२२३, २२४ ) प्राकृत पंचसंग्रहमें * भी पायी जाती हैं । गाथा नं.(२२८) ' उत्तं च पिंडियाए' ऐसा कहकर उद्धृत की गई है। हमने इस गाथाकी खोज कराई, पर वीरसेवामंदिरके पं. परमानन्दजी शास्त्रीने हमें सूचित किया कि यह गाथा न तो प्राकृत पंचसंग्रह में है न तिलोयपण्णत्तिों और न श्वेताम्बरीय कर्मप्रकृति, पंचसंग्रह, जीवसमास विशेषावश्यक आदि ग्रन्थों में है । जान पड़ता है 'पिंडिका' नामका कोई प्राचीन ग्रंथ रहा है जो अबतक अज्ञात है। इन तीन गाथाओंको छोड़कर शेष सब कहीं जैसी की तैसी और कहीं किंचित् पाठभेद को लिये हुए गोम्मटसार जीवकांडमें भी संगृहीत हैं।
इस विभागमें संस्कृत केवल प्रारंभमें थोड़ी सी पायी जाती है। शेष समस्त रचना प्राकृतमें ही है । पर यहां विषयकी विशेषता ऐसी है कि उसमें प्रतिपादन और विवेचनकी गुंजाइश कम है। अतएव जैसी साहित्यिक वाक्यशैली प्रथम विभागमें पायी जाती है वैसी यहां बहुत कम है। जहां कहीं शंका-समाधानका प्रसंग आ गया है, वहीं साहित्यिक शैली पायी जाती है। ऐसे शंका समाधान इस विभागमें ३३ पाये जाते हैं। शेष भागमें तो गुणस्थान और मार्गणास्थानकी अपेक्षा जीवविशेषोंमें गुणस्थान आदि वीस प्ररूपणाओंकी संख्या मात्र गिनायी गयी है, जिसमें वाक्य रचनाकी व्याकरणात्मक शुद्धिपर ध्यान नहीं दिया गया। पद कहीं सविभक्तिक हैं और कहीं विभक्ति-रहित अपनेप्राति पदिक रूपमें । समास-बंधन भी शिथिलसा पाया जाता है, उदाहरणार्थ ' आहारभयमेहुणसण्णा चेदि ' (पृ. ४१३ )। चेदि से पूर्वके पद समास
___* यह ग्रंथ अभी अभी 'वीरसेवा मन्दिर सरसावा ' द्वारा प्रकाशमें लाया जा रहा है। उसमें उक्त गाथाओंके होनेकी सूचना हमें वहाँके पं. परमानन्दजी शास्त्री द्वारा मिली ।
.........
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
रचना और भाषाशैली युक्त समझे जाय, या अलग अलग ? यदि अलग अलग लें तो वे सब विभक्तिहीन रह जाते हैं, यदि समासरूप लें तो 'च' की कोई सार्थकता नहीं रह जाती । संशोधनमें यह प्रयत्न किया गया है कि यथाशक्ति प्रतियोंके पाठको सुरक्षित रखते हुए जितने कम सुधारसे काम चल सके उतना कम सुधार करना। किंतु अविभक्तिक पदोंको जानबूझकर विना यथेष्ट कारणके सविभक्तिक बनानेका प्रयत्न नहीं किया गया । इस कारण प्ररूपणाओंमें बहुतायतसे विभक्तिहीन पद पाये जायगे।
इन प्ररूपणाओंमें आलापोंके नामनिर्देश स्वभावतः पुनः पुनः आये हैं। प्रतियोंमें इन्हें प्रायः संक्षेपतः आदिके अक्षर देकर बिन्दु रखकर ही सूचित किया है, जैसे 'गुणट्ठाण' के स्थानपर गुण, 'पज्जत्तीओ' के स्थानपर प० आदि । यदि सब प्रतियोंमें ये संक्षिप्त रूप एकसे होते, तो समझा जाता कि वे मूलादर्श प्रतिके अनुसार हैं, अतः मुद्रितरूपमें भी उन्हें वैसे ही रखना कदाचित् उपयुक्त होता। किन्तु किसी प्रतिमें एक अक्षर लिखकर, किसीमें दो अक्षर लिखकर आदि भिन्नरूपसे संक्षेप बनाये गये हैं और किसी प्रतिमें वे पूरे रूपमें भी लिखे हैं। इसप्रकार बिन्दुसहित संक्षिप्तरूप कारंजाकी प्रतिमें सबसे अधिक और आराकी प्रतिमें सबसे कम हैं। इस अव्यवस्थाको देखते हुए आदर्श प्रतिमें बिन्दु हैं या नहीं, इस विषयमें शंका हो जानेके कारण हमने इन संक्षिप्त रूपोंका उपयोग न करके पूरे शब्द लिखना ही उचित समझा।।
प्रत्येक आलापमें बीस बीस प्ररूपणाएं हैं । पर कहीं कहीं प्रतियोंमें एक शब्दसे लगाकर पूरे आलाप तक भी छूटे हुए पाये जाते हैं । इनकी पूर्ति एक दूसरी प्रतियोंसे हो गई है, किन्तु कहीं कहीं उपलब्ध सभी प्रतियोंमें पाठ छूटे हुए हैं जैसा कि पाठ-टिप्पण व प्रति-मिलान
और छूटे हुए पाठोंकी तालिकासे ज्ञात हो सकेगा। इन पाठोंकी पूर्ति विषयको देख समझकर कर्ताकी शैलीमें ही उन्हींके अन्यत्र आये हुए शब्दोंद्वारा करदी गई है। जहां ऐसे जोड़े हुए पाठ एक दो शब्दोंसे अधिक बड़े है वहां वे कोष्ठकके भीतर रख दिये गये हैं।
मूलमें जहां कोई विवाद नहीं है वहां प्ररूपणाओंकी प्रत्येक स्थानमें संख्या मात्र दी गई है । अनुवादमें सर्वत्र उन प्ररूपणाओंकी स्पष्ट सूचना कर देनेका प्रयत्न किया गया है और मूलका सावधानीसे अनुसरण करते हुए भी वाक्यरचना यथाशक्ति मुहावरेके अनुसार और सरल रखी गई है।
___मूलमें जो आलाप आये है उनको और भी स्पष्ट करने तथा दृष्टिपातमात्रसे ज्ञेय बनानेके लिये प्रत्येक आलापका नकशा भी बनाकर उसी पृष्ठपर नीचे दे दिया गया है। इनमें संख्याएं अंकित करनेमें सावधानी तो पूरी रखी गई है, फिर भी संभव है दृष्टिदोषसे दो चार जगह एकाध अंक अशुद्ध छप गया हो । पर मूल और अनुवाद साम्हने होनेसे उनके कारण पाठकोंको कोई भ्रम न हो सकेगा । नकशोंका मिलान गोम्मटसारके प्रस्तुत प्रकरणसे भी कर लिया गया है।
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठ नं.
४४८ ४४९ ४५०
४५२
४५४
सत्परूपणा-आलापसूची विषय नकशा नं. पृष्ठ नं. विषय नकशा नं. ओघ आलाप
आदेश आलाप सामान्य
४१५ १ गतिमार्गणा पर्याप्त
४२०
१ नरकगति अपर्याप्त
सामान्य १ मिथ्यादृष्टि
पर्याप्त सामान्य
४२३
अपर्याप्त पर्याप्त
४२४
मिथ्यादृष्टि अपर्याप्त
४२५
सामान्य -२ सासादनसम्यग्दृष्टि
पर्याप्त सामान्य
४२६
अपर्याप्त पर्याप्त
४२६
सासादनसम्यग्दृष्टि ३४ अपर्याप्त
४२७
सम्यग्मिथ्यादृष्टि ३५ ३ सम्यग्मिथ्यादृष्टि
४२८
असंयतसम्यग्दृष्टि ४ असंयतसम्यग्दृष्टि
सामान्य सामान्य
पर्याप्त पर्याप्त
४२९
अपर्याप्त अपर्याप्त
प्रथमपृथिवी ५ संयतासयत
सामान्य ३९ ६ प्रमत्तसंयत्त
४३२
पर्याप्त ७ अप्रमत्तसंयत
४३३
अपर्याप्त ८ अपूर्वकरण
४३४ मिथ्यादृष्टि ९ अनिवृत्तिकरण
सामान्य प्रथम भाग
पर्याप्त ४३ द्वितीय ,,
४३६
अपर्याप्त ४४
४३६ सासादनसम्यग्दृष्टि ४५ चतुर्थ ,,
४३७ सम्यग्मिथ्यादृष्टि ४
४३८ असंयतसम्यग्दृष्टि१० सूक्ष्मसाम्पराय
४३८
सामान्य ११ उपशान्तकषाय
पर्याप्त १२ क्षीणकषाय
४४०
अपर्याप्त १३ सयोगिकेवली
द्वितीयपृथिवी १४ अयोगिकेवली
सामान्य १५ सिद्ध ... ..४४७
पर्याप्त
३८
FFFFFFFFEEEEEEEEEEEEEET
४५६ ४५७ ४५८
४३५
४५९
तृतीय,
४६१
पंचम ,
४६२
२३
४३९
४६४
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषय
अपर्याप्त
मिथ्यादृष्टि
सामान्य
५३
पर्याप्त
५४
अपर्याप्त ५५ सासादनसम्यग्दृष्टि ५६
५७
सम्यग्मिथ्यादृष्टि असंयत सम्यग्दृष्टि तृतीयादि पृथिवियोंके
५८
आलाप
२ तिर्यंचगति
सामान्य
पर्याप्त
अपर्याप्त
मिथ्यादृष्टि
सामान्य
पर्याप्त
अपर्याप्त
सासादनसम्यग्दृष्टि
सामान्य
पर्याप्त अपर्याप्त
नकशा नं.
सम्यग्मिथ्यादृष्टि असंयतसम्यग्दृष्टि
सामान्य
पर्याप्त
अपर्याप्त
संयतासंयत पंचेन्द्रियतिर्यच
सामान्य
पर्याप्त अपर्याप्त मिध्यादृष्टि
सामान्य
पर्याप्त अपर्याप्त सासादनसम्यग्दृष्टि
सामान्य
५२
៩៩៩៩៩:
५९
६१
६२
६४
६५
६६
६७
६९
999 225 5 25 5
७१
७२
७३
७५
७६
७७
७९
आलापसूची
पृष्ठ नं.
""
४६६
४६७
33
४६८
४६९
४६९
४७०
४७१
४७२
४७३
४७४
४७५
15
४७६
४७७
४७८
૪૭૮
४७९
४८०
४८०
४८१
४८२
४८३
४८४
४८५
૪૮૬
४८७
विषय
पर्याप्त अपर्याप्त
सम्यग्मिथ्यादृष्टि असंयतसम्यग्दृष्टि
सामान्य
पर्याप्त अपर्याप्त
सामान्य
पर्याप्त
अपर्याप्त
मिथ्यादृष्टि
संयतासंयत
पंचेन्द्रियतिर्यंचपर्याप्त पंचेन्द्रियतिर्यचयोनिमती
सामान्य
पर्याप्त
अपर्याप्त सासादनसम्यग्दृष्टि
सामान्य
पर्याप्त अपर्याप्त
नकशा नं.
सामान्य
पर्याप्त
अपर्याप्त
मिथ्यादृष्टि
सामान्य
पर्याप्त
अपर्याप्त
सासादन सम्यग्दृष्टि
सामान्य
पर्याप्त अपर्याप्त
८०
८१
८२
८३
८४
८५.
८६
सम्यग्मिथ्यादृष्टि
असंयतसम्यग्दृष्टि संयतासंयत पंचेन्द्रियतिर्यंचलब्ध्यपर्याप्तक
३ मनुष्यगति
८७
૮૮
८९
९०
९१
९२
९३
९४
९५
९६
९७
९८
९९
१००
१०१
१०२
१०३
१०४
१०५
२०६
१०७
१०८
७३
܀
पृष्ठ नं.
39
४८८
४८९
४८९
४९०
४९१
४९१
४९२
४९२
४९३
४९४
४९४
४९५
४९६
४९७
४९७
४९८
४९८
४९९
५००
५००
५०१
५०२
५०४
५०५
५०५
५०६
५०७
"
५०८
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्प्ररूपणा
विषय
नकशा नं.
पृष्ठ नं. ।
विषय
नशा नं.
पृष्ट नं.
११०
५३२ ५३६
५१० ५१०
११२
११३
५३७
५१२
५१२
५३८
५१४
५३९
५४०
५४२
सम्यग्मिथ्यादृष्टि १०९ असंयतसम्यग्दृष्टि
सामान्य पर्याप्त
अपर्याप्त संयतासंयत प्रमत्तसंयतादि मनुष्यपर्याप्त मनुष्यनी
सामान्य ११४ पर्याप्त
अपर्याप्त मिथ्यादृष्टि
सामान्य पर्याप्त
अपर्याप्त सासादनसम्यग्दृष्टि
सामान्य १२० पर्याप्त १२१
अपर्याप्त १२२ सम्यग्मिथ्यादृष्टि १२३ असंयतसम्यग्दृष्टि १२४ संयतासंयत १२५ प्रमत्तसंयत १२६ अप्रमत्तसंयत १२७ अपूर्वकरण १२८ अनिवृत्ति०प्रथमभाग १२९ ,, द्वितीय भाग १३० " तृतीय , १३१ ,, चतुर्थ , १३२ ,, पंचम ,, १३३ सूक्ष्मसाम्पराय १३४ उपशान्तकषाय क्षीणकषाय सयोगिकेवली १३७ अयोगिकेवली १३८ लन्ध्यपर्याप्तकमनुष्य१३९
५१८ ५१९
४ देवगति
सामान्य १४० पर्याप्त १४१
अपर्याप्त १४२ मिथ्यादृष्टि
सामान्य १४३ पर्याप्त १४४
अपर्याप्त १४५ सासादनसम्यग्दृष्टि
सामान्य १४६ पयाप्त १४७
अपर्याप्त १४८ सम्यग्मिथ्यादृष्टि १४९ असंयतसम्यग्दृष्टि
सामान्य पर्याप्त
अपर्याप्त १५२ भवनत्रिक
सामान्य पर्याप्त
अपर्याप्त मिथ्यादृष्टि
सामान्य पर्याप्त
अपर्याप्त १५८ सासादनसम्यग्दृष्टि
सामान्य १५९ पर्याप्त १६०
अपर्याप्त १६१ सम्यग्मिथ्यादृष्टि १६२ असंयतसम्यग्दृष्टि १६३ भवनत्रिक पुरुषवेदी । भवनत्रिक स्त्रीवेदी सौधर्म-ऐशान
सामान्य पर्याप्त अपर्याप्त १६६
५४४
५२०
५२०
५२१ ५२२ ५२२ ५२३
५४७ ५४८
५२४
५२६
५४९
५२९ ५३० ५३० ।
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषय
मिध्यादृष्टि
सामान्य
पर्याप्त
अपर्याप्त सासादन सम्यग्दृष्टि
सामान्य पर्याप्त
अपर्याप्त सम्यग्मिथ्यादृष्टि असंयतसम्यग्दृष्टि
सामान्य
पर्याप्त अपर्याप्त
नक्शा नं.
सामान्य १७४
पर्याप्त अपर्याप्त सौधर्म ऐशान पुरुषवेदी सौधर्म पेशान स्त्रीवेदी सानत्कुमार माहेन्द्र
सामान्य
पर्याप्त अपर्याप्त
५ सिद्धगति
२ इन्द्रियमार्गणा
१ एकेन्द्रिय
बादर एकेन्द्रिय
१६७
१६८
१६९
१७०
१७१
१७२
१७३
मिथ्यादृष्ट्यादि ब्रह्म से नौ ग्रैवेयक
नौ अनुदिश पांच अनुत्तर
१८०
१८१
१८२
35
१७५
१७६
१७७
१७८
१७९
सामान्य
१८३
पर्याप्त
१८४
अपर्याप्त १८५
सामान्य
पर्याप्त अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त
39
१८६
१८७
१८८
लब्ध्यपर्याप्त
आलापसूची
पृष्ठ नं.
५५३
५५४
५५५
५५६
35
५५७
५५७
५५८
५५९
५६०
५६०
५६१
५६२
33
५६३
५६३
५६४
५६५
५६८
५६८
५६९
५७०
५७१
५७१
५७२
"
५७३
५७३
विषय
सूक्ष्म एकेन्द्रिय
सामान्य
पर्याप्त
अपर्याप्त
सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त
""
33
२ द्वीन्द्रिय
सामान्य
पर्याप्त अपर्याप्त
द्वीन्द्रिय पर्याप्त
लब्ध्यपर्याप्त
" लब्ध्यपर्याप्त
३ त्रीन्द्रिय
सामान्य
पर्याप्त अपर्याप्त
त्रीन्द्रिय पर्याप्त
लब्ध्यपर्याप्त
95
४ चतुरिन्द्रिय
सामान्य
पर्याप्त अपर्याप्त
चतुरिन्द्रियपर्याप्त
लब्ध्यपर्याप्त
"
५ पंचेन्द्रिय
नकशा नं.
सामान्य
पर्याप्त
अपर्याप्त
मिथ्यादृष्टि
सामान्य
पर्याप्त
अपर्याप्त
सासादनादि असंज्ञीपंचेन्द्रिय
१८९
१९०
१९१
१९२
१९३
१९४
१९५
१९६
१९७
१९८
१९९
२००
२०१
२०२
२०३
२०४
२०५
२०६
सामान्य
२०७
२०८
पर्याप्त अपर्याप्त पंचेन्द्रियलब्ध्यपर्याप्त २१०
२०९
७५
पृष्ठ नं.
५७३
५७४
35
५७५
""
५७५
५७६
५७७
५७७
""
५७७
५७८
५७९
५७९
33
५७९
५८०
५८१
५८२
"
५८२
५८३
५८४
५८४
५८५
५८६
५८७
५८७
55
५८८
५८९
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्प्ररूपणा
पृष्ठ नं.
विषय
नकशा नं.
पृष्ठ नं.
६१८ ६१९ ६२०
६२०
.
"
६०१ ६०२ ६०४
६०४
६२२
६०५
६२३
६०६
६२५
६०७ ६०८
६२६
विषय नकशा नं. संशपिंचेन्द्रिय ,, २११ असंहीपंचेन्द्रिय,, २१२
६ अनिन्द्रिय ३ कायमार्गणा
सामान्य २१३ पर्याप्त २१४
अपर्याप्त २१५ मिथ्यादृष्टयादि १ पृथिवीकायिक
सामान्य पर्याप्त २१७
अपर्याप्त २१८ बादरपृथिवीकायिक
सामान्य पर्याप्त २२०
अपर्याप्त २२१ बादरपृथिवीकायिकपर्याप्त
, लब्ध्यपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिक २ अपकायिक ३ अग्निकायिक ४ वायुकायिक ५ वनस्पतिकायिक
सामान्य २२२ पर्याप्त २२३
अपर्याप्त २२४ प्रत्येकवनस्पतिकायिक
सामान्य २२५ पर्याप्त
अपर्याप्त २२७ प्रत्येकवनस्पंतिकायिक पर्याप्त
, लब्ध्यपर्याप्त बादरनिगोदप्रतिष्ठित साधारणवनस्पतिकायिक
सामान्य पर्याप्त २२९ अपर्याप्त २३०
६२७ ६२७ ६२७
बादरसाधारणवनस्पति
सामान्य २३१ पर्याप्त २३२
अपर्याप्त २३३ बादरसाधारणपर्याप्त
लब्ध्यपर्याप्त सूक्ष्मसाधारण ६ त्रसकायिक
सामान्य २३४ पर्याप्त
अपर्याप्त २३६ मिथ्याष्टि
सामान्य पर्याप्त २३८
अपर्याप्त २३९ सासादनादि ७ अकायिक बसकायिक पर्याप्त
,, लब्धपर्याप्त २४१ ४ योगमार्गणा १ मनोयोगी २४२ मिथ्याटि २४३ सासादन० २४४ सम्यग्मिथ्यादृष्टि २४५ असंयतसम्यग्दृष्टि२४६ संयतासंयत २४७ प्रमत्तसंयत २४८ अप्रमत्तसंयतादि सत्यमनोयोगी असत्यमृषामनोयोगी
मृषामनोयोगी २४९ मिथ्यादृष्टयादि २ वचनयोगी २५० मिथ्यादृष्टि २५१ सासादनादि सत्यवचनयोगी मृषावचनयोगी
६२८
६११
६१३
६२९ ६३० ६३० ६३१ ६३२ ६३२ ६३३
६३३
६३४ ६३५ ६३६
६३६
६१८
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
आलापसूची
विषय
नकशानं.
पृष्ट नं. |
६६३
६३७
६६४ ६६५ ६६५ ६६६ ६६७
६४०
६४१
६६८ ६७०
६४२
६४३
६७१ ६७२ ६७२
६४४
६४४
विषय नकशा नं. सम्यग्मिथ्यादृष्टि २८२ असंयतसम्यग्दृष्टि २८३ वैक्रियिकमिश्रकाययोगी २८४ मिथ्यादृष्टि सासादनसम्यग्दृष्टि २८६ असंयतसम्यग्दृष्टि २८७ आहारककाययोगी २८८ आहारकमिश्रकाययोगी २८९ कार्मणकाययोगी २९० मिथ्यादृष्टि सासादनसम्यग्दृष्टि २९२ असंयतसम्यग्दृष्टि २९३ सयोगिकेवली ४ अयोगी ५ वेदमार्गणा १ स्त्रीवेदी
सामान्य पर्याप्त २९६
अपर्याप्त मिथ्याष्टि
सामान्य पर्याप्त
अपर्याप्त ३०० सासादनसम्यग्दृष्टि
सामान्य पर्याप्त ३०२
अपर्याप्त ३०३ सम्यग्मिथ्यादृष्टि ३०४ असंयतसम्यग्दृष्टि ३०५ संयतासंयत ३०६ प्रमत्तसंयत ३०७ अप्रमत्तसंयत ३०८ अपूर्वकरण
३०९ अनिवृत्तिकरण २ पुरुषवेदी
सामान्य पर्याप्त ३१२
सत्यमृषावचनयोगी असत्यमृषावचनयोगो ३ काययोगी
सामान्य पयाप्त २५३
अपर्याप्त २५४ मिथ्यादृष्टि
सामान्य २५५ पर्याप्त २५६
अपर्याप्त २५७ सासादनसम्यग्दृष्टि
सामान्य २५८ पर्याप्त २५९
अपर्याप्त २६० सम्यग्मिथ्यादृष्टि २६१ असंयतसम्यग्दृष्टि
सामान्य २६२ पर्याप्त
२६३ अपर्याप्त २६४ संयतासंयत २६५ प्रमत्तसंयत अप्रमत्तसंयत
२६७ अपूर्वकरणादि सयोगिकेवली २६८ औदारिककाययोगी २६९ मिथ्यादृष्टि २७० सासादनसम्यग्दृष्टि २७१ सम्यग्मिथ्यादृष्टि २७२ असंयतसम्यग्दृष्टि २७३ संयतासंयतादि औदारिकमिश्रकाययोगी २७४ मिथ्यादृष्टि २७५ सासादनसम्यग्दृष्टि २७६ असंयतसम्यग्दृष्टि २७७ सयोगिकेवली २७८ वैक्रियिककाययोगी २७९ मिथ्यादृष्टि
२८० सासादनसम्यग्दृष्टि २८१
६७४
"
६४७ ६४८ ६४८ ६४८ ६४९
६७५ ६७६
६५१
६७८
६५२
"
६५३
६७९ ६७९ ६८० ६८१ ૨૮૨ ६८२ ६८३
६५६
६८४ ६८४
६६२
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्प्ररूपणा
पृष्ठ नं.
विषय
नकशा नं.
पृष्ठ नं.
७०४
६८६
७०५ ७०६
६८७
६८८
३४२
७०७
६८८ ६८९
६९०
७०८ ७०९ ७०९
६९०
७११
६९२
७११ ७१२
३२३
६९३
विषय नकशा नं.
__ अपर्याप्त ३१३ मिथ्यादृष्टि
सामान्य ३१४ पर्याप्त
अपर्याप्त सासादनादि ३ नपुंसकवेदी
सामान्य ३१७ पर्याप्त ३१८
अपर्याप्त मिथ्यादृष्टि
सामान्य ३२०. पयाप्त ३२१
अपर्याप्त ३२२ सासादनसम्यग्दृष्टि
सामान्य पर्याप्त ३२४
अपर्याप्त ३२५ सम्यग्मिथ्यादृष्टि ३२६ असंयतसम्यग्दृष्टि
सामान्य ३२७ पर्याप्त ३२८
अपर्याप्त संयतासंयत ३३० प्रमत्तसंयतादि ४ अपगतवेदी ३३१ अनिवृत्तिकरण द्वितीय भागादि ६ कषायमार्गणा क्रोधकषायी
सामान्य ३३२ पर्याप्त ३३३
अपर्याप्त ३३४ मिथ्यादृष्टि
सामान्य पर्याप्त अपर्याप्त ३३७
७१२ ७१३
सासादनसम्यग्दृष्टि
सामान्य ३३८ पर्याप्त ३३९
अपर्याप्त ३४० सम्यग्मिथ्यादृष्टि ३४१ असंयतसम्यग्दृष्टि
सामान्य पर्याप्त
अपर्याप्त ३४४ संयतासंयत ३४५ प्रमत्तसंयत ३४६ अप्रमत्तसंयत अपूर्वकरण
३४८ अनिवृत्तिकरण
प्र० भा० ३४९ , द्वि० भा० ३५० मान, माया और
लोभकषायी अकषायी ३५१ उपशान्तकषायादि ७ ज्ञानमार्गणा मति-श्रुत-अज्ञानी सामान्य
३५३ अपर्याप्त ३५४ मिथ्यादृष्टि
सामान्य ३५५ पर्याप्त ३५६
अपर्याप्त ३५७ सासादनसम्यग्दृष्टि
सामान्य पर्याप्त ३५९
अपर्याप्त ३६० विभंगज्ञानी ३६१
मिथ्यादृष्टि ३६२ सासादनसम्यग्दृष्टि ३६३ मतिश्रुतक्षानी
७१४
३२९
पर्याप्त
७१४ ७१५ ७१६
७१६ ७१७ ७१८
७१९
७०० ૭૦
७२०
७२० ७२१
३३६
૩૦૨ ७०३ ७०४
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
आलापसूची
विषय
नकशा नं.
पृष्ठ नं.
विषय
नकशा नं.
पृष्ठ नं.
७२२ ७२३ ७२४
७४२ ७४३
७४३
७२६ ७२६
७२७
७४७ ७४७
७४८
सामान्य ३६४ पर्याप्त ३६५
अपर्याप्त ३६६ असंयतसम्यग्दृष्टि
सामान्य ३६७ पर्याप्त ३६८
अपर्याप्त संयतासंयतादि अवधिज्ञानी मनःपर्ययज्ञानी ३७०
प्रमत्तसंयतादि केवलज्ञानी ३७१
सयोगी आदि ८ संयममार्गणा ३७२
प्रमत्तसंयत ३७३ अप्रमत्तसंयत ३७४
अपूर्वकरणादि सामायिकशुद्धिसंयत ३७५
प्रमत्तसंयतादि छेदोपस्थापनासंयत परिहारशुद्धिसंयत ३७६
प्रमत्तसंयतादि सूक्ष्मसाम्परायसंयत यथाख्यातसंयत ३७७
उपशान्तकषायादि असंयत
सामान्य ३७८ पर्याप्त ३७९
अपर्याप्त ३८० मिथ्यादृष्ट्यादि ९ दर्शनमार्गणा १ चक्षुदर्शनी
सामान्य पर्याप्त
अपर्याप्त ३८३ मिथ्यादृष्टि
सामान्य पर्याप्त
७३० ७३१ ७३२ ७३२ ७३३ ७३३
७४२ ७५० ७५० ७५०
अपर्याप्त ३८६ सासादनसम्यग्दृष्ट्यादि २ अचक्षुदर्शनी सामान्य
३८७ पर्याप्त
अपर्याप्त मिथ्यादृष्टि
सामान्य ३९० पर्याप्त
अपर्याप्त ३९२ सासादनसम्यग्दृष्ट्यादि ३ अवधिदर्शनी
सामान्य ३९३ पर्याप्त ३९४
अपर्याप्त ३९५ असंयतसम्यग्दृष्ट्यादि
४ केवलदर्शनी १० लेश्यामार्गणा १ कृष्णलेश्या
सामान्य पर्याप्त
अपर्याप्त ३९८ मिथ्यादृष्टि
सामान्य पर्याप्त ४००
अपर्याप्त सासादनसम्यग्दृष्टि
सामान्य ४०२ पर्याप्त ४०३
अपर्याप्त ४०४ सम्यग्मिथ्यादृष्टि ४०५ असंयतसम्यग्दृष्टि
सामान्य ४०६ पर्याप्त
अपर्याप्त ४०८ २ नीललेश्या ३ कापोतलेश्या सामान्य ४०९
७५०
७३३ ७३४ ७३५
७३५
७३६
७३७ ७३८
७५६
७५७
३८२
७३८ ७३९ ७४०
७५९
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्प्ररूपणा
. . विषय
नकशा नं.
पृष्ठ नं.
विषय
नकशा नं.
पृष्ठ नं.
७८१
७६० ७६१
७६२ ७६२ ७६३
७८१ ७८२ ७८३
७८३
७६४
७८५ ७८५
७६५
७६६
७६६ ७६७ ७६८
७८७ ७८८ ७८८ ७८९
७६८ ७६९ ७७०
७९०
पर्याप्त ४१०
अपर्याप्त ४११ मिथ्यादृष्टि
सामान्य ४१२ पर्याप्त ४१३
अपर्याप्त ४१४ सासादनसम्यग्दृष्टि
सामान्य ४१५ पर्याप्त ४१६
अपयाप्त ४१७ सम्यग्मिथ्यादृष्टि ४१८ असंयतसम्यग्दृष्टि
सामान्य ४१९ पर्याप्त ४२०
अपर्याप्त ४२१ ४ तेजोलेश्या सामान्य ४२२ पयाप्त ४२३
अपर्याप्त मिथ्यादृष्टि
सामान्य ४२५ पर्याप्त ४२६
अपर्याप्त ४२७ सासादनसम्यग्दृष्टि
सामान्य ४२८ पर्याप्त ४२९
अपर्याप्त ४३० सम्यग्मिथ्याहाष्ट ४३१ असंयतसम्यग्दृष्टि
सामान्य पर्याप्त
अपर्याप्त ४३४ संयतासंयत ४३५ प्रमत्तसंयत अप्रमत्तसयंत
४३७ ५ पद्मलेश्या
सामान्य ४३८ पर्याप्त
अपर्याप्त ४४० मिथ्यादृष्टि
सामान्य ४४१ पर्याप्त ४४२
अपर्याप्त सासादनसम्यग्दृष्टि
सामान्य ४४४ पर्याप्त ४४५
अपर्याप्त ४४६ सम्यग्मिथ्यादृष्टि . ४४७ असंयतसम्यग्दृष्टि
सामान्य ४४८ पर्याप्त ४४९
अपर्याप्त ४५० संयतासंयत प्रमत्तसंयत
४५२ अप्रमत्तसंयत ४५३ ६ शुक्ललेश्या
सामान्य ४५४ पर्याप्त
अपर्याप्त मिथ्यादृष्टि
सामान्य ४५७ पर्याप्त ४५८
अपर्याप्त ४५९ सासादनसम्यग्दृष्टि
सामान्य ४६० पर्याप्त
४६१ अपर्याप्त ४६२ सम्यग्मिथ्यादृष्टि ४६३ असंयतसम्यग्दृष्टि सामान्य
४६४ पर्याप्त ४६५
अपर्याप्त ४६६ संयतासंयत
४६७ प्रमत्तसंयत अप्रमत्तसंयत ४६९ अपूर्वकरणादि
७७१
७७२
७९२ ७९३
७७३
७७४ ७७५
७९४ ७९५ ७९६
७७६
७७७ ७७७
७९७ ७९८
७७८
७७९
७९९
८००
७७९ ७८०
८०१
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
आलापसूची
विषय
नकशा नं.
पृष्ठ नं.
पृष्ठ नं.
८०१
८१९
८२०
८०१
८२१
८२२
८०३ ८०३
८२३
८२५
८०३
८०५ ८०६
८२५ ८२६ ८२७
८०८
विषय नकशा नं.
अपयाप्त ४९४ असंयतसम्यग्दृष्टि
सामान्य ४९५ पर्याप्त ४९६
अपर्याप्त ४९७ संयतासंयत ४९८ प्रमत्तसंयत ४९९ अप्रमत्तसंयत अपूर्वकरणादि मिथ्यात्वादि १३ संज्ञिमार्गणा १ संक्षी
सामान्य पर्याप्त
५०२ अपर्याप्त ५०३ मिथ्यादृष्टि सामान्य
५०४ पर्याप्त ५०५
अपर्याप्त ५०६ सासादनसम्यग्दृष्टि
सामान्य ५०७ पर्याप्त ५०८
अपर्याप्त ५०९ सम्यग्मिथ्यादृष्टि ५१० असंयतसम्यग्दृष्टि
सामान्य पर्याप्त
अपर्याप्त संयतासंयतादि २ असंही
सामान्य पर्याप्त
अपर्याप्त १४ आहारमार्गणा
सामान्य पर्याप्त अपर्याप्त
८२७ ८२८
७ अलेश्य ११ भव्यमार्गणा भव्यसिद्धिक अभव्यसिद्धिक
सामान्य पर्याप्त
अपर्याप्त ४७२ भव्याभव्य-विमुक्त १२ सम्यक्त्वमार्गणा
सामान्य ४७३ पर्याप्त ४७४
अपर्याप्त ४७५ असंयतसम्यग्दृष्ट्यादि १ क्षायिकसम्यग्दृष्टि
सामान्य ४७६ पर्याप्त ४७७
अपर्याप्त ४७८ असंयतसम्यग्दृष्टि
सामान्य ४७९ पर्याप्त ४८०
अपर्याप्त ४८१ संयतासंयत ४८२ प्रमत्तसंयतादि २ वेदकसम्यग्दृष्टि
सामान्य ४८३ पर्याप्त ४८४
अपर्याप्त ४८५ असंयतसम्यग्दृष्टि
सामान्य ४८६ पर्याप्त
अपर्याप्त ४८८ संयतासंयत ४८९ प्रमत्तसंयत ४९० अप्रमत्तसंयत ४९१ ३ उपशमसम्यग्दृष्टि
सामान्य ४९२ पर्याप्त ४९३
१०१
८२९
८०९
८१०
८११ ८११ ८१२
८३०
८३१
८१२ ८१३
सस
د
८३३ ८३३
८१४
.
-OMOVE
८१७
८१८
५१९
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्प्ररूपणा
विषय
नकशा नं.
पृष्ट नं.
विषय
नकशा नं.
पृष्ठ नं.
८४०
८४९
८४०
८४१
मिथ्यादृष्टि
सामान्य ५२० पर्याप्त ५२१
अपर्याप्त ५२२ सासादनसम्यग्दृष्टि
सामान्य ५२३ पर्याप्त ५२४
अपर्याप्त सम्यग्मिथ्यादृष्टि ५२६ असंयतसम्यग्दृष्टि
सामान्य ५२७ पर्याप्त
५२८ अपर्याप्त ५२९ संयतासंयत
५३० प्रमत्तसंयत ५३१
अप्रमत्तसंयत ५३२ अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण ५३४ सूक्ष्मसाम्पराय उपशान्तकषाय ५३६ क्षीणकषाय
५३७ सयोगिकेवली अनाहारी
५३९ मिथ्याष्टि सासादनसम्यग्दृष्टि ५४१ असंयतसम्यग्दृष्टि ५४२ सयोगिकेवली
५४३ अयोगिकेवली सिद्धभगवान्
८५२
८४३
८५३ ८५४
५४४
सत्प्ररूपणाके
आलापान्तर्गत विशेष विषयोंकी सूची क्रम नं. विषय पृष्ठ नं. क्रम नं. विषय
पृष्ठ नं. १ प्ररूपणाका स्वरूप और भेद- ८ अपर्याप्त काल में तीनों सम्यक्त्वोंके निरूपण
४११ | होनेका कारण २ प्राणका स्वरूप और प्राणोंका ९ भावलेश्याके स्वरूपमें मतभेद और पृथक् निदेश कथन
४१२ । उसका निराकरण ३ संज्ञाके भेद और उनका पृथक | १० अप्रमत्तसंयतके तीन संज्ञाओंके निर्देश
होनेमें हेतु
કરૂ૩ ४ उपयोगका स्वरूप और उसका
११ अपूर्वकरण गुणस्थानमें वचनयोग पृथक् निते
और काययोगके होनेका कारण ४३४ ५ प्ररूपणाओंका सूत्रोक्तत्व-अनुक्तत्व- १२ उपशान्तकषायादि गुणस्थानोंमें
विचार और भेदाभेद निरूपण ४१४ शुक्ललेश्या होनेका कारण ४३९ ६ अपर्याप्तकालमें द्रव्यलेश्या कापोत १३ कपाट, प्रतर और लोकपूरण समु. और शुक्ल ही क्यों होती है, इस
द्धातगत केवलोके पर्याप्त-अपबातका विचार
र्याप्तत्वका विचार ७ अपर्याप्त कालमें छहों भावलेश्याः १४ भावेन्द्रियका लक्षण और केवलीके ओंके होनेका कारण
उसके अभावका समर्थन ४४४
४२२]
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
६६०
द६७
आलापगत विशेष विषय सूची
८३ क्रम नं. विषय पृष्ठ नं. | क्रम नं. विषय
पृष्ठ नं. १५ अयोगिकेवलीके एक आयुप्राणका
सम्यग्दृष्टि जीवोंके भावसे छहों ___समर्थन
लेश्याओंके अस्तित्वका प्रतिपादन ६५६ १६ कालाकालाभास द्रव्यलेश्याका ३१ औदारिकमिश्रकाययोगी सयोगिस्वरूप
४४८ १७ तिर्यचोंके अपर्याप्तकाल में क्षायिक
केवलीके आयु और कायबल
प्राणों के अतिरिक्त शेष प्राणोंके और क्षायोपक्षमिक सम्यक्त्वका
अभावका समर्थन
६५८ समर्थन
३२ औदारिकमिश्रकाययोगी सयोगि१८ संयतासंयत तिर्योंके क्षायिक
केवलीके केवल एक कापोतलेश्या सम्यक्त्वके अभावका कारण
होनेका समर्थन १९ अयोगिकेवलीके अनाहारकत्वसमर्थन
३३ आहारककाययोगी जीवोंके स्त्रीवेद
नपुंसकवेद, मनःपर्ययज्ञान और २० असंयतसम्यक्त्वी मनुष्यके अप
परिहारविशुद्धि संयमके अभावके र्याप्त कालमें एक पुरुषवेद तथा
कारणका प्रतिपादन भावलेश्याओंके होनेका कारण ।
३४ कार्मणकाययोगी जीवोंके अनाहार२१ मनुष्यनियोंके आहारकशरीर न
कत्वका समर्थन होनेका कारण २२ देवोंके पर्याप्तकालमें छहों द्रव्य
३५ स्त्रीवेदी प्रमत्तसंयतके परिहार
संयमादिके अभावका प्रतिपादन लेश्याओंका समर्थन
१२९ ३६ विवक्षित ज्ञान और दर्शनमार्ग२३ देवोंके अपर्याप्तकालमें उपशमसम्यक्त्वका सद्भाव-समर्थन ।
___णाके आलाप कहनेपर शेष ज्ञान
और दर्शनके नहीं बतानेके कारण २४ अनुदिशादि देवोंके पर्याप्तकालमें
का प्रतिपादन उपशमसम्यक्त्वके अभावका
७२६ विशिष्ट समर्थन
५६६ ३७ मनःपर्ययज्ञानके साथ द्वितीयोप२५ जीवसमासोंके एकसे लगाकर ५७
शमसम्यक्त्वके होने और प्रथमोभेदों तकका निरूपण
शमसम्यक्त्वके नहीं होनेका २६ बादर जलकायिक जीवोंके
कारण
७२७ विचार
६०९ । ३८ कृष्णलेश्यावाले जीवोंके अपर्याप्त२७ मनोयोगियोंके वचन और काय
कालमें वेदकसम्यक्त्वके अस्तिप्राणके अस्तित्वका समर्थन
त्वका प्रतिपादन
७५२ २८ सयोगिकवलीके जीवसमासके |३९ शुक्ललेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि अस्तित्वका समर्थन
जीवोंके औदारिकमिश्रकाययोगके २९ औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके
अभावका प्रतिपादन
७९४ द्रव्यसे एक कापोतलेश्या अथवा ४० उपशमसम्यक्त्वीके मनःपर्ययज्ञानके छहों लेश्याएं और भावसे छहों
सद्भाव-असद्भावका विचार ૮૨૨ लेश्याओंके अस्तित्वका प्रतिपादन ६५३ ४१ संयमादि मार्गणाओंमें असंयमादि ३० औदारिकमिश्रकाययोगी असंयत
विपक्षी भावोंके बतानेका कारण
नका कारण ८२५
६८१
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठ
२७
६८
इन सबकी दशाका
११० १३ [हिं.] निर्गुण ही है
१०३ ६ [ हिं . ]
(पुस्तक - १ )
अशुद्ध
पंक्ति
२ [हिं.] पीले सरसों
७ [ हिं . ] हम दोनों
१३८ १९ [हिं.] नामकर्मका
उदय
१७५ ३ [ मूल ] नान्यन्तरेण १८२ ११ [हिं.] ११वीं पंक्तिसे
आगे
२४०
39
३१८
शुद्धि पत्र
शुद्ध
श्वेत सरसों
हम दोनों
७ [हि ] अपेक्षा पर पदार्थ से भी २ [मूल] - मिति १ [हि ] चाहिये |
पृष्ठ
४२१ २
४२८ ८
४३१ ६
केई
४४३ २० [हिं] और संयतानिर्गुण ही है, संयतोंके सर्वगत ही है, ४४६ ६ [हिं] होते हैं ।
साधु इन दशका
नामकर्मका सत्त्व तान्यन्तरेण
X
समाधान-नहीं; क्योंकि, क्षपक और उपशमक जीवोंके होनेवाले उन परिणामों में ५६९ ३ अपूर्वश्व के प्रति समानता पाई जाती है इससे | ५७० उनमें एकता बन जाती है ।
८
२३०
x शंका- क्षपक श्रेणी में होनेवाले परिणामोंमें कमका क्षपण कारण है. और उपशमश्रेणीमें होनेवाले परिणामोंमें कर्मोंका उपशमन कारण है, इसलिए इन भिन्न भिन्न परिणामोंमें एकता ५०६ नं. १०४ स. कैसे बन सकती है ?
६
पंक्ति
अपेक्षा भी पर पदार्थसे
५ [हि ] पूर्ण होनेकी पूर्ण नहीं होनेकी
(पुस्तक - २ ) अशुद्ध
४५० ९ [हिं] कृतत्यकृवेदकतिहिं
४५३
८
४५९ २२
मिथ्यादृष्टि
छब्भेदं ट्ठिदा
तिण्णिवेद
संदजा संजदा बुंदयवेद ५९२ २ (टि.) पाउव्युतक्रमः ७५२ नं.३९८
द.
१
शुद्ध
छभेट्टिदा तिष्णि वेद
ई
संयतासंयत और संयतोंके
होते हैं । यह
प्राण अल्प
प्राण है या
अप्रधान है ।
कृतकृत्यवेदक
तीहिं
मिथ्यादृष्टि
सामान्य
स.
१
संजदासंजदा
बुंसयवेद
-मिति ।
१६
१५
चाहिये । अर्थात् २ (परि. १) (परि. भा. २) (परि. भा. २) वनस्पतितक के जीवों के स्पर्शनेन्द्रिय होती है।
१६ एक ६ (परि. २) ९
पाठव्युत्क्रमः
द.
३
२२८ लेस्सा य दव्वभावं ७८८ (पिंडिका ?)
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
संतपरूवणा-आलाप
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
AAP
सिरि-भगवंत-पुप्फदंत-भूदबलि-पणीदे
छक्खंडागमे
जीवट्ठाणं
तस्स सिरि-वीरसेणाइरिय-विरइया टीका
धवला संपहि संत-सुत्त-विवरण-समत्ताणंतरं तेसिं परूवणं भणिस्सामो। परूवणा णाम किं उत्तं होदि ? ओघादेसेहि गुणेसु जीवसमासेसु पञ्जत्तीसु पाणेसु सण्णासु गदीसु इंदिएसु काएसु जोगेमु वेदेसु कसाएसु णाणेसु संजमेसु दंसणेसु लेस्सासु भविएसु अभविएसु सम्मत्तेसु सण्णि-असण्णीसु आहारि-अणाहारीसु उवजोगेमु च पजचापजतविसेसणेहि विसेसिऊण जा जीव-परिक्खा सा परूवणा णाम । उत्तं च
गुण जीवा पज्जत्ती पाणा सण्णा य मग्गणाओ य ।
उवजोगो वि य कमसो वीसं तु परूवणा भणिया ॥२१॥ सत्प्ररूपणाके सूत्रोंका विवरण समाप्त हो जानेके अनन्तर अब उनकी प्ररूपणाका वर्णन करते हैं
शंका-प्ररूपणा किसे कहते हैं ?
समाधान-सामान्य और विशेषकी अपेक्षा गुणस्थानों में, जीवसमासों में, पर्याप्तियों में, प्राणों में, संक्षाओं में, गतियों में, इन्द्रियों में, कार्योंमें, योगोंमें, वेदोंमें, कषायोंमें, ज्ञानों में, संयमोंमें, दर्शनोंमें, लेश्याओंमें, भव्योंमें, अभन्यों में सम्यक्त्वों में, संशी-असंशियोंमें, आहारी-अनाहारियों में और उपयोगोंमें पर्याप्त और अपर्याप्त विशेषणोंसे विशेषित करके जो जीवोंकी परीक्षा की जाती है, उसे प्ररूपणा कहते हैं। कहा भी है
गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संक्षा, चौदह मार्गणाएं और उपयोग, इस प्रकार क्रमसे वीस प्ररूपणाएं कही गई हैं। २१७ ॥
१ गो. बी. २.
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
४१२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, १. सेसाणं परूवणाणमत्थो वुत्तो । पाण-सण्णा-उवजोग-परूवणाणमत्थो बुच्चदे । प्राणिति जीवति एभिरिति प्राणाः । के ते ? पञ्चेन्द्रियाणि मनोबलं वाग्बलं कायवलं उच्छासनिःश्वासौ आयुरिति । नैतेषामिन्द्रियाणामेकेन्द्रियादिष्वन्तर्भावः; चक्षुरादिक्षयोपशमनिबन्धनानामिन्द्रियाणामेकेन्द्रियादिजातिमिः साम्याभावात्। नेन्द्रियपर्याप्तावन्तर्भावा; चक्षुरिन्द्रियाद्यावरणक्षयोपशमलक्षणेन्द्रियाणां क्षयोपशमापेक्षया बाह्यार्थग्रहणशक्त्युत्पत्तिनिमित्तपुद्गलप्रचयस्य चैकत्वविरोधात्। न च मनोबलं मनःपर्याप्तावन्तर्भवति मनोवर्गणास्कन्धनिष्पन्नपुद्गलप्रचयस्य तस्मादुत्पन्नात्मबलस्य चैकत्वविरोधात् । नापि वाग्बलं भाषापर्याप्तावन्तर्भवति; आहारवर्गणास्कन्धनिष्पन्नपुद्गलप्रचयस्य तस्मादुत्पन्नायाः भाषावर्गणास्कन्धानां श्रोत्रद्रियग्राह्यपर्यायेण परिणमनशक्तेश्च साम्याभावात् । नापि कायबलं शरीरपर्याप्तावन्तर्भवति वीर्यान्तरायजनितक्षयोपशमस्य खलरसभागनिमित्तशक्तिनिबन्धनपुद्गलप्रचयस्य चैकत्वाभावात् । तथोच्छासनिश्वासप्राणपर्याप्त्योः कार्यकारणयोरात्मपुद्गलोपादा
वीस प्ररूपणाओं से तीन प्ररूपणाओंको छोड़कर शेष प्ररूपणाओंका अर्थ पहले कह आये हैं, अतः यहां पर प्राण, संज्ञा, और उपयोग इन तीन प्ररूपणाओंका अर्थ कहते हैं। जिनके द्वारा जीव जीता है उन्हें प्राण कहते हैं।
शंका-वे प्राण कौनसे हैं ?
समाधान-पांच इन्द्रियां, मनोबल, वचनबल, कायबल, उच्छास-निश्वास और आयु ये दश प्राण हैं।
इन पांचों इन्द्रियोंका एकेन्द्रियजाति आदि पांच जातियों में अन्तर्भाव नहीं होता है; क्योंकि, चक्षुरिन्द्रियावरण आदि कर्मों के क्षयोपशमके निमित्तसे उत्पन्न हुई इन्द्रियोंकी एके. न्द्रियजाति आदि जातियोंके साथ समानता नहीं पाई जाती है । उसीप्रकार उक्त पांचों इन्द्रियोंका इन्द्रियपर्याप्तिमें भी अन्तर्भाव नहीं होता है, क्योंकि, चक्षुरिन्द्रिय आदिको आवरण करनेवाले कर्मों के क्षयोपशमस्वरूप इन्द्रियोंको और क्षयोपशमकी अपेक्षा बाह्य पदार्थों को ग्रहण करनेकी शक्तिके उत्पन्न करने में निमित्तभूत पुद्गलोंके प्रचयको एक मान लेनेमें विरोध आता है। उसीप्रकार मनोबलका मनःपर्याप्तिमें भी अन्तर्भाव नहीं होता है, क्योंकि, मनोवर्गणाके स्कन्धोंसे उत्पन्न हुए पुद्गलप्रचयको और उससे उत्पन्न हुए आत्मबल (मनोबल ) को एक मानने में विरोध आता है । तथा वचनबल भी भाषापर्याप्तिमें अन्तर्भूत नहीं होता है, क्योंकि, आहारवर्गणाके स्कन्धोंसे उत्पन्न हुए पुद्गलप्रचयका और उससे उत्पन्न हुई भाषावर्गणाके स्कन्धोंका श्रोत्रेन्द्रियके द्वारा ग्रहण करने योग्य पर्यायसे परिणमन करनेरूप शक्तिका परस्पर समानताका अभाव है। तथा कायबलका भी शरीरपयाप्तिमें अन्तर्भाव नहीं होता है, क्योंकि, वीर्यान्तरायके उदयाभाव और उपशमसे उत्पन्न हुए क्षयोपशमकी और खल-रसभागकी निमित्तभूत शक्तिके कारण पुद्गलप्रचयकी एकता नहीं पाई जाती है । इसीप्रकार उच्छासनिःश्वास प्राण कार्य है और आत्मोपादानकारणक है तथा उच्छासनिःश्वासपर्याप्ति कारण है और पुद्गलोपा
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
संत-परूवणाणुयोगद्दारे आलाववण्णणं
१,१. ]
नयोर्भेदोऽभिधातव्य इति ।
सण चव्विहा आहार -भय- मेहुण- परिग्गह- सण्णा चेदि । मैथुनसंज्ञा वेदस्यान्तर्भवतीति चेन्न, वेदत्रयोदय सामान्यनिबन्धनमैथुनसंज्ञाया वेदोदयविशेषलक्षणवेदस्य चैकत्वानुपपत्तेः । परिग्रहसंज्ञापि न लोभेनैकत्वमा स्कन्दति; लोभोदयसामान्यस्यालीढबाह्यार्थलोभतः परिग्रहसंज्ञामादधानतो भेदात् । यदि चतस्रोऽपि संज्ञा आली ढबाह्यार्थाः, अप्रमत्तानां संज्ञाभावः स्यादिति चेन्न तत्रोपचारतस्तत्सच्चाभ्युपगमात् । स्वपरग्रहणपरिणाम उपयोगः । न स ज्ञानदर्शनमार्गणयोरन्तर्भवति; ज्ञानहगावरणकर्मक्षयोपशमस्य तदुभयकारणस्योपयोगत्वविरोधात् ।
अथ स्यादियं विंशतिविधा प्ररूपणा किमु सूत्रेणोक्ता उत नोक्तेति ? किं चातः १ यदि नोक्ता, नेयं प्ररूपणा भवति सूत्रानुक्तप्रतिपादनात् । अथोक्ता, जीवसमासप्राणपर्या
दाननिमित्तक है, अतएव इन दोनोंमें भेद समझ लेना चाहिये ।
[ ४१३
संज्ञा चार प्रकारकी है; आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा । शंका- मैथुनसंज्ञाका बेदमें अन्तर्भाव हो जायगा ?
समाधान – नहीं, क्योंकि, तीनों वेदोंके उदय सामान्यके निमित्तसे उत्पन्न हुई मैथुनसंज्ञा और वेदों के उदय- विशेष स्वरूप वेद, इन दोनोंमें एकत्व नहीं बन सकता है। इसीप्रकार परिग्रहसंज्ञा भी लोभकषायके साथ एकत्वको प्राप्त नहीं होती है; क्योंकि, बाह्य पदार्थोंको विषय करनेवाला होनेके कारण परिग्रहसंज्ञाको धारण करनेवाले लोभसे लोभकषायके उदयरूप सामान्य लोभका भेद है । अर्थात् बाह्य पदार्थोंके निमित्तसे जो लोभ होता है उसे परिग्रहसंज्ञा कहते हैं, और लोभकषायके उदयसे उत्पन्न हुए परिणामोंको लोभ कहते हैं ।
शंका- यदि ये चारों ही संज्ञाएं बाह्य पदार्थोंके संसर्गसे उत्पन्न होती हैं तो अप्रमत्तगुणस्थानवर्ती जीवों के संज्ञाओंका अभाव हो जाना चाहिये ?
समाधान — नहीं, क्योंकि, अप्रमत्तोंमें उपचारसे उन संज्ञाओंका सद्भाव स्वीकार किया गया है ।
स्व और परको ग्रहण करनेवाले परिणामविशेषको उपयोग कहते हैं । वह उपयोग ज्ञानमार्गणा और दर्शनमार्गणामें अन्तर्भूत नहीं होता है; क्योंकि, ज्ञान और दर्शन इन दोनों के कारणरूप ज्ञानावरण और दर्शनावरणके क्षयोपशमको उपयोग माननेमें विरोध आता है ।
शंका- - यह वीस प्रकारकी प्ररूपणा रद्दी आओ, किन्तु यह बतलाइये कि यह प्ररूपणा सूत्रानुसार कही गई है, या नहीं ?
प्रतिशंका- - इस प्रश्नसे क्या प्रयोजन है ?
शंका- यदि सूत्रानुसार नहीं कहीं गई है तो यह प्ररूपणा नहीं हो सकती है, क्योंकि, यह सूत्र में नहीं कहे गये विषयका प्रतिपादन करती है । और यदि सूत्रानुसार कही गई है, तो जीवसमास, प्राण, पर्याप्ति, उपयोग और संज्ञाप्ररूपणाका मार्गणाओं में
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
४१४ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, १.
त्युपयोगसंज्ञानां मार्गणासु यथान्तर्भावो भवति तथा वक्तव्यमिति । न द्वितीयपक्षोक्तदोषोऽनभ्युपगमात् । प्रथमपक्षेऽन्तर्भावो वक्तव्यश्चेदुच्यते । पर्याप्तिजीवसमासाः कायेन्द्रियमार्गण योर्निलीनाः; एक द्वित्रिचतुः पश्चेन्द्रिय सूक्ष्मवादरपर्याप्तापर्याप्तभेदानां तत्र प्रतिपादितत्वात् । उच्छ्रासभाषामनोबलप्राणाश्च तत्रैव निलीनाः तेषां पर्याप्तिकार्यत्वात् । कायबलप्राणोऽपि योगमार्गणातो निर्गतः; बललक्षणत्वाद्योगस्य । आयुः प्राणो गतौ निलीनः; द्वयोरन्योन्याविनाभावित्वात्। इन्द्रियप्राणा ज्ञानमार्गणायां निलीनाः भावेन्द्रियस्य ज्ञानावरणक्षयोपशमरूपत्वात्' । आहारे या तृष्णा कांक्षा साहारसंज्ञा । सा च रतिरूपत्वान्मोहपर्यायः । रतिरपि रागरूपत्वान्मायालो भयोरन्तर्भवति । ततः कषायमार्गणाया - माहारसंज्ञा द्रष्टव्या । भयसंज्ञा भयात्मिका । भयञ्च क्रोधमानयोरन्तलींनम्ः द्वेषरूपत्वात् । ततो भयसंज्ञापि कषायमार्गणाप्रभवा । मैथुनसंज्ञा वेदमार्गणाप्रभेदः; स्त्रीपुंनपुंसक वेदानां तीव्रोदयरूपत्वात् । परिग्रहसंज्ञापि कषायमार्गणोद्भूताः बाह्यार्थीलीढलो भरूपत्वात् । साका
जिसप्रकार अन्तर्भाव होता है उसप्रकार कथन करना चाहिये ?
समाधान - दूसरे पक्षमें दिया गया दूषण तो यहां पर आता नहीं है; क्योंकि, वैसा माना नहीं गया है । तथा प्रथम पक्षमें जो जीवसमास आदिके चौदह मार्गणाओं में अन्तर्भाव करनेकी बात कही है, सो कहा जाता है। पर्याप्ति और जीवसमास प्ररूपणा काय और इन्द्रिय मार्गणा में अन्तर्भूत हो जाती हैं; क्योंकि, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्तरूप भेदोंका उक्त दोनों मार्गणाओंमें प्रतिपादन किया गया द्वै । उच्छ्रःसनिःश्वास, वचनबल और मनोबल, इन तीन प्राणों का भी उक्त दोनों मार्गणाओं में अन्तर्भाव होता है; क्योंकि, ये तीनों प्राण पर्याप्तियों के कार्य हैं । कायबलप्राण भी योगमार्गणासे निकला है; क्योंकि, योग काय, वचन और मनोबलस्वरूप होता है । आयुप्राण गतिमार्गणा में अन्तर्भूत है; क्योंकि, आयु और गति ये दोनों परस्पर अविनाभावी हैं । अर्थात विवक्षित गतिके उदय होने पर तज्जातीय आयुका उदय होता है और विवक्षित आयुके उदय होने पर तज्जातीय गतिका उदय होता है । इन्द्रियमाण ज्ञानमार्गणा में अन्तर्लीन हो जाते हैं, क्योंकि, भावेन्द्रियां ज्ञानावरणके क्षयोपशमरूप होती हैं । आहारके विषय में जो तृष्णा या आकांक्षा होती है उसे आहारसंज्ञा कहते हैं । वह रतिस्वरूप होनेसे मोहकी पर्याय (भेद) है । रति भी रागरूप होने के कारण माया और लोभमें अन्तर्भूत होती है । इसलिये कषायमार्गणा में आहारसंज्ञा समझना चाहिये । भयसंज्ञा भयरूप है, और भय द्वेषरूप होनेके कारण क्रोध और मानमें अन्तर्भूत है, इसलिये भयसंज्ञा भी कषायमार्गणासे उत्पन्न हुई समझना चाहिये । मैथुनसंज्ञा वेदमार्गणाका प्रभेद है; क्योंकि, वह मैथुनसंज्ञा स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसक वेद के तीव्र उदयरूप है । परिग्रहसंज्ञा भी कषायमार्गणासे उत्पन्न हुई है; क्योंकि, यह संज्ञा बाह्य पदार्थोंमें व्याप्त लोभरूप है । साकार उपयोग ज्ञानमार्गणा में और अनाकार उपयोग दर्शनमार्गणा में
१ इंदियकाए लीणा जीवा पज्जति आणभासमणो । जोगे काओ णाणे अक्खा गदिमग्गणे आऊ ॥ गो. जी. ५. २ मायालोहे रदिपुव्वाहारं कोहमाणगम्हि भयं । वेदे मेहुणसण्णा लोहम्हि परिग्गहे सण्णा || गो. जी. ६.
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगदारे आलाववण्णणं
[११५ रोपयोगो ज्ञानमार्गणायामनाकारोपयोगो दर्शनमार्गणायां ( अन्तर्भवति ) तयोनिदर्शनरूपत्वात्। न पौनरुक्त्यमपि; कथश्चित्तेभ्यो भेदात् । प्ररूपणायां किं प्रयोजनमिति चेदुच्यते, सूत्रेण सूचितार्थानां स्पष्टीकरणार्थ विंशतिविधानेन प्ररूपणोच्यते।
तत्थ 'ओघेण अत्थि मिच्छाइट्ठी सिद्धा० चेदि'' एदस्स ओघ-सुत्तस्त ताव परूवणा बुच्चदे। तं जहा- *अत्थि चोद्दस गुणट्ठाणाणि चोद्दस-गुणट्ठाणादीद गुणहाणं पि अस्थि । अत्थि चोद्दस जीवसमासा । के ते ? एइंदिया दुविहा बादरा सुहुमा ।
अन्तर्भूत होते हैं। क्योंकि, वे दोनों ज्ञान और दर्शनरूप ही हैं। ऐसा होते हुए भी उक्त प्ररूपणाओंके स्वतन्त्र कथन करने में पुनरुक्ति दोष भी नहीं आता है; क्योंकि, मार्गणाओंसे उक्त प्ररूपणाएं कथंचित् भिन्न है।
शंका-प्ररूपणा करनेमें क्या प्रयोजन है ?
समाधान-सूत्रके द्वारा सूचित पदार्थोंके स्पष्टीकरण करनेके लिये वीस प्रकारसे प्ररूपणा कही जाती है।
'सामान्यसे मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरणप्रविष्ट-शुद्धि-संयतोंमें उपशमक और क्षपक, अनिवृत्तिकरण प्रविष्ट-शुद्धि-संयतों में उपशमक और क्षपक, सूक्ष्मसांपराय-प्रविष्ट-शुद्धि-संयतों में उपशमक और सपक, उपशांतकषाय-वीतराग-छद्मस्थ, क्षीणकषाय-वीतराग छद्मस्थ, सयोगकेवली और अयोगकेवली जीव होते हैं । तथा सिद्ध भी होते हैं।' पहले इस सामान्य सूत्रकी प्ररूपणा कहते हैं । वह इसप्रकार है-चौदहों गुणस्थान हैं और चौदह गुणस्थानोंसे अतीतगुणस्थान भी है । चौदहों जीवसमास हैं।
शंका-वे चौदही जीवसमास कौनसे हैं ?
*
१ सागारी उवजोगी णाणे मग्गम्हि दसणे मग्गे। अणगारो उवजोगो लणिो त्ति जिणेहिं णिाइट।गो.जी. ७. २ जी. सं. सू. ९.२३.
सामान्य जीवोंके सामान्य आलाप. गु.जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का.यो. वे. क.शा.सं. द. ले. म. स.। सं. । आ. उ. १४६५.६अ.१०,७
६१५/३४८७/४ द्र.६ २ |६| २ | २ | २ ५५.५अ., ९,७
मा.६ म. सं. आहा. साका. ४५.४अ. ८,६
असं. अना. अना.
तथा यु.उ.
अ.गु. अ. जी.
GG क्षणि स.. सि. ग.. अ.जा. अ. का. अ. यो. अपग.वे. अकषा.
अनु. G
अनु.
अ.प.
४,२
अ.प्रा.
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
छक्खंडागमे जीवठ्ठाणं
[१, १. बादरा दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता । मुहुमा दुविहा पजत्ता अपजत्ता । वीइंदिया दुविहा पञ्जत्ता अपज्जत्ता । तीइंदिया दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता । चउरिदिया दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता। पंचिंदिया दुविहा सणिणो असण्णिणो । सणिणो दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता। असण्णिणो दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता इदि । एदे चोद्दस जीवसमासा अदीदजीवसमासा वि अस्थि । अत्थि छ पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ पंच पज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ चत्तारि पज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ अदीद-पज्जत्ती वि अस्थि । आहारपज्जत्ती सरीरपज्जत्ती इंदियपज्जत्ती आणापाणपज्जत्ती भासापज्जत्ती मणपज्जत्ती चेदि । एदाओ छ पज्जत्तीओ सण्णिपज्जत्ताणं । एदेसिं चेव अपज्जत्तकाले एदाओ चेव असमत्ताओ छ अपज्जत्तीओ भवंति । मणपज्जत्तीए विणा एदाओ चेव पंच पज्जत्तीओ असण्णि-पंचिंदिय-पज्जत्तप्पहुडि जाव बीइंदिय-पज्जत्ताणं भवंति । तेसिं चेव अपज्जत्ताणं एदाओ चेव अणिप्पण्णाओ पंच अपज्जत्तीओ वुच्चंति । एदाओ चेव भासा-मणपज्जत्तीहि विणा चत्तारि पज्जत्तीओ एइंदिय-पज्जत्ताणं भवंति । एदेसिं चेव अपज्जत्तकाले एदाओ चेव असंपुण्णाओ चत्तारि अपज्जत्तीओ भवंति । एदासिं छण्हम
समाधान- एकेन्द्रिय जीव दो प्रकारके हैं , बादर और सूक्ष्म । बादर जीव दो प्रकारके हैं, पर्याप्त और अपर्याप्त । सूक्ष्म जीव दो प्रकारके हैं, पर्याप्त और अपर्याप्त । द्वीन्द्रिय जीव दो प्रकारके हैं, पर्याप्त और अपर्याप्त । त्रीन्द्रिय जीव दो प्रकारके हैं, पर्याप्त और अपर्याप्त । चतुरिन्द्रिय जीव दो प्रकारके हैं, पर्याप्त और अपर्याप्त । पंचेन्द्रिय जीव दो प्रकारके हैं , संज्ञी और असंशी । संक्षी जीव दो प्रकारके हैं, पर्याप्त और अपर्याप्त । असंशी जीव दो प्रकारके हैं, पर्याप्त और अपर्याप्त'। इसप्रकार ये चौदह जीवसमास होते हैं।
अतीत-जीवसमास भी जीव होते हैं। छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; पांच पर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां; चार पर्याप्तियां और चार अपर्याप्तियां हैं। तथा अतीतपर्याप्ति भी है। आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, आना
पर्याप्ति. भाषापर्याप्ति और मनःपर्याप्ति ये छह पर्याप्तियां हैं। ये छहों पर्याप्तियां संझी-पर्याप्तके होती हैं। इन्हीं संशी जीवोंके अपर्याप्त-कालमें पूर्णताको प्राप्त नहीं हुई ये ही छह अपर्याप्तियां होती हैं। मनःपर्याप्तिके विना उक्त पांचों ही पर्याप्तियां असंझी-पंचेन्द्रिय-पर्याप्तोंसे लेकर द्वीन्द्रिय-पर्याप्तक जीवोतक होती हैं। अपर्याप्तक अवस्थाको प्राप्त उन्हीं जीवोंके अपूर्णताको प्राप्त वे ही पांच अपर्याप्तियां होती हैं। भाषापर्याप्ति और मनःपर्याप्तिके विना ये ही चार पर्याप्तियां एकेन्द्रिय पर्याप्तोंके होती हैं। इन्हीं पकेन्द्रिय जीवोंके अपर्याप्तकालमें अपूर्णताको प्राप्त ये ही चार अपर्याप्तियां होती हैं । तथा इन छह पर्याप्तियोंके अभावको अतीतपर्याप्ति
१ जी. सं. सू. ३४-३५.
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे आलाववण्णणं
[११७ भावो अदीद-पजत्ती णाम । उत्तं च
आहार-सरीरिंदिय-पज्जत्ती आणपाण-भास-मणो। चत्तारि पंच छव्वि य एइंदिय-विगल-सण्णीण ॥२१८॥ जह पुण्णापुण्णाई गिह-घड-वत्थाइयाइ दव्वाइं ।
तह पुण्णापुण्णाओ पज्जत्तियरा मुणेयव्वा ॥ २१९ ॥ आत्थि दस पाण सत्त पाण णव पाण सत्त पाण अ पाण छप्पाण सत्त पाण पंच पाण छप्पाण चत्तारि पाण चत्तारि पाण तिण्णि पाण चत्तारि पाण दोणि पाण एक पाण अदीद-पाणो वि अत्थि । चक्खु-सोद-घाण-जिब्भ-फासमिदि पंचिंदियाणि, मणबल वचिबल कायबल इदि तिण्णि बला, आणापाणो आऊ चेदि एदे दस पाणा । उत्तं च
पंच वि इंदिय-पाणा मण-वचि-कारण तिण्णि बलपाणा । आणप्पाणप्पाणा आउगपाणेण होंति दस पाणा ॥ २२० ॥
कहते हैं । कहा भी है
आहार, शरीर, इन्द्रिय, आनापान, भाषा और मन ये छह पर्याप्तियां हैं। उनमेंसे एकेन्द्रिय जीवोंके चार, विकलत्रय और असंझी-पंचेन्द्रियोंके पांच और संक्षी जीवोंके छह पर्याप्तियां होती हैं ॥ २१८ ॥
जिसप्रकार गृह, घट और वस्त्र आदि द्रव्य पूर्ण और अपूर्ण दोनों प्रकारके होते हैं, उसीप्रकार जीव भी पूर्ण और अपूर्ण दो प्रकारके होते हैं उनमेंसे पूर्ण जीव पर्याप्तक और अपूर्ण जीव अपर्याप्तक कहलाते हैं ॥ २१९ ॥
दश प्राण, सात प्राण; नौ प्राण, सात प्राण; आठ प्राण, छह प्राण; सात प्राण, पांच प्राणः छह प्राण, चार प्राणः चार प्राण. तीन प्राणः चार प्राण, दो प्राण और एक प्राण होते हैं तथा अतीतप्राणस्थान भी है। चक्षुरिन्द्रिय, श्रोत्रेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शनोन्द्रिय ये पांच इन्द्रियां मनोबल, वचनबल, कायबल ये तीन बल, श्वासोच्छास और आयु ये दश प्राण होते हैं । कहा भी है
__पांचों इन्द्रियां, मनोबल, वचनबल और कायबल श्वासोच्छास और आयु ये दश प्राण हैं ॥ २२०॥
१ गो. जी. ११९. २ गो. जी. ११८. ३ गो. जी. ३०.
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
११८] छक्खंडागमे जीवहाणं
[१, १. एदे दस पाणा पंचिंदिय-सण्णिपज्जत्ताणं । आणापाण-भासा-मणेहि विणा सण्णिपंचिंदिय-अपज्जत्ताणं सत्त पाणा भवंति । दसण्हं पाणाणं मज्झे मणेण विणा गव पाणा असण्णि-पंचिंदिय-पजत्ताणं भवंति । एदेसिं चेव अपजत्ताणं भासा-आणापाणपाणेहि विणा सत्त पाणा भवंति । पुबिल्ल-णव-पाणेसु सोदिदिय-पाणे अवणिदे चदुरिंदियपञ्जत्तस्स अट्ठ पाणा भवंति । एदेसिं चेव चदुरिंदिय-अपज्जत्ताणं आणावाण-भासाहि विणा छप्पाणा भवति । पुब्धिल-अट्ठण्डं पाणाणं मज्झे चक्खिदिए अवणिदे तीइंदिय-पज्जत्तयस्स सत्त पाणा भवंति । तेसु सत्तम आणावाण-भासापाणे अवणिदे तीइंदिय-अपज्जत्तयस्स पंच पाणा भवंति । तीइंदियस्स वुत्त-सत्तण्हं पाणाणं मज्झे घाणिदिए अवणिदे बीइंदियपज्जत्तयस्स छप्पाणा भवंति । तेसु छसु आणावाण-भासाहि विणा बीइंदिय-अपज्जत्तयस्स चत्तारि पाणा भवंति । बीइंदिय-पज्जत्तयस्त वुत्त-छण्हं पाणाणं मज्झे जिभिदियपाणे भासापाणे अवणिदे एइंदिय-पज्जत्तयस्स चत्तारि पाणा भवंति । तेसु आणावाणपाणे अवणिदे एइंदिय अपज्जत्तयस्स तिण्णि पाणा भवंति' । उत्तं च
दस सण्णीणं पाणा सेसेगूणंतिमस्स वे ऊणा। पज्जत्तेसिदरेसु य सत्त दुगे सेसगेगूणा ॥ २२१ ॥
पूर्वोक्त दश प्राण पंचेन्द्रिय संज्ञी-पर्याप्तकोंके होते हैं। आनापान, वचनबल और मनोबल इन तीन प्राणोंके विना शेष सात प्राण संशी-पंचेन्द्रिय-अपर्याप्तकों के होते हैं । दश प्राणों से मनोबलके विना शेष नौ प्राण असंही-पंचेन्द्रिय-पर्याप्तकोंके होते हैं। अवस्थाको प्राप्त इन्हीं जीवोंके वचनबल और आनापान प्राणके विना शेष सात प्राण होते हैं। पूर्वोक्त नौ प्राणोंमेंसे श्रोत्रेन्द्रिय प्राणको कम कर देने पर शेष आठ प्राण चतुरिन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके होते हैं । इन्हीं चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके आनापान और वचनबलके विना शेष छह प्राण होते हैं । पूर्वोक्त आठ प्राणोंमेंसे चक्षु इन्द्रियके कम कर देने पर शेष सात प्राण त्रीन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके होते हैं । उन सात प्राणोंमेंसे आनापान और वचनबल प्राणके कम कर देने पर शेष पांच प्राण त्रीन्द्रिय-अपर्याप्तकोंके होते हैं। त्रीन्द्रिय जीवोंके कहे गये सात प्राणों मेंसे घ्राणेन्द्रियके कम कर देने पर शेष छह प्राण द्वीन्द्रिय पर्याप्तकोंके होते हैं। उन छह प्राणों से आनापान और वचनबलके कम कर देने पर शेष चार प्राण द्वीन्द्रिय-अपर्याप्तकोंके होते हैं। द्वीन्द्रिय-पर्याप्तकोंके कहे गये छह प्राणोंमेंसे रसनेन्द्रिय-प्राण और वचनबलप्राणके कम कर देने पर शेष चार प्राण एकेन्द्रिय-पर्याप्तकोंके होते हैं। उनमेंसे आनापान प्राणके कम कर देने पर शेष तीन प्राण एकेन्द्रिय-अपर्याप्तकोंके होते हैं। कहा भी है
संझी जीवोंके दश प्राण होते हैं। शेष जीवोंके एक एक प्राण कम करना चाहिये।
१ इंदियकायाऊणि य पुण्णापुण्णेसु पुण्णगे आणा। वीइंदियादिपुणे वचीमणो सण्णिपुण्णेव गो.जी. १३२. २ गो. जी. १३३.
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगदारे आलाववण्णणं
[४१९ दसण्हं पाणाणमभावो अदीदपाणो णाम । अत्थि चत्तारि सण्णा, खीणसण्णा वि अत्थि । काओ चत्तारि सण्णाओ इदि चे ? वुच्चदे-आहारसण्णा भयसण्णा मेहुणसण्णा परिग्गहसण्णा चेदि । एदासिं चउण्हं सण्णाणं अभावो खीणसण्णा णाम । अत्थि चत्तारि गदीओ, सिद्धगदी वि अत्थि । एइंदियादी पंच जादीओ, अदीदजादी वि अस्थि । अत्थि पुढविकायादी छक्काया, अदीदकाओ वि अत्थि । अत्थि पण्णरह जोगा, अजोगो वि अस्थि । अस्थि तिणि वेदा, अवगदवेदो वि अत्थि । अस्थि चत्तारि कसाया, अकसाओ वि अस्थि । अत्थि अट्ट णाणाणि । अत्थि सत्त संजमा, णेव संजमो णेव संजमासंजमो णेव असंजमो वि अत्थि । अत्थि चत्तारि दंसणाणि । दव्वभावेहि छ लेस्साओ, अलेस्सा वि अत्थि । भवसिद्धिया वि अत्थि, अभवसिद्धिया वि अत्थि, णेव भवसिद्धिया णेव अभवसिद्धिया वि अत्थि । छ सम्मत्ताणि अस्थि । सण्णिणो वि अत्थि, असणिणो वि अत्थि, णेव सणिणो णेव असणिणो वि अस्थि । आहारिणो
किन्तु अन्तिम अर्थात् एकेन्द्रिय जीवोंके दो प्राण कम होते हैं। यह क्रम पर्याप्तकोंका है। किन्तु अपर्याप्तक जीवोंमें संज्ञी और असंज्ञी पंचेन्द्रियोंके सात, सात प्राण होते हैं। तथा शेष जीवोंके उत्तरोत्तर एक एक कम प्राण होते हैं ॥ २२१ ॥
विशेषार्थ केवली भगवान के पांच इन्द्रियां और मनोबलको छोड़कर शेष चार प्राण होते हैं। तथा योग निरोधके समय वचनबलका अभाव हो जाने पर कायबल आनापान और आयु ये तीन प्राण होते हैं और अन्तमें कायबल और आयु ये दो प्राण होते हैं। तथा चौदहवें गुणस्थानमें केवल एक आयुप्राण होता है।
___ इन दो प्राणोंके अभावको अतीत-प्राण कहते हैं। चारों संज्ञाएं होती हैं और क्षीणसंज्ञा भी होती है।
शंका-वे चार संज्ञाएं कौनसी हैं ? समाधान-...-आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा ये चार संशाएं हैं। इन चारों संज्ञाओंके अभावको क्षीणसंज्ञा कहते हैं।
चार गतियां होती हैं और सिद्धगति भी है। एकेन्द्रियादि पांच जातियां होती हैं और अतीत-जातिरूप स्थान भी है। प्रथिवीकाय आदि छह काय होते हैं और अतीतकाय स्थान भी है। पन्द्रह योग होते हैं और अयोग स्थान भी है। तीन वेद होते हैं और अपगतवेद स्थान भी है। चार कषायें होती हैं और अकषाय स्थान भी है । आठ ज्ञान होते हैं। सात संयम होते हैं और संयम, संयमासंयम और असंयम रहित भी स्थान है। चार दर्शन होते हैं। द्रव्य और भावके भेदसे छह लेश्याएं होती हैं और अलेश्यास्थान भी है । भव्यसिद्धिक जीव होते हैं, अभव्यसिद्धिक जीव होते हैं और भव्यसिद्धिक तथा अभव्यसिद्धिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी स्थान होता है। छह सम्यक्त्व होते हैं। संज्ञी भी होते हैं, असंज्ञी भी होते हैं और संत्री तथा, असंही
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२० छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, १, वि अत्थि, अणाहारिणो वि अस्थि । सागारुखजुत्ता वि अत्थि, अणागारुवजुत्ता वि अस्थि, सागार-अणागारेहि जुगवदुवजुत्ता वि अस्थि ।
पञ्जन-विसिट्टे आधे भण्णमाणे अत्थि चोद्दस गुणट्ठाणाणि, अदीदगुणट्ठाणं णस्थि; पज्जत्तेसु तस्स संभवाभावादा। सन नीवसमासा, अदीदजीवसमासो पत्थि; छ पज्जत्तीओ पंच पज्जत्तीओ चत्तारि पञ्जीयो, अदीदपज्जत्ती णत्थिः दस पाण णव पाण अट्ठ पाण सत्त पाण छप्पाण चनारि पाण, अदीदपाणी णत्थिः चत्तारि सण्णा, वीणसणा वि अत्थिः चत्तारि गदीओ, सिद्धगदी णत्थिः एइंदियादी पंच जादीओ अस्थि, अददिजादी पत्थिः पुढवीकायादी छकाया अत्थि, अकाओ णत्थि; ओरालियवेउब्धिय-आहारमिस्स-कम्मइयकायजोगेहि विणा एकारह जोग, अजोगो वि अत्थि; तिणि वेद, अबगदवेदो वि अत्थिः चत्तारि कसाय, अकसाओ वि अत्थि; अट्ठ णाण, सत्त संजम, णेव संजमो णेव असंजमो णेव संजमासंजमो णत्थि; चत्तारि सण, दव्य-भावेहि
विकल्प रहित भी स्थान होता है । आहारक भी होते हैं और अनाहारक भी होते हैं। साकार उपयोगसे युक्त भी होते हैं अनाकार उपयोगसे भी युक्त होते हैं और साकार उपयोग तथा अनाकार उपयोग इन दोनोंसे युगपत् युक्त भी होते हैं।
___ पर्याप्त अवस्थासे युक्त जीवोंके ओघालाप कहने पर--चौदहों गुणस्थान होते हैं। अतीत-गुणस्थानरूप स्थान नहीं होता है, क्योंकि, पर्याप्तकोंमें अतीत-गुणस्थान अर्थात् सिद्ध अवस्थाको संभावना नहीं है। पर्याप्तसंबन्धी सातों जीवसमास होते हैं, किन्तु अतीत जीवसमास (सिद्ध अवस्था) रूप स्थान नहीं है। संशी जीवोंके छहों पर्याप्तियां, असंक्षी और विकलत्रयांके पांच पर्याप्तियां और एकेन्द्रिय जीवोंके चार पर्याप्तियां होती हैं, किंतु अतीतपर्याप्तिरूप स्थान नहीं होता है। संशोके दशों प्राण, असंहीके नौ प्राण, चतुरिन्द्रियके आठ प्राण, त्रीन्द्रियके सात प्राण, द्वीन्द्रियके छह प्राण, और एकेन्द्रियके चार प्राण होते हैं, किंतु अतीत-प्राणरूप स्थान नहीं हैं। चारों संज्ञाएं होती हैं और क्षीणसंज्ञारूप स्थान भी होता है। चारों गतियां होती हैं, किंतु सिद्धगति नहीं होती है। एकेन्द्रियादि पांचों जातियां होती हैं, किंतु अतीत-जातिरूप स्थान नहीं होता है। पृथिवीकाय आदि छहों काय होते हैं, किंतु अकाय. रूप स्थान नहीं होता है। औदारिकमिश्रकाययोग, वैक्रियकमिथकाययोग, आहारकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोगके विना ग्यारह योग होते हैं और अयोग-स्थान भी होता है। तीनों वेद होते हैं और अपगतवेद-स्थान भी होता है। चारों कषायें होती हैं और अकषाय-स्थान भी होता है। आठों ज्ञान होते हैं। सातों संयम होते हैं किंतु संयम, संयमासंयम और असंयम इन तीनोंसे रहित स्थान नहीं होता है। चारों दर्शन होते हैं। द्रव्य और भावके भेदसे छहों लेश्याएं होती
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.! संत-परूवणाणुयोगदार आला
1 ४२१ छ लेस्साओ, अलेस्सा वि अत्थिः दव्वेण छ लेस्सत्ति भणिदे सरीरस्स छन्धण्णा घेसचा । भावेण छ लेस्सा ति भाणदे जोग-कसाया छब्भेदं हिदा घेत्तव्या* । भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, णेव भवसिद्धिया णेव अभवसिद्धिया णत्थिः छ सम्मत्ताणि, सणिणो असणिणो, णेव सणिणो णेव असणिणो वि अत्थि; आहारिणो अणाहारिणो, सागारूवजुत्ता वा अणागारुवजुत्ता वा, सागारणगारेहि जुगवईवजुत्ता वि अस्थि ।
संपहि अपजत्ति-पजाय-विसिट्टे ओघे भण्णमाणे अस्थि मिच्छाइट्टी सासणसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी पमत्तसंजदा सजोगिकेवलि ति पंच गुणाणाणि, सत्त जीव. समासा, छ अपज्जतीओ पंच अपजत्तीओ चत्तारि अपजत्तीओ, सत्त गाण सत्त पाण
हैं और अलेश्यास्थान भी होता है। द्रव्यसे छहों लेश्याएं होती हैं ऐसा कथन करने पर शरीरसंबन्धी छह वणोंका ग्रहण करना चाहिये। भावसे नहीं लेश्याएं होती हैं। करने पर योग और कषायोंकी छह भेदोंको प्राप्त मिश्रित अवस्थाका ग्रहण करना चाहिये । भव्यसिद्धिक होते हैं और अभव्यसिद्धिक होते हैं, किंतु भव्यासिद्धिक और अभव्यसिद्धिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित स्थान नहीं होता है। छहों सम्यक्त्व होते हैं । संज्ञी होते है, असंज्ञी भी होते हैं, तथा तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानकी अपेक्षा संज्ञी और असंही विकल्प रहित भी जीव होते हैं । आहारक होते हैं और अनाहारक भी होते हैं। साकार उपयोगवाले होते हैं, अनाकार उपयोगवाले होते हैं और साकार तथा अनाकार इन दोनों उपयोगोंसे युगपन् उपयुक्त भी होते हैं।
अब अपर्याप्ति-पर्यायसे युक्त अपर्याप्तक जीवोंके, ओघालाप कहने पर---मिथ्याष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, प्रमतसंयत और सयोगिकेवली ये पांच गुणस्थान होते हैं। अपर्याप्तरूप सात जीवसमास होते हैं। अपर्याप्त संज्ञीके छहों अपर्याप्तियां, अपर्याप्त असंही और विकल त्रयोंके पांच अपर्याप्तियां और अपर्याप्त एकेन्द्रिय जीवोंके चार अपर्याप्तियां होती हैं । संशी, असंझी, चतुर्मिन्द्रय,
x वण्णोदयेण जणिदो सरीस्वण्णो दु दव्वदो लेस्सा | गो. जी. ४९४. * जोगपउत्ती लेस्सा कसायउदयाणरंजिया होई ॥ गो. जी. ४११.
नं.१
पर्याप्त जीवोंके सामान्य आलाप. | गु.जी. प प्रा. सं. ग. इं.का. यो. 'वे. ज्ञा. संय ६. है. भ. स स ई. आ. उ. । १४. ७६५.१०९ ४ ४ ५ ६ ११३४ ८ । ७. ४ द. ६ २६२ २ प. ५५.८७। - ओ.मि.
भा. म.. . अहा. साका.
अगअर्स. अजालनाका आ.मि. कार्म. के विना
be
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. छप्पाण पंच पाण चत्तारि पाण तिण्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, अदीदसण्णा वि अत्थि; चत्तारि गदीओ, एइंदियजादि-आदी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छकाया, ओरालियमिस्स-वेउव्वियामिस्स-आहारमिस्स-कम्मइयकायजोगेत्ति चत्तारि जोगा, तिण्णि वेद, अवगदवेदो वि अत्थिः चत्तारि कसाय, अकसाओ वि अत्थि; मणपजवविभंगणाणेहि विणा छण्णाण, चत्तारि संजम सामाइय-छेदोवडावण-जहाक्खादासंजमेहि, चत्तारि दंसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण छ लेस्साओः जम्हा सव्व-कम्मस्स विस्ससोवचओ सुकिलो भवदि तम्हा विग्गहगदीए वट्टमाण-सव्य-जीवाणं सरीरस्स सुक्कलेस्सा भवदि । पुणो सरीरं घेतूण जाव पज्जत्तीओ समाणेदि ताव छव्वण्ण-परमाणुपुंज-णिप्पजमाण-सरीरत्तादो तस्स सरीरस्स लेस्सा काउलेस्सेत्ति भण्णदे', एवं दो सरीरलेस्साओ भवंति । भावेण छ लेस्सेत्ति वुत्ते णरइय-तिरिक्ख-भवणवासिय-वाणवेंतरजोइसियदेवाणमपज्जत्तकाले किण्ह-णील-काउलेस्साओ भवति । सोधम्मादि-उवरिम
त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंकी अपेक्षा क्रमसे सात प्राण, सात प्राण, छह प्राण, पांच प्राण, चार प्राण और तीन प्राण होते हैं। चारों सज्ञाएं होती हैं और अतीत-संज्ञारूप स्थान भी होता है। चारों गतियां होती हैं। एकेन्द्रिय जाति आदि पांचों जातियां होती हैं। पृथिवीकाय आदि छहों काय होते हैं। औदारिकमिश्र, वैक्रियकमिश्र, आहारकमिश्र और कार्मणकाय इसप्रकार चार योग होते हैं। तीनों वेद होते हैं और अपगतवेदप भी स्थान होता है। चारों कषायें होती हैं और कषायरहित भी स्थान होता है। मनःपर्यय और विभंग-ज्ञानके विना छह ज्ञान होते हैं। सूक्ष्मसांपराय, परिहार विशुद्धि और संयमासंयमके विना सामायिक, छेदोपस्थापना, यथाख्यात और असंयम ये चार संयम होते हैं। चारों दर्शन होते हैं । द्रव्यलेश्याकी अपेक्षा कापोत और शुक्ल लेश्या होती है और भावलेश्याकी अपेक्षा छहों लेश्याएं होती हैं। अपर्याप्त अवस्थामें द्रव्यकी अपेक्षा कापोत और शुक्ल लेश्याएं ही क्यों होती हैं, आगे इसीका समाधान करते हैं कि जिस कारणसे संपूर्ण कर्मीका विस्रसोपचय शुक्ल ही होता है, इसलिये विग्रहगतिमें विद्यमान संपूर्ण जीवोंके शरीरकी शुक्ललेश्या होती है। तदनन्तर शरीरको ग्रहण करके जबतक पर्याप्तियोंको पूर्ण करता है तबतक छह वर्णवाले परमाणुओंके पुंजोंसे शरीरकी उत्पत्ति होती है, इसलिये उस शरीरकी कापोत लेश्या कही जाती है । इसप्रकार अपर्याप्त अवस्थामें शरीरसंबन्धी दो ही लेश्याएं होती हैं। भावकी अपेक्षा छहों लेश्याएं होती हैं ऐसा कथन करने पर नारकी, तिर्यंच, भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके अपर्याप्त-कालमें कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं होती हैं। तथा सौधर्मादि ऊपरके देवोंके अपर्याप्त कालमें पीत, पद्म और
१..........सब विग्गहे सुक्का । सबो मिस्सो देही कबोदवण्णो वे णियमा ॥ गो. जी. ४९८.
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे ओघालाववण्णणं
[४२३ देवाणमपज्जत्तकाले तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ भवंति । भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, सम्मामिच्छत्तेण विणा पंच सम्मत्ताणि, सणिणो असणिणो अणुभया वा, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता अणागारुवजुत्ता वा तदुभएण जुगवदुवजुत्ता वि अत्थि।
___ संपहि मिच्छाइट्टीणं ओघालावे भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, चोद्दस जीवसमासा, छ पजत्तीओ छ अपज्जत्तीओ पंच पज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ चत्तारि पज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण णव पाण सत्त पाण अझ पाण छ पाण सत्त पाण पंच पाण छप्पाण चत्तारि पाण चत्तारि पाण तिष्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, एइंदियजादि-आदी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छक्काया, आहार-दुगेण विणा तेरह जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिणि अण्णाण,
शुक्ल लेश्याएं होती हैं ऐसा जानना चाहिये। भव्यसिद्धिक होते हैं और अभव्यसिद्धिक भी होते हैं। सम्यग्मिथ्यात्वके धिना पांच सम्यक्त्व होते हैं। संक्षी होते हैं, असंही होते हैं और संशी, असंही इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी होते हैं। आहारक होते हैं और अनाहारक भी होते हैं। साकार उपयोगवाले होते हैं, अनाकार उपयोगवाले होते हैं और युगपत् उन दोनों उपयोगोंसे युक्त भी होते हैं।
__ अब मिथ्यादृष्टि जीवोंके ओघालाप कहने पर-एक मिथ्यात्व गुणस्थान, चौदहों जीवसमास, संक्षीके छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियांः असंशी और विकलत्रयों के पांच पर्याप्तियां. पांच अपर्याप्तियां: एकेन्द्रियोंके चार पर्याप्तियां चार अपर्याप्तियां: संज्ञीके दश प्राण, सात प्राणः असंज्ञीके नौ प्राण, सात प्राणः चतरिन्द्रियके आठ प्राण, छह प्राणा त्रीन्द्रियके सात प्राण, पांच प्राणः द्वीन्द्रियके छह प्राण, चार प्राण; एकेन्द्रियके चार प्राण, तीन प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, एकेन्द्रियजातिको आदि लेकर पाचों जातियां, पृथिवीकायको आदि लेकर छहों काय, आहारकद्विक अर्थात् आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोगके विना तेरह योग, तीनों वेद, चारों कषायें, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन,
नं.२
गु. जी. ५ । ७६ मि. अप.
अपर्याप्त जीवोंके सामान्य-आलाप. प. | प्रा. | सं. ग.ई. का. यो. ने.क. । ज्ञा. संय. द. ले. भ. | स.सांझ. आ.| उ. । अप. ७ ।४|४|५|६ ४ ३|४| ६ | ४ | ४ द. २२ ५ २ | २ २ ।
| औ. मि. मनः. सामा. का. म. सं. आहा. साका.
वै. ,, विभं. छे. शु. अ. असं. अना. अना.. आ." विना यथा. भा
यु-उ. कार्म.,
अ. सं. .
अक.
सा.
the
अवि.
सम्य. विना.
wrxm
असं.
सयो.
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, १. असंजमो, दो दंसण, दव्व-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो असणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता अणागारुवजुत्ता वा होति ।
तेसिं चेव मिच्छाइट्ठीणं पजत्तोघे भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, सत्त जीवसमासा, छ बज्जत्तीओ पंच पजतीओ चत्तारि पजत्तीओ, दस पाण णव पाण अट्ठ पाण सत्त पाण छप्पाण चत्तारि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, एइंदियजादि-आदी
द्रव्य और भावकी अपेक्षा छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक और अभव्यसिद्धिक, मिथ्यात्व, संशिक और असं शिक; आहारक और अनाहारकः साकार (शान ) उपयोगी और अनाकार ( दर्शन ) उपयोगी होते हैं।
उन्हीं मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्त-कालसंबन्धी ओघालाप कहने पर-एक मिथ्यात्व गुणस्थान, पर्याप्तसंबन्धी सात जविसमास, संज्ञीके छहों पर्याप्तियां, असंझी और विकलत्रयों के पांच पर्याप्तियां, एकेन्द्रियों के चार पर्याप्तियां, संशोके दश प्राण, असंहीके नौ प्राण, चतुरिन्द्रियके आठ प्राण, त्रीन्द्रियके सात प्राण, द्वीन्द्रियके छह प्राण, एकेन्द्रियके चार प्राण, चारों
नं.३
मिथ्यादृष्टि जीवोंके सामान्य-आलाप.
आ.
गु. जी. प. | प्रा. सं.ग. |इ. का. यो. वे. क. |ज्ञा | संय. द. ले. भ. | स. संज्ञि | आ. | उ. |
१४६ प. १०१७|४|४|५|६ १३ | ३ | ४ | ३ | १ | २ ६ | २ | १| २ | २ । २ मि. ६ अप. ९७
| अज्ञा. असं. चक्षु द्र. भ. मि. सं. आहा. | साका. ५प. ८६
अचक्षु. ६ अभ. असं. अना. अना. ५ अप
विना ४ प. |६४ ४ अप.४३
भा
नं. ४
मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्त-आलाप. गु.| जी. प. प्रा. । सं. ग. ई. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. सं. संक्षि. आ. उ १। ७ ।६ प.१० । ४४ ५६ १० ३ ४ १ २ ६२१) २१२ मि. पर्या. ५, ९
म. ४
असं. चक्षु. द्र. म. मि. सं. आहा साका. अचक्षु. ६ अभ असं.
अना.
अज्ञा.३
मा.
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे ओघालाववण्णणं
[४२५ पंच जादीओ, पुढवीकायादी छकाय, दस जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजभो, दो दंसण, दव्व-भारेहि छल्लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, साण्णणो असण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता अणागारुवजुत्ता वा होति ।
तेसिं चेव अपजत्तोघे भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, सत्त जीवसमासा, छ अपजत्तीओ पंच अपजत्तीओ चत्तारि अपज्जतीओ, सत्त पाण सत्त पाण छप्पाण पंच पाण चत्तारि पाण तिण्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, एइंदियजादि-आदी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छक्काया, तिण्णि जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, विभंगणाणेण विणा दो अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो असण्णिणो, आहारिणो
संज्ञाएं, चारों गतियां, एकोन्द्रियजाति आदि पाचों जातियां, पृथिवीकाय-आदि छहों काय, आहारकाद्विक और अपर्याप्तसंबन्धी तीन योगोंके विना दश योग, तीनों वेद, चारों कषायें, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, मिथ्यात्व, संज्ञिक, असंक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपर्याप्त कालसंबन्धी ओघालाप कहने पर-एक मिथ्यात्व गुणस्थान, अपर्याप्तसंबन्धी सात जीवसमास, संज्ञीके छहों अपर्याप्तियां, असंज्ञी और विकलत्रयोंके पांच अपर्याप्तियां, एकेन्द्रियोंके चार अपर्याप्तियां, संशोके सात प्राण, असंज्ञीके सात प्राण, चतुरिन्द्रियोंके छह प्राण, त्रीन्द्रियोंके पांच प्राण, द्वीन्द्रियोंके चार प्राण, एकेन्द्रियोंके तीन प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, एकोन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकायादि छहों काय, औदारिकमिश्र, वैक्रियकमिश्र और कार्मण ये तीन योग, तीनों वेद, चारों कषायें, विभंगावधिज्ञानके विना दो अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यकी अपेक्षा कापोत और शुक्ल लेश्या, भावकी अपेक्षा छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, मिथ्यात्व, संक्षिक, असंक्षिक, आहारक, अनाहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
...................
.......................................
नं. ५
| 0 be
मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपर्याप्त-आलाप. प. प्रा. सं. ग. ई. का | यो. वे. क. ज्ञा. | संय. द. ले. भ. | स. सनि । आ. उ. । ४.४ ५ ६ ३ ३४२१ २ द्र. २ २ १ २ २ । २
औ.मि. कुम. असं. चक्षु. का. म. मि. सं. आहा. साका. वै.मि. कुश्रु | अच. | शु. अभ. असं. अना. आना. कार्म.
भा.६
99urr-m
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२६ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता अणागारुवजुत्ता वा होंति ।
सास सम्माट्ठी मोघे भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, छ पजतीओ छ अपजत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, पंचिदियजादी, तसकाओ, तेरह जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिष्णि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्व-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता अणागारुवजुत्ता वि अस्थि ।
तेसिं चेव साससम्म इट्ठीणं पञ्जत्ताणमोघालावे भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गर्दाओ, पंचिंदिय जादी, तसकाओ, दस जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिष्णि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्व-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारु
सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके ओघालाप कहने पर - एक दूसरा गुणस्थान, संशी पर्याप्त और संज्ञी अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां: छहों अपर्याप्तियां, दश प्राण, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रिय जाति, त्रसकाय, आहारकद्विकके विना तेरह योग, तीनों वेद, चारों कषायें, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्य और भावरूप छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, सासादन सम्यक्त्व, संशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
[ १,१.
उन्हीं सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्त कालसंबन्धी ओघालाप कहने पर - एक दूसरा गुणस्थान, एक संशी पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, आहारका द्वक और अपर्याप्तसंबन्धी तीन योगोंके विना दश योग, तीनों वेद, चारों कषायें, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्य और भावरूप छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी
नं. ६ गु. जी. प. २६ प. सा. सं प ६ अ.
१
सं अ.
सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य-आलाप.
ले. भ. स. संज्ञि. | आ.
POETEST PERIODE
प्रा. सं. ग. इ. ) का. यो. वे. क. ज्ञा. ) संय. द. १० ४ ४ १ १ १३ ३ ४ ३ १ २ द्र. ६ १ १ अज्ञा. असं चक्षु. मा.६ भ. सासा
७
पंचे
स. आ.
अच.
द्वि. विना
उ. २
१ २
सं. आहा. साका अना अना.
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
[१२७
१, १.]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे ओघालाववण्णणं वजुत्ता वि होति अणागारुवजुत्ता वि।
तेसिं चेव अपजत्तार्ण भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ अपजत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णा, तिण्णि गदी णिरयगदीए विणा, पंचिंदियजादी तसकाओ, तिण्णि जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, विहंगणाणेण विणा दो अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्येण काउ-सुकलेस्साओ, भावेण छ लेस्सा; भवसिद्धिया, सासणसम्मतं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता अणागारुवजुत्ता वा होति ।
और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्त कालसंबन्धी ओघालाप कहने पर एक दूसरा गुणस्थान, एक संज्ञी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, मनोबल, वचनबल और श्वासोच्छासके विना सात प्राण, चारों संशाएं, नरकगतिके विना तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, असकाय, आहारकमिश्रके विना अपर्याप्त-संबन्धी तीन योग, तीनों वेद, चारों कषायें, विभंगज्ञानके विना दो अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ललेश्या, भावसे छहों लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं. ७
सासादन सम्यग्दृष्टियोंके पर्याप्त आलाप. | गु जी | प. प्रा. सं | ग. इं. | का.। यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. । ले. भ. स. सन्नि. आ. उ. । १ १६ १० ४ ४ १ १ । १० ३ ४ ३ १ २ द्र.६ १ १ १ १ २ पंच. स.
अज्ञा असं. चक्षु भा. ६ भ, सासा. सं. आहा. साका. अचक्षु.
अना.
नं
८
सासादन सम्यग्दृष्टियोंके अपर्याप्त आलाप. | गु | जी. प. प्रा. सं. ग. | इं. का. | यो. । वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. सं. सज्ञि. आ.| उ.। | १ | १ | ६ । ७४ | ३ | १ | १ | ३ |३|४| २ | १ | २ | द्र. १/१ १ / २ २ सा. सं.अ. अप. अप. न. पंच. त्रस.औ मि. कुम. असं. चक्षु. २ म.सासा. सं. आहा.साका. विना.
अना. अना.
कुत्र.
अच.
कामे.
भा.६
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२८ ] छक्खंडागमे जीवहाणं
[१, १. सम्मामिच्छाइट्ठीणमाघालावे भण्णमाणे अस्थि एवं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पजचीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दस जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कमाय, अण्णाण-मिस्माणि तिणि णाणाणि, असंजमो, दो दसण, दव्य-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, सम्मामिच्छत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुखजुत्ता होति अणागारुखजुत्ता वा ।
, असंजदसम्माइट्ठीणमोघ-परूवणे भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, छ पजत्तीओ छ अपञ्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, तेरह जोग, तिण्णिवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजमो, तिणि दसण, दव्य-भावहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, तिण्णि
- सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके ओघालाप कहने पर-एक तीसरा गुणस्थान, एक संक्षीपर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, असकाय, आहारकद्विक और अपर्याप्तसंबन्धी तीन योगोंके विना दश योग, तीनों वेद, चारों कषायें, अशान-मिश्रित आदिके तीनों ज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्य और भावरूप छहाँ लेझ्याएं, भव्यसिद्धिक, सम्यग्मिथ्यात्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
_ विशेष-मिश्रगुणस्थानवाले जीव पर्याप्तक ही होते हैं, इसलिये मिश्रगुणस्थानके उक्त सामान्यालाप ही पर्याप्तकके समझना चाहिये।।
असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके ओघालाप कहने पर एक चौथा गुणस्थान, संक्षी-पर्याप्त और संझी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां दश प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाए, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, आहारकाद्विकके विना तीनों वेद, चारों कषायें, तीन ज्ञान, असंयम, केवलदर्शनके विना तीन दर्शन, द्रव्य और भावरूप छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन
रह योग,
सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंके आलाप. | गु. जी | प. प्रा. सं.) ग./ ई. । का. ( यो. । वे. क. ज्ञा. | संय. द. ले. | म. स. संशि. आ. उ. | |२|१६ १०४४।१।१ । १० ३ ४ ३ १ २ द्र. ६१४१ १ १ २ सम्य.सं. पंचे. स. म. ४ ज्ञान. असं. चक्षु. भा.६ भ. सम्य. स. आहा. साका. अज्ञा. अचक्ष
अना. औ.१
व. ४
मिथ.
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.]
संत-पख्वणाणुयोगदारे आघालाववाणं सम्मत्ताणि, सण्णिणो, आहारिणो अगाहारिणी, सागारुखजुना वा होति अणागारुवजुत्ता वा।
असंजदसम्माइट्ठीणं पजत्ताणमोघालावे भण्णमाणे अस्थि एयं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दम पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दस जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजमो, तिणि दंसण, दन्य-भावहिं छ लेस्माओ, भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्ताणि, सण्णिणो. आहारिणो, सागारुखजुत्ता हाँति अणागारुवजुत्ता वा"।
सम्यक्त्व, संशिक, आहारक, अनाहारका साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्त कालसंबन्धी ओघालाप कहने पर-एक चौथा गुण. स्थान, संशी-पर्याप्त एक जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, आहारकद्विक और अपर्याप्तसंबन्धी तीन योगोंके बिना दश योग, तीनों वेद, चारों कषायें, तीन ज्ञान, असंयम, केवलदर्शनके विना तीन दर्शन, द्रव्य और भावरूप छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, औपशमिक क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं. १०
असंयतसम्यग्दृष्टियों के सामान्य आलाप. ग. जी. प. प्रा..सं.ग . का. यो. वे. क. ज्ञा संय. द. ले. भ. स. मंनि. आ. उ. १ २६५. १० ४ ४ १ २ ३ ३ ४ ३ । ।। ३ द्र.६१ ३ ११२ अवि.सं.प अ. ७ पंचे वस. आ.द्वि । 'म. असं. के. भा.६ भ. औ. सं. आहा.साका. 'म.अ.
| विना.
विना.
क्षा. अना. अना
क्षायो.
असंयतसम्यग्दृष्टियोंके पर्याप्त आलाप. प. प्रा. सं.ग. ई.का. यो. . क ज्ञा. संय. ६. ले.
। गु.
जी.
the
भ. स. संशि.
आ.
उ. ।
अबि सं. प. प.!
पंचे. त्रस. म ४ ।
म श्रु.
असं.के द.भा ६ भ. औ. सं. आहा. साका. विना.
क्षा. शायो.
अना.
वे.
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
४३० ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, १. तेसिं चेव अपजत्ताणमोघपरूवणे भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ अपजत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, तिणि जोग, इथिवेदेण विणा दो वेद, चत्तारि कसाय, तिष्णि णाण, असंजमो, तिणि दंसण, दव्येण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण छ लेस्साओ; णिरयादो आगंतूण मणुस्सेसुप्पण्ण-असंजदसम्माइट्ठीणमपजत्तकाले किण्ह-णील-काउलेस्साओ लम्भंति । भवसिद्धिया, तिष्णि सम्मचाणि, अणादिय-मिच्छाइट्टी वा सादियमिच्छाइट्टी वा चदुसु वि गदीसु उवसमसम्मत्तं घेतूण विदजीवा ण कालं करेंति । तं कथं णव्यदि त्ति वुत्ते आइरिय-वयणादो वक्खाणदो य णव्यदि । चारित्तमोह उवसामगा मदा देवेसु उववज्जंति ते अस्सिदण अपज्जत्तकाले उवसमसम्मत्तं लभदि। वेदगसम्मत्तं पुण देव-मणुस्सेसु अपञ्जत्तकाले लब्भदि, वेदगसम्मत्तेण सह गद-देव-मणुस्साणमण्णोण्णगमणागमण-विरोहाभावादो । कदकरणिजं पडुच वेदगसम्मत्तं तिरिक्ख-णेरइयाणमपजत्तकाले लब्भदि । खड्यसम्मत्तं पि चदुसु वि गदीसु पुवायु-वंधं पञ्च अपजत्तकाले
उन्हीं असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्त कालसंबन्धी ओघालाप कहने पर एक चौथा गुणस्थान, एक संझी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, मनोबल, वचनबल और आनापानके विना सात प्राण, चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिकमिश्र. वैक्रियकमिश्र और कार्मण ये तीन योग, स्त्रीवेदके विना दो वेद', चारों कषाय, मति, श्रुत और अवधि ये तीन ज्ञान, असंयम, चक्षु, अवक्षु और अवधि ये तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ललेश्या, भावसे छहों लेश्याएं होती हैं । छहों लेश्याएं होनेका यह कारण है कि नरकगतिसे आकर मनुष्यों में उत्पन्न होनेवाले असंयत-सम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्त कालमें कृष्ण, नील और कापोत ये तीन लेश्याएं पायीं जाती हैं। लेश्याओंके आगे भव्यसिद्धिक, तीनों सम्यक्त्व होते हैं, क्योंकि, अनादि मिथ्यादृष्टि अथवा सादि मिथ्यादृष्टि जीव चारों ही गतियों में उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण करके पाये जाते हैं, किन्तु मरणको प्राप्त नहीं होते हैं।
शंका-यह कैसे जाना जाता है कि, उपशम-सम्यग्दृष्टि जीव मरण नहीं करते हैं ?
समाधान-आचार्योंके वचनसे और (सूत्र) व्याख्यानसे जाना जाता है कि उपशम. सम्यग्दृष्टि जीव मरते नहीं है। किन्तु चारित्रमोहके उपशम करने वाले जीव मरते हैं और देवों में उत्पन्न होते हैं, अतः उनकी अपेक्षा अपर्याप्तकाल में उपशमसम्यक्त्व पाया जाता है । वेदकसम्यक्त्व तो देव और मनुष्योंके अपर्याप्तकालमें पाया ही जाता है, क्योंकि, वेदकसम्यक्त्वके साथ मरणको प्राप्त हुए देव और मनुष्यों के परस्पर गमनागमनमें कोई विरोध नहीं पाया जाता है। कृतकृत्यवेदककी अपेक्षा तो वेदकसम्यक्त्व तिर्यंच और नारकी जीवेंकि अपर्याप्त कालमें भी पाया जाता है। क्षायिक सम्यक्त्व भी सम्यग्दर्शनके पहले बांधी गई आयुके बंधकी अपेक्षासे चारों ही गतियोंके अपर्याप्तकालमें पाया जाता है, इसलिये असंयतसम्यग्दृष्टि जीवके अपर्याप्तकालमें तीनों ही सम्यक्त्व होते हैं।
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.]
संत-पख्वणाणुयोगदारे ओघालाबवण्णणं लब्भदि तेण तिण्णि सम्मत्ताणि अपजत्तकाले भवंति । सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अगागारुबजुत्ता वा ।
संजदासंजदाणमोघालावे भणमाणे आत्थि प्यं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पञ्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, दो गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, तिष्णिवेद, चत्वारि कसाय, तिष्णि णाण, संजमासंजम, तिणि दंसण, दव्येण छ लेस्साओ, भावेग तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ; केई सरीर-णिव्यत्तणहमागदपरमाणु-वण घेत्तूण संजदासंजदादीण भावलेस्सं परूवयंति । तण्ण घडदे, कुदो ? दव्य-भावलेस्साणं भेदाभावादो 'लिम्पतीति लेश्या' इति वचनव्याघाताच्च । कम्म-लेवहेददो जोग-कसाया चेव भाव-लेस्सा त्ति गेण्हिदव्यं । भवसिद्धिया, तिणि सम्मचाणि,
सम्यमत्वके आगे संक्षिक, आहारक, अनाहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
संयतासंयत जीवोंके ओघालाप कहने पर--एक पांचवा गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, तिथंच और मनुष्य ये दो गतियां, पंचेन्द्रिय जाति, त्रसकाय, चार मनोयोग, चार वचनयोग और औदारिककाय ये नौ योग, तीनों वेद, चारों कषायें, आदिके तीन ज्ञान, संयमासंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यकी अपेक्षा छहों लेश्याएं, भावकी अपेक्षा तेज, पद्म और शुक्ललेश्याएं होती हैं।
कितने ही आचार्य, शरीर-रचनाके लिये आये हुए परमाणुओंके वर्णको लेकर संयतासंयतादि गुणस्थानवी जीवोंके भावलेश्याका वर्णन करते हैं। किन्तु यह उनका कथन घटित नहीं होता है, क्योंकि, वैसा माननेपर द्रव्य और भावलेश्यामें फिर कोई भेद ही नहीं रह जाता है और 'जो लिम्पन करती है उसे लेश्या कहते हैं, इस आगम वचनका व्याघात भी होता है। इसलिये 'कमलेपका कारण होनेसे योग और कषायसे अनुरंजित प्रवृत्ति ही भावलेश्या है' ऐसा अर्थ ग्रहण करना चाहिये।
लेश्याओंके आगे भव्यसिद्धिक, तीनों सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और
असंयत लम्याग्रियोंके अपर्याप्त आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का यो. वे. क. ज्ञा.। संयद. ले. भ. सं. सज्ञि. आ. उ. १ १ ६ । ७ | ४ ४ ५ ५ ३ २ ४ ३ । १ ३ द्र.२ १ ३ । १ १ / २. .सं.अ. अप. अप पं . औ मि.१ स्त्री. मति. असं.के. द. का. शु. म औ. सं. आहा.साका
वे. मि. १ विना श्रुत. विना. भा.६ क्षा. अना. अना. कार्म. १ अव.
क्षायो.
आवि.
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
४३२ ] छक्खंडागमेजीवट्ठाण
[१, १. सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता वा होंति अणागारुवजुत्ता वा।
पमत्तसंजदाणमोघालावे भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, छप्पजत्तीओ, छ अपजत्तीओ, दस पाण, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एक्कारह जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, चत्तारि णाण, तिणि संजम, तिण्णि दसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ; भवसिद्धिया, तिमि सम्मत्ताणि, सणिणो, आहारिणो, सागारुखजुत्ता वा होति अणागारुवजुत्ता वा" ।
अनाकारोपयोगी होते हैं।
प्रमत्तसंयत जीवोंके ओघालाप कहने पर-रक गुणस्थान, दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां दश प्राण, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, ग्यारह योग, तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके चार ज्ञान, सामायिक छेदोपस्थापना और परिहारविशुद्धि ये तीन संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेज, पा और शुक्ल लेश्या, भव्यसिद्धिक, तीनों सम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
विशेषार्थ-यद्यपि टीकाकारने प्रथम, द्वितीय और चतुर्थ गुणस्थानके सामान्या
नं. १३
संयतासंयतोंके आलाप. गु.| जी.प.प्रा.से. ग. ई. का. यो. वे. क ज्ञा. संग. | द.
ले. म. स. संक्षि आ. उ. ।
सं.प.
म. पंचे. त्रस. म. ४
व.४ औ.१
मति संयमा. के. द. भा.३ भ. औ. श्रुत विना. शुभ. अव.
क्षायो.
सं. आहा. साका
अना.
क्षा.
नं. १४
प्रमत्तसंयत-आलाप । गुजी .पप्रा. सं. ग ई ! का. यो. वे. क. झा. 'संय. द. ले. भ. स. संशि. आ. उ. २२६ १०४१११ ११ ३ ४ ४ ३ ३ द्र.६१ ३११ २
सं.प. प. प. म. पंचे. त्रस. म. ४ के. सा. के.द. भा.३ भ. औ. सं. साका. सं.अ. ६ ७
व.४ IT. छे. विना,शुभ.
अना. अप. अप. औ.१
क्षायो.
आहा..
परि.
आहा.२
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दार ओघालाववण्णणं
। ४३३ ____ अप्पमत्तसंजदाणमोघालावे भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, तिणि सण्णाओ, असादावेदणीयस्स उदीरणाभावादो आहारसण्णा अप्पमत्तसंजदस्स णत्थि । कारणभूद-कम्मोदय-संभवादो उवयारेण भय-मेहुणपरिग्गहसण्णा अत्थि । मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, तिण्णि वेद,
लापोंके अतिरिक्त उनके पर्याप्त और अपर्याप्त संबन्धी आलापोंका स्वतन्त्ररूपसे कथन किया है फिर भी छठे गुणस्थानमें पर्याप्त और अपर्याप्त संबन्धी आलापोंका स्वतन्त्र कथन न करके केवल ओघालाप ही कहा गया है, इससे ऐसा प्रतीत होता है कि धवलाकारकी दृष्टि विग्रहगतिसंबन्धी गुणस्थानों में ही पृथक् रूपसे आलापोंके दिखानेकी रही है अन्य अपर्याप्त संवन्धी गुणस्थानों में नहीं। गोम्मटसार जीवकाण्डकी टोकामें भी अन्तमें आलापोंका कथन करते हुए टीकाकारने इसी सरणीको ग्रहण किया है। अतएव मूलमें छठे गुणस्थानमें पर्याप्त और अपर्याप्त संबन्धी आलापोंका पृथक रूपसे नहीं पाया जाना कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। फिर भी सर्व साधारण पाठकोंके परिक्षानार्थ वे यहां लिखे ज
प्रमत्तसंयतके पर्याप्तसंबन्धी ओघालापके कहनेपर-एक छठा गुणस्थान, एक संझी
जीवसमास. छहों पर्याप्तियां. उसों प्राण, चारो संज्ञाएं, मनप्यगति, पंचेन्द्रिय जातित्रसकाय, वैक्रियककाय और अपर्याप्तसंबन्धी चारों योगोंके विना दश योग, तीनों वेद, चारों कषाय, केवल-ज्ञानके विना चार ज्ञान, सामायिक, छेदोपस्थापना और परिहारविशुद्धि ये तीन संयम, केवल दर्शनके विना तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं और भावसे पति, पद्म और शुक्ल, ये तीन लेश्याएं, भव्यासद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारी, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
- अपर्याप्त अवस्थाको प्राप्त उन्हीं प्रमत्तसंयतोंके ओघालाप कहनेपर-एक छठा गुणस्थान, एक संज्ञी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, मन, वचनबल और श्वासोच्छ्वासके विना सात प्राण, चारों संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, एक आहारमिश्रकाययोग, एक पुरुष वेद, चारों कषाय, मनःपर्यय और केवलज्ञानके विना तीन शान, सामायिक और छेदोपस्थापना संयम, केवल दर्शनके विना तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत लेश्या, भावसे पति, पद्म और शुक्ल लेश्या, भव्यसिद्धिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये दो सम्यग्दर्शन, संक्षी, आहारी, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
अप्रमत्तसंयत जीवोंके ओघालाप कहनेपर-एक सातवां गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, आहार, भय और मैथुन ये तीन संज्ञाएं, होती हैं, क्योंकि, असातावेदनीय कर्मकी उदीरणाका अभाव हो जानेसे अप्रमत्तसंयतके आहारसंशा नहीं होती है। किन्तु भय आदि संशाओंके कारणभूत कर्मीका उदय संभव है, इसलिये उपचारसे भय, मैथुन और परिग्रहसंज्ञाएं हैं। संशाके आगे मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चार मनोयोग, चार वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग, तीनों वेद, चारों कषायें, केवलहानके
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
४३४ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, १. चत्तारि कसाय, चत्तारि णाण, तिणि संजम, तिण्णि दसण, दव्येण छ लेस्साओ, भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ, भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा" ।
___अपुव्यकरणाणमोघालावे भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाण, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, तिण्णि सण्णा, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, ज्झाणिमपुव्यकरणाणं भवदु णाम वचिबलस्स अत्थित्तं भासापजत्ति-सण्णिदपोग्गलखंध-जणिद-सत्ति-सब्भावादो। ण पुण वचिजोगो कायजोगो वा इदि ? न, अन्तर्जल्पप्रयत्नस्य कायगतसूक्ष्मप्रयत्नस्य च तत्र सत्त्वात् । तिणि वेद, चत्तारि कसाय, चत्तारि णाग, परिहारसुद्धिसंजमेण विणा दो संजम, तिण्णि दसण, दव्वेण छ लेस्ताओ, विना चार ज्ञान, सामायिक, छेदोपस्थापना और परिहारविशुद्धि ये तीन संयम, केवलदर्शनके विना तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं और भावसे तेज पद्म और शुक्ललेश्या, भव्यसिद्धिक, औपशामक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
अपूर्वकरण गुणस्थानवी जीवोंके ओघालाप कहनेपर-एक आठवां गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, आहारसंशाके विना शेष तीन संज्ञाएंमनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चार मनोयोग, चार वचनयोग, एक औदारिक, काययोग ये नौ योग होते हैं।
शंका-ध्यानमें लीन अपूर्वकरणगुणस्थानवी जीवोंके वचनबलका सद्भाव भले ही रहा आवे, क्योंकि, भाषापर्याप्तिनामक पौद्गलिक स्कन्धोंसे उत्पन्न हुई शक्तिका उनके सद्भाव पाया जाता है किन्तु उनके वचनयोग या काययोगका सद्भाव नहीं मानना चाहिए?
समाधान-नहीं, क्योंकि, ध्यान-अवस्थामें भी अन्तर्जल्पके लिये प्रयत्नरूप वचनयोग और कायगत-सूक्ष्म-प्रयत्नरूप काययोगका सत्त्व अपूर्वकरण गुणस्थानवी जीवोंके पाया ही जाता है इसलिये वहां वचनयोग और काययोग भी संभव है।
___ योगोंके आंगे तीनों वेद, चारों कषायें, केवल ज्ञानके विना शेष चार ज्ञान, सामायिक और छेदोपस्थापना ये दो संयम, केवलदर्शनके विना तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे
नं. १५
अप्रमत्तसंयतोंके आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. । वे. क. ज्ञा. 'संय. द. । ले. | म. स. संक्षि आ| उ. |
१ १ ६१० ३ १ १ १ ९ ३ ४ ४ ३ ३ । ६ १ ३ । १ १ २ अप्र..प. आहा. म.पं. स. म.४
के. सा. के. द्र. भ. आ. सं. : साका. विना.
विना. छे. विना. ३ । क्षा.!
क्षाया.
5. ll
व.४
अना.
आ.
परि.
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १. ]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे ओघालाववण्णणं
[ ४३५
भावेण सुक्कलेस्सा, भवसिद्धिया, दो सम्मतं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
पढम- अणियद्वीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणद्वाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जतीओ, दस पाण, दो सण्णा, अपुव्वकरणस्स चरिम-समए भयस्त उदीरणोदयो णडो तेण भयसण्णा णत्थि । मणुमगदी, पंचिदियजादी, तसकाओ, णव जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, चत्तारि णाण, दो संजम, तिण्णि दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया, दो सम्मतं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा " ।
संज्ञिक,
अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके प्रथम भागवत जीवोंके ओघालाप कहनेपर - एक नौवां गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, मैथुन और परिग्रह ये दो संज्ञाएं होती हैं । दो संज्ञाएं होने का कारण यह है कि अपूर्वकरण गुणस्थानके अन्तिम समय में भयकी उदीरणा तथा उदय नष्ट हो गया है, इसलिये यहांपर भयसंज्ञा नहीं है । उसके आगे मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चार मनोयोग, चार वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग, तीनों वेद, चारों कषायें, केवलज्ञानके विना चार ज्ञान, सामायिक और छेदोपस्थापना ये दो संयम, केवलदर्शन के विना तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्याः भव्यसिद्धिक, औपशमिक और क्षायिक ये दो सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
केवल शुक्ललेश्या, भव्यसिद्धिक, औपशमिक और क्षायिक ये दो सम्यक्त्व, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
नं. १६
गु.जी. प. प्रा. १७ ६ १०
मं
सं.
ग. ई. का.
३ । १ १ १ आहा. म. विना.
अपूर्वकरण-आलाप.
वे. क. ज्ञा. संय.
३ | ४ ४ २ के. सा. विना. छे.
यो.
९ म. ४
व. ४
औ. १
नं. १७
१ १
१
१
गु. जी. | प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. व. क. ज्ञा. ६ १०२ 9 ९ ३ ४ ४ अनि संप. म. म. पंचे. स. म. ४ के. परि.
व. ४
प्र. भा.
औ. १
द. ले. / भ.
३ द्र. ६
भा. १
शुक्र
ی
श्र
अनिवृत्तिकरण- प्रथमभाग-आलाप.
१ भ.
स. संज्ञि.! आ.
२
उ.
१.
१
आहा. साका. अना.
संय. द.
ले. भ. स. संज्ञि. | आ.
उ. २
२
१ २ १ १ सा. के. द. द्र. भ. आ. सं. आहा. साका. विना. छ. विना. १ क्षा
आना.
भा.
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
४३६ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१,१. विदिय-ट्ठाण-विद-अणियट्टीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, परिग्गहसण्णा, अंतरकरणं काऊण पुणो अंतोमुहुत्तं गंतूण वेदोदओ णट्ठो तेण मेहुणसण्णा णत्थि । मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, अवगदवेदो, चत्तारि कसाय, चत्तारि णाण, दो संजम, तिणि दंसण, दब्बेण छ लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया, दो सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा ।
तदिय-ट्ठाण-ट्ठिद-आणियट्टीणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पञ्जत्तीओ, दस पाण, परिग्गहसण्णा, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, अवगदवेदो, तिणि कसाय, वेदेसु खीणेसु पुणो अंतोमुहुतं गंतूण कोधोदयो णस्सदि तेण कोधकसाओ णत्थि । चत्तारि णाण, दो संजम, तिणि
अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके द्वितीय भागवर्ती जीवोंके ओघालाप कहने पर एक नौवां गुणस्थान, एक संझी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, परिग्रहसंज्ञा होती है। एक परिग्रह संशाके होनेका यह कारण है कि अन्तरकरण करनेके अनन्तर अन्तर्मुहूर्त जाकर वेदका उदय नष्ट हो जाता है, इसलिये द्वितीय भागवर्ती जविके मैथुनसंज्ञा नहीं रहती है। संज्ञा आलापके आगे मनुष्यगति, पंचेद्रियजाति, त्रसकाय, पूर्वोक्त नौ योग, अपगतवेद, चारों कषायें, केवलज्ञानके विना चार ज्ञान, सामायिक, छेदोपस्थापना ये दो संयम, केवलदर्शनके विना तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं और भावसे शुक्ललेश्या, भव्यसिद्धिक, औपशमिक और क्षायिक ये दो सम्यक्त्व, संज्ञी, आहारी, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते है।
__ अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके तृतीयभागवर्ती जीवोंके ओघालाप कहनेपर--एक नौवां गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, परिग्रहसंज्ञा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, पूर्वोक्त नौ योग, क्रोधकषायके विना तीन कषायें होती हैं। तीन कषायोंके होनेका यह कारण है कि तीनों वेदोंके क्षय हो जाने पर पुनः एक अन्तर्मुहूर्त जाकर क्रोधकषायका उदय नष्ट हो जाता है, इसलिये इस भागमें क्रोधकषाय नहीं है । आगे केवलज्ञानके विना चार ज्ञान, सामायिक और
नं. १८
अनिवृत्तिकरण-द्वितीयभाग-आलाप. | गु. जी. प. | प्रा. | सं. ग. इ. ) का. ( यो. वे. क ज्ञा. ) संय. द. । ले. भ. स. संज्ञि. | आ. उ. |
अनि.संप.
परि.
म.पंचे. स.भ.४.
व ४
ble
के. सा. के. द. द्र. | भ. औ. सं. आहा. साका विना. छे. विना. १
अना.
क्षा.
-
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-पख्वणाणुयोगदारे औघालावषण्णणं
[४३७ दसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण सुकलेस्सा; भवसिद्धिया, दो सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा" ।
चउ-ढाण-ट्ठिद-अणियट्टीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छप्पजत्तीओ, दस पाण, परिग्गहसण्णा, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, अवगदवेदो, दो कसाय, कोधोदए विणढे पुणो अंतोमुहुत्तं गंतूण माणोदओ वि णस्सदि तेण माणकसाओ तत्थ णत्थि । चत्तारि णाण, दो संजम, तिण्णि दसण, दव्येण छ लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया, दो सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा ।। छेदोपस्थापना ये दो संयम, केवलदर्शनके विना तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या, भव्यासिद्धिक, औपशमिक और क्षायिक ये दो सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
___ अनिवृतिकरण गुणस्थानके चतुर्थभागवर्ती जीवोंके ओघालाप कहने पर एक नौवां गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, एक परिग्रह संक्षा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, पूर्वोक्त नौ योग, अपगतवेद, माया और लोभ ये दो कषायें होती हैं। दो कषायोंके होनेका यह कारण है कि क्रोधकषायके उदय नष्ट होने पर पुन: एक अन्तर्मुहर्त आगे जाकर मानकषायका उदय भी नष्ट हो जाता है इसलिये मानकषाय इस भागवर्ती जीवोंके नहीं है। आगे केवलज्ञानके विना चार ज्ञान, सामायिक और छेदोपस्थापना ये दो संयम, केवलदर्शनके विना तीन दर्शन, व्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या, भव्यसिद्धिक, औपशमिक और क्षायिक ये दो सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं. १२ गु. जी. प. १ । १ । ६ अनि. सं.प.
अनिवृत्तिकरण-तृतीयभाग-आलाप. प्रा. सं ग.ई. का.. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. (ले.म. स. मंझि. आ. उ. १०/१/१ १ १ ९ . ३ ४ । २ ३ । ६१ २ १ १ २
म. .. म. ४ . के. सा. के द.'द्र. भ. औ. सं. आहा. साका. FE.४ विना छे. विना. १ क्षा.
अना.
अपग. ० को. विना.
आ.१ ।
भा.
नं.२०
अनिवृत्तिकरण चतुर्थभाग-आलाप. । गु. जी. प. प्रा. सं. ग./ इं.का. यो. वे. क. |ज्ञा | संय. द. ले.
म.स. संज्ञि | आ. |
उ.
o
अनि.सं प. चतु.
प. म. पंचे. बस म. ४
व. ४ औ.१
bla
माया. के. सा. के.द. द्र. भ. औ.सं. आहा. साका. लोभ. विना. छे. विना १ क्षा .
अना.
भा.
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
४३८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, १. पंचम-ट्टाण-हिद-आणियट्टीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छप्पज्जत्तीओ, दस पाण, परिग्गहसण्णा, मणुसगदी, पंचिदियजादी, तसकाओ, णव जोग, अवगदवेदो, लोभकसाओ, माणोदये विणटे पुणो अंतोमुहुत्तं गंतूण माओदओ वि णस्सदि तेण मायाकसाओ तत्थ णत्थि । चत्तारि णाण, दो संजम, तिण्णि दसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया, दो सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा ।।
सुहुमसांपराइयाणमोघालावे भण्णभाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, सुहुमपरिग्गहसण्णा, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, अवगदवेदो, सुहुमलोभकसाओ, चत्तारि णाण, सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजमो, तिण्णि दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण शुक्ललेस्सा; भवसिद्धिया, दो सम्मत्तं,
अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके पंचम भागवर्ती जीवोंके ओघालाप कहनेपर-एक नौधा गुणस्थान, एक संज्ञा-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, परिग्रहसंज्ञा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, पूर्वोक्त नौ योग, अपगतवेद, लोभकपाय है। लोभकषाय होनेका यह कारण है कि मानकषायके उदयके नष्ट हो जाने पर पुनः एक अन्तर्मुहर्त आगे जाकर मायाकषायका उदय भी नष्ट हो जाता है, इसलिए मायाकपाय इस भागमें नहीं है। आगे केवलज्ञानके विना चार ज्ञान, सामायिक और छेदोपस्थापना ये दो संयम, केवलदर्शनके विना तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या, भव्यसिद्धिक, औपशमिक और क्षायिक ये दो सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानवी जीवोंके ओघालाप कहनेपर-एक दशवां गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, सूक्ष्म परिग्रहसंज्ञा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिक काययोग ये नौ योग, अपगतवेद, सूक्ष्म लोभकषाय, केवलज्ञानके विना चार ज्ञान, सूक्ष्मसाम्परायविशुद्धि संयम, केवलदर्शनके विना तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या, भव्यसिद्धिक,
नं. २१
अनिवृत्तिकरण-पंचमभाग-आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं ग. ई.का. । यो. ये. क. ज्ञा. संय | द. ले. भ.
स. संशि. आ.
3.
२
प.
पंचे -
स. म.४
अनि. सं.प. पंच. भा.
अपग. 01
| के. सा. के. द. द. भ. औ. सं. विना. छे. विनाः १क्षा .
भा.
आहा साका.
अना.
औ.१
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १. ]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे ओघालावण्णणं
सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
वसंतकसायाण मोघालावे भण्णमाणे अस्थि एयं गुणट्टाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, उवसंतसण्णा, मणुसगदी, पंचिदियजादी, तसकाओ, व जोग, अवगदवेदो, उवसंतकसाओ, चत्तारि णाण, जहाक्खादसुद्धिसंजमो, तिण्णि दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा; केण कारणेण सुक्कलेस्सा ? कम्म-णोकम्मलेव- णिमित्त-जोगो अस्थि त्ति । भवसिद्धिया, दो सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारु
औपशमिक और क्षायिक ये दो सम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
उपशान्तकषाय गुणस्थानवर्ती जीवोंके ओघालाप कहने पर - एक ग्यारहवां गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, उपशान्तसंज्ञा होती है। संज्ञाके उपशान्त होने का यह कारण है कि यहांपर मोहनीय कर्मका पूर्ण उपशम रहता है, इसलिये उसके निमित्तसे होनेवाली संज्ञाएं भी उपशान्त ही रहती हैं, अतएव यहां उपशान्तसंज्ञा कही । आगे मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिक काययोग ये नौ योग, अपगतवेद, उपशान्तकषाय, केवलज्ञानके विना चार ज्ञान, यथाख्यातशुद्धिसंयम, केवलदर्शन के विना तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या होती है ।
शंका- जब कि इस गुणस्थानमें कषायों का उदय नहीं पाया जाता है, तो फिर यहां शुक्ललेश्या किस कारण से कही ?
समाधान- यहां पर कर्म और नो कर्मके लेपके निमित्तभूत योगका सद्भाव पाया जाता है, इसलिये शुक्ललेश्या कही है ।
लेश्याके आगे भव्यसिद्धिक, औपशमिक और क्षायिक ये दो सम्यक्त्व, संशिक,
नं. २२
सूक्ष्मसाम्पराय -आलाप
गु. जी. प. प्रा. सं. ग.) ई. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द.
६ १०
१ १ १
९
म. ४
व. ४
औ. १
१
१
सू. सं. प.
[ ४३९
सू. प. म.
9.
०
ले. भ. स. ( संक्षि १ ३ ६ १ २ १ सू. लो. के. सूक्ष्म. के. द. द्र. भ. औ. सं. क्षा.
४ १
विना
विना । १
भा
शु.
आ.
१ आहा.
उ.
२ साका. अनाका.
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
५४० छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. वजुत्ता हाँति अणागारुवजुत्ता वा ।
खीणकसायाणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, खीणसण्णा, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, अवगदवेदो, खीणकसाओ, चत्तारि णाण, जहाक्खादसुद्धिसंजमो, तिण्णि दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ भावेण सुक्कलेस्सा, भवसिद्धिया, खइयसम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा।
सजोगिकेवलीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, दो जोवनमासा, छ पजनीओ,
आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
क्षीणकषाय गुणस्थानवी जीवोंके ओघालाप कहने पर-एक बारहवां गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, क्षीण संशा होती है। क्षीणसंज्ञाके होनेका यह कारण है कि कषायोंका यहां पर सर्वथा क्षय हो जाता है, इसलिये संज्ञाओंका क्षीण हो जाना स्वाभाविक ही है । आगे मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग, अपगतवेद, क्षीणकषाय, केवलज्ञानके विना चार शान, यथाख्यातशुद्धिसंयम, केवल दर्शनके विना तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं,
शकलेल्या, भव्यसिद्धिक, क्षायिक सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
सयोगिकेवलियोंके ओघालाप कहने पर--एक तेरहवां गुणस्थान, संझी-पर्याप्त और संशी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां और छहों अर्पयाप्तयां होती है।
उपशान्तकपाय-आलाप.
मं.२३ । गु.जी. प. प्रा.सं
ग. ई. का.
यो.
सं.प. .
o 'be
to the
ये. क. बा. संय. द. ले. भ. सं. संज्ञि. आ. | उ. | ०४१। ३ द्र.६१ २११ । २ अक. के. यथा के द. भा. शु. भ. औ. सं. आहा. साका. विनाक्षा ..
अना.
म
प.
स.
नं.२४
क्षीणकषाय-आलाप. | गु. जी. प.प्रा. सं. ग. ई. का. यो. वे. क. ना. संय. द. ले. 'भ.स. : संज्ञि. आ. ११६ १०० १११ ९ ०० ४ १ ३ द्र. ६.१ १ १ १ क्षी. म. पं. स. म. ४ के. यथा. के. द. भा. शु. भ.क्षा. सं. । आ.
व. ४ लावेना. विना.
- क्षीण. - सं. प.
उ. । २ साका. अना.
-
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-पख्वणाणुयोगद्दारे ओघालाववण्णणं
[ ४४१ छ अपञ्जत्तीओ, केवली कवाड-पदर-लोगपूरण-गओ पञ्जत्तो अपञ्जत्तो वा ? ण ताव पज्जत्तो, 'ओरालियमिस्सकायजोगो अपज्जत्ताणं' इच्चेदेण मुत्तेण तस्स अपजत्तसिद्धीदो। सजोगिं मोत्तण अण्णे ओरालियमिस्सकायजोगिणो अपजत्ता 'सम्मामिच्छाइट्ठि-संजदासंजद-संजदट्ठाणे णियमा पज्जत्ता' त्ति सुत्त-णिदेसादो। ण, आहारमिस्सकायजोगपमत्तसंजदाणं पि पजत्तयत्त-प्पसंगादो। ण च एवं, 'आहारमिस्तकायजोगो अपजत्ताणं, त्ति सुत्तेण तस्स अपजत्तभाव-सिद्धीदो। अणवगासत्तादों एदेण सुत्तेण
शंका-कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्धातको प्राप्त केवली पर्याप्त हैं या अपर्याप्त ?
समाधान--उन्हें पर्याप्त तो माना नहीं जा सकता, क्योंकि, 'औदारिकमिश्रकाययोग अपर्याप्तकोंके होता है, इस सूत्रसे उनके अपर्याप्तपना सिद्ध है, इसलिये वे अपर्याप्तक ही हैं।
शंका-'सम्याग्मिथ्यादृष्टि, संयतासंयत और संयतोंके स्थानमें जीव नियमसे पर्याप्तक होते हैं, इस प्रकार सूत्र-निर्देश होनेके कारण यही सिद्ध होता है कि सयोगीको छोड़कर अन्य औदारिकमिश्रकाययोगवाले जीव अपर्याप्तक हैं। यहां शंकाकारका यह अभिप्राय है कि औदारिकमिश्रयोगवाले जीव अपर्याप्तक होते हैं यह सामान्य विधि है और सम्यग्मिथ्यादृष्टि संयतासंयत और संयत जीव पर्याप्तक होते हैं यह विशेष विधि है और संयतों में सयोगियोंका अन्तर्भाव हो ही जाता है अतएव · विशेषविधिना सामान्यविधिर्बाध्यते' इस नियमके अनुसार उक्त विशेष-विधिसे सामान्य-विधि बाधित हो जाती है जिससे कपाटादि समुद्धातगत केवलीको अपर्याप्त सिद्ध करना असंभव है ?
समाधान- ऐसा नहीं है. क्योंकि, यदि 'विशेष-विधिसे सामान्य-विधि बाधित होती है। इस नियमके अनुसार 'औदारिकमिश्रकाययोगवाले जीव अपर्याप्तक होते हैं। यह सामान्य-विधि 'सम्यग्मिथ्यादृष्टि आदि पर्याप्तक होते हैं। इससे बाधी जाती है तो आहारमिश्रकाययोगवाले प्रमत्तसंयतोंको भी पर्याप्तक ही मानना पड़ेगा, क्योंकि, वे भी संयत हैं । किंतु ऐसा नहीं है, क्योंकि, 'आहारकमिश्रकाययोग अपर्याप्तकोंके होता है। इस सूत्रसे वे अपर्याप्तक ही सिद्ध होते हैं।
शंका-आहारमिश्रकाययोग अपर्याप्तकोंके ही होता है' यह सूत्र अनवकाश है,
१ जा. सं सू. ७६.२ जी. सं. सू. ९०, ३ जी. सं. सू. ७८
४ अन्तरंगादप्यपवादो वीयान् । परि. शे. पृ. ३५८. येन नाप्राप्त यो विधिरारभ्यते स तस्य वाधको भवति । येन नाप्राप्ते इत्यस्य यत्कर्तृकावश्यकप्राप्तावित्यर्थो नद्वयस्य प्रकृतार्थदाढर्थबोधकत्वात् । एवं च विशेषशास्त्रोदेश्यविशेषधर्मावच्छिन्नवृत्तिसामान्यधर्मावच्छिन्नाद्देश्यकशास्त्रस्य विशेषशाखेण वाधः । तदप्राप्तियोग्येऽचारितार्थं घेतस्य वाधक वे वीजम् । परि. शे ३५९, ३६८.
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
४४२ ]
छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, १.
संजदट्ठाणे णियमा पत्ता ' त्ति एदं सुतं बाहिञ्जदि, 'ओरालियमिस्सकायजोगो अपज्जत्ताणं'' ति एदेण ण बाहिज्जदि सावगासत्तेण बलाभावादों । ण, 'संजदट्ठाणे णियमा पज्जत्ता'' त्ति एदस्स वि सुत्तस्स सावगास त्तदंसणादो । सजोगिट्ठाणं दोसु वि सुत्ते सावगासेस जुगवं ढुक्केसु ' संजदट्ठाणे णियमा पज्जत्ता' ' त एदेण सुत्तेण ओरालियमिस्सकायजोगो अपज्जत्ताणं ' ति एदं सुत्तं बाहिज्जदि परत्तादों । ण, परसहो इवाओं तिघे पमाणे पुव्वेण बाहिज्जदि ति अणेयंतियादो । नियम- सद्दो
6
अर्थात् इस सूत्र की प्रवृत्तिके लिये कोई दूसरा स्थल नहीं है, अतः इस सूत्र से 'संयतोंके स्थानमें जीव नियमसे पर्याप्तक ही होते हैं' यह सूत्र बाधा जाता है। किंतु औदारिकमिश्रकाययोग अपर्याप्तकोंके ही होता है' इस सूत्र से 'संयतोंके स्थान में जीव पर्याप्तक ही होते हैं यह सूत्र नहीं बाधा जाता, क्योंकि, औदारिकमिश्र काययोग अपर्याप्तकोंके होता है' यह सूत्र सावकाश होनेके कारण, अर्थात्, इस सूत्रकी प्रवृत्तिके लिये सयोगियोंको छोड़कर अन्य स्थल भी होनेके कारण, निर्बल है अतः आहारकसमुद्वातगत जीवोंके जिसप्रकार अपर्याप्तपना सिद्ध किया जा सकता है उसप्रकार समुद्घातगत केवलियोंके नहीं किया जा सकता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, 'संयतोंके स्थानमें जीव नियमसे पर्याप्तक होता है ' यह सूत्र भी सावकाश देखा जाता है, अर्थात्, सयोगीको छोड़कर अन्य स्थल में भी इस सूत्रकी प्रवृत्ति देखी जाती है, अतः निर्बल है और इसलिये ' औदारिकमिश्रकाययोग अपर्याप्तोंके ही होता है' इस सूत्रकी प्रवृत्तिको नहीं रोक सकता है ।
शंका- पूर्वोक्त समाधान से यद्यपि यह सिद्ध हो गया कि पूर्वोक्त दोनों सूत्र सावकाश होते हुए भी सयोगी गुणस्थानमें युगपत् प्राप्त हैं, फिर भी ' परो विधिर्बाधको भवति' अर्थात्, पर विधि बाधक होती है, इस नियमके अनुसार 'संयतोंके स्थानमें जीव नियमसे पर्याप्तक होते हैं' इस सूतके द्वारा 'औदारिकमिश्रकाययोग अपर्याप्तकोंके ही होता है ' यह सूत्र बाधा जाता है, क्योंकि, यह सूत्र पर है ?
•
समाधान नहीं, क्योंकि, परो विधिर्बाधको भवति' इस नियम में पर शब्द इट अर्थात् अभिप्रेत अर्थका वाचक है, पर शब्दका ऐसा अर्थ लेनेपर जिसप्रकार 'संयतस्थान में जीव नियमसे पर्याप्तक होते हैं' इस सूत्र से औदारिकमिश्रकाययोग अपर्याप्तकोंके होता
1
१ जी. सं. सू. ९०.
२ जी. सं. सू. ७८.
३ अपवादो यदन्यत्र चरितार्थस्तर्हि अन्तरंगेण वाध्यते निरवकाशत्वरूपस्य वाधकत्ववीजस्याभावात् । परि०
शे. पृ. ३८६.
४ पूर्वात्परं बलवत् विप्रतिषेधशास्त्रात् (विप्रतिषेधे परं कार्यमिति सूत्रात्) पूर्वस्य परं बाधकमिति यावत् । परि. शे. पृ. २३७.
२ विप्रतिषेधसूत्रस्थपरशब्दस्येष्टवाचित्वम् । परि. शे. पृ. २४५.
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-पख्वणाणुयोगद्दारे ओघालाववण्णणं
[४४३ सप्पओजणो णिप्पाजणो ? ण विदिय-पक्खो, पुप्फयंत-बयण-विणिग्गयस्स णिप्फलत्तविरोहादो । ण चेदस्स सुत्तस्स णिचत्त-पयासण-फलं, णियम-सद्द-वदिरित्त-सुत्ताणमणिच्चत्तप्पसंगादो । ण च एवं, ओरालियकायजोगो पज्जत्ताणं, त्ति सुत्ते णियमाभावेण अपज्जत्तेसु वि ओरालियकायजोगस्स आत्थित्त-प्पसंगादो । तदो णियम-सद्दो णावओ। अण्णहा अणत्थयत्त-प्पसंगादो । किमेदेण जाणाविज्जदि ? ' सम्मामिच्छाइटि-संजदासंजदसंजद-हाणे णियमा पज्जत्ता' त्ति एदं मुत्तमणिचमिदि तेण उत्तरसरीरमुट्ठाविदसम्मामिच्छाइट्टि-संजदासंजद संजदाण कवाड-पदर-लोगपूरण-गद-सजोगीणं च सिद्धम
है' यह सूत्र बाधा जाता है, उसीप्रकार पूर्व अर्थात् 'औदारिकमिश्रकाययोग अपर्याप्तकोंके होता है ' इस सूत्रसे संयतस्थानमें जीव नियमसे पर्याप्तक होते हैं, यह सूत्र भी बाधा जाता है, अतः शंकाकारके पूर्वोक्त कथनमें अनेकान्त दोष आ जाता है।
शंका-जब कि कपाट-समुद्धातगत केवली-अवस्थामें अभिप्रेत होनेके कारण 'औदारिक मिश्रकाययोग अपर्याप्तकोंके होता है' यह सूत्र पर है तो 'संयतस्थानमें जीव नियमसे पर्याप्तक होते हैं, इस सत्र में आये हुए नियम शब्दकी क्या सार्थकता रह गई ? और ऐसी अवस्थामें यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि उक्त सूत्रमें आया हुआ नियम शब्द सप्रयोजन है कि निष्प्रयोजन ?
समाधान-इन दोनों विकल्पोंमेंसे दूसरा विकल्प तो माना नहीं जा सकता है, क्योंकि पुष्पदन्तके वचनसे निकले हुए तत्त्वमें निरर्थकताका होना विरुद्ध है । और सूत्रकी नित्यताका प्रकाशन करना भी नियम शब्दका फल नहीं हो सकता है, क्योंकि, ऐसा माननेपर जिन सूत्रोंमें नियम शब्द नहीं पाया जाता है उन्हें अनित्यताका प्रसंग आ जायगा। परंतु ऐसा नहीं है, क्योंकि. ऐसा माननेपर । औदारिककाययोग पर्याप्तकोंके होता है । इस सूत्रमें नियम शब्दका अभाव होनेसे अपर्याप्तकोंमें भी औदारिककाययोगके अस्तित्वका प्रसंग प्राप्त होगा, जो कि इष्ट नहीं है। अतः सूत्रमें आया हुआ नियम शब्द ज्ञापक है नियामक नहीं। यदि ऐसा न माना जाय तो उसको अनर्थकपनेका प्रसंग आ जायगा।
शंका-इस नियम शब्दके द्वारा क्या ज्ञापित होता है ?
समाधान-इससे यह ज्ञापित होता है कि 'सम्यग्मिथ्यादृष्टि संयतासंयत और संयतस्थानमें जीव नियमसे पर्याप्तक होते हैं ' यह सूत्र अनित्य है। अपने विषयमें सर्वत्र समान प्रवृत्तिका नाम नित्यता है और अपने विषयमें ही कहीं प्रवृत्ति हो और कहीं न हो इसका नाम अनित्यता है। इससे उत्तरशरीरको उत्पन्न करनेवाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि, और संयतासंयतोंके तथा कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्धातको प्राप्त केवलियोंके अपर्याप्तपना
१ कृताकृतप्रसंगि नित्यं तद्विपरीतमनित्यम् । परि. शे. पू. २५०. २ जी. से. सू. ७६.
३ जी. सं. सू. ९०. ४ प्रतिषु 'मि तेण ' इति पाठः।
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
हडागमे जीवाणं
४४४ ]
पज्जतं ।
अद्धारद्ध सरीरी अपज्जतो गाम ण व सजोगम्मि सरीर-पट्टवर्णमत्थि, तदो ण तस्स अपज्जत्तमिदि ण, छ-पज्जति सत्ति वज्जियस्स अपज्जत - ववएसादो । छहि इंदिएहि विणा चत्तारि पाणा दो वा दवेदिवाणं णिष्पत्ति पहुच के वि दस पाणे भगति ! तण घडदे | कुदो ? भाविंदियाभावादी । भाविदियं णाम पंचहमिंदियाणं खओवसमो ।
[ १, १.
सो खीणावर अस्थि । अथ दविदियम्स जदि ग्रहणं कीरदि तो सण्गीणमपज्जत्तकाले सत्त पाणा पिंडिदूण दो चेव पागा भवंति, पंचण्हं दव्वेदियाणमभावादो । तम्हा
सिद्ध हो जाता है ।
विशेषार्थ — सम्मामिच्छाइट्टि - संजदासंजद संजद-हाणे णियमा पजत्ता' इस सूत्रको अनित्य बतलाकर उत्तरशरीरको उत्पन्न करनेवाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संयतासंयतों को भी जो अपर्याप्तक सिद्ध किया है, इससे ऐसा प्रतीत होता है कि इस कथनसे टीकाकारका यह अभिप्राय होगा कि तीसरे गुणस्थानमें उत्तरवैक्रियिक और उत्तर- औदारिक तथा पांचवें गुणस्थानमें उत्तर-औदारिकको उत्पन्न करनेवाले जीव जबतक उस उत्तर- शरीरकी पूर्णता नहीं कर लेते हैं care अपर्याप्तक कहे गये हैं। जिसप्रकार तेरहवें गुणस्थानमें पर्याप्त नामकर्मक उद रहते हुए और शरीरकी पूर्णता होते हुए भी योगकी अपूर्णतासे जीव अपयीतक कहा जाता है, उसीप्रकार यहां पर भी पर्याप्त नामकर्मका उदय रहते हम, योगकी पता रहते हुए और मूल शरीरकी भी पूर्णता रहते हुए केवल उत्तर शरीरको अपूर्णतासे अपर्याप्तक कहा गया है।
शंका --- जिसका आरंभ किया हुआ शरीर अर्ध अर्थात् अपूर्ण है उसे अपर्याप्त कहते हैं । परंतु सयोगी अवस्थामै शरीरका आरंभ तो होता नहीं, अतः सयोगीके अपर्याप्तपना नहीं बन सकता है ?
समाधान -- नहीं, क्योंकि, कपादादि समुद्रात अवस्थामे सयोगी छह पर्याप्तिरूप शक्तिसे रहित होते हैं, अतएव उन्हें अपर्याप्त कहा है।
योगी जिनके पांच भावेन्द्रियां और भावमन नहीं रहता है, अतः इन छहके विना चार प्राण पाये जाते हैं। तथा समुद्धातकी अपर्याप्त अवस्थामें वचनबल और श्वासोच्छ्वासका अभाव हो जानेसे, अथवा तेरहवें गुणस्थानके अन्तमें आयु और काय ये दो ही प्राण पाये जाते हैं । परंतु कितने ही आचार्य द्रव्येन्द्रियोंकी पूर्णताको अपेक्षा दश प्राण कहते हैं; परंतु उनका ऐसा कहना घटित नहीं होता है, क्योंकि, सयोगी जिनके भावेन्द्रियां नहीं पाई जाती हैं। पांचों इन्द्रियावरण कर्मोके क्षयोपशमको भावेन्द्रिय कहते हैं। परंतु जिनका आवरणकर्म समूल नष्ट हो गया है उनके वह क्षयोपशम नहीं होता है। और यदि प्राणोंमें द्रव्येन्द्रियों का ही ग्रहण किया जावे तो संशी जीवोंके अपर्याप्त कालमें सात प्राणोंके स्थानपर कुल दो ही प्राण कहे जायंगे, क्योंकि, उनके द्रव्येद्रियांका अभाव होता है । अतः यह सिद्ध हुआ कि सयोगी जिनके चार
२ प्रतिषु सरीरादवण ' इति पाठः ।
२ प्रति दव्वंदियाणि
भवंति ' इति पाठः ।
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगदारे ओधालाववण्णणं
[४४५ सजोगिकेवलिस्प चत्तारि पाणा दो पाणा वा : खीणसण्णा, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, सत्त जोग, सच्चमणजोगो असच्चमोसमणजोगो सच्चवचिजोगो असच्चमोसवचिजोगो ओरालियकायजोगो कवाडगदस्स ओरालियमिस्सकायजोगो पदर-लोगपूरणेसु कम्मइयकायजोगो, एवं सजोगिकेवलिस्स सत्त जोगा भवंति । अवगदवेदो, अकसाओ, केवलणाण, जहाक्खादसुद्धिसंजमो, केवलदसण, दवण छ लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया, स्वइयसम्मत्तं, व सणिणो णेव असणिणो, आहारिणो अणाहारिणा, सागार-अणागारहिं जुगवदुवजुत्ता होति ।
अजोगिकेवलीणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पञ्जतीओ, पुबिल्ल-पज्जत्तीओ तहा चेव विदाओ त्ति छ पजत्तीओ भणिदाओ । ण पुण पज्जत्ती-जणिद-कज्जमथि । आउ अ-पाणो एक्को चेव । केण कारणेण ? ण ताव णाणा
अथवा दो ही प्राण होते हैं। प्राण आलापके आगे क्षीण संज्ञा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, सात योग होते हैं। वे सात योग कौनसे है ? आगे इसीका स्पष्टीकरण करते हैंसत्यमनोयोग, अनुभय-मनोयोग, सत्यवचनयाग, अनुभयवचनयोग, औदारिककाययोग, कपाट.
द्वातगत केवलीके औदारिकमिश्रकाययोग और प्रतर तथा लोकपूरण समुद्धातगत केवलीके कार्मणकाययोग इस प्रकार सयोगिकेवलीके सात योग होते हैं। योग आलापके आगे अपगतवेद, अकषाय, केवलज्ञान, यथा च्यातशुद्धि संयम, केवल दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, और भावले शुक्ललेश्या, भव्यसिद्धिक, क्षायिक सम्यक्त्व, संज्ञी और असंज्ञी विकल्पसे रहित आहारी, अनाहारी; साकार तथा अनाकार इन दोनों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त होते हैं।
अयोगिकेवली गुणस्थानवी जीवोंके ओघालाप कहनेपर ....एक चौदहवां गुणस्थान, एक पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां होती हैं। छहो पर्याप्लियों के होने का दः कारण है कि पूर्वसं आई हुई पर्यानियां तथैव स्थित रहती है, इसाले । यहाँपर छहां पयाप्तियां कही गई है। किन्तु यहापर पर्याप्नजानत कोई कार्य नहीं होता है, अतः आयुनामक एक ही प्राण होता है।
शंका ... आयुाणके होने का क्या कारण है ! सभाधान शानावरण कर्मके श्योपशमस्वरूप पांच इन्द्रिय प्राण तो अयोगकेवलीके
नं.२५
सयोगिकवलीके आलाप. का. यो. 'वे, क, ज्ञा. संय, द. ले.
ग. जी. प. । प्रा.से. ग. इ.
भ. स.
संशि.अ.
उ. ।
सं.प. प.
क्षीणसं..
म. पंचे. स. म.२
अपग, ०
के. यथा. के.द. भा. भ.
क्षा. अनु. आहा. साका.
अना. अना.
अप.
यु.उ.
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, १. वरण-खओवसम-लक्षण-पंचिंदियपाणा तत्थ संति, खीणावरणे खओवसमाभावादो। आणावाण-भासा-मणपाणा वि णत्थि, पज्जत्ति-जणिद-पाण-सण्णिद-सत्ति-अभावादो। ण सरीरबलपाणो वि अस्थि, सरीरोदय-जणिद-कम्म-णोकम्मागमाभावादो। तदो एक्को चेव पाणो । उवयारमस्सिऊण एक्को वा छ वा सत्त वा पाणा भवंति । एस पाणो पुण
..........................
हैं नहीं, क्योंकि, ज्ञानावरणादि कर्मोंके क्षय हो जानेपर क्षयोपशमका अभाव पाया जाता है। इसीप्रकार आनापान, भाषा, और मनःप्राण भी उनके नहीं हैं, क्योंकि, पर्याप्तिजनित प्राणसंज्ञावाली शक्तिका उनके अभाव है। उसीप्रकार उनके कायबल नामका भी प्राण नहीं है. क्योंकि, उनके शरीर नामकर्मके उदय-जनित कर्म और नोकर्मोके आगमनका अभाव है। इसलिये अयोगकेवलीके एक आयुप्राण ही होता है ऐसा समझना चाहिये। किन्तु उपचारका आश्रय लेकर उनके एक प्राण, छह प्राण अथवा सात प्राण भी होते हैं।
विशेषार्थ-वास्तव में अयोगी जिनके एक आयु प्राण ही होता है फिर भी उपचारसे उनके यहां पर एक या छह या सात प्राण बतलाये हैं। जहां मुख्यका तो अभाव हो किन्तु उसके कथन करनेका प्रयोजन या निमित्त हो वहां पर उपचारकी प्रवृत्ति होती है ' उपचारकी इस व्याख्याके अनुसार यहां चौदहवें गुणस्थानमें क्षयोपशमरूप मुख्य इन्द्रियोंका तो अभाव है। फिर भी अयोगी जिनके पंचेन्द्रियजाति नामकर्मका उदय पाया जाता है और वह जीवविपाकी है, इस निमित्तसे उन्हें पंचेन्द्रिय कहना बन जाता है। इसलिये उनके पांच इन्द्रिय प्राणों का कथन करना भी सप्रयोजन है । इसप्रकार पांच इन्द्रियों में आयुको मिला देने पर छह प्राण हो जाते हैं। यहां पर इन्द्रियोंसे अभिप्राय उस शक्तिसे है जिससे अयोगी जिनमें पंचेन्द्रिय
वहार होता है। परंतु उस शक्तिके सम्पादनका या पांच इन्द्रियाका आधार शरीर है, अतः इस निमित्तसे अयोगी जिनके कायबलका कथन करना भी सप्रयोजन है। इसप्रकार पूर्वोक्त छह प्राणों में कायबलके और मिला देने पर सात प्राण हो जाते हैं। यद्यपि उनके पहलेकी छह पयाप्तियां उसीप्रकारसे स्थित है, अतः वे पर्याप्तक कहे जाते हैं। तथा पर्याप्तक अवस्थामें मनःप्राण भी होता है, इसलिये उनके मनःप्राणका भी कथन करना चाहिये था। परंतु उसके कथन नहीं करनेका यह कारण प्रतीत होता है कि उनमें संजीव्यवहार लुप्त हो गया है। औपचारिक संशीव्यवहार भी उनमें नहीं माना गया है, अतः अयोगियोंके मनः प्राण नहीं कहा । इसीप्रकार वचनबल और श्वासोछ्वासके अभावका भी कारण समझ लेना चाहिये । ऊपर सयोगी जिनके जो पांच इंद्रियां और एक मन इसप्रकार छह प्राणोंका निषेध करके केवल चार ही प्राण बतलाये हैं वह मुख्य कथन है। अतः जिस उपचारकी अपेक्षा यहां छह अथवा सात प्राण कहे हैं वही उपचार वहां भी लागू होता है । आयु प्राण तो अयोगियों के मुख्य प्राण है फिर भी उसे भी उपचारमें ले लिया है, इसलिये इसे कथनका विवक्षाभेद ही समझना चाहि उपचारका प्रयोजन ऐसा प्रतीत होता है कि विवक्षित पर्यायमें रखना जो आयुका काम है
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे ओघालाववण्णणं
[४४७ अप्पपाणो । खीणसण्णा, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, अजोगो, अवगदवेदो, अकसाओ, केवलणाण, जहाक्खादविहारसुद्धिसंजमो, केवलदसण, दव्येण छ लेस्साओ, भावेण अलेस्सा; लेव-कारण-जोग-कसायाभावादो। भवसिद्धिया, खइयसम्माइट्टिणो, णेव सण्णिणो णेव असण्णिणो, अणाहारिणो, सागार-अणागारेहिं जुगवदुवजुत्ता वा हति ।
सिद्धाणं ति भण्णमाणे अत्थि एयं अदीद-गुणहाणं, अदीद-जीवसमासो, अदीदपज्जत्तीओ, अदीद पाणा, खीणसण्णा, सिद्धगदी, अणिंदिया, अकाया, अजोगिणो, अवगदवेदा, खीणकसाया, केवलणाणिणो, णेव संजदा व असंजदा णेव संजदासंजदा, केवलदंसण, दव्य-भावहिं अलेस्सिया, णेव भवसिद्धिया, खइयसम्माइट्ठिणो, णेव सणिणो
वह यहां भी पाया जाता है, इसलिये तो वह मुख्य प्राण है। फिर भी जीवनका अवस्थान अल्प है। और अवस्थानके कारणभूत नये कर्मोंका आना, योगप्रवृत्ति आदि भी नष्ट हो गये हैं, अतः आय भी इस अपेक्षासे औपचारिक प्राण कहा जाता है। इसप्रकार अयोगियोंके उपचारसे एक या छह या सात प्राण कहे गये हैं।
प्राण आलापके आगे-क्षीणसंशा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, अयोग, अपगतवेद, अकषाय, केवलज्ञान, यथाख्यात विहारशुद्धिसंयम, केवलदर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे लेट्यारहितस्थान होता है। लेश्याके नहीं होनेका यह कारण है कि कर्म-लेपके कारणभूत योग और कषाय, इन दोनोंका ही उनके अभाव है। लेश्या आलापके आगे-भव्यसिद्धिक क्षायिकसम्यग्दृष्टि, संशी और असंही विकल्पसे रहित, अनाहारक, साकारोपयोग तथा अना. कारोपयोग इन दोनों ही उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त होते हैं।
सिद्धपरमेष्टीके ओघालाप कहनेपर-एक अतीत-गुणस्थान, अतीत-जीवसमास, अतीत पर्याप्ति, अतीत-प्राण, क्षीण,संज्ञा, सिद्धगति, अनिन्द्रिय, अकाय, अयोगी, अवेदी, क्षीणकषाय, केवलज्ञानी, संयत, असंयत और संयतासंयत विकल्पोंसे विमुक्त; केवलदर्शनी, द्रव्य और भावसे अलेश्य, भव्यसिद्धिक विकल्पातीत, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, संक्षी और असंझी इन दोनों
नं. २६
अयोगिकेवलीके आलाप. गु. जी. प. प्रा. सं. ग. | ई. का. यो. वे. के. ना. संय. द. ले. भ. स. (संझि. आ. | उ..
o
आयु...
अयो.
म. पंचे. स. अयो. : अक. के. यथा. के. द. द्र. म. क्षा. अनु. अना. साका.
अना.
leble
यु
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
४४८ ]
छक्रडागमे जीवद्वाणं
व असणणो, अनाहारिणो, सागार - अणागारेहिं जुगवदुपजुत्ता वा होति ।
एवं मूलोवालावा समत्ता ।
आदेसेण गदियाणुवादेण निरयगदीए पेरइयाणं भण्णमाणे अत्थि चत्तारि गुणट्टणाणि, दो जीवसमासा, छ पजत्तीओ छ अपजतीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगदी, पंचिदियजादी, तसकाओ, ओरालिय-ओरालियमिस्स आहार - आहारमिस्सेहिं विणा एगारह जोग, णवंसयवेदो, रइया दव्व-भावेहिं णवंसयवेदा चेव भवंति त्ति । चत्तारि कसाय, छण्णाण, असंजमो, तिष्णि दंसण, दव्वेण कालाकालाभास- काउसुक्कलेस्साओ, दव्वलेस्सा कालाकालाभासा सुठुकण्हेत्ति' जं वृत्तं होदि । एसा रइयाणं
विकल्पोंसे मुक्त अनाहारक, साकारोपयोग और अनाकारोपयोग से युगपत् उपयुक्त होते हैं । इसप्रकार मूल ओघालाप समाप्त हुए ।
आदेशकी अपेक्षा गतिमार्गणा के अनुवादसे नरकगतिमें नारकियोंके आलाप कहनेपरआदिके चार गुणस्थान, संश-पर्याप्त संज्ञी अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां पर्याप्तकालकी अपेक्षा दस प्राण और अपर्याप्तकालकी अपेक्षा सात प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग, आहारककाययोग, आहारकमिश्रकाययोग, इन चारों योगोंके विना ग्यारह योग. नपुंसकवेद होता है । एक नंपुसकवेदके होनेका यह कारण है कि नारकी जीव द्रव्य और भाव इन दोनों ही वेदों की अपेक्षा नपुंसकवेदी होते हैं । वेद आलापके आगे चारों कपायें, तीनों अज्ञान और तीन ज्ञान इसप्रकार छह ज्ञान, असयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे पर्याप्तत्वकी अपेक्षा कालाकालाभास लेश्या, और अपर्याप्तत्वकी अपेक्षा कापोत और शुक्ललेश्या होती है। पर्याप्तअवस्था में जो कालाकालाभास लेश्या कही है उसके कहने का यह ताल है कि पर्याप्त अवस्थामें कालाकालाभास अर्थात् अतिकृष्ण लेक्ष्या होती है । जारकियोंकी पर्याप्त अवस्थामें यह
९ मत करणेति ' इति पाठः ।
नं २७
गु. जी. प.
c
अ. गुअ. अ. प जी.
प्र.
0
E
सं. ग. इं.
सिद्धों के आलाप.
का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले
उ.
सं. संज्ञि. आ. १
०
१
१
२
०
Co
१
0
के. अनु. के. द. अले अनु. क्षा. अनु. अना साका
अना. यु. उ.
०
。
०
०
सि. अनिं. अका. अयो.
०
[ १, १.
か
भ.
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.
संत परूवणाणुयोगद्दारे आदसालाववण्णण पजत्तकाले सरीरलस्सा भवदि । विग्गहगदीए पुग जरइयादि-सव-जीवाणं दबलेस्सा सुक्का चेव भवदि, कम्म-विस्ससोवचयस्स धवलाणं मोत्तूण अण्ण-वण्णाभावादो । सरीर-गहिद-पढम-समय-पहुडि जाव अपजत्त-काल-चरिम-समओ त्ति ताव सरीरस्स काउलेस्सा चेव, संवलिद-सयल-वण्णादो । भावेण किण्हणील-काउलेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुबजुत्ता वा।
तेसिं चेव पञ्जत्ताण भण्णमाणे अत्थि चत्तारि गुणट्ठाणाणि, एगो जीवसमासो, हर पजतीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, णबुसयवेदो, चत्तारि कसाय, छमाण , असंजमो, तिणि दंसण, दव्वेण कालाकालाभासलेस्साओ, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ
शरीरलेश्या होती है। किन्तु विप्रहगतिमें नारकी आदि सभी जीवोंको द्रव्यलेश्या शुक्ल ही होती है, क्योंकि, कमाके विनलोपवयका धवलवणे छोड़कर अल्यवर्ण नहीं होता है, तथा शरीर महल करने के प्रथम समयसे लगाकर अपर्याप्तकाल के चरम समयतक शरीरकी कापोतगेश्या हो होती है, क्योंकि, उस समय शरीर संवलित सम्ल वर्णवाला होता है । भावकी अपेक्षा तो कृष्ण, नील और कागोतलेश्या होती है। लेश्या आलापके आगे भव्यसिद्धिक अभव्यसिद्धिक. छहों सम्यक्त्व, संशिक, आहारक. अलाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं नारकियोंके पर्याप्तकालसंबन्धी ओघालाप कहने पर -आदिके चार गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, नौ योग, नपुंसकवेद, चारों कषायें, तीनों अज्ञान, और आदिके तीन शान इसप्रकार छह ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कालाकालाभास कृष्णलेश्या और भावसे कृष्ण, नील और कापोतलेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, छहों सम्यक्त्व, संशिक,
नं. २८
नारकसामान्य आलाप.
गु. जी. प. प्रा सं. ग. ई.का. यो. । वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. म. स. संज्ञि आ. उ. ४ २ ६ १०४१ ५५ १ ४६ १३ द्र.३२६ १२ । २
सं.प.प. ७. न.पं. व. म. ४ न. अज्ञा.३ असं. के.द. कृ. भ. सं. आहा. । साका. सं.अ.६
व. ४ ज्ञा. ३ विना. का. अ. अना. ! अना.
कार्म,
भा.३ अशु.।
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
४५० छक्वंडागमे जीवाणं
[१, १. सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता हाँति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि दो गुणट्ठाणाणि, एओ जीवसमासो, छ अपञ्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दो जोग, णसयवेदो, चत्तारि कसाय, विभंगणाणेण विणा पंच णाण, असंजम, तिण्णि दसण, दव्येण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, कदकरणिज्जं पडुच्च वेदगसम्मत्तं खइयसम्मत्तं' मिच्छत्तं च । सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुखजुत्ता वा ।
आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं नारकियोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-मिथ्यादृष्टि और असंयत. सम्यग्दृष्टि ये दो गुणस्थान, एक संज्ञी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संशाएं, नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, वैक्रियकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, नपुंसकवेद, चारों कषायें, विभंगज्ञानके विना कुमति और कुश्रुति ये दो अज्ञान तथा मति, श्रुत और अवधि ये तीन ज्ञान, इसप्रकार पांच ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यासद्धिक, मिथ्यात्व क्षायोपशमिक और क्षायिक ये तीन सम्यक्त्व होते हैं। इनमें वेदकसम्यक्त्व तो कृतत्यकृवेदककी अपेक्षा होता है और उसमें क्षायिक और मिथ्यात्वके मिला देने पर नारकियोंकी अपर्याप्त अवस्थामें तीन सम्यक्त्व होते हैं। सम्यक्त्व आलापके आगे संक्षिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
१ प्रथमायां पृथिव्यां पर्याप्तापर्याप्तकानां क्षायिक क्षायोपशमिकं चास्ति । स. सि. १, ७.
नारकसामान्य पर्याप्त आलाप. । गु. जी प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. । संय.। द. ले. भ । स. संशि. आ.
९ १४ ६ । १ । ३ द्र.१२६ १ .. म. ४ न. अज्ञा.३ असं. के. द. कृ. भ. सं. आहा. साका. ज्ञा.३ विना. मा. ३ अ.
अना. ' अशु.
२
पंचे. . वस.
नं.३०
नारकसामान्य अपर्याप्त आलाप. । गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. 'वे. क. ना. संय. द. । ले.. भ. स. संक्षि. आ. उ. । | २१६७४|११ १२ १।४। ५।। ३ द.२२ ३ । १२२ मि. सं.अ. अप.
वे. मि न. कुम. असंके.द.का. शुभ. मि. सं. आहा. | साका. अवि.
कार्म. कुश्रु, विना मा.३ अ. क्षा. अना. ! अना. ज्ञा.३
अशु. क्षायाः
पंचे. . त्रस.
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं
[१५१ संपहि णेरइय-मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, छ पञ्जत्तीओ छ अपजत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, णबुंसयवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो सण, दव्वेण कालाकालाभास-काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण किण्ह-णीलकाउलस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा।
तेसिं चेव पजत्ताणं भण्णमाणे आत्थि एयं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगदी, पंचिदियजादी, तसकाओ, णव जोग, णqसयवेदो, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजम, दो दंसण, दव्येण कालाकाला
अब नारकी मिथ्यादृष्टिजीवोंके आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, संझीपर्याप्त और संशी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां और छहों अपर्याप्तियां, दशों प्राण और सात प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, वैक्रियिककाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योग, नपुंसकवेद, चारों कषायें, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे पर्याप्त-अवस्थाकी अपेक्षा कालाकालाभासलेश्या और अपर्याप्त-अवस्थाकी अपेक्षा कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व संशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं नारकी मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसम्बन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और कार्मणकाययोग ये नौ योग, नपुंसकवेद, चारों कषायें, तीनों अज्ञान, असंयम, दो दर्शन, द्रव्यसे कालाकालाभासकृष्ण
नं. ३१
नारकसामान्य-मिथ्यादृष्टि आलाप. । गु. जी. प. प्रा. सं.| गई. का. यो. | वे. क. ज्ञा.| संय. द. ले. म. स. |सलि. आ.. उ.
१ २ ६१० ४ १ १ १ ११ १ ४ ३ १ २ द्र३ २ १ १ २ मि. स.प. प. प. न. म. ४ न. असं. च. कृ.भ. मिथ्या. सं. | आहा. साका.
अ. का. अ
| अना. अना. अ. अ.
व.२ काम.१
भा३ अशु.
1. प. प.
न.
पंचे. . स.
Ed.४
अज्ञा.
VA
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
४५२ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, १.
भासलेस्सा, भावेण किण्ह - णील- काउलेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव अपत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणड्डाणं, एओ जीवसमासो, छ अपजत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, बे जोग, णवुंसयवेदो, चत्तारि कसाय, दोण्णि अण्णाण, असंजम, दो दंसण, दव्वेण काउसुक्कलेस्साओ, भावेण किण्हणील- काउलेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
लेक्ष्या, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्या, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिका मिथ्यात्व संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोयोगी होते हैं ।
उन्हीं नारी मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संशी अपर्याप्त जीवसमास, छहीं अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण ये दो योग, नपुंसकवेद, चारों कषायें, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, मिध्यात्व, संज्ञिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
नं ३२
"
गु. जी.
१
१
मि. सं.अ.
मि. सं.
अ.
प
६
१ १ ६ | ७
अप. 6:
अप.
नारक सामान्य - मिथ्यादृष्टि पर्याप्त आलाप.
इं. का. | यो. | वे . क. ज्ञा. संय. | द. | ले.
१ ९ १ ४ ३ १ ર્ द्र. १ अज्ञा. असं चक्षु. कृ.
नं. ३३
गु. जी | प. प्रा. सं. ग. इं.
मा. सं. ग. १० ४ १
१
न. पंचे. बस. म. ४ न.
व. ४ वे. १
नारक सामान्य- मिध्यादृष्टि अपर्याप्त आलाप.
का.
यो | वे. क. | ज्ञा. | संय | द.
४ । १ १
१
२
१
न. पंच. स. वै. मि... कार्म.
* २ १ २ कुम. असं कु. अ.
म. सं. संज्ञि. आ.
२
भ.
अच. भा. ३ अ. अशु.
ले.
द्र. २ २
चक्षु. का. भ. अचक्षु, शु. अ.
भा ३
अशु.
मिथ्या. 14.
मिथ्या.
उ.
१ १ २ सं. आहा. साका. अना.
भ. स. संशि. आ.
J.
१ २ सं. आहा. साका. अना. अना.
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णण
[४५३ सासणसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, णवंसयवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजम, दो दंसण, दव्वेण कालाकालाभासलेस्सा, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्साओ; भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
सम्मामिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, णसयवेद, चत्तारि कसाय, तिणि णाण तिहिं अण्णाणेहि मिस्साणि, असंजम, दो दंसण, दवण कालाकालाभासलेस्ता, भावेण किण्ह-णील काउलेस्साओ; भवसिद्धिया,
नारकी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके आलाप कहनेपर-एक सासादन गुणस्थान, एक संज्ञी पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और वैफ्रियिककाययोग ये नौ योग, नपुंसकवेद, चारों कषायें, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे कालाकालाभास लेश्या, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं: भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नारकी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर-एक सम्यग्मिथ्यात्य गुणस्थान, एक संझी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगति, पंचे. न्द्रियजाति, सकाय चारों मनोयोग, चारों ववनयोग और वैक्रियिककाययोग ये नौ योग, नपुं. सकवेद, चारों कषायें, तीनों अज्ञानोंसे मिश्रित आदिके तीन ज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे कालाकालाभास लेट्या, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं, भव्यसिद्धिक
नं. ३४
नारकसामान्य-सासादन आलाय.
|गु जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संज्ञि.
आं. | उ.
सा सं. प..
।
न पंचे
स. म. ४..
न...
व.
Y
अज्ञा. असं. च. कृ. भ. सासा सं. आहा. साका.
। अना. अच. भा ३
अशु.
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५४ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, १. सम्मामिच्छत्तं, सण्णिणो, आहारिणो सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
असंजदसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, छ पज्जतीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, णqसयवेद, चत्तारि कसाय, तिणि णाण, असंजम, तिणि दंसण, दव्वेण कालाकालाभास-काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्साओ; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्ताणि, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारूवजुत्ता होंति अणागारुखजुत्तावा ।।
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ
सम्यग्मिथ्यात्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नारकी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि स्थान. संझी-पर्याप्त और संबी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां और छहों अपर्याप्तियां, दशों प्राण और सात प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगति, पचेन्द्रियजाति, असकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, वैक्रियिककाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योग, नपुंसकवेद, चारों कषायें, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कालाकालाभास कृष्णलेश्या तथा कापोत और शुक्ल लेश्याएं., भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यासद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व, संशिक, आहारक, अनाहारका साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं.३५
नारकसामान्य-सम्यग्मिथ्यादृष्टि आलाप. गु. जी. प. प्रा./सं. ग. ई.का | यो. वे. क. ज्ञा. | संय. द. ले. भ. स. सिंज्ञिः । आ. । उ. ।
सम्य..
सं.प.
पंचे. -
म.४. व.४
नपुं..
ज्ञान. असं. च. । क. भ. सम्य. सं. मिश्र. अच. भा.३ अज्ञा.
अशु
आहा. साका.
अनाका.
अवि... सं.प. सं.अ.
नं. ३६ नारकसामान्य-असंयत सम्यग्दृष्टिके सामान्य आलाप. गु.जी. प. प्रा. सं| ग.ई. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. । ले. भ. सं. संक्षि आ. उ. १२६ १०४ १२१ ११ १ ४ ३ १ ३ द. ३ १ ३ १ २ २ प. ७ न.पं.स. म. ४ मति. असं. के.द. क. भ. आ. सं. आहा. साका.
विना.का.शु. क्षा. अना. अना. अव.
भा.३ क्षायो. अश.।
A
श्रुत.
कार्म.
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १. ]
संत - परूवणाणुयोगद्दारे गदि आलाववण्णणं
[ ४५५
पज्जतीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, सयवेद, चत्तारि कसाय, तिष्णि णाण, असंजमो, तिणि दंसण, दव्वेण कालाकालाभासलेस्सा, भावेण किण्हणील- काउलेस्साओ; भवसिद्धिया, तिष्णि सम्मतं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा 1
19
तेसिं चैव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणद्वाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जतीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगदी, पंचिदियजादी, तसकाओ, बे जोग, कुंसयवेदो, चत्तारि कसाय, तिष्णि णाण, असंजम, तिष्णि दंसण, दव्वेण काउ - मुक्कलेस्साओ, भावेण जहणिया काउलेस्सा; भवसिद्धिया, उवसमसम्मत्तेण
उन्हीं नारकी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - एक अविरतसम्यग्दा गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और वैक्रियिककाययोग ये नौ योग, नपुंसकवेद, चारों कषायें, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कालाकालाभास कृष्णलेश्या, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं, भव्यंसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
उन्हीं नारकी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - एक अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी - अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण ये दो योग, नपुंसकवेद, चारों कषायें, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्या, भावसे जघन्य कापोतलेश्या, भव्यसिद्धिक, उपशमसम्यक्त्वके विना दो सम्यक्त्व
नं. ३७
गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय १ १ ६ १०४ १ १. अवि. संप.
१
न. पंचे. रा. म. ४
व. ४
व. १
नारकसामान्य- असंयतसम्यग्दृष्टि पर्याप्त आलाप.
१ ४ ३ १ मति. असं
श्रुत.
अत्र.
२
द. ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ. ३ द्र. १ १ ३ १ १ के. द. कृ. भ. औ. सं. आहा साका विना भा. ३ अना. अशु.
क्षा. क्षायो.
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
४५६] छक्खंडागमे जीवट्ठाण
। १, १. विणा दो सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा । पढमादि-सत्तरहं पुढवीणं लेस्साओ जाणावेई एसा गाहा
काऊ काऊ काऊ णीला णीला य णील-किण्हा य ।
किण्हा य परमकिण्हा लेस्सा पढमादिपुटवीण ॥ २२२ ॥ पढमाए पुढवीए णेरइयाणं भण्णमाणे अत्थि चत्तारि गुणट्ठाणाणि, दो जीवसमामा, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि मण्णाओ, णिरयगदी, पंचिंदियजादी, तमकाओ, एगारह जोग, णमयवेद, चत्तारि कमाय,
संक्षिक, आहारक, अनाहारका साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
प्रथमादि सातों पृथिवियोंकी लेश्याओंको यह निम्न गाथा बतलाती है--
कापोत, कापोत, कापोत और नील, नील, नील और कृष्ण, कृष्ण तथा परमकृष्ण लेश्या प्रथमादि प्रथिवियोंमें क्रमशः जानना चाहिये ॥ २२२ ॥
विशेषार्थ-प्रथम पृथिवी में जघन्य कापोतलेश्या होती है। दूसरी पृथिवीमें मध्यम कापोतलेश्या होती है। तीसरी पृथिवीमें उत्कृष्ट कापोतलेश्या और जघन्य नीललेश्या होती है। चौथी पृथिवीमें मध्यम नीललेश्या होती है। पांचवीं पृथिवीमें उत्कृष्ट नीललेश्या और जघन्य कृष्णलेश्या होती है। छठी पृथिवीमें मध्यम कृष्णलेश्या होती है और सातवीं पृथिवीमें परमकृष्णलेश्या होती है।
प्रथम-पृथिवी-गत नारकोंके सामान्य आलाए कहने पर-आदिके चार गुणस्थान, संजी-पर्याप्त और संशी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां, दशों प्राण, सात प्राणः चारों संशाएं, नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग चारों वचनयोग, वैक्रियिककाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह
१ गो. जी. ५२९. प्रतिपु — काउ काउ तह काओ णीलं णीला यं णील किण्हा य ' इति पाठः । नं. ३८
नारकसामान्य-असंयतसम्यग्दष्टि अपर्याप्त आलाप.
अकि.-16
गु. जी.प.प्रा. सं. ग. ई.का. यो. वे. क. झा. | संयः। द. | ले. भ. स. संक्षि. आ. उ, ।
४११ २ १ ४ ३ | १ | ३ द.२१/ २१ २२ सं.अ. न. स. वै. मि. न. मति. असं. के. द. का. भ. क्षा. सं. आहा. साका.
करम. श्रुत. विना | शु. क्षायो अना. अना. अव.
भा.३ | अशु.
अप. MA अप. Gy
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १. 1 संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं
[४५७ छण्णाण, असंजम, निणि दंसण, दव्वेण कालाकालाभास-काउ-मुक्कलेस्साओ, भावेण जहणिया काउलेस्मा, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्त, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता हाँति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि चत्तारि गुणहाणाणि, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, पव जोग, णqसयवेद, चत्तारि कसाय, छण्णाण, असंजम, तिण्णि दसण, दव्वेण कालाकालाभासलेस्सा, भावेण जहाणिया काउलेस्सा, भवामिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं,
योग, नपुंसकवेद, चारों कषायें, तीनों अज्ञान और आदिके तीन शान इसप्रकार छह मान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे पर्याप्त अवस्थाकी अपेक्षा कालाकालाभास कृष्णलेश्या तथा अपर्याप्त-अवस्थाकी अपेक्षा कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे जघन्य कापोतलेश्या: भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; छहों सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं प्रथम-पृथिवी-गत नारकोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-आदिके चार गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और वैक्रियिककाययोग ये नौ योग, नपुंसकवेद, चारों कषायें, तीनों अज्ञान और आदिके तीन शान ये छह झान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कालाकालाभास कृष्णलेश्या, भावसे जघन्य कापोतलेश्या; भव्य
नं.३९
प्रथमपृथिवी-नारकसामान्य आलाप.
-
1 गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं.का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. | ले. भ. स. संज्ञि. आ.| उ. | ४ । १६ प. १०४१
| १ | २ | २ मि. सं.प. ६ अ. न.
ज्ञान.३ असं. के.द. कृ. सं. आहा. साका. सा. सं.अ.
अज्ञा.. विना. का.
अना. अना. सम्य.
| शु. अवि.
का. १
भा.१
पचे..
स.
म
RK
अभ. भ..
वै.२
का.
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
४५८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, १. सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
तेसिं चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि दो गुणट्ठाणाणि, एओ जीवसमासो, छ अपजत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दो जोग, णqसयवेद, चत्तारि कसाय, पंच णाण, असंजम, तिणि दंसण, दव्वेण काउ. सुक्कलेस्साओ, भावेण जहणिया काउलेस्सा, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुखजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा" ।
सिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; छहों सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं प्रथम-पृथिवी-गत नारकोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहनेपर-मिथ्यादृष्टि और अविरतसम्यग्दृष्टि ये दो गुणस्थान, एक संत्री-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण ये दो योग, नपुंसकवेद, चारों कषायें, कुमति, कुश्रुत और आदिके तीन शान ये पांच ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ललेश्याएं, भावसे जघन्य कापोतलेश्या, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिका मिथ्यात्व, क्षायोपशमिक और क्षायिक ये तीन सम्यक्त्व, संशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं. ४०
प्रथमपृथिवी-नारक पर्याप्त आलाप. सं. ग. इं.का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. । स. संज्ञि.
गु.जी. प. प्रा.
आ.
उ. ।
.
पंचे. .. त्रस. -2
न.
F
सं. प.
म. ४ . व.४ कि
नपुं. .
ज्ञा. ३ असं. अज्ञा.
के द. विना WA
भ. अभ.।
सं. आहा. । साका.
! । अना.
।
द्र. कृ. भा.१ का.
नं.४१
प्रथमपृथिवी-नारक अपर्याप्त आलाप. | गु. जी. | प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. वे ! क..ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संज्ञि. आ.
उ. |
0
मि. सं.अ. अवि.
अप.
न. पंचे. त्रस. वै.मि.
| कार्म.
अ.भ.
कुम. असं. के. द. का. कुभु. विना. शु. ज्ञा.३
भा.. | का..
मि. सं. आहा. साका. क्षा. अना. आना. क्षायो.
भा..। शायो. अना. आनाः
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं
[१५९ संपहि पढम-पुढवि-मिच्छाइट्टीण भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, दो जीवसमासा, छ पजत्तीओ छ अपजत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, णवंसयवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजम, दो दंसण, दव्वेण कालाकालाभास-काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण जहणिया काउलेस्सा, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा" ।
तेसिं चेव पजत्ताणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, णqसयवेद, चत्तारि कसाय, तिणि अण्णाण, असंजम, दो दंसण, दव्वेण
अब प्रथम-पृथिवी-गत मिथ्यादृष्टि नारकोंके आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, संशी-पर्याप्त और संशी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, वैक्रियिककाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे पर्याप्त अवस्थाकी अपेक्षा कालाकालाभास लेश्या तथा अपर्याप्त अवस्थाकी अपेक्षा कापोत और शुक्ललेश्याएं, भावसे जघन्य कापोत लेश्या; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
__उन्हीं प्रथम-पृथिवी-गत मिथ्यादृष्टि नारकोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और वैक्रियिककाययोग ये नौ योग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन,
नं. ४२
प्रथमपृथिवी-नारक मिथ्यादृष्टि आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इ. का. यो. वे. क. ज्ञा. | संय. द. | ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ. |१ २६ १०४ १११ ११ १ ४ ३ | १ २ द्र ३ | २१ १ २ - २ मि.सं प.प. ७ न. म.४ . अज्ञा. असं. च. कृ. भ. मि. सं. आहा. साका. सं.अ.६
अच. का. अभ.
अना. अना. वै.२।
पंचे. .. त्रस. .
व.४
"
का.
का.
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६० ]
छडागमे जीवाणं
[ १, १.
कालाकालाभासलेस्सा, भावेण जहणिया काउलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धियां, मिच्छत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चैव अपञ्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणद्वाणं, एओ जीवसमासो, छ अपत्तीओ, सत्त पाणा, चत्तारि सण्णाओ, गिरयगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दो जोग, बुंसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, दो दंसण, दव्वेण काउसुक्कलेस्साओ, भावेण जहणिया काउलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
द्रव्यसे कालाकालाभास कृष्णलेश्या, भावसे जघन्य कापोतलेश्याः भव्यसिद्धिक अभव्यसिद्धिक, मिथ्यात्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
उन्हीं प्रथम पृथिवी गत मिथ्यादृष्टि नारकोंके अपर्याप्तकाल संबन्धी आलाप कहने पर - एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी - अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, नपुंसक वेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ललेश्याएं, भावसे जघन्य कापोतलेश्याः भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः मिथ्यात्व, संज्ञिक, आहारक, अनाहारकः साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
१ प्रतिपु ' अभवसिद्धिया ' इति पाठो नास्ति.
नं. ४३
|गु | जी.प. | प्रा. सं. ग. | इ. ) का. | यो. | वे . क. | ज्ञा. | संय. द. १ १ ६ १० ४ १ १ मि. संप. न. पंच.
१ ९ 2 ફ્ ३ १ स. म. ४ न. अज्ञा. असं.
२ च.
अच.
व. ४ .१
वे.
१
मि.
4.
प्रथमपृथिवी - नरक मिथ्यादृष्टि पर्याप्त आलाप.
नं. ४४
प्रथमपृथिवी - नारक मिथ्यादृष्टि अपर्याप्त आलाप.
गु.जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ल. भ.स. संज्ञि.
१ १ १ २ १४ २ १ २
न. पं. स. वै. मि...
कुम. असं. च. कुश्रु. अच.
कार्म.
ले.
द्र. १ २. १ १ १ कृ. भ. मि.
भा. १ अ.
का.
भ. स. संशि. आ. उ.
२
स. आहा. साका.
अना.
द्र. २ २ १ १ का. भ.मि. सं.
शु. अ.
भा १
का.
आ. २ आहा. अना.
उ.
२
साका. अना.
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं
[४६१ सासणसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, णqसयवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजम, दो दंसण, दव्वेण कालाकालाभासलेस्सा, भावेण जहणिया काउलेस्सा; भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
सम्मामिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि एयं गुणट्टाणं, एओ जीवसमासो, छ पञ्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, णQसयवेद, चत्तारि कसाय, तिणि णाणाणि तीहि अण्णाणेहिं मिस्साणि, असंजम, दो दंसण, दव्वेण कालाकालाभासलेस्सा, भावेण जहणिया काउलेस्सा; भवसिद्धिया,
प्रथम-पृथिवी-गत सासादनसम्यग्दृष्टि नारकोंके आलाप कहने पर-एक सासादन गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और वैक्रियिककाययोग ये नौ योग, नपुंसकवेद चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे कालाकालाभास कृष्णलेश्या, भावसे जघन्य कापोतलेश्याः भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
प्रथम-पृथिवी-गत सम्यग्मिथ्यादृष्टि नारकोंके आलाप कहने पर-एक सम्याग्मिथ्यात्व गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और वैक्रियिककाययोग ये नौ योग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान-मिश्रित आदिके तीन ज्ञान, असंयम, दो दर्शन, द्रव्यसे कालाकालाभास कृष्णलेश्या, भावसे जघन्य कापोतलेल्या, भव्यसिद्धिक, सम्यग्मिथ्यात्य,
नं ४५
प्रथमपृथिवी-नारक सासादनसम्यग्दृष्टि आलाप.
| गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई.
का.
यो.
वे. क. ज्ञा. संय. द.
ले.
भ. स. संक्षि.
आ. | उ.
सा.सं.प.
।
न. पं.
भ.
स. म. ४
'व.४
अज्ञा. असं. च. कृ.
अच.भा १
। का.
सासा.
सं. आहा. साका.
अना.
व
१
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. सम्मामिच्छत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
___ असंजदसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, छ पजत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाग सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, णबुसयवेद, चत्तारि कसाय, तिणि णाण, असंजम, तिणि दंसण, दवेण कालाकालाभास-काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण जहणिया काउलेस्सा; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, मणिगणो, आहारिणो अणाहारिणो, मागावजुत्ता हाँति अणागारुवजुत्ता वा ।
संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
प्रथम-पृथिवी-गत असंयतसम्यग्दृष्टि नारकोंके आलाप कहने पर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, संझी-पर्याप्त और संज्ञी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां और छहों अपर्याप्तियां, दशों प्राण और सात प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रस. काय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, वैक्रियिककाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे पर्याप्त अवस्थाकी अपेक्षा कालाकालाभास कृष्णलेश्या तथा अपयाप्त अवस्थाकी अपेक्षा कापोत और शुक्ललेश्या, भावसे जघन्य कापोतलेश्याः भव्यसिद्धिक, औपशमिक क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, अनाहारकः साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं.४६
प्रथमपृथिवी-नारक सम्यग्मिथ्यादृष्टि आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क., ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संज्ञि. आ. । उ. ।
or
सं.प.
न. पंचे. वस. म. ४ .
नपुं. ..
E
ज्ञान. अस. च. कृ. अज्ञा.
अ. भा.१ मिश्र
भ. सम्य. सं. आहा. साका.
अना.
व.४
का.
|
नं.४७
प्रथमपृथिवी-नारक असंयतसम्यग्दृष्टि सामान्य आलाप. , गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई. । का. यो. वे. क. ज्ञा, संय. द. | ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ. १ २ ६ प.१० ४ १ १ १ ११ १ ४ ३ १ ३ द्र.३ १ ३ १ २ २ - सं.प, ६अ. ७ न. पंचे. बस. म. ४. मति. असं. के.द. कृ. भ. औ सं. आहा. साका.
श्रुत. विना का. क्षा. अना. अना. अव.
शु. क्षायो. भा. का.
अवि. -
नपुं. 0
ट्र सं.अ.
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं
[ ४६३ तेसिं चेव पजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाण, एओ जीवसमासो, छ पजनीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, णqसयवेद, चत्तारि कसाय, तिणि णाण, असंजम, तिण्णि दसण, दव्वेण कालाकालाभासलेस्मा, भावेण जहण्णिया काउलेस्सा; भवसिद्धिया, तिणि सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुखजुत्ता होंति अणागारुखजुत्ता वा ।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जतीओ, सन पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, वे जोग, णमयवेद, चत्तारि कसाय, तिणि णाण, असंजम, तिणि दंसण, दव्वेण काउमुक्कलेस्साओ, भावेण जहणिया काउलेस्सा; भवसिद्धिया, उवसमसम्मत्तेण विणा दो
उन्हीं प्रथम-पृथिवी-गत असंयतसम्यग्दृष्टि नारकोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संझी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगति, पंचेद्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और वैक्रियिककाययोग ये नौ योग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, आदिके तीन शान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कालाकालाभास कृष्णलेश्या, भावसे जघन्य कापोतलेश्या; भव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं प्रथम-पृथिवी-गत असंयतसम्यग्दृष्टि नारकोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संशी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगति, पंचेन्द्रिय जाति, सकाय, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, आदिके तीन शान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ललेश्याएं, भावसे जघन्य कापोतलेश्या, भव्यसिद्धिक, उपशमसम्यत्वके विना क्षायिक और क्षायोपशमिक ये दो सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारक
नं. ४८ प्रथमपृथिवी-नारक असंयतसम्यग्दृष्टि पर्याप्त आलाप. गु | जी. प. प्रा सं. ग. इं. का, यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संझि. आ.
उ.
अवि. -
न.....म. ४ न.।
GE.४ ।
मति. असं. के. द. कृ. भ. श्रुत.
विना. भा. १
का.
औ. सं. आहा. साका. क्षा.
अना. क्षायो.
अव.
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६४) छक्खंडागमे जीवहाणं
[१, १. सम्मत्ताणि, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा ।
विदियाए पुढवीए णेरड्याणं भण्णमाणे अत्थि चत्तारि गुणहाणाणि, दो जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, रियगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, णसयवेद, चत्तारि कसाय, छ णाण, असंजम, तिणि दंसण, दव्येण कालाकालाभास-काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण मज्झिमकाउलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, खइयसम्मत्तेण विणा पंच सम्मत्ताणि, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुबजुत्ता हाँति अणागारुखजुत्ता वा ।
साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
द्वितीय-पृथिवी-गत नारकोंके आलाप कहने पर-आदिके चार गुणस्थान, संशी-पर्याप्त और संझी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास. छहों पर्याप्तियां. छहों अपर्याप्तियां: दशों प्राण, सात प्राणः चारों संज्ञाएं, नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग. चा वचनयोग, वैक्रियिककाययोग, वैऋियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान और आदिके तीन ज्ञान ये छह ज्ञान, असंयम. आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे पर्याप्त अवस्थाकी अपेक्षा कालाकालाभास कृष्णलेश्या तथा अपर्याप्त अवस्थाकी अपेक्षा कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे मध्यम कापोतलेश्या. भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः क्षायिक सम्यक्त्वके विना पांच सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, अनाहारकः साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं. ४९ प्रथमपृथिवी-नारक असंयतसम्यद्दष्टि अपर्याप्त आलाप. । गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. वे. क. ना. संय. द. ले. भ. स. संझि. आ. । उ. १ १ ६ ७.४ ११ १२ १ ४ ३ १ ३ द्र.२.१ २ १ २ २ अवि. सं.अ. अप., । न. वै. मि न. मति. असं. के.द का. शु. भ. क्षा.सं. आहा. साका, । कार्म. श्रुत. विना.. भा.१ क्षायाः अना. । अना.
अव.
का.
त्रस. - पंचे
नं. ५०
द्वितीयपृथिवी-नारक सामान्य आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं.का. यो. वे. क. शा. ! संय. द. ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ.
न.पं. स. म. ४ न.
मि. सं.प. प. ७.
सा. सं.अ. ६ सम्य.
अ.
अज्ञा.३ असं. के.द. भ. औ. सं. आहा साका. ज्ञान.३ विना. का. अ. झायो। अना. अना.
शु. मि. मा.१ सासा.' का. सम्य.
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १. J
संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि - आलावण्णणं
[ ४६५
सिं चैव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अस्थि चत्तारि गुणट्ठाणाणि, एओ जीवसमासो, छ पज्जतीओ, दस पाण, चत्तारि सण्गाओ, णिरयगदी, पंचिदियजादी, तसकाओ, णव जोग, कुंसयवेद, चत्तारि कसाय, छ णाण, असंजम, तिष्णि दंसण, दव्त्रेण कालाकालाभासलेस्सा, भावेण मज्झिम - काउलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, पंच सम्म - चाणि सणणो, आहारिणो, मागारुत्रजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा " ।
तेंसि चेत्र अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणद्वाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णा, णिरयगदी, पंचिदियजादी, तसकाओ, वे जोग, णत्रुंसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, दो दंसण, दव्वेण काउ-सुक्क - लेस्साओ, भावेण मज्झिम - काउलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो,
उन्हीं द्वितीय पृथिवी गत नारकोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर आदिके चार गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास. छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और वैक्रियिककाययोग ये नौ योग, नपुंसक वेद चारों कषाय, तीनों अज्ञान और आदिके तीन ज्ञान ये छह ज्ञान, असंयम, आदिक तीन दर्शन, द्रव्यसे कालाकालाभास कृष्णलेश्या, भावसे मध्यम कापोतलेश्या, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः क्षायिकसम्यक्त्वके विना पांच सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
उन्हीं द्वितीय पृथिवी गत नारकोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, नपुंसक वेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ललेश्याएं, भावसे मध्यम कापोतलेश्या, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः मिथ्यात्व, संज्ञिक, आहारक, अनाहारकः साकारोपयोगी और
नं. ५१
ग. जी. प. प्रा. सं. ग. | ई. क.! यो । वे. क. ज्ञा. ४ १ ६ १०४ | १|१|१
१ ४ ६
मि.
न
सा. पं
स.
अ.
पच.
द्वितीयपृथिवी - नारक पर्याप्त आलाप.
म. ४
च. ४
संय. द. ले. भ. स.
३ द्र. १ २ ५ के द. कृ. भ. मि. विना. मा. १ अ. सासा.
का.
१
ज्ञा. ३ असं
अज्ञा. ३
सम्य. औप.
क्षायो.
संज्ञि. आ. उ.
१ १. २ सं. आहा साका. अना.
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा" ।
मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, णqसयवेद, चत्तारि कसाय, तिणि अण्णाण, असंजम, दो दंसण, दव्येण कालाकालाभास-काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण मज्झिमा काउलेस्सा, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुबजुत्ता वा।
अनाकारोपयोगी होते हैं।
द्वितीय-पृथिवी-गत मिथ्यादृष्टि नारकोंके आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, संशी-पर्याप्त और संत्री-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, वैक्रियिककाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योग, नपंसकवेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्ष और अचाच ये दो दर्शन, द्रव्यसे कालाकालाभास कृष्णलेश्या तथा कापोत लेश्याएं, भावसे मध्यम कापोतलेश्या, भव्यासद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं. ५२
सं. अ. -
द्वितीयपृथिवी-नारक अपर्याप्त आलाप. जी. प. प्रा. सं. ग. इं.का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ स. सनि.। आ. | उ. |
६७४ १११ २ १४, २१ २ द्र.२ २१ १२२ अ. न.पं. वै. मि कुम. असं. चक्षु. का. भ. मि. सं. आहा. साका कुश्रु. अच. शु. अ.,
अना. भा.१ । का.
कामे.
| अना.
नं. ५३
द्वितीयपृथिवी-नारक मिथ्यादृष्टि सामान्य आलाप. प्रा. |सं ग.ई. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ! ले. भ. स. संज्ञि. आ.| उ. | १०|४|११ ११ १ ४ ३ १ २ द्र.३२ १ १२२ न. पं. स. म.
अज्ञा. असं. चक्षु. कृ. भ. मि. सं. आहा. साका. अच, का. शु. अ.
अना. अना. भा.१
सं.प.सं.अ.
का१
का.
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्गणं तेसिं चेव पञ्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, णqसयवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजम, दो दंसण, दव्वेण कालाकालाभासलेस्सा, भावेण मज्झिमा काउलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छतं, सणिणो, आहारिणो, सागास्त्रजुत्ता होति अणागावजुत्ता वा ।
तेसिं चेव अपजत्ताण भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णा, णिरयगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, वे जोग, णqसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, दो दंसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण मज्झिमा काउलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो,
उन्हीं द्वितीय-पृथिवी-गत मिथ्यादृष्टि नारकोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और वैक्रियिककाययोग ये नौ योग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे कालाकालाभास कृष्णलेश्या, भावसे मध्यम कापोतलेश्याः भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, मिथ्यात्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं द्वितीय-पृथिवी-गत मिथ्यादृष्टि नारकोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संझी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगति, पंचन्द्रियजाति, त्रसकाय, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, दो अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ललेश्याएं, भावसे मध्यम कापोतलेश्या, भव्य
नं.५४
द्वितीयपृथिवी-नारक मिथ्यादृष्टि पर्याप्त आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं.ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संज्ञि. आ. | उ. ११ ६ १०४ १ १ १ ९ १४ ३ १ २ द्र. १२१ ११२ मि. सं. प. न. पंचे. बस. म ४ अज्ञा. असं. च. कु. म. मि. सं. आहा. साका.
अच. भा १ अ.
अना.
का.
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६८ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, १. आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा ।
सासणसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जतीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, णQसयवेद, चत्तारि कसाय, तिणि अण्णाण, असंजम, दो दंसण, दवेण कालाकालाभासलेस्सा, भावण मज्झिम-काउलेस्सा; भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
सिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः मिथ्याध, संशिक, आहारक, अनाहारकः साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
द्वितीय-पृथिवी गत सासादनसम्यग्दृष्टि नारकोंके आलाप कहने पर-एक सासादन गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और वैक्रियिककाययोग ये नौ योग, नपुं. सकवेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे कालाकालाभास कृष्णलेश्या, भावसे मध्यम कापोतलेश्या, भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं. ५५ द्वितीयपृथिवी-नारक मिथ्यादृष्टि अपर्याप्त आलाप. गु.जी.प.प्रा.सं. ग. ई. । का. यो. वे. क. ना. | संय- द. ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ. । ११६/७/४/१ १ १२ १/४ | २ | १२ द. २२/१/१२२ मि.सं. न. पंचे. वस. वै. मि. कुम. असं. चक्षु. का. म. मि. सं. आहा. साका. कार्म.
अचक्षु. शु. अ. अना. अना.
भा १
नपुं. .
कुक्ष
नं. ५६ द्वितीयपृथिवी-नारक सासादनसम्यग्दृष्टि आलाप. | गु.जी. प. प्रा. सं. ग. इं.का. यो. | वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संज्ञि.
आ.
उ.
. पंचे. 0. त्रस.
म. ४.
सं.प.
नपुं..
अज्ञा. असं. चक्षु. कृ. भ.
अच.भा.१
सासा..
सं. आहा. साका.
अना.
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-पवणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं
[४६९ सम्मामिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पन्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, णqसयवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाणाणि तीहि अण्णाणेहिं मिस्साणि, असंजम, दो दसण, दव्वेण कालाकालाभासलेस्सा, भावेण मज्झिमा-काउलेस्साः भवसिद्धिया, सम्मामिच्छत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
___ असंजदसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, णqसयवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजम, तिणि दंसण, दव्वेण कालाकालाभासलेस्सा, भावेण मज्झिमा काउलेस्सा; भवसिद्धिया, खइयसम्मत्तेण विणा दो
द्वितीय-पृथिवी-गत सम्यग्मिथ्या दृष्टि नारकोंके आलाप कहने पर-एक सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और वैक्रियिककाययोग ये नौ योग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञानमिश्रित आदिके तीन ज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे कालाकालाभास कृष्णलेश्या, भावसे मध्यम कापोतलेश्या, भव्यसिद्धिक, सम्यामिथ्यात्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
द्वितीय-पृथिवी-गत असंयतसम्यग्दृष्टि नारकोंके आलाप कहने पर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और वैक्रि. यिककाययोग ये नौ योग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, आदिके तीन शान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कालाकालाभास कृष्णलेश्या, भावसे मध्यम कापोतलेश्या, भव्यसिद्धिक,
.
नं. ५७
द्वितीय पृथिवी-नारक सम्यग्मिथ्यादृष्टि आलाप. | गु. जी.प प्रा. सं. ग. ई का. यो. के. क. ज्ञा. । संय. द. ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ. । १. १।६ 10 ४१।११ ९ १।४ ३ १ २ द्र.११।१।१ १ .सं.प.
! न. म.४ : ज्ञान. असं.च. कृ.भ.सम्य. सं. आहा. साका.
व. ४ ३ अच, । भा.१
अनाका. का.
सम्य,
पचे. .
अज्ञा..
मिथ.
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७.] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. सम्मतं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
एवं तदिय-पुढवि-आदि जाव सत्तम-पुढवि ति चदुण्हं गुणहाणाणमालावो वत्तव्यो। णवरि विसेसो तदियाए णवण्हं इंदयाणं मज्झे उवरिम अट्ठसु इंदएसु उक्कस्सिया काउलेस्सा भवदि । हेट्ठिमए णवमे इंदए केसिंचि जीवाणमुक्कस्सिया काउलेस्सा केसिंचि जहणिया णीललेस्सा । कुदो ? जहण्णुक्कस्स-णील-काउलेस्साणं सत्त-सागरोवमकाल-णिदेसादो। तेण तदिय-पुढवीए उक्कस्सिया काउलेस्सा जहणिया णीललेस्सा च वत्तव्या। चउत्थीए पुढवीए मज्झिमा णीललेस्सा। पंचमीए पुढवीए चउण्हमुवरिम-इंदयाणं उक्कस्सिया णीललेस्सा चेव भवदि । पंचए उक्कस्सिया णीललेम्मा जहण्णा किण्हलेस्सा च भवदि । कुदो ? जहणुक्कम्स-किगह-णीललेम्माणं मत्तारम-मागरोवम-काल-णिमादो ।
सायिकसम्यक्त्वके विना औपशमिक और क्षायोपशमिक ये दो सम्यक्त्व. संशिक. आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
इसीप्रकार तृतीय-पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक नारकियोंमे चारों गुणस्थानोंके आलाप कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि तृतीय पृथिवीके नो इन्द्रक बिलोंमेंसे ऊपरके आठ इन्द्रक बिलोंमें उत्कृष्ट कापोतलेश्या होती है और नीचेके नौवें इन्द्रक बिलमें कितने ही नारकी जीवोंके उत्कृष्ट कापोतलेश्या होती है, तथा कितने ही नारकोंके जघन्य नीललेश्या होती है, क्योंकि, जघन्य नीललेश्या और उत्कृष्ट कापोतलेश्याकी सात सागरोपम स्थितिका आगममें निर्देश है। अतएव तीसरी पृथिवीके नौवें इन्द्रक बिल में ही उत्कृष्ट कापोत और जघन्य नीललेश्या बन सकती है। इसप्रकार तृतीय पृथिवीमें उत्कृष्ट कापोतलेश्या और जघन्य नलिलेश्या कहना चाहिए। चौथी पृथिवीमें मध्यम नीललेश्या है। पांचवीं पृथिवीके पांच इन्द्रक बिलोंमेंसे ऊपरके चार इन्द्रक बिलोंमें उत्कृष्ट नाललेल्या ही है,
और पांचवें इन्द्रक बिलमें उत्कृष्ट नील लेश्या तथा जघन्य कृष्णलेश्या है, क्योंकि, जघन्य कृष्णलेश्या और उत्कृष्ट नीललेश्याका आगममें सत्रह सागरप्रमाण कालका निर्देश किया
नं. ५८ द्वितीयपृथिवी-नारक असंयतसम्यग्दृष्टि आलाप. । गु. जी. प. प्रा. सं. ग.) ई.का. यो. वे. क. ज्ञा संय | द. ले. भ. स. संझि. आ. | उ. |
१६ १० ४ १ १ | १९ १४ ३ १ ३ द्र.१ १ २ १ १ २ अवि.संप. । न. पंचे. त्रस. म. ४ . मति. असं. के.द. कृ. भ. औप. सं. आहा. साका. । श्रुत. विना भा. १ . क्षायो.
अना. अव.
का.
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि - आलाववण्णणं
[ ४७१
एदाओ दो लेस्साओ पंचम - पुढवी- रइयाणं भवंति । छट्टीए पुढवीए रइयाणं मज्झिमकिण्हलेस्सा भवदि । सत्तमीए पुढवीए णेरइयाणं उक्कस्सिया किण्हलेस्सा भवदि ।
तिरिक्खगईए तिरिक्खाणं भण्णमाणे तिरिक्खा पंचविधा भवंति, तिरिक्खा पंचिदियतिरिक्खा पंचिदियतिरिक्खपजत्ता पंचिदियतिरिक्खजोगिणी पंचिदियतिरिक्खअपजचा चेदि । तत्थ तिरिक्खाणं भण्णमाणे अस्थि पंच गुणट्ठागाणि, चोहस जीवसमासा, छ पजत्तीओ छ अपजत्तीओ पंच पज्जतीओ पंच अपजत्तीओ चत्तारि पजत्तीओ चत्तारि अपत्तीओ, दस पाण सत्त पाण णव पाण सत्त पाण अट्ठ पाण छ पाण सत्त पाण पंच पाण छ पाण चत्तारि पण चत्तारि पाण तिष्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, एईदियजादि -आदी पंच जादीओ, पुढविकायादी छकाय, एगारह जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, छ णाण, दो संजम, तिणि दंसण, दव्य-भावेहिं छ लेस्सा, भवसिद्धिया अमवसिद्धिया, छ सम्मत्ताणि, सण्णिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारु
गया है । अतएव पांचवी पृथिवीके पांचवें इन्द्रक बिलमें ही उत्कृष्ट नलिलेश्या और जघन्य कृष्णलेश्या बन सकती है। इसप्रकार ये दोनों ही लेश्याएं पांचवीं पृथिवीके नारकी जीवोंके होती हैं । छठी पृथिवीके नारकोंके मध्यम कृष्णलेश्या होती है। सातवीं पृथिवीके नारकोंके उत्कृष्ट कृष्णलेश्या होती है ।
इसप्रकार नरकगतिके आलाप समाप्त हुए ।
अब तियंचगतिके आलापोंको कहते हैं । तिर्यंच पांच प्रकारके होते है, १ तिर्यंच, २ पंचेन्द्रिय तिर्यच, ३ पंचेन्द्रिय पर्याप्त निर्यच, ४ पंचेन्द्रिय योनिमती तिर्यंच, और ५ पंचेन्द्रिय लग्भ्यपर्याप्त तिर्यच । इनमेंसे सामान्य तिर्यत्रों के आलाप कहने पर - आदिके पांच गुणस्थान, चौदह जीवसमास, संशीके छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; असंशी और विकलत्रयोंके पांच पर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां: एकेन्द्रिय जीवोंके चार पर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां; संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचोंके दशों प्राण, सात प्राणः असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचोंके नौ प्राण, सात प्राणः चतुरिन्द्रिय जीवोंके आठ प्राण, छह प्राणः त्रीन्द्रिय जीवोंके सात प्राण, पांच प्राणः द्वीन्द्रिय जीवोंके छह प्राण, चार प्राणः और एकेन्द्रिय जीवोंके चार प्राण, तीन प्राणः क्रमशः पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्थामें होते हैं। चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छहों काय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योग, तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान और आदिके तीन ज्ञान ये छह ज्ञान, असंयम और देशसंयम ये दो संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः छहों सम्यक्त्व, संशिक, असंशिक आहारक, अनाहारक साकारोपयोगी
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
४७२ 1 छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. वजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि पंच गुणट्ठाणाणि, सत्त जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ पंच पजत्तीओ चत्तारि पजत्तीओ, दस पाण णव पाण अट्ट पाण सत्त पाण छ पाण चत्तारि पाण, चत्तरि सण्णा, तिरिक्खगई, एइंदियजादि-आदी पंच जादीओ, पुढविकायादी छकाया, णव जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, छण्णाण, दो संजम,
और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं सामान्य तिर्यंचोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर--आदिके पांच गुणस्थान, पर्याप्तसंबन्धी सातों जीवसमास, संशी-पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके छहों पर्याप्तियां, असंशी-पर्याप्त पंचेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय तिर्यचोंके पांच पर्याप्तियां. एकेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंचोंके चार पर्याप्तियां, संज्ञी पंचेन्द्रियोंके दशों प्राण, असंही पंचेन्द्रियोंके नौ प्राण, चतुरिन्द्रिय जीवोंके आठ प्राण, बान्द्रिय जीवोंके सात प्राण, द्वीन्द्रिय जीवोंके छह प्राण और एकेन्द्रिय जीवोंके चार प्राण होते हैं। चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, एकेन्द्रियादि पांचों जातियां, पृथिवीकायादि छहों काय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग, तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान और आदिके तीन शान ये छह ज्ञान, असंयम, और देशसंयम ये दो संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्य
नं. ५९
सामान्य तिर्यंचोंके आलाप. गु.जी. प. प्रा. । सं. ग. इं. का. यो. । वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संज्ञि., आ. उ. १४६ प. १०,७४|१५ ६। ११ | ३ ४] ६ । २ : ३ द्र. ६२६ २ २ २ ६ अ. ९,७ ति. म. ४ ज्ञा ३ असं. के. द. भा.६ भ. सं. आहा. साका.
अ.३ दश. विना. अ. सं. अना अना.
औ.२ ४५. ६,४
प.। ८,६
Sax
नं.६०
। गु.
जी.
प.
सामान्य तिर्यंचोंके पर्याप्त आलाप. प्रा. सं. ग.. का. यो. वे. क. | ज्ञा. संय. द. | ले. म. स. संज्ञि. आ.। 3. |
३/४/६ २ ३ द्र.६ २६ २१२ म. ४
ज्ञान.३ असं. के.द. भा.६ सं. आहा. साका. अज्ञा.३ देश, विना.
असं. अना.
मि. पर्या. ५
अभ. भ..
सा.
औ..
सम्य.
अवि. | देश.
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं
[ ४७३ तिण्णि देसण, दव्य-भावेहि छ लेस्सा, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सण्णिणो, असणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता अणागारुवजुत्ता वा होति ।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि तिणि गुणट्ठाणाणि, सत्त जीवसमासा, छ अपज्जत्तीओ पंच अपजत्तीओ चत्तारि अपञ्जत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण छ पाण पंच पाण चत्तारि पाण तिणि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, एइंदियजादि-आदी पंच जादीओ, पुढविकायादी छ काया, बे जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, विभंगणाणेण विणा पंच णाण, असंजम, तिणि दंसण, दव्येण काउ-सुक्कलेस्प्ता, भावेण किण्ह-णील काउलेस्साओ । कि कारणं ? जेण तेउ-पम्मलेस्सिया वि देवा तिरिक्खेसुप्पजमाणा णियमेण णट्ठ-लेस्सा भवंति त्ति । भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं सासणसम्मत्तं खइयसम्मत्तं कदकरणिजं पडुच्च वेदगसम्मत्तं एवं चत्तारि सम्मत्तं,
सिद्धिक, अभव्यसिद्धिका सम्यक्त्व, संशिक, असंज्ञिक; आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं सामान्य तिर्यंचोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-मिथ्यादृष्टि सासादनसम्यग्दृष्टि और अविरतसम्यग्दृष्टि ये तीन गुणस्थान, अपर्याप्तसंबन्धी सातों जीवसमास, संशी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तोंके छहों अपर्याप्तियां, असंही पंचेन्द्रियों और विकलत्रयोंके पांच अपर्याप्तियां, एकेन्द्रियोंके चार अपर्याप्तियां, संशी पंचेन्द्रियोंके सात प्राण, असंही पंचेन्द्रियोंके सात प्राण, चतुरिन्द्रियोंके छह प्राण, त्रीन्द्रियोंके पांच प्राण, द्वीन्द्रियोंके चार प्राण और एकेन्द्रिय जीवोंके तीन प्राण होते हैं। चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छहों काय, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, तीनों वेद, चारों कषाय, विभंगावधिज्ञानके विना पांच ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ललेश्याएं, भावसे कृष्ण नील और कापोत लेश्याएं, होती हैं।
शंका-सामान्य तिर्यंचोंके अपर्याप्तकालमें तीनों अशुभ लेश्याएं ही क्यों होती हैं ?
समाधान-क्योंकि, तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावाले भी देव यदि तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं तो नियमसे उनकी शुभलेश्याएं नष्ट हो जाती हैं, इसलिये तिर्यचोंकी अपर्याप्त अवस्थामें तीन अशुभ लेश्याएं ही होती हैं।
लेश्या आलापके आगे भव्यसिद्धिक अभव्यसिद्धिक, मिथ्यात्व, सासादनसम्यक्त्व, क्षायिकसम्यक्त्व और कृतकृत्यकी अपेक्षा वेदकसम्यक्त्व इस प्रकार चार सम्यक्त्व, संझिक,
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
४७४ ] छरखंडागमे जीवट्वाणं
[१, १. सणिणो असणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुक्जुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा।
संपहि तिरिक्ख-मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, चोद्दस जीवसमासा, छ पजत्तीओ छ अपजत्तीओ पंच पज्जत्तीओ पंच अपञ्जत्तीओ चत्तारि पञ्जत्तीओ चत्तारि अपजत्तीओ, दस पाण सत्त पाण णव पाण सत्त पाण अट्ठ पाण छ पाण सत्त पाण पंच पाण छ पाण चत्तारि पाण चत्तारि पाण तिण्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, एइंदियजादि-आदी पंच जादीओ, पुढविकायादी छक्काया, एगारह जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिणि अण्णाण, असंजम, दो दसण, दव-भावेहि छ असंशिक; आहारक, अनाहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
अब तिर्यच मिथ्यादृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, चौदहों जीवसमास, संशी पंचेन्द्रियों के छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; असंही पंचेन्द्रियों और विकलत्रयोंके पांच पर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां, एकेन्द्रियोंके चार पर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियांः संशी पंचोन्द्रयोंके दश प्राण और सात प्राण, असंही पंचेन्द्रियोंके नौ प्राण और सात प्राण, चतुरिन्द्रियोंके आठ प्राण और छह प्राण, त्रीन्द्रियोंके सात प्राण और पांच प्राण, द्वीन्द्रियोंके छह प्राण और चार प्राण, एकेन्द्रियोंके चार प्राण और तीन प्राण क्रमशः पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्थामें होते हैं। चारों संशाएं, तिथंचगति, एकोन्द्रिय जाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छहों काय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योग, तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अक्षान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्य और भावसे नं. ६१
सामान्य तिर्यंचोंके अपर्याप्त आलाप. । गु. | जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे.क. ज्ञा. संय. द. | ले. भ. स. संज्ञि. आ.| उ.
३ । ७६अ.७ ४१ ५। ६ मि. अ.प.
| औ.मि. कुम. असं. के. द. का. मि | सं. आहा. साका'
कुथु. | शु. सा. असं अना. आना मंति. श्रुत.
सा.
कार्म.
| KM GG
भा.३
क्षा क्षायो..
| अशु.
अव.
नं. ६२
सामान्य तिर्यंच मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप. | गु.जी. प. प्रा. सं. ग. इं.का. यो. ! वे. क. ज्ञा. संय. द. | ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ. १।४६५. १०,७४|१|५|६ ११ | ३ ४ ३ १ २ द६ २ १ १ २ । २ ६अ. ९,७
अज्ञा. असं. च. भा. ६ म. मि. सं. आहा. साका
अभ. असं. अना. अना.
का.१
४अ.
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं
[ ४७५ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता हाँति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, सत्त जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ पंच पजत्तीओ चत्तारि पजत्तीओ, दस पाण णव पाण अट्ट पाण सत्त पाण छप्पाण चत्तारि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, एइंदियजादि-आदी पंच जादीओ, पुढविकायादी छक्काय, णव जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दसण, दव-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छतं, सणिणो असणिणो, आहारिणो, सागारबजुत्ता होति अणागावजुत्ता वा ।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, सत्त जीवसमासा, छ
छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः मिथ्यात्व, संज्ञिक, असंज्ञिक आहारक, अनाहारका साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं सामान्य तिर्यंच मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादष्टि गुणस्थान, पर्याप्तसंबन्धी सातों जीवसमास, संज्ञीके छहों पर्याप्तियां, असंही और विकलत्रयोंके पांच पर्याप्तियां, एकेन्द्रियोंके चार पर्याप्तियां: संक्षीके दशों प्राण, असंहीके नौ प्राण, चतुरिन्द्रिय जीवोंके आठ प्राण, त्रीन्द्रिय जीवोंके सात प्राण, द्वीन्द्रिय जीवोंके छह प्राण और एकेन्द्रिय जीवोंके चार प्राण: चारों संज्ञाएं, तियंचगति, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकायादि छहों काय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग औदारिककाययोग ये नो योगः तीनों वद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक मिथ्यात्व, संशिक, असंज्ञिकः आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं सामान्य तिर्यंच मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपर्याकालसंबन्धी आलाप कहने परएक मिथ्याहाट गुणस्थान, अपर्याप्तसंबन्धी सातों जीवसमास, संझीके छहों अपर्याप्तियां,
नं. ६३
सामान्य तिर्यंच मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप. म. जी प. प्रा. सं. ग. इं.का. यो. व. के. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. सनि। आ.
१०४ १५६ ९ ३ ४ ३ १ २ द्र.६२ १ २. i-५/९ ति. म. ४ अज्ञा. असं. चक्षु. भा. ६ भ. मि. सं. | आहा. व.४
असं ।
।
उ, |
पर्या. 6
अच.
साका. अना.
औ. १
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
४७६] छक्खंडागमे जीवहाणं
[१, १. अपज्जत्तीओ पंच अपञ्जत्तीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण छप्पाण पंच पाण चत्तारि पाण तिण्णि पाण, चत्तारि सण्णा, तिरिक्खगदी, एइंदियजादि-आदी पंच जादीओ, पुढविकायादी छक्काय, वे जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, दो दसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण किण्ह-णील काउलेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
तिरिक्ख-सासणसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, दो जीवसमासा, छ पज्जाओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णा, तिरिक्खगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण,
असंही और विकलत्रयोंके पांच अपर्याप्तियां, एकेन्द्रियोंके चार अपर्याप्तियां, संत्रीके सात प्राण, असंज्ञीके सात प्राण, चतुरिन्द्रिय जीवोंके छह प्राण, त्रीन्द्रिय जीवोंके पांच प्राण, द्वीन्द्रिय जीवोंके चार प्राण और एकेन्द्रिय जीवोंके तीन प्राण; चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छहों काय, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाय. योग ये दो योग, तीनों वेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अक्षान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील, और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संशिक, असंशिक आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
सामान्य तिर्यंच सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके ओघालाप कहने पर एक सासादनगुणस्थान, संशी-पर्याप्त और संझी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योग; तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और
नं. ६४
सामान्य तिर्यंच मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. । वे. क. बा. संय. द. । ले. भ.स. संन्नि. | आ. | उ...
1/७ ६अप. ७ ४१५६ २ ३ ४ २ १ २ द्र. २ २१ २ २ । २ मि. अप. ५, ७ति . औ.मि. कुम. असं. च. का. भ.मि. सं. आहा. साका.
कार्म. कुश्रु. अच. शु. अ. असं. | अना. अना.
99 tysxm]
भा३
। अशु.
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगदारे गदि-आलाववण्णणं
[४७७ असंजम, दो दंसण, दव्व-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुखजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।।
तेसिं चेव पञ्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पञ्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णा, तिरिक्खगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजम, दो दंसण, दव्व-भावेहिं छ लेस्सा, भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
अवक्षु ये दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारकः साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं सामान्य तिर्यंच सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक सासादन गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, पंचेन्द्रियजाति, बसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योगः तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं. ६५ सामान्य तिर्यंच सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप. | ग. जी. प. प्रा. सं.ग. ई. का. यो. वे. क. ना. संय, द. ले. भ. स. संज्ञि. आ.। उ. ।
१ २ ६५.१० ४ १ १ ११ ३ ४ ३ १ २ द्र.६ १ १ १ २ २ सा.सं.प, ६अ. ७. ति पंचे. स. म. ४ अज्ञा. असं. चक्षु. भा.६ म.सासा. सं. आहा. साका. सं.अ.
व.४। । अच.
अना. अना. औ.२ : का... ।
नं ६६ सामान्य तिर्यंच सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप. । गु.) जी. प ! प्रा. सं. ग. | इं. का. | यो. | थे. क. शा. संय. ६. ले. भ. सं.सज्ञि. आ.| उ. |
सा. सं.प.
ति. पंचे.
स. म. ४
अला. असं. चक्षु. भा.६ भ.
अच.
सासा...
सं. आहा.साका.
अना.
औ.१
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
४७८] छक्खंडागमे जीवाणं
[१, १. तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, वे जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, दो दंसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्सा, भवसिद्धिया, सामणसम्मत्तं, सणिणो, आहारिणी अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा ।
तिरिक्ख-सम्मामिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्टाणं, ओ जीवसमामो, छ पजत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिणि णाण तीहि अण्णाणहि मिम्माणि, असंजम, दो दंसण, दव्व-भावहिं छ लेम्मा, भवसिद्धिया, सम्मामिच्छत्तं, मणिणा,
___ उन्हीं सामान्य तिथंच सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालनबन्धी आलाप कहने पर-एक सासादन गुणस्थान, एक संशी-अपर्याप्त जीवसमास. छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं. तिथंचगति, पंचेन्द्रियजाति, बसकाय, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, तीनों वेद, चारों कपाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे कापात और झाक्त लेट्या, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं: भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते है।
सामान्य तिर्यच सम्याग्मिथ्यादष्टि जीवोंके आलाप कहने पर--एक सम्यग्मिथ्याए गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां. दशों प्राण, चारों संज्ञापं. तिथंच. गति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योगः तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञानोंसे मिश्रित आदिके तीन ज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यासिद्धिक, सम्यग्मिथ्यात्व,
नं.६७ सामान्य तिर्यंच सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप. । गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संक्षि. आ. उ. । १ १ ६ ७ ४ १ १ १ २ ३ ४ २ १ २ द्र.२ १ १ १ . २ , २ सा. सं.अ. अप. ति. .मि कु.म. असं. चक्षु. का. शु. भ. सासा. सं. आहा. साका, काम. कु.श्र. अच, मा.३
अना. । अना.
पंचे - त्रस.
अश.'
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं
[ ४७९ आहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा ।
तिरिक्ख-असंजदसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, दो जीवसमासा, छ पजत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णा, तिरिक्खगदी, पंचिंदियजादी, तमकाओ, एगारह जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिणि णाण, अमंजम, तिणि दंसण, दव्य-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, तिष्णि सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणा अणाहारिणो, सागारवजुत्ता हाँति अगागारुवजुत्ता वा ।
मंज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
सामान्य तिथंच असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक अविरत. सम्यग्दृष्टि गुणस्थान, संज्ञी-पर्याप्त और संज्ञी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां और छहों अपर्याप्तियां. दशों प्राण, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योगः तीनों वेद, चारों कपाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेझ्यापं, भव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्वः संशिक, आहारक, अनाहारका साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं. ६८
सामान्य तिर्यंच सम्याग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप. गु. जी. प. प्रा. सं. ग.| ई. का. यो. वे. क. शा. संय. द. ले. भ. स. संज्ञि.
आ. । उ. ।
सम्य. .
सं.प.
ति. पंचे. त्रस. म. ४
ज्ञान. असं. च. भा. ६ म. सम्य. सं.
आहा. साका.
अना.
अज्ञा. मिश्र
नं ६९ सामान्य तिर्यंच असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं ग. ई. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स, संझि. आ. | उ. १ १ ६ १०४ १ १ १ ११ ३ ४ ३ १ ३ द्र.६ १ ३ १ २ सं.प. प.७ ति. पंचे. त्रस. म.४ मंति. असं. के द. भा. ६ म. औ. सं. आहा. साका.
श्रुत. विना.
अना. अना. क्षायो.
अवि...
क्षा.
अव.
का.१
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
४८० ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्टाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजम, तिण्णि दसण, दव्व-भावहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ अपजत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णा, तिरिक्खगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, वे जोग, पुरिसवेद, चत्तारि कसाय, तिणि णाण, असंजम, तिण्णि दसण, दब्वेण काउसुक्कलेस्सा, भावेण जहणिया काउलेस्सा, भवसिद्धिया, उवसमसम्मत्तेण विणा दो
. उन्हीं सामान्य तिर्यंच असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग, तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व; संज्ञिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं सामान्य तिर्यंच असंयतसम्यग्दष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहन पर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, तिथंचगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, पुरुषवेद, चारों कषाय, आदिके तीन शान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्या, भावसे जघन्य कापोतलेश्याः भव्यसिद्धिक, उपशमसम्यक्त्वके घिना क्षायिक और क्षायोपशमिक ये दो सम्यक्त्व होते हैं।
-
७०
सामान्य तिर्यंच असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप.
। गु. जी. प. प्रा सं. ग. | इं.का.
यो.
वे. क.
शा.
संय.
द.
ले.
भ.
स.
संज्ञि.
आ.
उ.
अवि. -
ति.
पंचे. . वस.
म. ४ व. ४
मति. असं. के.द. भा.६ म. औ. श्रुत. पिना।
क्षा. अव.
क्षायो.
सं. आहा. साका.|
अना.
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
१,१.] संत पररवणाणुयोगहारे गदि-आलाववण्णणे
[४८१ सम्मत्तं । मणुस्मा पुयबद्ध-तिरिक्खयुगा पच्छा सम्मत्तं घेत्तूण दंसणाहणीयं खविय खइयसम्माइट्ठी होदण असंखेज्ज-वस्सायुगेसु तिरिक्खेसु उप्पज्जति ण अण्णत्थ, तेण भोगभूमि-तिरिक्खेसुप्पज्जमाणं पेक्खिऊण असंजदसम्माइट्ठि'-अपज्जत्तकाले खइयसम्मत्तं लब्भदि । तत्थ उप्पज्जमाण-कदकरणिज्जं पडुच्च वेदगसम्मत्तं लब्भदि। एवं तिरिक्खअसंजदसम्माइटिस अपज्जत्तकाले दो सम्मत्ताणि हवंति । सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता हाँति अणागारुखजुत्ता वा ।
तिरिक्ख-संजदासजदाणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णा, तिरिक्खगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, संजमासंजमो, तिणि दंसण, दव्वेण
पूर्वोक्त दो सम्यक्त्वोंके होनेका यह कारण है कि जिन मनुष्योंने सम्यग्दर्शन होनेके पहले तिर्यंच आयुको बांध लिया है वे पीछे सम्यक्त्वको ग्रहण कर और दर्शनमोहनीयको क्षपण करके क्षायिकसम्यग्दृष्टि होकर असंख्यात वर्षकी आयुवाले भोगभूमिके तिर्यंचोंमें ही उत्पन्न होते हैं, अन्यत्र नहीं। इस कारण भोगभूमिके तिर्यंचों में उत्पन्न होनेवाले जीवोंकी अपेक्षासे असंयतसम्यग्दृष्टिके अपर्याप्तकालमें शायिकसम्यक्त्व पाया जाता है। और उन्हीं भोगभूमिके तिथचों में उत्पन्न होनेवाले जीवोंके कृतकृत्यवेदककी अपेक्षा वेदकसम्यक्त्व भी पाया जाता है । इसप्रकार तिर्यच असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालमें दो सम्यक्त्व होते हैं। सम्यक्त्व आलापके आगे संशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
सामान्य तिर्यंच संयतासंयत जीवोंके आलाप कहने पर-एक देशविरत गुणस्थान, ऐक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, पंचोन्द्रयजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योगः तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, संयमासंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे पीत, पद्म और शुक्ल लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, क्षायिकसम्यक्त्वके
१ प्रतिषु हिप्पहुडि ' इति पाठः । नं. ७१ सामान्य तिर्यंच असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप. (गु. जी. प. प्रा. सं | ग. इं.का. । यो. वे. क. ज्ञा. | संय.। द. । ले. भ. स. ।संक्षि. आ.। उ. ११ ! ६ ७ ४|१११! २ १ ४ ३ | १ ३ । द्र.२ १ २ १ |
२ २ स.अ.
त. स. आ.मि. पु. मति. असं. के. द का. भ. क्षा. सं. आहा. साका. | कार्म. श्रुत. विना शु. क्षायो अना. अना.
भा.१ । का.
आत्र.
अव.
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
४८२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. छ लेस्साओ, भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ, भवसिद्धिया, खइयसम्मत्तेण विणा दो सम्मत्तं । केण कारणेण ? तिरिक्ख-सजदासजदा दसणमोहणीयं कम्मं ण खवेंति, तत्थ जिणाणमभावादो । मणुस्सा पुवं बद्ध-तिरिक्खायुगा खइयसम्माइट्ठिणो कम्मभूमीसु ण उपजंति किंतु भोगभूमीसु । भोगभूमीसुप्पण्णा वि ण संजमासंजमं पडिवज्जंति, तेण तिरिक्ख-संजदासंजदट्ठाणे खइयसम्मत्तं णत्थि । सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुखजुत्ता वा ।।
पंचिंदिय-तिरिक्खाणं भण्णमाणे अत्थि पंच गुणट्ठाणाणि, चत्तारि जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपजत्तीओ पंच पज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण णव पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह
........
विना दो सम्यक्त्व होते हैं। क्षायिकसम्यक्त्वके नहीं होनेका कारण यह है कि संयतासंयत तिर्यंच दर्शनमोहनीय कर्मका क्षपण नहीं करते हैं, क्योंकि, वहांपर जिन अर्थात् केवली या श्रुतकेवलीका अभाव है। और पूर्वमें तिर्यंच आयुको बांधकर पीछे क्षायिकसम्यग्दृष्टि होनेवाले मनुष्य कर्मभूमियों में उत्पन्न नहीं होते हैं; किन्तु भोगभूमियोंमें ही उत्पन्न होते हैं। परंतु भोगभूमियोंमें उत्पन्न होनेवाले तिर्यंच संयमासंयमको प्राप्त नहीं होते हैं, इसलिये तिर्यचोंके संयतासंयत गुणस्थानमें क्षायिकसम्यक्त्व नहीं होता है। सम्यक्त्व आलापके आगे संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके सामान्य आलाप कहने पर-आदिके पांच गुणस्थान, संशी-पर्याप्त, संज्ञी-अपर्याप्त, असंज्ञी-पर्याप्त और असंज्ञी-अपर्याप्त ये चार जीवसमास, संशी पंचेन्द्रियोंके छहाँ पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां, असंज्ञी पंचेन्द्रियोंके पांच पर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां, संझी पंचेन्द्रियोंके दशों प्राण, सात प्राण; असंज्ञी पंचेन्द्रियोंके नौ प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योगः तीनों चंद,
नं. ७२
सामान्य तिर्यंच संयतासंयत जीवोंके आलाप.
। गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई.का. यो. 'वे. क. ज्ञा.
संय. द.
ले.
भ. स.
संज्ञि. आ.
उ. ।
देश..
ति..
पचे..
वस..
म.४ व. ४ आ. १
मति. देश. के.द. मा.३ भ. औप. सं. : आहा. साका. . श्रुत. विना. शुभ. क्षाया.
अना. अव..
।
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १. ]
संत- परूवणाणुयोगद्दारे गदि - आळाववण्णणं
[ ४८३
जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, छ गाण, दो संजम, तिण्णि दंसण, दव्व-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सण्णिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
* तेसिं चैव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि पंच गुणड्डाणाणि, दो जीवसमासा, छ पज्जतीओ पंच पत्तीओ, दस पाण णव पाण, चत्तारि सण्णा, तिरिक्खगदी, पंचदियजादी, तसकाओ, गव जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, छ णाण, दो संजम, तिण्णि
चारों कषाय, तीनों अज्ञान और आदिके तीन ज्ञान ये छह ज्ञान, असंयम और देशसंयम ये दो संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, छद्दों सम्यक्त्व, संज्ञिक, असंज्ञिकः आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
उन्हीं पंचेन्द्रिय तिर्यत्रोंके पर्याप्तकाल संबन्धी आलाप कहने पर - आदिके पांच गुणस्थान, संशी-पर्याप्त और असंज्ञी - पर्याप्त ये दो जीवसमास, संज्ञीके छहों पर्याप्तियां, असंज्ञीके पांच पर्याप्तियां: संज्ञीके दशों प्राण और असंज्ञीके नौ प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योगः तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान और आदिके तीन ज्ञान ये छह ज्ञान, असंयम और देशसंयम
नं. ७३
प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो.
११
१० ४ १ १ १ ति. पंत.
७
म. ४
गु. जी. ५ ४ ६प मि. सं.प. ६ अ. सा. स.अ. ५ प. ९ सम्य. अ.प. ५ अ. अवि. अ.अ देश.
व. ४
७
आ. २
का. १
नं. ७४
जी.
५
२
मि. सं.प.
सा. असं.
रा.
सम्य. प.
| अवि.
देश.
प.
पंचेन्द्रिय तिर्येच जीवोंके सामान्य आलाप.
६
५
उ.
वे. क. ज्ञा. संय. द. भ. स. संशि. आ. ३४ ६ २ ३ द्र. ६ २६ २ २ २ ज्ञान. ३ असं. के. द. भा. ६ भ. सं. आहा. साका. अज्ञा. ३ देश. विना. अ. असं. अना. अना.
पंचेन्द्रिय तिर्यच जीवोंके पर्याप्त आलाप.
प्रा. सं. ग. इं. का. | यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. ९ ३ ४ ६ २ ३ द्र. ६ म. ४ ज्ञान. ३ असं. के. द. मा.६ अज्ञा.३ देश, विना
१० ४ १ १ १
९
ति. पं. त्र.
व. ४
औ. १
भ. |स | संज्ञि. आ. | उ.
२ | ६
२ १
२
सं. आहा. साका. अस. अना.
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
४८४ ]
छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, १.
दंसण, दव्य भावेहिं छ लेस्सा, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मतं, सण्णिणो असणणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
सिं चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अस्थि तिण्णि गुणड्डाणाणि, दो जीवसमासा, छ अपजीओ पंच अपजत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णा, तिक्खगदी, पंचिदियजादी, तसकाओ, वे जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, पंच गाण, असंजम, तिणि दंसण, दव्त्रेण काउ- सुक्कलेस्साओ, भावेण किण्हणील- काउलेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, सम्मामिच्छत्तं उवसमसम्मत्तं णत्थि, मिच्छत्तं सासणसम्मत्तं खइयसम्मत्तं कदकरणिजं पडुच्च वेद्गसम्मत्तमिदि चत्तारि सम्मत्तं । सणिणो असणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
ये दो संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहीं लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः छहों सम्यक्त्व, संज्ञिक, असंज्ञिकः आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
उन्हीं पंचेन्द्रिय तिर्यचोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और अविरतसम्यग्दृष्टि ये तीन गुणस्थानः संझी- अपर्याप्त और असंज्ञीअपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां: सात प्राण, सात प्राणः चारों संज्ञाएं, तिर्यत्रगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, तीनों वेद, चारों काय, कुमति, कुश्रुत और आदिक तीन ज्ञान इसप्रकार पांच ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लक्ष्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं: गव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक होते हैं । इनके सम्यग्मिथ्यात्व और उपशमसम्यक्त्व नहीं होता है, किन्तु मिथ्यात्व, सासादनसम्यक्त्व, क्षायिकसम्यक्त्व और कृतकृत्यकी अपेक्षा वेदकसम्यक्त्व ये चार सम्यक्त्व होते हैं । संज्ञिक, असंज्ञिकः आहारक, अनाहारकः साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
नं. ७५
गु. जी. प.
३ २ ६अ. मि. सं, अप. ५, सा. असं. अ.
"
पंचेन्द्रिय तिर्येच जीवोंके अपर्याप्त आलाप.
प्रा. सं. ग. इं. का. यो.
७ ४ १ १ १
७
वे. क. ज्ञा. २ ३ | ४ ति. पं. स. ओ.मि.,
कार्म.
५
संय. द. ले. भ. स. संज्ञि. आ. 9 ३ द्र. २ २ ४ २ २ कुम. असं. के. द. का. सं कुश्रु. त्रिना. शु. मति.
भा. ३
श्रुत.
अशु.
अव.
उ.
२
मि. सं. आहा. साका. सा. असं अना. अना. क्षा.
क्षायो.
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगदारे गदि-आलाववण्णणं
[ ४८५ पंचिंदियतिरिक्ख-मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, चत्तारि जीवसमासा, छ पज्जतीओ छ अपजत्तीओ पंच पज्जत्तीओ पंच अपजत्तीओ, दस पाण सत्त पाण णव पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णा, तिरिक्खगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिणि अण्णाण, असंजम, दो दंसण, दव्य-भावेहि छ लेस्सा, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो असणिणो, आहारिणो अगाहारिगो, सागावजुत्ता होति अगागारुखजुत्ता वा ।
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अस्थि एयं गुणहाणं, दो जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ पंच पज्जत्तीओ, दस पाण णव पाण, चत्तारि सण्णा, तिरिक्खगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण,
पंचेन्द्रिय तिर्थच मिथ्या दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, संशी-पर्याप्त, संज्ञी-अपर्याप्त, असंज्ञी-पर्याप्त और असंज्ञी-अपर्याप्त ये चार जीव. समास, संजीकेव्ही पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां असंज्ञीके पांच पर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां; संज्ञीके दशों प्राण, सात प्राणः असंझीके नौ प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाथ, चारों महोदोग, चारी वचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग स्थारह योगः तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असयम, बसु और अचच येक्षे दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः मिथ्यात्व, संक्षिक, असंक्षिकाआहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं पंचेन्द्रिय तिथंच मिथ्यादष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, संज्ञा-पर्याप्त और असंशी पर्याप्त ये दो जीवसमास, संज्ञीके छहों पर्याप्तियां, असंशोके पांच पर्याप्तियां संशोक दशों प्राण, असंज्ञीके नौ प्राण; चारों संज्ञाएं, तिथंचगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नो योग; तीनों घेद, चारों कपाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो
नं. ७६ पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि जीयोंके सामान्य आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग.| ई. का यो. वे क . शा. । संय. द. | ले. भ. स. संसि. आ. उ. ।
10४१1१, ११ ३४ ३ १ २ द६२१, २ २ । २ मि सं. प.
४ असा. असं. चक्षु. भा ६ भ. मि. सं. आहा. साका.
अच.
अ. असं. अना. अना. असं.प. ५अ. ७ , अ.
पंचे. - ६
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
४८६] छक्खंडागमे जीवाणं
[१, १. असंजम, दो दंसण, दव्य-भावहिं छ लेस्पाओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो असणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुखजुत्ता वा ।
तेसिं चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, दो जीवसमासा, छ अपज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णा, तिरिक्खगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, वे जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, दो दंसण, दव्वेण काउ-मुक्कलेस्साओ, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो असणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारूवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा ।
दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः मिथ्यात्व, संज्ञिक, असंशिक आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं पंचेन्द्रिय तिथंच मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपर्याप्त काल संबन्धी आलाप कहने परएक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, संशी-अपर्याप्त और असंही-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, संझीके कहो अपर्याप्तियां, असंज्ञीके पांच अपर्याप्तियां: संज्ञीके सात प्राण और असंज्ञीके सात प्राण: चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, तीनों वेद, चारों कषाय, दो अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं: भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संशिक, असंशिकः आहारक, अनाहारकः साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं. ७७
पंचेन्द्रिय तिथंच मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप.
।
| गु. जी. प. प्रा. सं.ग. ई. का. यो.
१ २ ६ १०४ १ १ १ २ मि. सं.प. ५ ९ त. पंचे. स. म ४ असं.
- ओ.१
वे. क. ज्ञा. संय। द. ले, म. स. संज्ञि. आ. उ. ३ ४ ३ । १ । २द्र ६२ १ २ १ अज्ञा. असं. चक्षु. भा.६ भ. मि. सं आहा. | साका. अच. अ. अस.
अना.
नं. ७८ पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि जीवोंके अप
मालाप. । गु. जी. प. प्रा. | सं. | ग. इं.का. यो. वे. क. झा. | संय. द. ले. म. स. सज्ञि. आ. उ. । |१२|७| ४ १ १ १ २ ३ ४ २ | १२द्र. २/२१ २२ २ मि. सं. अ अ.७ ति. औ.मि. कुम. असं. चक्षु. का. म. मि. सं. आहा. साका. असं., ५
अचक्षु, शु. अ. असं. अना. अना.
मा ३
.सं. अ अ.
पंचे... त्रस...
कार्म.
कुञ्ज
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १. ] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं
[४८७ पंचिंदियतिरिक्ख-सासणसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्टाणं, दो जीवसमासा, छ पजत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णा, तिरिक्खगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजम, दो दंसण, दव्य-भावहिं छ लेस्सा, भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अस्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जतीओ, दम पाण, चत्तारि सण्णा, तिरिक्खगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिणि अण्णाण, असंजम, दो दमण, दव-भावहिं
पंचेन्द्रिय तिर्यंच सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक सासादन गुणस्थान, संज्ञी-पर्याप्त और संज्ञो अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां: दशों प्राण, सात प्राणः चारों संज्ञाएं, तिथंचगति, पंचेद्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योगः तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
__उन्हीं पंचेन्द्रिय तिर्यंच सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक सास.दन गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नो योगः तीनों बेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु
नं. ७९ पंचेन्द्रिय तिर्यंच सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप. । गु.जी. प. प्रा. | सं. ग.| ई.) का. ! यो. । वे | क. | झा. | संय. द. | ले. भ. स. सनि. आ. | उ. २६१०४१|१ १ ११ | ३ ४ ३ १ २ द्र.६ १ १ १ २ २ |प. ७ ति | प.स. म. ४ । अज्ञा. असं चक्षु. भा.६ भ. सा. सं. आहा. साका. व.४ । अच.
अना. अना. ओ.२
सं.प.सं.अ.
का १
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
४८८ ] छक्वंडागमे जीवाणं
[१, १. छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेंसि चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दो जोग, तिणि वेद, चनारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, दो दसण, दव्येण काउ-मुक्कलेस्साओ, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्साओ; भवसिद्धिया, सासण सम्मत्तं, मणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारूवजुत्ता वा ।
और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
___उन्हीं पंचेन्द्रिय तिर्यंच सासादनसम्यग्दष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक सासादन गुणस्थान, एक संज्ञी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, तिथंचगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, तीनों वेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेझ्यापः भव्यमिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं. ८०
पंचेन्द्रिय तिर्यंच सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप.
ग.जी. प. प्रा. सं. ग. इं.का.. यो.
वे. क. ज्ञा.
संय.
द.
ले.
भ. स. संक्षि.
आ.
उ. ।
।अज्ञा. असं. 'चक्षु. भा.६ भ. -
म.४ GR व. ४
ओ.१
। ! ।
सासा.
सं. आहा. , साका
अना.
नं. ८१ पंचेन्द्रिय तिर्यंच सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप. | गु. जी.प प्रा. सं. ग ई.का यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ. । १ १ ६ ७.४ १.१ १ २ ३ ४ २ १ । २ । द्र. २ १ १ १ २ २ स | सं.अ.अ.
औ.मि. म. असं. चक्षु. का. म.सासा. सं. आहा. साका. कार्म. कुश्रु. अच. शु.।
अना. अनाका. भा.३
। अश.]
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं
[४८९ पंचिंदियतिरिक्ख-सम्मामिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णा, तिरिक्खगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाणाणि तीहि अण्णाणेहि मिस्साणि, असंजमो, दो दंसण, दव्य-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, सम्मामिच्छत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुबजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
पंचिंदियतिरिक्ख-असंजदसम्माइट्टीण भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, दो जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपञ्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णा, तिरिक्खगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजम, तिणि दंसण, दव्व-भावहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं,
पंचेन्द्रिय तिर्यंच सम्यग्मिथ्याटिजीवोंके आलाप कहने पर-एक सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नो योगः तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञानोंसे मिश्रित आदिके तीन ज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, सम्यग्मिथ्यात्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
पंचेन्द्रिय तिर्यंच असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, संज्ञी-पर्याप्त और संज्ञी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां: दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, पंचेन्द्रियजाति, वसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योगः तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक
नं.८२
पंचेन्द्रिय तिर्यंच सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप.
| गु. जी. प. प्रा. सं. ग.' इ. का. यो. वे.! क. ज्ञा. संय. द. । ले. म. स. संज्ञि. आ. उ. | | १ १ ६ १०४ १ १ १ ९ ३ ४ ३ १ २ द्र.६ । १ १ १ १ २ । सम्य संप. ति. पंचे. स. म. ४ ज्ञान. असं. चक्षु. भा. ६ भ. सम्य. सं. आहा. साका.
व. ४३ | अच.
अना. ओ. १ अज्ञा.
मिश्र.
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
४९० ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
। १, १. सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेंसि चेव पजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णा, तिरिक्खगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजम, तिण्णि दंसण, दव्व-भावेहि छ लेस्सा, भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व, संशिक, आहारक. अनाहारका साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं पंचेन्द्रिय तिर्यंच असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दों प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं. ८३ पंचेन्द्रिय तिर्यंच असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप. गु. जी. प. प्रा. सं. ग./इ.) का. | यो.। वे. क. ज्ञा. संय | द. ले. भ. स. संज्ञि
आ. | उ.
म.भ..
| ७
ति . पंचे.
स.म. ४
अवि.
सं.अ.६
मति. असं. के.द. भा.६ भ. औप. सं. आहा. साका. श्रुत.विना
क्षाअना. अना, अव.
क्षायो.
नं.८४
पंचेन्द्रिय तिर्यंच असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप. प्रा सं. ग. इं. का, यो. वे. क. ज्ञा. | संय. द. ! ले. भ. स. संज्ञि.
गु. जी. प.
आ.
उ.
अवि. -
पंचे.
मति. असं. के. द. भा.६ भ.
बिना.
व.४ औ.१
औ. | सं. आहा. साका. क्षा. ।
अना. क्षायो.
अव.
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं
[४९१ तेसिं चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाणा, चत्तारि सण्णा, तिरिक्खगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दो जोग, पुरिसवेद, चत्तारि कसाय, तिणि णाण, असंजम, तिणि दंसण, दव्वेण काउसुक्कलस्सा, भावेण जहणिया काउलेस्सा; भवसिद्धिया, उवसमसम्मत्तेण विणा दो सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा ।
पंचिंदियतिरिक्ख-संजदासंजदाणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिणि णाण, संजमासंजमो, तिण्णि दसण, दव्वेण छ लेस्सा, भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ; भवसिद्धिया, खइयसम्मत्तेण
उन्हीं पंचेन्द्रिय तिर्यंच असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति. पंचेद्रियजाति, प्रसकाय, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, पुरुषवेद, चारों कषाय, आदिके तीन शान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे जघन्य कापोतलेश्या; भव्यसिद्धिक, औपशमिकसम्यक्त्वके विना दो सम्यक्त्व, संशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
पंचेन्द्रिय तिथंच संयतासंयत जीवोंके आलाप कहने पर-एक देशविरत गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, संयमासंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेज, पद्म और शुक्ललेश्याएं, भव्यसिद्धिक, क्षायिकसम्यक्त्वके विना दो सम्यक्त्व,
नं. ८५ पंचेन्द्रिय तिर्यंच असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप. |गु. जी. प. प्रा. सं. ग.' इं.का. | यो. वे. क.| ज्ञा. | संय.| द. । ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ. । |१ ६ ७ ४|१११२ १४ ३ १ ३ | द्र.२ १ २ | १२ २ सं.अ.. ति. स. औ.मि. पु. मति. असं. के. द. का. भ.क्षायो. सं. आहा. साका.
विना.शु. अव.
मा.१ का.
अवि..
, 'be
पंचे. ल
कार्म.
क्षा.
अना.
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
४९२ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १,१.
विणा दो सम्मतं, सणिणो, आहारिणो, सागारुत्रजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
पंचिदियतिरिक्खपज्जत्ताणं भण्णमाणे मिच्छाइट्टि पहुडि जाव संजदासंजदा चि पंचिदियतिरिक्ख-भंगो | णवरि विसेसो पुरिस- बुंसयवेदा दो चेव भवति, इत्थिवेदो णत्थि । अथवा तिण्णि वेदा भवंति ।
पंचिदियतिरिक्खजोणिणीणं भण्णमाणे अत्थि पंच गुणट्ठाणाणि चत्तारि जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपजत्तीओ पंच पत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण व पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णा, तिरिक्खगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, इत्थवेद, चत्तारि कसाय, छ णाण, दो संजम, तिणि दंसण, दव्व-भावेहिं
संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्तकोंके आलाप कहने पर - मिध्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक पंचेन्द्रिय तिर्यंच सामान्यके आलापोंके समान ही आलाप समझना चाहिये । विशेष बात यह है कि इनके वेद स्थानपर पुरुष और नपुंसक ये दो ही वेद होते हैं, स्त्रीवेद नहीं होता है । अथवा तीनों ही वेद होते हैं ।
विशेषार्थ - पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्तकोंके दो ही वेद बतलानेका यह अभिप्राय है कि योनिमती जीवोंका पर्याप्तक भेद में अन्तर्भाव नहीं होता है, क्योंकि, योनिमतियोंका स्वतंत्र भेद गिनाया है । अथवा पर्याप्त और योनिमती तिर्यंच इन दोनों भेदोंको गौण करके पर्याप्त शब्द के द्वारा सभी पर्याप्तकों का ग्रहण किया जावे तो पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्तकोंके आलापमें तीनों वेदों का भी सद्भाव सिद्ध हो जाता है ।
पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियोंके आलाप कहने पर - आदिके पांच गुणस्थान, संक्षी पर्याप्त, संज्ञी अपर्याप्त, असंज्ञी-पर्याप्त, असंज्ञी - अपर्याप्त ये चार जीवसमासः संज्ञीके छह पर्याप्तियां और छह अपर्याप्तियां, असंज्ञीके पांच पर्याप्तियां और पांच अपर्याप्तियां; संज्ञीके दशों प्राण, सात प्राण, असंज्ञीके नौ प्राण, सात प्राणः चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, पंचेन्द्रियजाति, लसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिकमिथकाययोय और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योग; स्त्रीवेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान और आदिके तीन ज्ञान ये छह ज्ञान, असंयम और देशसंयम ये दो संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भाव से
नं. ८६
गु. जी. प. प्रा. सं. ग.] इं. का. यो.
१
१ ६ १०४
१ १ १ ति.
९ म. ४
देश.
व. ४
सं. प.
पंचेन्द्रिय तिर्यच संयतासंयत जीवों के आलाप.
संय. द.
ले.
वे. क. ज्ञा. ३ | ४ ३
१
३
मति. देश.
द्र. ६ के. द. भा. ३. विना. शुभ.
श्रुत.
अव.
भ. स. । संज्ञि. आ. उ. १ १ २ सं. आहा. साका. अना.
१ ર
भ. औप. क्षायो.
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १. ]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि - आलाववण्णणं
[ ४९३
छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, खइयसम्मत्तेण विणा पंच सम्मत्तं, सण्णिणीओ, असण्णिणीओ, आहारिणी, अणाहारिणी, सागारुवजुत्ता होंति अगागारुवजुत्ता वा " ।
८७
" तासिं चेव पज्जत्तजोणिणीणं भण्णमाणे अत्थि पंच गुणड्डाणाणि, दो जीवसमासा, छ जत्तीओ पंच पज्जत्तीओ, दस पाण णव पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, पंचिदियजादी, तसकाओ, णव जोग, इत्थिवेद, चत्तारि कसाय, छ णाण, दो संजम, तिणि दंसण, दव्य भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, पंच सम्मतं,
छहों लेश्याएं भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः क्षायिक सम्क्त्वके विना पांच सम्यक्त्व, संज्ञिनी, असंशिनी: आहारक, अनाहारकः साकारोपयोगिनी और अनाकारोपयोगिनी होती हैं ।
उन्हीं पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - आदिके पांच गुणस्थान, संज्ञी - पर्याप्त और असंज्ञी - पर्याप्त ये दो जीवसमास, संज्ञीके छहों पर्याप्तियां, असंज्ञीके पांच पर्याप्तियां; संज्ञीके दशों प्राण, असंज्ञीके नौ प्राणः चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योगः स्त्रीवेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, और आदिके तीन ज्ञान ये छह ज्ञान, असंयम और देशसंयम ये दो संयम, आदि के तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छद्दों लेश्याएं, भव्य सिद्विक, अभव्यसिद्धिकः क्षायिकसम्पत्वके विना पांच सम्यक्त्व, संज्ञिनी, असंज्ञिनी;
नं. ८७
गु. जी.
५ ४ मि. सं. प. सा. सं अ.
प.
६ प ४० ४
६ अ. ७
५ प.
स. असं प ५ अ ७
अ. असं.अ.
देश,
स.
अ.
प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय I
१ १
पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमतीके सामान्य आलाप.
66
~
१
ति.
नं. ८८
गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क
९ १ ४ ति. पं. त्र. म. ४ स्त्री.
५ २ ६१०४ १ १ १ मि. सं. प. प. ९ सा. असं.प. ५ प.
द. ११ १४ ६ २ ३ म. ४ स्त्री.
ज्ञा ३ असं. के. द. अ. ३ देश. विना.
व. ४
| औ. २ कार्म. १
पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमतीके पर्याप्त आलाप.
ज्ञा. संय.
द. ले. ६ २ ३ प्र. ६ २ ५ २. अज्ञा. असं. के. द. भा. ६ ३ देश. त्रिना. ज्ञान.
३
व. ४
औ. १
3.
ले. भ. स. संज्ञि. आ. द्र. ६ २ ५ २ २
२
भा. ६ भ. क्षा. सं. आहा. साका. अवि. असं अना. अना.
भ. स. संझि आ. उ.
१
भ. क्षा. सं. आहा. अ विना असं
२ साका. अना.
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
४९४] छक्खंडागमे जीवद्राणं
[ १, १. सण्णिणीओ असण्णिणीओ, आहारिणी, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तजोणिणीणं भण्णमाणे अस्थि दो गुणहाणाणि, दो जीवसमासा, छ अपज्जत्तीओ, पंच अपज्जत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दो जोग, इत्थिवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, दो दंसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं सासणसम्मत्तमिदि दो सम्मत्तं, सणिणी असण्णिणी, आहारिणी अणाहारिणी, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा । ___पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी-मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, चत्तारि
आहारक, साकारोपयोगिनी और अनाकारोपयोगिनी होती हैं।
___ उन्हीं पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि ये दो गुणस्थान, संज्ञा-पर्याप्त और असंही-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, संडीके छहों अपर्याप्तियां, असंज्ञीके पांच अपर्याप्तियां, संज्ञी और असंशीके सात सात प्राण, चारों संशापं, तिर्यंचगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, स्त्रीवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ललेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः मिथ्यात्व और सासादनसम्यक्त्व ये दो सम्यक्त्य, संशिनी, असंक्षिनी: आहारिणी, अनाहारिणीः साकारोपयोगिनी और अनाकारोपयोगिनी होती हैं।
पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि योनिमतियोंके आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, संशी-पर्याप्त, संज्ञी-अपर्याप्त, असंझी-पर्याप्त और असंझी-अपर्याप्त ये चार जीव
नं. ८९
पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतीके अपर्याप्त आलाप.
पंचेतिया । गु.| जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. | यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ.स. संझि. | आ. उ. | २२ ६अ. ७ ४१ १ १ २ १ ४ २ १ २ द्र. २ २.२ २ २ २ मि.सं.अ. ५, ७, ति. त्रस औ.मि. स्त्री कुम. असं. चक्षु. का. म. मि. सं. आहा. साका. सा. असं.,
कार्म. कुश्रु. अच. शु. अ. सा. असं. | अना. अना. |
भा.३ अशु.
पचे. .
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-पख्वणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं
[१९५ जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, पंच पज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण णव पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, इत्थिवेद, चत्तारि कसाय, तिणि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्य-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणीओ असण्णिणीओ, आहारिणीओ अणाहारिणीओ, सागारुवजुत्ता होति अणागारुबजुत्ता वा ।
पजत्तपंचिंदियतिरिक्खजोणिणी-मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि एयं गुणहाणं, दो जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ पंच पञ्जत्तीओ, दस पाण णव पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, इत्थिवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजम, दो दंसण, दव्व-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया,
समास, संक्षिनीके छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; असंशिन के पांच पर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां; संशिनीके दशों प्राण, सात प्राण; असंज्ञिनीके नौ प्राण, सात प्राणः चारों संक्षाएं, तिर्यंचगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककायययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योग; स्त्रीवेद, चारों कषाय तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संशिनी, असंशिनी; आहारिणी, अनाहारिणी; साकारो. पयोगिनी और अनाकारोपयोगिनी होती हैं।
उन्हीं पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि योनिमतियोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, संझी-पर्याप्त और असंज्ञी-पर्याप्त ये दो जीवसमास, संज्ञीके छहों पर्याप्तियां, और असंज्ञीके पांच पर्याप्तियां; संज्ञीके दशों प्राण, और असंशोके नौ प्राण; चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग; स्त्रीवेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक
नं.९० पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्याष्टिके सामान्य आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. म. स.संज्ञि. आ. उ. ।
१। ४ ६५. १०४ १११ ११ १ ४ ३ । १ २ द्र.६ २र२ २ २ मि. सं.प. ६अ. ति पं. स. म. ४ स्त्री. अज्ञा. असे. चक्षु. भा.६ म. मि. सं. आहा. साका. सं.अ. ५५. ९ ।।
व. ४
अच. अ. असं. अना. अना, असं.प. ५अ. ७
औ.२ असं.अ.
का.
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
४९६] छक्खंडागमे जीवहाणं
[१, १. मिच्छत्तं, सणिणीओ असण्णिणीओ, आहारिणी, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा ।
तासिमपज्जत्तीर्ण भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, छ अपज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, वे जोग, इत्थिवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, दो दंसण, दव्येण काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्सा, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणी असणिणी, आहारिणीओ अणाहारिणीओ, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
मिथ्यात्व, संशिनी, असंशिनी; आहारिणी, साकारोपयोगिनी और अनाकारोपयोगिनी होती हैं।
उन्हीं पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि योनिमतियोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर--एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, संज्ञी-अपर्याप्त और असंज्ञी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, संझिनीके छहों अपर्याप्तियां, असंशिनीके पांच अपर्याप्तियां; संज्ञिनी अपर्याप्तके सात प्राण, असंशिनी अपर्याप्तके सात प्राण; चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, स्त्रीवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ललेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापत लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक मिथ्यात्व, संज्ञिनी, असंज्ञिनी; आहारिणी, अनाहारिणी; साकारोपयोगिनी और अनाकारोपयोगिनी होती हैं।
नं ९१ पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्याटिके पर्याप्त आलाप. । गु जी. | प. प्रा. सं. ग. ! इं. का.! यो. . क. ज्ञा. | संय. द. ले. भ. सं. संज्ञि. आ. | उ. ।
९ १ ४ ३ १ २ द्र.६ | २ १ २ १ २ मि. सं.प.] ५९ ति. पंचे. त्रस. म. ४ स्त्री. अज्ञा. असं. चक्षु. भा.६ भ.मि. सं. आहा.साका असं.प.
व ४
अच.
असं. अना.
अ
.
नं. ९२ पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टिके अपर्याप्त आलाप. गु. जी. प. प्रा. सं. ग.ई. का. यो. वे. क. ज्ञा. ; संय. द. ले. भ. स. संज्ञि. आ.] उ.
१ २ ६अ ७ ४११.१ २ १ ४ २ १ २ द्र.२ २१ २२ मि. सं. अप.५ ७ ति.. औ.मि. स्त्री. कुम. असं. चक्षु. का. शु. भ.मि. सं. आहा. साका, असं ।
कार्म.
अच, भा.३ अ. असं अना. अना.
अशु.
पंचे -
स. 0
कुश्रु.
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं
[४९७ पचिंदियतिरिक्खजोणिणी-सासणसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, दो जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ, छ अपज्जत्तीओ, दस पाण, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, इत्थिवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्य-भावहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सण्णिणीओ, आहारिणीओ अणाहारिणीओ, सागारुवजुत्ताओ वा होंति अणागारुखजुत्ताओ वा।
"तासिं चेव पजत्तीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जविसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णा, तिरिक्खगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव
पंचेंन्द्रिय तिर्यंच सासादनलम्यग्दृष्टि योनिमतियोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक सासादन गुणस्थान, संज्ञी-पर्याप्त और संज्ञी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं. तिर्यंचगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औद रिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योग; स्त्रीवेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संशिनी, आहारिणी, अनाहारिणी; साकारोपयोगिनी और अनाकारोपयोगिनी होती हैं।
उन्हीं पंचेन्द्रिय तिर्यंच सासादनसम्यग्दृष्टि योनिमतियोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक सासादन गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, पंचेन्द्रियजाति, बसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग
नं ९३ पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती सासादन सम्यग्दृष्टिके सामान्य आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. | वे. क. ज्ञा. सयं. द. | ले. भ. स, संज्ञि. आ. उ. । | १ २ ६ १०४ १ १ १ ११ | १ ४ ३ १ २ द्र.६१ १ १ २ २ सा. सं.प. प. ७ ति. पंचे. वस. म.४ स्त्री. अज्ञा असं. चक्षु. भा. ६ भ. पासा. सं. आहा. साका. सं.अ.६
अना. अना.
अच.
नं. ९४ पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती सासादन सम्यग्दृष्टिके पर्याप्त आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं . ग.। इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. । संय. द. ले. भ. स. संज्ञि.
आ. | उ. ।
सा.सं.प.
ति. पंचे. त्रस. म. ४ स्त्री.
व.४
अज्ञा. असं. च. भा. ६ म. सासा. सं.
आहा. साका.
अना.
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
४९८ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १,१.
'जोग, इत्थि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्व-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सण्णिणीओ, आहारिणीओ, सागारुवजुत्ताओ व होंति अणागारुवजुत्ताओ वा ।
तासिमपज्जतीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ अपजत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, पंचिदियजादी, तसकाओ, दो जोग, इत्थि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्वेण काउ- सुक्कलेस्साओ, भावेण किण्ण-नील-काउलेस्साओ, भवसिद्धियाओ, सासणसम्मत्तं, सण्णिणीओ, आहारिणीओ अणाहारिणीओ, सागारुवजुत्ताओ होंति अणागारुवजुत्ताओ वा
पंचिदियतिरिक्खजोणिणी -सम्मामिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छप्पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, पंचिंदिय
और औदारिककाययोग ये नौ योग; स्त्रीवेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संशिनी, आहारिणी, साकारोपयोगिनी और अनाकारोपयोगिनी होती हैं ।
उन्हीं पंचेन्द्रिय तिर्यंच सासादनसम्यग्दृष्टि योनिमतियों के अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - एक सासादन गुणस्थान, एक संशी अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, पंचेन्द्रियजाति, लसकाय, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, स्त्रीवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्या, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संशिनी, आहारिणी, अनाहारिणी; साकारोपयोगिनी और अनाकारोपयोगिनी होती हैं ।
पंचेन्द्रिय तिर्यच सम्यग्मिथ्यादृष्टि योनिमतियोंके आलाप कहने पर - एक सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं,
नं. ९५
.जी.प.प्रा.सं. ग ई. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय.
१ १ ६ ७ ४ १ १ १ सा.सं.अ. अ. ति.
पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमती सासादनसम्यग्दृष्टिके अपर्याप्त आलाप.
ले. भ. स. संज्ञि. आ.
उ.
२
ર
द्र. २ १ १ १ भ. सासा. सं.
आहा. साका. अना. अनाका.
२
औ.मि. स्त्री. कार्म.
१ ४ २
१ क्रम. असं.
कुश्रु.
hor
शु.
भा. ३
अशु.
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १. ]
संत - परूवणाणुयोगद्दारे गदि - आलावण्णणं
[ ४९९
जादी, तसकाओ, णव जोग, इत्थिवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाणाणि तीहिं अण्णाहिं मिस्साणि, असंजमो, दो दंसण, दव्य-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धियाओ, सम्मामिच्छत्तं, सण्णिणीओ, आहारिणीओ सागारुवजुत्ताओ होंति अणागारुवजुत्ताओ वा " ।
पंचिंदिय-तिरिक्ख-जोणिणी- असंजदसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणद्वाणं, ओजविसमासो, छ पज्जतीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, पंचिदियजादी, तसकाओ, णव जोग, इत्थिवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजम, तिण्णि दंसण, दव्व-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धियाओ, खइयसम्मत्तेण विणा दो सम्मत्तं, सणिणीओ, आहारिणीओ, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ताओ वा ।
९७
तिर्यंचगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिकाययोग ये नौ योग, स्त्रीवेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञानोंसे मिश्रित आदिके तीन ज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, सम्यग्मिथ्यात्व, संज्ञिनी, आहारिणी, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होती है ।
पंचेन्द्रिय तिर्यच असंयतसम्यग्दृष्टि योनिमतियों के आलाप कहने पर - एक अविरत. सम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी - पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यचगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग, स्त्रीवेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, क्षायिकसम्यक्त्वके विना दो सम्यक्त्व, संशिनी, आहारिणी, साकारोपयोगिनी और अनाकारोपयोगिनी होती हैं ।
नं. ९६
पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंके आलाप.
ले.
उ. भ. स. संज्ञि. आ.
गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. । संय. द. ६ १०४
१ १
१
९
१ ४ ३
१२
द्र. ६ १
१ १
१
२
PARVATORTE SYRE
ति. पंचे. स. म. ४ स्त्री. ज्ञान. असं चक्षु. भा. ६ भ. सम्य. सं. आहा. साका.
व. ४
अच.
अना.
औ. १
१ १ सम्य. संप.
नं. ९७
पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमती असंयतसम्यग्दृष्टियों के आलाप.
उ. २
६ १० ४
३ १ ३
२
गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इ. ) का. यो. । वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संज्ञि. आ. द्र. ६ १ १ मति. असं. के. द. मा. ६ भ. औप. सं. आहा. साका. श्रुत. विना.
१
१
क्षायो.
अना.
अव.
१ सं.प.
९
१ १ १ ति. पंचे. त्रस. म. ४ स्त्री.
व. ४ औ. १
३ अज्ञा मिश्र.
१ ४
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
५०० ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. पंचिंदिय-तिरिक्ख-जोणिणी-संजदासंजदाणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, इथिवेद, चत्तारि कसाय, तिणि णाण, संजमासंजमो, तिण्णि दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ, भवसिद्धियाओ, खइयसम्मत्तेण विणा दो सम्मत्तं, सण्णिणीओ, आहारिणीओ, सागारुवजुत्ताओ वा होति अणागारुखजुत्ताओ वा ।
__ पंचिंदिय-तिरिक्ख-लद्धि-अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, वे जीवसमासा, छ अपज्जत्तीओ पंच अपजत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, वे जोग, णqसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण किण्ह-णील-काउ
पंचेन्द्रिय-तिर्यंच संयतासंयत योनिमतियोंके आलाप कहने पर-एक देशविरत गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग; स्त्रीवेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, संयमासंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, क्षायिकसम्यक्त्वके विना दो सम्यक्त्व, संशिनी, आहारिणी, साकारोपयोगिनी और अनाकारोपयोगिनी होती हैं।
पंचेन्द्रिय-तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकोंके आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, संक्षी-अपर्याप्त और असंज्ञी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, संजीके छहों अपर्याप्तियां, असंशीके पांच अपर्याप्तियां, संशी-अपर्याप्तके सात प्राण, असंही-अपर्याप्तके सात प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग,
चारों कषाय, कुमात और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील, और कापोत लेश्याएं; भव्य
नं. ९८
पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती संयतासंयतोंके आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. । संय. द. ले. भ. स. ।संज्ञि. आ. उ. । १|१|६|१०४ १११ ९ १४ ३१३ द्र.६ १२ ११ । २ । सं.
ति. ... म. ४ स्त्री. .. म.४ खा.
मति. देश. के. द. भा.३ भ. औप. सं. आहा. साका. विना. शुभ. क्षायो.
अना. औ.१
अव.
देश..
श्रुत.
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
१,१.]
संत - परूवणाणुयोगद्दारे गदि - आलाववण्णणं
[ ५०१
लेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा
९९
एवं तिरिक्खगदी समत्ता ।
मसा चाि हवंति मणुस्सा मणुस पज्जत्ता मणुसिणीओ मणुस-अपज्जत्ता चेदि । तत्थ मणुस्त्राणं भण्णमाणे अस्थि चोदस गुणहाणाणि, दो जीवसमासा, छ पज्जतीओ छ अपज्जतीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अस्थि, मणुसगदी, पंचिदियजादी, तसकाओ, तेरह जोग अजोगो वि अस्थि, तिण्णि वेद अवगदवेदो वि अस्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अस्थि, अट्ठ णाण, सत्त संजम, चत्तारि दंसण, दव्य भावेहिं छ लेस्साओ अलेस्सा वि अस्थि, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सण्णिणो णेत्र सणिणो णेव असणणो वि अस्थि, आहारिणो अणाहारिणो,
सिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, मिथ्यात्व, संज्ञिक, असंज्ञिकः आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
इस प्रकार तिर्यंचगतिके आलाप समाप्त हुए ।
मनुष्य चार प्रकार के होते हैं- मनुष्य, मनुष्य-पर्याप्त, मनुष्यिनी और लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य | उनमें से मनुष्यसामान्यके आलाप कहने पर - चौदहों गुणस्थान, संज्ञी-पर्याप्त, संशीअपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां छद्दों अपर्याप्तियां, दशों प्राण सात प्राण, चारों संज्ञाएं, और क्षीणसंज्ञारूप भी स्थान होता है । मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, वैक्रियिककाययोग और वैक्रियिकमिश्रकाययोगके विना तेरह योग, तथा अयोग-स्थान भी होता है, तीनों वेद तथा अपगतवेद-स्थान भी होता है । चारों कषाय तथा अकषाय-स्थान भी होता है । आठों ज्ञान, सातों संयम, चारों दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं तथा अलेश्या स्थान भी होता है । भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, छहों सम्यक्त्व, संज्ञिक, तथा संज्ञी और असंज्ञी इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी स्थान होता है । आहारक, अनाहारक; साकारो•
नं. ९९
गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. शा. संय. द.
४
१ २ ६७
१
मि. सं. अ. अ. ७ ति
असं."
५ अ.
पंचेन्द्रिय तिर्यच लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके आलाप.
पचं. २०
त्रस.
I
२
औ.मि. कार्म.
नपुं.
२ १ २
कुम. असं
कुध.
ले. भ. स. संज्ञि. आ. 3.
द्र. २ २ १. २ २
२
सं. आहा. साका. असं. अना. अना.
चक्षु. का. भ. मि. अचक्षु. शु. अ.
भा. ३
अशु.
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
५०२ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा सागार - अणागारेहिं जुगवदुवजुत्ता वा ।
२००
तेसिं चैव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अस्थि चोदस गुणट्टाणाणि, एओ जीवसमासो, छ पज्जतीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अत्थि, मणुसगदी, पंचिदियजादी, तसकाओ, तेरह जोग ओरालिय- आहार- मिस्स-कम्मइएहि विणा दस वा अजोग व अत्थ, तिण्णि वेद अवगदवेदो वि अस्थि, चत्तारि कसाय, अकसाओ वि अस्थि, अट्ठ णाण, सत्त संजम, चत्तारि दंसण, दव्व-भावेहिं छ लेस्साओ अलेस्सा वि
',
अत्थि, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मतं, सणिणो णेत्र सुणिणो णेव असणिणो
पयोगी, अनाकारोपयोगी और साकार अनाकार इन दोनों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त भी होते हैं
1
उन्हीं सामान्य मनुष्योंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - चौदहों गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, तथा क्षीणसंज्ञारूप भी स्थान होता है; मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, वैक्रियिककाययोग वैक्रियिकमिश्रकाययोगके विना तेरह योग; अथवा पूर्वोक्त दो और औदारिकमिश्रकाययोग आहारक मिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग इन पांच योगोंके विना दशयोग तथा अयोग-स्थान भी है; तीनों वेद तथा अपगत-वेद-स्थान भी है, चारों कषाय तथा अकषाय-स्थान भी है, आठों ज्ञान, सातों संयम, चारों दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, तथा अलेश्या स्थान भी है। भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः छहों सम्यक्त्व, संज्ञिक तथा संशिक और असंज्ञिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित
नं. १००
1 गु. जी. १४ २ ६
R 29
प. प्रा. सं. ग. इं.
सं. प. प. ७ सं.अ. ६
अ.
सामान्य मनुष्योंके सामान्य आलाप.
का. यो. वे. क. ज्ञा. संय
१ १
१ १३
૮
७
म पंचे, त्रस. वै.द्वि.
क्षीणसं,
विना. अयो.
अपग. -
[ १, १.
अकषा.
द. ले. भ. स. संज्ञि। आ. उ. ४ द्र. ६ २ ६ भा.६ भ. अले. अ.
१ २
सं. आहा. अनु. अना.
२ साका. अना.
यु. उ.
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं
[५०३ वि अस्थि, आहारिणो अणाहारिणो, अजोगि-भयवंतस्स सरीर-णिमित्तमागच्छमाणपरमाणूणमभावं पेक्खिऊण पज्जत्ताणमणाहारित्तं लब्भदि । सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता बा सागार-अणागारहिं जुगवदुवजुत्ता वा।
भी स्थान है; आहारक, और अनाहारक भी होते हैं। मनुष्योंके पर्याप्त अवस्थामें अनाहारक होनेका कारण यह है कि अयोगिकेवली भगवान्के शरीरके निमित्तभूत आनेवाले परमाणुओंका अभाव देखकर पर्याप्तक मनुष्योंके भी अनाहारकपना बन जाता है। साकारोपयोगी अनाकारोपयोगी तथा साकार अनाकार इन दोनों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त भी होते हैं।
विशेषार्थ-ऊपर योग आलापका कथन करते हुए वैक्रियिकद्विक, आहारकमिश्र, औदारिकमिश्र और कार्मणकाययोगके विना दश अथवा केवल वैक्रियिकद्विकके विना तेरह योग बतलाये हैं । दश योग तो मनुष्योंकी पर्याप्त-अवस्थामें होते ही हैं, परंतु अपर्याप्त अवस्थामें होनेवाले औदारिकमिश्र आहारकमिश्र और कार्मणकाययोगको मनुष्योंकी पर्याप्त अवस्थामें बतानेका यह कारण है कि यद्यपि तेरहवें गुणस्थानमें समुद्धातके समय योगोंकी अपूर्णता रहती है फिर भी उस समय पर्याप्त नामकर्मका उदय विद्यमान रहता है और शरीरकी पूर्णता भी रहती है, इसलिये पर्याप्त-नामकर्मके उदय और शरीरकी पूर्णताकी अपेक्षा कपाट, प्रतर और लोकपूरणसमुद्धातगत केवली भी पर्याप्त हैं और इसप्रकार पर्याप्त अवस्थामें औदारिकमिश्र तथा कार्मणकाययोग बन जाते हैं। इसीप्रकार छठवें गुणस्थानमें आहारमिश्रकाययोगके समय भी पर्याप्त नामर्कमका उदय रहता है, इसलिये ऐसा निवृत्तिसे अपर्याप्त होता हुआ भी जीव पर्याप्त-नामकर्मके उदयकी अपेक्षा पर्याप्त ही है; अतः आहारमिश्रकाययोग भी पर्याप्त-अवस्थामें बन जाता है । इसप्रकार उपर्युक्त तीनों योग विवक्षा भेदसे पर्याप्त-अवस्थामें भी बन जाते हैं इसलिये मनुष्योंकी पर्याप्त-अवस्थामें तेरह योग भी गिनाये हैं।
नं.१०१
सामान्य मनुष्योंके पर्याप्त आलाप.
ब. क. ना. संय.
दै. ले. भ. स. संज्ञि.
आ.
उ. |
| गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं.का. यो. १०४१ ११ १३
वै.२ विना. १०म.४
व.४ औ.१आ..
सं. प. -
पंचे. ... त्रस. -
अपग.mar अकषा.
क्षीणसं.
भा.६ भ. अले. अ
सं. आहा. अनु. अना.
साका. अना. यु.उ.
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
५०४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. तेसिं चेव अपजत्ताण भण्णमाणे आत्थि पंच गुणट्ठाणाणि, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्याओ अदीदसण्णा वि अस्थि, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, आहारमिस्सेण सह तिण्णि जोग, तिणि वेद अवगदवेदो वि अस्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वा, पंच णाण केवलणाणेण छ णाण, असंजम सामाइयछेदोवट्ठावण-जहाक्खादेहि चत्तारि संजम, चत्तारि दंसण, दव्येण काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, सम्मामिच्छत्त-उवसमसम्मत्तेण विणा चत्तारि सम्मत्तं, सणिणो अणुभओ वा, आहारिणो अणाहारिणो, सागावजुत्ता हेति अणागारुवजुत्ता वा तदुभया वा ।
उन्हीं सामान्य मनुष्योंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, प्रमत्तसंयत और सयोगिकेवली ये पांच गुणस्थान, एक संझी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं तथा अतीतसंज्ञा स्थान भी है। मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, आहारमिश्रकाययोगके साथ औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग इसप्रकार तीन योग, तीनों वेद तथा अपगतवेद-स्थान भी है, चारों कषाय तथा अकषाय स्थान भी है, कुमति, कुश्रुत तथा आदिके तीन ज्ञान ये पांच ज्ञान और केवलज्ञान इसप्रकार छह ज्ञान, असंयम, सामायिक, छेदोपस्थापना और यथाख्यात ये चार संयम; चारों दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे छहों लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक सम्यग्मिथ्यात्व और उपशमसम्यक्त्वके विना चार सम्यक्त्व, संक्षिक,
और अनुभय अर्थात् संक्षिक और असंज्ञिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित स्थान, आहारक, अनाहारका साकारोपयोगी, अनाकारोपयोगी तथा दोनों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त होते हैं।
नं. १०२
सामान्य मनुष्योंके अपर्याप्त आलाप. । गु. जी. । प. | प्रा. सं. ग. ई. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. | ले. भ. | स. संक्षि. मि. सं.अ..
म. पं. स. औ.मि. विभं. असं. का. भ. मि. सं. आहा. साका. आ.मि. मनः सामा.
अ.सा. अनु. अना. अना. कार्म. विना. छेदो.।
क्षा.
यु.उ. यथा..
क्षायो.
क्षीणसं. २
अपग. - अकषा..
भा.६
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं
[५०५ मणुस-मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, छ पजत्तीओ छ अपजत्तीओ, दम पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, तिणि वेद, चत्तरि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव-भावहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता वा हाँति अणागारुबजुत्ता वा ।
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिणि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता
सामान्य मनुष्य मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, संशी-पर्याप्त, और संज्ञी-अपर्याप्त, ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योग, तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्य
और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिका मिथ्यात्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं मिथ्यादृष्टि सामान्य मनुष्योंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संझी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग; तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संक्षिक,
नं. १०३ सामान्य मनुष्य मिथ्यादृष्टियोंके सामान्य आलाप. | गु.जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. वे क. ना. संय. द. | ले. भ. स. संज्ञि. आ. | उ.
१|१|१| ११|३| ४ | ३ १ २ द्र. ६ २ | १ १ | २ | २ म.पं. स. अज्ञा. असं. चक्षु. भा.६ म. मि. सं. आहा. साका.
अना. अना.
१०४
अच
सं.प.सं.अ.
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ १, १.
५०६]
छक्खंडागमे जीवट्ठाणं होति अणागारुवजुत्ता वा।
तेसिं चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ अपजत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दो जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, दो दंसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्सा, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता वा होंति अणागारुवजुत्ता वा।
आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
उन्हीं मिथ्यादृष्टि सामान्य मनुष्योंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संशी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संक्षाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, तीनों वेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अना. कारोपयोगी होते हैं।
नं.१०४
सामान्य मनुष्य मिथ्यादृष्टियोंके पर्याप्त आलाप. प्रा. सं.ग. इं.का. यो. वे. क. | ज्ञा. संय. द. | ले. भ. स. संक्षि. आ.| उ. |
| गु.
जी.
प.
मि. सं.प.
म. पं. त्र. म. ४
व.४ औ.१
| अज्ञा. असं. चक्षु. भा.६ अ. मि. सं. आहा. साका. अच.
अना.
नं. १०५ । गु. । जी. १ १ मि. सं.अ.
सामान्य मनुष्य मिथ्यादृष्टियोंके अपर्याप्त आलाप. प. प्रा. सं. ग. इं.का. यो. वे. क. ज्ञा. । संय. द. | ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ. । ६ अ. ७ ४ १ १/१ २ ३ ४ २ १ २ द्र. २ २ १ १ २ २ म. पं. स. औ.मि. कुम. असं. चक्षु. का. म. मि. सं. आहा. साका. कार्म. अच. शु. अ.
अना. अना. मा. ३ अशु..
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं
[५०७ मणुस्स-सासणसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, दो जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपजत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो देसण, दव्य-भावेहि छ लेस्प्ताओ, भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दसण, दव्व-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति
सासादनसम्यग्दृष्टि सामान्य मनुष्योंके आलाप कहने पर-एक सासादन गुणस्थान, संशी-पर्याप्त और संज्ञी अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेद्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योग; तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं सासादनसम्यग्दृष्टि सामान्य मनुष्योंके पर्याप्तकालसंवन्धी आलाप कहने परएक सासादन गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संशाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योगः तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक,
.....
नं. १०६ सामान्य मनुष्य सासादनसम्यग्दृष्टियोंके सामान्य आलाप. | गु. जी. प. प्रा.। सं. ग.| इं. का. यो. । वे. क. ना. संय. द. | ले. भ. स. सनि. आ. | उ..
१ २ ६५. 10४|१|| | ११ | ३ ४ ३ | १ २ द्र. ६ १ १ १ २ । २ सा. सं. प. ६अ. ७ म...
___ अज्ञा. असं. चक्षु. भा. ६ भ. सं. आहा. साका.
अना. अना.
सासा. NA
" अ.
अच.
का.१
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
५०८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. अणामारुखजुत्ता वा।
तेसिं चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ अपजत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दो जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दसण, दव्येण काउ. सुक्कलेस्साओ, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्सा, भवसिद्धिया सासणसम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुखजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा । ... मणुस्स-सम्मामिच्छाइट्टणिं भण्णमाणे अस्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ
साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
__उन्हीं सासादनसम्पग्हष्टि सामान्य मनुष्योंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक सासादन गुणस्थान, एक संशी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, तीनों वेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अक्षान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
. सम्यग्मिथ्यादृष्टि सामान्य मनुष्योंके आलाप कहने पर-एक सम्यग्मिथ्याटष्टि गुण
नं. १०७ सामान्य मनुष्य सासादनसम्यग्दृष्टियोंके पर्याप्त आलाप. | गु.जी.प.प्रा.सं. । ग.| इं. का., यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संज्ञि. | ११६/१०४/१/१ १ ९ ३४३ १२द्र.६ १ १ १ सा.सं.प. म. पंचे. त्रस. म. ४ अज्ञा. असं. च. भा.६ म. सासा. सं.
आ. । उ. ।
१ आहा. साका.
अना.
૨
:
-
नं.१०८
सामान्य मनुष्य सासादनसम्यग्दृष्टियोंके अपर्याप्त आलाप. । गु.) जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ.स. संशि. | आ. उ. ।
१.१ ६अ. ७४|११ १ २ ३ ४२ । १२ द्र. २ २ १ १ २ २ सा.सं.अ.
म. त्रस औ.मि. कुम. असं. चक्षु. का. म. सा. सं. आहा. साका. कार्म. कुश्रु. अच. शु.
अना. अना.
भा.३
अशु.
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १. ]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदिं- आलाववण्णणं
[ ५०९
पज्जतीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिदियजादी, तसकाओ, गव जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिष्णि णाणाणि तीहि अण्णाणेहिं मिस्साणि, असंजमो, दो दमण, दव-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, सम्मामिच्छत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता वा होंति अणागारुवजुत्ता वा "
११.
'मणुस असंजदसम्म इट्टीणं भण्णमाणे अस्थि एयं गुणहाणं, दो जीवसमासा, छ पजीओ छ अपजतीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओं, मणुसगदी, पंचिदियजादी, तस्काओ, एगारह जोग, तिष्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिष्णि णाण, असंजम,
स्थान, एक संज्ञी - पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योगः तीनों वेद, चारों काय, तीनों अज्ञानों से मिश्रित आदिके तीन ज्ञान, असंयम, चक्षु और अत्रभु ये दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहीं लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, सम्यग्मिथ्यात्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
असंयत सम्यग्दृष्टि सामान्य मनुष्यों के सामान्य आलाप कहने पर - एक अविरतसम्यदृष्टि गुणस्थान, संज्ञी - पर्याप्त और संज्ञी - अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां दशों प्राण, सात प्राण: चारों संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योगः तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन,
नं १०९.
ग. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का.
सम्य
१
सं.प.
ma
सामान्य मनुष्य सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंके आलाप.
* *
१ १ १
यो. वे. क. ज्ञा. सर्व. द. ९ ३ ४ ३ १ २ म.पं. स. म. ४ ज्ञान. असं चक्षु. ३ अशा मिश्र.
अच.
व. ४ आ. १
नं. ११०
ग. जी. प. प्रा. संग. ई. का. यो. वे. क. ज्ञा.
३ ४ ३
१. २ ६५. १० ४ १ १ १ ११ सं. प ६अ. ७ म. पंचे. स. म. ४ सं.अ. व. ४ औ.२ का. १
सामान्य मनुष्य असंगत सम्यग्दृष्टियों के सामान्य आलाप.
ले. भ. स. संशि. आ. उ. द्र. ६ १ १ १ १ २ भा. द.म. सम्य. सं. आहा. साका. अना.
१
मति. असं.
श्रुत.
अव.
ले. भ. स. | संज्ञि. आ.उ.
संय. द. ३ द. ६ १ १ २ २ के. द. मा.६ भ. ऑप. सं. विना. क्षा. श्वायो.
आहा. साका अना. अना.
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
५१०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. तिणि दंसण, दव्य-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजम, तिणि दंसण, दव्व-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुखजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दो जोग, पुरिसवेद । देव-णेरइअ मणुस्स-असंजदसम्माइद्विणो जदि मणुस्सेसु उप्पज्जति तो
द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं असंयतसम्यग्दृष्टि सामान्य मनुष्योंके पर्याप्तकाल संबन्धी आलाप कहने परएक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और
औदारिककाययोग ये नौ योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं असंयतसम्यग्दृष्टि सामान्य मनुष्योंके अपर्याप्त काल संबन्धी आलाप कहने परएक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, एक पुरुषवेद होता है। केवल एक पुरुषवेद होनेका यह कारण है कि देव, नारकी और मनुष्य असंयतसम्यग्दृष्टि जीव मरकर यदि मनुष्योंमें उत्पन्न होते हैं, तो
नं १११ सामान्य मनुष्य असंयतसम्यग्दृष्टियोंके पर्याप्त आलाप. 1. जी. प. प्रा. सं. ग. । इं. । का.। यो. । वे. क. ज्ञा. । संय. द. ले. भ. सं. संशि. आ. | उ. | | १ ६ १०४ १ १ १ ९ |३|४| ३ | १ २ द्र.६/१ ३ १ १ २ | म. पंचे. त्रस. म. ४
मति. असं.के.द. भा.६ म. आ. सं. आहा. साका. विना.
अना. अव.
श्रुत.
डा
क्षायो.
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगदारे गदि-आलाववण्णणं
[ ५११ णियमा पुरिसवेदेसु चेव उप्पज्जंति ण अण्णवेदेसु, तेण परिसवेदो चेव भणिदो । चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजम, तिण्णि दसण, दव्येण काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण छ लेस्साओ। तं जहा-णेरइया असंजदसम्माइट्टिणो पढम-पुढवि आदि जाव छट्ठी-पुढविपज्जवसाणासु पुढवीसु हिदा कालं काऊण मणुस्सेसु चेव अप्पप्पणो पुढवि-पाओग्गलेस्साहि सह उप्पज्जंति त्ति किण्ह-गील-काउलेस्सा लब्भंति । देवा वि असंजदसम्माइट्ठिणो कालं काऊण मणुस्सेसु उप्पज्जमाणा तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साहि सह मणुस्सेसु उववज्जंति, तेण मणुस्स-असंजदसम्माइट्ठीणमपज्जत्तकाले छ लेस्साओ हवंति । भवसिद्धिया, उवसमसम्मत्तेण विणा दो सम्मत्तं, सण्णिणा, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
मणुस्स-संजदासंजदाणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ
निय नसे पुरुषवेदी मनुष्यों में ही उत्पन्न होते हैं, अन्यवेदवाले मनुष्यों में नहीं; इससे एक पुरुष वेद ही कहा है। घेद आलाप के आगे चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे छहों लेश्याएं होती हैं। अविरतसम्यग्दृष्टि अपर्याप्त मनुष्योंके छहों लेश्याएं होनेका कारण यह है कि प्रथम पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवीपर्यंत पृथिवियों में रहनेवाले असंयतसम्यग्दृष्टि नारकी मरण करके मनुष्यों में अपनी अपनी पृथिवीके योग्य लेश्याओंके साथही उत्पन्न होते हैं. इसलिये तो उनके कृष्ण, नील और कापोतलेश्याएं पाई जाती हैं। उसीप्रकार असंयतसम्यग्दृष्टि देव भी मरण करके मनुष्यों में उत्पन्न होते हुए अपनी अपनी पीत, पद्म और शुक्ल लेश्याओंके साथ ही मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं, इसलिए मनुष्य असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अपर्याप्तकालमें छहों लेश्याएं बन जाती हैं। सम्यक्त्व आलापके आगे भव्यसिद्धिक, औपशमिकसम्यक्त्वके विना दो सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
संयतासंयत सामान्य मनुष्योंके आलाप कहने पर-एक देशविरत गुणस्थान, एक
नं. ११२ सामान्य मनुष्य असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अपर्याप्त आलाप. |गु. जी. प. प्रा. सं | ग. ई. का. यो. वे. क. झा. | संय. द. ले. (म. स. सशि. आ. उ. । ११ ६ ७ ४|११|१.२ १४ | ३ | १ | ३ द्र.२|१| २ १ | २ | २ सं.अ. अ. म. स. औ.मि. पु. मति- असं. के.६. का. भ. क्षा. सं. आहा साका.
| कार्म. श्रुत. विनाशु. क्षायो. अना. अना.
अवि.
अव.
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
५१२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, संजमासंजमो, तिणि दंसण, दव्वेण छ लेस्लाओ, भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुखजुत्ता वा।
संपहि पमत्तसंजद-प्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ताव मूलोघालावो अणूणो अणधिओ वत्तव्यो। मणुस्स-पजत्ताणं भण्णमाणे मिच्छाइट्टि-प्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ताव मणुस्सोधभंगो । अथवा इत्थिवेदेण विणा दो वेदा वत्तव्वा एत्तियमेनो चेव विमेसो।
संझी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संशाएं. मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय. जाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग, तीनों येद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, संयमासंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे पीत, पद्म और शुक्ललेश्याएं, भव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
अब प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक न्यूनता और अधिकतासे रहित मूल ओघालाप कहना चाहिये, अर्थात् , गुणस्थानोंकी अपेक्षा जो आलाप छठे गुणस्थानसे लेकर चौदहवें गुणस्थान तक कह आये हैं वे ही यहां मनुष्योंके छठे गुण. स्थानसे चौदहवें गुणस्थान तकके समझना चाहिये, क्योंकि छठेसे आगेके सभी गुणस्थान मनुष्योंके ही होते हैं, इसलिये सामान्य कथनमें और इस कथनमें कोई विशेषता नहीं है।
मनुष्य-पर्याप्तकोंके आलाप कहने पर-मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक मनुष्य-सामान्यके आलापोंके समान आलाप जानना चाहिये । अथवा वेद आलाप कहते समय स्त्रीवेदके विना दो वेद ही कहना चाहिये, क्योंकि सामान्य मनुष्योंसे पर्याप्त मनुष्यों में इतनी ही विशेषता है।
विशेषार्थ-जब मनुष्यों के अवान्तर भेदोंकी विवक्षा न करके पर्याप्त शब्दके द्वारा सामान्यसे सभी पर्याप्त मनुष्योंका ग्रहण किया जाता है तब पर्याप्त मनुष्यों में तीनों वेद
नं. ११३
सामान्य मनुष्य संयतासंयतोंके आलाप. | गु. जी. प. प्रा.सं. | ग. ई. का. यो. । वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. | संज्ञि | आ.! उ.
देश. -1
सं.प.
पंचे.../ त्रस.
म. ४
अत.
मति. देश. के. द. मा.३ म. औ. सं. आहा. साका.
विना. शुभ. अव.
क्षायो.
अना.
-
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.]
संत-पख्वणाणुयोगदारे गदि-आलाववण्णणं मणुसिणणं भण्णमाणे अत्थि चोद्दस गुणट्ठाणाणि, दो जीवसमासा, छप्पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अत्थि, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग अजोगो वि अस्थि, एत्थ आहारआहारमिस्सकायजोगा णत्थि । किं कारणं ? जेसिं भावो इत्थिवेदो दव्यं पुण पुरिसवेदो, ते वि जीवा संजमं पडिवजंति । दबित्थिवेदा संजमं ण पडिवजंति, सचेलत्तादो । भावित्थिवेदाणं दव्येण पुंवेदाणं पि संजदाणं णाहाररिद्धी समुप्पजदि दव-भावेहि पुरिसवेदाणमेव समुप्पञ्जदि तेणित्थिवेदे पि णिरुद्धे आहारदुगं णत्थि, तेण एगारह जोगा भणिया। इत्थिवेदो अवगदवेदो वि अत्थि, एत्थ भाववेदेण पयदं ण दव्ववेदेण । किं कारण ?
.........................
वालोंका ग्रहण हो जाता है, अतः इस अपेक्षासे पर्याप्त मनुष्योंके आलाप सामान्य मनुष्यों के समान बतलाये गये हैं। परंतु जब मनुष्योंके अवान्तर भेदोंमेंसे पर्याप्त मनुष्योंका ग्रहण किया जाता है तब पर्याप्त मनुष्योंसे पुरुष और नपुंसक वेदी मनुष्योंका ही ग्रहण होता है, क्योंकि स्त्रीवेदी मनुष्योंका स्वतंत्र भेद गिनाया है। मनुष्यके अवान्तर भेदोंमें पर्याप्त शब्द पुरुष और नपुंसकवेदी मनुष्यों में ही रूढ है, इसलिये इस अपेक्षासे पर्याप्त मनुष्योंके आलाप कहते समय स्त्रीवेदको छोड़कर आलाप कहे हैं।
मनुष्यनी ( योनिमती) स्त्रियोंके आलाप कहने पर-चौदहों गुणस्थान, संझी-पर्याप्त और असंशी-पर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां दशोंप्राण, सात प्राण; चारों संशाएं तथा क्षीणसंज्ञारूप भी स्थान है। मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योग तथा अयोगरूप भी स्थान है। इन मनुष्यनियोंके आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोग ये दो योग नहीं होते हैं।
शंका-मनुष्य-स्त्रियोंके आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोग नहीं होनेका क्या कारण है?
समाधान-यद्यपि जिनके भावकी अपेक्षा स्त्रीवेद और द्रव्यकी अपेक्षा पुरुषवेद होता है वे (भावस्त्री)जीव भी संयमको प्राप्त होते हैं। किन्तु द्रव्यकी अपेक्षा स्त्रीवेवाले जीव संयमको नहीं प्राप्त होते हैं, क्योंकि, वे सचेल अर्थात् वस्त्रसहित होते हैं। फिर भी भावकी अपेक्षा स्त्रीवेदी और द्रव्यकी अपेक्षा पुरुषवेदी संयमधारी जीवोंके आहारऋद्धि उत्पन्न नहीं होती है, किन्त द्रव्य और भाव इन दोनों ही वेदोंकी अपेक्षासे पुरुषवेदवाले जीवोंके ही आहारऋद्धि उत्पन्न होती है। इसलिए स्त्रीवेदवाले मनुष्योंके आहारकद्विकके विना ग्यारह योग कहे गए हैं। योग आलापके आगे स्त्रीवेद तथा अपगतवेद स्थान भी होता है। यहां भाववेदसे प्रयोजन है, द्रव्यवेदसे नहीं। इसका कारण यह है कि यदि यहां द्रव्यवेदसे
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. 'अवगदवेदो वि अत्थि' त्ति वयणादो। चत्तारि कसाय, अकसाओ वि अस्थि, मणपजबणाणेण विणा सत्त णाण, परिहार-संजमेण विणा छ संजम, चत्तारि दंसण, दव-भावेहि छ लेस्साओ अलेस्सा वि अत्थि, भवसिद्धियाओ अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सणिणीओ णेव सण्णिणी णेव असण्णिणी वि अस्थि, आहारिणीओ अणाहारिणीओ, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा सागार-अणागारेहि जुगवदुवजुत्ता वा ।
तासिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि चोद्दस गुणहाणाणि, एओ जीवसमासो, छप्पजत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, खीणसण्णा वि अत्थि, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग णव वा अजोगो वि अत्थि, इथिवेद अवगदवेदो वि अस्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अत्थि, सत्त णाण, छ संजम, चत्तारि देसण,
प्रयोजन होता तो अपगतवेदरूप स्थान नहीं बन सकता था, क्योंकि, द्रव्यवेद चौदहवें गुणस्थानके अन्ततक होता है। परन्तु 'अपगतवेद भी होता है। इस प्रकारका वचन निर्देश नौवें गुणस्थानके अवेदभागसे किया गया है, जिससे प्रतीत होता है कि यहां भाववेदसे ही प्रयोजन है, द्रव्यवेदसे नहीं। वेद आलापके आगे चारों कषाय, तथा अकषाय-स्थान भी होता है। मनःपर्ययज्ञानके विना सात ज्ञान, परिहारविशुद्धिसंयमके विना छह संयम, चारों दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, तथा अलेश्यारूप भी स्थान होता है। भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिका छहों सम्यक्त्व. संझिनी तथा संशिनी और असंशिनी इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी स्थान होता है । आहारिणी, अनाहारिणी; साकारोपयोगिनी, अनाकारोपयोगिनी; तथा साकार और अनाकार उपयोगसे युगपत् उपयुक्त भी होती हैं।
___उन्हीं मनुष्यनियोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-चौदहों गुणस्थान, एक संझी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, तथा क्षीणसंज्ञा-स्थान भी है। मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, वैक्रियिककाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग, आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोग इन चार योगोंके विना ग्यारह योग, अथवा, उपर्युक्त चार और औदारिकमिश्रकाययोग तथा कार्मणकाययोग इन छह योगोंके विना नौ योग तथा अयोग स्थान भी होता है। स्त्रीवेद तथा अपगतवेद स्थान भी होता है। चारों कषाय, तथा अकषाय स्थान भी होता है। मनःपर्ययज्ञानके विना सात ज्ञान, परिहारविशुद्धिसंयमके
नं.११४
मनुष्यनी स्त्रियोंके सामान्य आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. | ग.| इं.का. यो. वे. क. ना. | संय. द. | ले. भ. स.'संक्षि. आ.! उ. । १४ २६१०
१ ११ १/४ | ७ ६४ द्र.६ | २६१२२ सं.प. प.
म.४ स्त्री. मनः. परिहा. भा.६ म. सं. आहा. साका. सं.अ.६
व, ४ . विना. विना. अले. अ. अनु. अना. अना, औ.२
यु.उ.
क्षीणसं...
पचे. . त्रस..
अकषा. अपग.
का.
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १. ]
संत-परूवणाणुयोगद्वारे गदि -आळाववण्णणं
[ ५१५
दव्व-भावेहिं छ लेस्सा अलेस्सा वि अस्थि, भवसिद्धियाओ अभवसिद्धिया, छ सम्मतं, सणिणीओ व सणणी व असण्णिणी, आहारिणी, अणाहारिणी, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा सागार - अणागारेहि जुगवदुवजुत्ता वा" ।
तासिं चैव अपत्ताणं भण्णमाणे अत्थि तिष्णि गुणट्ठाणाणि, एओ जीवसमासो, छ अपजत्तीओ, सस पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अत्थि, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दो जोग, इत्थवेदो अवगदवेदो वि अस्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वा, दो अण्णा केवलणाणेण तिण्णि णाण, असंजमो जहाक्खादेण दोणि संजम
विना छह संयम, चारों दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं तथा अलेश्या स्थान भी होता है । भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिका छहों सम्यक्त्व, संज्ञिनी, तथा संज्ञिनी और असंक्षिनी विकल्पसे रहित भी स्थान होता है । आहारिणी, अनाहारिणी; साकारोपयोगिनी, अनाकारोपयोपयोगिनी तथा साकार अनाकार इन दोनों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त भी होती है ।
विशेषार्थ - पर्याप्त सामान्य मनुष्योंके तेरह अथवा दश योगों के होनेका स्पष्टीकरण ऊपर कर आये हैं, उसीप्रकार पर्याप्त मनुष्यनियोंके ग्यारह अथवा नौ योगोंके संबन्धमें भी जान लेना चाहिये । यहां इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेदियोंके आहारक ऋद्धि नहीं होती है, अतएव इनके आहार और आहारमिश्र ये दो योग नहीं पाये जाते हैं । इसप्रकार स्त्रीवेदियोंके पर्याप्त अवस्था में ग्यारह अथवा नौ योग ही होते हैं ।
उन्हीं मनुष्यनियों के अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सयोगकेवली ये तीन गुणस्थान, एक संज्ञी अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंज्ञा स्थान भी है । मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति,
काय, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, स्त्रीवेद, तथा अपगतवेदस्थान भी है । चारों कषाय तथा अकषाय स्थान भी है । कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान तथा सयोगकेवली गुणस्थानकी अपेक्षा केवल ज्ञान, इसप्रकार तीन ज्ञान, असं. यम और यथाख्यातविहारशुद्धि ये दो संयम, चक्षु, अचक्षु और केवल ये तीन दर्शन,
नं. ११५
गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. १४ १ सं. प.
मनुष्यनी स्त्रियों के पर्याप्त आलाप.
क्षीणसं.
६ १०४ १ १ १ ११ १ ४
म.पं. त्र. पूर्वोक्त. स्त्री
९ म.४
वे. क ज्ञा. संय. ] द. ले. भ. स. संज्ञि. ६ ४ द्र. ६ २ | ६ भा. ६ भ. अले. अ.
मनः, परि. विना विना.
व. ४
ओ. १ अयो.
अकषा.
आ. उ.
१
२
२
सं. आहा.
साका. अना.
अनु. अना.
यु. उ.
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
५१६ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, १.
केवलदंसणेण तिणि दंसण, दव्वेण काउ- सुक्कलेस्सा, भावेण किण्हणील- काउलेस्सा सुक्कलेस्साए चत्तारि वा भवसिद्धियाओ अभवसिद्धियाओ, मिच्छत्तं, सासणसम्मत्तं खइयसम्मत्तेण तिष्णि सम्मत्तं, सण्णिणीओ अणुभयाओ वा, आहारिणीओ अणाहारिणीओ, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा तदुभएण वा ।
" मणुसिणी-मिच्छाइड्डीणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणहाणं, दो जीवसमासा, छ पञ्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, इत्थवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण,
द्रव्यसे कापोत और शुकुलेश्या, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याः अथवा शुक्ललेश्या के साथ उक्त तीनों लेश्याएं मिलकर चार लेश्याएं होती हैं । भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिका मिथ्यात्व सासादनसम्यक्त्व और क्षायिकसम्यक्त्व ये तीन सम्यक्त्वः संशिनी और अनु भय अर्थात् संज्ञिनी असंज्ञिनी विकल्प - रहित स्थान भी होता है । आहारिणी, अनाहारिणी; साकारोपयोगिनी अनाकारोपयोगिनी तथा उभय उपयोगोसे उपयुक्त होती हैं ।
मिथ्यादृष्टि मनुष्यनियोंके सामान्य आलाप कहने पर - एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, संशी-पर्याप्त, और संज्ञी - अपर्याप्त, ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां: दशों प्राण, सात प्राण: चारों संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिकभिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योग; स्त्रीवेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अत्रभु ये दो
नं. ११६
गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द.
६
.३ १
म. सं.अ. अ.
सा.
RT.
नं. ११७
गु.
जी.
१
२
मि. सं. प.
स. अ
क्षीणसं.
१ १
पचे. २०१
त्रस
म.
मनुष्यनियोंके अपर्याप्त आलाप.
२
ओ.मि. श्री. कार्म.
अपग
अकषा. २
上
मिथ्यादृष्टि मनुष्य नियोंके सामान्य आलाप.
ले.
भ. स. संज्ञि. आ. २ द. २ ३ १
३ २ ३
उ. २ २ आहा. कुम. असं. चक्षु. का. शु. भ. मि. सं. साका. कुछ. यथा. अच. भा. ४ अ. सा. अनु. अना. अनाका कव अशु. ३ | क्षा. यु. उ. शु. १
के.
प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो.
६५. १० ४ १ १ १ १.१ १ ४
६अ ७
म.
म. ४ स्त्री.
व. ४
औ. १
का. १
ર
ले. वे. क. ज्ञा. संय. द. भ. स. संज्ञि. आ. ३ १ २ द्र. ६ २ १ १ २ अज्ञा असं चक्षु. भा. ६. भ. मि. सं. आहा. साका. अच. अना. अना.
अ.
उ.
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.)
संत-परूवणाणुयोगदारे गदि-आलाववण्णणं असंजमो, दो दसण, दव्य-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धियाओ अभवसिद्धियाओ, मिच्छत्तं, सण्णिणीओ, आहारिणीओ अणाहारिणीओ, सागारुवजुत्ताओ होंति अणागारुवजुत्ताओ वा।
मिच्छाइद्वि-पजत्त-मणुमिणीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, मगुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, इत्थिवेद, चत्तारि कसाय, तिणि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धियाओ अभवसिद्धियाओ, मिच्छत्तं, सणिणणी, आहारिणीओ, सागारुवजुत्ताओ होति अणागारुवजुत्ताओं वा ।
मिच्छाइटि-अपजत्त-मणुसिणीणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ अपजत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दो जोग, इत्थिवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दवेण
दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः मिथ्यात्व, संशिनी, आहारिणी, अनाहारिणीः साकारोपयोगिनी तथा अनाकारोपयोगिनी होती हैं।
मिथ्याहाट मनुष्यनियोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग तथा औदारिककाययोग ये नौ योग; स्त्रीवेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संज्ञिनी, आहारिणी, साकारोपयोगिनी और अनाकारोपयोगिनी होती हैं।
मिथ्यादृष्टि अपर्याप्त मनुष्यनियोंके आलाप कहने पर--एक मिश्यादृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, स्त्रीवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन,
भ.
नं.११८
मिथ्यादृष्टि मनुष्यनियोंके पर्याप्त आलाप. | गु.जी. प. प्रा. सं. ग. ई का. यो. वे. क. शा. संय. द. ले. भ. स. संनि.
आ.
उ. |
म. म. ४ स्त्री. HER.४
औ.१
अशा असं. चक्षु भा.६ म. मि. सं. आहा.
अच.
साका. अना.
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
५१८] छक्खंडागमे जीवहाणं
[१, १. काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणीओ, आहारिणीओ अणाहारिणीओ, सागारुबजुत्ताओ होंति अणागारुवजुत्ताओ वा।
मणुसिणी-सासणसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, दो जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, इत्थिवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजम, दो दंसण, दव्य-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, सासणसम्मतं, सण्णिणीओ, आहारिणी अणाहारिणी, सागारुवजुत्ता होंति अणागावजुत्ता वा ।
द्रव्यले कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत ये तीन अशुभ-लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संज्ञिनी, आहारिणी, अनाहारिणीः साकारोपयोगिनी और अनाकारोपयोगिनी होती हैं।
___ सासादनसम्यग्दृष्टि मनुष्यनियोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक सासादन गुणस्थान, संक्षी-पर्याप्त और संज्ञी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास. छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां, दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योग; स्त्रीवेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन. द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यासिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संशिनी, आहारिणी, अनाहारिणी साकारोपयोगिनी और अनाकारोपयोगिनी होती है।
नं. ११९
मिथ्यादृष्टि मनुष्यनियोंके अपर्याप्त आलाप. । गु. जी. प. प्रा. सं.ग.ई. का. यो. वे.क.सा. संय. ६. | ले. म. स. संक्षि. आ.1 3. २१ अ.७४|१११२१४२ १ २ द.२२/१२ २ मि. सं.अ. | म. पं. स. औ.मि, स्त्री. कुम. असं. चक्षु. का. भ. मि. सं. आहा. साका, । कुश्रु. अच. शु. अ.
अना. अना. भा.३.
कार्म.
अशु.
नं. १२० सासादनसम्यग्दृष्टि मनुष्यनियोंके सामान्य आलाप. ।गुजी . प. प्रा. सं.ग. ई. ! का. यो. वे. क. शा. संय द. ले. भ. स. संज्ञि.
आ.
उ.
सा. सं.प.प.
म. पंचे. बस. म. ४ स्त्री.
अज्ञा. असं. चक्षु. भा. भ. सासा. सं. आहा. | साका.
अना. अना.
सं.अ.
औ.२
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि - आलावण्ण
[ ५१९
पत्त-मणुसिणी - सासणसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिदियजादी, तसकाओ, णत्र जोग, इत्थवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्य-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धियाओ, सासणसम्मत्तं, सण्णिणी, आहारिणी, सागारुजुत्ताओ होंति अणागारुवजुत्ताओ वा ।
225
१, १. ]
अपज्जत - मणु सिणी- सासणसम्माहट्टीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणद्वाणं, एओ जीवसमासो, छ अपजत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिदियजादी, तसकाओ, दो जोग, इत्यिवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, दो दंसण, दव्त्रेण काउ सुक्कलेस्सा, भावेण किण्हणील- काउलेस्साओ, भवसिद्धिया, सासणसम्मतं,
पर्याप्त सासादनसम्यग्दष्टि मनुष्यनियोंके आलाप कहने पर - एक सासादन गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहीं पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, लसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिक काययोग नो योग, स्त्रीवेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संज्ञिनी, आहारिणी, साकारोपयोगिनी और अनाकारोपयोगिनी होती हैं ।
अपर्याप्त सासादनसम्यग्दा मनुष्यनियोंके आलाप कहने पर एक सासादन गुणस्थान, एक संज्ञी - अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, वसकाय, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, स्त्रीवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत ये तीन अशुभ लेश्याएं: भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संज्ञिनी, आहारिणी, अनाहारिणी; साकारोप
नं. १२१
ग.
| ܀
१
जी. प | प्रा. | संग. ) इं. का. यो.
१ ६ १
सा. सं.प.
सासादनसम्यग्दृष्टि मनुष्यनियोंके पर्याप्त आलाप.
संय. द.
י
१
म.
पंचे. २०१
म.
ste on o
व. ४
वे
९
म. ४ स्त्री.
१
क ज्ञा
४
३ १
अज्ञा. असं
ले. भ. स.) संज्ञि. आ. 3.
२
चक्षु. भा. ६.भ. अच.
2 द्र. ६ १
~ 1818
१
१
१
सं. आहा. साका.
अना.
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
५२० ]
छखंडागमे जीवाणं
१२२
सणिणी, आहारिणी अनाहारिणी, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा " ।
मणुसिणी- सम्मामिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छपत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, पत्र जोग, इत्थिवेद, चत्तारि कसाय, तिष्णि णाण तीहिं अण्णाणेहि मिस्साणि, असंजमो, दो दंसण, दव्य-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धियाओ, सम्मामिच्छत्तं, सण्णिणीओ, आहारिणीओ, सागारुवजुत्ताओ होंति अणागारुवजुत्ताओ वा ।
मणुसिणी - असंजदसम्माहट्टीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणड्डाणं, एओ जीवसमासो,
योगिनी और अनाकारोपयोगिनी होती है ।
म्याग्मिथ्यादृष्टि मनुष्यनियोंके आलाप कहने पर - एक सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, लसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग, स्त्रीवेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञानोंसे मिश्रित आदिके तीन ज्ञान, असंयम, चक्षु और अक्षु ये दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहीं लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, सम्यग्मिथ्यात्थ, संज्ञिनी, आहारिणी, साकारोपयोगिनी और अनाकारोपयोगिनी होती हैं ।
असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्यनियोंके आलाप कहने पर - एक अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, मनु
मं. १२२ गु. जी. प. प्रा. | सं.] ग. इं.] का.
१
१ ६
१ १ । १
सा. सं. अ. अ.
१
१ सम्य. सं.प.
सासादनसम्यग्दा मनुष्यनियोंके अपर्याप्त आलाप.
2
म
4.
यो.
ले. वे . क. | झा. | संय. द.
भ. स. संक्षि आ.
२
१
१
१
२
द्र. २ १
२
१
औ. मि. बी. कार्म
कुम. असं कु श्र.
चक्षु. का. भ. सास'. सं. आहा. अचक्षु. शु.
भा. ३ अशु.
नं. १२३
सम्यग्मिथ्यादृष्टि मनुष्यनियोंके आलाप.
गु. जी. प. श्री. सं. ग. ई. का. यो. वे. क. शा. संय. द. ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ.
१. १
४
४ ३ १ २ द्र. ६ ज्ञान. असं चक्षु. भा. ६ भ. सम्य. सं. ३ अच.
१ २ आहा. साका. अना.
४
१ १.
2
१ ९ म पंचे. स. म. ४ स्त्री
व. ४
औ. १
[ १, १.
अशामिश्र . !
उ.
ગ્
शाका.
अना. अना.
ܕ
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगबारे गदि-आलावणणं
[५२१ छ पज्जतीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, इत्थिवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजमो, तिण्णि देसण, दव्व-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धियाओ, तिण्णि सम्मत्तं, सण्णिणीओ, आहारिणीओ, सागारुबजुत्ता होति अणागारुखजुत्ताओ वा" ।
"मणुसिणी-संजदासंजदाणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, इत्थिवेद, चत्तारि कसाय, तिणि णाण, संजमासंजमो, तिणि दंसण, दव्येण छ लेस्साओ, भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्सा, भवसिद्धिया, तिणि सम्मत्तं, सण्णिणीओ, आहारिणीओ,
प्यगति, पंचेद्रियजाति, त्रसकाय, चारों मन.योग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग, स्त्रीवेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व, संशिनी, आहारिणी, साकारोपयोगिनी और अनाकारोपयोगिनी होती
और अनाकारोपयोगिनी होती हैं। . संयतासंयत मनुष्यनियोंके आलाप कहने पर-एक देशविरत गुणस्थान, एक संझीपर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग; स्त्रीवेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, संयमासंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेज, पान और शुक्ल लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक
नं. १२४
असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्यनियोंके आलाप. | गु | जी. प. प्रा. सं. ग. इ. ) का. | यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. 'ले. म. स. संशि. आ. ) उ. |
अवि. -
. सं.प.
म. पंचे. त्रस.म. ४ स्त्री.
मति. असं. के.द. भा.६ भ. औप. सं. आहा. साका. श्रुत. विना.
अना. अव.
क्षायो.
क्षा.
औ.१
नं. १२५
संयतासंयत मनुष्यनियोंके आलाप. | गु. जी. प.) प्रा सं. ग. ई. । का, यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संज्ञि. आ.
उ. ।
देश. -
म.
...म. ४ स्त्री. FRव.
४ ओ.१
मति. देश. के. द. भा.३ भ. औप. सं. श्रत. विना- शुभ. क्षा.
क्षायो.
आहा. साका.
अना
अव.
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
५२२ ]
सागारुवजुत्ताओ होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
मणुसिणी- पमत्तसंजदाणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणद्वाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिदियजादी, तसकाओ, णव जोग, इत्थवेद - णवंसयवेदाणमुदए आहारदुगं मणपज्जवणाणं परिहार सुद्धिसंजमो च णत्थि । इत्थवेदो, चत्तारि कसाय, तिष्णि णाण, दो संजम, तिणि दंसण, दव्त्रेण छ लेस्सा, भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया, तिष्णि सम्मत्तं, सण्णिणी, आहारिणीओ, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा 1
१२६
छक्खंडागमे जीवाणं
मणुसिणी - अप्पमत्त संजदाणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणद्वाणं, एओ जीवसमासो, छपत्तीओ, दस पाण, आहारसण्णाए विणा तिष्णि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिदियजादी,
ये तीन सम्यक्त्व, संज्ञिनी, आहारिणी, साकारोपयोगिनी और अनाकारोपयोगिनी होती हैं ।
प्रमत्तसंयत मनुष्यनियोंके आलाप कहने पर - एक प्रमत्तसंयत गुणस्थान, एक संत्रीपर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग होते हैं । नौ योगों के होनेका कारण यह है कि स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके उदय होने पर आहारककाययोग, आहारकमिश्रकाययोग, मन:पर्ययज्ञान और परिहारविशुद्धिसंयम नहीं होते हैं योग आलापके आगे स्त्रीवेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, सामायिक और छेदोपस्थापना ये दो संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेज, पद्म और शुक्ल ये तीन शुभ लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व, संशिनी, आहारिणी, साकारोपयोगिनी और अनाकारोपयोगिनी होती हैं।
अप्रमत्तसंयत मनुष्यनियों के आलाप कहने पर - एक अप्रमत्त विरत गुणस्थान, एक संज्ञी - पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, आहार- संज्ञाके विना शेष तीन संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, लसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, और औदारिक
प्रम. /
नं. १२६
गु. जी. | प. | प्रा. | सं. ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा.
१ ६ १०४ १ १ १
सं.प.
म. पं. त्र.
प्रमत्तसंयत मनुष्यनियोंके आलाप.
संय.
९ ३ ४ ३ २ म. ४ स्त्री.
व. ४
औ. १
द.
३ मति सामा के द. श्रुत. छेदो. विना.
अव.
[ १, १.
ले. भ.
द्र. ६ भा. ३ भ. शुभ.
स. | संज्ञि. आ. | उ.
१ / १ २
सं. आहा. साका. अना.
१ ३ ओ.
क्षा.
क्षायो.
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं
[५२३ तसकाओ, णव जोग, इथिवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, दो संजम, तिण्णि दसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सण्णिणी, आहारिणीओ, सागारुखजुत्ताओ होंति अणागारुवजुत्ताओ वा।
___ १“मणुसिणी-अपुव्वकरणाणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, तिणि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, इत्थिवेद, चत्तारि कसाय, तिणि णाण, दो संजम, तिणि दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावण सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया, वेदगसम्मत्तेण विणा दो सम्मत्तं, सणिणी,
काययोग ये नौ योग; स्त्रीवेद, चारों कषाय, आदिके तीन शान, सामायिक और छेदोपस्थापना ये दो संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेज, पद्म और शुक्ल ये तीन शुभ लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व, संझिनी, आहारिणी, साकारोपयोगिनी और अनाकारोपयोगिनी होती हैं।
अपूर्वकरण गुणस्थानवर्तिनी मनुष्यनियोंके आलाप कहने पर-एक अपूर्वकरण गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, आहारसंशाके विना शेष तीन संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग, स्त्रीवेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, सामायिक और छेदोपस्थापना ये दो संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या; भव्यसिद्धिक, वेदकसम्यक्त्वके विना औपशमिक और क्षायिक ये दो सम्यक्त्व,
नं. १२७
अप्रमत्तसंयत मनुष्यनियोंके आलाप. | गु.जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. | यो. । वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संझि. आ. उ. । ११ ६ १० ३ १/११ ९ | १ ४ ३ २ ३ द्र. ६ १ ३ । ११२
आहा. म. पं. स. म. ४ स्त्री. मति. सामा. के. द. भा. ३ भ. औ. सं. आहा. साका. विना.
व.४ श्रुत. छेदो. विना. शुभ.
अना. औ.१
अव.
. अप्र. .. सं.प.
क्षायो..
नं. १२८ अपूर्वकरण गुणस्थानवर्तिनी मनुष्यनियोंके आलाप. गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं.का. यो. वे. क. ज्ञा. । संय. द. ले. भ. स. संशि. आ.| उ. । ११ ६ १० ३ १ १ १ ९१ ४ ३ २ ३ द्र.६ १२ १ १ २ अपू. सं.प. आहा. म. पं. स. म. ४ स्त्री. मति. सामा. के.द. भा. १ भ. औ. सं. आहा. साका. विना.
श्रुत. छेदो. विना. शु. अव.
अना.
ब
.
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
५२४] छक्खंडागमे जीवठाणं
[१, १. आहारिणी, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
मणुसिणी-पढम-अणियट्टीणं भण्णमाणे अस्थि एयं गुणट्ठाण, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, आहार-भयसणाहि विणा दो सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, इत्थिवेद, चत्तारि कसाय, तिणि णाण, दो संजम, तिणि दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया, दो सम्मत्तं, सणिणीओ, आहारिणी, सागारुखजुत्ताओ होति अणागारुखजुत्ताओ वा"।
मणुसिणी-विदिय-अणियट्टीण भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पञ्जत्तीओ, दस पाण, परिग्गहसण्णा, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, अवगदवेदो, चत्तारि कसाय, तिषिण णाण, दो संजम, तिण्णि दंसण, दव्वेण छ लेस्सा, भावेण
संझिनी, आहारिणी, साकारोपयोगिनी और अनाकारोपयोगिनी होती हैं।
____ अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके प्रथम भागवर्तिनी मनुष्यनियोंके आलाप कहने पर-एक अनिवृत्तिकरण गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दों प्राण, आहार और मयसंज्ञाके विना शेष दो संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग; स्त्रीवेद, चारों कवाय, आदिके तीन ज्ञान, सामायिक और छेदोपस्थापना ये दो संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ल लेश्या; भव्यसिद्धिक, औपशमिक और क्षायिक ये दो सम्यक्त्व, संक्षिनी, आहारिणी, साकारोपयोगिनी और अनाकारोपयोगिनी होती हैं।
अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके द्वितीय भागवर्तिनी मनुष्यनियोंके आलाप कहने परएक अनिवृत्तिकरण गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, परिग्रहसंज्ञा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग; अपगतवेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, सामायिक और छेदोपस्थापना ये दो संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या;
नं. १२९ अनिवृत्तिकरण प्रथमभागवर्तिनी मनुष्यनियोंके आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. । वे. क. झा. । संय. द. । ले. भ. स. संक्षि. आ.। उ. । ११६१०२१ १ १ ९ १ ४ ३ २ ३ द.६१ २ १ १ । २ । अ. सं.प. मै. म. पंचे. त्रस. म. ४ स्त्री. मति. सामा. के.द. भा. भ. औप. सं. आहा.साका. श्रुत. छेदो. विना. शु. क्षा.
अना. अव.
ब
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
१,१.]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि - आलाववण्णणं
[ ५२५
सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया, दो सम्मत्तं सण्णिणी, आहारिणी, सागारुवजुत्ता होंवि अणागारुवजुत्ता वा ।
१३०
मसिणी-तदिय-अणिट्टीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणद्वाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जतीओ, दस पाण, परिग्गहसण्णा, मणुसगदी, पंचिदियजादी, तसकाओ, णव जोग, अवगदवेदो, कोधकसाय विणा तिणि कसाय, तिण्णि णाण, दो संजम, तिष्णि दंसण, दव्त्रेण छ लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा, भवसिद्धिया, दो सम्मत्तं, सण्णिणी, आहारिणी, सागारुवजुत्ता होंति अगागारुवजुत्ता वा ।
१३१
भव्यसिद्धिक, औपशमिक और क्षायिक ये दो सम्यक्त्व, संज्ञिनी, आहारिणी, साकारोपयोगिनी और अनाकारोपयोगिनी होती हैं ।
अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके तृतीय भागवर्तिनी मनुष्यनियोंके आलाप कहने पर - एक अनिवृत्तिकरण गुणस्थान, एक संज्ञी - पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, परिग्रहसंज्ञा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, और औदारिककाययोग ये नौ योग, अपगतवेद, क्रोधकषायके विना शेष तीन कषाय, आदिके तीन ज्ञान, सामायिक और छेदोपस्थापना ये दो संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्याः भव्यसिद्धिक, औपशमिक और क्षायिक ये दो सम्यक्त्व, संज्ञिनी, आहारिणी, साकारोपयोगिनी और अनाकारोपयोगिनी होती हैं ।
नं. १३०
गु] जी. प प्रा. सं. ग. । ई. का. यो.
६ १० | १ प.
१
अ.
द्वि.
भा,
१
सं. प.
अनिवृत्तिकरण के द्वितीय भागवर्तिनी मनुष्यनियोंके आलाप.
वे. क. ज्ञा. संय. द. | ले.
४ ३ २ ३ द्र. ६ मति, सामा. के. द. मा. १ श्रुत. छेदो. विना शु.
अव.
तृ. प. भा
१ १
१
९
म. पंचे. स. म. ४
नं. १३१
गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द.
९
३
३ २ ३
म. ४
क्रोध, मति सामा. के. द. विना श्रुत छेदो. विना.
अत्र.
१ १ ६ १० १ १ १
अ. सं.
प. म.
व ४
औ. १
त्रस..
पच.
अनिवृत्तिकरणके तृतीयभागवर्तिनी मनुष्यनियोंके आलाप.
०
अपग. ०
ले.
| भ.
द्र. ६ १ भा. १ म.
शु.
भ. सं. (संज्ञि.] आ.
१ २
उ. १ २ सं. आहा. साका.
१
भ. ओ.
क्षा.
अना.
स. | संज्ञि. आ.
उ. २
१
१
सं. आहा. साका. अना.
२
ओ. क्षा.
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
५२६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. मणुसिणी-चउत्थ-अणियट्टीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, परिग्गहसण्णा, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, अवगदवेदो, दो कसाय, तिणि णाण, अग्गि-दद्ध-बीए अंकुरो व्व इत्थि णबुंसयवेदोदय-दृसिय-जीवे वेदोदए फिट्टे वि ण मणपजवणाणमुप्पजदि। दो संजम, तिण्णि दसण, दव्येण छ लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया, दो सम्मत्तं, सणिणी, आहारिणी, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।।
मणुसिणी-पंचम-अणियट्टीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, परिग्गहसण्णा, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव
........
अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके चतुर्थ भागवर्तिनी मनुष्यनियोंके आलाप कहने पर-एक अनिवृत्तिकरण गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, परि. ग्रहसंज्ञा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, और औदारिककाययोग ये नौ योग; अपगतवेद, माया और लोभ ये दो कषाय, आदिके तीन ज्ञान होते हैं। यहांपर स्त्रीवेदके नष्ट हो जाने पर भी मनःपर्ययज्ञानके नहीं होनेका कारण यह है कि जैसे अग्निसे दग्ध हुए बीजमें अंकुर उत्पन्न नहीं हो सकता है, उसीप्रकार स्त्री और नपुंसकवेदके उदयसे क्षित जीवमें, वेदोदयके नष्ट हो जाने पर भी, मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न नहीं होता है, इसलिये यहां पर भी तीन ज्ञान ही कहे गये हैं। ज्ञान आलापके आगे सामा. यिक और छेदोपस्थापना ये दो संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या; भव्यसिद्धिक, औपशमिक और क्षायिक ये दो सम्यक्त्व, संझिनी, आहारिणी, साकारोपयोगिनी और अनाकारोपयोगिनी होती हैं।
___ अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके पंचम भागवर्तिनी मनुष्यनियोंके आलाप कहने पर एक अनिवृत्तिकरण गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण एक परिग्रहसंज्ञा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग
नं १३२ अनिवृत्तिकरणके चतुर्थभागवर्तिनी मनुष्यनियोंके आलाप. । गु.जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. वे. क. ज्ञा. सय. द. ले. म | स. संज्ञि. आ. | उ.। 1११६१०१ १ १ १ ९ . २ ३ २ ३ द्र. ६ | १ २ १ १ २ अ. सं. प. म. पंचे. त्रस. म.४ : माया मति. सामा.के.द. भा. १भ. औ. सं. आहा. साका. च. प. . श्रुत. छेदो. विना. शु. क्षा
अना.
अपग...
अव.
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं
[ ५२७ जोग, अवगदवेदो, लोभकसाओ, तिण्णि णाण, दो संजम, तिण्णि दसण, दव्येण छ लेस्लाओ, भावेण सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया, दो सम्मत्तं, सणिणी, आहारिणी, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुखजुत्ता वा५ ।
"मणुसिणी-सुहुमसांपराइयाणं भण्णमाणे अस्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, सुहुमपरिग्गहसण्णा, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, अवगदवेदो, हुमलोभकसाओ, तिण्णि णाण, सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजमो, तिण्णि दंसण, दव्येण छ लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा; भवसिद्धियाओ, दो सम्मत्तं,
और औदारिककाययोग ये नौ योग; अपगतवेद, लोभकषाय, आदिके तीन ज्ञान, सामायिक और छेदोपस्थापना ये दो संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या; भव्यसिद्धिक, औपशमिक और क्षायिक ये दो सम्यक्त्व, संशिनी, आहारिणी, साकारोपयोगिनी और अनाकारोपयोगिनी होती हैं।
सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानवर्तिनी मनुष्यनियोंके आलाप कहने पर-एक सूक्ष्मसा. म्पराय गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, सूक्ष्म परिग्रहसंज्ञा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, और ओदारिककाययोग ये नौ योग; अपगतवेद, सूक्ष्म लोभकषाय, आदिके तीन शान, सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या, भन्य.
नं. १३३ अनिवृत्तिकरणके पंचमभागवर्तिनी मनुष्यनियोंके आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग.| इं.का. यो. वे.! क. ना. संय. ' द. ले. भ. स. संशि. आ.
उ. |
स. .भ
o
२
अ. सं.
पचे. .
परि. म.
पं.
प.
म.४ -लो. मति. सामा. के द. भा.१ भ. औप. सं. आहा. साका. श्रत.! छेदो. विना. शु. !
अना, अव.
"lable
नं. १३४ सूक्ष्मसापराय गुणस्थानवर्तिनी मनुष्यनियोंके आलाप. । गु.जी. प. | प्रा.सं. । ग.। इं.का.) यो. वे. क. | शा. संय. द. ले. भ. स. ससि. आ. । उ.
पंचे. .
त्रस. -
अपग. ०.
सूक्ष्म. मति. सूक्ष्म-के.द. भा. लोभ. श्रुत. सा. विना. शु.
अव.
भ. औप. सं.
क्षा.
आहा. साका.
अना.
ब
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
५२८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. सण्णिणीओ, आहारिणीओ, सागारुवजुत्ताओ होंति अणागारुखजुत्ताओ वा।
मणुसिणीसु उवसंतकसायाणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, उवसंतसण्णा, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, अवगदवेदो, उवसंतकसाओ, तिण्णि णाण, जहाक्खादविहारसुद्धिसंजमो, तिण्णि दसण, दव्येण छ लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा; भवसिद्धियाओ, दो सम्मत्तं, सणिणीओ, आहारिणीओ, सागारुवजुत्ताओ होंति अणागारुवजुत्ताओ वा ।
मणुसिणीसु खीणकसायाण भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, खीणसण्णा, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, अवगदवेदो, खीणकसाओ, तिणि णाण, जहाक्खादविहारसुद्धिसंजमो, तिण्णि दसण,
सिद्धिक, औपशमिक और क्षायिक ये दो सम्यक्त्व, संझिनी, आहारिणी, साकारोपयो गिनी और अनाकारोपयोगिनी होती हैं।
उपशान्तकषाय गुणस्थानवर्तिनो मनुष्यनियोंके आलाप कहने पर-एक उपशान्तकषाय गुणस्थान, एक संझी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, उपशान्तसंज्ञा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग, अपगतवेद, उपशान्तकषाय, आदिके तीन ज्ञान, यथाख्यातविहारशुद्धिसंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या; भव्यसिद्धिक, औपशमिक और क्षायिक ये दो सम्यक्त्व, संशिनी, आहारिणी, साकारोपयोगिनी और अनाकारोपयोगिनी होती हैं।
क्षीणकषाय गुणस्थानवर्तिनी मनुष्यनियों के आलाप कहने पर-एक क्षीणकषाय गुणस्थान, एक संझी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, क्षीणसंज्ञा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, बसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग, अपगतवेद, क्षीणकषाय, आदिके तीन शान, यथाख्यातविहारशुद्धिसंयम, आदिके
नं. १३५ उपशान्तकषाय गुणस्थानवर्तिनी मनुष्यनियोंके आलाप.. | गु.| जी. प.प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. | ले. भ. स. | संज्ञि. | आ. | उ..। उ. म. स - उ. मति. यथा के.द भा.१ भ. औप सं. आहा. साका.
श्रुत. विना. शु.
अना. अव.
- '
सं.प.
पचे. .
अपग. ०
से
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १. ]
संत- परूवणाणुयोगद्दारे गदि - आलावण्णणं
[ ५२९
दव्त्रेण छ लेस्साओ, भावेण सुकलेस्सा, भवसिद्धियाओ, खइयसम्मत्तं सण्णिणीओ, आहारिणीओ, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
मणुसिणी - सजोगिजिणाणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, दो जीवसमासा, छ पजत्तीओ छ अपजतीओ, चत्तारि पाण दो वा, खीणसण्णा, मणुसगदी, पंचिदियजादी, तसकाओ, सत्त जोग, अवगदवेदो, अकसाओ, केवलणाणं, जहाक्खादविहारसुद्धि संजमो, केवलदंसण, दव्त्रेण छ लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा, भवसिद्धियाओ, खइयसम्मत्तं,
तीन दर्शन, द्रव्यसे छहीं लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्याः भव्यसिद्धिक, क्षायिक सम्यक्त्व, संज्ञिनी, आहारिणी, साकारोपयोगिनी और अनाकारोपयोगिनी होती हैं ।
१३७
सयोगिजिन गुणस्थानवर्तिनी मनुष्यनियोंके आलाप कहने पर - एक सयोगिकेवली गुणस्थान, पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; वचनबल, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये चार प्राण तथा समुद्धा - तकी अपर्याप्त अवस्था में, वचनबल और श्वासोच्छ्वासका अभाव हो जानेसे, अथवा तेरहवें गुणस्थानके अन्तमें आयु और कायबल ये दो प्राण होते हैं। क्षीणसंज्ञा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, सत्य और अनुभय ये दो मनोयोग, ये ही दोनों वचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये सात योग, अपगतवेदस्थान, अकषायस्थान, केवलज्ञान, यथाख्यातविहारशुद्धिसंयम, केवलदर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या भव्यसिद्धिक, क्षायिकसम्यक्त्व, संज्ञिनी और असंशिनी इन दोनों
१ सं.प.
नं. १३६
ग्र. जी. प. प्रा. सं. ग.) इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. | संय.] द.
६ १०
१
त्रस.
सयो./4.
नं. १३७ गु. जी.
२ प. अ.
क्षीणसं. ०
क्षीणकषाय गुणस्थानवर्तीनी मनुष्यनियों के आलाप.
13
१
म.
पंचे. ०/०५.
क्षीणसं. ०.
१.
९ म. ४ व ४
सयोगिकेवली गुणस्थानवर्तिनी मनुष्यनियोंके आलाप.
प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. ) वे. क. ज्ञा. । संय. द.
६प.
४
७
६अ. २
म. २
म.
पंचे...
११
त्रस
०
N
ओ.२
का. १
३ १
३
मति यथा. के. द. श्रुत. विना शु.
अव.
ले. (भ.) स. संशि.
उ.
१ १
२
द्र. ६ १ १ मा. १ भ. क्षा. सं. आहा. साका.
अना.
अपग.
अकषा. ०
आ.
ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ.
२
२
१ १ १ द्र. ६ १ १ ० के. यथा . के. द. मा. १ भ. क्षा. अनु. आहा. साका.
शु.
अना. अना. यु.उ.
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
५३०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. णेव सण्णिणीओ णेव असण्णिणीओ, आहारिणीओ अणाहारिणीओ, सागार-अणागारहि जुगवदुवजुत्ताओ वा होति।
__ मणुसिणी-अजोगिजिणाणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, एओ पाणो, खीणसण्णा, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, अजोगो, अवगदवेदो, अकसाओ, केवलणाण, जहाक्खादविहारसुद्धिसंजमो, केवलदसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण अलेस्सा; भवसिद्धियाओ, खइयसम्मत्तं, णेव सण्णिणीओ णेत्र असण्णिणीओ, अणाहारिणीओ, सागार-अणागारेहि जुगवदुवजुत्ताओ वा होति ।
लद्धि-अपजत्त-मणुस्साणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ अपजत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, वे
........
विकल्पोंसे विमुक्त, आहारिणी, अनाहारिणी; साकार और अनाकार इन दोनों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त होती हैं।
__अयोगिजिन गुणस्थानवर्तिनी मनुष्यनियोंके आलाप कहने पर-एक अयोगिकेवली गुणस्थान, एक पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, एक आयु प्राण, क्षीणसंशा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, अयोगस्थान, अपगतवेदस्थान, अकषायस्थान, केवलशान, यथाख्यातविहारशुद्धिसंयम, केवलदर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे अलेश्यास्थान; भव्यासिद्धिक, क्षायिकसम्यक्त्व, संशिनी और असंझिनी इन दोनों विकल्पोंसे मुक्त, अनाहारिणी, साकार और अनाकार इन दोनों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त होती हैं।
लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंके आलाप कहने पर-एक मिथ्यात्व गुणस्थान, एक संझीअपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, नपुंसकवेद,
नं. १३८ अयोगिकेवली गुणस्थानवर्तिनी मनुष्यनियोंके आलाप. । गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. वे. क.| ज्ञा. | संय.। द. ले. म. स. संज्ञि. आ.
उ.
अयो. -
पर्या.".
आयु. क्षीणसं. .
म.
पंचे. त्रस. -
अयोग.
अकषा. .
के. यथा. के.द. द्र.
म. क्षा. उभ. अना. साका.
विना. अनाका.
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.]
संत-पख्वणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं __ [५३१ जोग, णqसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, दो दंसण, दब्वेण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
एवं मणुसगदी समत्ता । १" देवगदीए देवाणं भण्णमाणे अत्थि चत्तारि गुणट्ठाणाणि, दो जीवसमासा, छ पञ्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सस पाण, चत्तारि सण्णा, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, णवंसयवेदेण विणा दो वेद, चत्तारि कसाय, छ णाण,
चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत ये तीन लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
इसप्रकार मनुष्योंके आलाप समाप्त हुए । देवगतिमें सामान्य देवोंके सामान्य आलाप कहने पर-आदिके चार गुणस्थान, संक्षीपर्याप्त और संशी अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, वैक्रियिककाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योग; नपुंसक घेदके घिना दो वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान और आदिके तीन शान ये छह ज्ञान,
नं. १३९
लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यके आलाप. | गु. जी. प. प्रा.सं . ग. ई. का.। यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संझि. आ. उ. |११ ६.७४|११ १२ १४२ १ २ | द्र. २/२/११/२ २ । मि. सं.अ..
म. पं. स. औ.मि. न. | कुम. असं. चक्षु. का. म. मि. सं. आहा. साका. कार्म. । कुश्रु. अच. शु. अ.]
अना. अना. भा.३॥
अश.
नं. १४० गु. जी.
प. प्रा. सं. प. १०४ अ.. ७
देवोंके सामान्य आलाप.
यो. वे. क. ज्ञा.' संय. द. ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ.. | ११ २ ४ ६ १ ३ द्र.६ | स्त्री. अज्ञा.३ असं.के.द. भा.६
आहा. साका, व.४ पु. ज्ञान.३ विना.
अना. अमा.
मि. सं.प. सा. सं. अ.
पंचे -
का.१
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
५३२ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, १.
असंजमो, तिणि दंसण, दव्व-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव पत्ताणं भण्णमाणे अस्थि चत्तारि गुणहाणाणि, एओ जीवसमासो, छपत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदी, पंचिदियजादी, तसकाओ, णव जोग, दो वेद, चत्तारि कसाय, छ णाण, असंजमो, तिण्णि दंसण, दव्त्रेण छ लेस्साओ एत्थ सिस्सो भणदि - देवाणं पञ्जत्तकाले दव्वदो छ लेस्साओ हवंति त्ति एदं ण घडदे, सिं पत्तकाले भावदो छ - लेस्साभावादो । मा भवंतु देवाणं भावदो छ लेस्साओ दव्वदो पुण छ लेस्सा भवंति चेव, दव्त्र भावाणमे गत्ताभावादो । इदि एदमवि वयणं ण घडदे, जम्हा जा भावलेस्सा तल्लेस्सा चेव ओरालिय- वेउन्त्रिय आहारसरीरणोकम्मघरमाणघो आगच्छंति । तं कथं गव्वदित्ति भणिदे सोधम्मादिदेवाणं भावलेस्साणुरूवदव्वलेस्सापरूवणादो णव्वदि । ण च देवाणं पञ्जत्तकाले तेउ-पम्म सुक्कलेस्साओ मोत्णणलेस्साओ अस्थि, तम्हा देवाणं पज्जत्तकाले दव्वदो तेउ-पम्म सुक्कलेस्साहि होदव्यमिदि । एत्थ उवउज्जतीओ गाहाओ -
असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, ( यहां तीन अशुभ लेश्याएं अपर्याप्तकाल की अपेक्षा जानना चाहिये । ) भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, छहों सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, अनाहारकः साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
उन्हीं सामान्य देवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - आदिके चार गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और वैक्रियिककाययोग ये नौ योगः स्त्री और पुरुष ये दो वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान और आदिके तीन ज्ञान ये छह ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं होती हैं ।
शंका- यहां पर शिष्य कहता है कि देवोंके पर्याप्तकालमें द्रव्यसे छहीं लेश्याएं होती हैं यह वचन घटित नहीं होता है, क्योंकि, उनके पर्याप्तकालमें भावसे छहों लेश्याओंका अभाव है । यदि कहा जाय कि देवोंके भावसे छहों लेश्याएं मत होवें, किन्तु द्रव्यसे छहों लेश्याएं होती ही हैं, क्योंकि द्रव्य और भावमें एकताका अभाव अर्थात् भेद है। सो ऐसा कथन भी नहीं बनता है, क्योंकि, जो भावलेश्या होती है, उसी लेश्यावाले ही औदारिक, वैकियिक और आहारकशरीरसंबन्धी नोकर्म परमाणु आते हैं। यदि यह कहा जाय कि उक्त बात कैसे जानी जाती है, तो उसका उत्तर यह है कि सोधर्म आदि कल्पवासी देवोंके भावलेश्य के अनुरूप ही द्रव्य लेश्याका प्ररूपण किये जानेसे उक्त बात जानी जाती है । तथा देवोंके पर्याप्तकालमें तेज, पद्म और शुक्ल इन तीन लेश्याओंको छोड़कर अन्य लेश्याएं होती नहीं है, इसलिये देवोंके पर्याप्तकाल में द्रव्यकी अपेक्षा भी तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं होना चाहिये । इस प्रकरणमें निम्न गाथाएं उपयुक्त हैं
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
mm
१, १.]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं किण्हा भमरसमण्णा णीला पुण णीलगुलियसंकासा । काओ कओदवण्णा तेऊ तवणिज्जवण्णा य ॥ २२३ ॥ पम्मा पउमसवण्णा सुक्का पुण कासकुसुमसंकासा ।
किण्हादि-दव्यलेस्सा-वण्णविसेसो मुणेयव्यो' ॥ २२४ ॥ भावलेस्सा-लिंगं थोरुच्चएण एसा गाहा जाणावेई -
जिम्मूलखंधसाहुवसाहं बुच्चित्तु वाउ-पडिदाई । अभंतरलेस्साणं भिंदइ एदाई वयणाई ॥ २२५ ।।
कृष्णलेश्या भौरके समान अत्यन्त काले वर्णकी होती है, नीललेश्या नीलकी गोलीके समान नीलवर्णकी होती है, कापोतलेश्या कपोतवर्णवाली होती है, तेजोलेश्या सोनेके समान वर्णवाली होती है, पद्मलेश्या पद्मके समान वर्णवाली होती है और शुक्ललेश्या कांसके फूलके समान श्वेतवर्णकी होती है । इसप्रकार कृष्णादि द्रव्यलेश्याओंके वर्ण-विशेष जानना चाहिए ॥२२३,२२४॥
भावलेश्याओंके स्वरूपका थोडेमें संग्रहरू पसे यह गाथा ज्ञान करा देती है• जड़-मूलसे वृक्षको काटो, स्कन्धसे काटो, शाखाओंसे काटो, उपशाखाओंसे काटो फलोंको तोड़कर खाओ और वायुसे पतित फलोंको खाओ, इसप्रकारके ये वचन अभ्यन्तर अर्थात् भावलेश्याओंके भेदको प्रकट करते हैं ॥२२५॥
विशेपार्थ-गोम्मटसार जीवकांडमें उक्त अर्थ इस प्रकारसे स्पष्ट किया गया है कि फलोंसे लदे हुए वृक्षको देखकर कृष्णलेश्यावाला विचार करता है कि इस वृक्षको जड़-मूलसे उग्याड़कर फलोंको खाना चाहिये । नीललेश्यावाला विचार करता है कि इस वृक्षको स्कन्ध अर्थात् मूलसे ऊपरके भाग को काटकर फलोंको खाना चाहिये । कापोतलेश्यावाला विचार करता है कि इस वृक्षकी शाखाओंको काटकर फलोंको खाना चाहिये । तेजोलेश्यावाला विचार करता है कि इस वृक्षकी उपशाखाओंको काटकर फलोंको खाना चाहिये । पद्मलेश्यावाला विचार करता है कि इस वृक्षके फलोंको तोड़कर खाना चाहिये । शुक्ललेश्यावाला विचार करता है कि इस वृक्षके वायुसे गिरे हुए फलोंको खाना चाहिये । उक्त प्रकारके भावोंसे छहों लेश्याओंके तारतम्यको जान लेना चाहिये ।
१ 'णीला पुण' इति स्थाने ' आ, क ' प्रत्योः गीलायण ' इति पाठः । 'अ' प्रतीणीलाघण' इति पाठः ।
२ पंचसं. १, १८१.१८४. ( दि. हस्तलिखित)
___३ जिम्मूलबंधसाहुवसाहं छित्तुं चिणित्तु परिदाई । खाउं फलाई इदि जंगणेण वयणं हवे कम्मं ॥ गो. जी. ५०८.
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
छक्खंडागमे जीवट्ठाण
[ १, १. तेऊ तेऊ तेऊ पम्मा पम्मा य पम्म-पुक्का य । सुक्का य परमसुक्का लेस्ससमासो मुणेयव्वो ॥२२६॥ तिण्हं दोण्हं दोण्हं छहं दोण्हं च तेरसण्हं च ।
एत्तो य चोदसण्हं लेस्साभेदो मुणेयवो ॥ २२७ ॥ एत्थ परिहारो उच्चदे–ण ताव एदाओ गाहाओ तो पक्खं साहेति, उभय-पक्खसाधारणादो । ण तो उत्त-जुत्ती वि घडदे, ण ताव अपजत्तकालभावलेस्समणुहरइ दव्यलेस्सा, उत्तमभोगभूमि-मणुस्साणमपजत्तकाले असुह-ति-लेस्साणं गउरवण्णाभावापत्तीदो । ण पज्जत्तकाले भावलेस्सं पि णियमेण अणुहरइ पज्जत्त-दव्यलेस्सा, छबिह-भावलेस्सासु परियट्टत-तिरिक्ख-मणुसपज्जत्ताणं दधलेस्साए अणियमप्पसंगादो । धवलवण्ण-वलायाए
तीनके तेजोलेश्याका जघन्य अंश, दोके तेजोलेश्याका मध्यम अंश, दोके तेजोलेश्याका उत्कृष्ट एवं पद्मलेश्याका जघन्य अंश, छहके पद्मलेश्याका मध्यम अंश, दो के पद्मलेश्याका उत्कृष्ट एवं शुक्ल लेश्याका जघन्य अंश, तेरहके शुक्ललेश्याका मध्यम अंश तथा चौदहके परमशुक्ललेश्या होती है। इस प्रकार तीनों शुभ लेश्याओंका भेद जानना चाहिये ॥ २२६,२२७॥
विशेषार्थ-भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिष्क इन तीन जातिके देवोंके जघन्य तेजोलेश्या होती है । सौधर्म और ऐशान इन दो स्वर्गवाले देवोंके मध्यम तेजोलेश्या होती है। सानत्कुमार और माहेन्द्र इन दो स्वर्गवाले देवोंके उत्कृष्ट तेजोलेश्या और जघन्य पद्मलेश्या होती है। ब्रह्मा, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ट. छाक और महाशक इन छह स्वर्गवा पद्मलेश्या होती है। शतार और सहस्रार इन दो स्वर्गवालोंके उत्कृष्ट पद्मलेश्या और जघन्य शुक्ललेश्या होती है । आनत, प्राणत, आरण, अच्युत और नौ ग्रैवेयक इन तेरह विमानवालोंके मध्यम शुक्ललेश्या होती है। इसके ऊपर नौ अनुदिश और पांच अनुत्तर इन चौदह विमानवालोंके उत्कृष्ट या परमशुक्ललेश्या होती है।
समाधान-शंकाकारकी पूर्वोक्त शंकाका अब परिहार कहते हैं-उपर कही गई ये गाथाएं तो तुम्हारे पक्षको नहीं साधन करती हैं, क्योंकि, वे गाथाएं उभय पक्षमें साधारण अर्थात् समान हैं। और न तुम्हारी कही गई युक्ति भी घटित होती है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-द्रव्यलेश्या अपर्याप्तकालमें होनेवाली भावलेश्याका तो अनुकरण करती नहीं है, अन्यथा अपर्याप्तकालमें अशुभ तीनों लेश्यावाले उत्तम भोगभूमियां मनुष्योंके गौर वर्णका अभाव प्राप्त हो जायगा। इसीप्रकार पर्याप्तकाल में भी पर्याप्त-जीवसंबन्धी द्रव्यलेश्या भावलेश्याका नियमसे अनुकरण नहीं करती है। क्योंकि, वैसा मानने पर छह प्रकारकी भावलेश्याओंमें निरन्तर परिवर्तन करनेवाले पर्याप्त तिर्यंच और मनुष्योंके द्रव्यलेश्याके अनियम
१ गो. जी. ५३५. परं तत्र चतुर्थचरणस्त्रयम्-भवणतिया पुण्णगे असुहा' । प्रतिषु प्रथमपंक्तौ । तेउ तेउ तह तेऊ पम्मं पम्मा य' इति पाठः
२ गो. जी. ५३४. परं तत्र चतुर्धचरणस्त्वयम्-' लेस्सा भवणादिदेवाण ।
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-पख्वणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं
[५३५ भावदो सुक्कलेस्सप्पसंगादो । आहारसरीराणं धवलवण्णाणं विग्गहगदि-ट्टिय-सव्वजीवाणं धवलवण्णाणं भावदो सुक्कलेस्सावत्तीदो चेव । किं च, दव्यलेस्सा णाम वण्णणामकम्मोदयादो भवदि, ण भावलेस्सादो । ण च दोण्हमेगत्तं णाम, वण्णणाम-मोहणीयाणं अधादि-घादीणं पोग्गल-जीवविवागीणं एगत्त-विरोहादो । विस्ससोवचयवण्णो भावलेस्सादो भवदि, ओरालिय-उब्धिय-आहारसरीराणं वण्णा वण्णणामकम्मादो भवंति, अदो ण एस दोसो । इदि ण, 'चंडो ण मुयदि वेरं' इच्चादि-बाहिरकज्जुप्पायणे हिदिबंधे पदेसबंधे च भावलेस्सा-वावार-दसणादो । अदो दवलेस्साए ण कारणं भावलेस्सा ति सिद्धं । तदो वण्णणामकम्मोदयदो भवणवासिय-वाण-तर-जोइसियाणं दव्वदो छ लेस्साओ भवंति, उवरिमदेवाणं तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ भवंति । पंच-वण्ण-रस-कागस्स कसणववएसो व्य एगवण्ण-ववहार-विरोहाभावादो । भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्सा, भवसिद्धिया
पनेका प्रसंग प्राप्त हो जायगा। और यदि द्रव्यलेश्याके अनुरूप ही भावलेश्या मानी जाय, तोधवलवर्णवाले बगुलेके भी भावसे शुक्ललेश्याका प्रसंग प्राप्त होगा। तथा धवलवर्णवाले आहारक शरीरोंके और धवलवर्णवाले विग्रहगतिमें विद्यमान सभी जीवोंके भावकी अपेक्षासे शुक्ललेश्याकी आपत्ति प्राप्त होगी। दूसरी बात यह भी है कि द्रव्यलेश्या वर्णनामा नामकर्मके उदयसे होती है, भावलेश्यासे नहीं। इसलिये दोनों लेश्याओंको एक कह नहीं सकते; क्योंकि, अघातिया और पुद्गलविपाकी वर्णनामा नामकर्म, तथा घातिया और जीवविपाकी (चारित्र ) मोहनीय कर्म इन दोनोंकी एकतामें विरोध है। यदि कहा जाय कि कौके विस्रसोपचयका वर्ण तो भावलेश्यासे होता है, और औदारिक, वैक्रियिक, आहारकशरीरोंके वर्ण वर्णनामा नामकर्मके उदयसे होते हैं, इसलिए हमारे कथनमें यह उक्त दोष नहीं आता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, 'कृष्णलेश्यावाला जीव चंडकर्मा होता है, वैर नहीं छोड़ता है' इत्यादि रूपसे बाहरी कार्यों के उत्पन्न करनेमें, तथा स्थितिबन्ध और प्रदेशबन्धमें ही भावलेश्याका व्यापार देखा जाता है, इसलिए यह बात सिद्ध होती है कि भावलेश्या द्रव्यलेश्याके होनेमें कारण नहीं है। इसप्रकार उक्त विवेचनसे यह फलितार्थ निकला कि वर्णनामा नामकर्मके उदयसे भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके द्रव्यकी अपेक्षा छहों लेश्याएं होती हैं, तथा भवनात्रकसे ऊपरके देवोंके तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं होती हैं। जैसे पांचों वर्ण और पांचों रसवाले काकके अथवा पांचों वर्णवाले रसोंसे युक्त काकके कृष्ण व्यपदेश देखा जाता है, उसी प्रकार प्रत्येक शरीरमें द्रव्यसे छहों लेश्याओंके होने पर भी एक वर्णवाली लेश्याके व्यवहार करने में कोई विरोध नहीं आता है।
..........
१ प्रतिषु 'वण्णणाम' इति पाठो नास्ति ।
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
५३६ ] छक्खंडांगमे जीवट्ठाण
[१, १. अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
तेसिं चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि तिणि गुणट्ठाणाणि, एओ जीवसमासो, छ अपजत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दो जोग, दो वेद, चत्तारि कसाय, विभंगणाणेण विणा पंच णाण, असंजमो, तिण्णि दसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, सम्मामिच्छत्तेण विणा पंच सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
द्रव्यलेश्या आलापके आगे भावसे तेज, पद्म और शुक्ललेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; छहों सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
___ उन्हीं देवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और अविरतसम्यग्दृष्टि ये तीन गुणस्थान, एक संज्ञी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, वैकियिकामिश्र और कार्मण ये दो योग, स्त्री और पुरुष ये दो चेद, चारों कषाय, विभंगज्ञानके विना पांच ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे छहों लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक सम्यग्मिथ्यात्वके विना पांच सम्यक्त्व, संशिक, आहारक, अनाहारका साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं. १४१ | गु.जी. प. प्रा.
देवोंके पर्याप्त आलाप. सं. ग. इं का. यो. । वे. क. ज्ञा. संय. द.ले.
भ. स. संज्ञि.
आ.
उ.
।
पंचे. 0. त्रस. -
म.४ खी. व. ४ पु.
अज्ञा.३ असं. के. द. भा.३ भ. ज्ञान.३ विना. शुभ. अ
सं. आहा.
साका. अना.
नं. १४२
देवोंके अपर्याप्त आलाप. |गु. । जी. प. प्रा. सं. ग. इं.का. यो. वे. क ज्ञा. संय. द. ले. म. स. सनि. । आ.। उ. |३|१६|७४ ११.१ २ २ ४ ५ १, ३ द.२२५ २ २ मि.सं.अ. दे. पं. प. वै.मि. स्त्री. । कुम, असं. के.द. का. म. मि. सं. आहा. साका. कार्म. पु. । कुश्रु. विना. शु. अ. सासा. अना. अना.
मा. ६ औ. श्रुत. अव.
क्षायो.
मति.
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूषणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं
[ ५३७ . देव-मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, दो जीवसमासा, छ पञ्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, दो वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्वेण छ लेस्सा, भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, दो वेद, चत्तारि कसाय, तिणि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्वेण छ लेस्सा, भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो,
मिथ्यादृष्टि देवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, संशीपर्याप्त और संशी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, वैक्रियिककाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योग; नपुंसकवेदके विना दो वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
- उन्हीं मिथ्यादृष्टि देवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और वैक्रियिककाययोग ये नौ योग; नपुंसकवेदके विना दो वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं; भव्यसिद्धिक,
................................. . . . . . . . . . . ..........
नं. १४३
मिथ्यादृष्टि देवोंके सामान्य आलाप. | गु | जी. प. प्रा. सं. ग. | इं. का. यो. वे. क. ना. संय. द. ले. भ. स. संक्षि. आ. | उ. | १२.६ १०४ १ १ १ ११ २ ४ ३ १ २ द्र. ६२ १ १ २ २ मि. सं. प.प. ७ दे. पंचे. प्रस. म. ४ स्त्री. अज्ञा. असं. चक्षु. भा.६ भ. मि. सं. आहा. साका. सं.अ.६
व.४ पु. अच.
अना. अना.
का.
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
५३८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. आहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा" ।
तेसिं चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दो जोग, दो वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
देव-सासणसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, छ
अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं मिथ्यादृष्टि देवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर--एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संशी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, नपुंसकवेदके विना दो वेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, चक्षु
और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे छहों लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिका मिथ्यात्व, संज्ञिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
सासादनसम्यग्दृष्टि देवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक सासादन गुणस्थान,
नं. १४४
मिथ्यादृष्टि देवोंके पर्याप्त आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं | ग. इं.का. यो. के. | क. ज्ञा. संय. द. | ले. भ. स. संक्षि. आ. | उ. ।
२४३
| ३१ २ द्र. ६२१११२ मि. सं.प,
म. ४ स्त्री. अज्ञा. असं. चक्षु. भा. ३ म. मि | सं. आहा. साका. व.४ पु. अच. शुभ.अ.
अना.
पचे... त्रस. ~
नं. १४५
मिथ्यग्दृष्टि देवोंके अपर्याप्त आलाप. । गु. जी. प.प्रा. सं. ग. ई. का. यो. । वे. क. ज्ञा. | संय- द. ले. (म. स. संलि. आ. उ.. |११६/७४|११ १२ २४ २ १ २ द्र. २ २ १ १ २ मि.सं. अअ. द. वै. मि. स्त्री. कुम. असं.! चक्षु. का. म. मि. सं. आहा. | साका. कार्म. पु. कु. अचक्षु. शु. अभ
अना. अना.
पंचे.. त्रस..
भा.६
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं
[५३९ पज्जत्तीओ छ अपजत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, दो वेद, चत्तारि कसाय, तिणि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा" ।
"तेसिं चेव पजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, दो वेद, चत्तारि कसाय, तिणि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्वेण छ लेस्सा, भावेण
संज्ञी-पर्याप्त और संज्ञी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, वैक्रियिककाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्य योग; नपुंसकवेदके विना दो वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
___उन्हीं सासादनसम्यग्दृष्टि देवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक सासादन गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संक्षाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और वैक्रियिककाययोग ये नौ योग, नपुंसकवेदके विना दो वेद, चारों कषाय, तीनों अक्षान, असंयम, चक्षु और
नं. १४६
सासादनसम्यग्दृष्टि देवोंके सामान्य आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग.| इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. | संय. द. ले. भ | स. संज्ञि. आ. | उ. । १ २ ६५. १०४/१/११ ११ २४ ३१२ द्र.६ | १ में सं. प. ६अ. ७ दे. म.४ स्त्री. अज्ञा. असं. चक्षु. भा.६ भ. सं. आहा.साका. सं. अ. व.४ पु.
अना. अमा.
पंचे. वस. "
सासा. 0
अच
।
नं १४७
सासादनसम्यग्दृष्टि देवोंके पर्याप्त आलाप. । गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. 'वे. क. ज्ञा. सयं. द. | ले. भ. स. संहि. आ. | उ. | ११ ६ १० ४ ११। १ ९ २ ४ ३ १ २ द्र.६ ११११ सा.सं. । दे. पंचे. स. म.४ स्त्री. अज्ञा. असं. चक्षु. भा. ३ म. सासा. सं. आहा. साका.
व.४ प. अच. शुभ..
अना.
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
५४०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ; भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा।
तेसिं चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दो जोग, दो वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
देव-सम्मामिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, दो वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाणाणि तीहिं अण्णाणेहि मिस्साणि, असंजमो, दो
अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेज, पन और शुक्ललेश्याएं; भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं सासादनसम्यग्दृष्टि देवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक सासा. दन गुणस्थान, एक संझी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वसकाय, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, नपुंसकवेदके विना दो वेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे छहों लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, अनाहारका साकारोपयोगी और अना. कारोपयोगी होते हैं।
- सम्याग्मथ्यादृष्टि देवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगति, पंचन्द्रियजाति, बसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और वैक्रियिककाययोग ये नौ योग; नपुंसकवेदके विना दो वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञानोंसे मिश्रित आदिके तीन शान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेज,
नं. १४८ सासादनसम्यग्दीष्ट देवोंके अपर्याप्त आलाप. | गु. जी. प प्रा. सं. ग. इं.का. यो. वे. क. ज्ञा. | संय. द. ले. भ. स. संक्षि. आ. उ. । ११ ६७ ४१ १.१.
२२४ २ | १ | २ | द्र.२.१ १२२ । २
वै मि. स्त्री. कुम. असं. चक्षु. का. म. सा. सं. आहा. साका. iv कार्म. पु. कुश्रु. अच. शु..
अना. अनाका. भा. ६
पंचे. त्रस. -
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगदारे गदि-आलाववण्णणं ५४१ दंसण, दव्येण छ लेस्साओ, भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ, भवसिद्धिया, सम्मामिच्छत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा" ।
देव-असंजदसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि एयं गुणहाणं, दो जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपजत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, दो वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजम, तिण्णि दंसण, दव्वेण छ लेस्सा, भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ; भवासद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
पद्म और शुक्ल लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, सम्यग्मिथ्यात्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
असंयतसम्यग्दृधि देवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुण. स्थान, संज्ञी-पर्याप्त और संशी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, वैक्रियिककाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योग; नपुंसकवेदके विना दो वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहीं लेश्याएं, भावसे तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व; संशिक, आहारक, अनाहारक; साकारो पयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं. १४९
सम्यग्मिथ्यादृष्टि देवोंके आलाप । गु. | जी. प. प्रा. सं. ग. ई. | का. यो. वे. क. ज्ञा. | संय. द. ले. म.स. संक्षि. आ. | उ. | |१|१६|१० ४|११|१| ९ २ ४ ३ | १ २ द्र.६ ११।१।१ । २ सम्य. सं.प. प. । दे. पंचे. वस. म. ४ स्त्री. अज्ञा. असं. चक्षु. भा. ३ भ. सम्य. सं. आहा. साका.
अच. शुभ.
अना.
वः
मिश्र.
नं. १५०
असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंके सामान्य आलाप. | गु | जी. प. | प्रा. सं. ग. इ. ) का. ( यो.। ये. क. शा. संय.| द. ले. म. स. सेशि.| आ. | उ. १/२ |६|१०|४|१|१| १ | ११|२४ ३ १ ३.
६ ३।१२।२ सं.प. प. ७ व. पंचे. त्रस. म. ४ स्त्री. मति. असं . के.द. भा. ३ भ. औप. सं. आहा. साका.
व. पु. श्रत. विना. शुभ. क्षा. अना. अना. अव.
क्षायो..
अवि. -
का..
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
५४२ ]
छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, १.
तेसिं चेव पत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणद्वाणं, एओ जीवसमासो, छ पत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदी, पंचिदियजादी, तसकाओ, णव जोग, दो वेद, चारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजम, तिण्णि दंसण, दव्त्रेण छ लेस्साओ, भावेण तेउ-पम्म सुक्कलेस्साओ; भवसिद्धिया, तिष्णि सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ॥
१५१
तेसिं चैव अपत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणद्वाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चचारि सण्णाओ, देवगदी, पंचिदियजादी, तसकाओ, वे जोग, पुरिसवेदो, चत्तारि कसाय, तिष्णि णाग, असंजमो, तिण्णि दंसण, दव्वेण काउसुक्कलेस्सा, भावेण तेउ-पम्म- सुक्कलेस्साओ; भवसिद्धिया, तिष्णि सम्मतं, सणणो,
उन्हीं असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - एक अविरत - सम्यष्टि गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और वैक्रियिककाययोग ये नौ योग; नपुंसक वेद के विना दो वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेज, पद्म और शुक्ललेश्याएं: भव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्वः संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
उन्हीं असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंके अपर्याप्तकाल संबन्धी आलाप कहने पर - एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संशी अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगति, पंचेद्रियजाति, त्रसकाय, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, पुरुषवेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्या, भावसे तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं: भव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, अनाहारक
नं. १५१
असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंके पर्याप्त आलाप.
गु. जी. | प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. वे. क. | ज्ञा. संय. द. ले. भ.
१ ६ १० ४ १ १ १ सं.प. प. दे. पं. त्र.
९ २ ४ ३ १
म. ४ स्त्री. मिति. श्रुत.
व. ४ प.
अव.
३ द्र.६ १
अस. के. द. भा. ३ भ. विना. शुभ.
वे. १
२
स. संज्ञि. आ. उ. ३ १ १ प. सं. आहा. साका. अना.
क्षा.
क्षायो.
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं
[५४३ आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
भवणवासिय-वाण-तर-जोइसियाणं भण्णमाणे अत्थि चत्तारि गुणट्टाणाणि, दो जविसमासा, छ पजत्तीओ छ अपजत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, दो वेद, चत्तारि कसाय, छ णाण, असंजम, तिण्णि दसण, दब्वेण छ लेस्सा, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्साओ जहण्णा तेउलेस्सा; भवसिद्धिया अभवासद्धिया, खइयसम्मत्तेण विणा पंच सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा।
साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिष्क देवोंके सामान्य आलाप कहने पर-आदिके चार गुणस्थान, संशी-पर्याप्त और संशी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; चारों संशाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, बसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, वैक्रियिककाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योग, नपुंसकवेदके विना दो वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान और आदिके तीन ज्ञान ये छह ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे अपर्याप्त
• अपेक्षा कृष्ण, नल और कापोत लेश्या, तथा पर्याप्तकालकी अपेक्षा तेजोलेश्या: भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः नायिकसम्यक्त्वके विना पांच सम्यक्त्व, संशिक, आहारक. अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं. १५२
असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंके अपर्याप्त आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं.का, यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ. 1 १ १ ६ ७ ४ १ १ १ २ १ ४ ३ १ ३ द्र. २ १ ३ १ २ २ अवि.सं.अ. दे. पं. ब. वै.मि. पु. मति. असं. के.द. का. म. औप. सं. आहा साका. कार्म. श्रुत. विना शु.
अना. अना. अव.
भा. ३ क्षायो. शुभ.
नं. १५३ | गु. जी.
भवनत्रिक देवोंके सामान्य आलाप. प. प्रा. से. ग. ई. का. यो. वे. क. ज्ञा. सय. द. । ले.
म. स. संवि. आ. उ. |
मि. सं.प. प. ७ सा.सं.अ. ६
दे. पंचे. त्रस. म. ४ स्त्री.
। व.४ पु.
घे.२ का.१
ज्ञा.३ असं. के.द. मा.४ भ. क्षायि. सं. आहा. साका अज्ञा.३ विना. अशु.३ अ. विना. अना. अना.
तेजो.
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
५४४]
छक्खंडागमे जीवहाणं
[१, १.
तेसिं चेव पजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि चत्तारि गुणहाणाणि, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णा, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, दो वेद, चत्तारि कसाय, छ णाण, असंजम, तिण्णि दंसण, दव्वेण छ लेस्सा, भावेण जहणिया तेउलेस्सा, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, पंच सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुबजुत्ता वा ।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि दो गुणट्ठाणाणि, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दो जोग, दो वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, दो सम्मत्तं,
उन्हीं भवनत्रिक देवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-आदिके चार गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संशाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, और वैक्रियिककाययोग ये नौ योग, नपुंसकवेदके विना दो वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान और आदिके तीन ज्ञान ये छह शान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे जघन्य तेजोलेश्या; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; क्षायिकसम्यवत्वके विना पांच सम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं भवनत्रिक देवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-मिथ्याष्टि, और सासादनसम्यग्दृष्टि ये दो गुणस्थान, एक संशी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संशाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, असकाय, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, नपुंसकवेदके विना दो वेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्या, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व और सासा.
......................
नं. १५४
भवनत्रिक देवोंके पर्याप्त आलाप. शु. जी. प. प्रा. सं.) ग. ई.का. । यो. वे. क.। शा. संय.। द. । ले. [म. स. सेशि. | आ.। उ. |
मि. सं.प. प.
.
पचे
स. म. ४ स्त्री.
व. ४ पु.
शान.३ असं. के.द. भा.१ भ.क्षायि. से. अज्ञा.३/ विना ते. अ. विना.
आहा. साका.
अना.
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
[५४५
१, १.]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
भवणवासिय-वाणवेतर-जोइसियदेवमिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणहाणं, दो जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णा, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, दो वेद, चत्तारि कसाय, तिणि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्येण छ लेस्सा, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्सा जहण्णा तेउलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता हाँति अणागारुवजुत्ता वा ।
दन ये दो सम्यक्त्व, संशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
मिथ्यादृष्टि भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिष्क देवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक मिथ्यादाष्ट गुणस्थान, संक्षी-पर्याप्त और संशी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां दशों प्राण, सात प्राण; चारों संशाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, वैक्रियिककाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योग; नपुंसकवेदके विना दो वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे अपर्याप्तकालकी अपेक्षा कृष्ण, नील और कापोतलेश्या, तथा पर्याप्तकालकी अपेक्षा जघन्य तेजोलेश्या भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं. १५५
भवनत्रिक देवोंके अपर्याप्त आलाप. । गु. जी. प. प्रा. सं. | ग.ई. का. यो. वे. क. | ज्ञा. संय- द. ले. भ. स. सज्ञि. आ. । उ. । २१६७४/१/१/१२ २ ४ | २१ | २ द्र.२ २ २ १२२ मि.सं. दे.वै.मि. स्त्री. कुम. असं. चक्षु. का. म. मि. सं. आहा. साका.
| अच. शु. अ. सा. अना. अना.
भा.३ अशु.
पंचे.. त्रस. -
नं. १५६
भवनत्रिक मिथ्यादृष्टि देवोंके सामान्य आलाप. । गु. जी. | प. प्रा. सं. ग. | ई. । का.। यो । वे. क. ज्ञा. । संय. द. ले. भ. सं. संनि.आ. | उ. |
२ २६१०४१ १ १ ११ २|४| ३ | १२ द्र.६ २१ २२ मि.सं.प. प. ७ दे. पंचे. बस. म. ४ स्त्री. अज्ञा. असं. चक्षु. भा.४ म. मि. सं. आहा.साका.
व ४ पु. अच. अशु.३ अ..
अना. अना. वै.२
तेज.१ कार्म.१
सं.अ.
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
५४६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णा, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, दो वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दसण, दव्वेण छ लेस्सा, भावेण जहणिया तेउलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
१५ तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दो
उन्हीं भवनत्रिक मिथ्यादृष्टि देवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और वैक्रियिक काययोग ये नो योगः नपुंसकवेदके विना दो वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे जघन्य तेजोलेश्या; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं भवनत्रिक मिथ्यादृष्टि देवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संशी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संशाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मण
.............
नं. १५७
भवनत्रिक मिथ्यादृष्टि देवोंके पर्याप्त आलाप. । गु. जी. प. प्रा. सं. | ग. | ई. का. यो. । वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संक्षि. आ. उ. | | ११६१०४१११ ९ २४ ३ १ २ द्र.६।२। १।१ ।१ २
म.४ स्त्री. अज्ञा. असं. चक्षु. भा.१ भ. मि. सं. आहा. साका. व.४ पं. अच. तेज. अ.. ।
अना,
पचे. .
प.
नं. १५८ भवनत्रिक मिथ्यादृष्टि देवोंके अपर्याप्त आलाप.. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का, यो. । वे. क. ज्ञा. । संय. द. ले. भ. स. संझि. आ. उ. | २ १ ६ ७ ४ १ १ १ २ २ ४ २ १ २ द्र.६ २ १ १ २ २
द. .. वै.मि. स्त्री. कुम. असं. चक्षु. का. भ. मि. सं. आहा. साका. S F कार्म. पु. कुश्रु.
अच. शु. अ.
अना. अना. भा.३ | अशु.
ur
bhe
.
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
[५१७
१, १.]
संत-परूवणाणुयोगदारे गदि-आलाववण्णणं जोग, दो वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्ताओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा।
___ भवणवासिय-वाण-तर-जोइसियदेव-सासणसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणद्वाणं, दो जीवसमासा, छ पज्जतीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णा, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, दो वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्वेण छ लेस्सा, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्सा जहण्णा तेउलेस्सा; भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
काययोग ये दो योग, नपुंसकवेदके विना दो वेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संलिका आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
__ सासादनसम्यग्दृष्टि भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिष्क देवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक सासादन गुणस्थान, संशी-पर्याप्त और संज्ञी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां दशों प्राण, सात प्राण; चारों संशाएं, देवगति, पंचे न्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, वैक्रियिककाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योग; नपुंसकवेदके विना दो वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे अपर्याप्तकालकी अपेक्षा कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; तथा पर्याप्तकालकी अपेक्षा जघन्य तेजोलेश्या; भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संशिक, आहारक, अनाहारका साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं. १५९ भवनत्रिक सासादनसम्यग्दृष्टि देवोंके सामान्य आलाप. । गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. । वे. क. ज्ञा. | संय.। द. | ले. भ. स. संझि. आ. | उ. १ २ ६ १०४ १/१/१ ११ |२| ४ | ३ | १ २ द्र.६१।१ १२ २
सं.प. प.|७| दे. | पं. स. म. ४ स्त्री. अज्ञा असं | चक्षु. भा. ४ म. सासा, सं. आहा.साका. सं.अ.६
व.४ पु. अच. अशु,३
अना. अना. वै.२
तेज, १] का.१
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
५४८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णा, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, दो वेद, चत्तारि कसाय, तिणि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दवेण छ लेस्साओ, भावेण जहणिया तेउलेस्सा; भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ अपजत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णा, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दो जोग, दो वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, दो दंसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्सा; भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो अणा
उन्हीं सासादनसम्यग्दृष्टि भवनत्रिक देवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने परएक सासादन गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और वैक्रियिककाययोग ये नौ योग; नपुंसकवेदके विना दो वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे जघन्य तेजोलेश्या; भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं सासादनसम्यग्दृष्टि भवनत्रिक देवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने परएक सासादन गुणस्थान, एक संज्ञी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संक्षाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, नपुंसकवेदके विना दो वेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ललेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारक;
नं. १६० भवनत्रिक सासादनसम्यग्दृष्टि देवोंके पर्याप्त आलाप. | गु. जी. प.प्रा. सं. ग. ई. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संज्ञि.
आ. |
उ. |
पंचे. ..
सं.प. प.
द.
सासा.
स. म. ४ स्त्री.
व.४ पु.
अज्ञा असं चक्षु. भा.१ भ. सासा. सं.
अच, तेज.
आहा. साका.
अना.
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवगाणुयोगद्दारे गदि-आलावण्णणं
[५४९ हरिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा ।
भवणवासिय-वाण-तर-जोइसियदेव-सम्मामिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, दो वेद, चत्तारि कसाय, तिणि णाणाणि तीहि अण्णाणेहि मिस्साणि, असंजमो, दो दंसण, दव्वेण छ लेस्सा, भावेण जहणिया तेउ. लेस्सा; भवसिद्धिया, सम्मामिच्छत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुखजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं। .. सम्यग्मिथ्यादृष्टि भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिष्क देवोंके आलाप कहने परएक सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, और वैक्रियिककाययोग ये नो योगः नपुंसकवेदके विना दो वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञानोंसे मिश्रित आदिके तीन ज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे जघन्य तेजोलेश्या; भव्यसिद्धिक, सम्यग्मिथ्यात्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
..............
नं. १६१ भवनत्रिक सासादनसम्यग्दृष्टि देवोंके अपर्याप्त आलाप. | गु. जी. प. प्रा. | सं.) ग. ई. का./ यो. । वे. क. ज्ञा. । संय. द. ले. भ. ( स. संशि. आ. उ. ।
१ २ २ ४ २ १ २ द्र. २ १ १ १ २ सा.सं. अ
- वै. मि.वी. कुम. असं. चक्षु. का. म. सा. सं. आहा. साका. " कार्म. पु कु शु. अचक्षु. शु.
अना. अना. भा.३ अशु.
अप.
पंचे.. त्रस. .
मं. १६२ गु.जी. | प.
भवनत्रिक सम्यग्मिथ्यादृष्टि देवोंके आलाप. प्रा.सं.ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ./स. संज्ञि. आ.| - उ.
सं, प. प.
दे. पं.
सम्य.
स. म. ४ स्त्री.
व.४ प.
ज्ञान. असं. चक्षु. भा. भ. सम्य. सं. आहा. साका. ३ अच. तेज..
अना. | अज्ञा. मिश्र.
-
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
५५०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. भवणवासिय-वाणवेंतर-जोइसियदेव-असंजदसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, दो वेद, चत्तारि कसाय, तिणि णाण, असंजमो, तिण्णि दसण, दव्वेण छ लेस्सा, भावेण जहणिया तेउलेस्सा; भवसिद्धिया, खइयसम्मत्तेण विणा दो सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
एसो इत्थि-पुरिसवेदाणमोघालावो समत्तो। एवं चेव पुरिसवेदस्स वत्तव्वं । णवरि जत्थ दो वेदा ठविदा तत्थ पुरिसवेदो एक्को चेव ठवेदव्यो । एवं चेव इत्थिवेदणिरुंभणं काऊण वत्तव्यं । णवरि जत्थ दो वेदा ठविदा तत्थ इत्थिवेदो चेव ठवेदव्यो।
असंयतसम्यग्दृष्टि भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिष्क देवोंके आलाप कहने परएक आवरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और वैक्रियिककाययोग ये नौ योग; नपुंसकवेदके विना दो वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे जघन्य तेजोलेश्या; भव्यसिद्धिक, क्षायिकसम्यक्त्वके विना दो सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
इसप्रकार भवनत्रिक स्त्रीवेदी और पुरुषवेदियोंके संयुक्त सामान्य आलाप समाप्त हुए। इसीप्रकार भवनत्रिक देवोंमें पुरुषवेदके आलाप कहना चाहिये। विशेषता केवल यह है कि ऊपर जहां भवनत्रिक देवोंके सामान्य आलापमें दो वेद स्थापित किये गये है, वहां एक पुरुषवेद ही स्थापित करना चाहिये । इसीप्रकार भवनत्रिक देवोंमें स्त्रीवेदका आश्रय करके आलाप कहना चाहिये। विशेष बात यह है कि पहले जहां सामान्य आलापमें दो वेद स्थापित किये गये हैं, वहां एक स्त्रीवेद ही स्थापित करना चाहिये।
विशेषार्थ-ऊपर जो भवनत्रिक देवोंके आलाप कह आये है, वे सामान्यालाप हैं। उनमें पुरुषवेद और स्त्रीवेदका भेद नहीं किया गया है। परंतु उन्हीं आलापोंमें दो वेदके नं. १६३
भवनात्रिक असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंके आलाप. गु.जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. । वे. क. |झा. संय. द. ले. म. स. | संहि. आ. | उ. । १२६ १०/४/१२/१९ २४ । ३ | १ ३ द्र. ६१ २११२
म. ४ स्त्री. मति असं. के. द. भा. भ. औप. सं. आहा. साका.
श्रुत. विना. तेज. क्षायो, अव.
..
अवि. -
S
प.
अना.
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं
[५५१ सोधम्मीसाणदेवाणं भण्णमाणे अत्थि चत्तारि गुणट्ठाणाणि, दो जीवसमासा, छ पजत्तीओ छ अपजत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णा, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, दो वेद, चत्तारि कसाय, छण्णाण, असंजम, तिण्णि दसण, दव्येण काउ-सुक्क-मझिमतेउलेस्सा, भावेण मज्झिमा तेउलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुखजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
तेसिं चेव पजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि चत्तारि गुणट्ठाणाणि, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग,
स्थानमें केवल पुरुषवेद या केवल स्त्रीवेद इसप्रकार एक वेदके स्थापित कर देने पर वे आलाप पुरुषवेदी और स्त्रीवेदी भवनत्रिकोंके हो जाते हैं। भवनत्रिकके सामान्य आलापोंसे विशेष आलापोंमें इससे अधिक और कोई विशेषता नहीं है।
सौधर्म ऐशान देवोंके सामान्य आलाप कहने पर-आदिके चार गुणस्थान, संझी-पर्याप्त और संझी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, वैक्रियिककाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योग; नपुंसकवेदके विना दो वेद. चारों कषाय, तीनों अज्ञान और आदिके तीन शान ये छह ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत, शुक्ल और मध्यम तेजोलेश्या, भावसे मध्यम तेजोलेश्या; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; छहों सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं सौधर्म ऐशान देवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-आदिके चार गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगति, पंचे. न्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और वैक्रियिककाययोग ये नौ
१ प्रतिषु — दवेण काउ-मुक्कलेसा मज्झिमा तेउलेस्सा भावेण इति पाठः। *. १६४
सौधर्म ऐशान देवोंके सामान्य आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. (वे. क. ना. संय. द. ले. भ. स. संनि. आ. उ. २ प. १०४
६ १ २ २ सं. प. अ
झान.३ असं.के.द का. भ. सं. आहा. साका, सं. अ.
अज्ञा.३ विना.शु. ते. अ. अना. अना.
भा.१
पंचे. - त्रस. -
# AF
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
५५२ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १,१.
दो वेद, चत्तारि कसाय, छण्णाण, असंजमो, तिष्णि दंसण, दव्व-भावेहि मज्झिमा तेउलेस्सा, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
१६५
तेसिं चैव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अस्थि तिष्णि गुणट्ठाणाणि, एओ जीवसमासो, छ अपज्जतीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णा, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दो जोग, दो वेद, चत्तारि कसाय, पंच णाण, असंजम, तिष्णि दंसण, दव्वेण काउ-सुक्क - लेस्सा, भावेण मज्झिमा तेउलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, सम्मामिच्छत्तेण विणा पंच सम्मत्तं । उवसमसम्मत्तेण सह उवसमसेढिम्हि मद-संजदे पडुच्च सोधम्मादि-उवरिमदेवाणमपंज्जत्तकाले उवसमसम्मत्तं लब्मदि । सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारु
योग, नपुंसकवेदके विना दो वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान और आदिके तीन ज्ञान ये छह ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे और भावसे मध्यम तेजोलेश्या, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः छहों सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
उन्हीं सौधर्म पेशान देवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर मिथ्यादृष्टि सासादनसम्यग्ाष्ट्र और अविरतसम्यग्दृष्टि ये तीन गुणस्थान, एक संज्ञी अपर्याप्त जीवसमास, छों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञायं देवगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, वैक्रियिक मिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, नपुंसकवेदके विना दो वेद, चारों कषाय, कुमति, कुश्रुत और आदिके तीन ज्ञान इसप्रकार पांच ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे मध्यम तेजोलेश्या; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, सम्यग्मिथ्यात्वके विना पांच सम्यक्त्व होते हैं। यहां पर औपशमिकसम्यत्र स्व होनेका कारण यह है कि औपशमिकसम्यक्त्वके साथ उपशम श्रेणीमें मरे हुए संयतों की अपेक्षा सौधर्म आदि ऊपरके देवोंके अपर्याप्तकालमें औपशमिकसम्यक्त्व पाया जाता है ।
नं. १६५
गु. जी. प. प्रा.
४
१६ १०
सा.
स.
सं. प
सौधर्म ऐशान देवोंके पर्याप्त आलाप.
यो. वे. क. ज्ञा. ( संय.
द. ले. म. स. संज्ञि. आ. उ. ९ २ ४ ६ १ ३ प्र. १ २ ६ ज्ञान. ३ असं. के. द. भा. १ भ. अज्ञा. ३ विना तेज अ
म. ४ स्त्री.
सं. ग. ई. का.
१ १ १ दे.
व. ४ पु.
वे. १
१
१
२
सं. आहा. साका.
अना.
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं
[५५३ वजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा ।
सोधमांसाणदेव-मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, छ पजत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णा, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, दो वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दवण काउ-सुक्क-मज्झिमतेउलेस्सा', भावेण मज्झिमा तेउलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता हाँति अणागारुवजुत्ता वा।
सम्यक्त्व आलापके आगे संक्षिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारो. पयोगी होते हैं।
मिथ्यादृष्टि सौधर्म ऐशान देवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, संशी-पर्याप्त और संज्ञी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां दशों प्राण, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, वैक्रियिककाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योग; नपुंसक वेदके विना दो वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत, शुक्ल और मध्यम तेजोले श्या, भावसे मध्यम तेजोलेश्या; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संज्ञिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारो. पयोगी होते हैं।
नं. १६६
सौधर्म ऐशान देवोंके अपर्याप्त आलाप. |गु. । जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संज्ञि. | आ. | उ. |३) १६७ ४ १ १ १ २ २ ४ ५ १ ३ द्र. २२५१ २ २ मि.सं.अ. दे. पं. त्र. वै.मि. स्त्री. कुम, अस. के.द. का. भ. औप. सं. आहा. साका. कार्म. पु. कुश्रु. विना. शु. अ. क्षा. अना. अना.
भा.१ क्षायो. श्रुत.
तेज. मिथ्या. | अव.
सासा..
ble
मति.
।
१ प्रतिषु · दव्वेण काउ-सुक्कलेस्सा ' इति पाठः । नं. १६७ मिथ्यादृष्टि सौधर्म ऐशान देवोंके सामान्य आलाप. | गुजी . प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. ना. संय. द. ले. भ. स. संज्ञि. आ. | उ. १२ ६ १०४ २ १ १ ११ २ ४ ३ १ २ द्र ३२१ १ २ २ मि. सं.प.प. ७ दे. पंचे. वस. म. ४ स्त्री. अज्ञा. असं. चक्षु. का. भ. मि. सं. आहा. साका.
| व.४ पु. अच. शु.ते अ.
अना. अना. वै.२
मा.१ का..
तेज,
सं.अ.६
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
५५४ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णा, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, दो वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव-भावेहि मज्झिमा तेउलेस्सा, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुखजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा।
तेसिं चेव अपञ्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णा, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दो जोग, दो वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण मज्झिमा तेउलेस्सा, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो, आहारिणो
उन्हीं मिथ्यादृष्टि सौधर्म ऐशान देवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संझी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय. चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और वैक्रियिककाययोग ये नौ योग; नपुंसकवेदके विना दो वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु
और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्य और भावसे मध्यम तेजोलेश्या, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं मिथ्यादृष्टि सौधर्म ऐशान देवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगात, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, वैकियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, नपुंसक वेदके विना दो वेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे मध्यम तेजोलेश्या; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारक; साकारो
नं. १६८
मिथ्यादृष्टि सौधर्म ऐशान देवोंके पर्याप्त आलाप.
| गु. | जी.प.प्रा.| ग. इं.का. यो. वे. | क. ज्ञा. संय. द. ले. म. स. संज्ञि. आ. | उ. । ११६१०४१११९ २४ ३ - १ २ द्र. १२१ १ १ २ मि. सं.प. प.
म.४ खी. अज्ञा. असं. चक्षु. भा.१.भ.मि. सं. आहा.साका. | अच. तेज. अ.
अना.
पंचे...
स. -
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
[५५५
१, १.] संत-परूयणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
सोधम्मीसाग-सासणसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, दो जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णा, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, दो वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्वेण काउ-सुक्क-मज्झिमतेउलेस्सा, भावेण मज्झिमा तेउलेस्सा; भवसिद्धिया, सासणसम्मतं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा ।
पयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
सासादनसम्यग्दृष्टि सौधर्म ऐशान देवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक सासादन गुणस्थान, संशी-पर्याप्त और संज्ञी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, वैक्रियिककाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योग, नपुंसकवेदके विना दो वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत, शुक्ल और मध्यम तेजोलेश्या, भावसे मध्यम तेजोलेश्या; भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं.१६९ मिथ्यादृष्टि सौधर्म ऐशान देवोंके अपर्याप्त आलाप. | गु. जी. प. | प्रा | सं. ग. | इं. का, यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. । ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ. |
१ १ १ २ २ ४ २ १ २ द्र.२ २१।१ २ २ दे. ..वै.मि. स्त्री. कुम. असं. चक्षु. का. म. मि. सं. आहा. साका. F कार्म. पु. कुश्रु. अच. शु. अ.
अना. | अना. भा.१
पंचे.
तेज.
नं. १७० सासादनसम्यग्दृष्टि सौधर्म ऐशान देवोंके सामान्य आलाप.
। जी. प. प्रा. सं.| ग | इं. का. यो. ) वे. क. ज्ञा. | संय. द. ले. म. स. सनि. आ. उ. १ २ ६५.१०/४/१/१/१ १ २४ ३ १ २ द्र.३१
स्त्री. अज्ञा. असं. चक्षु | का. भ. सं. आहा.साका व.४ पु.
| अना. अना.
।
२
।
२
सासा. -
पंचे.
त्रस. -
सासा. -
अचा
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, १. तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जतीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णा, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, दो वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्य-भावेहि मज्झिमा तेउलेस्सा, भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणामारुवजुत्ता वा"।
"तेसिं चेव अपजत्ताण भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ अपञ्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दो जोग, दो वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, दो दंसण, दव्येण काउ-सुक्कलेस्सा,
उन्हीं सासादनसम्यग्दृष्टि सौधर्म ऐशान देवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक सासादन गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और वक्रियिककाययोग ये नौ योग; नपुंसकवेदके विना दो वेद, चारों कषाय, तीनों अचान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्य और भावसे मध्यम तेजोलेश्या, भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
___उन्हीं सासादनसम्यग्दृष्टि सौधर्म ऐशान देवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर--एक सासादन गुणस्थान, एक संज्ञी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, नपुंसकवेदके विना दो वेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो नं १७२ सासादनसम्यग्दृष्टि सौधर्म ऐशान देवोंके पर्याप्त आलाप. | गु.जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का.| यो. वे. क. ना. सयं. द. ले. भ. स. संझि. आ. | उ. । सा.सं. प. दे. पंचे. स. म.४ स्त्री. अज्ञा. असं. चक्षु. तेज. म. सासा. सं. आहा. साका.
अच. भा.३
तेज.
व.४
पु..
अना.
w
नं. १७२ सासादनसम्यग्दृष्टि सौधर्म ऐशान देवोंके अपर्याप्त आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग.ई. का. यो. वे. | क. ज्ञा. संयः । द. ले. भ. स. सनि. आ. | उ. ।
२ ) २ ...मि. स्त्री. कुम. असं. चक्षु. का. म. सा. सं. आहा. | साका. • कार्म. पु. कुश्रु. अच. शु.
अना. अनाका. भा.१ । तेज.
पा.सं.अ.
पंचे. - त्रस, -
.ble
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगदारे गदि-आलाववण्णण
[५५७ भावेण मज्झिमा तेउलेस्सा; भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सण्पिणो, आहारिणो अमाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
___ सोधम्मीसाण-सम्मामिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णा, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, दो वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाणाणि तीहि अण्णाणेहि मिस्साणि, असंजमो, दो दंसण, दब-भावेहि मझिमा तेउलेस्सा, भवसिद्धिया, सम्मामिच्छचं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
सोधम्मीसाग-असंजदसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, दो जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपजत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, दो वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजम,
अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे मध्यम तेजोलेश्याः भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संशिक, आहारक, अनाहारका साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
सम्यग्मिथ्यादृष्टि सौधर्म ऐशान देवोंके आलाप कहने पर-एक सम्यग्मिथ्याठि गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, देवमति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और वैक्रियिककाययोग ये नौ योग; नपुंसकवेदके विना दो वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञानोंसे मिश्रित आदिके तीन शान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्य और भावसे मध्यम तेजोलेश्या, भव्यसिद्धिक, सम्यग्मिथ्यात्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
___ असंयतसम्यग्दृष्टि सौधर्म ऐशान देवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, संशी-पर्याप्त और संशी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों घचनयोग, वैक्रियिककाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योग, नपुंसकवेदके विना दो वेद, चारों कषाय, आदिके तीन शान,
नं. १७३ सम्यग्मिथ्यादृष्टि सौधर्म ऐशान देवोंके आलाप. | गु. | जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. झा. | संय. द. ले.. म. स. संक्षि. आ. | उ.1
सम्य.सं.प. प.
दे. पंचे. त्रस. म.४ स्त्री.
व.४ पु. बै.१
अज्ञा. असं.चक्षु ते. म. सम्य. सं.
३ अच. भा. १ ज्ञान
तेज. मिश्र.
अना.
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
५५८] छक्खंडागमे जीवहाणं
[१, १. तिणि दंसण, दव्वेण काउ-सुक्क-मज्झिमतेउलेस्सा, भावेण मज्झिमा तेउलेस्सा; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुखजुत्ता वा।
तेसिं चेव पज्जताणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, दो वेद, चत्तारि कसाय, तिणि णाण, असंजमो, तिणि दंसण, दब-भावेहि मज्झिमा तेउलेस्सा, भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागावजुत्ता हति अणागारुखजुत्ता वा।
असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत, शुक्ल और मध्यम तेजोलेश्या, भावसे मध्यम तेजोलेश्या; भव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक थे तीन सम्यवत्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते है।
... उन्हीं असंयतसम्यग्दृष्टि सौधर्म ऐशान देवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने परएक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और वैक्रियिककाययोग ये नौ योग; नपुंसकवेदके विना दो वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे मध्यम तेजोलेश्या, भव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व; संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
anan....
नं. १७४ असंयतसम्यग्दृष्टि सौधर्म ऐशान देवोंके सामान्य आलाप. | गु. जी. प. | प्रा. सं. ग. इ.) का. | यो. | वे. क. झाः संय. द. | ले. भ. स. संशि. आ. उ. | १२६१०/४१११११ २४ ३ १ ३ द्र.३ १ ३ १२ २
सं.प. प. ७ दे. पंचे. त्रस.म. ४ स्त्री. मति. असं. के.द. का. भ. | औप. सं. आहा. साका. सं.अ.६ व. ४ पु. श्रुत. विना. शु. ते. क्षा. अना. अना.
भा. १ क्षायो.
अवि.
अव.
Pos
|
अवि. -
नं. १७५ असंयतसम्यग्दृष्टि सौधर्म ऐशान देवोंके पर्याप्त आलाप. गु. | जी. प. प्रा. सं. ग.ई. का. यो. वे. क. | झा. | संय. द. ले. भ.! स. संक्षि. आ. उ. | ११६ १०४|१११ ९ २४ ३
३ द्र.११ ३ १ १ २ सं.प. प. दे. पं.. म. ४ स्त्री. मति. असं. के. द. तेज. भ. औप. सं. आहा. साका. व.४ पु. | श्रुत.. विना. मा.
१क्षा .
अना. अव.
तेज. क्षायो.
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं
[५५९ तेसिं चेव अपञ्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णा, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दो जोग, पुरिसवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजम, तिणि दंसण, दव्येण काउ-सुक्क लेस्सा, भावेण मज्झिमा तेउलेस्सा; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं । देवासंजदसम्माइट्ठीणं कधमपजत्तकाले उवसमसम्मत्तं लभदि ? बुच्चदे-वेदगसम्मत्तमुवसामिय उवसमसेढिमारुहिय पुणो ओदरिय पमत्तापमत्तसंजद-असंजद-संजदासंजद-उवसमसम्माइट्ठि-हाणेहि मज्झिम-तेउलेस्सं परिणमिय कालं काऊण सोधम्मीसाग-देवेसुप्पण्णाणं अपजत्तकाले उघसमसम्मत्तं लब्भदि। अध ते चेव उक्कस्स-तेउलेस्सं वा जहण्ण-पम्मलेस्सं वा परिणमिय जदि कालं करेंति तो उबसमसम्मत्तेण सह सणकुमार माहिंदे उप्पाजंति । अध ते चेव उवसमसम्माइट्ठिणो मज्झिम-पम्मलेस्सं परिणामय कालं करेंति तो बह्म-बह्मोत्तर-लांतवकाविट्ठ-सुक्क महासुक्कसु उपजंति । अथ उक्कस्स-पम्मलेस्सं वा जहण्ण-सुक्कलेस्सं वा परिणमिय जदि ते कालं करेंति तो उअसमसम्मत्तेण सह सदार-सहस्सारदेवेसु उप्पजंति ।
उन्हीं असंयतसम्यग्दृष्टि सोधर्म ऐशान देवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञापं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, जसकाय, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, पुरुषवेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे मध्यम तेजोलेश्याः भन्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व होते हैं। ____शंका ... असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंके अपर्याप्तकालमें औपमिकसम्यक्त्व कैसे पाया जाता है ?
समाधान-वेदकसम्यक्त्वको उपशमा करके और उपशमश्रेणी पर चढ़कर फिर वहांसे उतर कर प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, असंयत और संयतासंयत उपशमसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंसे मध्यम तेजोलेश्याको परिणत होकर और मरण करके सौधर्म ऐशान कल्प. वासी देवोंमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंके अपर्याप्तकालमें औपशमिकसम्यक्त्व पाया जाता है। तथा, उपर्युक्त गुणस्थानवर्ती ही जीव उत्कृष्ट तेजोलेश्याको अथवा जघन्य पद्मलेश्याको परिणत होकर यदि मरण करते हैं, तो औपशमिकसम्यक्त्वके साथ सनत्कुमार और महेन्द्र कल्पमें उत्पन्न होते हैं। तथा, वे ही उपशमसम्यग्दृष्टि जीव मध्यम पद्मलेश्याको परिणत होकर यदि मरण करते हैं, तो ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ट, शुक्र और महाशुक्र कल्पोंमें उत्पन्न होते हैं। तथा, वे ही उपशमसम्यग्दृष्टि जीव उत्कृष्ट पद्मलेश्याको अथवा जघन्य शुक्ललेश्याको परिणत होकर यदि मरण करते हैं, तो औपशमिकसम्यक्त्वके साथ शतार,
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
५६० ]
Dear fri
[ १,
अध उवसमसेटिं चढिय पुणोदिण्णा चेव मज्झिम सुक्कलेस्साए परिणदा संता जदि कालं करेंति तो उवसमसम्मत्तेण सह आणद-पाणद-आरणच्चद-णवगेव ज्जविमाणवासियदेवेसुपति। पुणो ते चेव उक्कस्स सुक्कलेस्सं परिणमिय जदि कालं करेंति तो उवसमसम्मत्तेण सह णवाणुदिस- पंचाणुत्तरविमाणदेवेसुप्पजंति । तेण सोधम्मादि-उवरिम- सव्वदेवा संजदसम्माइट्ठी मपजत्तकाले उवसमसम्मत्तं लब्भदि ति । सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा 1
9155
एवमित्थि पुरिसत्रेदाणमोघालाको समत्तो ।
एवं चैव पुरिसवेद - देवाणमालावो वत्तव्यो । गवरि जत्थ दो वेदा वृत्ता तत्थ पुरिसंवेदो एक्को चैव वत्तत्र । एवं सोधम्मीसाणदेवीणं पि वत्तव्यं । णवरि जत्थ
सहस्त्रार कल्पवासी देवों में उत्पन्न होते हैं । तथा, उपशमश्रेणी पर चढ़ करके और पुनः उतर करके मध्यम शुललेश्यासे परिणत होते हुए यदि मरण करते हैं तो उपशमसम्यक्त्व के साथ आनत, प्राणत, आरण, अच्युत और नौ ग्रैवेयकविमानवासी देवोंमें उत्पन्न होते हैं । तथा, पूर्वोक्त उपशमसम्यग्दृष्टि जीव ही उत्कृष्ट शुक्ललेश्याको परिणत होकर यदि मरण करते हैं, तो उपशमसम्यक्त्वके साथ नौ अनुदिश और पांच अनुत्तर-विमानवासी देवोंमें उत्पन्न होते हैं । इसकारण सौधर्म स्वर्गसे लेकर ऊपरके सभी असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंके अपर्याप्तकालमें औपशमिकसम्यक्त्व पाया जाता है ।
सम्यक्त्व आलापके आगे-संशी, आहारक, अनाहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
इसप्रकार स्त्रीवेद और पुरुषवेदका भेद न करके सौधर्म और ऐशान स्वर्गके देवों के सामान्य आलाप समाप्त हुए ।
सौधर्म ऐशान कपके देवोंके सामान्य आलापोंके समान ही पुरुषवेदी देवोंके आलाप कहना चाहिये । विशेषता यह है कि सामान्य आलाप कहते समय जहां पर पहले स्त्रीवेद और पुरुषवेद ये दो वेद कहे गये हैं, वहां पर केवल एक पुरुषवेद ही कहना चाहिये । इसीप्रकार सौधर्म ऐशान स्वर्गकी देवियोंके आलाप कहना चाहिये । विशेषता यह है कि
नं. १७६
गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. शा.
७ ४ १ १ १ २
१ अवि. सं.अ.
असंयत सम्यग्दृष्टि सौधर्म ऐशान देवोंके अपर्याप्त आलाप.
संय. द.
स. शि. आ.
उ.
ले. भ. १ द्र. २
३
१
३
३
१ २ २
मति. असं. के. द. का. भ. औप सं. आहा साका. बिना. शु. क्षा. अना. अना. भा. १ क्षायो. तेज.
१ ४
दे. पं. स. वै.मि. पु.
कार्म.
श्रुत.
अव.
ܕ
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.]
संत-परूवणाणुयोगदारे गदि-आलाववण्णणं पुरिसवेदो वुत्तो तत्थ इत्थिवेदो चेव वत्तव्यो। असंजदसम्माइडिस्स इथिवेदम्हि उप्पत्ती णत्थि त्ति तस्स पजत्तालावो एक्को चेव वत्तव्यो । पजत्तालाचे उच्चमाणे वि खइयसम्म णत्थि त्ति वत्तव्यं, देवेसु दंसणमोहणीयस्स खवणाभावादो । एत्तिओ चेव विसेसो।
सणक्कुमार-माहिंददेवाणं भण्णमाणे अत्थि चत्तारि गुणहाणाणि, दो जीवसमासा, छ पजत्तीओ छ अपजत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, पुरिसवेद, चत्तारि कसाय, छ णाण, असंजम, तिण्णि दंसण, दव्येण काउ-सुक्क उक्कस्सतेउ-जहण्णपम्मलेस्साओ, भावण उक्कस्सतेउजहण्णपम्मलेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता हाँति अणागारुवजुत्ता वा।
पुरुषवेदी देवोंके आलापोंमें जहां पुरुषवेद कहा गया है वहां केवल स्त्रीवेद ही कहना चाहिए। यहां इतना और समझना चाहिये कि असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंकी स्त्रीवेदमें उत्पत्ति नहीं होती है, इसलिये स्त्रीवेदी असंयतसम्यग्दृष्टिका एक पर्याप्त-आलाप ही कहना चाहिए । और पर्याप्त-आलाप कहते समय भी शायिक सम्यक्त्व नहीं होता है, अर्थात् स्त्रीवेदी पर्याप्तोंके (देवियोंके) दो ही सम्यक्त्व होते हैं, ऐसा कहना चाहिए क्योंकि, देवोंमें दर्शनमोहनीय कर्मके क्षपणका अभाव है। सौधर्म और ऐशानके पुरुषवेदी और स्त्रीवेदी आलापोंमें उनके सामान्य आलापोंसे इतनी ही विशेषता है।
सनत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्गाके देवोंके सामान्य आलाप कहने पर-आदिके चार गुणस्थान, संझी पर्याप्त और संक्षी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, बसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, वैक्रियिककाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योगः पुरुषवेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान और आदिके तीन ज्ञान ये छह ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे अपर्याप्तकालमें कापोत और शुक्ल लेश्याएं तथा पर्याप्तकालमें उत्कृष्ट पीत और जघन्य पद्मलेश्या, भावसे उत्कृष्ट तेजोलेश्या और जघन्य पमलेश्या; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, छहों सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
१ प्रतिषु ' उक्कस्सतेउ ' इति पाठो नास्ति नं. १७७
सानत्कुमार माहेन्द्र देवोंके सामान्य आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. | ई. का. यो. । वे. क. बा. सय. द. ले. भ. स. । संक्षि. आ. उ. । |४२ ६१० ११ ११ १४६ १३ द.४का. २६ । १ २२ मि. सं.प. प.
पु. ज्ञा.३ असं. के.द.शु.ते.प. |सं. आहा. साका. सा.सं.अ. ६
अज्ञा. विना. भा.२ अ.
अना. अना.
पचे.
प.ज.।
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
५६२] छक्खंडागमे जौवट्ठाणं
[१, १. तेसिं चेव पजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि चत्तारि गुणट्ठाणाणि, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, वत्तारि सण्णाओ, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, पुरिसवेद, चत्तारि कसाय, छण्णाण, असंजम, तिणि दंसण, दव्य-भावेहि उक्कस्सतेउ-जहण्णपम्मलेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुखजुत्ता वा।।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि तिणि गुणट्ठाणाणि, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दो जोग, पुरिस वेद, चत्तारि कसाय, पंच णाण, असंजमो, तिणि दंसण, दव्वेण काउसुक्कलेस्सा, भावेण उक्कस्सतेउ-जहण्णपम्मलेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, पंच
उन्हीं सानत्कुमार माहेन्द्र देवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-आदिके चार गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, उसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और वैक्रियिककाययोग ये नौ योग, पुरुषवेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान और आदिके तीन ज्ञान ये छह ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे उत्कृष्ट तेजोलेश्या और जघन्य पद्मलेश्या; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; छहों सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
__उन्हीं सानत्कुमार माहेन्द्र देवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और अविरतसम्यग्दृष्टि ये तीन गुणस्थान, एक संज्ञी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, पुरुषवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान तथा आदिके तीन ज्ञान ये पांच ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे उत्कृष्ट तेज और जघन्य पद्म लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, सम्यग्मिथ्यात्वके विना पांच सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, अना
नं. १७८
सानत्कुमार माहेन्द्र देवोंके पर्याप्त आलाप. 1 गु./जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का.) यो. वे. क.) ज्ञा. | संय.। द. | ले. म. स. संशि. आ. | उ. । ११ ६ १० ४|११|१ ९ २४६ १ ३ द्र,रते.उ.|२|६| ११ | २ मि. सं.प. प.
म. ४ पु. ज्ञान.३ असं. के. द.प. ज. भ. सं. आहा. साका.
अज्ञा.३ विनाः भा. २ अ.
पंचे त्रस.
अना.
ते. उ.
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं
[५६३ सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा"।
संपहि मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असंजदसम्माइट्टि त्ति ताव चदुण्हं गुणट्ठाणाणं सोधम्म-भंगो । णवरि उवरि सव्वत्थ इत्थिवेदो णत्थि, पुरिसवेदो चेव वत्तव्यो । ओघालावे भण्णमाणे दव्येण काउ-सुक्क उक्कस्सतेउ-जहण्णपम्मलेस्साओ वत्तव्याओ । भावेण उक्कस्सतेउ-जहण्णपम्मलेस्साओ वत्तवाओ। पज्जत्तकाले दव-भावेहि उक्कस्सतेउजहण्णपम्मलेस्साओ । तेसिं चेव अपजत्तकाले दव्येण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण उक्कस्सतेउ-जहण्णपम्मलेस्साओ त्ति चेव विसेसो।
बम्ह-बम्हुत्तर-लांतव-कापिट्ट सुक्क-महासुक्ककप्पदेवाणं सणक्कुमार-भंगो। णवरि सामण्णेण भण्णमाणे दव्येण काउ-सुक्क-मज्झिमपम्मलेस्साओ, भावेहि मज्झिमा पम्मलेस्सा । पज्जत्तकाले दव-भावेहि मज्झिमा पम्मलेस्सा । अपज्जत्तकाले दवेण
हारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
सानत्कुमार माहेन्द्र देवोंके मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक चारों गुणस्थानोंके आलाप सौधर्म देवोंके आलापोंके समान जानना चाहिए । विशेषता केवल इतनी है कि ऊपर सभी कल्पोंमें स्त्रीवेद नहीं है, अतः एक पुरुषवेद ही कहना चाहिए। उसमें भी ओघालाप कहते समय द्रव्यसे कापोत, शुक्ल, उत्कृष्ट तेज और जघन्य पद्म लेश्याएं कहना चाहिए । भावसे उत्कृष्ट तेज और जघन्य पद्म लेश्याएं कहना चाहिए। पर्याप्तकाल में द्रव्य और भावसे उत्कृष्ट तेज और जघन्य पद्म लेश्याएं होती हैं। उन्हींके अपर्याप्तकालमें द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं और भावसे उत्कृष्ट तेज और जघन्य पद्म लेश्याएं होती हैं, इतनी विशेषता है।
ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर, लान्तव-कापिष्ठ और शुक्र महाशुक्र कल्पवासी देवोंके आलाप सानत्कुकुमार देवोंके आलापोंके समान समझना चाहिए। विशेषता यह है कि सामान्यसे आलाप कहने पर-द्रव्यसे कापोत, शुक्ल और मध्यम पद्म लेश्या होती है, तथा भावसे केवल मध्यम पद्मलेश्या होती है। उन्हीं देवोंके पर्याप्तकालमें द्रव्य और भावसे मध्यम पद्मलेश्या होती है।
पापा
नं. १७९
सानत्कुमार माहेन्द्र देवोंके अपर्याप्त आलाप. । गु.जी. प. | प्रा.सं. । ग.। इं का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. सलि. आ. उ. ।
|१|४५कुम १३ द्र.२२५3 वै.मि. पु. कुथु. असं. के. द का.शु. म. क्षा. सं. आहा. साका. कार्म. मति. | बिना. मा.२ अ. क्षायो.. अना. अना.
ते. उ. . प.ज. सासा.
मि.सं.
६.
अप.
पंचे. त्रस..
मि.
श्रुत. अव.
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
५६४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण मज्झिमा पम्मलेस्सा । एत्तियमेत्तो चेव विसेसो । सदारसहस्सारकप्पदेवाणं बम्हलोग-भंगो । णवरि सामण्णेण भण्णमाणे दब्वेण काउ-सुक्कउक्कस्सपम्म-जहण्णसुक्कलेस्साओ, भावेण उक्कस्सपम्म-जहण्णसुक्कलेस्साओ । पज्जत्तकाले दव-भावेहि उक्कस्सपम्म-जहण्णसुक्कलेस्साओ। अपज्जत्तकाले दबेण काउसुक्कलेस्सा, भावेण उक्कस्सपम्म-जहण्णसुक्कलेस्साओ । आणद-पाणद-आरणच्चुद. सुदंसण-अमोघ-सुप्पबुद्ध-जसोधर-सुबुद्धे-सुविसाल-सुमण-सउमणस-पीर्दिकरमिदि एदेसिंचदुणव-कप्पाणं सदार-सहस्सार-भंगो । णवरि सामण्णेण भण्णमाणे दव्वेण काउ-सुक्कमज्झिमसुक्कलेस्साओ, भावेण मज्झिमा सुक्कलेस्सा । पज्जत्तकाले दव्व-भावेहि मज्झिमा सुक्कलेस्सा। अपज्जत्तकाले दव्वेण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण मज्झिमा सुक्कलेस्सा ।
'अच्चि-अच्चिमालिणी-वइर-वइरोयण-सोम-सोमरूव-अंक-फलिह-आइच्च--विजय
उन्हींके अपर्याप्तकालमें द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्या तथा भावसे मध्यम पद्मलेश्या होती है। इतनीमात्र ही विशेषता है।
शतार और सहस्रार कल्पवासी देवोंके आलाप ब्रह्मलोकके आलापोंके समान समझना चाहिए। विशेषता यह है कि उनके सामान्यसे आलाप कहने पर-द्रव्यसे कापोत, शुक्ल, उत्कृष्ट पंन और जघन्य शुक्ल लेश्याएं होती हैं, तथा भावसे उत्कृष्ट पद्म और जघन्य शुक्ल लेश्याएं होती होती हैं। उन्हीं देवोंके पर्याप्तकालमें द्रव्य और भावसे उत्कृष्ट पद्म और जघन्य शुक्ल लेश्याएं होती हैं। उन्हींके अपर्याप्तकालमें द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं होती हैं, तथा भावसे उत्कृष्ट पद्म और जघन्य शुक्ल लेश्याएं होती हैं। ... आनत-प्राणत, आरण-अच्युत तथासुदर्शन, अमोघ, सुप्रबुद्ध, यशोधर, सुबुद्ध, सुविशाल, सुमनस् , सौमनस और प्रीतिंकर इन चार और नौ इस प्रकार तेरह कल्पोंके आलाप शतार-सहसार देवोंके आलापोंके समान समझना चाहिए । विशेषता यह है कि सामान्यसे आलाप कहने पर-द्रव्यसे कापोत, शुक्ल और मध्यम शुक्ल लेश्याएं होती हैं, तथा भावसे मध्यम शुक्ललेश्या होती है। उन्हीं देवोंके पर्याप्तकालमें द्रव्य और भावसे मध्यम शुक्ललेश्या होती है। उन्हींके अपर्याप्तकालमें द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं तथा भावसे मध्यम शुक्ललेश्या होती है।
अर्चि, अर्चिमालिनी, वज्र, वैरोचन, सौम्य, सौम्यरूप, अंक, स्फटिक, आदित्य, इन
१ 'सुभद्र' इति पाठः । त. रा. वा. पृ. १६७.
२ अच्ची य अच्चिमालिणि वहरे वइरोयणा अणुद्दिसगा। सोमो य सोमरूवे अंके फलिके य आइच्चे ॥ त्रि. सा. ४५६. तत्रानुदिशविमानानि येवेक एवाऽऽदित्यो नाम विमानप्रस्तारः। तत्र दिक्षु विदिक्षु चत्वारि चत्वारि श्रेणिविमानानि । प्राच्यां दिशि अचिर्विमानं, अपाच्यामार्चिमाली, प्रतीच्या वैरोचनं, उदीच्या प्रभासं, मध्ये आदित्याख्यं । विदिक्षु पुष्पप्रकीर्णकानि चत्वारि । पूर्वदक्षिणस्यामचिप्रभं । दक्षिणापरस्यां अर्चिमध्यं । अपरोत्तरस्या अचिंरावर्त । उत्तरपूर्वस्यामचि विशिष्टं । त. रा. वा पृ. १६७. श्वेताम्बरग्रंथेषु अनुदिशविमानानामुल्लेखो नास्ति ।
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं वइजयंत-जयंत-अवराइद-सबट्टसिद्धि त्ति एदेसिं णव-पंच-अणुदिसाणुत्तराणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणहाणं दो जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपजत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, पुरिसवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजम, तिण्णि दसण, दव्वेण काउ-सुक्क-उक्कस्ससुक्कलेस्साओ, भावेण उक्कस्सिया सुकलेस्सा, भवसिद्धिया, तिणि सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुखजुत्ता होंति अणागारुखजुत्ता वा।
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, गव जोग, पुरिसवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजम, तिणि दंसण, दव्व-भावेहि उक्क
नौ अनुदिश विमानोंके तथा विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि इन पांच अनुत्तर विमानोंके आलाप कहने पर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, संक्षी-पर्याप्त और संज्ञी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; दशौ प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, क्रियिककाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योग; पुरुषवेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे अपर्याप्तकालमें कापोत और शुक्ल लेश्याएं तथा पर्याप्तकालमें उत्कृष्ट शुक्ललेश्या, भावसे उत्कृष्ट शुक्ललेश्या, भव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व; संक्षिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं नौ अनुविश और पांच अनुत्तर विमानवासी देवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहनेपर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों ववनयोग, और वैक्रियिककाययोग ये नौ योगा पुरुषवेद, चारों कषाय, आदिके तीन शान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे उत्कृष्ट शुक्ललेश्या, भव्यसिद्धिक, औपशमिक
..........................................
नं. १८० नव अनुदिश और पांच अनुत्तर विमानवासी देवोंके सामान्य आलाप. | गु | जी. प. प्रा. सं. ग. | ई. । का.। यो. के. क. ज्ञा. । संय. द. ले. म. सं. सवि. आ.| उ. | १| २ |६/१०४| १ | १ | १ | ११ | १|४| ३ | १ ३ द्र.३/१३ ।१ २ ।२
सं.प.प. ७ दे. पंचे. त्रस. म. ४ पु. मति असं. के.द. का. शु. भ. औप. सं. आहा. साका. सं.अ.६
व ४ श्रुत. विना. शु. उ. क्षा. अना. अना. वै.२ अत्र.
मा.
१ क्षायो, कार्म.१
शु.उ.
-
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
५६६ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १,१.
स्सिया सुक्कलेस्सा, भवसिद्धिया, उवसमसम्मत्तेण विणा दो सम्मत्तं । केण कारणेण उवसमसम्मत्तं णत्थि ? बुच्चदे - तत्थ द्विदा देवा ण ताव उवसमसम्मत्तं पडिवज्जंति, तत्थ मिच्छाइट्ठीणमभावादो | भवदु णाम मिच्छाइडीणमभावो, उवसमसम्मत्तं पि तत्थ द्विदा देवा पडिवज्जंति को तत्थ विरोधो ? इदि ण, ' अनंतरं पच्छदो य मिच्छत्तं ' इदि अणेण पाहुडसुतेण सह विरोहादो । ण तत्थ द्विद-वेदसम्माद्विणो उवसमसम्मत्तं पडिवअंति, मणुसगदि-चंदिरित्तण्णगदीसु वेदगसम्माइट्टिजीवाणं दंसणमोहुवसमणहेदुपरि - णामाभावाद । ण य वेदगसम्माइट्टित्तं पडि मणुस्सेहिंतो विसेसाभावादो मणुस्साणं च
सम्यक्त्वके विना दो सम्यक्त्व होते हैं ।
1
शंका- नौ अनुदिश और पांच अनुत्तर विमानों के पर्याप्तकालमें औपशमिक सम्यक्त्व किस कारण से नहीं होता है ?
समाधान - नौ अनुदिश और पांच अनुत्तर विमानोंमें विद्यमान देव तो औपशमिक सम्यक्त्वको प्राप्त होते नहीं है, क्योंकि, वहां पर मिथ्यादृष्टि जीवोंका अभाव है ।
शंका- भले ही वहां मिथ्यादृष्टि जीवों का अभाव रहा आवे, किन्तु यदि वहां रहनेवाले देव औपशमिक सम्यक्त्वको प्राप्त करें, तो इसमें क्या विरोध है ?
समाधान - ऐसा कहना भी युक्ति-युक्त नहीं है, क्योंकि, औपशमिक सम्यक्त्वके अनन्तर ही औपशमिकसम्यक्त्वका पुनः ग्रहण करना स्वीकार करने पर 'अनादि मिध्यादृष्टि जीवके प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी प्राप्तिके अनन्तर पश्चात् अवस्था में ही मिथ्यात्वका उदय नियमसे होता है । किन्तु जिसके द्वितीय, तृतीयादि वार उपशमसम्यक्त्वकी प्राप्ति हुई है, उसके औपशमिक सम्यक्त्वके अनन्तर पश्चात् अवस्थामें मिथ्यात्वका उदय भाज्य है, अर्थात् कदाचित् मिथ्यादृष्टि होकरके वेदकसम्यक्त्व या उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होता है, कदाचित् सम्यग्मिथ्यादृष्टि होकरके वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होता है इत्यादि । इस कषायप्राभृतके गाथासूत्र के साथ पूर्वोक्त कथनका विरोध आता है। यदि कहा जाय कि अनुदिश और अनुतर विमानों में रहनेवाले वेदकसम्यग्दृष्टि देव औपशमिक सम्यक्त्वको प्राप्त होते हैं, सो भी बात नहीं है; क्योंकि, मनुष्यगतिके सिवाय अन्य तीन गतियोंमें रहनेवाले वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके दर्शनमोहनीयके उपशमन करनेके कारणभूत परिणामका अभाव है। यदि कहा जाय कि वेदकसम्यग्दृष्टिके प्रति मनुष्योंसे अनुदिशादि विमानवासी देवोंके कोई विशेषता नहीं है, अतएव जो दर्शनमोहनीयके उपशमन योग्य परिणाम मनुष्योंके पाये जाते हैं वे
१ सम्मत्तपदमलंमस्साणंतरं पच्छदो य मिच्छतं । लभस्स अपदमस्त दु भजियव्त्रो पच्छदो होदि ॥ ( कसायपाहुड ) सम्मत्तस्स जो पढमलंभो अणादियमिच्छाइ डिविसओ तस्ताणतरं पच्छदो अनंतरपच्छिमावस्था मिच्छतमेव हो । तत्थ जाव पढमद्विदिचरिमसमओ चितात्र मिच्छतोदर्य मोत्तूण पयारंतरासंभवादो । लंभस्स अपढमस्स दुजो खलु अपमो सम्मत पडिलमो तस्स पच्कदो मिच्छतोदयो भजियत्रो होइ । जयध. अ. पु. ९६१.
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
१. १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं [ ५६७ दसणमोहुवसमणजोगपरिणामेहि तत्थ णियमेण होदव्यं, मणुस्स-संजम-उवसमसेढिसमारुहणजोगत्तणेहि भेददंसणादो। उवसमसेढिम्हि कालं काऊणुवसमसम्मत्तेण सह देवेसुप्पण्णजीवा ण उवसमसम्मत्तेण सह छ पज्जत्तीओ समाणेति, तत्थतणुवसमसम्मत्तकालादो छ-पज्जत्तीण समाणकालस्स बहुत्तुवलंभादो । तम्हा पज्जत्तकाले ण एदेसु देवेसु उवसमसम्मत्तमत्थि त्ति सिद्धं । सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होति
अनुदिश और अनुत्तर विमानवासी देवों में नियमसे होना चाहिए । सो भी कहना युक्ति-संगत नहीं है, क्योंकि, संयमको धारण करनेकी तथा उपशमश्रेणीके समारोहण आदिकी योग्यता मनुप्योंके ही होनेके कारण अनुदिश और अनुत्तर विमानवासी देवोंमें और मनुष्योंमें भेद देखा जाता है । तथा उपशमश्रेणी में मरण करके औपशमिक सम्यक्त्वके साथ देवों में उत्पन्न होनेवाले जीव औपशमिक सम्यक्त्वके साथ छह पर्याप्तियोंको समाप्त नहीं कर पाते हैं, क्योंकि, अपर्याप्त अवस्थामें होनेवाले औपशमिक सम्यक्त्वके कालसे छहों पर्याप्तियोंके समाप्त होनेका काल अधिक पाया जाता है, इसलिए यह बात सिद्ध हुई कि अनुदिश और अनुत्तर विमानवासी देवोंके पर्याप्तकालमें औपशमिक सम्यक्त्व नहीं होता है।
विशेषार्थ-उपशमसम्यग्दृष्टि जीव औपशमिक सम्यक्त्वसे पुनः औपशमिक सम्यक्वको प्राप्त नहीं होता है किंतु यदि उसके मिथ्यात्वका उदय हो जाये तो मिथ्यादृष्टि हो जाता है, यदि सम्यग्मिथ्यात्वका उदय हो जावे तो सम्यग्मिथ्यादष्टि हो जाता है, यदि सम्यक्प्रकृतिका उदय हो जाये तो वेदकसम्यग्दृष्टि हो जाता है और यदि अनन्तानुबन्धीमेंसे किसी एक प्रकृतिका उदय हो जावे तो सासादनसम्यग्दृष्टि हो जाता है। इस नियमके अनुसार नौ अनुदिश और पांच अनुत्तरोंमें उत्पन्न हुआ उपशमसम्यग्दृष्टि जीव फिरसे उपशमसम्यक्त्वको तो ग्रहण कर नहीं सकता है और मिथ्यात्व गुणस्थान उसके होता नहीं है, क्योंकि, अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानको छोड़कर उसके दूसरे कोई गुणस्थान नहीं पाये जाते हैं, इसलिए मिथ्यात्वसे भी पुनः वह उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण नहीं कर सकता है। वेदकसम्यक्त्वसे कदाचित् उसके उपशमसम्यक्त्व माना जाय सो ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, वेदकसम्यक्त्वसे उपशमश्रेणीके सन्मुख मनुष्योंके ही उपशम (द्वितीयोपशम) सम्यक्त्व होता है अन्य गतियों में नहीं। तथा पूर्व पर्यायसे आया हुआ उपशमसम्यक्त्व अपर्याप्त अवस्थामें ही समाप्त हो जाता है, क्योंकि, उपशमसम्यक्त्वके कालसे छह पर्याप्तियोंके पूरा करनेका काल अधिक होता है। इसप्रकार इतने कथनसे यह निष्कर्ष निकला कि नौ अनुदिश और पांच अनुत्तरों में उत्पन्न हुआ उपशमसम्यग्दृष्टि जीव नियमसे वेदकसम्यग्दृष्टि ही हो जाता है और जो वेदकसम्यग्दृष्टि उत्पन्न होता है वह भी अन्त तक
१ प्रतिषु 'छ-पजत्तीओ' इति पाठः। २ उवसमसम्मत्तद्धा छावलिमतो दु समयमेत्तो ति । अवसिढे आसाणो अणअण्णदरुदयदो होदि ॥ अंतोमुहत्तमद्धं सब्बोवसमेण होदि उवसंतो। तेण परं उदओ खलु तिण्णेकदरस्स कम्मस्स ॥
ल. क्ष. १००, १०२.
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
५६८] छक्खंडागमे विट्ठाणं
[१, १. अणागारुवजुत्ता वा।
तेसिं चेव अपजताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जतीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दो जोग, पुरिसवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजम, तिण्णि दसग, दव्येण काउसुक्कलेस्सा, भावेण उक्कस्सिया सुक्कलेस्सा, भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा । एवं देवगदी सिद्धगदीए सिद्ध-भंगो।
एवं गइमग्गणा समत्ता । वेदकसम्यग्दृष्टि ही रहता है।
. सम्यक्त्व आलापके आगे संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं अनुदिश और अनुत्तर विमानवासी देवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, बसकाय, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, पुरुषवेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे उत्कृष्ट शुक्ल लेश्या; भन्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं । इसप्रकार देवगतिके आलाप समाप्त हुए। सिद्ध गतिके आलाप सिद्धोंके ओघालापके समान जानना चाहिये ।
इसप्रकार गतिमार्गणा समाप्त हुई। नं. १८१ नव अनुदिश और पांच अनुत्तर विमानवासी देवोंके पर्याप्त आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग इं! का. यो. वे. क. 'ज्ञा. संय. द. ले. म. स. संश आ. उ. |
आंध. 01
पचे. ... स.
म. ४ .
मति अस. के. द. शु.ल.म. क्षा. श्रुत. विना. भा. १ क्षायो. अव.
सं. आहा. साका.
अना.
नं. १८२ नव अनुदिश और पांच अनुत्तर विमानवासी देवोंके अपर्याप्त आलाप. गु. । जी प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संझि. | आ. |
51
उ.
. सं.अ.
अवि.
अप.
दे. पं. त्र. वै.मि. पु.
कार्म.
मति. अस. के.द. का. भ. औप. थुत. विना. शु. क्षा.
भा.१ क्षायो.।
सं. आहा. | साका.
अना. अना.
अव.
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
संत परूवणाणुयोगद्दारे इंदिय - आलावण्णणं
[ ५६९
दिवाण अणुवादो मूलोघो । वरि अस्थि अदीदगुणहाणाणि, अदीदजीवसमासा, अदीदपज्जत्तीओ, अदीदपाणा, सिद्धगदी वि अस्थि, अनिंदिया वि अस्थि, अकाया व अस्थि व संजदा णेव असंजदा व संदजासंजदा वि अस्थि, व भवसिद्धिया णेव अभवसिद्धिया अस्थि । एदे आलावा ण वत्तव्वा, सिद्धाणमेइंदियादिजादिणाम - कम्मस्सुदयाभावादो ।
सामण्णेइंदियाणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणद्वाणं, चत्तारि जीवसमासा, चत्तारि पज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, चत्तारि पाण तिष्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, एइंदियजादी, पंच थावरकाय, तिण्णि जोग, णवुंसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, अचक्खुदंसण, दव्वेण छ लेस्सा, पुढवि-वणफई अस्सिदूण सरीरस्स छ लेस्साओ हवंति । भावेण किण्ह - णील-काउलेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असण्णिणो, आहारिणा अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
१, १. ]
इन्द्रियमार्गणा के अनुवादसे आलाप मूल ओघालापके समान जानना चाहिए । विशेष बात यह है कि अतीतगुणस्थान, अतीतजीवसमास, अतीतपर्याप्ति, अतीतप्राण, सिद्धगति, अनिन्द्रिय, अकाय, संयम, संयमासंयम और असंयम इन तीनोंसे रहित स्थान, भव्यसिद्धिक और अभव्यसिद्धिक रहित स्थान इतने आलाप नहीं कहना चाहिए; क्योंकि, सिद्धजीवों के एकेन्द्रियादि जाति नामकर्मका उदय नहीं पाया जाता है।
सामान्य एकेन्द्रिय जीवोंके आलाप कहने पर - एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, बादरपर्याप्त, बादर- अपर्याप्त, सूक्ष्म-पर्याप्त और सूक्ष्म अपर्याप्त ये चार जीवसमास, मन:पर्याप्ति और भाषापर्याप्तिके विना चार पर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां; पर्याप्तकालमेंस्पर्शनेन्द्रिय, कायबल, आयु और श्वासोच्छवास ये चार प्राण, अपर्याप्तकालमें श्वासो
छ्वासके विना तीन प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, एकेन्द्रियजाति, पांचों स्थावर काय, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये तीन योगः नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, अचक्षुदर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं होती हैं, क्योंकि, पृथिवी और वनस्पतिकायिक जीवों के शरीरकी अपेक्षा शरीरकी छहों लेश्याएं पायी जाती हैं । भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व असंशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
नं. १८३
सामान्य एकेन्द्रियों के सामान्य आलाप.
1. जी. | प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संज्ञि | आ. उ.
१
मि. बा. प. प ३
४ ४ ४ १ १ ति.
बा.अ. ४ सू. प. अ.
सू. अ.
५ ३ १ त्रस. ओ. २ - बिना का. १
१ २
२
२ १ १ द्र. ६ २ १ कुम, असं अच. मा. ३ भ. मि. सं. आहा. साका. कुश्रु. अना. अना.
अशु. अ.
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
५७० ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणहाणं, दो जीवसमासा, चत्तारि पजत्तीओ, चत्तारि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, एइंदियजादी, पंच थावरकाय, ओरालियकायजोगो, णqसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, अचक्खुदंसण, दव्वेण छ लेस्सा, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, चत्तारि अपजत्तीओ, तिण्णि पाण, चत्तारि सण्णा, तिरिक्खगदी, एइंदियजादी, पंच थावरकाय, दो जोग, णबुंदसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, अचक्खुदंसण, दव्येण काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण किण्ह-णील काउलेस्सा, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं,
उन्हीं सामान्य एकेन्द्रिय जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, बादर-पर्याप्त और सूक्ष्म-पर्याप्त ये दो जीवसमास, चार पर्याप्तियां, चार प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, एकेन्द्रियजाति, पांचों स्थावरकाय, औदारिककाययोग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, अचक्षुदर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिका मिथ्यात्व, असंक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं सामान्य एकेन्द्रिय जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, बादर-अपर्याप्त और सूक्ष्म-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, चार अपर्याप्तियां, तीन प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, एकेन्द्रियजाति, पांचों स्थावरकाय, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, अचक्षुदर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, असंक्षिक,
नं. १८४
सामान्य एकेन्द्रियोंके पर्याप्त आलाप. । गु. जी. प. प्रा. सं. | ग.| इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संहि. आ. उ. | | २ २ ४ ४ ४ | १|१ ५ १ १/४ २११ द्र.६ २११/१ २ मि. बा.प.प. ति.. स. औदा... कुम. असं. अच. भा.३ म. मि. असं. आहा. साका.
कुश्रु. अशु. अ.
अना.
एके. .
विना
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगदारे इंदिय-आलायवण्णणं
[५७१ असणिणा, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा।
बादरेइंदियाणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, चत्तारि पजत्तीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, चत्तारि पाण तिण्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, बादरेइंदियजादी, पंच थावरकाय, तिणि जोग, णqसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, अचक्खुदंसण, दव्येण छ लेस्साओ, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
बादर एकेन्द्रिय जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, बादर-पर्याप्त और बादर-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, चार पर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां चार प्राण, तीन प्राण; चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, बादर एकेन्द्रियजाति, पांचों स्थावरकाय, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये तीन योग; नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, अचक्षुदर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिका मिथ्यात्व, असंशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं. १८५
सामान्य एकेन्द्रिय जीवोंके अपर्याप्त आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. | यो. वे.क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ., |२ २ ४ | ३|४|११ ५ २ १/४ २ १ १ द्र.२/२ १ १ २ । २ । मि. बा.अ. अ. ति. स. औ.मि... कुम. असं. अच. का. म. मि. असं. आहा. साका. विना. कार्म, | कुश्रु.
शु. अ.
अना. अना. भा.३] अशु.
-
नं. १८६
बादर एकेन्द्रिय जीवोंके सामान्य आलाप. गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. | ले. भ. स. संझि. आ. उ. । र २ प ४४११ ५ ३ १४ २१ द्र.६
२ २ २। मि. बा.प. ४ अ.३ ति बा.ए. स. औ. २. कुम. असं. अच. मा. ३ भ. मि. असं. आहा साका. बा अ जाति विना. का.१ कुश्र.
अशु.अ.
अना. अना.
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
५७२ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १,१.
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, चत्तारि पज्जत्तीओ, चत्तारि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, बादरेइंदियजादी, पंच थावरकाय, ओरालियकायजोगो, णवुंसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, अचक्खुदंसण, दव्त्रेण छ लेस्सा, भावेण किण्ह णील-काउलेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
"तेसिं चेत्र अपजत्ताणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, चत्तारि अपज्जत्तीओ, तिण्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, बादरेइंदियजादी, पंच थावर काय, दो जोग, णवुंसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, अचक्खुदंसण,
उन्हीं बाहर एकेन्द्रिय जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक बादर-पर्याप्त जीवसमास, चार पर्याप्तियां, चार प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, बादर एकेन्द्रियजाति, पांचों स्थावरकाय, औदारिककाययोग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, अचक्षुदर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं: भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं: भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः मिथ्यात्व, असंक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं बादर एकेन्द्रिय जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक बादर - अपर्याप्त जीवसमास, चार अपर्याप्तियां, तीन प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, बादर एकेन्द्रियजाति, पांचों स्थावर काय, औदारिकामिश्रकाययोग और कार्मण
नं. १८७
गु. जी. | प. | प्रा. सं. ग.) इं. १ १ ४ | ४ | ४ | १ १ मि. बा.प.
बादर एकेन्द्रिय जीवोंके पर्याप्त आलाप.
का. | यो । वे. क. ज्ञा. संग. द.
ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ.
४ २ १ १
द्र. ६२ १ १ १
२
कुम. असं. अ. भा. ३भ. मि. सं. आहा. साका. कुश्रु.
अशु. अ.
अना.
१
१
ति. बा. ए. स. औदा. नपुं. जाति. विना.
नं. १८८
बादर एकेन्द्रिय जीवोंके अपर्याप्त आलाप.
उ. २
२ १ ४ २
१ १
१ १ ४ ३ ४ १ १ ५ मि. बा.अ.
गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ.स.संज्ञि. आ. द्र. २ २ १ १ २ कुम. असं अच का. भ. मि. असं. आहा. साका. कुश्रु. अना. अना.
शु. अ. भा. ३
अशु.
ति. बा. ए. तस. औ.मि. जाति विना कार्म.
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे इंदिय - आलावण्णणं
[ ५७३
दव्त्रेण काउ-मुक्कलेस्सा, भावेण किण्ह णील काउलेस्ताः भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असणिणो, आहारिणो अगाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
एवं बादरइंदियपज्जत्ताणं पज्जत्तणामकम्मोदयाणं तिष्णि आलावा वत्तव्त्रा । अपज्जत्तणामकम्मोदयाणं बादरेइंदियलद्धिअपज्जत्ताणं भण्णमाणे बादरे इंदियअपज्जत्तालाव - मंगो |
"मुहुमेइंदियाणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, वे जीवसमासा, चत्तारि पजतीओ चत्तारि अपजत्तीओ, चत्तारि पाण तिष्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, सुमेइंदियजादी, पंच थावरकाय, तिण्णि जोग, णवुंसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, अचक्खुदंसण, दव्त्रेण काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण किन्ह-गील- काउलेस्सा;
१८९
-*..
काययोग ये दो योग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, अचक्षुदर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः मिथ्यात्व असंशिक, आहारक, अनाहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
इसीप्रकार से पर्याप्तनामकर्मके उदयवाले बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंके सामान्य, पर्याप्त और अपर्याप्त ये तीन आलाप कहना चाहिए। अपर्याप्त नामकर्मके उदयवाले बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके आलाप बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तक जीवोंके आलापों के समान जानना चाहिए ।
सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, सूक्ष्म-पर्याप्त और सूक्ष्म अपर्याप्त ये दो जीवसमास, चार पर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां, चार प्राण, तीन प्राण; चारों संज्ञाएं, तिर्यचगति, सूक्ष्म एकेन्द्रियजाति, पांचों स्थावरकाय, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये तीन योगः नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, अचक्षुदर्शन, द्रव्यसे कापोत,
१ प्रतिपु ' बादरे दियपज्जत्तालावो भंगो' इति पाठः । नं. १८९
मि
सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंके सामान्य आलाप.
गु. जी. प. प्रा. संग. ई. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द.
३
१ ४ २ १ १
१ २ ४४ . सू. प. प. ३
ति. सू. ए. अस औ. २ जाति विना का. १
सू. अ. ४
अ.
ले. भ. स. 1 संज्ञि. आ. उ.
द्र. २ २ १
१ २ २
कुम. असं. अच. का. भ. मि. असं. आहा. साका. कुभु. अना. अना.
शु. अ. मा. ३
अशु.
४ ५ १ ५
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
५७१) छक्खंडागमे जीवहाणं
[१, १. भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुखजुत्ता होति अणागावजुत्ता वा।
तेसिं चेव पञ्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, चत्तारि पजत्तीओ, चत्तारि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, सुहुमेहंदियजादी, पंच थावरकाय, ओरालियकायजोगो, णqसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, अमंजम, अचक्खुदंसण, दव्वेण काउलेस्सा, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असणिणो, आहारिणो, सागारुखजुत्ता होंति अणागारवजुत्ता वा।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, चत्तारि अपज्जत्तीओ, तिणि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, मुहमेइंदियजादी, पंच थावरकाय, दो जोग, गर्बुसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, अचक्खु
और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक मिथ्यात्व, असंशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक सूक्ष्म-पर्याप्त जीवसमास, चार पर्याप्तियां, चार प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, सूक्ष्म एकेन्द्रियजाति, पांचों स्थावरकाय, औदारिककाययोग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, अचक्षुदर्शन, द्रव्यसे कापोतलेश्या, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिका मिथ्यात्व, असंशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यारष्टि गुणस्थान, एक सूक्ष्म-अपर्याप्त जीवसमास, चार अपर्याप्तियां, तीन प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, सूक्ष्म एकेन्द्रियजाति, पांचों स्थावरकाय, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान,
१ प्रतिषु ' काउसुक्कलेस्सा ' इति पाठः । सवेसिं सहुमाणं कावोदा. गो. जी. ४९७. नं. १९०
सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंके पर्याप्त आलाप. गु. | जी.। प. प्रा. सं. ग. ई... का. यो. वे. क. | शा. संय. | द. | ले. भ. | स. | संशि. आ.| उ. | १४|४|४|११ ५ १ १४ २ १ १ द्र.१२१ ११२
ति. सू.ए. स. औदा. कुम. असं. अच. का. भ. मि. असं. आहा. साका. जाति- विना.
कुश्रु.
भा.३ अ.
अना.
अशु.
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १. ]
संत- परूवणाणुयोगद्वारे इंदिय- आलावण्णणं
[ ५७५
दंसण, दव्त्रेण काउ- सुक्कलेस्सा, भावेण किण्ह - गील- काउलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुत्रजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
एवं पज्जत - णामकम्मोदय सहियाणं सुहुमेदियणिव्वत्तिपज्जत्ताणं तिणि आलावा वसव्वा । मुहुमेइंदियलद्धिअपज्जत्ताणं पि अपज्जत्तणामकम्मोदय- सहियाणं एओ अपज्जत्तालावो ।
वेदियाणं मण्णमाणे अस्थि एयं गुणद्वाणं, वे जीवसमासा, पंच पत्तीओ पंच अपजत्तीओ, छ पाण चचारि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, वेइंदियजादी, तसकाओ, ओरालिय-ओरालियामरस-कम्मइय- असच मोसवचिजोगा इदि चत्तारि जोग, णवुंसयवेद,
असंयम, अचक्षुदर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः मिथ्यात्व असंशिक, आहारक, अनाहारक साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
इसीप्रकार से पर्याप्त नामकर्मके उदयवाले सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंके सामान्य, पर्याप्त और अपर्याप्त ये तीन आलाप कहना चाहिए। अपर्याप्त नामकर्मके उदयवाले सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकोंके एक अपर्याप्त आलाप जानना चाहिए ।
द्वीन्द्रिय जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर - एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, द्वीन्द्रियपर्याप्त और द्वीन्द्रिय- अपर्याप्त ये दो जीवसमास, मनःपर्याप्तिके विना पांच पर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां पर्याप्तकालमें स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, वचनबल, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये छह प्राण, अपर्याप्तकालमें उक्त छह प्राणोंमेंसे वचनबल और श्वासछ्वास के बिना चार प्राण: चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, द्वीन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग, कार्मणकाययोग और असत्यमृषावचनयोग ये चार योगः नपुंसक
नं. १९१
सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंके अपर्याप्त आलाप.
१ १ ४ ३ ४ १
मि. सू.अ.
गु. जी. प. प्रा. सं. ग इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. १ ४ २ १ १ द्र. २ २ १ २ का. भ. मि. असं. कुम. असं. अच. t कुश्रु. शु. अ. भा. ३
अशु.
ܐ
५. २
ति.. सू. ए. स. ओ. मि. जाति. विना.
कार्म.
ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ.
२
आहा. साका. अना. अना.
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
५७६ ]
छक्खडागमे जीवाणं
[ १, १.
चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, अचक्खुदंसण, दव्त्रेण छ लेस्सा, भावेण किन्हणी-काउलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असणिगणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा I
१९२
तेसिं चैव पत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्टाणं, एओ जीवसमासो, पंच पत्तीओ, छप्पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, वेइंदियजादी, तसकाओ, वे जोग, सयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, अचक्खुदंसण, दव्त्रेण छ लेस्सा, भावेण कण्हणी - काउलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुत्रजुत्ता वा ।
वेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, अचक्षुदर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, मिथ्यात्व, असंशिक, आहारक, अनाहारकः साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
उन्हीं द्वीन्द्रिय जीवों के पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक हीन्द्रिय-पर्याप्त जीवसमास, मनःपर्याप्ति के विना पांच पर्याप्तियां, पूर्वोक्त छह प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, द्वीन्द्रियजाति, त्रसकाय, अनुभयवचनयोग और औदारिककाययोग ये दो योगः नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, अचदर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः मिथ्यात्व असंज्ञिक, आहारक: साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
मं. १९२
| गु. जी. प. प्रा. सं. ग.] इ.] का. [ यो. | वे. क. ज्ञा.
१ ४ १. ४
१ २ ५ ६ | ४ १ १ मि. द्वीप प ४
ति.
त्रस. ओ. २ |
का. १
श्री. अ. ५ अ.
व. १
द्वीन्द्रिय जीवोंके सामान्य आलाप.
अनु.
नं १९३
द्वीन्द्रिय जीवोंके पर्याप्त आलाप.
१
२ १ १
द्र. ६ । २
१
गु.जी | प.प्रा.सं.ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. सयं. द. १ १ ५ ६ ४ | १ १ १ २ मि. द्वी ति. द्वी. त्रस. जा.
व. १
कुम. असं अच मा. ३.भ. | मि. असं. आहा.
प.
कुश्रु.
अशु. अ.
१ ર
२
संय. द. ले. म. स. संज्ञि. | आ. उ. २ १ १ द्र. ६ | २ १ कुम. असं अच. मा. ३ म. मि. असं. आहा. साका. कुश्रु. अशु. अ. अना. अना.
अनु.
औ. १
ले.
/ स.
स.
संज्ञि. आ. उ. १ १ २ साका.
अना.
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे इंदिय-आलाववण्णणं
[५७७ तेसिं चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणवाणं, एओ जविसमासो, पंच अपज्जत्तीओ, चत्तारि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, वेइंदियजादी, तसकाओ, वे जोग, णवुसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, अचक्खुदंसण, दव्येण काउसुक्कलेस्साओ, भावेण किण्ह-णील काउलेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता हाँति अणागारुवजुत्ता वा।
एवं वीइंदिय-पञ्जत्तणामकम्मोदय-सहियाणं वीइंदियपज्जत्ताणं तिणि आलावा वत्तव्या । बेइंदिय-लद्धिअपजत्तणामकम्मोदय-सहिदाणं एगो आलावो वत्तव्यो।
तेइंदियाणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, दो जीवसमासा, पंच पञ्जत्तीओ पंच अपजत्तीओ, सत्त पाण पंच पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, तीइंदियजादी,
उन्हीं द्वीन्द्रिय जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्याष्टि, गुणस्थान, एक द्वन्द्रिय-अपर्याप्त जीवसमास, पांच अपर्याप्तियां, स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, कायबल और आयु ये चार प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, द्वीन्द्रियजाति, सकाय, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, अचक्षुदर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं: भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिका मिथ्यात्व, संक्षिक, आहारकअनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
इसीप्रकारसे द्वीन्द्रियजाति और पर्याप्त नामकर्मके उदयवाले द्वीन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंके सामान्य, पर्याप्त और अपर्याप्त ये तीन आलाप कहना चाहिए। द्वीन्द्रियजाति और लब्ध्यपर्याप्तक नामकर्मके उदयवाले द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक जीवोंके एक अपर्याप्त आलाप ही कहना चाहिए।
. त्रीन्द्रिय जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, त्रीन्द्रियपर्याप्त और त्रीन्द्रिय-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, मनःपर्याप्तिके विना पांच पर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां पर्याप्तकालमें स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, वचनबल, कायबल, आयु, और श्वासोच्छ्वास ये सात प्राण; अपर्याप्तकालमें उक्त सात प्राणोंमेंसे वचनबल और श्वासो
नं. १९४
द्वीन्द्रिय जीवोंके अपर्याप्त आलाप. । गु. जी. प. प्रा. | सं. ग. इं.का./ यो. | वे. क. ज्ञा. । संय. द. ले. भ. स. संशि. आ.
उ. ।
मि.द्वी. अ. अ.
द्वी. जा. ..
वस. -
औ.मि. कार्म.
कुम. असं. अचक्षु. का. म. मि. असं. आहा. साका. कुध.
| शु. अ. अना. अना. भा.३ अशु.
-
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
५७८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. तसकाओ, चत्तारि जोग, णवंसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, अचक्खुदंसण, दव्वेण छ लेस्सा, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
"तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, पंच पज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, तीइंदियजादी, तसकाओ, दो जोग, णqसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, अचक्खुदंसण, दम्वेण छ लेस्सा,
च्छ्वासके विना शेष पांच प्राण, चारों संशाएं, तिथंचगात, त्रीन्द्रियजाति, असकाय, अनुभयवचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये चार योग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, अचक्षुदर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, असंशिक, आहारक, अनाहारका साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
___ उन्हीं त्रीन्द्रिय जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक त्रीन्द्रिय-पर्याप्त जीवसमास, पूर्वोक्त पांच पर्याप्तियां, पूर्वोक्त सात प्राण, चारों संशाएं, तिर्यंचगति, त्रीन्द्रियजाति, सकाय, अनुभयवचनयोग और औदारिककाययोग ये दो योग; नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, अचक्षु.
नं. १९५
त्रीन्द्रिय जीवोंके सामान्य आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग./ इं. का. यो. ! वे. क. ज्ञा. | संय. द. | ले. भ. स. संझि. आ. उ. । १ २ ५५. ७४/१/१/१ ४ १४ २ १ १ द्र. ६ २ १ १ २ २ त्री.प. ५अ.। ५
| व... कुम. असं. अच भा. ३ भ. मि. असं. आहा. साका. श्री. अ. अनु. कुश्रु.
अशु. अ. अना. अना. औ.२
त्री. जा. ~
त्रस. Mi4
नं. १९६ .
त्रीन्द्रिय जीवोंके पर्याप्त आलाप. । गु. जी. प. प्रा. सं | ग. इं.का. यो. वे. क.। ज्ञा. | संय.। द. । ले. भ. स. संलि.। आ.। उ. ।
२ र ४ २ १ १ द्र.६ २ १ १ १ २ त्री.प.
कुम. असं. अच. मा.३ भ. मि. असं. आहा. साका.
अशु. अ.
0 -
स. त्री. जा
कुथ.
अना.
-
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूषणाणुयोगद्दारे इंदिय-आलाववण्णणं
[५७९ भावण किण्ह-णील-काउलेस्सा, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असणिणो, आहारिणो, सागारुखजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अस्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, पंच अपज्जत्तीओ, पंच पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, तीइंदियजादी, तसकाओ, दो जोग, णबुंसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, अचक्खुदंसण, दव्वेण काउसुक्कलेस्सा, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।।
एवं तीइंदियणिव्यत्तिपञ्जताणं पजत्त-णामकम्मोदयाणं तिण्णि आलावा वत्तम्वा । लद्धि-अपजत्ताणं पि अपज्जत्त-णामकम्मोदयाणं एगो आलावो वत्तव्यो ।
चउरिदियाणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, पंच पज्जत्तीओ
११७
दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, असंशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं त्रीन्द्रिय जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक त्रीन्द्रिय-अपर्याप्त जीवसमास, पांच अपर्याप्तियां, आदिकी तीन इन्द्रियां. कायबल और आयु ये पांच प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, त्रीन्द्रियजाति, प्रसकाय, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, अचक्षुदर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, असंशिक, आहारक, भनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
इसीप्रकार पर्याप्त नामकर्मके उदयवाले त्रीन्द्रिय निवृत्तिपर्याप्तक जीवोंके सामान्य, पर्याप्त और अपर्याप्त ये तीन आलाप कहना चाहिए । अपर्याप्त नामकर्मके उदयवाले श्रीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकोंके भी एक अपर्याप्त आलाप कहना चाहिए।
चतुरिन्द्रिय जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, चतुरि
...........
नं. १९७
त्रीन्द्रिय जीवोंके अपर्याप्त आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. । संय . द. । ले. भ. स. सन्नि. आ. उ. | |११५५ ४ ११ १२ १४ २ । १ १ द्र.२२११२२ मि. त्री. अ. ति. त्री... औ.मि.. । कुम । असं . अच. का. भ. मि. असं. आहा. साका. अ. जा.. काम. कश्र.।
अना.
अना. भा.३ अशु.
त्रस.
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
५८० ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १ पंच अपज्जत्तीओ, अट्ठ पाण छप्पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, चरिंदियजादी, तसकाओ, चत्तारि जोग, णबुंसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, दो दसण, दव्वेण छ लेस्सा, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा"।
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं. एओ जीवसमासो, पंच पज्जसीओ, अट्ठ पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, चउरिदियजादी, तसकाओ, दो जोग, णqसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, दो दंसण, दब्वेण छ लेस्सा, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असण्णिणो,
न्द्रिय-पर्याप्त और चतुरिन्द्रिय-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, मनःपर्याप्तिके विना पांच पर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां पर्याप्तकालमें स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, कायबल, वचनबल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये आठ प्राण, अपर्याप्तकालमें उक्त आठ प्राणोंमेसे वचनबल और श्वासोच्छ्वासके विना शेष छह प्राण; चारों संक्षाएं, तिर्यंचगति, चतुरिन्द्रियजाति, त्रसकाय, अनुभयवचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये चार योग; नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिका मिथ्यात्व, असंशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं चतुरिन्द्रिय जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक चतुरिन्द्रिय-पर्याप्त जीवसमास, पूर्वोक्त पांच पर्याप्तियां, पूर्वोक्त आठ प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, चतुरिन्द्रियजाति, सकाय, अनुभयवचनयोग और औदारिककाययोग ये दो योग; नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिका मिथ्यात्व, असंशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अना'
नं. १९८
चतुरिन्द्रिय जीवोंके सामान्य आलाप. । गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. | यो. । वे. क. ज्ञा. | संय. द. | ले. भ. स. | सजि. आ. उ. | मि च.प.प. प. ति.
कुम | असं. | चक्षु. भा. ३ म. मि. असं. आहा. साका. अच. अशु, अ.
अना. अना.
च.जा.
नपुं. -
औ.२
का.१
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.
संत-परूवणा[योगद्दारे इंदिय-आलाववण्णणे [५८१ आहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा"।
तेसिं चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, पंच अपज्जत्तीओ, छप्पाण, चत्तारि सण्णा, तिरिक्खगदी, चउरिंदियजादी, तसकाओ, वे जोग, णqसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, दो दंसण, दब्वेण काउसुक्कलेस्सा, भावेण किण्हणील-काउलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छतं, असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।।
कारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं चतुरिन्द्रिय जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक चतुरिन्द्रिय-अपर्याप्त जीवसमास, पूर्वोक्त पांच अपर्याप्तियां, आदिकी चार इन्द्रियां, कायबल और आयु ये छह प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, चतुरिन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिका मिथ्यात्य, असंशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
........................
नं. १९९ |गु.जी. प. प्रा. सं. ग ई
. च.जा...
स. 00
चतुरिन्द्रिय जीवोंके पर्याप्त आलाप. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ! ले. भ. स. संनि. आ. उ. | २४ २१ २ द्र. ६२१११२ व. १. कुम. असं. चक्षु. भा. ३ म. मि. असं. आहा. साका. कुश्र. अच. अशु. अ.
अना. औ. १
कुम. असं./
| अनु.
नं. २००
चतुरिन्द्रिय जीवोंके अपर्याप्त आलाप. गु. | जी प. प्रा. सं. ग. इं.का. यो. वे. क ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संज्ञि.
आ.
उ.
मि. च,अ.अ.
तिच. त्र. औ.मि.
जा. कार्म.
नपु. -
कुम. असं. चक्षु. का. भ. मि. असे. आहा. साका श्र अथ. शु. अ.
| अना. अना. भा. अशु.
-
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
५८२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. एवं चरिंदियाणं पज्जत्त-णामकम्मोदयाणं तिणि आलावा वत्तव्या । चउरिदियाणमपज्जत्त-णामकम्मोदयाणं एओ आलावो वत्तव्यो।
पंचिंदियाणं भण्णमाणे अत्थि चौदस गुणहाणाणि, चत्तारि जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपजत्तीओ पंच पज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण णव पाण सत्त पाण चत्तारि पाण दो पाण एय पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अत्थि, चत्तारि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, पण्णारह जोग अजोगो वि अत्थि, तिण्णि वेद अवगदवेदो वि अत्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अत्थि, अट्ठ णाण, सत्त संजम, चत्तारि देसण, दव्वे-भावेहि छ लेस्साओ अलेस्सा वि अत्थि, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सणिणो असण्णिणो णेव सणिणो णेव असण्णिणो वि
इसीप्रकारसे पर्याप्त नामकर्मके उदयवाले पर्याप्तक चतुरिन्द्रिय जीवोंके सामान्य, पर्याप्त और अपर्याप्त ये तीन आलाप कहना चाहिए । अपर्याप्त नामकर्मके उदयवाले लम्ध्यपर्याप्तक चतुरिन्द्रिय जीवों के एक अपर्याप्त आलाप कहना चाहिए।
पंचेन्द्रिय जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-चौदहों गुणस्थान, संक्षी-पर्याप्त, संझी. अपर्याप्त, असंही-पर्याप्त और असंझी-अपर्याप्त ये चार जीवसमास, संशी-पर्याप्त जीवोंके छहों पर्याप्तियां, संज्ञी-अपर्याप्त जीवोंके छहों अपर्याप्तियां; असंक्षी-पर्याप्त पंचेन्द्रिय जीवोंके मनःपर्याप्तिके विना पांच पर्याप्तियां, असंज्ञी-अपर्याप्त पंचेन्द्रिय जीवोंके पांच अपर्याप्तियां: संझी-पर्याप्त पंचेन्द्रिय जीवोंके दशों प्राण, संझी-अपर्याप्त पंचेन्द्रिय जीवोंके अपर्याप्तकालभावी सात प्राण, असंज्ञी-पर्याप्त पंचेन्द्रिय जीवोंके मनोबलके विना नौ प्राण, असंझी-अपर्याप्त पंचेन्द्रिय जीवोंके अपर्याप्तकालभावी सात प्राण, सयोगिकेवली जिनके वचनबल, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये चार प्राण, केवलिसमुद्धातकी अपर्याप्त अवस्थामें आयु और कायबल ये दो प्राण, और अयोगिकेवली भगवान के एक आयु प्राण होता है। चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंज्ञास्थान भी है, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, पंद्रहों योग तथा अयोगस्थान भी है। तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है। चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है। आठों शान, सातों संयम, चारों दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं तथा अलेश्यास्थान भी है। भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, छहों सम्यक्त्व, संझिक,
or
नं. २०१
पंचेन्द्रिय जीवोंके सामान्य आलाप. | गु.! जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो.। वे. क. झा. | संय. द. ले. भ. सं. संज्ञि. आ. | 3. 1 १४४ ६५.१०,७४ | सं.प.६ अ. ९,७
| सं. आहा. साका. सं. अ.५५.४.२
अलेश्य.अ.
असं. अना.
अना. असं.प.५अ. १
यु.उ. असं.अ./
क्षीणसं.
पंचे.
अयोग.
the
अकषा.
अनु.
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
संत-परूवणाणुयोगद्दारे इंदिय-आलाववण्णणं
[५८३ अत्थि, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुखजुत्ता वा सागार. अणागारेहिं जुगवदुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव पजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि चोदस गुणट्ठाणाणि, दो जीवसमासा, छ पजत्तीओ पंच पज्जत्तीओ, दस पाण णव पाण चत्तारि पाण एग पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अस्थि, चत्तारि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग अजोगो वि अस्थि, तिणि वेद अवगदवेदो वि अस्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अत्थि, अट्ठ णाण, सत्त संजम, चत्तारि दंसण, दव-भावेहि छ लेस्सा अलेस्सा वि अत्थि, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सण्णिणो असणिणो णेव सणिणो णेव असणिणो वि अस्थि, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा सागार-अणागारेहि जुगवदुवजुत्ता वा।
.........
भसंशिक तथा संझी और असंझी इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी स्थान है। आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी, अनाकारोपयोगी तथा साकार अनाकार इन दोनों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त भी होते हैं।
___उन्हीं पंचेन्द्रिय जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-चौदहों गुणस्थान, संशी-पर्याप्त और असंशी-पर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, पांच पर्याप्तियां: दशों प्राण, नौ प्राण, चार प्राण और एक प्राण; चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंशास्थान भी है। चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग, वैक्रियिककाययोग और आहारककाययोग ये ग्यारह योग तथा अयोगस्थान भी है। तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है। चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है। आठों ज्ञान, सातों संयम, चारों दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं तथा अलेश्यास्थान भी है। भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; छहों सम्यक्त्व, संशिक, असंक्षिक तथा संक्षी और असंही इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी स्थान है। आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी, अनाकारोपयोगी और साकार तथा अनाकार इन दोनों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त भी होते हैं।
नं. २०२
| गु.) जी. प. प्रा.
सं.
पंचेन्द्रिय जीवोंके पर्याप्त आलाप. ग. ई. का. यो..वे. क. शा.। संय. द. ले. म. स. ११ ११ म.४ ३/४ ७४ द्र. ६२
भा.६ भ. अले. अ.
सं.प.५ अ.प
क्षीणसं. .
अपग.WAN अकषा.
सैनि. आ. । उ. । २ २ २ सं. आहा. साका. असं. अना. अना.
यु.उ.
औ. १
अनु.
आ.१ अयो.
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
५८४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१.१. - तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि पंच गुणट्ठाणाणि, वे जीवसमासा, छ अपञ्जत्तीओ पंच अपज्जतीओ, सत्त पाण सत्त पाण दो पाण, चत्तारि सण्णा खीणसण्णा वा, चत्तारि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, चत्तारि जोग, तिणि वेद अवगदंवेदो वा, चत्तारि कसाय अकसाओ वा, छ णाण, चत्तारि संजम, चत्तारि देसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण छ लेस्सा, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, पंच सम्मत्तं, सण्णिणो असणिणो अणुभया वा, आहारिणो आहारिणो, सागारुखजुत्ता होंति अणागारुयजुत्ता वा तदुभया वा ।
पंचिंदिय-मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एगं गुणहाणं, चत्तारि जीवसमासा, छ
उन्हीं पंचेन्द्रिय जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, प्रमत्तसंयत और सयोगकेवली ये पांच. गुणस्थान, संक्षी-अपर्याप्त और असंशी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां सात प्राण, सात प्राण, तथा सयोगकेवलि समुद्धातके अपर्याप्तकालमें दो प्राण, चारों संशाएं तथा क्षीणसंशास्थान भी है। चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, बसकाय, औदारिकमिश्रकाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग, आहारकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये चार योग; तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है। चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है। विभंगावधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानके विना छह शान, असंयम, सामायिक, छेदोपस्थापना
और यथाख्यात ये चार संयम; चारों दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं; भावसे छहों लेश्याएं. भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; सम्यग्मिथ्यात्वके विना पांच सम्यक्त्व, संशिक, असंशिक तथा अनुभयस्थान भी है। आहारक, अनाहारक; साकारोपयो कारोपयोगी और दोनों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त भी होते हैं।
पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, पूर्वोक्त चार जीवसमास, संत्री पंचेन्द्रियोंके छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; असंशी पंचे.
भं. २०३
पंधेन्द्रिय जीवोंके अपर्याप्त आलाप, गु.| जी. प. प्रा.से. ग. ई.का. यो. वे. क.। ज्ञा. संय. द. | ले.
स. संज्ञि. आ.
.
साका.
मि.सं, अ. ५ अ. सा. असं.अ.
क्षीणसं. <
स.
औ मि... वै.मि, आ.मि.
विमं. असं. मनः सामा. विना. छेदो.
यथा.
भा.६
सा. असं. अना. अना. औप. अनु. यु.उ.
कार्म,
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगदारे इंदिय-आलाववण्णणं
[५८५ पज्जत्तीओ छ अपजत्तीओ पंच पजत्तीओ पंच अपजत्तीओ, दस पाण सत्त पाण णव पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णा, चत्तारि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, तेरह जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्य-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुखजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अस्थि एगं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, छ पजत्तीओ पंच पजत्तीओ, दस पाण णव पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दस जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिणि अण्णाण, असंजम, दो दसण, दव्य-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं,
न्द्रियोंके पांच पर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां संशी पंचेन्द्रियोंके दशों प्राण, सात प्राण; असंही पंचेन्द्रियोंके नौ प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोगके विना तेरह योग, तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संशिक, असंक्षिक; आहारक, अनाहारका साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, संक्षी-पर्याप्त और असंक्षी-पर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां पांच पर्याप्तियां; दशों प्राण, नौ प्राण; चारों संक्षाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग, तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संशिक, असंक्षिक; आहारक,
नं. २०४
पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप. गु. जी. प.
ई.का. यो. वे. क.ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संझि. आ. | उ. २४ प. १०४ ४२११३ ३ ४ ३ १ २ द्र. ६२१ २२ २ मि. सं.प. अ. ७
- अज्ञा. असं. चक्षु. मा.६ भ. मि. सं. आहा. | साका. सं.अ. ५५.
असे. अना. अना. असं.प. ५अ. असं.अ.
पचे. त्रस..
आ.द्वि.
अच.
•
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
५८६] छक्खंडागमे जीवडाणं
[१, १. सणिणो असण्णिणो, आहारिणो, सागारुखजुत्ता होति अणागारुबजुत्ता वा।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, छ अपज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णा, चत्तारि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, तिण्णि जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, दो दंसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा ।
साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, संशी-अपर्याप्त और असंझी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों अपर्या. प्तियां, पांच अपर्याप्तियां; सात प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, बसकाय, औदारिकमिश्रकाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये तीन योग, तीनों वेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अक्षान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, दम्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे छहों लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक मिथ्यात्व, संक्षिक, असंक्षिक आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं. २०५ - पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप. | गु. | जी. प. प्रा. सं. ग. इ. | का. यो. वे. क. ना. | संय. द. ले. भ. स. संझि.| आ. | उ. । |१| २ | ६१० ४ ४ १.१ १० ३ ४ ३ १ २ द्र.६ २०१२
| २ | मि. सं.प. ५९ पंच. त्रस.म. ४ अज्ञा. असं. चक्षु. भा. ६ भ. | मि. सं. | आहा. साका.
अ. असं. अना.
अस.
व.४
अच.
पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप. । गु.| जी. प.प्रा.सं. । ग.। ई. का. यो. वे. क. बा. संय. द. ले. भ. स. संक्षि. आ. | उ. ।
मि.से.अ. अ.७
असं.अ. ५
पंचे. त्रस. .
ओ.मि. । । कुम. असं. चक्षु. का. म. मि. सं. आहा. साका. वै.मि. | कुश्रु. अच. शु. अ. असं. अना. अना. कार्म.
मा.६
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगदारे इंदिय-आलाववण्णणं
[५८७ सासणसम्माइटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति मूलोघ-भंगो । एवं सण्णिपंचिं. दियाणं पज्जत्त-णामकम्मोदयाणं मिच्छाइट्टिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति जाणिऊण सकलालावा वत्तव्या।
असण्णि-पंचिदियाणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, दो जीवसमासा, पंच पज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ, णव पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, चत्तारि जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, दो दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा।
तेसिं चेव पजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, पंच पजत्तीओ, णव पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दो
सामान्य पंचेन्द्रिय जीवोंके सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तकके आलाप मूल ओघालापके समान जानना चाहिए। इसीप्रकार पर्याप्त नामकर्मके उदयवाले संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंके मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तकके समस्त आलाप जानकर कहना चाहिए।
असंशी पंचेन्द्रिय जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, असंझी-पर्याप्त और असंशी--अपर्याप्त ये दो जीवसमास, पांच पर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां; नौ प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, अनुभयवचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये चार योग; तीनों वेद, चारों कषाय, दो अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं: भव्यासिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, असंशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंके पर्याप्तक लसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक असंज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, पांच पर्याप्तियां, नौ प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति,
नं. २०७
असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंके सामान्य आलाप. | गु.) जी. प. प्रा. | सं./ ग.| ई. का. यो. । वे. क. ज्ञा. | संय. द. | ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ. । 17 २ ५५. ९/४/१/११ ४ ३ ४ २ १ २ द्र. ६२ १ १ २ २ मि. असं.प. ५अ. ति. व. कुम. असं. अच. भा. ३भ. मि. असं. आहा. साका.
अनु. कुश्रु. अच. अशु. अ. | अना. अना.
पंचे. त्रस..
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
५८८ ]
छक्खंदागमे जीवद्वाणं
[ १, १.
जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्त्रेण छ लेस्सा, भावेण किण्हणील- काउलेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अस्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, पंच अपज्जतीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, पंचिदियजादी, तसकाओ, वे जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्वेण काउसुक्कलेस्साओ, भावेण किण्ह णील- काउलेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा
२८९
पंचेन्द्रियजाति, सकाय, अनुभयवचनयोग और औदारिककाययोग ये दो योग; तीनों वेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः मिथ्यात्व, असंज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
उन्हीं अशी पंचेन्द्रिय जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक असंज्ञी अपर्याप्त जीवसमास, पांच अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिकामिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, तीनों वेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं: भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः मिथ्यात्व, असंज्ञिक, आहारक, अनाहारकः साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
नं. २०८
गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. | संय] द.
५ ९
४
१ १
३ ४ २ व. १
अनु. औ. १
१
१
मि. असं. प.
१
'
मि. असं.अ.
fl
असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के पर्याप्त आलाप.
१
नं. २०९
गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो.
५
७ ४ १ १
ति.
२
१
२
कुम. असं. चक्षु कुश्र. अच
असंत्री पंचेन्द्रिय जीवोंके अपर्याप्त आलाप.
वे.) क. ज्ञा. | संय. द.
२
१
३ | ४ कुम. असं
कु भु.
२
ओ.मि. कार्म.
आ. उ. २
१
१ १
ले. भ. स. संज्ञि. द्र. ६ २ भा. ३ भ. मि. असं. आहा. साका. अशु. अ.
अना.
चक्षु.
अच
ले. भ. २ द्र. २२
1
स.संज्ञि. आ.
उ. २
१
१
२
का. भ. मि. असं. आहा. साका.
शु. अ.
अना.
अना.
भा. ३
अशु.
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगदारे इंदिय-आलाववण्णणं [५८९
संपहि पंचिंदियलद्धिअपजत्ताणं अपजत्त-णामकम्मोदयाणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, दो जीवसमासा, छ अपजत्तीओ पंच अपजत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदि-तिरिक्खगदीओ त्ति दो गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दो जोग, णबुंसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्वेण काउसुक्कलेस्साओ, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो असणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुखजुत्ता वा।
सणिपंचिदिय-लद्धिअपज्जत्ताणमपज्जत्त-णामकम्मोदयाणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, दो गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दो जोग, णबुंसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दसण, दत्रेण काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्साओ; भवसिद्धिया
अपर्याप्त नामकर्मके उदयवाले पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, संक्षी-अपर्याप्त और असंज्ञी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां; सात प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, मनुष्यगति और तिर्यंचगति ये दो गतियां, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योगः नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभयसिद्धिका मिथ्यात्व, संक्षिक, असंशिका आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
अपर्याप्त नामकर्मके उदयवाले संशी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संजी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, मनुष्यगति और तिर्यंचगति ये दो गतियां, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक मिथ्यात्व,
नं. २१०
पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके आलाप. . | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. । यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले.म.स.सनि. आ. उ. ।
१ २ ६अ ७ ४ २ ११२१४ २ २ द्र. २ २ २ २ २ मि. सं. अ.५ ७ म. पंचे. त्रस. औ.मि... कुम. असं. चक्षु. का. म. मि. सं. आहा. साका. असं.
कार्म. कु. अच. शु. अ. असं. अना. अना.
भा.३ | अशु.
-
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
५९०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा"।
असण्णिपंचिंदिय-लद्धिअपज्जत्ताणमपज्जत्त-णामकम्मोदयाणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, पंच अपजत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दो जोग, णqसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असण्णिणो, आहारिणो, अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागावजुत्ता वा। अणिदियाणं सिद्ध-भंगो।
___ एवं विदियमग्गणा समत्ता । संशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
अपर्याप्त नामकर्मके उदयवाले असंज्ञी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्यातक जीवोंके आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक असंही-अपर्याप्त जीवसमास, पांच अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, असंक्षिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं। अनिन्द्रिय जीवोंके आलाप सिद्धोंके आलापोंके समान समझना चाहिए ।
इसप्रकार दूसरी इन्द्रिय मार्गणा समाप्त हुई । नं. २११
संशी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके आलाप. । गु. जी. प. प्रा. सं. ग. | ई. का. यो. वे. क. झा. | संय. द. ले. भ. स. | संहि. आ.| उ. ।
१६७४२|१ १.२२ ४ २ १ | २ द.२२/११/२ २ मि.सं.अ. अ. म. पंचे. त्रस. औ.मि... कुम. असं. | चक्षु. का. म. मि. | सं. आहा. साका.
शु. अ.
अना. अना.
मा.३ अशु.
नं.२१२
असंज्ञी पंचेन्द्रिय लब्ध्यर्याप्तक जीवोंके आलाप. । गु.| जी. | प. प्रा. सं. ग. ई. | का.. यो. । वे. क. ज्ञा. । संय. द. ले. भ. स. संशि. आ. | उ.
मि. असं. अ.
ति. पंचे. वस. औ.मि...
कार्म.
अ.
कुम. असं. चक्षु. का. म. मि. असं. आहा- साका. कुश्रु. अच. शु. अ.
अना. अना. भा.३ अशु.
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे काय-आलाववण्णणं [५९१ ___ कायाणुवादेण ओघालावे भण्णमाणे' अत्थि चोद्दस गुणहाणाणि, दो वा तिण्णि वा, चत्तारि वा छव्या, छन्ना णव वा, अट्ट वा बारह वा, दस वा पण्णारह वा, बारस वा अट्ठारह वा, चोद्दस वा एकव्वीस वा, सोलस वा चउवीस वा, अट्ठारह वा सत्तावीस वा, वीस वा तीस वा, बावीस वा तेत्तीस वा, चउवीस वा छत्तीस वा, छब्बीस वा एगुणचालीस वा, अट्ठावीस वा बायालीस वा, तीस वा पंचेतालीस वा, बत्तीस वा अट्ठ. तालीस वा, चउतीस वा एकपंचास वा, छत्तीस वा चउपचास वा, अट्टत्तीस वा सत्तपंचास वा जीवसमासा । दो जीवसमासेत्ति भणिदे पज्जत्ता अपज्जत्ता इदि सव्ये जीवा दुविहा भवंति, अदो दो जीवसमासा वुच्चंति। तिण्णि जीवसमासेत्ति वुत्ते णिव्यत्तिपज्जत्ता णिव्यत्ति. अपज्जत्ता लद्धिअपज्जत्ता इदि तिणि जीवसमासा हवंति । चत्तारि वा इदि वुत्ते तसकाइया दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता, थावरकाइया दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता इदि चत्तारि जीवसमासा। छव्या इदि वुत्ते दो णिव्यत्तिपज्जत्तजीवसमासा दो णिव्यत्तिअपज्जत्तजीवसमासा दो लद्धिअपज्जत्तजीवसमासा एवं छ जीवसमासा । अधवा थावर
कायमार्गणाके अनुवादसे ओघालाप कहने पर-चौदहों गुणस्थान होते हैं। दो अथवा तीन, चार अथवा छह, छह अथवा नौ, आठ अथवा बारह, दश अथवा पन्द्रह, बारह अथवा अठारह, चौदह अथवा इक्कीस, सोलहा अथवा चौवीस. अठारह अथवा सत्तावीस. बीस अथवा तीस, बावीस अथवा तेतीस, चौवीस अथवा छत्तीस, छब्बीस अथवा उनचालीस, अट्ठावीस अथवा बयालीस, तीस अथवा पैंतालं.स, बत्तीस अथवा अड़तालीस, चौतीस अथवा एकावन, छत्तीस अथवा चौपन, अडतीस अथवा सत्तावन जीवसमास होते हैं। आगे इन्हींका स्पष्टीकरण करते हैं
दो जीवसमास होते हैं ऐसा कहने पर पर्याप्तक और अपर्याप्तकके भेदसे सभी जीव दो प्रकारके होते हैं; अतएव दो जीवसमास कहे जाते हैं। तीन जीवसमास होते हैं ऐसा कहने पर निवृत्तिपर्याप्तक, नित्यपर्याप्तक और लध्यपर्याप्तक इसप्रकार तीन जीवसमास होते हैं। चार जीवसमास होते हैं ऐसा कहने पर त्रसकायिक जीव दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । स्थावरकायिक जीव दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक इसप्रकार चार जीवसमास कहे जाते हैं। छह जीवसमास होते हैं ऐसा कहने पर त्रस और स्थावरके दोनिवृत्तिपर्याप्तक जीवसमास, दो निर्वृत्यपर्याप्तक जीवसमास और दो लब्ध्यपर्याप्तक जीवसमास इसप्रकार छह जीवसमास कहे जाते हैं। अथवा, स्थावरकायिक जवि दो प्रकारके
१ प्रतिषु ओघालावे भण्णमाणे' इति पाठो नास्ति । २ प्रतिषु 'अट्ठावीस वा' इति पाठः । ३ प्रतिधु चोवीस वा तेत्तीस वा' इति पाठव्युतक्रमः। अत उपरि प्रतिषु चउतीस वा' इति पाठोऽधिकः । ४ प्रतिषु । एतालीस ' इति पाठः ।
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
५९२ ]
छखंडागमे जीवाण
[ १, १.
काइया दुविहा पज्जत्ता अपज्जन्त्ता, तसकाइया दुविहा सगलिंदिया विगलिंदिया, सगलिं, दिया दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता, विगलिंदिया दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता इदि छ जीवसमासा | तिष्णिणिव्यत्तिपज्जत्तजीवसमासा तिण्णि णिव्वत्तिअपज्जत्तजीवसमासा तिण्णि लद्धिअपज्जत्तजीवसमासा एवं णव जीवसमासा हवंति । थावरकाइया दुविहा बादरा सुहुमा, बादरा दुबिहा पज्जता अपज्जत्ता, सुहुमा दुविहा पज्जता अपज्जत्ता, तसकाइया दुविहा सगलिंदिया वियलिंदिया त्ति, सयलिंदिया दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता, विगलिंदिया दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता एवं अट्ठ जविसमासा । चत्तारि णिव्वत्तिपञ्जत्तजीवसमासा चत्तारि णिव्वत्तिअपज्जतजीव समासा चत्तारि लद्धिअपजत्तजीवसमासा एवं बारस जीवसमासा हवंति । थावरकाइया दुविहा बादरा सुहुमा, वादरा दुबिहा पत्ता अपजत्ता, सुहुमकाइया दुविहा पज्जत्ता अपजत्ता, तसकाइया दुविहा पंचिदिया अपंचिंदिया, पंचिंदिया दुविहा सण्णिणो असण्णिणो, सण्णिणो दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता, असणिणो दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता, अपंचिंदिया दुविहा पज्जत्ता अपज्जता एवं दस जविसमासा हवंति । पंच णिव्यत्तिपज्जत्तजीवसमासा पंच गिव्वत्तिअपज्जत
होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । जसकायिक जीव दो प्रकार के होते हैं, सकलेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय | सकलेन्द्रिय जीव दो प्रकार के होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । विकलेन्द्रिय जीव दो प्रकार के होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । इसप्रकार छह जीवसमास कहे जाते हैं । एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और सकलेन्द्रियके तीन निर्वृत्तिपर्याप्तक जीवसमास, तीन निर्वृत्यपर्याप्तक जीवसमास और तीन लब्ध्यपर्याप्तक जीवसमास इसप्रकार नौ जीवसमास होते हैं। स्थावरकायिक जीव दो प्रकार के होते हैं, बादर और सूक्ष्म । बादर जीव दो प्रकार के होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । सूक्ष्म जीव दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । त्रसकायिक जीव दो प्रकारके होते हैं, सकलेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय | सकलेन्द्रिय जीव दो प्रकार के होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । विकलेन्द्रिय जीव दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । इसप्रकार आठ जीवसमास होते हैं। बादर स्थावरकायिक, सूक्ष्म स्थावरकायिक, सकलेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों के चार निर्वृत्तिपर्याप्तक जीवसमास, चार निर्वृत्यपर्याप्तक जीवसमास और चार लब्ध्यपर्याप्तक जीवसमास इसप्रकार बारह जीवसमास होते हैं। स्थावरकायिक जीव दो प्रकारके होते हैं, बादर और सूक्ष्म । बादरकायिक जीव दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । सूक्ष्मकायिक जीव दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । त्रसकायिक जीव दो प्रकारके होते हैं, पंचेन्द्रिय और अपंचेन्द्रिय (विकलेन्द्रिय) । पंचेन्द्रिय जीव दो प्रकारके होते हैं, संशिक और असंशिक | संशिक जीव दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । असंशिक जीव दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । अपंचेन्द्रिय जीव दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । इसप्रकार दश जीवसमास होते हैं। बादर स्थावरकायिक, सूक्ष्म स्थावरकायिक, संक्षी
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १. संत-पख्वणाणुयोगदारे काय-आलाववण्णणं
[ ५९१ जीवसमासा पंच लद्धिअपज्जत्तजीवसमासा एवं पण्णारस जीवसमासा हवंति । पुढविकाइया दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता, आउकाइया दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता, तेउ काइया दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता, वाउकाइया दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता, वणप्फइकाइया दुविहा पज्जत्ता अपजत्ता, तसकाइया दुविहा पजत्ता अपजसा एवं बारस जीवसमासा हवंति । छ णिबत्तिपज्जत्तजीवसमासा छ णिव्यत्तिअपजत्तजीवसमासा छ लद्धिअपज्जत्तजीवसमासा एवमहारस जीवसमासा हवंति । एइंदिया दुविहा बादरा सुहुमा, बादरा दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता, सुहुमा दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता, वेइंदिया दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता, तेइंदिया दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता, चउरिदिया दुविहा पजत्ता अपज्जत्ता, पंचिंदिया दुविहा सणिणो असण्णिणो, सणिणो दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता, असणिणो दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता त्ति एवं चोद्दस जीवसमासा हवंति । सत्त णिव्वत्तिपज्जत्ता सत्त णिवत्तिअपज्जत्ता सत्त लद्धिअपजत्ता एदे सब्बे घेत्तूण
पंचेन्द्रिय, असंही पंचेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवोंके पांच निर्वृत्तिपर्याप्तक जीवसमास, पांच निर्वृत्यपर्याप्तक जीवसमास और पांच लब्ध्यपर्याप्तक जीवसमास इसप्रकार पन्द्रह जीवसमास होते हैं। पृथिवीकायिक जीव दो प्रकरके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । अप्कायिक जीव दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । तैजस्कायिक जीव दो प्रकारके होते हैं , पर्याप्तक और अपर्याप्तक। वायुकायिक जीव दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक। सकायिक जीव दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक इसप्रकार बारह जीवसमास होते हैं। छहों कायिक जीवोंकी अपेक्षा छ निर्वृत्तिपर्याप्तक जीवसमास, छ निर्वृत्यपर्याप्तक जीवसमास और छह लब्ध्यपर्याप्तक जीवसमास इसप्रकार अठारह जीवसमास होते हैं। एकेन्द्रिय जीव दो प्रकारके होते हैं, बादर और सूक्ष्म । बादर दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । सूक्ष्म दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । द्वीन्द्रिय जीव दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । त्रीन्द्रिय जीव दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । चतुरिन्द्रिय जीव दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । पंचेन्द्रिय जीव दो प्रकारके होते हैं, संशिक और असंशिक । संशिक जीव दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक। असंक्षिक जीव दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक। इसप्रकार चौदह जीवसमास होते हैं। बादर एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, संशी पंचेन्द्रिय और असंक्षी पंचेन्द्रिय इन सात प्रकारके जीवोंकी अपेक्षा सात निवृत्तिपर्याप्तक जीवसमास, सात निर्वृत्यपर्याप्तक जीवसमास और सात सध्यपर्याप्तक जीवसमास ये सब मिलकर इक्कीस जीवसमास होते हैं। पृथिवी
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
५९४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. एकवीस जीवसमासा हवंति । पुढविकाइया दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता, आउकाइया दुविहा पजत्ता अपजत्ता, तेउकाइया दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता, वाउकाइया दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता, वणप्फइकाइया दुविहा पत्तेयसरीरा साधारणसरीरा, पत्तेयसरीरा दुविहा पजत्ता अपजत्ता, साधारणसरीरा दुविहा पजत्ता अपज्जत्ता, तसकाइया दुविहा सयलिंदिया वियलिंदिया चेदि, सयलिंदिया दुविहा पअत्ता अपज्जत्ता, वियलिंदिया दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता चेदि एवं सोलस जविसमासा हवंति । णिव्यत्तिपजत्तजीवसमासा अट्ट, णिव्यत्तिअपज्जत्तजीवसमासा वि अट्ट, अट्टण्हमपज्जत्तजीवसमासाणं मज्झे अट्ट लद्धिअपज्जत्तजीवसमासा हवंति एवं चउवीस जीवसमासा । पुढविकाइया दुविहा पज्जत्ता अपजत्ता, आउकाइया दुविहा पज्जत्ता अपजत्ता, तेउकाइया दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता, वाउकाइया दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता, वणप्फदिकाइया दुविहा पत्तेयसरीरा साधारणसरीरा, पत्तेयसरीरा दुविहा बादरणिगोदपडिट्ठिदा बादरणिगोदअपडिट्टिदा चेदि, वादरणिगोदपडिद्विदा दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता,
कायिक जीव दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । अप्कायिक जीव दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । तैजस्कायिक जीव दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक
और अपर्याप्तक। वायुकायिक जीव दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक। वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकारके होते हैं, प्रत्येकशरीर और साधारणशरीर । प्रत्येकशरीर जीप दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक। साधारणशरीर जीव दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक। त्रसकायिक जीव दो प्रकारके होते हैं, सकलेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय । सकलेन्द्रिय जीव दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । विकलेन्द्रिय जीव दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक इसप्रकार सोलह जीवसमास होते हैं। पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, प्रत्येकवनस्पतिकायिक, साधारणवनस्पतिकायिक, सकलेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवोंकी अपेक्षा आठ निर्वृत्तिपर्याप्तक जीवसमास, आठ निवृत्यपर्याप्तक जीवसमास और आठ अपर्याप्तक जीवसमासोंमें आठ लब्ध्यपर्याप्तक जीवसमास होते हैं। इसप्रकार सब मिलाकर चौबीस जीवसमास होते हैं। पृथिवीकायिक जीव दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । जलकायिक जीव दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक। अग्निकायिक जीव दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । वायुकायिक जीव दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकारके होते हैं, प्रत्येकशरीर और साधारणशरीर । प्रत्येकशरीर जीव दो प्रकारके होते हैं, बादरनिगोदप्रतिष्ठित और बादरनिगोदअप्रतिष्ठित । बादरनिगोदप्रतिष्ठित जीव दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक।
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे काय-आलाववण्णणं
[ ५९५ बादरणिगोदपडिद्विदवदिरित्त-पत्तेयसरीरा दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता, साधारणसरीरा दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता, तसकाइया दुविहा वियलिंदिया सयलिंदिया चेदि, सयलिंदिया दुविहा पजत्ता अपजत्ता, वियलिंदिया दुविहा पञ्जत्ता अपजत्ता, एवमहारस जीवसमासा हवंति । णव णिव्यत्तिपज्जत्तजीवसमासा णव णिव्यत्ति-अपज्जत्तजीवसमासा णव लद्धि-अपज्जत्तजीवसमासा' एदे सव्वे वि घेतूण सत्तावीस जीवसमासा हवंति । पुबिल्ल-अट्ठारस-जीवसमासान्भंतरे साधारण वणप्फइपज्जत्तापज्जत्तजीवसमासे अवणिय साधारणवप्फइकाइया दुविहा णिचणिगोदा चदुगदिणिगोदा चेदि। णिच्चणिगोदा दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता, चदुगदिणिगोदा दुविहा पजत्ता अपज्जत्ता चेदि एदे चत्तारि जविसमासे पक्खित्ते वीस जीवसमासा हवंति । दस णिव्यत्तिपज्जत्तजीवसमासा दस णिव्वत्ति-अपज्जत्तजीवसमासा दस लद्धि-अपज्जत्तजीवसमासा एदे तीस जीवसमासा हवंति । पुढविकाइया आउकाइया तेउकाइया वाउकाइया वणप्फकाइया एदे सन्वे दुविहा
बादरनिगोदप्रतिष्ठितसे भिन्न अर्थात् बादरनिगोदअप्रतिष्ठितप्रत्येकशरीर जीव दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । साधारणशरीर जीव दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । त्रसकायिक जीव दो प्रकारके होते हैं, विकलेन्द्रिय और सकलेन्द्रिय । सकलेन्द्रिय जीव दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक। विकलेन्द्रिय जीव दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक। इसप्रकार ये अठारह जीवसमास होते हैं। पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, सप्रतिष्ठित प्रत्येकवनस्पतिकायिक, अप्रतिष्ठित प्रत्येकवनस्पतिकायिक, साधारणवनस्पतिकायिक, सकलेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय इन नौ प्रकारके जीवोंकी अपेक्षा नौ निवृत्तिपर्याप्तक जीवसमास, नौ निर्वृत्यपर्याप्तक जीवसमास और नौ लब्ध्यपर्याप्तक जीवसमास ये सब मिलाकर सत्तावीस जीवसमास होते हैं । पूर्वमें कहे गये अठारह जीवसमासोंमेंसे साधारणवनस्पतिकायिक जीवोंके पर्याप्तक और अपर्याप्तक ये दो जीवसमास निकाल कर साधारणवनस्पतिकायिक जीव दो प्रकारके होते हैं, नित्यनिगोद और चतुर्गतिनिगोद। नित्यनिगोद दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक। चतुतिनिगोद दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक। ये चार जीवसमास मिलाने पर बीस जीवसमास होते हैं। पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, सप्रतिष्ठित-प्रत्येकवनस्पतिकायिक, अप्रतिष्ठित-प्रत्येकवनस्पतिकायिक, नित्यनिगोद, चतुर्गातिनिगोद, विकलेन्द्रिय और सकलेन्द्रिय इन दश प्रकारके जीवोंकी अपेक्षा दश निर्वृत्तिपर्याप्तक जीवसमास, दश नित्यपर्याप्तक जीवसमास और दश लब्ध्यपर्याप्तक जीवसमास ये सब मिलाकर तीस जीवसमास होते हैं। पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक ये पांचों कायके जीव दो दो प्रकारके होते हैं, बादर
१ प्रतिषु ' णवलाद्ध...समासा' इति पाठो नास्ति ।
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
५९६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. बादरा सुहुमा त्ति, सब्बे बादरा सव्वे च सुहुमा पज्जत्ता अपज्जत्ता इदि चउबिहा हवंति, तसकाइया दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता चेदि एवमेदे बावीस जीवसमासा । णिव्वत्तिपज्जत्तजीवसमासा एकारह, णिव्यत्ति-अपज्जत्तजीवसमासा एक्कारह, लद्धिअपज्जत्तजीवसासा एक्कारह एवं तेत्तीस जीवसमासा हवंति। बावीस-जीवसमासाणमभतरे तसपज्जत्तापजत्तजीवसमासे अवणिय तसकाइया दुविहा हवंति समणा अमणा चेदि, समणा दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता, अमणा दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता एदे चत्तारि पक्खित्ते चउवीस जीबसमासा हवंति । बारस णिव्वत्तिपजत्तजीवसमासा वारस णिव्यत्ति-अपज्जत्तजीवसमासा वारस लद्धि-अपज्जत्तजीवसमासा एवमेदे छत्तीस जीवसमासा हवंति। पुबिल्ल-चउवीसण्हं मज्झे अमणाणं पज्जत्त-अपज्जत्त-दो-जीवसमासे अवणिय अमणा दुविहा सयलिंदिया वियलिंदिया चेदि, सयलिंदिया दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता, वियलिंदिया दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता चेदि एदे चत्तारि पक्खित्ते छव्वीस जीवसमासा हवंति । तेरस णिवत्तिपज्जत्तजीवसमासा तेरस णिव्यत्तिअपज्जत्तजीव
और सूक्ष्म । ये सभी बादर और सभी सूक्ष्म जीव पर्याप्तक और अपर्याप्तक होते हैं। इसप्रकार प्रत्येक एक एक कायके जीव चार चार प्रकारके हो जाते हैं। प्रसकायिक जीव दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । इसप्रकार ये सब मिलाकर बावीस जीव. समास हो जाते हैं। पृथिवीकायिक, जलकायिक. अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिकके बादर और सूक्ष्मके भेदसे दश भेद होते है और उसकायिक इन ग्यारह प्रकारके जीवोंकी अपेक्षा ग्यारह निर्वृत्तिपर्याप्तक जीवसमास, ग्यारह निर्वृत्यपर्याप्तक जीवसमास और ग्यारह लभ्यपर्याप्तक जीवसमास इसप्रकार सब मिलाकर तेतीस जीवसमास होते हैं। पूर्वोक्त बावीस जीवसमासोंमेंसे त्रसकायिक जीवोंके पर्याप्तक और अपर्याप्तक ये दो जीवसमास निकालकर त्रसकायिक जीव दो प्रकारके होते हैं, समनस्क (संशी) और अमनस्क (असंही)। समनस्क जीव दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक, अपर्याप्तक । अमनस्क जीव दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । ये चार जीवसमास मिलाने पर चौबीस जीवसमास होते हैं। पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवोंके बादर और सूक्ष्मके भेदसे दश भेद और समनस्क त्रसकायिक तथा अमनस्क त्रसकायिक इन बारह प्रकारके जीवोंकी अपेक्षा बारह निर्वृत्तिपर्याप्तक जीवसमास, बारह निर्वृत्यपर्याप्तक जीवसमास और बारह लब्ध्यपर्याप्तक जीवसमास ये सब मिलाकर छत्तीस जीवसमास होते हैं। पूर्वोक्त चौबीस जीवसमासोंमेंसे अमनस्क जीवोंके पर्याप्तक
और अपर्याप्तक ये दो जीवसमास निकाल कर अमनस्क जीव दो प्रकारके होते हैं, सकलेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय । सकलेन्द्रिय जीव दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । विकलेन्द्रिय जीव दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक। इन चार जीवसमासोको मिला देने पर छब्बीस जीवसमास होते हैं। पांचो स्थावरकायिक जीवोंके बादर और
.
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे काय आलाववण्णणं
[ ५९७
समासा तेरस लद्धिअपज्जत्तजीवसमासा एवमेदे सच्चे घेतूण एगूणचालीस जीवसमासा हवंति । छब्बीसहं मज्झे वणप्फइकाइयाणं चत्तारि जीवसमासे अवणिय वण फइकाइया दुविहा पत्तेयसरीरा साधारणसरीरा, पत्तेयसरीरा दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता, साधारणसरीरा दुविहा बादरा सुहुमा, ते दुबिहा पज्जत्ता अपज्जत्ता चेदि एदे छ जीवसमासे पक्खित्ते अट्ठावीस जीवसमासा हवंति । चोद्दस णिव्वत्तिपज्जतजीवसमासा चोद्दस णिव्यत्ति-अपज्जत्तजीवसमासा चोइस लद्धि- अपज्जत्तजीवसमासा एवमेदे बायालीस जीवसमासा | अट्ठावीसहं मज्झे पत्तेयसरीर-पज्जत्तापज्जत्ता दो जीवसमासे अवणिय पत्तेयसरी दुविहा बादरणिगोयजोणिणो तेसिमजोणिणो चेदि, तेवि सव्वे दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता इदि एदे चत्तारि भंगे पक्खित्ते तीस जविसमासा हवंति । णिव्वत्तिपज्जत्तजीवसमासा पण्णारस, णिव्यत्ति-अपज्जत्तजीवसमासा पण्णारस, लद्धि- अपज्जत्तजीव
सूक्ष्मके भेदले दश भेद तथा विकलेन्द्रिय, असमनस्क पंचेन्द्रिय और समनस्क पंचेन्द्रिय इन तेरह प्रकारके जीवोंकी अपेक्षा तेरह निर्वृत्तिपर्याप्तक जीवसमास, तेरह निर्वृत्यपर्याप्तक जीवसमास और तेरह लब्ध्यपर्याप्तक जीवसमास इसप्रकार ये सब मिलाकर उनतालीस जीवसमास होते हैं । छब्बीस जीवसमासोंमेंसे वनस्पतिकायिक जीवोंके चार जीवसमास निकाल कर वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकारके होते हैं, प्रत्येकशरीर और साधारणशरीर । प्रत्येकशरीर वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकारके होते हैं पर्याप्तक और अपर्याप्तक । साधारणशरीर वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के होते हैं बादर और सूक्ष्म । ये दोनों प्रकारके जीव भी दो दो प्रकारके होते हैं पर्याप्तक और अपर्याप्तक । ये छह जीवसमास मिला देने पर अट्ठावीस जीवसमास होते हैं । पृथिर्व (कायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और साधारणवनस्पतिकायिक जीवोंके बादर और सूक्ष्मके भेद से दश भेद, प्रत्येकवनस्पतिकायिक, विकलेन्द्रिय, समनस्कपंचेन्द्रिय और अमनस्कपंचेन्द्रिय इन चौदद्दों प्रकारके जीवों की अपेक्षा चौदह निर्वृत्तिपर्याप्त जीवसमास, चौदह निर्वृत्यपर्याप्तक जीवसमास और चौदह लब्ध्यपर्याप्त जीवसमास इसप्रकार ये सब मिलाकर व्यालीस जीवसमास होते हैं । पूर्वोक्त अट्ठावीस जीवसमासोंमेंसे प्रत्येकवनस्पतिकायिक जीवोंके पर्याप्तक और अपर्याप्तक ये दो जीवसमास निकाल कर प्रत्येकशरीर जीव दो प्रकारके होते हैं, बादरनिगोदयोनिक और बादरनिगोद अयोनिक। वे भी सब दो दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । इस प्रकार ये चार भंग मिला देने पर तीस जीवसमास होते हैं । पृथिवीकायिक, जलकायिक, अनिकायिक, वायुकायिक और साधारणशरीर इनके बादर और सूक्ष्म के भेदसे दश भेद तथा सप्रतिष्ठित-प्रत्येक वनस्पति और अप्रतिष्ठित - प्रत्येकवनस्पति, विकलेन्द्रिय, अमनस्कपंचेन्द्रिय और समनस्क पंचेन्द्रिय इसप्रकार इन पन्द्रह प्रकारके जीवोंकी अपेक्षा पन्द्रह निर्वृतिपर्याप्तक जीवसमास, पन्द्रह निर्वृत्यपर्याप्तक जीवसमास और पन्द्रह लब्ध्यपर्याप्तक जीवसमास
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
५९८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. समासा पण्णारस एवमेदे सव्वे वि पंचेदालीस जीवसमाला हवंति । पुढवि-आउ-तेउ-वाउसाधारणसरीरवणप्फइकाइया पत्तेयं पत्तेयं बादर-सुहुमपज्जत्तापज्जत्तभेदेण चउबिहा हवंति, पत्तेयसरीरा वेइंदिय-तेइंदिय-चउरिंदिय-असण्णिपंचिंदिय-सण्णिपंचिंदिया पत्तेयं पत्तेयं पज्जत्ता अपज्जत्ता दुविहा हवंति एदे सव्वे मिलिदे वत्तीस जविसमासा हवंति । सोलस णिव्वत्तिपज्जत्तजीवसमासा सोलस णिव्यत्ति-अपज्जत्तजीवसमासा सोलस लद्धि-अपजत्तजीवसमासा च मेलिदे अट्ठतालीस जीवसमासा हवंति । वत्तीस-जीवसमासेसु पत्तेयसरीरदो-जीवसमासे अवणिय पत्तेयसरीरा दुविहा बादरणिगोदजोणिणो तेसिमजोणिणो चेदि, ते च पत्तेयं पज्जत्तापज्जत्तभेदेण दुविहा एदे चत्तारि पक्खित्ते चोत्तीस जीवसमासा हवंति। सत्तारस णिव्यत्तिपज्जत्ता सत्तारस णिव्यत्ति-अपज्जत्ता सत्तारस लद्धि-अपज्जत्ता एदे सव्वे एकावण जीवसमासा हवंति। पुढवि-आउ-तेउ-बाउ-णिचणिगोद-चउगदिणिगोदा बादरा
इसप्रकार ये सब मिलाकर पैंतालीस जीवसमास होते हैं। पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और साधारणशरीरवनस्पतिकायिक ये पांच प्रकारके जीव पृथक् पृथक् बादर, सूक्ष्म और उनमें भी पर्याप्तक और अपर्याप्तक इसप्रकार चार चार प्रकारके होते हैं। प्रत्येकशरीरवनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंही पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय ये छहों प्रत्येक प्रत्येक पर्याप्तक और अपर्याप्तकके भेदसे दो दो प्रकारके होते हैं। इसप्रकार ये सब मिलाने पर बत्तीस जीवसमास होते हैं। पृथिवीकायिक जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और साधारणशरीर-वनस्पतिकायिक जीवोंके बादर और सूक्ष्मके भेदसे वश भेदरूप तथा प्रत्येकशरीर वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंत्री-पंचेन्द्रिय और संशी-पंचेन्द्रिय जीवोंकी अपेक्षा सोलह निर्वृत्तिपर्याप्तक जीवसमास, सोलह निर्वृत्यपर्याप्तक जीवसमास और सोलह लब्ध्यपर्याप्तक जीवसमास इसप्रकार ये सब मिला देने पर अड़तालीस जीवसमास होते हैं। पूर्वोक्त बत्तीस जीवसमासों से प्रत्येकशरीरसंबन्धी पर्याप्तक और अपर्याप्तक ये दो जीवसमास निकाल कर प्रत्येकशरीरवनस्पतिकायिक जीव दो प्रकारके होते हैं, बादरनिगोदयोनिक (प्रतिष्ठित) और बादरनिगोद अप्रतिष्ठित । वे दोनों पर्याप्तक और अपर्याप्तकके भेदसे दो दो प्रकारके होते हैं। ये चार जीवसमास मिला देने पर चौतीस जीवसमास होते हैं । पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, और साधारणवनस्पतिकायिकके बादर और सूक्ष्मके भेदसे दश भेदरूप तथा सप्रतिष्ठित प्रत्येक-वनस्पतिकायिक, अप्रतिष्ठितप्रत्येक-वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंशिकपंचेन्द्रिय और संक्षिकपंचेन्द्रिय जीवोंको अपेक्षा सत्रह निर्वृत्तिपर्याप्तक जीवसमास, सत्रह निर्वृत्यपर्याप्तक जीवसमास और सत्रह लब्ध्यपर्याप्तक जीवसमास ये सब मिलाकर इकावन जीवसमास होते हैं। पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, नित्यनिगोद.
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे काय-आलाववण्णणं
[ ५९९ सुहुमा च पज्जत्तापज्जत्तभेएण दुविहा हवंति, पत्तेयवणप्फदि-इंदिय-तेइंदिय-चउरिंदियअसण्णि-सण्णि पंचिंदिय-पजत्तापजत्तभेएण एदे वि पत्तेयं दुविहा हवंति एदे सव्वे वि छत्तीस जीवसमासा हवंति । अहारह णिव्यत्तिपजत्तजीवसमासा, तेत्तिया चेव णिव्यत्तिअपजत्तजीवसमासा वि अट्ठारह, लद्धि-अपज्जत्तजीवसमासा वि अट्ठारह सव्वेदे एगट्टे कदे चउपण्ण जीवसमासा । पुणो पत्तेयसरीर-दो-जीवसमासे छत्तीस-जीवसमासेसु अवणिय पत्तेयसरीरबादरणिगोद-पदिदिदापदिहिद'-पज्जत्तापञ्जत्त-सण्णिद-चदुसु जीवसमासेसु पक्खि. त्तेसु अदृत्तीस जीवसमासा हवति । एत्थ एगुणवीस णिव्यत्तिपज्जत्तजीवसमासा, तेत्तिया चेव णिव्यत्ति-अपजत्तजीवसमामा हवंति, लद्धि-अपज्जत्तजीवसमासा वि तेत्तिया
साधारणवनस्पतिकायिक और चतुर्गतिनिगोदसाधारणवनस्पतिकायिक ये छहों प्रकारके जीव बादर और सूक्ष्मके भेदसे बारह प्रकारके होते हैं। और वे प्रत्येक पर्याप्तक और अपर्याप्तकके भेदसे दो दो प्रकारके होते हैं। प्रत्येकवनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंही-पंचेन्द्रिय और संशी-पंचेन्द्रिय जीव ये सभी पर्याप्तक और अपर्याप्तकके भेदसे दो दो प्रकारके होते हैं। इसप्रकार उक्त चौबीस और निम्न बारह ये सभी जीवसमास मिलाकर छत्तीस जीवसमास होते हैं। पृथिवीकायिक, जलकायिक, तैजस्कायिक, वायुकायिक, नित्यनिगोद साधारणवनस्पतिकायिक और चतुर्गतिनिगोद साधारणवनस्पतिकायिकके बादर
और सूक्ष्म भेद, प्रत्येकवनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंशी-पंचेन्द्रिय और संशी-पंचेन्द्रिय जीवोंकी अपेक्षा अठारह निर्वृत्तिपर्याप्तक जीवसमास, उतने ही अठारह निर्वृत्यपर्याप्तक जीवसमास और अठारह लब्ध्यपर्याप्तक जीवसमास ये सब इकडे करने पर चौपन जीवसमास होते हैं। पूर्वोक्त छत्तीस जीवसमासों से प्रत्येकशरीरसंबन्धी पर्याप्तक और अपर्या प्तक ये दो जीवसमास निकाल कर प्रत्येकशरीरसंबन्धी बादरनिगोद प्रतिष्ठित और भप्रतिष्ठित इन दोनोंके पर्याप्तक और अपर्याप्तक इन चार जीवसमासोंके मिलाने पर अड़तीस जीवसमास होते हैं। पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, नित्यनिगोद साधारणशरीरवनस्पतिकायिक और चतुर्गतिनिगोद साधारणशरीरवनस्पतिकायिक जीवोंके बादर और सूक्ष्म भेदरूप तथा सप्रतिष्ठित प्रत्येकवनस्पतिकायिक, अप्रतिष्ठित प्रत्येकवनस्पतिकायिक द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंही-पंचेन्द्रिय और संशी-पंचेन्द्रिय जीवोंसंबन्धी उन्नीस निर्वृत्तिपर्याप्तक जीवसमास होते हैं, उन्नीस ही निवृत्यपर्याप्तक जीवसमास होते हैं और उन्नीस ही लब्ध्यपर्याप्तक जीवसमास होते हैं। ये सब मिलाकर सत्तावन जीवसमास होते
१ प्रतिषु · पदिविद-पज्जना-' इति पाठः ।
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
६०० ]
छक्खडागमे जीवाणं
[ १, १०
चैव सव्वेदे सत्तावण्ण जीवसमासा हवंति । एदे' जीवसमासमेया' सव्व-ओधेसु वत्तव्वा ।
छ पजत्तीओ छ अपजतीओ पंच पजत्तीओ पंच अपजत्तीओ चत्तारि पज्जतीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण णव पाण सत्त पाण अट्ठ पाण छ पाण सत्त पाण पंच पाण छ पाण चत्तारि पाण चत्तारि पाण तिष्णि पाण चत्तारि पाण दो पाण एग पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अस्थि, चत्तारि गदीओ, एइंदियजादि -आदी पंच जादीओ, पुढविकायादी छक्काया, पण्णारह जोग अजोगो वि अस्थि, तिणि वेद अवगदवेदो वि अस्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अत्थि, अट्ठ णाण, सत्त संजम, चत्तारि दंसण, दव्व-भावेहि छ लेस्साओ अलेस्सा वि अस्थि, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सणणो असणिणो णेव सणिणो णेव असणणो वि अस्थि, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा सागार - अणागारेहि जुगव
हैं। ये उपर्युक्त जीवसमासोंके भेद समस्त ओघालापोंमें कहना चाहिए ।
जीवसमास आलापके आगे संशी पंचेन्द्रिय जीवोंके पर्याप्तकाल में और अपर्याप्तकाल में छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; असंज्ञी पंचेन्द्रिय और विकलत्रय जीवोंके पर्याप्त अपर्याप्तकालमें क्रमशः पांच पर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां: एकेन्द्रिय जीवोंके पर्याप्त अपर्याप्तकाल में क्रमशः चार पर्याप्तियां; चार अपर्याप्तियांः संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंके पर्याप्त अपर्याप्तकालमें क्रमशः दशों प्राण, सात प्राण; असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंके पर्याप्त अपर्याप्तकालमें क्रमशः नौ प्राण, सात प्राणः चतुरिन्द्रिय जीवोंके पर्याप्त अपर्याप्तकाल में क्रमशः आठ प्राण, छह प्राणः श्रीन्द्रिय जीवोंके पर्याप्त अपर्याप्तकालमें क्रमशः सात प्राण, पांच प्राणः द्वीन्द्रिय जीवोंके पर्याप्त अपर्याप्तकालमें क्रमशः छह प्राण, चार प्राणः एकेन्द्रिय जीवोंके पर्याप्त अपर्याप्तकालमें क्रमशः चार प्राण, तीन प्राणः सयोगकेवली जिनोंके चार प्राण, तथा समुद्धातकी अपर्याप्त अवस्थामें दो प्राण और अयोगकेवली जिनोंके एक आयु प्राण होता है । चारों संज्ञाए तथा क्षीणसंज्ञास्थान भी है, चारों गतियां, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छहों काय, पन्द्रहों योग तथा अयोगस्थान भी है, तीनों वेद तथा अपगत वेदस्थान भी है, चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है, आठों ज्ञान, सातों संयम, चारों दर्शन, द्रव्य और भावसे छहीं लेश्याएं तथा अलेश्यास्थान भी है, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, छहों सम्यक्त्व, संशिक असंक्षिक तथा संशिक और असंज्ञिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी स्थान है,
१ प्रतिपु ' वीए' इति पाठः ।
२ सामण्णजीव तसथावरेषु इगिबिगलसयलचरिमदुगे । इंदियकाये परिमस्त य दुतिचदुपणगभेद मुदे ॥ पणजुगले तससहिये तसस्स दुतिश्चदुरपणगभेदजदे । छददुगपत्तेयम्हि य तसस्स तियचदुरपणगभेदजुदे || सगजुगलम्हि तसस्स य पणभंगजुदेसु होंति उणवीसा । एयादुणवसोति य इगिवितिगुणिदे हवे ठाणा || सामण्णेण तिपंती पदमा बिदिया अपुण्णगे इदरे । पज्जचे लद्धिअपज्जतेऽपढमा हवे पंती ॥ गो. जी. ७५ ७८०
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे काय-आलाववण्णणं
[६०१ दुवजुत्ता वा।
तेंसि चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि चोदस गुणट्ठाणाणि, एको वा दो या तिणि वा चत्तारि वा पंच वा छव्या सत्त वा अट्ट वा णव वा दस वा एकारह वा बारह वा तेरह वा चउद्दस वा पण्णारह वा सोलस वा सत्तारस वा अट्ठारह वा एगुणवीस वा जीवसमासा, छ पजत्तीओ पंच पञ्जत्तीओ चत्तारि पज्जत्तीओ, दस पाण णव पाण अट्ठ पाण सत्त पाण छ पाण चत्तारि पाण चत्तारि पाण एक पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अत्थि, चत्तारि गदीओ, एइंदियजादि-आदी पंच जादीओ, पुढविकायादी छक्काया, एगारह जोग अजोगो वि अस्थि, तिण्णि वेद अवगदवेदो वि अत्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अस्थि, अढ णाण, सत्त संजम, चत्तारि सण, दव्य-भावेहि छ लेस्साओ अलेस्सा वि अत्थि, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं,
आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी, अनाकारोपयोगी और साकार अनाकार इन दोनों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त भी होते हैं।
उन्हीं षट्-कायिक जीवोंके पर्याप्त कालसंबधी आलाप कहने पर-चौदहों गुणस्थान, पूर्वमें कहे गये पर्याप्तक जीवसंबन्धी एक, अथवा दो, अथवा तीन, अथवा चार, अथवा पांच, अथवा छह, अथवा सात, अथवा आठ, अथवा नौ, अथवा दश, अथवा ग्यारह, अथवा बारह, अथवा तेरह, अथवा चौदह, अथवा पन्द्रह, अथवा सोलह, अथवा सत्रह, अथवा अठारह, अथवा उन्नीस जीवसमास होते हैं, छहों पर्याप्तियां, पांच पर्याप्तियां और चार पर्याप्तियां पूर्वमें कहे गये पर्याप्तक जीवसंबन्धी दशों प्राण, नौ प्राण, आठ प्राण, सात प्राण, छह प्राण, चारप्राण, चार प्राण और एक प्राण; चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंशास्थान भी है, चारों गतियां, एकेन्द्रिय जाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छहों काय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग,
आदारिककाययोग, वैक्रियिककाययोग और आहारककाययोग ये ग्यारह योग और अयोगस्थान भी है। तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है, चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है, आठों शान, सातों संयम, चारों दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं तथा अलेश्यास्थान भी है, भव्यासिद्धिक, अभव्यासिद्धिक, छहों सम्यक्त्व, संक्षिक, असंक्षिक तथा संक्षिक और
नं. २१३
षटकायिक जीवोंके सामान्य आलाप. ।गुजी.प. प्रा. सं./ ग.) इं. का.यो. वे. क. ना. | संय. द. ले. भ. सं. संज्ञि. आ. उ. | १४५७ प.अ १०,७ ९,७/४
1१५३/४८७४द्र.६ २६ २ | २ | २
भा.६ भ. सं. आहा. साका. ५,५,६,४ ४,३
अले. अ. असं. अना. अना. ४,४४,२१
अनु.
| यु.उ.
क्षीणसं. ५
अयोग, अपग. अकषा.
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
६०२ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १,१.
सणिणो असण्णणो णेव सण्णिणो णेव असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुत्रजुत्ता वा सागार अणागारेहिं जुगवदुवजुत्ता वा " ।
तेसिं चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि पंच गुणड्डाणाणि, एगो वा दो वा, दोणि' वा चत्तारि वा, तिण्णि वा छव्वा, चत्तारि वा अट्ठ वा, पंच वा दस वा, छव्त्रा बारस वा, सत्त वा चोइस वा, अट्ठ वा सोलस वा, णव वा अट्ठारह वा, दस वा वीस वा, एक्कास वा बावीस वा, वारस वा चउवीस वा, तेरस वा छव्वीस वा, चोदस वा अट्ठावीस वा, पण्णारस वा तीस वा, सोलस वा बत्तीस वा, सत्तारस वा चोत्तीस वा, अट्ठारस वा छत्तीस वा, एगुणवीस वा अट्ठत्तीस वा जीवसमासाः छ अपज्जतीओ पंच
असंशिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी स्थान है, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी, अनाकारोपयोगी तथा साकार और अनाकार इन दोनों उपयोगों से युगपत् उपयुक्त भी होते हैं ।
विशेषार्थ - उपर सत्तावन जीवसमास बतला आये हैं उनमें उन्नीस जीवसमास पर्याप्तसंबन्धी है और अड़तीस अपर्याप्तसंबन्धी । उनमें से यहां पर्याप्तसंबन्धी उन्नीसका ही ग्रहण करना चाहिये। जिनका प्रकृतमें ' एक अथवा दो' इत्यादि रूपसे उल्लेख किया गया है ।
उन्हीं षट् कायिक जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, प्रमत्तसंयत और सयोगकेवली ये पांच गुणस्थान, पूर्व में कहे गये अपर्याप्तक जीवोंसंबन्धी एक अथवा दो, दो अथवा चार, तीन अथवा छह, चार अथवा आठ, पांच अथवा दश, छह अथवा बारह, सात अथवा चौदह, आठ अथवा सोलह, नौ अथवा अठारह, दश अथवा बीस, ग्यारह अथवा बाईस, बारह अथवा चौबीस, तेरह अथवा छबसि, चौदह अथवा अट्ठाईस, पन्द्रह अथवा तीस, सोलह अथवा बत्तीस, सत्रह अथवा चौतीस, अठारह अथवा छत्तीस, उन्नीस अथवा अड़तीस जीवसमास होते हैं। छहों अपर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां; सात प्राण, सात प्राण, छह
१ प्रतिषु ' तिष्णि ' इति पाठः ।
नं. २१४
गु. जी. प. प्रा. १४ १९ ६
१०
५ ९ ८
४७६
४ १
सं. ग. इं. का.
६
क्षाणस. २ |
षट्कायिक जीवोंके पर्याप्त आलाप.
४ ४ ५
यो. वे. क. ज्ञा. संय. द.
११
३
४ ८
७ ४
म. ४
व. ४
औ. १ वै. १
आ. १
अपग
अकषा.
ले. भ. स. संज्ञि.
६
द्र. ६ / २ भा. ६ भ.
अले. अ.
आ. उ.
२ २
आहा. साका.
असं अना. अना.
अनु.
यु. उ.
२
सं.
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे काय-आलाववण्णणं
[६०३ अपज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण छ पाण पंच पाण चत्तारि पाण तिणि पाण दो पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वा, चत्तारि गदीओ, एइंदियजादिआदी पंच जादीओ, पुढविकायादी छक्काय, चत्तारि जोग, तिणि वेद अवगदवेदो वा, चत्तारि कसाय अकसाओ वा, छ णाण, चत्तारि संजम, चत्तारि दंसण, दव्वेण काउसुक्कलेस्साओ, भावेण छ लेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, पंच सम्मत्तं, सण्णिणो असण्णिणो अणुभया वा, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा तदुभया वा।
प्राण, पांच प्राण, चार प्राण, तीन प्राण, दो प्राण; चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंशास्थान भी
चारों गतियां. एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां. प्रथिवीकाय आदि छहों काय, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र, आहारकमिश्र और कार्मण ये चार योग; तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है, चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है, विभंगावधि और मनः. पर्ययज्ञानके विना छह ज्ञान, असंयम, सामायिक, छेदोपस्थापना और यथाख्यात ये चार संयम; चारों दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे छहों लेश्याएं; भव्यसिद्धिका अभव्यसिद्धिक; सम्यग्मिथ्यात्वके विना पांच सम्यक्त्व, संक्षिक, असंशिक तथा अनुभयस्थान भी है; आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी, अनाकारोपयोगी और उभय उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त भी होते हैं।
विशेषार्थ- ऊपर जो सत्तावन जीवसमास कहे हैं उनमें अपर्याप्त सामान्यके उन्नीस हैं जिनका यहां पर 'एक अथवा दो, दो अथवा चार, इत्यादि संख्याओंके कथनमें आई हुई पूर्ववर्ती संख्याओंका एक, दो, तीन इत्यादि संख्याओंसे निर्देश किया है । अपर्याप्तके निवृत्यपर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्त ऐसे दो भेद कर लेने पर उनका निर्देश दो, चार, छह इत्यादि संख्याओंके द्वारा किया गया है। यहां पर इतना और समझ लेना चाहिये कि पूर्व पूर्ववर्ती संख्याएं जीवसमासोको सामान्यरूपसे और उत्तर उत्तरवर्ती संख्याएं उनको विशेषरूपसे बतलाती हैं। इसका यह अभिप्राय हुआ कि किसी भी संख्याके द्वारा संपूर्ण अपर्याप्त जीव संग्रहात कर लिये गये हैं। भिन्न भिन्न संख्याएं केवल उनके भेद-प्रभेदोंको सूचित करनेके लिये ही दी गई
नं.२१५
षट्कायिक जीवोंके अपर्याप्त आलाप. गु. जी. | प. प्रा. सं. ग. इं.का. यो. वे. ( क. ज्ञा. । | संय. द. | ले. भ. | स. संनि. आ. उ. ३८६अ.
औ मि...
में विभं असं. का. म. सम्य. सं. आहा. वै.मि. मनः. सामा. शु. अ. विना. असं. अना. अना. आ.मि. विना. छेदो.। भा.६/ अनु. कार्म.
यथा.
क्षीणसं.
अपग, अकषा.
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
६०४] छक्खंडागमे जीवहाणं
[१, १. मिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव अकाया त्ति मूलोघ-भंगो। णवरि मिच्छाइटिस्स तिविहस्स वि कायाणुवाद-मूलोघभुत्तजीवसमासा वत्तव्वा । णत्थि अणत्थ विसेसो।
"पुढयिकाइयाणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, चत्तारि जीवसमासा, चत्तारि पजत्तीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, चत्तारि पाण तिणि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, एइंदियजादी, पुढविकाओ, तिण्णि जोग, णqसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, अचक्खुदंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण किण्ह-णील-काउ
हैं। पर्याप्त जीवसमासके उन्नीस विकल्पों में भी यही क्रम जान लेना चाहिये । गोम्मटसार जीवकाण्डमें जीवसमासोंको बतलाते हुए तीन पंक्तियां कर दी हैं। पहली पंक्तिमें एक, दो, आदि उनीसतक जीवसमास लिये हैं और यह कथन सामान्यकी अपेक्षा किया है। दूसरी पंक्तिमें दो, चार आदि अड़तीसतक जीवसमास लिये हैं और यह कथन पर्याप्त और अपर्याप्त इन दो भेदोंकी अपेक्षा किया है। तथा तीसरी पंक्तिमें तीन, छह आदि सत्तावनतक जीवसमास लिये हैं और यह कथन पर्याप्त, निर्वृत्यपर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्त इन तीन भेदोंकी अपेक्षा किया है।
सामान्य षट्कायिक जीवोंके मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अकायिक अर्थात् सिद्ध जीवों तकके आलाप मूल ओघालापके समान ही जानना चाहिए । विशेष बात यह है कि सामान्य, पर्याप्त और अपर्याप्त इन तीनों ही प्रकारके मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप कहते समय कायानुवादके मूलोघालापमें कहे गये सभी जीवसमास कहना चाहिए। इसके अतिरिक्त अन्यत्र अन्य कोई विशेषता नहीं है।
पृथिवीकायिक जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, बांदरपृथिवीकायिक-पर्याप्त, बादरपृथिवीकायिक-अपर्याप्त, सूक्ष्मपृथिवीकायिक-पर्याप्त और सूक्ष्मपृथिवीकायिक-अपर्याप्त ये चार जीवसमास; चार पर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां; चार प्राण, तीन प्राण; चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, एकेन्द्रियजाति, पृथिवीकाय, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये तीन योग; नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, अचक्षुदर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे कृष्ण
नं. २१६
पृथिवीकायिक जीवोंके सामान्य आलाप.
| यो. के.क., ज्ञा. संय. द. ले.
म. स.संज्ञि. आ. |
उ.
ए. जी. | प. प्रा.
-
KARA
मि.ना.प.प. प.
ति.
, पृ. | औ....
पृ. | औ.२
कुम. असं. | अच. भा. ३ भ. मि. असं. आहा. साका. कुथु, | अशु, अ.
अना. | अना.
सू.प. अ. अ.
-
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे काय-आलाववण्णणं
[६०५ लेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा चत्तारि वि जीवसमासा, चत्तारि पज्जत्तीओ, चत्तारि पाण, चत्तारि सण्णा, तिरिक्खगदी, एइंदियजादी, पुढविकाओ, ओरालियकायजोगो, णqसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, अचखुदंसण, दव्वेण छ लेस्सा, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अमागारु. वजुत्ता वा ।
नील और कापोत लेश्याएं; भव्यासिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, असंशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उम्हीं पृथिवीकायिक जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्याहष्टि गुणस्थान, बांदरपृथिवीकायिक-पर्याप्त और सूक्ष्मपृथिवीकायिक-पर्याप्त ये दो जीवसमास, अथवा शुद्ध बादरपृथिवीकायिक पर्याप्त शुद्ध सूक्ष्मपृथिवीकायिक-पर्याप्त, खर बादरपृथिवीकायिक-पर्याप्त
और खर सूक्ष्मपृथिवीकायिक-पर्याप्त ये चार जीवसमास;चार पर्याप्तियां, चारप्राण, चारों संक्षाएं, तिर्यंचगति, एकेन्द्रियजाति, पृथिवीकाय, औदारिककाययोग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमाति
और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, अचक्षुदर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भाषसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिका मिथ्यात्व, असंशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
विशेषार्थ- ऊपर पृथिवीकायिक जीवोंके पर्याप्त आलाप कहते समय दो अथवा चार जीवसमास बतलाये हैं। उनमें दो जीवसमास बतलानेका कारण तो स्पष्ट ही है। परंतु विकल्पसे जो चार जीवसमास बतलाये गये हैं उसके दो कारण प्रतीत होते हैं एक तो यह कि गोम्मटसारकी जीवप्रबोधिनी टीकामें जीवसमासोंका विशेष वर्णन करते समय पृथिवीके शुद्धपृथिवी और खरपृथिवी ऐसे दो भेद किये हैं। ये दो भेद बादर और सूक्ष्मके भेदसे दो दो प्रकारके हो जाते हैं । इसप्रकार पर्याप्त अवस्था विशिष्ट इन चारों भेदोंके ग्रहण करने पर चार
म. २१७
पृथिवीकायिक जीवोंके पर्याप्त आलाप. | गु. जी. पं. प्रा. सं. ग. | इं. का. यो. । वे. क. झा. | संय. द. ले. म. स. संक्षि. आ.
उ.
मि. बा.प.
ति.
पृ. औदा.
कुम. असं. अच. भा.३ म. मि. असं. आहा. साका. कुभु. अशु. अ.
अना।
Page #299
--------------------------------------------------------------------------
________________
६०६ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, १.
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, चत्तारि अपज्जत्तीओ, तिष्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, एइंदियजादी, पुढविकाओ, दो जोग, णवुंसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, अचक्खुदंसण, दव्वेण काउ- सुक्कलेस्सा, भावेण किण्ह - गील- काउलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं,
जीवसमास हो जाते हैं। दूसरा कारण ऐसा प्रतीत होता है कि वीरसेनस्वामीने स्वयं बादर और सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीवोंके सामान्य, पर्याप्त और अपर्याप्त आलापों के अतिरिक्त बादर और सूक्ष्म पृथिवीकायिक निर्वृत्तिपर्याप्तक जीवों के सामान्य, पर्याप्त और अपर्याप्त इसप्रकार तीन प्रकारके आलाप और बतलाये हैं । इनमेंसे प्रथम सामान्यालापमें पर्याप्तक, निर्वृत्यपर्याप्तक और लब्ध्यपर्याप्तक इन तीनों प्रकारके जीवोंके आलापका अन्तर्भाव हो जाता है और निर्वृत्तिपर्याप्तक जीवोंके सामान्यालाप में पर्याप्तक और निर्वृत्यपर्याप्तक इन दो प्रकार के जीवोंके आलापों का ही अन्तर्भाव होता है। दूसरे पर्याप्तालापकी अपेक्षा प्रथम और द्वितीय दोनों पर्याप्तालापों में वास्तव में कोई विशेषता नहीं है, क्योंकि, निर्वृत्तिसे पर्याप्तक जीव ही दोनों जगह पर्याप्तरूपसे ग्रहण किये गये हैं । अपर्याप्तालापकी अपेक्षा प्रथम अपर्याप्तालाप में निर्वृत्यपर्याप्तक और लब्ध्यपर्याप्त इन दोनों प्रकारके जीवों के आलापोंका अन्तर्भाव होता है । परंतु निर्वृत्तिपर्याप्तक जीवोंके अपर्याप्तालाप में केवल एक निर्वृत्यपर्याप्तक कालसंबन्धी आलापोंका ही ग्रहण होता है । इनमें से निर्वृत्तिपर्याप्तककी अपर्याप्तावस्था में पर्याप्तनामकर्मका उदय तो रहता है परंतु उसकी पर्याप्तियां पूर्ण न होनेके कारण वह अपर्याप्त कहा जाता है । इसप्रकार निर्वृत्यपर्याप्तक पर्याप्तनामकर्मके उदयकी अपेक्षा पर्याप्त भी है । प्रतीत होता है कि इसी विवक्षाको ध्यान में रखकर वीर सेनस्वामीने यहां पर चार आलाप कहे हैं । यद्यपि प्रथम कल्पना गोम्मटसारकी जीवप्रबोधिनी टीका आधारसे दी गई है परंतु उसकी यहां पर मुख्यता प्रतीत नहीं होती है, क्योंकि, आगे जलकायिक जीवोंके आलाप पृथिवीकायिक जीवोंके आलापोंके समान बतलाये हैं । परंतु जल आदि उसी टीकामें शुद्ध आदि भेद नहीं किये हैं । अथवा इसी बात को ध्यान में रखकर उक्त टीकामें केवल पृथिवीके चार भेद किये गये हों। इसप्रकार पृथिवीकायिक जीवोंके दो या चार जीवसमास जान लेना चाहिये ।
उन्हीं पृथिवीकायिक जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, बादरपृथिवीकायिक अपर्याप्त और सूक्ष्मपृथिवीकायिक अपर्याप्त ये दो जीवसमास, चारों अपर्याप्तियां, तीन प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यचगति, एकेन्द्रियजाति, पृथिवीकाय, औदारिकामिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुत ये दो अज्ञान, असंयम, अचक्षुदर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, मिथ्यात्व असंज्ञिक,
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे काय आलाववण्णणं
[६०७ असणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा"।।
__ बादरपुढविकाइयाणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, चत्तारि पज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, चत्तारि पाण तिण्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, एइंदियजादी, बादरपुढविकाओ, तिणि जोग, णqसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अग्णाण, असंजम, अचक्खुदंसण, दव्वेण छ लेस्सा, भावेण किण्हणीलकाउलेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा" ।
आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और आनाकारोपयोगी होते हैं।
बादर पृथिवीकायिक जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, बादरपृथिवीकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो जीवसमास, चार पर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां; चार प्राण, तीन प्राण; चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, एकेन्द्रियजाति, बादरपृथिवीकाय, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये तीन योग; नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, अचक्षुदर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यासद्धिक, अभव्यसिद्धिक मिथ्यात्व, असंशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं. २१८
पृथिवीकायिक जीवोंके अपर्याप्त आलाप. 1 गु. जी. प. प्रा. सं. ग इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स संहि. आ. उ.1 १२४ ३ ४ १ १ १ १ १ ४ २ ११ द्र.२२१ २२ मि.बा.अ.अ. ति. एके. पृ. औ.मि... कुम. असं. अच. का. म.मि. असं. आहा. साका.
कार्म. कुश्रु. | शु. अ. अना. अना.
भा.३ अशु.
नं. २१९
बादरपृथिवीकायिक जीवोंके सामान्य आलाप.
| गु. जी. प. ग. ई. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. | संहि. आ. |१ २ ४ ४ ४ ११ १.३ १ ४ २ ११ द.६ २११२२ मि. बा. प.प. ३ ति. एके. पृ. औ. २. कुम. असं. अच. मा.३ म. मि. असं. आहा. साका.
कार्म.१ कुश्रु.
अशु. अ.
अना. अना.
Page #301
--------------------------------------------------------------------------
________________
६०८ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, १.
तेसिं चैव पत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणद्वाणं, एओ जीवसमासो, चत्तारि पजत्तीओ, चत्तारि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगई, एइंदियजादी, बादरपुढविकाओ, ओरालियकायजोगो, णत्रुंसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्गाण, असंजमो, अचक्खुदंसण, दव्त्रेण छ लेस्सा, भावेण किण्ह - णील- काउलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
२२०
२२१
* सिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, चत्तारि अपत्तीओ, तिष्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, एइंदियजादी, बादरपुढवि
उन्हीं बादरपृथिवीकायिक जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक बादरपृथिवीकायिक-पर्याप्त जीवसमास, चार पर्याप्तियां, चार प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, एकेन्द्रियजाति, बादरपृथिवीकाय, औदारिककाययोग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, अचक्षुदर्शन, द्रव्यसे छद्दों लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, मिध्यात्वः असंशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
उन्हीं बादरपृथिवीकायिक जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर -- एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक बादरपृथिवीकायिक अपर्याप्त जीवसमास, चार अपर्याप्तिर्या, तीन प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यचगति, एकेन्द्रियजाति, बादरपृथिवीकाय, औदारिकमिश्रकाययोग
नं. २२०
गु. जी. | प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. । वे.
१ १ ૪ ४ ४ १ १ १ १ मि. बा. प.
बादरपृथिवीकायिक जीवोंके पर्याप्त आलाप.
१
ति. एके. पू. औदा. नपुं.
नं. २२१
गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो.
१
१ १ ४ ३ ४ मि. बा.अ. अ.
बादरपृथिवीकायिक जीवोंके अपर्याप्त आलाप.
एक.
क. ज्ञा. संय. द.
ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ.
४ २ १ १
द्र. ६२ १ १ १
२
कुम. असं. अ. भा. इ.स. मि. असं. आहा. साका. कुश्रु. अशु. अ. अना.
वे. क. ज्ञा. संय. २
१ २ १ ४
पृ. औ.मि. कार्म.
द.
उ. २
१
द्र. २ २ १ १ २
कुम. असं. अच. का. भ. मि. असं. आहा. साका. कुक्ष. शु. अ. अना. अना. भा.३
अशु.
| ले. | म. स. संज्ञि. | आ.
Page #302
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे काय-आलाववण्णणं
[६०९ काओ, दो जोग, णqसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, अचक्खुदंसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिडिया, मिच्छत्तं, असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा।
एवं पादरपुढविणिव्वत्तिपज्जत्तस्स तिण्णि आलावा वत्तब्वा। बादरपुढविलद्धिअपज्जत्तस्स बादरेइंदिय-अपज्जत्त-भंगो । सुहुमपुढवीए सुहुमेइंदिय-भंगो । णवरि सुहुमपुढविकाइओ त्ति वत्तव्वं ।
आउकाइयाणं पुढवि-भंगो । णवरि सामण्णालावे भण्णमाणे आउकाइओ, दव्वेण काउ-सुक्क-फलिहवण्ण-लेस्साओ वत्तव्याओ । तेसिं चेव पज्जत्तकाले दव्वेण सुहुमआऊणं काउलेस्सा वा बादरआऊणं फलिहवण्णलेस्सा । कुदो ? घणोदधि-घणवलयागासपदिद-पाणीयाणं धवलवण्ण-दसणादो । धवल-किसण-णील-पीयल-रत्ताब-पाणीय-दसणादो ण धवलवण्णमेव पाणीयमिदि के वि भणंति, तण्ण घडदे । कुदो ? आयारभावे
और कार्मणकाययोग ये दो योगः नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्नुत ये दो अज्ञान, असंयम, अचक्षुदर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक मिथ्यात्व, असंशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
इसीप्रकार बादर पृथिवीकायिक निर्वृत्तिपर्याप्तक जीवोंके सामान्य, पर्याप्त और अपर्याप्त ये तीन आलाप कहना चाहिये। बादर पृथिवीकायिक लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके आलाप बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके आलापोंके समान जानना चाहिए। सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीवोंके आलाप सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंके आलापोंके समान जानना चाहिए । विशेषता यह है कि 'सूक्ष्म एकेन्द्रिय' के स्थानपर 'सूक्ष्म पृथिवीकायिक' ऐसा आलाप कहना चाहिए।
___ अप्कायिक जीवोंके आलाप पृथिवीकायिक जीवोंके आलापोंके समान समझना चाहिए । विशेष बात यह है कि सामान्य आलाप कहते समय 'पृथिवीकायिक' के स्थानपर 'अप्कायिक' और लेश्या आलाप कहते समय द्रव्यसे अपर्याप्तकालमें कापोत और शुक्ल लेश्याएं और पर्याप्तकालमें स्फटिकवर्णवाली अर्थात् शुक्ल लेश्या कहना चाहिए। उन्हीं सूक्ष्म अप्कायिक जीवोंके पर्याप्तकालमें द्रव्यसे कापोत लेश्या कहना चाहिए। तथा बादरकायिक जीवोंके स्फटिकवर्णवाली शुक्ल लेश्या कहना चाहिए, क्योंकि, घनोदधिवात और घनवलयवात द्वारा आकाशसे गिरे हुए पानीका धवलवर्ण देखा जाता है। यहां पर कितने ही आचार्य ऐसा कहते हैं कि, धवल, कृष्ण, नील, पीत, रक्त और आताम्र वर्णका पानी देखा जानेसे पानी धवलवर्ण ही होता है, ऐसा कहना नहीं बनता है ? परंतु उनका यह
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
६१०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. मट्टियाए संजोगेण जलस्स बहुवण्ण-ववहार-दंसणादो । आऊणं सहाववण्णो पुण धवलो चेत्र ।
__ एवं चेव बादरआउकायस्स वि तिण्णि आलावा वत्तव्या । णवरि पजत्तकाले दव्वेण फलिहलेस्सा एक्का चेव । णत्थि अण्णत्थ विसेसो । बादरआउकाइयणिव्यत्तिपञ्जत्ताणं पि तिण्णि आलावा एवं चेव वत्तव्या। बादरआउलद्धिअपज्जत्ताणं बादरआउणिव्यत्तिअपज्जत्त-भंगो । सुहुमआउकाइयाणं सुहुमपुढविकाइय-भंगो। सुहुमआउकाइयणिव्यत्तिपञ्जत्तापजत्ताणं सुहुमआउकाइयलद्धिअपज्जत्ताणं च सुहुमपुढविपज्जत्तापज्जत्त-भंगी।
तेउकाइयाणं तेसिं चेव पज्जत्तापज्जत्ताणं बादरतेउकाइयाणं तेसिं चेव पज्जत्तापञ्जत्ताणं च पज्जत्त-णामकम्मोदयतेउकाइयाणं' तेसिं चेव पज्जत्तापज्जत्ताणं बादरतेउलद्धिअपजत्ताणं च, आउकाइयाणं तेसिं चेत्र पज्जत्तापज्जत्ताणं बादरआउकाइयाणं तेर्सि चेव पज्जत्तापज्जत्ताणं पञ्जत्तणामकम्मोदयआउकाइयाणं तेसिं चेव पजत्तापजत्ताणं
कहना युक्ति-संगत नहीं है। क्योंकि, आधारके होने पर मट्टीके संयोगसे जल अनेक वर्णवाला हो जाता है ऐसा व्यवहार देखा जाता है। किन्तु जलका स्वाभाविक वर्ण धवल ही है।
इसप्रकार बादर अप्कायिक जीवोंके भी सामान्य, पर्याप्त और अपर्याप्त ये तीन आलाप कहना चाहिए। विशेष बात यह है कि उनके पर्याप्तकालमें द्रव्यसे एक स्फटिक वर्णवाली शुक्ल लेश्या ही होती है, इसके सिवाय अन्य पृथिवीकायिकके आलापोंसे अप्कायिकके अन्य आलापोंमें और कोई विशेषता नहीं है। इसीप्रकार बादर अप्कायिक निवृत्तिपर्याप्तक जीवोंके उक्त तीन आलाप कहना चाहिए। बादर अप्कायिक लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके आलाप अप्कायिक निवृत्यपर्याप्तक जीवोंके आलापोंके समान समझना चाहिए। सूक्ष्म अप्कायिक जीवोंके आलाप सूक्ष्मपृथिवीकायिक जीवोंके आलापोंके समान होते हैं। सूक्ष्म अप्कायिक निवृत्तिपर्याप्तक, सूक्ष्म अप्कायिक निर्वृत्यपर्याप्तक और सूक्ष्म अप्कायिक लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके आलाप सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीवोंके पर्याप्त और अपर्याप्त आलापोंके समान जानना चाहिए।
तेजस्कायिक जीवोंके और उन्हीं पर्याप्तक अपर्याप्तक जीवोंके, बादरतैजस्कायिक जीवोंके और उन्हीं बादरतैजस्कायिक पर्याप्तक अपर्याप्तक जीवोंके, पर्याप्त नामकर्मके उदयवाले तैजस्कायिक जीवोंके और उन्हींके पर्याप्त अपर्याप्त भेदोंके तथा बादर तैजस्कायिक लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके आलाप अपकायिक जीवोंके और उन्हींके पर्याप्तक अपर्याप्तक भेटोंके. बादर अप्कायिक जीवोंके और उन्हींके पर्याप्तक अपर्याप्तक भेदोंके, पर्याप्त नामकर्मके उदयवाले अप्कायिक जीवोंके और उन्हींके पर्याप्तक अपर्याप्तक भेदोंके, तथा बादर अप्कायिक
१ प्रतिषु पञ्जतापज्जतणामकम्मोदयाणं ' इति पाठः ।
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूषणाणुयोगदारे काय-आलावषण्णणे
(१११ बादरआउकाइयलद्धिअपअत्ताणं च जहाकमेण भंगो। णवरि तेउकाइयाणं दवण काउसुक्क तवणिजलेस्साओ। तेसिं चेव पजत्ताणं दव्वेण काउ-तवणिजलेस्साओं । एवं पजत्तणामकम्मोदयाण दोण्हं पि वत्तव्यं । बादरकाइयाणं तेउ-भंगो । एवं चेव सिंपज्जत्ताणं । णवरि दव्येण तवणिज्जलेस्सा । एवं पज्जत्तणामकम्मोदयाणं पि दव्व लेस्सा वत्तव्या।
सुहुमतेउकाइयाणं सुहुमआउकाइयाणं सुहुम-भंगो । वाउकाइयाणं तेउ-मंगो। णवरि दवेण काउ-सुक्क-गोमुत्त-मुग्गवण्णलेस्साओ । तेसिं पज्जचाणं फाउ-गोमुत
लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके आलापोंके समान यथाक्रमसे जानना चाहिए।
विशेषार्थ-तैजस्कायिक जीवोंके आलाप अप्कायिक जीवोंके आलापोंके समान होते हैं, इस बातके ध्वनित करनेके लिये मूलमें 'इव' या 'सदृश' ऐसा के.ई प ठ नहीं दिया है। परंतु पहले अकायिक जीवोंके संपूर्ण भेद-प्रभेदोंके आलाप कह आये हैं और यहां तेजस्कायिक जीवोंके आल.पोंके कथन करनेका प्रकरण है, इसलिये प्रकृतमें तैजस्कायिक जीवोंके भेद-प्रभेदोंके
आप अप्कायिक जीवोंके भेद-प्रभेदोंके आलापोंके समान बतलाये हैं यही समझना चाहिए । मूलमें आये हुए 'जहाकमेण' पदसे भी इसी कथनकी पुष्टि होती है।
विशेष बात यह है कि तैजस्कायिक जीवोंके द्रव्यसे कापोत. शुक्ल और तपनीय लेश्या होती है। तथा उन्हीं पर्याप्तक सूक्ष्मजीवोंके द्रव्यसे कापोतलेश्या और पर्याप्तक बादरजीवोंके तपनीय लेश्या होती है। इसीप्रकार पर्याप्त नामकर्मके उदयवाले सामान्य और पर्याप्त इन दोनोंही प्रकारके तैजस्कायिक जीवोंके द्रव्यलेश्या कहना चाहिए । वादर तेजस्कायिक जीवोंके आलाप सामान्य तैजस्कायिकके आलापोंके समान जानना चाहिए । इसीप्रकार बादर तैजस्कायिक पर्याप्त जीवोंके आलाप भी होते हैं। विशेषता यह है कि इनके द्रव्यसे तपनीय अर्थात् शुक्ललेश्या होती है। इसीप्रकारसे पर्याप्त नामकर्मके उदयवाले तेजस्कायिक जीवोंके भी द्रव्यलेश्या कहना चाहिए।
सूक्ष्म तैजस्कायिक जीवेंके आलाप सूक्ष्म अप्कायिक जीवेंके आलापोंके समान जानना चाहिए । वायुकायिक जोके आलाप तैजस्कायिक जीवोंके आलापोंके समान जानना चाहिए । विशेष बात यह है कि द्रव्यसे कापत, शुक्ल, गोमूत्र और मूंगके वर्णव.लो लेश्याएं होती हैं। उन्हीं पर्याप्तक सूक्ष्म जीवोंके कापोतलेश्या और बादर पर्याप्त जीवोंके गोमूत्र
१बादरआऊतऊ सुक्का तेऊ यxx| गो. जी. ४९७.
२ तत्र घनोदधयो मुद्गसन्निभाः, धनवाता गोमूत्रवर्णाः, अव्यक्तवर्णास्तनुवाताः। त. रा.वा. ३.... xx वायुकायाणं | गोमुत्तमुग्गवण्णा कमसो अश्वत्तवण्णो य । गो.जी. ४९७. गोमुत्तमुग्गणाणावण्णाण घणंबुषणतणूण हवे । वादाण वलयतयं रुक्खस्स तयं व लोगस्स ।। त्रि. सा. १२३.
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
६१२ ]
छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, १.
मुग्गवण्णलेस्साओ । एवं बादरवाऊणं तेसिं पञ्जत्ताणं च दव्वलेस्साओ हवंति । जदि विमुग्गा अणेयवण्णा, तो वि रूढिवसा सामलवण्णो मुग्गवण्णो त्ति घेष्पदि । हुमवाऊणं सुहुमतेउ-भंगो ।
श्रवणप्फइकाइयाणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, वारस जीवसमासा, चत्तारि पत्तीओ चत्तारि अपज्जतीओ, चत्तारि पाण तिष्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, एइंदियजादी, वणप्फइकाओ, तिण्णि जोग, णवुंसयवेद, चत्तारि कसाय, दो
२२२
और मूंगके वर्णवाली लेश्याएं होती हैं । इसीप्रकार बादर वायुकायिक सामान्य जीवों के और उन्हीं बाद वायुकायिक पर्याप्त जीवोंके द्रव्य लेश्याएं होती हैं । यद्यपि मूंग अनेक वर्णवाली होती है, तो भी रूढिके वशसे 'श्यामलवर्ण' ही मूंगका वर्ण प्रकृतमें ग्रहण किया गया है। सूक्ष्म वायुकायिक जीवोंके आलाप सूक्ष्म तैजस्कायिक जीवों के आलापोंके समान जानना चाहिए |
जीवोंके चार बादरमित्य
वनस्पतिकायिक जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर - एक मिध्यादृष्टि गुणस्थान, और बारह जीवसमास होते हैं, जिनमें सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिकायिक-पर्याप्त, सप्रतिष्ठित प्रत्येकवनस्पतिकायिक अपर्याप्त, अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिकायिक-पर्याप्त, अप्रतिठित प्रत्येक वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, इसप्रकार प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीवसमास होते हैं। बादर नित्य निगोद-साधारणवनस्पतिकायिक-पर्याप्त, निगोद-साधारण वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्मनित्यनिगोद-साधारणवनस्पतिकायिकपर्याप्त, सूक्ष्मनित्यनिगोद-साधारणवनस्पतिकायिक अपर्याप्त, बादरचतुर्गतिनिगोद-साधारणवनस्पतिकायिक-पर्याप्त, बादरचतुर्गति निगोद-साधारणवनस्पतिकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म चतुर्गतिनिगोद-साधारणवनस्पतिकायिक-पर्याप्त और सूक्ष्मचतुर्गतिनिगोद-साधारण-वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, इसप्रकार साधारणवनस्पतिकायिक जीवोंके आठ जीवसमास होते हैं। चार पर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां; चार प्राण, तीन प्राण, चारों संज्ञाएं तिर्यंचगति, एकेन्द्रियजाति, वनस्पतिकाय, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणका योग ये तनि योगः नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान,
नं. २२२
(गु.) जी, प. प्रा. सं. ग.) इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. | संय. द.
४
१२ ४ ४ ४ १
ति
9
मि. साधा. ४अ ३
८
प्रये. ४
वनस्पतिकायिक जीवोंके सामान्य आलाप.
एके. /०५०
वन
नपुं. |
३
औ. २.. का. १
ले. भ. सं. संज्ञि. | आ.
२ १
२
१
१
२
२
१ द्र. ६ कुम. असं अच. मा. ३ भ. मि. असं. आहा. साका.
कुभु.
अशु. अ.
अना. अना.
उ.
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.]
संत-पख्वणाणुयोगदारे काय-आलाववण्णणं अण्णाण, असंजमो, अचक्खुदंसण, दव्वेण छ लेस्सा, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता हॉति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेंसि चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, छ जीवसमासा, चत्तारि पज्जत्तीओ, चत्तारि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, एइंदियजादी, वणप्फदिकाओ, ओरालियकायजोग, णqसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, अचक्खुदंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्प्ताओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुखजुत्ता वा।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, छ जीवसमासा, चत्तारि अपजत्तीओ, तिण्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, एइंदियजादी, वणप्फइकाओ, दो जोग, णqसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, अचक्खुदंसण, दवेण असंयम, अचभुदर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, असज्ञिक, आहारक, अनाहारका साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
__ उन्हीं वनस्पतिकायिक जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्याष्टि गुणस्थान, सामान्य आलापोंमें बताये गये बारह जीवसमासोंमें से पर्याप्तकसम्बन्धी छह जीवसमास, चार पर्याप्तियां, चार प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, एकेन्द्रियजाति, वनस्पतिकाय, औदारिककाययोग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, अचक्षुदर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावले कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, असंशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं वनस्पतिकायिक जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, सामान्य आलापोंमें कहे गये बारह जीवसमासों से छह अपर्याप्त जीवसमास, चार अपर्याप्तियां, तीन प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, एकेन्द्रियजाति, वनस्पतिकाय, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति नं. २२३
बनस्पतिकायिक जीवोंके पर्याप्त आलाप. गु. | जी. प. प्रा. सं. ग. ई. | का. | यो. वे. क. | झा. संय. | द. | ले. म. | स. संहि. आ. | उ. मि. साधा. ति. एके. | वन. औदा. कुम. | असं. अच. भा.३ भ. | मि. असं. आहा- साका.
कुश्रु.
अशु. अ. प्रत्ये.
अना.
Page #307
--------------------------------------------------------------------------
________________
६१० ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १,१.
काउ- सुकलेस्साओ, भावेण किण्हणील- काउलेस्सा, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
पत्तेयसरीरवणफणं भण्णमाणे अत्थि एगं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, चत्तारि पजत्तीओ चत्तारि अपज्जतीओ, चत्तारि पाण तिष्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, एइंदियजादी, पत्तेयवणफदिकाओ, तिष्णि जोग, णउंसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, अचवखुदंसण, दव्त्रेण छ लेस्साओ, भावेण किण्हणील- काउलेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुजुत्ता होंति अणागारुत्रजुत्ता वा५ ।
२२५
और ये दो अज्ञान, असंयम, अचभ्रुदर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे नील और कापोत लेश्याएं: भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः मिध्यात्व, असंज्ञिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं 1
कृष्ण,
प्रत्येकशरीर वनस्पतिकायिक जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर - एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, प्रत्येकशरीर वनस्पतिकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो जीवसमास, चार पर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां; चार प्राण, तीन प्राण; चारों संज्ञाएं, तिर्थचगाते, एकेन्द्रियजाति, प्रत्येक वनस्पतिकाय, औदारिककाययोग, औदारिक मिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये तीन योग, नपुंसक वेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, अचक्षुदर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावले कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं: भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, मिथ्यास्व, असंक्षिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं. २२४
गुजी प. प्रा. सं गई. का. यो. वे.
६ ४ ३ ४
१
१
१
मि साधा, अ.
४
प्रत्ये. २
वनस्पतिकायिक जीवोंके अपर्याप्त आलाप.
द | ले.
स. मंज्ञि. आ.
भ 2
२
१
१
२
ज्ञा. संय १ १ द्र. २ कुम. अस. अ. का. भ. मि. असं. आहा. कुश्रु. शु. अ. भा. ३
अशु.
२ १
औ. मि कार्म
क
नं. २२५
गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इ.) का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द.
१
२ ४ ४ ४ १
१
१ ३ १ ४ २ १ १
मि. प्र. प. प. ३ ति. वन औ. २
प्र. अ. ४
का. १
अ.
प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीवोंके सामान्य आलाप.
उ.
२ साका अना. अना.
१
ले. भ. स. संज्ञि. आ. द्र. ६।२ १ २ कुम. असं अच मा. ३ भ. मि. असं. आहा. | कुश्रु. अना. अशु. अ.
उ. २
साका.
अना.
Page #308
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगदारे काय-आलाववण्णणं
[६१५ तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, चत्तारि पजत्तीओ, चत्तारि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, एइंदियजादी, पत्तेयसरीरवणप्फइकाओ, ओरालियकायजोगो, णउंसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, अचक्खुदंसण, दयण छ लेस्सा, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता हाँति अणागारूवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, चत्तारि अपज्जत्तीओ, तिणि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगई, एइंदियजादी, पत्तेयसरीरवणप्फइकाओ, दो जोग, णउंसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, अचक्खुदंसण, दव्वेग काउ-सुकलेस्साओ, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्ताओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति
उन्हीं प्रत्येकशरीर-वनस्पतिकायिक जीवोंके पर्याप्त कालसंबधीआलाप कहने परएक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक प्रत्येकशरीर-वनस्पतिकायिक-पर्याप्त जीवसमास, चार पर्याप्तियां, चार प्राण, चारों संज्ञाएं, तिथंचगति, एकेन्द्रियजाति, प्रत्येकशरीर-वनस्पतिकाय, औदारिककाययोग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, अचक्षदर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं भव्यासिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, असंशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अना. कारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं प्रत्येकशरीर-वनस्पतिकायिक जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने परएक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक प्रत्येकशरीर-वनस्पतिकायिक-अपर्याप्त जीवसमास, चार अपर्याप्तियां तीन प्राण, चारों संज्ञाएं, तियचगति, एकेन्द्रियजाति, प्रत्येकशरीर-वनस्पतिकाय, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, अचक्षुदर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, असंशिक, नं. २२६
प्रत्येकवनस्पतिकायिक जीवोंके पर्याप्त आलाप. । गु. जी. | प प्रा. सं | ग. ई. का. यो. वे. क.। ज्ञा. | संय. द. । ले. म. स. संझि. आ.। उ.
द्र.६ |२|१११ मि प्रप.
- औदा. न. कुम. असं. अच. | मा. ३ भ. मि. असं. आहा. साका. कुश्रु.
अशु. अ.
।
१४
न
0 वन. - एक
____
अना.
Page #309
--------------------------------------------------------------------------
________________
६१६]
अणागारुवत्ता वा
१२७
एवं णिव्यत्तिपज्जत्तस्स वि तिणि आलावा वत्तव्या । लद्धिअपज्जत्ताणं पि एगो आलावो पत्तेयवणप्फइ-अपज्जत्ताणं जहा तहा वत्तव्यो । जहा पत्तेयसरीराणं, तहा बादरणिगोदपडिट्ठिदाणं पिवत्तव्वं ।
साधारणत्रणप्फइकाइयाणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, अट्ठ जीवसमासा, चत्तारि पज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जतीओ, चत्तारि पाण तिष्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, एइंदियजादी, साधारणत्रणप्फइकाओ, तिष्णि जोग, णवुंसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, अचक्खुदंसण, दव्त्रेण छ लेस्साओ, भावेण किण्हणीलकाउलेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असणिणो, आहारिणो अणाहारिणो,
नं. २२७
गु. जी. प.
१ १ ४ मि. प्र. अ. अ.
आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
इसी प्रकार निर्वृत्तिपर्याप्तक प्रत्येकशरीर-वनस्पतिकायिक जीवोंके भी सामान्य, पर्याप्त और अपर्याप्त ये तीन आलाप कहना चाहिए। लब्ध्यपर्याप्तक प्रत्येकशरीर वनस्पतिकायिक जीव का एक अपर्याप्त आलाप प्रत्येकशरीर-वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीवोंके आलाप के समान कहना चाहिए। तथा, जिसप्रकार अभी प्रत्येकशरीर वनस्पतिकायिक जीवोंके आलाप कहे हैं, उसी प्रकार से बादरनिगोद-प्रतिष्ठितवनस्पतिकायिक जीवोंके भी आलाप कहना चाहिए
लक्खंडागमे जीवद्वाणं
साधारण वनस्पतिकायिक जविकेि सामान्य आलाप कहने पर एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, नित्यनिगोद और चतुर्गतिनिगोद इन दोनोंके बादर और सूक्ष्म ये दो दो भेद तथा इन चारोंके पर्याप्त और अपर्याप्तके भेदसे आठ जीवसमास, चार पर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां; चार प्राण, तीन प्राण; चारों संज्ञापं, तिर्यंचगति, एकेन्द्रियजाति, साधारणवनस्पतिकाय, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग, और कार्मणकाययोग ये तीन योग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, अचक्षुदर्शनः द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्य | एं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक,
प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीवोंके अपर्याप्त आलाप.
प्रा. सं. ग.) इं. का. यो. ! वे. क. ज्ञा. | संय | द.
३ | ४ १ १
त.
१ २
वन.
औ.मि. कार्म.
[ १, १.
१ ४ २
(b)
१ १
द्र. २ |२ कुम. असं अच का. भ. मि. कुश्रु. अ.
शु. मा. ३
अशु.
ले. म. स. संज्ञि. आ. उ.
२
२
असं. आहा. साका. अना. अना.
Page #310
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे काय-आलाववण्णणं सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा।
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाण, चत्तारि जीवसमासा, चत्तारि पज्जत्तीओ, चत्तारि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, एइंदियजादी, साधारणवणप्फइकाओ, ओरालियकायजोगो, णqसयवेदो, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, अचक्खुदंसण, दव्वेण छ लेस्सा, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया; मिच्छत्तं, असण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
मिथ्यात्व, असंज्ञिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं साधारण वनस्पतिकायिक जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, बादरनित्यनिगोद-पर्याप्त, सूक्ष्मनित्यनिगोद-पर्याप्त, बादरचतुर्गतिनिगोद-पर्याप्त और सूक्ष्मचतुर्गतिनिगोद-पर्याप्त ये चार जीवसमास, चार पर्याप्तियां, चार प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, एकेन्द्रियजाति, साधारणवनस्पतिकाय, औदारिककाययोग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, अचक्षुदर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं; भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं: भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक मिथ्यात्व, असंक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं. २२८ साधारण वनस्पतिकायिक जीवोंके सामान्य आलाप. गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. वे. क. झा. | संय. द. ले. भ. स. सन्नि. आ. उ. । १८ प. ४ ४११ १३ १४ २ १ द्र. ६ २१ १ २ २ मि. ४ ३ ति. एके. वन. औ. .. कुम. असं. चक्षु. भा. ३ म.मि. असं. आहा. साका,
का.. कुत्र. | अशु. अ.
अना. अना.
नपुं.
नं २२९ साधारण वनस्पतिकायिक जीवोंके पर्याप्त आलाप. | गु.जी. प. प्रा. सं. ग. ई. | का. यो. । वे. क. ज्ञा. सयंद. / ले. म. स. | संझि. आ. उ. |१|४४ ४ ४ १ १ १ १ १ ४२११ द्र.६२ १ १ २ । मि. ति. एके. वन. औदा. कुम. असं. अच. मा. ३|भ. मि. असं. आहा. साका.
अशु. अ.
अना.
-
Page #311
--------------------------------------------------------------------------
________________
६१८] . छक्खंडागमे जीवाणं
[१, १. तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, चत्तारि जीवसमासा चत्तारि अपजत्तीओ, तिण्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, एइंदियजादी, साधारणवणप्फइकाओ, वे जोग, णqसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, अचखुदसण, दव्येण काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुखजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
बादरसाधारणाणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, चत्तारि जीवसमासा, चत्तारि पज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, चत्तारि पाण तिण्णि पाण, चत्वारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, एइंदियजादी, बादरसाधारणवणप्फइकाओ, तिण्णि जोग, णQसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, अचक्खुदंसण, दव्येण छ लेस्सा, भावेण किण्ह
उन्हीं साधारण वनस्पतिकायिक जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने परएक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, बादरनित्यनिगोद-अपर्याप्त, सूक्ष्मनित्यनिगोद-अपर्याप्त, बादरचतुर्गतिनिगोद-अपर्याप्त और सूक्ष्मचतुर्गतिनगोद-अपर्याप्त ये चार जीवसमास, चार अपर्याप्तियां, तीन प्राण, चारों संज्ञाएं, तिथंचगति, एकेन्द्रियजाति, साधारणवनस्पतिकाय, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, अचक्षुदर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं. भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, असंशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
बादर साधारणवनस्पतिकायिक जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, बादरनित्यनिगोद-पर्याप्त बादर नित्य निगोद-अपर्याप्त बदरचतुर्गतिनिगे.द-पर्याप्त
और बादरचतुर्गतिनिगोद-अपर्याप्त ये चार जीवसमास; चार पर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां चार प्राण, तीन प्राण; चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, एकेन्द्रियजाति, बादरसाधारणवनस्पतिकाय, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये तीन योग नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, अचक्षुदर्शन, द्रव्यसे
नं. २३० साधारण वनस्पतिकायिक जीवोंके अपर्याप्त आलाप. | गु. जी. प.प्रा.सं.) ग.| ई. का. यो. । वे. क. झा. । संय. द. ले. भ. | स 'संझि. आ. | उ. | १४ |४|३|४|११|१२ १/४ | २ | १ | १ द्र. २ २ || मि. अ. ति... औ.मि... कुम. असं. अच. का. म. मि. असं. आहा. साका. || BF कार्म. कुश्रु.
अना. अना.
२ ।
| म.मि. अ
भा.३
अशु.
Page #312
--------------------------------------------------------------------------
________________
१,१.]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे काय आलाववण्णणं
[ ६१९
गील- काउलेस्सा, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा २१ ।
तेसिं चैव पञ्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, चत्तारि पजत्तीओ, चत्तारि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, एइंदियजादी, बादरसाधारणवणष्फइकाओ, ओरालियकायजोगो, णवुंसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, अचक्खुदंसण, दव्वेण छ लेस्सा, भावेण किण्ह णील- काउलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
छहों लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः मिथ्यात्व, असंशिक, आहारक, अनाहारकः साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
उन्हीं बादर साधारण वनस्पतिकायिक जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर – एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, बादर नित्यनिगोद-पर्याप्त और बादर चतुर्गतिनिगोदपर्याप्त ये दो जीवसमास, चार पर्याप्तियां, चार प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, एकेन्द्रियजाति, बादर साधारण वनस्पतिकाय, औदारिककाययोग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत 'ये दो अज्ञान, असंयम, अचक्षुदर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः मिथ्यात्व असंशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
बादर साधारण वनस्पतिकायिक जीवोंके सामान्य आलाप. ले. भ. स. द्र. ६ २ १
नं. २३१
गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. १ ४ ४ ४ ४ १ १ १
संज्ञि. आ. उ. १ २ २
३
१
४ २ १ १
मि.
प. ३
ति. एके वन औ. २
कुम. असं अच मा.३ भ. मि. असं. आहा. साका. कुश्रु. अशु. अ.
कार्म. १
अना. अना.
४
नं. २३२ गु. जी. प. प्रा. सं. ग.
१ २ ४ ४ ४ १ मि.
बादर साधारण वनस्पतिकायिक जीवोंके पर्याप्त आलाप.
वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संज्ञि, आ.
HE BE
४ २ १ १
द्र. ६२ १ १ १
१
कुम. असं अच. भा. ३ भ. मि. असं. आहा. साका.
कुश्रु.
अशु. अ.
अना.
इं. का. | यो.
१ १ १
१
ति. एके. वन. औदा. नपुं.
उ.
Page #313
--------------------------------------------------------------------------
________________
६२०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, चत्तारि अपज्जत्तीओ, तिण्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, एइंदियजादी, बादरणिगोदवणप्फइकाओ, वे जोग, णqसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, अचक्खुदंसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
एवं साधारणसरीरवादरवणप्फईणं पजत्तणामकम्मोदयाणं तिण्णि आलावा वत्तव्या। लद्धि-अपज्जत्ताणं पि एगो अपज्जत्तालावो वत्तव्यो । सवसाधारणसरीरसुहुमाणं सुहुमपुढवि-भंगो । णवरि चत्तारि जीवसमासा, सुहुमसाहारणसरीरवणप्फइकाओ त्ति वत्तव्यो । चउगदिणिगोदाणं साधारणसरीरवणप्फइकाइय-भंगो । तेसिं बादराणं बादरसाधारणसरीर.
उन्हीं बादर साधारण वनस्पतिकायिक जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, बादर नित्यनिगोद-अपर्याप्त और बादर चतुर्गतिनिगोद-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, चार अपर्याप्तियां, तीन प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, एकेन्द्रियजाति, बादर निगोद वनस्पतिकाय, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योगः नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, अचक्षुदर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, असंशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
इसीप्रकार पर्याप्त नामकर्मके उदयवाले साधारणशरीर बादर वनस्पतिकायिक जीवोंके सामान्य, पर्याप्त और अपर्याप्त ये तीन आलाप कहना चाहिए। लब्ध्यपर्याप्तक साधारणशरीर वनस्पतिकायिक जीवोंका भी एक अपर्याप्त आलाप कहना चाहिए सभी सूक्ष्म साधारणशरीर वनस्पतिकायिक जीवोंके आलाप सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीवोंको आलापोंके समान जानना चाहिए। विशेष बात यह है कि जीवसमास आलाप कहते समय 'चार जीवसमास' और काय आलाप कहते समय 'सूक्ष्म साधारणशरीर वनस्पतिकाय' ऐसा कहना चाहिए । चतुर्गति निगोद वनस्पतिकायिक जीवोंके आलाप साधारणशरीर वननं. २३३ बादर साधारण वनस्पतिकायिक जीवोंके अपर्याप्त आलाप. । गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. | यो. वे.क. | ज्ञा. संय. द. । ले. भ. स. |संज्ञि. आ. | उ. | १ २ ४ ३ ४ ११ १ २ १/४ २ १ | १ द्र.२/२ १ १ २ २
ति...: वन. औ.मि... कुम. असं. अच. का. भ. मि. असं. आहा. साका. कार्म.. कुश्रु.
अना. अना.
भा.३
अशु.
Page #314
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे काय-आलाववण्णणं
[६२१ वणप्फइ-मंगो। तेसिं चेव सुहुमाणं सभेदाणं साधारणसरीरसुहुमवणप्फइकाइय-भंगो । णवरि चउगदिणिगोदो त्ति वत्तव्वं । एवं णिचणिगोदाणं पि, णवरि एत्थ णिचणिगोदो त्ति वत्तव्वं ।
तसकाइयाणं भण्णमाणे अत्थि चोदस गुणट्ठाणाणि, दस जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ पंच पज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण णव पाण सत्त पाण अट्ठ पाण छ पाण सत्त पाण पंच पाण छ पाण चत्तारि पाण चत्तारि पाण दो पाण एग पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अत्थि, चत्तारि गदीओ, वेइंदियादी चत्तारि जादीओ, तसकाओ, पण्णारह जोग अजोगो वि अत्थि, तिणि वेद अवगदवेदो वि अत्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अस्थि, अट्ठ णाण, सत्त संजम, चत्तारि दंसण,
स्पतिकायिक जीवोंके आलापोंके समान होते हैं। उन्हीं बादर चतुर्गति निगोद वनस्पतिकायिक जीवोंके आलाप बादर साधारणशरीर वनस्पतिकायके आलापोंके समान होते हैं । सामान्य पर्याप्त अपर्याप्त भेदसहित उन्हीं सूक्ष्म चतुर्गति निगोद जीवों के आलाप साधारणशरीर सक्षम वनस्पतिकायिक जीवोंके आलापोंके समान होते हैं। विशेष बात यह है कि साधारण शरीरके साथमें 'चतुर्गति निगोद' इतना और कहना चाहिए। इसीप्रकार नित्यनिगोद साधारणशरीरवनस्पतिकायिक जीवोंके भी आलाप होते हैं। विशेष बात यह है कि यहां पर 'नित्यनिगोट, इस पदको कहना चाहिए।
__ त्रसकायिक जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-चौदहों गुणस्थान, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंके पर्याप्त और अपर्याप्तके भेदसे दश जीवसमास, छहों पर्याप्तियां और छहों अपर्याप्तियां; पांच पर्याप्तियां और पांच अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; नौ प्राण, सात प्राण; आठ प्राण, छह प्राण; सात प्राण, पांच प्राण; छह प्राण, चार प्राण; चार प्राण, दो प्राण; एक प्राण; चारों संज्ञाएं, तथा क्षीणसंशास्थान भी है, चारों गतियां, द्वीन्द्रियजातिको आदि लेकर चार जातियां, त्रसकाय,
योग तथा अयोगस्थान भी है, तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है, चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है, आठों शान, सातों संयम, चारों दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों
नं. २३४
त्रसकायिक जीवोंके सामान्य आलाप. । गु जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. शा. संय. द. ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ. । १४१०६ प. १०,७|४४ ४ ११५ ३ ४८७ ४ द्र.६ २६ २ । २ । २ ६ अ. द्वी. स. अयोग.
भा. ६ म. सं. आहा- साका. प, ८,६
अलेश्य.अ. असं. अना. अना. चतु.
अनु. यु.उ. पंचे.
8 अपग.Me अकषा.
क्षीणस.
जी.
Page #315
--------------------------------------------------------------------------
________________
६२२.] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, १. दव्व-भावेहिं छ लेस्साओ अलेस्सा वि अत्थि, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सण्णिणो असण्णिणो णेव सण्णिणो णेव असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारूवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा सागार-अणागारेहि जुगवदुवजुत्ता वा।
२३"तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अस्थि चौदस गुणट्ठाणाणि, पंच जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ पंच पज्जत्तीओ, दस पाण णव पाण अट्ठ पाण सत्त पाण छ पाण चत्तारि पाण एग पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अत्थि, चत्तारि गदी, वेइंदियादी चत्तारि जादीओ, तसकाओ, एगारह जोग अजोगो वि अत्थि, तिण्णि वेद अवगदवेदो वि अत्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अत्थि, अट्ठ णाण, सत्त संजम, चत्तारि दंसण, दव्व-भावेहि छ लेस्सा अलेस्सा वि अस्थि, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सण्णिणो असण्णिणो णेव सणिणो णेव असण्णिणो वि अत्थि, आहारिणो
लेश्याएं तथा अलेश्यास्थान भी है, भव्यासिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; छहों सम्यक्त्व, संक्षिक, असांशक तथा संशिक और असंशिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी स्थान है, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी, अनाकारोपयोगी तथा साकार और अनाकार उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त भी होते हैं।
उन्हीं त्रसकायिक जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-चौदहों गुणस्थान, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंही पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवसंबन्धी पांच पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, पांच पर्याप्तियां: दशों प्राण, नौ प्राण, आठ प्राण, सात प्राण, छह प्राण, चार प्राण और एक प्राण; चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंशास्थान भी है, चारों गतियां, द्वीन्द्रियजातिको आदि लेकर चार जातियां, त्रसकाय, अपर्याप्तकालसंबन्धी चार योगोंको छोड़कर शेष ग्यारह योग तथा अयोगस्थान भी है, तीनों वेद तथा अपगतवेद. स्थान भी है, चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है, आठों ज्ञान, सातों संयम, चारों दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं तथा अलेश्यास्थान भी है, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक छहों सम्यक्त्व, संशिक, असंशिक तथा संशिक और असंशिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी स्थान
नं. २३५
जसकायिक जीवोंके पर्याप्त आलाप. | गु., जी. प. प्रा. सं. ग. ई.। का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. | ले. भ. स. | संझि. | आ. । उ.
१० ४ ४ ४ १११ म.४३ ४८ ७ ४ द्र. ६ २६ । २ १ द्वी.प.५ ९ द्वी.... व.४ :
भा. ६ म. सं. आहा. साका. त्री.प. 2 त्री. औ. १
अले. अ. | असं. | अना. चतु.प.
अनु. सं.प.
आ. १ असं.प.
अयोग.
क्षीणसं.
अपग. अकषा. <
यु.उ.
Page #316
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-पख्वणाणुयोगद्दारे काय-आलाववण्णणं
[६२३ अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा सागार-अणागारेहि जुगवदुवजुत्ता वा।
"तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि पंच गुणट्ठाणाणि, पंच जीवसमासा, छ अपज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण छ पाण पंच पाण चत्तारि पाण दो पाण, चत्तारि सण्णा खीणसण्णा वा, चत्तारि गदीओ, वेइंदियादी चत्तारि जादीओ, तसकाओ, तिण्णि जोग चत्तारि वा, तिण्णि वेद अवेदो वा, चत्तारि कसाय अकसाओ
है, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी, अनाकारोपयोगी तथा साकार अनाकार उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त भी होते हैं ।
विशेषार्थ -- त्रसकायिक जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलापोंका वर्णन करते समय उन्हें अनाहारक भी कहनेका कारण यह है कि सयोगकेवली गुणस्थानमें केवलिसमुद्धातके प्रतर और लोकपूरणरूप अवस्थाओंमें नोकर्म वर्गणाओंके नहीं आनेके कारण जीव अनाहारक तो होता है परंतु उस समय पर्याप्त नामकर्मका उदय और वर्तमान शरीरके पूर्ण होनेके कारण वह पर्याप्त भी है, इसलिये इस अपेक्षासे पर्याप्त अवस्थामें भी अनाहारकता बन जाती है। इन्द्रिय मार्गणामें पंचेन्द्रिय मार्गणाके आलापोंका कथन करते हुए पर्याप्त आलापोंका कथन करते समय इसीप्रकार अनाहारक कहा है। वहां पर भी अनाहारक कहमेका ऊपर कहा हुआ कारण जान लेना । इसीप्रकार दूसरे स्थलोंमें भी जानना चाहिए ।
उन्हीं त्रसकायिक जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, प्रमत्तसंयत और सयोगकेवली ये पांच गुणस्थान, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंही और संशी पंचेन्द्रिय जीवोंसंबन्धी पांच अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां; सात प्राण, सात प्राण, छह प्राण, पांच प्राण, चार प्राण और दो प्राण; चारों संशाएं तथा क्षीणसंज्ञास्थान भी है, चारों गतियां, द्वीन्द्रियजातिको आदि लेकर चार जातियां, सकाय, अपर्याप्तकालसंबन्धी तीन योग अथवा चार योग, तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है, चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है, विभंगावधि
नं.२३६ , गु. जी. प. प्रा. सं.
असकायिक जीवोंके अपर्याप्त आलाप. ग. ई.का. यो. वे. क.| ज्ञा. । संय. द. ले. भ. | स. संलि. आ. | उ.।
मि.वी.अ.५, सा.त्री., अ.च. प्र.अ.,
त्रस. .
क्षीणसं.
99ur r»r
my 'leble
अकषा.
आ.मि. कार्म.
विभं असं. | मनः सामा विना. छेदो।
यथा.
का. म.मि. सं. आहा. साका. शु. अ. सा. असं. अनौ. | अना. भा.६ औप. अनु. अनु. यु.उ.
क्षा. क्षायो.
सि.सं...
Page #317
--------------------------------------------------------------------------
________________
६२४ ]
छक्खंडागमे जीवाणं
[ १,१.
वा, छ णाण, चत्तारि संजम, चत्तारि दंसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण छ लेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, पंच सम्मतं, सण्णिणो असण्णिणो अणुभया वा, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा तदुभएणुवजुत्ता वा ।
"तसकाइय-मिच्छाट्टीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणद्वाणं, दस जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जतीओ, पंच पज्जतीओ पंच अपज्जतीओ, दस पाण सत्त पाण णव पाण सत्त पण अट्ट पाण छ पाण सत्त पाण पंच पाण छ पाण चत्तारि पाण, चत्तारि
और मन:पर्ययज्ञानके विना शेष छह ज्ञान, असंयम, सामायिक, छेदोपस्थापना और यथाख्यात ये चार संयम, चारों दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः सम्यग्मिध्यात्वके विना शेष पांच सम्यक्त्व, संज्ञिक, असंशिक तथा अनुभय स्थान भी है, आहारक, अनाहारकः साकारोपयोगी, आनाकारोपयोगी तथा दोनों उपयोगों युगपत् उपयुक्त भी होते हैं।
विशेषार्थ - यहां पर विकल्पसे तीन अथवा चार योग बतलाये हैं इसका कारण यह है कि जन्म के प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्तपर्यंत औदारिकमिश्र और वैक्रियिकमिश्र ये दो योग होते हैं और विग्रहगतिमें कार्मणकाययोग होता है इसलिये ये तीनों योग अपर्याप्त अवस्थामें बन जाते है । परंतु आहारकमिश्रकाययोग आहारकशरीरकी अपेक्षा अपर्याप्त अवस्था में होता तो अवश्य है । फिर भी औदारिकशरीरकी अपेक्षा वहां पर्याप्तता भी है, इसलिये जब छठवे गुणस्थानमें होनेवाले आहारकशरीरकी अपेक्षा अपर्याप्तताकी अविवक्षा कर दी जाती है तब तीन योग कहे जाते हैं, और जब उसकी विवक्षा कर ली जाती है तब अपर्याप्त अवस्थामें चार योग भी कहे जाते हैं ।
कायिक मिध्यादृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर - एक मिध्यादृष्टि गुणस्थान, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव संबन्धी पर्याप्त अपर्याप्तके भेदसे दश जीवसमासः संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंके छह पर्याप्तियां और छह अपर्याप्तियां; असंज्ञी पंचेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवोंके पांच पर्याप्तियां और पांच अपर्याप्तियां, संज्ञी-पंचेन्द्रियोंके दश प्राण और सात प्राण, असंज्ञी-पंचेन्द्रियोंके नौ प्राण नं. २३७
areकायिक मिथ्यादृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप.
गु.
जी.
प.
उ.
१
प्रा.सं.ग. | ई. का. यो. | वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संज्ञि. आ. 1 ४ ४ १ १३ ३ ४ ३ १ २ द्र. ६ २ १ २ २ अज्ञा. असं चक्षु. भा.६ भ. मि. सं. आहा. साका. असं अना. अना.
१० ६५. १०,७ ४ मि. द्वी. २ ६अ. त्री. २ ५५.
२
द्वी.
ACC FITTEN AFF
९,७ ८,६
आ.द्वि. विना.
अच.
अ.
चतु. २ ५अ. ७,५ असं. २
६,४
सं. २
Page #318
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे काय-आलाववण्णणं
[ ६२५ सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, वेइंदियजादि-आदी चत्तारि जादीओ, तसकाओ, तेरह जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजम, दो दंसण, दव-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, पंच जीवसमासा, छ पजत्तीओ पंच पञ्जत्तीओ, दस पाण णव पाण अट्ठ पाण सत्त पाण छ पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, बेइंदियजादि-आदी चत्तारि जादीओ, तसकाओ, दस जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिणि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्य-भावेहि छ लेस्सा,
और सात प्राण, चतुरिन्द्रियके आठ प्राण और छह प्राण, त्रीन्द्रियोंके सात प्राण और पांच प्राण, द्वीन्द्रियोंके छह प्राण और चार प्राणः चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, द्वीन्द्रियजातिको आदि लेकर चार जातियां, त्रसकाय, आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोगके विना तेरह योग, तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संक्षिक, असंक्षिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं त्रसकायिक मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, संशी और असंझी पंचेन्द्रिय जीवसंबन्धी पांच पर्याप्त जीवसमास, संक्षी पंचेन्द्रियोंके छहों पर्याप्तियां, असंही पंचेन्द्रिय और विकले न्द्रियोंके पांच पर्याप्तियां; संज्ञी पंचेन्द्रियसे लेकर द्वीन्द्रिय जीवों तक क्रमसे दश प्राण, नौ प्राण, आठ प्राण, सात प्राण, और छह प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, द्वीन्द्रियजातिको आदि लेकर चार जातियां, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग, तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु
नं. २३८ त्रसकायिक मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप. | गु. | जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. वे. क. ज्ञा. । संय. द. ले. । म. स. संज्ञि. १५वी.प. ६१०४४ ४१| १० ३ ४ | ३ | १२ | द्र.६ २०१२ मि. जी. ५.९ । द्वी. स. म. ४ अज्ञा. असं. चक्षु. भा. ६ भ. मि. सं. आहा.साका
अच.
असं.
.
]
Page #319
--------------------------------------------------------------------------
________________
६२६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१.१, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो असणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता हाँति अणागारुवजुत्ता वा।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, पंच जविसमासा, छ अपज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण छ पाण पंच पाण चत्तारि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, बेइंदियजादि-आदी चत्तारि जादीओ, तसकाओ, तिण्णि जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दवेण काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो असणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुखजुत्ता हाँति अणागारुवजुत्ता वा।
और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक मिथ्यात्व, संक्षिक, असंक्षिक आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
____ उन्हीं त्रसकायिक मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रय, असंही पंचेन्द्रिय और संनी पंचेन्द्रिय संबन्धी पांच अपर्याप्त जीवसमास, संशी पंचेन्द्रियोंके छहों अपर्याप्तियां, असंशी पंचेन्द्रिय और विकलेन्द्रियोंके पांच अपर्याप्तियां; संशी पंचेन्द्रियसे लेकर द्वीन्द्रिय जीवोंतक क्रमसे सात प्राण, सात प्राण, छह प्राण, पांच प्राण और चार प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, द्वीन्द्रियजातिको आदि लेकर चार जातियां, त्रसकाय, औदारिकमिश्रकाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये तीन योग; तीनों वेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, मिथ्यात्व, संशिक, असंक्षिक, आहारक, अनाहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं. २३९
प्रसकायिक मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई. (का. यो. वे.क. सा. ( संय. द. | ले. [म. स. सझि. आ. | उ. । १ ५ ६अ. ४|४|१| ३ |३|४|२ १ २ द्र. २२/१२ २ । २
औ.मि. कुम. असं. चक्षु का. म. मि. सं. आहा. साका. वै.मि. ! कुश्रु. अच. शु. अ. असं. अना. अना.
त्रस."
भा.६
।
-
-
-
Page #320
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-पख्वणाणुयोगद्दारे काय-आलाववण्णणं
[ ६२७ सासणसम्माइटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति मूलोघ-भंगो।
अकाइयाणं भण्णमाणे अत्थि अदीदगुणहाणाणि, अदीदजीवसमासा, अदीदपजत्तीओ, अदीदपाणा, खीणसण्णा, चद्गदिमदीदो, अणिदिओ, अकाओ, अजोगो, अवगदवेदो, अकसाओ, केवलणाणं, णेव संजमो णेव असंजमो णेव संजमासंजमो, केवलदसण, दव्व-भावेहि अलेस्सा, णेव भवसिद्धिया णेव अभवसिद्धिया, खइयसम्मत्तं, णेव सणिणो णेव असण्णिणो, अणाहारिणो, सागार-अणागारेहि जुगवदुवजुत्ता वा होति ।
___ एवं तसकाइयणिव्वत्तिपज्जत्तस्स मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति मूलोघ-भंगो।
तसकाइय-लद्धि-अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणहाणं, पंच जीवसमासा, छ अपजत्तीओ पंच अपजत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण छप्पाण पंच पाण चत्तारि पाण,
त्रसकायिक सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंसे लेकर अयोगिकेवली जिन तकके आलाप मूल ओघालापके समान जानना चाहिए।
अकायिक जीवोंके आलाप कहने पर-अतीत गुणस्थान, अतीत जीवसमास, अतीत पर्याप्ति, अतीत प्राण, क्षीणसंज्ञा, अतीत चतुर्गात, अतीन्द्रिय, अकाय, अयोग, अपगतवेद, अकषाय, केवलज्ञान, संयम, असंयम और संयमासंयम इन तीनों विकल्पोंसे विमुक्त,
लदर्शन, द्रव्य और भावसे अलेश्य , भव्यसिद्धिक और अभव्यसिद्धिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित, क्षायिकसम्यक्त्व, संक्षिक और असंज्ञिक इन दोनों विकल्पोंसे अतीत, अनाहारक, साकार और अनाकार उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त होते हैं।
इसीप्रकार त्रसकायिक निर्वृत्तिपर्याप्तक जीवोंके मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तकके आलाप मूल ओघालापोंके समान जानना चाहिए ।
त्रसकायिक लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, संशी और असंही पंचन्द्रिय संबन्धी पांच अपर्याप्त जीवसमास, संशी पंचेन्द्रियोंके छहों अपर्याप्तियां, असंझी पंचेन्द्रिय और विकलन्द्रियोंके पांच अपर्याप्तियां, संशी पंचेन्द्रियसे लेकर द्वीन्द्रियतक क्रमसे सात प्राण, सात प्राण, छह प्राण, नं. २४०
अकायिक जीवोंके आलाप. का. | यो. | वे. क. ज्ञा. | संय.| द. ले. संज्ञि. आ. | उ. |
अतीतगु. 4 अतीतजी. अतीतप. 18 अतीतप्रा. क्षीणसं. A अतीतग. अर्तीन्द्रिय. अकाय.
अयोग.
अपग. अकषा,
अतीतसं.
अलेश्य.
अतीत. भ. अ.
अतीत संनि.असं.
साका. अना. यु.उ.
Page #321
--------------------------------------------------------------------------
________________
६२८ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, १.
चारि सण्णाओ, दो गदीओ, बीइंदियजादि -आदी चत्तारि जादीओ, तसकाओ, वे जोग, सयवेदो, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्वेण काउसुक्कलेस्साओ, भावेण किण्ह णील- काउलेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो असणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा एवं कायमग्गणा समत्ता |
२४१
जोगाणुवादेण अणुवादो मूलोध-भंगो। णवरि विसेसो तेरह गुणट्ठाणाणि, अजोगिगुणणं अदीदगुणाणं च णत्थि, तदो जाणिऊण मूलोघालावा वत्तव्त्रा ।
मणजोगीणं भण्णमाणे अस्थि तेरह गुणट्ठाणाणि, एगो जीवसमासो, छ पज्जतीओ, दस पाण। केई वचि - कायपाणे अवर्णेति, तण्ण घडदे; तेसिं सत्ति-संभवादो ।
पांच प्राण और चार प्राणः चारों संज्ञाएं, तिर्यंच और मनुष्य ये दो गतियां, द्वीन्द्रियजातिको आदि लेकर चार जातियां, त्रसकाय, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग नपुंसकवेद, चारों कषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः मिथ्यात्व, संशिक, असंशिक; आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं 1
इसप्रकार काय मार्गणा समाप्त हुई ।
योगमार्गणा अनुवादसे आलापका कथन मूल ओघ आलापोंके समान जानना चाहिए । विशेष बात यह है कि यहां पर तेरह ही गुणस्थान होते हैं, अयोगिगुणस्थान और अतीतगुणस्थान नहीं होता है सो आगमाविरोधसे जानकर मूल ओघालाप कहना चाहिए ।
मनोयोगी जीवोंके आलाप कहने पर - आदिके तेरह गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण होते हैं । कितने ही आचार्य मनोयोगियोंके दश प्राणोंमेंसे वचन और काय प्राण कम करते हैं, किन्तु उनका वैसा करना घटित नहीं होता है, क्योंकि, मनोयोगी जीवोंके वचनबल और कायबल इन दो प्राणोंकी शक्ति पाई जाती है,
नं. २४१
. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क
१ ५ ६ ७ ४ २ ४ १
मि द्वी. अ. अ. ७
..
श्री. ५ ६ चतु.,, अ.
५
४
असं.," सं.
ति. द्वी. म. त्री.
कायिक लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके आलाप.
च.
पं.
ज्ञा. संय द.
ર્
१. कुम. अस. चक्षु. | कुक्षु. अच.
२ १ ४ २
औ.मि.
कार्म.
1
ले.
द्र. २ २ १ २
का. भ. मि.
शु. अ. भा. ३
अशु.
भ. स. संज्ञि. आ.
२
सं. आहा. असं. अना.
उ.
२ साका अना.
Page #322
--------------------------------------------------------------------------
________________
संत-परूवणाणुयोगद्दारे जोग-आलाववण्णणं
[६२९ वचि-कायबलणिमित्त-पुग्गल-खंधस्त अत्थित्तं पेक्खिअ पज्जत्तीओ होति त्ति सरीर-वचिपज्जत्तीओ अत्थि । चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अत्थि, चत्तारि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, चत्तारि मणजोग, तिण्णि वेद अवगदवेदो वि अत्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अत्थि, अट्ठणाण, सत्त संजम, चत्तारि दंसण, दव्व-भावहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सण्णिणो णेव सणिणो णेव असण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुखजुत्ता वा सागार-अणागारेहिं जुगवदुवजुत्ता वा"।
मणजोगि-मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, चत्तारि मणजोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण,
इसलिये ये दो प्राण उनके बन जाते हैं। उसीप्रकार वचनबल और कायबल प्राणके निमित्तभूत पुद्गलस्कन्धका अस्तित्व देखा जानेसे उनके उक्त दोनों पर्याप्तियां भी पाई जाती हैं इसीलिये उक्त दोनों पर्याप्तियां भी उनके बन जाती है। प्राण आलापके आगे चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंज्ञास्थान भी है। चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, सत्यमनोयोग, असत्यमनोयोग, उचयमनोयोग और अनुभयमनोयोग ये चार मनोयोग, तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है। चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है। आठों ज्ञान, सातों संयम, चारों दर्शन, द्रष्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; छहों सम्यक्त्व, संक्षिक तथा संक्षिक और असंशिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी स्थान होता है। आहारक, साकारोपयोगी, अनाकारोपयोगी तथा साकार और अनाकार इन दोनों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त भी होते हैं। - मनोयोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों सज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो
नं. २४२
| गु.
जी.
मनोयोगी जीवोंके आलाप. प. प्रा. सं. ग.ई. का ) यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. म. स. संज्ञि. आ. उ. ! ३/४ ८७४ द्र.६२
सं. आहा. साका. अनु. अना,
यु.उ.
अयो.सं.प.
पचे. . त्रस.
क्षीणसं.
विना.
अपग. अकषा.
Page #323
--------------------------------------------------------------------------
________________
६३०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. दव्व-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा" ।
___ मणजोगि-सासणसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि एगं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, चत्तारि मणजोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, (तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दसण, दव्व-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा"।
मणजोगि-सम्मामिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो,
दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
मनोयोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर-एक सासादन गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
मनोयोगी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान,
नं. २४३
मनोयोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप. |गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का.। यो. वे. क. ज्ञा. संय। द. ले. म. स स लि. आ. | उ. ।
१६१०४|४|१ १ ४ ३ ४ ३ १ २ द्र. ६ २ १ १ १ २ मि. सं.प. पंचे. त्रस. मनो. अज्ञा. असं. चक्षु. भा. ६ म. मि. सं. आहा. साका.
अच.
अना.
नं. २४४
मनोयोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके आलाप. |गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. वे. क.। ज्ञा. संय. द. ले. म. स. संझि. आ. उ. | ११ ६ १०४ ४ १ १ ४ ३ | ४ ३ १ २ द्र. ६ १ १ १ १ २
मनो. अज्ञा. असं. चक्षु. भा. ६ म. सासा सं. आहा. साका.
अच.
सासा. 1 सं. प. -
त्रस... पंचे.
अना.
Page #324
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे जोग - आलाववण्णणं
[ ६३१
छ पजत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, पंचिदियजादी, तसकाओ, चत्तारि मणजोग, तिष्णि वेद, चत्तारि कसाय, ) तिण्णि णाणाणि तीहि अण्णाणेहिं मिस्साणि, असंजमो, दो दंसण, दव्व-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, सम्मामिच्छत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा
२४५
1
“मणजोगि- असंजदसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणद्वाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जतीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, चत्तारि मणजोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजमो, तिण्णि दंसण, दव्व-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता
२४६
एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छद्दों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञानोंसे मिश्रित आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, सम्यग्मिथ्यात्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
मनोयोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर - एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारो
सम्य. 2016
१ कोष्ठकान्तर्गतपाठः प्रतिषु नास्ति ।
नं. २४५
गु. जी. प. प्रा. सं.
१
स. प.
मनोयोगी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके
१
अवि. सं. प.
१ ६ १० | ४ ४
ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. | संय. द. ६ |१० ४ ४ 9 १ ૪ ३ | ४ ३ मनो.
आलाप.
ले.
भ. स. संज्ञि. आ. उ.
१ २
१ १ १
१ २
द्र. ६ ज्ञान. असं चक्षु. भा. ६ म. सम्य सं. आहा. साका.
अना.
नं. २४६
मनोयोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके आलाप.
गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. | द. ले. भ.
स. संज्ञि. आ.
१ ४ ३ ४ ३ १ ३ द्र. ६ १. ३
१ ₹
२
BREMORRHE
मनो.
मति. असं. के. द. भा. ६ भ. ओ. सं. आहा. साका.
भुत. विना.
अना.
अव.
३ अज्ञा· मिश्र.
क्षा. क्षायो.
उ.
Page #325
--------------------------------------------------------------------------
________________
६३२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. होंति अणागारुवजुत्ता वा।
मणजोगि-संजदासजदाणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, दो गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, चत्तारि मणजोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिणि णाण, संजमासंजमो, तिण्णि दंसण, दवेण छ लेस्साओ, भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ; भवसिद्धिया, तिणि सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
___ मणजोगि-पमत्तसंजदाणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, चत्तारि मणजोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, चत्तारि णाण, तिणि संजम, तिणि दंसण, दव्वेण छ लेस्सा, भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं,
पयोगी होते हैं।
मनोयोगी संयतासंयत जीवोंके आलाप कहने पर-एक देशविरत गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति और मनुष्यगति ये दो गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, संयमासंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
मनोयोगी प्रमत्तसंयत जीवोंके आलाप कहने पर-एक प्रमत्तविरत गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय. जाति, असकाय, चारों मनोयोग, तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके चार ज्ञान, सामायिक, छदोपस्थापना और परिहारविशुद्धि ये तीन संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेज, पन और शुक्ल लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक
नं २४७
| गु-जी
प.प्रा.
मनोयोगी संयतासंयत जीवोंके आलाप. का. यो. वे. क. | झा. | संय. द. ले. भ. स. संझि. आ. उ. । त्रस. मनो. मति- देश. के.द. भा. ३ म. औप सं. आहा. | साका. विना. शुभ. | क्षा.
अना. अव.
क्षायो.
૨
देश. - सं.प. -
श्रत.
Page #326
--------------------------------------------------------------------------
________________
[६३३
१,१:) संत-परूवणाणुयोगद्दारे जोग-आलाववण्णणं सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
मणजोगि-अप्पमत्तसंजदप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ताव मूलोघ-भंगो । णवरि चत्तारि मणजोगा वत्तव्या । सजोगिकेवलिस्स सच्चमणजोगो असच्चमोसमणजोगो इदि दो मणजोगा वत्तव्वा । सच्चमणजोगीणं मिच्छाइट्टिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ताव मूलोघ-मंगो। णवरि सच्चमणजोगो एको चेव वत्तव्यो। एवमसच्चमोसमणजोगीणं पि, णवरि असच्चमोसमणजोगो एको चेव वत्तव्यो ।
___ मोसमणजोगीणं भण्णमाणे अत्थि बारह गुणट्ठाणाणि, एगो जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अत्थि, चत्तारि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, मोसमणजोग, तिणि वेद अवगदवेदो वि अत्थि, चत्तारि
ये तीन सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
अप्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर सयोगिकेवली गुणस्थानतक मनोयोगी जीवोंके आलाप मूल ओघालापोंके समान ही हैं, विशेष बात यह है कि योग आलाप कहते समय बारहवें गुणस्थानतक चारों ही मनोयोग कहना चाहिए। किन्तु सयोगिकेवलीके सत्यमनोयोग और असत्यमृषा अर्थात् अनुभय मनोयोग ये दो ही मनोयोग कहना चाहिए।
सत्यमनोयोगियोंके आलाप मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर सयोगिकेवली गुणस्थानतक मूल ओघालापोंके समान हैं। विशेष बात यह है कि योग आलाप कहते समय एक सत्यमनोयोग आलाप ही कहना चाहिए । इसीप्रकारसे असत्यमृषा अर्थात् अनुभय मनोयोगियोंके भी आलाप होते हैं। विशेष बात यह है कि योग आलाप कहते समय एक असत्यमृषा मनोयोग आलाप ही कहना चाहिए।
मृषामनोयोगी जीवोंके आलाप कहने पर-आदिके बारह गुणस्थान, एक संझी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंशास्थान भी है। चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, मृषामनोयोग, तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है।
नं. २४८
मनोयोगी प्रमत्तसंयत जीवोंके आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ) ग. इं. का. यो. । वे. क. सा. । संय. द. | ले. भ. स. संज्ञि. आ.| उ. | २१ ६१०४/१/१/१/४ ।
मति. सामा. के. द. भा. ३ म. | औप. सं. आहा. साका. वत. छेदो. विना. शुभ.
अना. अव. परि.
क्षायो. मनः
स.प.
प्रम.
पंचे..
त्रस.
मनो.
Page #327
--------------------------------------------------------------------------
________________
छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. कसाय अकसाओ वि अत्थि, केवलणाणेण विणा सत्त णाण, सत्त संजम, तिण्णि दसण, दव-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा । ___मोसमणजोगीणं मिच्छाइटिप्पहुडि जाव खीणसण्णाओ त्ति ताव ममजोगि-भंगो। णवरि एको चेव मोसमणजोगो वत्तव्यो । एवं सच्चमोसमणजोगीणं पि वत्तव्यं ।
वचिजोगीणं भण्णमाणे अत्थि तेरह गुणट्ठाणाणि, पंच जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ पंच पज्जत्तीओ, दस पाण णव पाण अट्ठ पाण सत्त पाण छ पाण, मण-सरीरपञ्जत्तीहिंतो उप्पण्णसत्तीओ सरीर-मणबलपाणा उच्चंत्ति । ताओ वि उप्पण्णसमयदो जाव जीविदचरिमसमओ त्ति ताव ण विणस्संति । जेण मण-वचि-कायजोगा पाणेसु ण गहिदा
..............................
चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है । केवलज्ञानके विना सात ज्ञान, सातों संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; छहों सम्यक्त्व. संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
मृषामनोयोगी जीवोंके मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तकके आलाप मनोयोगी जीवोंके आलापोंके समान हैं। विशेष बात यह है कि योग आलाप कहते समय एक मृषामनोयोग आलाप ही कहना चाहिए। इसीप्रकार सत्यमृषामनोयोगियोंके भी आलाप कहना चाहिए ।
वचनयोगी जीवोंके आलाप कहने पर--आदिके तेरह गुणस्थान, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी और संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवसंबन्धी पांच पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, पांच पर्याप्तियां; संशी पंचेन्द्रियसे लेकर द्वीन्द्रिय जीवोंतक क्रमशः दशों प्राण, नौ प्राण, आठ प्राण, सात प्राण और छह प्राण होते हैं। मनःपर्याप्ति और शरीरपर्याप्तिसे उत्पन्न हुई शक्तियोंको मनोबलप्राण और कायबलप्राण कहते हैं। वे शक्तियां भी उनके उत्पन्न होनेके प्रथम समयसे लेकर जीवनके अन्तिम समयतक नष्ट नहीं होती हैं। और जिसकारणसे मनोयोग, वचनयोग और काययोग प्राणों में नहीं ग्रहण किये गये हैं, इसलिये. वचनयोगियोंके वचनयोगसे निरुद्ध अर्थात् युक्त अवस्थाके होने पर भी दशों
नं. २४९
मृषामनोयोगी जीवोंके आलाप. | गु. जी, | प. प्रा. सं./ ग.) इं.का. यो. | वे.क. | ज्ञा. | संय. द. | ले. भ. सं. संज्ञि. आ. | उ. | | १२१६१०४|४|१ |सयो. सं.प
के.ज्ञ. के.द.मा. ६ भ. सं. आहा. साका. अयो.
विना.
विना. अ. विना.
पंचे. त्रस. -
अयोग. अकषा.
अना.
Page #328
--------------------------------------------------------------------------
________________
१.१,]
संत-पलवणाणुयोगद्दारे जोग-आलाववण्णणं तेण वचिजोग-णिरुद्ध वि दस पाणा हवंति । चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अस्थि, चत्तारि गदीओ, वेइंदियजादि-आदी चत्तारि जादीओ, तसकाओ, चत्तारि वचिजोग, तिण्णि वेद अवगदवेदो वि अत्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अत्थि, अट्ठ णाण, सत्त संजम, चत्तारि देसण, दव्व-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत, सणिणो असण्णिणो णेव सणिणो णेव असणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा सागार-अणागारेहि जुगवदुवजुत्ता वा ।
___ वचिजोगि-मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, पंच जीवसमासा, छ पञ्जत्तीओ पंच पज्जत्तीओ, दस पाण णव पाण अह पाण सत्त पाण छ पाण, चचारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, बेइंदियजादि-आदी चत्तारि जादीओ, तसकाओ, चत्तारि वचिजोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिणि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दम्व
प्राण होते हैं। प्राण आलापके आगे चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंज्ञास्थान भी है। चारों गतियां, द्वीन्द्रियजातिको आदि लेकर चार जातियां, त्रसकाय, चारों वचनयोग, तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है। चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है। आठों शान, सातों संयम, चारों दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिका छहों सम्यक्त्व, संशिक, असंक्षिक तथा संझिक और असंक्षिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी स्थान होता है, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
वचनयोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, द्वीन्द्रिय जीवोंसे लगाकर संशी पंचेन्द्रिय तकके जीवोंकी अपेक्षा पांच पर्याप्त जीवसमास; छहों पर्याप्तियां, पांच पर्याप्तियां; दशों प्राण, नौ प्राण, आठ प्राण, सात प्राण और छह प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, द्वीन्द्रियजातिको आदि लेकर चार जातियां, प्रसकाय, चारों वचनयोग, तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य
...............
नं. २५०
वचनयोगी जीवोंके आलाप. | गु. | जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. वे. क. ना. संय. द.
ले. म. स. संनि. | आ. | उ. ।
क्षीणसं. .
त्रस. 0
अपग.ua अकषा. <8
भा. ६ भ.
सं. आहा. साका.
असं.
अमा.
अयो. द्वा.प. ५ विना.त्री.प.
चतु.प. असं.प. |सं.प.
F
यु.उ.
_
Page #329
--------------------------------------------------------------------------
________________
६३६]
छक्खंडागमे जीवाणं
[ १,१.
भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो असण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा 1
सासणसम्माट्ठिप्प हुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ताव मणजोगीणं भंगो । णवरि चत्तारि वचिजोगा वत्तव्वा । सजोगिकेवलिस्स सच्चवचिजोगो असच्च मोसवचिजोगो च भवदि । सच्चवचिजोगस्स सच्चमणजोग-भंगो | णवरि जत्थ सच्चमणजोगो तत्थ तं अवणेऊण सच्चवचिजोगो वत्तव्वो । मोसवचिजोगस्स वि मोसमणजोग-भंगो । वरि मोसवचिजोगो वत्तव्त्र । एवं सच्चमोसवचिजोगस्स वि वत्तव्वं । असच्चमो सवचिजोगस्स वचिजोग-भंगो | णवरि असच्चमोसवचिजोगो एक्को चैव वत्तव्वो ।
और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, मिथ्यात्व, संज्ञिक, असंशिका आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तकके वचनयोगी जीवोंके आलाप मनोयोगी जीवोंके आलापोंके समान होते हैं। विशेष बात यह है कि वचनयोग आलाप कहते समय चार वचनयोग कहना चाहिए । सयोगिकेवली जिनके सत्यवचनयोग और असत्यमृषावचनयोग ये दो ही वचनयोग होते हैं । सत्यवचनयोगके आलाप सत्यमनोयोगके आलापोंके समान होते हैं । विशेष बात यह है कि आलाप कहते समय जहां पहले सत्यमनोयोग कहा गया है वहां उसे निकाल करके उसके स्थान में सत्यवचनयोग कहना चाहिए। मृषावचनयोगके आलाप भी मृषामनोयोगके आलापोंके समान होते हैं । विशेषता यह है कि मृषामनोयोगके स्थान पर मृषावचनयोग कहना चाहिए । इसीप्रकार से सत्यमृषावचनयोगके भी आलाप कहना चाहिये, अर्थात् उभयवचनयोगके आलाप सत्यमृषामनोयोगके आलापके समान जानना चाहिए । असत्यमृषावचनयोगके आलाप वचनयोगसामान्यके आलापोंके समान होते हैं । विशेषता यह है कि असत्यमृषावचनयोग आलाप कहते समय एक असत्यमृषावचनयोग ही कहना चाहिए ।
नं. २५१
गु. जी. प. प्रा. सं. ग. १५द्वी. प• ६ २० ४ ४ मि. त्री., ५ ९
च. १ ८
असं. "
सं.
""
वचनयोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप.
इं. | का. ४ | १ ४ द्वी त्रस वच. त्री.
यो. वे. | क. ज्ञा. | संय.) द. ले. | भ. स. संज्ञि. | आ.
३४ ३ १ २
अज्ञा. असं. चक्षु. अच.
उ.
२
द्र. ६ २ १ २ १ भा. ६ भ. मि. सं. आहा. साका. अ. असं. अना.
Page #330
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे जोग-आलाववण्णणं
[६३७ कायजोगीणं भण्णमाणे अत्थि तेरह गुणहाणाणि, चोइस जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ पंच पज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ चत्तारि पज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण णव पाण सत्त पाण अट्ठ पाण छ पाण सत्त पाण पंच पाण छ पाण चत्तारि पाण चत्तारि पाण तिण्णि पाण चत्तारि पाण दो पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अत्थि, चत्तारि गदीओ, एइंदियजादि-आदी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छक्काय, सत्त कायजोग, तिण्णि वेद अवगदवेदो वि अस्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अस्थि, अढ णाण, सत्त संजम, चत्तारि दसण, दव्व-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सण्णिणो असण्णिणो णेव सणिणो णेव असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा सागार-अणागारेहि जुगवदुवजुत्ता वा।
काययोगी जीवोंके आलाप कहने पर-आदिके तेरह गुणस्थान, चौदहों जीवसमास, छहों पर्याप्तियां छहों अपर्याप्तियां, पांच पर्याप्तियां पांच अपर्याप्तियां; चार पर्याप्तियां चार अपर्याप्तियां: दशों प्राण, सात प्राण; नौ प्राण, सात प्राण; आठ प्राण, छह प्राण; सात प्राण, पांच प्राण; छह प्राण, चार प्राण; चार प्राण तीन प्राण; चार प्राण और दो प्राण; चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंशास्थान भी है, चारों गतियां, एकेन्द्रियजातिको आदि लेकर पांचों जातियां, पृथिवीकायको आदि लेकर छहों काय, सातो काययोग, तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है, चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है, आठों ज्ञान, सातों संयम, चारों दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; छहों सम्यक्त्व, संक्षिक, असंक्षिक तथा संझी और असंही इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी स्थान है। आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी, अनाकारोपयोगी तथा साकार और अनाकार इन दोनों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त भी होते हैं।
नं. २५२ गु. (जी | प.
काययोगी जीवोंके आलाप. प्रा. सं.ग.| इं.का., यो. |वे.क. ज्ञा. संय.। द. ले.म.स. संज्ञिः। आ.1 उ. । |६| ७ |३|४|८|७| ४ द६२६२/२
भा.६ भ. |सं आहा.साका.
असं अना. अना
यु.उ.
६
अयो। विना..
काय...
G००० 45MGG.
क्षीणसं.
my 'lrble
. अक्षा
अ.
अनु.
Page #331
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि तेरह गुणट्ठाणाणि, सत्त जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ पंच पज्जत्तीओ चत्तारि पज्जत्तीओ, दस पाण णव पाण अट्ठ पाण सत्त पाण छ पाण चत्तारि पाण चत्तारि पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अत्थि, चत्तारि गदीओ, एइंदियादी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छक्काय, वेउब्धियमिस्सेण विणा छ जोग तिण्णि वा, तिण्णि वेद अवगदवेदो वि अस्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अस्थि, अहणाण, सत्त संजम,चत्तारि देसण, दव-भावेहि छ लेस्सा, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सण्णिणो असण्णिणो णेव सण्णिणो णेव असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो आहारिणो चेव वा, सागारुखजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा सागार-अणागारेहि जुगवदुवजुत्ता वा" ।
उन्हीं काययोगी जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-आदिके तेरह गुणस्थान, पर्याप्तसंबन्धी सात जीवसमास, छहों पर्याप्तियां पांच पर्याप्तियां, चार पर्याप्तियां: वशी प्राण, नौ प्राण, आठ प्राण, सात प्राण, छह प्राण. चार प्राण और चार प्राण: चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंशास्थान भी है। चारों गतियां, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, . पृथिवीकाय आदि छहों काय, वैक्रियिकमिश्रकाययोगके विना छह काययोग अथवा औदारिककाययोग, वैक्रियिककाययोग और आहारककाययोग ये तीन काययोग; तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है। चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है। आठों ज्ञान, सातों संयम, चारों दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, छहों सम्यक्त्व, संक्षिक असंशिक तथा संझी और असंही इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी स्थान है; आहारक, अनाहारक अथवा आहारक ही होते हैं। साकारोपयोगी, अनाकारोपयोगी और साकार-अनाकार उप. योगोंसे युगपत् उपयुक्त भी होते हैं।
विशेषार्थ-ऊपर काययोगी जीवोंके पर्याप्तकालमें जो वैक्रियिकमिश्रके विना छह अथवा तीन योग बतलाये हैं। इसका कारण यह है कि छठवें और तेरहवें गुणस्थानमें माहारकसमुद्धात और केवलिसमुद्धातके समय भी विवक्षाभेदसे जब पर्याप्तता स्वीकार कर
नं. २५३
काययोगी जीवोंके पर्याप्त आलाप. । गु. जी. प. प्रा. ! सं. ग.ई. का. यो. वे. क. शा. संय० । द. | ले. भ. स. संक्षि. आ.
उ. |
अयो. पर्या. ५९ विना.
क्षीणसं..
भा. ६ भ.
व.म. विना अथ.
अपग. अकषा.
सं. आहा. साका. असं. अना. अना. अनु. अथ. यु.उ.
'आहा.
Page #332
--------------------------------------------------------------------------
________________
संत-परूवणाणुयोगद्दारे जोग आलाववण्णणं
[ ६३९
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं मण्णमाणे अत्थि पंच' गुणट्ठाणाणि, सत्त जीवसमासा, छ अपज्जत्तीओ पंच अपज्जतीओ चत्तारि अपज्जतीओ, सत्त पाण सत्त पाण छ पाण पंच पाण चत्तारि पाण तिष्णि पाण दो पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वा, चत्तारि गदीओ, एइंदियजादि- आदी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छक्काय, चत्तारि जोग, तिणि वेद अवगदवेदो वि, चत्तारि कसाय अकसाओ वा, छण्णाण, चत्तारि संजम,
१, १.]
ली जाती है तब उसकी अपेक्षा पर्याप्त अवस्था में भी छहों योग बन जाते हैं और जब अपर्या प्तता मानली जाती है तब पर्याप्त अवस्था में औदारिक, आहारक और वैक्रियिक ये तीन योग ही बनते हैं । इसीप्रकार आहारमार्गणा के कथनमें पहले आहारक और अनाहारक ये दो आलाप बतलाये हैं अनन्तर एक आहारक आलाप ही बतलाया है । इसका भी कारण यह है कि तेरहवें गुणस्थान में केवल समुद्धातके समय भी पर्याप्तता के स्वीकार कर लेने से आहारक और अनाहारक दोनों आलाप बन जाते है । परंतु कपाट, प्रतर और लोकपूरण अवस्थामें केवल अपर्याप्तताके स्वीकार कर लेने पर अनाहारक आलाप काययोगियोंकी पर्याप्त अवस्था में नहीं बनता है। इसका यह तात्पर्य हुआ कि जब काययोगियोंके पर्याप्त अवस्था में छह योग कहे जावें, तब आहारक और अनाहारक ये दोनों ही आलाप कहना चाहिए और जब केवल तीन योग ही कहे जावें तब एक आहारक आलाप ही कहना चाहिए । सातों संयमों के संबन्धमें भी यही विवक्षा भेद जान लेना चाहिये ।
उन्हीं काययोगी जीवोंके अपर्याप्त कालसंबन्धी आलाप कहने पर - मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि अविरतसम्यग्दृष्टि, प्रमत्तसंयत और सयोगिकेवली ये पांच गुणस्थान; सात अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां; सात प्राण, सात प्राण, छह प्राण, पांच प्राण, चार प्राण, तीन प्राण और दो प्राण: चारों संज्ञाएं तथा क्षीण संज्ञास्थान भी है; चारों गतियां, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छहों काय, औदारिकामिश्रकाययोग वैक्रियिकमिश्रकाययोग, आहारकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये चार योगः तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है; चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है, विभंगाबाध और मनःपर्ययज्ञानके बिना छह ज्ञान, असंयम, सामायिक, छेदोपस्थापना और
नं. २५४
गु. जी.
प.
५
७ ६ अ.
मि. अपर्या. ५"
|४,,
सा.
अ.
ST.
स.
#
१ प्रतिषु चत्तारि ' इति पाठः ।
काययोगी जीवोंके अपर्याप्त आलाप.
प्रा. सं. ग. इं. का. यो. (वे. क. ज्ञा.
७
*
क्षाणस. २/
वै.मि. आ.मि. कार्म.
अकषा | अ
३ ४ ] ६
ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ.
२
संय..द. ४ द्र. २ २ ५ २ २ का. भ. सम्य. सं. आहा. साका. शु. अ. विना. असं अना. अना. भा. ६ अनु. यु. उ.
४
विभं असं.
乖
मनः सामा
विना. छेदो.
यथा.
Page #333
--------------------------------------------------------------------------
________________
६४० ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, १.
चत्तारि दंसण, दव्वेण काउ- सुक्कलेस्साओ, भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, पंच सम्मत्तं, सण्णिणो असण्णिणो अणुभया वा, आहारिणो अणाहारिणो, सांगारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा तदुभएण वा ।
काय जोगि- मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणद्वाणं, चोहस जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जतीओ पंच पज्जत्तीओ पंच अपज्जतीओ चत्तारि पज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण णव पाण सत्त पाण अट्ठ पाण छ पाण सत्त पाण पंच पाण छ पाण चत्तारि पाण चत्तारि पाण तिष्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गर्दीओ, एइंदियजादि -आदी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छक्काया, पंच कायजोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिष्णि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्व-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा 1
२५५
यथाख्यातये चार संयमः चारों दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे छहों लेश्याएं: भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः सम्यग्मिथ्यात्वके विना शेष पांच सम्यक्त्व, संशिक, असंज्ञिक तथा अनुभयस्थान भी है; आहारक, अनाहारक साकारोपयोगी, अनाकारोपयोगी तथा दोनों उपयोगों से युगपत् उपयुक्त भी होते हैं ।
काययोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर - एक मिध्यादृष्टि गुणस्थान, चौदहों जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां पांच पर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां; चार पर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां: दशों प्राण, सात प्राणः नौ प्राण, सात प्राण आठ प्राण, छह प्राणः सात प्राण, पांच प्राणः छह प्राण, चार प्राणः चार प्राण और तीन प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छहों काय, आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोगके विना पांच काययोग, तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः मिथ्यात्व, संज्ञिक, असंज्ञिकः आहारक, अनाहारकः साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं. २५५
htraगी मिथ्याष्टि जीयोंके सामान्य आलाप.
जी.प.प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. १ १४६प १०,७ ४ ४ ५ ६ अ. ९,७
६
मि.
५ प.
८,६
५ अ.
४ प.
४ अ.
७,५
६,४
४,३
(भ. स.) संज्ञि. आ.
२
१ २ २
द्र. ६ अशा असं चक्षु. भा. ६ भ. मि. अच. अ.
५ ३ ४ ३ औ. २
२
का. १
उ.
२
सं. आहा. साका. असं. अना. अना.
यु. उ.
Page #334
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे जोग-आलाववण्णणं तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एगं गुणट्ठाणं, सत्त जीवसमासा, छ पजत्तीओ पंच पजत्तीओ चत्तारि पज्जत्तीओ, दस पाण णव पाण अट्ठ पाण सत्त पाण छ पाण चत्तारि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, एइंदियजादि-आदी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छक्काया, वे जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिणि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो असण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुखजुत्ता वा ।
तेसिं चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, सत्त जीवसमासा, छ अपज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण छ पाण पंच पाण चत्तारि पाण तिण्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, एइंदियजादि-आदी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छ काय, तिण्णि जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, दो दंसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया
__ उन्हीं काययोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, सात पर्याप्तक जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, पांच पर्याप्तियां, चार पर्याप्तियां; दशों प्राण, नौ प्राण, आठ प्राण, सात प्राण, छह प्राण, और चार प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छहों काय, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दो योग, तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यासद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संक्षिक, असंक्षिक; आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं काययोगी मिथ्यादृष्टि जीके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, सात अपर्याप्तक जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां, सात प्राण, सात प्राण, छह प्राण, पांच प्राण, चार प्राण और तीन प्राण. चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छहों काय, औदारिकमिश्रकाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये तीन योग, तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत,
नं. २५६
काययोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप. । गु. जी. प. प्रा. । स | ग. इं.का. यो. । वे. का। ज्ञा. संय. द. । ले. भ. स. संज्ञि.
आ.
उ. |
Furr»
मि. पर्या. ५. ९
औ. १
।
अज्ञा. असं. चक्षु. भा. ६ भ. मि. सं.
अच. अ. असं.
आहा. साका.
अना.
Page #335
--------------------------------------------------------------------------
________________
६४२ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १,१.
अभवसिद्धिया, मिच्छतं, सण्णिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
२५७
कायजोगि सासणसम्म इट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, दो जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, पंचिदियजादी, तसकाओ, पंच जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्व-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा 1
२५८
और शुक्ल लेश्याएं, भावसे छहों लेश्याएं: भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, मिथ्यात्व, संशिक, असंशिक; आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
काययोगी सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर - एक सासादन गुणस्थान, संक्षी-पर्याप्त और संशी अपर्याप्त ये दो जीवसमासः छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, आहारक काययोग और आहारकमिश्रकाययोगके विना पांच काययोग, तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छद्दों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, सासादन सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
नं. २५७
गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई. | का. यो. | वे. क. | ज्ञा. ( संय. | द. 2 G ६अ. ७ ४ ४ ५ ६ ३ ३ ४ ર १ २ मि. अपर्या. ५अ ७ औ.मि. कुम. असं चक्षु ! वै.मि. अच कार्म.
४अ ६
कुश्रु.
५
काययोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप.
नं. २५८
काययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप.
गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इ.) का. | यो । वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ.
१ २ द्र. ६ १ १
१
२
२
१ २ ६१० ४ ४ सा.सं.प. प. ७
Press Mee
अज्ञा. असं चक्षु. मा. ६ भ. सासा. सं. आहा. साका.
अच.
अना. अना.
सं. अ. ६ अ.
पंचे. २००५
१ ५ ३ ४ त्रस. औ. २
व. २
का. १
ले. भ . | स. संज्ञि. आ. | उ.
२
द्र. २ २ १ २ २ का. भ. मि. सं. आहा. साका. शु. अ. असं अना. अना. भा.६
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १. ]
संत - परूवणाणुयोगद्दारे जोग आलाववण्णणं
[ ६४३
सिं चैव पत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, पंचिदियजादी, तसकाओ, वे जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्व-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, सासणसम्मतं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
२५९
तेसिं चेत्र अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ अपजत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिण्णि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ,
उन्हीं काययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने परएक सासादन गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दो योग, तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
उन्हीं काययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - एक सासादन गुणस्थान, एक संज्ञी - अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगतिके विना तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिकमिश्रकाययोग,
नं. २५९ गु. जी. | प. प्रा. सं. ग. | इं. का. | यो.
१ १ ६ १०४ ૪ १ १ २ सा. सं. प पंचे. त्रस औ. १
| वै. १
काययोगी सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप.
नं. २६० गु. जी. | प. प्रा. १ १ ६ ७ ४ सा. सं.अ. अ.
वे.
३
.b
ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ.
द्र. ६.१ १ १ १
२
चक्षु. भा. ६भ. सा. सं. आहा. साका. अना.
अच.
काययोगी सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप.
सं. ग.) इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. | संय. द. |ले. भ. स. संज्ञि. | आ.
द्र.२ १ १ १
२
२
३ १ 2 ३ ३ ४ त्रस. औ.मि.
वै.मि. कार्म.
का. भ. सा. सं. आहा. साका. शु. अना. अना.
भा.६
क. ज्ञा. संय. द.
४ ३ १ २
कुम. असं कुश्रु.
विभं.
२
१ २
कुम. असं. चक्षु. कुश्रु. अच.
उ.
Page #337
--------------------------------------------------------------------------
________________
६४४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. तिणि जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण छ लेस्सा; भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा।
कायजोगि-सम्मामिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, एगो जीवसमासो, छ पञ्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, वे जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिणि णाणाणि तीहि अण्णाणेहि मिस्साणि, असंजमो, दो दंसण, दव्य-भाषेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, सम्मामिच्छत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता वा हाँति अणागारुवजुत्ता वा।
कायजोगि-असंजदसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, छ पज्जीओ छ अपजत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ,
वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये तीन योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे छहों लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
काययोगी सम्याग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर-एक सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संझी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संक्षाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दो योग, तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अक्षानोंसे मिश्रित आदिके तीन शान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, सम्यग्मिथ्यात्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
काययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, संक्षी-पर्याप्त और संज्ञी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति,
नं. २६१
काययोगी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप. का. यो. वे. क.| ज्ञा. संय. द. | ले. भ.
प. प्रा. स.
स. | संशि .
आ.
उ
सम्य. - सं.प. -
पचे. -- त्रस.
औ.१
ज्ञान. असं. चक्षु. भा. ६ म. सम्य. सं. आहा. साका.
अच
अना.
अज्ञा. मिश्र.
Page #338
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगदारे जोग-आलाववण्णणं
[६४५ पंचिंदियजादी, तसकाओ, पंच जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजम, तिणि दंसण, दव्व-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता का ।
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, वे जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिणि णाण, असंजमो, तिण्णि दंसण, दव्व-भावेहिं
प्रसकाय, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग, वैक्रियिककाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये पांच योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन शान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, मव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं काययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने परएक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दो योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन शान, असंयम, आदिके
नं. २६२ काययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. | ग. इं.का. यो. । वे. क. ना. । संय. द. | ले. भ. स. संझि. आ. | उ. । १२ ६१०४४ सं. प. प. ७
मति. असं. के. द. भा.६ म. औप. सं. आहा. साका.. स. अ.६
श्रत. विना.
क्षा. अना. | अना. अव.
क्षायो.
पंचे..
औ. २)
का.१
नं. २६३ काययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप |गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. वे. क. शा. संय. द. ले. भ. स. संक्षि. आ. उ. । ११ ६ १० ४ ४ ११२ अवि.सं. प.
औ. १ मति. असं.के.द. भा. ६ भ. औ. सं. आहा. साका. वै. १ श्रुत. विना
अना.
पचे. -
क्षा.
अव.
क्षायो.
Page #339
--------------------------------------------------------------------------
________________
६४६] छक्खंडागमे जीवट्ठाण
[१, १. छ लेस्सा, भवसिद्धिया, तिणि सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
तेसिं चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अस्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ अपजत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, तिण्णि जोग, इत्थिवेदेण विणा दो वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजम, तिण्णि दसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया, तिष्णि सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता हाँति अणागारुवजुत्ता वा।
कायजोगि-संजदासजदाणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, दो गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, ओरालियकायजोगो, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिणि णाण, संजमासंजमो, तिणि दंसण,
तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
___ उन्हीं काययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने परएक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, वसकाय, औदारिकमिश्रकाययोग, वैकि यिकमिश्रकाययोग और काणकाययोग ये तीन योग; स्त्रीवेदके विना दो वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे छहों लेश्याएं; भव्यासिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व; संक्षिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
___ काययोगी संयतासंयत जीवोंके आलाप कहने पर-एक देशसंयत गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति और मनुष्यगति ये दो गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिककाययोग, तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन शान, संयमासंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे
नं. २६४ काययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीपोंके अपर्याप्त आलाप. |गु.। जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क शा. संय. द. ले. भ. स. संनि. आ. । उ.
अवि. -
सं. अ. अ.
पचे. .. त्रस..
औ.मि. पु. Fi | वै.मि. न.
कार्म.
मति. अस. के.द. का. म. औप. सं. आहा. साका. श्रुत. विना. शु. क्षा. अना. अना.
भा.६ क्षायो.
अव.
Page #340
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १. ]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे जोग - आलाववण्णणं
[ ६४७
दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण तेउ पम्म सुक्कलेस्साओ; भवसिद्धिया, तिष्णि सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा 1
२६५
कायजोगि पमत्त संजाणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणड्डाणं, दो जीवसमासा, छ पज्जतीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, ओरालिय- आहार - आहारमिस्सा इदि तिणि जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, चत्तारि णाण, तिण्णि संजम, तिष्णि दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ; भवसिद्धिया, तिष्णि सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं: भव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
काययोगी प्रमत्तसंयत जीवोंके आलाप कहने पर - एक प्रमत्तसंयत गुणस्थान, संज्ञीपर्याप्त और संज्ञी अपर्याप्त थे दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां: दशों प्राण, सात प्राण चारों संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिककाययोग आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोग इसप्रकार तीन योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके चार ज्ञान, सामायिक, छेदोपस्थापना और परिहारविशुद्धि ये तीन संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व, संज्ञिक आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं २६५
गु. जी. प. प्रा. संग इं.
१
देश.
सं. प.
१ प्रतिषु ' तिणि ' इति पाठः ।
६ १० ४ २ १ ति. पंच. स. ओ.
म.
स. प. प. ७
सं.अ. ६ अ.
काययोगी संयतासंयत जीवोंके आलाप.
म.
का.
यो. वे. क.
१ १ ३ ४
पंचे. 8.
नं. २६६
गु. जी. | प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. | वे. क. ज्ञा. | संय.
१ २ ६ १० ४ १
ज्ञा. संय. द.
ले. भ.
स. संज्ञि | आ.
३ १ ३
१
द्र. ६ १ ३ १ मति. देश. के. द. भा. ३भ. औप सं. आहा विना. शुभ.
श्रुत.
अव.
काययोगी प्रमत्तसंयत जीवोंके आलाप.
द. ३
१ ३ ३ ४ ४ ३ त्रस. औ. १ केव. सामा. के. द. आहा. २ विना. छेदो. विना. परि.
तं
क्षां. क्षायो.
उ.
२ साका. अना.
संज्ञि. आ.
३
१
१ २
ले. भ. स. द्र. ६ । १ भा. ३ भ औप. सं. आहा. साका. शुभ. क्षा. क्षायो.
अना.
3.
Page #341
--------------------------------------------------------------------------
________________
६४८ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १,१.
कायजोगि अप्पमत्तसंजदाणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जतीओ, दस पाण, तिणि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिदियजादी, तसकाओ, ओरालियकायजोगो, तिष्णि वेद, चत्तारि कसाय, चत्तारि णाण, तिण्णि संजम, तिण्णि दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण तेउ-पम्म सुक्कलेस्साओ; भवसिद्धिया, तिष्णि सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुत्रजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
२६७
अपुच्चयरण पहुडि जाव खीणकसाओ ति ताव कायजोगीणं मूलोघ-भंगो । वर ओरालियकायजोगो चैव सव्वत्थ वत्तव्वो ।
कायजोगि केवलीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो दो वा, छ पजत्तीओ, चत्तारि पाण दो पाण, खीणसण्णाओ, मणुसगदी, पंचिदियजादी, तसकाओ, ओरालिय-ओरालियमिस्स-कम्मइयकायजोगो इदि तिण्णि जोग, अवगदवेदो,
काययोगी अप्रमत्तसंयत जीवोंके आलाप कहने पर - एक अप्रमत्तसंयत गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, आहारसंज्ञाके विना शेष तीन संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिककाययोग, तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके चार ज्ञान, सामायिक, छेदोपस्थापना और परिहारविशुद्धि ये तीन संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
अपूर्वकरण गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थानतक काययोगी जीवोंके आलाप मूल ओघालापके समान हैं। विशेष बात यह है कि काययोग आलाप कहते समय सर्वत्र केवल एक औदारिककाययोग ही कहना चाहिए ।
काययोगी केवली जिनके आलाप कहने पर - एक सयोगिकेवली गुणस्थान, एक पर्याप्त जीवसमास, अथवा समुद्धातकी अपेक्षा पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, चार प्राण और केवलिसमुद्धातकी अपर्याप्त अवस्थाकी अपेक्षा दो प्राण; क्षीणसंज्ञास्थान, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाय
नं. २६७
गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. | संय. द.
१
१ १
१
१
३ ४
६ १० ३ आहा. म. पंचे. विना.
१ सं.प.
काययोगी अप्रमत्तसंयत जीवोंके आलाप.
४
३ ३
ले. भ. स. द्र. ६ १ ३ मति. सामा. के. द. मा. ३ भ औप. श्रुत छेदो. विना. शुभ. क्षा. अव. परि.
क्षायो.
मन.
संज्ञि. आ.
२
१ १ सं. आहा. साका अना.
उ.
Page #342
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.]
संत - परूवणाणुयोगद्दारे जोग - आळाववण्णणं
[ ६४९
अकसाओ, केवलणाण, जहाक्खादविहारसुद्धिसंजमो, केवलदंसण, दव्वेण छ लेस्सा, भावेण सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया, खइयसम्मत्तं णेत्र सणिगो णेव असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागार - अणागारेहि जुगवदुवजुत्ता वा होंति ।
ओरालिय कायजोगीणं भण्णमाणे अत्थि तेरह गुणट्टाणाणि, सत्त जीवसमासा, छ पज्जतीओ पंच पज्जतीओ चत्तारि पज्जत्तीओ, दस पाण णव पाण अट्ठ: पाण सत्त पाण छ पाण चत्तारि पाण चत्तारि पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अस्थि, दो गदीओ, एइंदियजादि -आदी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छ काय, ओरालियकायजोगो, तिणि वेद अवगदवेदो वि अस्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अत्थि, अट्ठ णाण, सत्त संजम, चचारि दंसण, दव्त्र-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सण्णिणो असण्णिणो णेव सण्णिणो णेव असण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता
योग और कार्मणका योग ये तीन योग; अपगतवेदस्थान, अकषायस्थान, केवलज्ञान, यथाख्यातविहारशुद्धिसंयम, केवलदर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या; भव्यसिद्धिक, क्षायिकसम्यक्त्व, संशी और असंझी इन दोनों विकल्पोंसे रहित, आहारक, अनाहारक, साकार और अनाकार इन दोनों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त होते हैं।
औदारिककाययोगी जीवोंके आलाप कहने पर -- आदिके तेरह गुणस्थान, पर्याप्तक जीवों के सात पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, पांच पर्याप्तियां, चार पर्याप्तियां: दशों प्राण, नौ प्राण, आठ प्राण, सात प्राण, छह प्राण, चार प्राण और चार प्राण; चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंज्ञास्थान भी है, तिर्यंचगति और मनुष्यगति ये दो गतियां, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छद्दों काय, औदारिककाययोग, तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है, चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है, आठों ज्ञान, सातों संयम, चारों दर्शन, द्रव्य और भावसे छहीं लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः छहों सम्यक्त्व, संशिक, असंज्ञिक तथा संशी और असंज्ञी इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी स्थान है;
नं. २६८
गु. जी, | प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. | ज्ञा.
१
१
सयो.
ܛܦ ܝ ܚ
प.
प.अ.
क्षाणस. ० .
६ ४ ०
२
16
काययोगी केवली जिनके आलाप.
पच. ०.
३
औ. २
०
संय. द. ले.
१
० १ १ द्र. ६ के. यथा, के. द. मा. १
शुक्ल.
भ. सं. संज्ञि. आ. उ.
० १
२
१ २ भक्षा. अनु. आहा. साका. अना. अना. यु. उ.
Page #343
--------------------------------------------------------------------------
________________
६५० ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
२६९
होंति अणागारुवजुत्ता वा सागार - अणागारेहिं जुगवदुवजुत्ता वा
६७०
अणागारुवजुत्ता वा 1
ओरालियकायजोगि मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, सत्त जीवसमासा, छ पत्तीओ पंच पज्जत्तीओ चत्तारि पज्जत्तीओ, दस पाण णव पाण अड्ड पाण सत्त पाण छ पाण चत्तारि पाण, चत्तारि सण्णाओ, दो गढ़ीओ, एइंदियजादिआदी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छ काय, ओरालियकायजोगो, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिणि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्व-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो असण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति
आहारक, साकारोपयोगी अनाकारोपयोगी तथा साकार और अनाकार इन दोनों उपयोगों से युगपत् उपयुक्त भी होते हैं ।
नं. २६९
औदारिककाययोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर - एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, सात पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, पांच पर्याप्तियां, चार पर्याप्तियां; दशों प्राण, नौ प्राण, आठ प्राण, सात प्राण, छह प्राण और चार प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंच और मनुष्य ये दो गतियां, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छहों काय, औदारिककाययोग, तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, मिथ्यात्व, संज्ञिक, असंज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
गु.
१३ ७ ६
अयो. पर्या. ५ विना,
जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो.
१०
५ ६
v
नं. २७०
गु. जी. | पप्रा.
१ ७
मि. पर्या ५
*
क्षीणसं..
२
औदारिक काययोगी जीवोंके आलाप.
वे. क. ज्ञा.
टंक
सं
६ १० ४ २ ५ ६
SURY
९
८
म.
७
१
tom Itble
३
1
४ .
अकषा.
[ १,१.
औदारिककाययोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप.
सं. ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. | संय. द. ले. भ. स. संज्ञि. | आ. ३४ ३ १ २ द्र. ६ २ १ २
3fì.
संग. द. ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ. ७ ४ द्र. ६ २ ६ २ १ भा.६ भ.
२
अ.
सं. आहा. साका. असं. अना. यु. उ.
अनु.
उ. २
अज्ञा. असं चक्षु. भा. ६ भ. मि. सं. आहा. साका. अच. अ. असं. अना.
Page #344
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे जोग-आलाववण्णणं ओरालियकायजोगि-सासणसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणवाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, दो गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, ओरालियकायजोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिणि अण्णाण, असंजम, दो दंसण, दव्व-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता वा अणागारुवजुत्ता वा।
___ २०ओरालियकायजोगि-सम्मामिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, दो गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, ओरालियकायजोगो, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिणि णाणाणि तीहि
___ औदारिककाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर-एक सासादन गुणस्थान, एक संझी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, तियंचगति और मनुष्यगति ये दो गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिककाययोग, तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयमः आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
औदारिककाययोगी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर-एक सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञा-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संशाएं, तिर्यंचगति और मनुष्यगति ये दो गतियां, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, औदारिककाययोग, तीनों वेद,
नं. २७१ औदारिककाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके आलाप. | गु.जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. म. स. | संक्षि. आ.
उ. ।
पंचे.. त्रस. ~
और
अला. असं. चक्षु. भा. ६ भ. सासा. सं. जाहा. साका.
अच.
अना.
नं. २७२ औदारिककाययोगी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप. | गु. जी. प. प्रा.सं. ग. इ. का. यो. वे. क. बा. संय.| द. ले. भ. स. संशि. आ. | उ.
सम्य. We
पंचे. त्रस.
ज्ञान. असं. | चक्षु. भा.६ म. सम्य. सं. आहा. साका. अच.
अना. अज्ञा. मिध.
Page #345
--------------------------------------------------------------------------
________________
६५२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १. १, अण्णाणेहि मिस्साणि, असंजमो, दो दंसण, दव्य-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, सम्मामिच्छत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा ।
ओरालियकायजोगि-असंजदसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, एगो जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, दो गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, ओरालियकायजोगो, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजमो, तिणि दंसण, दव्व-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा" ।
संजदासंजदप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ताव कायजोगि-भंगो। णवरि सव्वत्थ ओरालियकायजोगो एको चेव वत्तव्यो । सजोगिकेवली च पजत्ता आहारि त्ति भणिदव्या ।
चारों कषाय, तीनों अज्ञानोंसे मिश्रित आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, सम्यग्मिथ्यात्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
औदारिककाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति और मनुष्यगति ये दो गतियां, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, औदारिककाययोग, तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
. औदारिककाययोगी जीवोंके संयतासंयत गुणस्थानसे लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तकके आलाप काययोगी जीवोंके आलापोंके समान होते हैं। विशेष बात यह है कि सर्वत्र योग आलाप कहते समय एक औदारिककाययोग ही कहना चाहिए। और सयोगिकेवलीके जीवसमास कहते समय पर्याप्तक जीवसमास, तथा आहार आलाप कहते समय आहारक, इसप्रकार कहना चाहिए। नं. २७३ औदारिककाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई.का./ यो. । वे. क. ना. | संय. द. ले. भ. | स. संज्ञि. आ. | उ. ।
........
।.सं. प.
अवि..
|
ति
पंचे.. वस..
औ.
मति. अंस. के. द. भा.६ भ. धत. अव.
विना.
औप. सं. आहा. साका.
अना. क्षायो.
-
Page #346
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १. ]
संत- परूवणाणुयोगद्दारे जोग आलाववण्णणं
[ ६५३
ओरालिय मिस्स कायजोगीणं भण्णमाणे अस्थि चत्तारि गुणट्टाणाणि, सत्त जीवसमासा, सण असण्णीहिंतो सजोगिकेवली वदिरित्तोति अदीदजीवसमासेण सजोगिणा होदव्यं ? ण, दव्वमणस्स अत्थित्तं भावगद-पुव्यगई च अस्सिऊण तस्स सण्णित्तन्भुवगमादो । पुढवी - आउ-तेउ वाउ पत्तेय साहारण सरीर-तस पज्जत्तापज्जत्त - चोद्दस - जीवसमासाणं सत्त अपज्जत्तजीवसमासेसु सजोगि सत्तन्भुवगमादो वा । एसो अत्थो सव्वत्थ वतव्वो । छ अपज्जतीओ पंच अपज्जतीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण छ पाण पंच पाण चत्तारि पाण तिष्णि पाण दोणि पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अस्थि, दो गदीओ, एइंदियजादि-आदी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छक्काया, ओरालियमस्सकायजोगो, तिणि वेद अवगदवेदो वि अस्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अस्थि, विभंग-मणपज्जवणाणे हि विणा छ णाणाणि, जहाक्ख दसुद्धिसंजमो असंजमो चेदि दो संजम, चत्तारि दंसण, दव्त्रेण काउलेस्सा । कि कारणं ? मिच्छाइट्ठि-सासण-असंजद
औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके आलाप कहने पर - मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, अविरत सम्यग्दृष्टि और सयोगिकेवली ये चार गुणस्थान तथा सात अपर्याप्त जीवसमास होते हैं ।
शंका- जब कि सयोगिकेवली जिनेन्द्र संज्ञी और असंज्ञी इन दोनों ही व्यपदेशोंसे रहित हैं, इसलिए सयोगी जिनको अतीत जीवसमासवाला होना चाहिए ?
समाधान- नहीं; क्योंकि, द्रव्यमनके अस्तित्व और भावमनोगत पूर्वगति अर्थात् भूतपूर्व न्यायके आश्रयसे सयोगिकेवली के संज्ञीपना माना गया है । अथवा, पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, प्रत्येकशरीरवनस्पतिकायिक, साधारणशरीरवनस्पतिकायिक और तसकायिक जीवोंके पर्याप्त और अपर्याप्तसंबन्धी चौदह जीवसमासोंमेंसे सात अपर्याप्त जीवसमासोंमें कपाट, प्रतर और लोकपूरणसमुद्धातगत सयोगिकेवलीका सत्त्व माना जानेसे उन्हें अतीत जीवसमासवाला नहीं कहा जा सकता है । यही अर्थ सर्वत्र कहना चाहिए |
जीवसमास आलापके आगे छहों अपर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां; सात प्राण, सात प्राण, छह प्राण, पांच प्राण, चार प्राण, तीन प्राण और सयोगिकेवलीके कपासमुद्धात कालमें दो प्राण होते हैं। चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंज्ञास्थान भी है, तिर्यंचगति और मनुष्यगति ये दो गतियां, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छहों काय, औदारिकमिश्रकाययोग, तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है । चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है । विभंगावाध और मनःपर्यय ज्ञान के बिना शेष छह ज्ञान, यथाख्यातविहारशुद्धिसंयम और असंयम ये दो संयम, चारों दर्शन और द्रव्यसे कापोतलेश्या होती है । शंका- द्रव्यसे एक कापोतलेश्या ही होनेका क्या कारण है ?
Page #347
--------------------------------------------------------------------------
________________
६५४ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १,१.
सम्माइट्ठीणं ओरालियमिस्सकायजोगे वट्टंताणं सरीरस्स काउलेस्सा चेव हवदि; छब्वण्णोरालियपरमाणूणं धवल- विस्ससोपचय सहिद - छव्वण्णकम्मपरमाणूहि सह मिलिदाणं कावोदaणुपत्तदो । कवाडगद - सजोगिकेवलिस्स वि सरीरस्स काउलेस्सा चैव हवदि । एत्थ वि कारणं पुत्रं व वत्तव्यं । सजोगिकेवलिस्स पुव्विल्ल सरीरं छव्वण्णं जदि वि हवदि तो वि तण्ण घेप्पदिः कवाडगद - केवलिस्स अपज्जत्तजोगे वट्टमाणस्य पुच्चिल्ल- सरीरेण सह संबंधाभावादो | अहवा पुव्विल्ल छन्वण्ण- सरीरमस्सिऊण उवयारेण दव्वदो सजोगिकेवलस्स छ लेस्साओ हवंति । । भावेण छ लेस्साओ । किं कारणं ? मिच्छा इट्ठि- सासणसम्माइट्ठीणं ओरालियमिस्सकायजोगे वट्टमाणाणं किण्हणील-काउलेस्सा चेव हवंति, कवाडगद-सजोगिकेवलिस्स सुक्कलेस्सा चेव भवदि, किंतु देव - रइय सम्माइट्ठीणं म सगदी उप्पण्णाणं ओरालियमिस्सकायजोगे वट्टमाणाणं अविणट्ठ-पुव्विल्ल-भावलेस्ताणं भावेण छ लेस्साओ लब्भंति त्ति । भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, उवसमसम्मत्त
समाधान - औदारिकमिश्रकाययोगमें वर्तमान मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके शरीरकी कापोतलेश्या ही होती है; क्योंकि, धवलवित्र सोपचय सहित छहों वर्णोंके कर्म-परमाणुओंके साथ मिले हुए छहों वर्णवाले औदारिकशरीरके परमाणुओंके कापोत वर्णकी उत्पत्ति बन जाती है, इसलिए औदारिकमिश्रकाययोगी जीवों के द्रव्य से एक कापोतलेश्या ही होती है ।
कपाटसमुद्घातगत सयोगिकेवलीके शरीरकी भी कापोतलेश्या ही होती है। यहां पर भी पूर्वके समान ही कारण कहना चाहिए । यद्यपि सयोगिकेवलीके पहलेका शरीर छहों वर्णोंवाला होता है, तथापि वह यहां नहीं ग्रहण किया गया है; क्योंकि अपर्याप्तयोग में वर्तमान कपाटसमुद्धात-गत सयोगिकेवलीका पहलेके शरीर के साथ सम्बन्ध नहीं रहता है । अथवा, पहले के षड्वर्णवाले शरीरका आश्रय लेकर उपचारसे द्रव्यकी अपेक्षा सयोगिकेवलीके छहों लेश्याएं होती हैं ।
औदारिकमिश्रकाय योगियोंके भावसे छहों लेश्याएं होती हैं।
शंका- औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके भावसे छहों लेश्याएं होने का क्या कारण है ? समाधान - औदारिकमिश्रकाययोगमें वर्तमान मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंके भावसे कृष्ण, नील और कापोतलेश्याएं ही होती हैं । और कपाटसमुद्घातगत औदारिकमिश्रकाययोगी सयोगिकेवली के एक शुक्ललेश्या ही होती है । किन्तु जो देव और नारकी मनुष्यगति में उत्पन्न हुए हैं, औदारिकमिश्रकाययोग में वर्तमान हैं और जिनकी पूर्वभवसम्बन्धी भावलेश्याएं अभीतक नष्ट नहीं हुई है, ऐसे जीवोंके भावसे छहों लेश्याएं पाई जातीं हैं; इसलिए औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके छहों लेश्याएं कहीं गई हैं ।
लेश्या आलापके आगे भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः उपशमसम्यक्त्व और सम्य
Page #348
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १. ]
संत- परूवणाणुयोगद्दारे जोग आलाववण्णणं
[ ६५५
सम्मामिच्छत्तेहि विणा चत्तारि सम्मत्ताणि, सण्णिणो असण्णिणो णेव सणणो णेव असणणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा सागार - अणागारेहि जुगवदुवजुत्ता वा
२७४
1
"ओरालियमिस्स कायजोगि-मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, सत्त जीवसमासा, छ अपज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण छ पाण पंच पाण चत्तारि पाण तिष्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, दो गदीओ, एइंदियजादि -आदी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छक्काया, ओरालियमिस्सकायजोगो, तिष्णि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्त्रेण काउलेस्सा,
२७५
मिथ्यात्व के विना शेष चार सम्यक्त्व, संज्ञिक, असंज्ञिक तथा संज्ञी और असंज्ञी इन दोनों विकल्पोंसे राहत भी स्थान है । आहारक, साकारोपयोगी अनाकारोपयोगी तथा साकार और अनाकार इन दोनों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त भी होते हैं ।
औदारिकमिश्रकाययोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर - एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, सात अपर्याप्त जीवसमासः छद्दों अपर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां: सात प्राण, सात प्राण, छह प्राण, पांच प्राण, चार प्राण, तीन प्राणः चारों संज्ञाएं, तिर्यचगति और मनुष्यगति ये दो गतियां, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छहों काय, औदारिकमिश्रकाययोग, तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे कापोतलेश्या, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्य
औदारिक मिश्रकाययोगी जीवोंके आलाप.
नं. २७४
गु. जी.
४
मि. अप. ५,"
सा.
४,
अ.
स.
6 ू
प. | प्रा. सं. ग. इं. का. यो. (वे. (क.) ज्ञा. संय. द. | ६ अ. ७ ४ २ ५ | ६
क्षीणसं. २
~11
1
१.
toitble
ச்
३
अकषा
६
२
विभं असं. मनः यथा विना.
४
ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ.
द्र. १ २ ४
२
' का. भ. मि. सं. आहा. साका. भा. ६ अ. सा. असं.
अना.
नं. २७५
औदारिकमिश्रकाययोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंके
आलाप.
गु. जी.
ले. भ. स. संज्ञि. आ.
उ. २
१
७
प. प्रा. सं. ग. इं. | का. यो. | वे. क. ज्ञा. | संय. द. ६अ. ७ ४ २ ५ ६ ' ३ ४ २ १ २ मि. अप. ५अ. ७ औ.मि. कुम. असं चक्षु का. भ. मि. सं. आहा. साका. कुश्रु. अच. भा. ३ अ. असं.
द्र. १ २ १ २ १
४ अ ६
अना.
अशु.
क्षा. अनु. क्षायो.
Page #349
--------------------------------------------------------------------------
________________
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १,१.
६५६ ]
भावेण किण्हणील-काउलेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो असण्णणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
ओरालियमिस्सकायजोगि - सासणसम्माइडीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, दो गदीओ, पंचदियजादी, तसकाओ, ओरालियमिस्सकायजोगो, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्वेण काउलेस्सा, भावेण किण्हणील- काउलेस्साओ; भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा
२७६
ओरालियमिस्सकायजोगि- असंजदसम्माइहीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, दो गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, ओरालिय मिस्स कायजोगो, पुरिसवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजमो, तिण्णि दंसण, दव्त्रेण काउलेस्सा, भावेण छ लेस्साओ, जहा देव - मिच्छाइदि
सिद्धिकः मिथ्यात्व, संज्ञिक, असंज्ञिकः आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं । औदारिकमिश्रकाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर - एक सासादन गुणस्थान, एक संज्ञी - अपर्याप्त जीवसमासः छहों अपर्याप्तियां; सात प्राण; चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति और मनुष्यगति ये दो गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय औदारिकमिश्रकाययोग, तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे कापोतलेश्या, भावसे कृष्ण, नील और कापोतलेश्याएं, भव्यसिद्धिक, सासादन सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
औदारिकमिश्रकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर - अविरत सम्यदृष्टि गुणस्थान; एक संज्ञी - अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति और मनुष्यगति ये दो गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिकमिश्रकाययोग, पुरुषवेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोतलेश्या और भावसे छहों लेश्याएं होती हैं। यहां पर भावसे छहों लेश्या
नं. २७६
गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ] इ. ) का. | यो. | वे. क. ज्ञा. संय. द.
१ १ ६
सा. सं. अ. अ.
औदारिक मिश्रकाययोगी सासादनसम्यग्दाष्टे जीवोंके आलाप.
ले. भ. स. संज्ञि. आ. ४ २ १ १ १ ३४ २ १ २ द्र. १ । १ १ १ १ त्रस. औ.मि.
ति.
6 ू
म.
पंचे.
उ.
२
कुम. असं चक्षु. का. भ. सासा. सं. आहा. साका. कुश्रु. अच. भा. ३ अना.
अशु.
Page #350
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे जोग-आलाववण्णणं
[६५७ सासणसम्मादिविणो तेउ-पम्म-सुक्कलेस्सासु वट्टमाणा णट्ट-लेस्सा होऊण तिरिक्खमणुस्सेसुप्पज्जमाणा उप्पण्ण-पढम-समए चेव किण्ह-णील-काउलेस्साहि सह परिणमंति सम्माइट्ठिणो तहा ण परिणमंति, अंतोमुहुत्तं पुबिल्ल-लेस्साहि सह अच्छिय अण्णलेस्सं गच्छंति । किं कारणं ? सम्माइट्ठीणं बुद्धि-ट्ठिय-परमेट्ठीणं मिच्छाइट्ठीणं मरणकाले संकिलेसाभावादो । णेरइय-सम्माइट्ठिणो पुण चिराण-लेस्साहि सह मणुस्सेसुप्पज्जति ।
ओंके होनेका कारण यह है कि जिसप्रकार तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याओंमें, वर्तमान मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि देव तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्न होते समय नष्टलेश्या होकरके अर्थात् अपनी अपनी पूर्व शुभ लेश्याओंको छोड़कर (तिर्यंच और मनुष्योंमें) उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें ही कृष्ण, नील और कापोत लेश्यारूपसे परिणत हो जाते हैं, उसप्रकारसे सम्यग्दृष्टि देव अशुभ लेश्यारूपसे नहीं परिणत होते हैं, किन्तु तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्न होनेके प्रथमसमयसे लगाकर अन्तर्मुहूर्ततक पूर्व भवकी लेश्याओंके साथ रह कर पीछे अन्य लेश्याओंको प्राप्त होते हैं, अतएव यहांपर छहों लेश्याएं बन जाती हैं।
शंका---तिर्यंच और मनुष्योंमें उत्पन्न होनेवाले सम्यग्दृष्टि देव अन्तर्मुहूर्ततक अपनी पहली लेश्याओंको नहीं छोड़ते हैं, इसका क्या कारण है ?
समाधान-इसका कारण यह है कि बुद्धिमें स्थित है परमेष्ठी जिनके अर्थात् परमेष्ठीके स्वरूप चिन्तवनमें जिनकी बुद्धि लगी हुई है ऐसे सम्यग्दृष्टि देवोंके मरणकालमें मिथ्यादृष्टि देवोंके समान संक्लेश नहीं पाया जाता है; इसलिये अपर्याप्तकालमें उनकी पहलेकी शुभलेश्याएं ज्योंकी त्यों बनी रहती हैं।
विशेषार्थ-'सम्माइट्ठीणं बुद्धि-हिय-परमेट्ठीणं मिच्छाइट्ठीणं मरणकाले संकिलेसाभावादो' इस वाक्यके दो अर्थ संभव है। एक तो यह कि मरणके समय मिथ्यादृष्टियोंको जिसप्रकार संक्लेश होता है उसप्रकार जिनकी बुद्धिमें परमेष्ठी स्थित हैं ऐसे सम्यदृष्टि देवोंको मरणके समय संक्लेश नहीं होता है। तथा दूसरा अर्थ इसप्रकारसे होता है कि सम्यग्दृष्टि देवोंके और जिनकी बुद्धि में परमेष्ठी स्थित हैं ऐसे मिथ्यादृष्टि देवोंके मरणके समय संक्लेश नहीं पाया जाता है। प्रथम अर्थ करते समय 'मिच्छाइट्ठीणं' पदके आगे 'इव' पदकी अपेक्षा है और दूसरा अर्थ करते समय 'च' पदकी । परंतु 'मिच्छाइट्ठीणं' इस पदके आगे इन दोनों पदों में से कोई भी पद नहीं पाया जाता है और प्रकरणको देखते हुए पहला अर्थ संगत प्रतीत होता है, इसलिये ऊपर अर्थमें पहले अर्थका ही ग्रहण किया है।
____किन्तु नारकी सम्यग्दृष्टि तो अपनी पुरानी चिरंतन लेश्याओंके साथ ही मनुष्योंमें उत्पन्न होते हैं।
Page #351
--------------------------------------------------------------------------
________________
६५८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. कारणं, जादिविसेसेण संकिलेसाहियादो। भवसिद्धिया, उवसमसम्मत्तेण विणा दो सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
ओरालियमिस्सकायजोगि-सजोगिकेवलीण भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, आयु-कालवलपाणा दो चेव होंति, पंचिंदियपाणा णत्थि; खीणावरणे खओवसमाभावादो खओवसम लक्खण-भाविदियाभावादो । ण च दविदिएण इह पओजणमत्थि, अपज्जत्तकाले पंचिंदियपाणाणमत्थित्त-पदुप्पायण-संतसुत्ते-दंसणादो । मण-वचि-उस्सासपाणा वि तत्थ णत्थि, मण-वचि-उस्सासपज्जत्ती-सण्णिद-पोग्गलखंध
_ शंका-नारकी सम्यग्दृष्टि जीव मरते समय अपनी पुरानी कृष्णादि अशुभ लेश्याओंको क्यों नहीं छोड़ते हैं ?
समाधान- इसका कारण यह है कि नारकी जीवोंके जातिविशेषसे ही अर्थात् स्वभावत संक्लेशकी अधिकता होती है, इसकारण मरणकालमें भी वे उन्हें नहीं छोड़ सकते हैं।
लेश्या आलापके आगे भव्यसिद्धिक, औपशमिकसम्यक्त्वके विना दो सम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
औदारिकमिश्रकाययोगी सयोगिकेवली जिनके आलाप कहने पर-एक सयोगिकेवली गुणस्थान, एक अपर्याप्तक जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, आयु और कायबल ये दो प्राण होते हैं। किन्तु पांच इन्द्रिय प्राण नहीं होते हैं, क्योंकि, जिनके ज्ञानावरणादि कर्म नष्ट हो गये हैं ऐसे क्षीणावरण सयोगिकेवलीमें आवरण कर्मोका क्षयोपशम नहीं पाया जाता है, और इसलिये उनके क्षयोपशम लक्षण भावेन्द्रियां भी नहीं पाई जाती हैं। तथा इन्द्रिय प्राणोंमें द्रव्येन्द्रियोंसे प्रयोजन है नहीं; क्योंकि, अपर्याप्तकालमें पांचों इन्द्रिय प्राणों के आस्तित्वका प्रतिपादन करनेवाला सत्प्ररूपणाका सूत्र देखा जाता है। मनोबलप्राण, वचनबलप्राण, और श्वासोच्छ्वासप्राण भी औदारिकमिश्रकाययोगी सयोगिकेवलीके नहीं होते हैं। क्योंकि, मनः पर्याप्ति, वचन पर्याप्ति और आनापान पर्याप्ति संशिक पौगलिक स्कंधोंसे निर्मित
.
१ सं. सू. ३७, ६१, ७६. नं. २७७ औदारिकमिश्रकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके आलाप. | गु. जी. प. प्रा.सं. ग. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संक्षि. आ. उ. |
१ अवि.सं.अ. अ.
मति. असं.के.द. का. भ. क्षा. सं. आहा. साका. विना. भा.६ क्षायो.
अना. अव.
पंचे. . त्रस.-1
Page #352
--------------------------------------------------------------------------
________________
१,१.]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे जोग-आलाववण्णणं णिवत्तिद-सपाणसण्णा-संजुत्तसत्तीणं कवाडगद-केवलिम्हि अभावादो। अहवा तेसिं कारणभूद-पज्जत्तीओ अस्थि त्ति पुणो उवरिम-छट्ठसमयप्पहुडिं वचि-उस्सासपाणाणं समणा भवदि चत्तारि वि पाणा हवंति। खीणसण्णा, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ,
स्वप्राण संक्षाओंसे अर्थात् मन, वचन और श्वासोच्छ्वास प्राणोंसे संयुक्त शक्तियोंका कपाट समुद्धात-गत केवलीमें अभाव पाया जाता है। अथवा, समुद्धातगत-केवलीके वचनबल और श्वासोच्छ्वास प्राणोंकी कारणभूत वचन और आनापान पर्याप्तियां पाई जाती हैं, इसलिये लोकपूरणसमुद्धातके अनन्तर होनेवाले प्रतरसमुद्धातके पश्चात् उपरिम छठे समयसे लेकर आगे वचनबल और श्वासोच्छ्वास प्राणोंका सद्भाव हो जाता है, इसलिये सयोगिकेवलीके आहारमिश्रकाययोगमें चार प्राण भी होते हैं।
विशेषार्थ-समुद्धातगत केवलीके अपर्याप्त अवस्थामें आयु और काय ये दो प्राण होते हैं शेष आठ प्राण नहीं होते हैं। उनमेंसे पांचों इन्द्रिय प्राण तो इसलिये नहीं होते हैं कि उनके शानावरण कर्मका क्षयोपशम नहीं पाया जाता है। कदाचित् यह कहा जा सकता है कि केवलीके पांचों द्रव्येन्द्रियां पाई जाती हैं इसलिये द्रव्येन्द्रियोंकी अपेक्षा उनके पांच प्राण मान लेना चाहिये । परंतु ऐसा नहीं है, क्योंकि, इन्द्रिय प्राणों में द्रव्येन्द्रियोंका उपचारसे ही ग्रहण किया है, मुख्यतासे नहीं। यदि इन्द्रिय प्राणोंमें द्रव्येन्द्रियोंका मुख्यतासे ग्रहण करना स्वीकार किया जावे तो अपर्याप्तकालमें पांच इन्द्रिय प्राणोंका सद्भाव नहीं बन सकता है। परंतु अपर्याप्तकालमें पांचों इन्द्रियप्राण होते हैं ऐसा आगमवचन है, इसलिये यह सिद्ध हुआ कि इन्द्रिय प्राणोंमें मुख्यतासे पांच भाषेन्द्रियोंका ही ग्रहण किया गया है और वे भावन्द्रियां केवली होती नहीं है, इसलिये उनके पांचों इन्द्रिय प्राण नहीं होते हैं। उसीप्रकार केवलीके अपर्याप्त अवस्थामें मनोबल, वचनबल और श्वासोच्छ्वास ये तीन प्राण भी नहीं होते हैं, क्योंकि, इन तीनों प्राणोंकी कारणभूत मन, वचन और आनापान ये तीन पर्याप्तियां है। परंतु अपर्याप्त अवस्थामें ये तीनों पर्याप्तियां होती नहीं हैं, इसलिये पर्याप्तियोंके अभावमें उनके उक्त तीनों प्राण भी नहीं पाये जाते हैं। इसप्रकार इन आठ प्राणों के अतिरिक्त केवलीके अपर्याप्त अवस्थामें शेष दो प्राण पाये जाते हैं। अथवा, केवलीके विद्यमान शरीरकी अपेक्षा पूर्वोक्त प्राणों की कारणभूत पर्याप्तियां रहती ही हैं, इसलिये छठे समयसे वचनबल और श्वासोच्छवास ये दो प्राण और माने जा सकते है। इसप्रकार पूर्वोक्त दोनों प्राणों में इन दोनों प्राणों के मिला देने पर केवलीके औदारिकमिश्रकाययोगमें चार प्राण भी कहे जा सकते हैं। मनःपर्याप्तिके रहने पर भी केवलोके मनःप्राण नहीं माना है, इसका कारण यह है कि मनःप्राणमें भावमन और मनःपर्याप्ति ये दोनों कारण हैं, इसलिये इनमेंसे जहां केवल एक कारण होता है वहां मनःप्राण नहीं कहा गया है। केवलीके भावमन नहीं पाया जाता है, इसलिये मनःपर्याप्तिके रहने पर भी मनःप्राण नहीं कहा गया है और शेष संशी जीवोंके अपर्याप्त अवस्थामें भावमनका अस्तित्व होते हुए भी मनःपर्याप्ति
Page #353
--------------------------------------------------------------------------
________________
६६० ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, १.
ओरालियमिस्सयकायजोगो, अवगदवेदो, अकसाओ, केवलणाणं, जहाक्खादविहारसुद्धिसंजमो, केवलदंसणं, दव्त्रेण काउलेस्सा, मूलसरीरस्स छ लेस्साओ संति ताओ किण्ण उच्चति त्ति भणिदे ण, चोहस-रज्जु-आयामेण सत्त-रज्जु - वित्थारेण एक-रज्जुमार्द काढूण वडिद - वित्थारेण बारिद-जीव पदेसाणं पुव्त्रसरीरेण संखेज्जंगुलोगाहणेण संबंधाभावादो । भावे वा जीवपदेस - परिमाणं सरीरं होज । ण च एवं, वैधहरस्सर सरीरस्स तेत्तियमेतद्भाणपसरण -सत्ति - अभावादो, ओरालिय मिस्सकायजोगण्णहाणुववत्तीदो वा । ण चिराण- सरीरेण कवाडगद - केवलिस्स संबंधो अस्थि । भावेण सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया, खइयसम्मत्तं णेव नहीं पाई जाती है, इसलिये मनःप्राण नहीं माना गया है ।
प्राण आलापके आगे क्षीणसंज्ञास्थान, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, औदारिकमिश्रकाययोग, अपगतवेदस्थान, अकषायस्थान, केवलज्ञान, यथाख्यातविद्यारशुद्धिसंयम, केवलदर्शन, और द्रव्यसे कापोत लेश्या होती है ।
शंका-सयोगिकेवली के मूलशरीरकी तो छहों लेश्याएं होती हैं, फिर उन्हें यहां क्यों नहीं कहते हैं ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, कपाटसमुद्घातके समय चौदह राजु आयाम ( लम्बाई ) से और सात राजु विस्तार से अथवा चौदह राजु आयामसे और एक राजुको आदि लेकर बढ़े हुए विस्तारसे व्याप्त जीवके प्रदेशोंका संख्यात अंगुलकी अवगाहनावाले पूर्व शरीर के साथ संबन्ध नहीं हो सकता है। यदि संबन्ध माना जायगा, तो जीवके प्रदेशों के परिमाणवाला ही औदारिक शरीरको होना पड़ेगा । किन्तु ऐसा हो नहीं सकता; क्योंकि, विशिष्ट बंधको धारण करनेवाले शरीरके पूर्वोक्त प्रमाणरूपसे पसरने (फैलने) की शक्तिका अभाव है । अथवा, यदि मूलशरीर के कपाटसमुद्धात प्रमाण प्रसरणशक्ति मानी जाय तो फिर उनकी औदारिकमिश्रकाययोगता नहीं बन सकती है । तथा कपाट समुद्धातगत केवलीका पुराने मूलशरीर के साथ संबन्ध है नहीं, अतएव यही निष्कर्ष निकलता है कि सयोगिकेवलीके मूलशरीर की छहीं लेश्याएं होनेपर भी कपाटसमुद्धात के समय उनका ग्रहण नहीं किया जा सकता है । किन्तु औदारिकमिश्रकाययोग होनेके कारण एक कापोतलेश्या ही कही गई है ।
विशेषार्थ — पूर्वाभिमुख केवलीके समुद्धात करने पर कपाटसमुद्धातमें जीवके प्रदेश ऊपर और नीचे चौदह राजुप्रमाण होते हैं और उत्तर दक्षिण सात राजु फैल जाते हैं। तथा उत्तराभिमुख केवलीके कपाटसमुद्धात के समय ऊपर और नीचे चौदह राजुप्रमाण होते है और पूर्व पश्चिम एक राजुको आदि लेकर बढ़े हुए विस्तार के अनुसार फैल जाते हैं, परंतु मूलशरीर संख्यात अंगुलकी अवगाहना प्रमाण ही होता है, इसलिये मूलशरीरक लेश्या औदारिकमिश्रकाययोगमें नहीं ली जा सकती है। किन्तु उस समय जो नोकर्मवगणाएं आती हैं उन्हींकी लेश्या ली जायगी । अतः केवलीके औदारिक मिश्रकाययोग की अवस्था में द्रव्यसे कापोतलेश्या कही है ।
१ प्रतिषु ' ए बंधहरस्स ' इति पाठः ।
Page #354
--------------------------------------------------------------------------
________________
१,१. ]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे जोग आलाबवण्णणं
सण व असो, आहारिणो, सागार- अणागारेहि जुगवदुवजुत्ता वा " ।
२७८
उब्वियकाय जोगीणं भण्णमाणे अत्थि चत्तारि गुणट्ठाणाणि, एगो जीवसमासो, छत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगदी देवगदि त्ति दो गदीओ, पंचिदियजादी, तसकाओ, वेउच्चिय कायजोगो, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, छ णाण, असंजमो, तिण्णि दंसण, दव्य-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मतं, सणणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
द्रव्यलेश्या आलापके आगे भावसे शुकुलेश्या, भव्यसिद्धिक, क्षायिकसम्यक्त्व, संज्ञिक और असंशिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित, आहारक, साकार और अनाकार इन दोनों उपयोगों युगपत् उपयुक्त होते हैं।
वैक्रियिककाययोगी जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर - आदिके चार गुणस्थान, एक संज्ञी - पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगति और देवगति ये दो गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, वैक्रियिककाययोग, तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान और आदिके तीन ज्ञान इसप्रकार ये छह ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिकः अभव्यसिद्धिक, छहों सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
नं. २७८
औदारिक मिश्रकाय योगी सयोगिकेवलीके आलाप.
गु. जी, प. प्रा. सं. ग.) इं. का. यो. वे.क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. ] सं. संज्ञि. आ. उ.
१
० १
१
१
१ द्र. १ १ १
२
จ १ म.
सयो. अप. अ
ARMOP SPPORT SUPPRE
केव. यथा, के. द. का. भ. क्षा. अनु. आहा. साका.
अना.
मा. १ शुरू.
नं. २७९
वैक्रियिककाययोगी जीवोंके सामान्य आलाप.
गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ] इं का. यो. वे. क. ज्ञा. संय द. ले. भ. स. संज्ञि. आ.
६ १० ४
४
मि.
सा.
सम्य. अवि.
सं. प.
Eck
२
१
औ.मि.
99.0 14.
त्रस
[ ६६१
१ ३ द्र. ६ २ ६ ज्ञान. ३ असं. के. द. भा. ६ भ. ( अज्ञा. ३ विना
अ.
३ ४ ६
उ. २
१ १
सं. आहा. साका. अना.
Page #355
--------------------------------------------------------------------------
________________
६६२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. वेउव्वियकायजोगि-मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, दो गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, वेउव्वियकायजोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिणि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्व-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।।
"वेउब्वियकायजोगि-सासणसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एगं गुणवाणं, एओ जीवसमासो, छ पञ्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, दो गदीओ, पंचिंदियजादी,
वैक्रियिककाययोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां; दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगति और देवगति ये दो गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, वैक्रियिककाययोग, तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, मव्यसिद्धिक, अभव्यासद्धिकः मिथ्यात्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
वैक्रियिककाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर-एक सासादन गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संशाएं, नरकगति और देवगति ये दो गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, वैक्रियिककाययोग, तीनों
................
नं. २८० धैक्रियिककाययोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप. । गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. | संय. द. ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ. 1
१६ १० ४ २ १ १ १ ३ ४ ३ १ २ द्र.६ २१११२ मि. सं.प. न. पंचे.तस.
अज्ञा. असं. चक्षु. भा. ६ भ. मि. सं. आहा. साका. अच.
अना.
नं.२८१ वैक्रियिककाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. | का. यो. वे. ( क. ज्ञा. संय. द. ले. म. स. संझि. आ. | उ. । |१ १ ६ १०/४/२ १ १ १ | ३ ४ ३ १ २ द्र. ६ १ १ १ १ २ सा.सं.प न. पंचे. त्रस.
अज्ञा. असं. चक्षु. मा.६ भ. सा. सं. आहा. साका. अच.
अना.
air moi
Page #356
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १. ]
संत - परूवणाणुयोगद्दारे जोग आलाववण्णणं
[ ६६३
तसकाओ, वेउच्वियकाय जोगो, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिणि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्व-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, सासणसम्मतं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुत्रजुत्ता वा ।
उब्वियकाय जोगि- सम्मामिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जतीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, दो गदीओ, पंचिदियजादी, तसकाओ, वेउच्चियकायजोगो, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिष्णि णाणाणि तीहिं अण्णाणेहि मिस्साणि, असंजमो, दो दंसण, दव्व-भावेहि छ लेस्सा, भवसिद्धिया, सम्मामिच्छत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा " ।
उब्वियकायजोगि - असंजदसम्माहट्टीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, दो गदीओ, पंचिदियजादी, तसकाओ, वेउच्वियकायजोग, तिष्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिष्णि णाण, असंजमो,
वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
वैrefrastrयोगी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर - एक सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगति और देवगति ये दो गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, वैक्रियिककाययोग, तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञानोंसे मिश्रित आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छद्दों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, सम्यग्मिथ्यात्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं
वैक्रियिककाययोगी असंयत सम्यग्दृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर - एक अविरतसम्यदृष्टि गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगति और देवगति ये दो गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, वैक्रियिककाययोग, तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भाषसे छहों
नं. २८२
गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. १ १ ६ १० ४ २ १ १ ३ ४
सम्य.
सं. प.
वैrates काययोगी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप.
भ ू स. संशि. आ.
शा. संय. द. ले. ३ १ २ द्र. ६ १ १ अज्ञा. असं चक्षु. भा. ६ भ. सम्य. सं. आहा. साका.
१
-१
२
अच.
अना.
३ ज्ञान. मिश्र.
उं
Page #357
--------------------------------------------------------------------------
________________
६६४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. तिण्णि दंसण, दव्व-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा ।
वेउब्धियमिस्सकायजोगीण भण्णमाणे अत्थि तिण्णि गुणहाणाणि, एगो जीवसमासो, छ अपजत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, दो गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, वेउब्बियमिस्सकायजोगो, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, विभंगणाणेण विणा पंच णाणाणि, असंजमो, तिण्णि दसण, दव्वेण काउलेस्सा, भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, सम्मामिच्छत्तेण विणा पंच सम्मत्ताणि, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, और अविरतसम्यग्दृष्टि ये तीन गुणस्थान, एक संझी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगति और देवगति ये दो गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, वैक्रियिकमिश्रकाययोग, तीनों वेद, चारों कषाय, विभंगावधिज्ञान के विना पांच ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोतलेश्या, भावसे छहों लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; सम्यग्मिथ्यात्वके विना पांच सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और आनाकारोपयोगी होते हैं।
नं.२८३
वैक्रियिककाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके आलाप. गु. । जी. प. प्रा. सं. ग. इं.का. यो. वे. क ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संनि. | आ. उ.
१६१०४२१ १ २ ३ ४ ३ १ ३ द्र. ६ ३ ३ । १ १ Ltd. प. न. वे.. मति. अस. के.द. भा. ६ भ. औप. सं. आहा. | साका.
विना. क्षा.
अना. अव.
क्षायो,
पच. - त्रस..
नं. २८४ वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके सामान्य आलाप. । गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. (म. स. संज्ञि. | आ. । उ,
मि. सं.अ. अ.
स.
सं.
E cho
आहा. साका.
अना.
अवि.
| कुम. असं. के.द. का. म. मि.
कुथु. विना. भा. ६ अ. सासा. मति.
औ. श्रुत. अव.
क्षायो.
क्षा.
Page #358
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे जोग-आलाववण्णणं
[६६५ वेउव्वियमिस्सकायजोगि-मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ अपजत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, दो गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, वेउनियमिस्सकायजोगो, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, दो दंसण, दव्वेण काउलेस्सा, भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
वेउव्वियमिस्सकायजोगि-सासणसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ अपजत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदी', पंचिंदियजादी,
___ वैक्रियिकमिश्रकाययोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संक्षी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संशाएं, नरकगति और देवगति ये दो गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, वैक्रियिकमिश्रकाययोग, तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे कापोतलेश्या, भावसे छहों लेश्याएं; भव्यासिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
वैक्रियिकमिश्रकाययोगी सालादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर- एक सासादन गुणस्थान, एक संज्ञी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगति,
१ण सासणो णारयापुण्णे । गो. जी. १२८. नं. २८५ वैक्रियिकमिश्रकाययोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप. | गु. जी. | प. प्रा. सं. ग. इं. | का. यो. वे. क. ज्ञा. । संय.। द. ले. म. स. संज्ञि. आ. | उ. |
૨
मि.सं.अ. अ.
न. प. स. वै.मि.
कुम. असं. चक्षु. का. भ. मि. सं. आहा. | साका. कुश्रु. अच. भा.६ अ.
अना.
नं. २८६ वैक्रियिकमिश्रकाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके आलाप. | गु. जी. प.प्रा. सं. ग. इं. का. यो. [ वे. क. ना. संय. द. ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ. । | ११६७ ४१ १ १ १ २४ २ १ २ द्र.११ १ १ १ २ सा.सं.अ. अ. दे. पं. स. वै.मि. स्त्री कुम. असं. चक्षु, का. भ. सा. सं. आहा. साका.
कुश्रु. अच. भा.६
अना.
Page #359
--------------------------------------------------------------------------
________________
६६६] छक्खंडागमे जीवहाणं
[१, १. तसकाओ, वेउब्वियमिस्सकायजोगो, णqसयवेदेण विणा दो वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दसण, दव्वेण काउलेस्सा, भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
वेउनियमिस्सकायजोगि-असंजदसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, वे गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, वेउचियमिस्सकायजोगो, पुरिस-णचुंसयवेदा त्ति दो वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजमो, तिण्णि दंसण, दव्वेण काउलेस्सा, भावेण जहणिया काउलेस्सा तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
पंचेन्द्रियजाति, असकाय, वैक्रियिकमिश्रकाययोग, नपुंसकवेदके विना दो वेद, चारों कषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे कापोतलेश्या, भावसे छहों लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
वैक्रियिकमिश्रकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर-एक अधिरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संक्षाएं, नरकगति और देवगति ये दो गतियां, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, वैक्रियिकमिश्रकाययोग, पुरुषवेद और नपुंसकवेद ये दो वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत लेश्या, भावसे जघन्य कापोत लेश्या और तेज, पद्म तथा शुक्ल लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व; संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
नं. २८७ वैक्रियिकमिश्रकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके आलाप. गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. वे. क. सा. संय. द. ले. म. स. । संलि. आ. उ.
अवि. 01
El is to
.सं.अ. अ.
न. पचे. दे ।
वै.मि. पु..
न.
मति. असं. | के.द का. भ. औप. सं. आहा. साका. श्रुत. विना. भा. ४ क्षा .
अना. अव.।
का.ते.
क्षायो.
प.शु.
Page #360
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे जोग-आलाववण्णणं [६६७
आहारकायजोगाणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, आहारकायजोगो, पुरिसवेदो, इत्थि-णउंसयवेदा णत्थि । किं कारणं ? अप्पसत्थवेदेहि सहाहारिद्धी ण उप्पज्जदि त्ति । चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, मणपज्जवणाणं णत्थि । कारण, आहार-मणपज्जवणाणाणं सहाणवट्ठाणलक्खणविरोहादो। दो संजम, परिहारसुद्धिसंजमो णत्थि; एदेण वि सह आहारसरीरस्स विरोहादो। तिण्णि दंसण, दव्वेण सुक्कलेस्सा, भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ; भवसिद्धिया, दो सम्मत्तं, उवसमसम्मत्तं णत्थि; एदेण वि सह विरोधादो। सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा“ ।
___ आहारककाययोगी जीवोंके आलाप कहने पर--एक प्रमत्तसंयत गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, आहारककाययोग, एक पुरुषवेद होता है तथा स्त्री और नपुंसकवेद नहीं होते हैं।
शंका-आहारककाययोगी जीवोंके स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके नहीं होनेका क्या कारण है ?
समाधान-क्योंकि, अप्रशस्त वेदोंके साथ आहारकऋद्धि नहीं उत्पन्न होती है।
वेद आलापके आगे चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान होते हैं। मनःपर्ययज्ञानके नहीं होनेका यह कारण है कि आहारकऋद्धि और मनःपर्ययज्ञानका सहानवस्थानलक्षण विरोध है अर्थात् ये दोनों एक साथ एक जीवमें नहीं रहते हैं। ज्ञान आलापके आगे सामायिक
और छेदोपस्थापना ये दो संयम होते हैं परंतु परिहारविशुद्धिसंयम नहीं होता है; क्योंकि, इसके साथ भी आहारकशरीरका विरोध है। संयम आलापके आगे आदिके तीनों दर्शन, द्रव्यसे शुक्ललेश्या, भावसे तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये दो सम्यक्त्व होते हैं, परंतु उपशमसम्यक्त्व नहीं होता है; क्योंकि, इसके साथ भी आहारकशरीरका विरोध है। सम्यक्त्व आलापके आगे संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं। १ मणपज्जवपरिहारो पढमुवसम्मत्त दोणि आहारा । एदेसु एकपगदे णत्थि त्ति असेसयं जाणे॥
गो. जी. ७२८. नं २८८
आहारककाययोगी जीवोंके आलाप. | गु.जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. |वे. क. बा. संय. द. | ले. भ. स. संनि. आ. . ११६ १०४ १११ १ १ ४ ३ २ ३ द्र.११ २११२ म. पंचे. त्रस . आहा. पु. मति- सामा. के.द. शु. म. क्षा. सं. आहा. साका.
श्रुत. छेदो. विना. मा.
३ क्षायो.
प्रम. . सं. प. .
अना.
अव.
शुम.
Page #361
--------------------------------------------------------------------------
________________
६६८ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, १.
आहार मिस्स कायजोगाणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिदियजादी, तसकाओ, आहार मिस्सकायजोगो, पुरिसवेदो, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, दो संजमा, तिष्णि दंसण, दव्वेण काउलेस्सा, भावेण तेउ पम्म सुक्कलेस्साओ; भवसिद्धिया, दो सम्मत्तं, सम्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा 1
२८९
कम्मइयकायजोगाणं भण्णमाणे अत्थि चत्तारि गुणट्टाणाणि, सत्त जीवसमासा, छ अपज्जतीओ पंच अपज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, सजोगिकेवलिं पहुच दो पाण, साणं सत पाण सच पाण छ पाण पंच पाण चत्तारि पाण तिणि पाण; चत्तारि सणाओ खीणसण्णा वि अस्थि, चत्तारि गदीओ, एइंदियजादि -आदी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छक्काय, कम्मइयकायजोगो, तिण्णि वेद अवगदवेदो वि अस्थि, चत्तारि
आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके आलाप कहने पर - एक प्रमत्तसंयत गुणस्थान, एक संत्री-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, आहारकमिश्रकाययोग, पुरुषवेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, सामायिक और छेदोपस्थापना ये दो संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोतलेश्या, भावसे तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं, भव्यसिद्धिकः क्षायिक और क्षायोपशमिक ये दो सम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
कार्मणकाय योगी जीवों के सामान्य आलाप कहने पर - मिध्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि और सयोगिकेवली ये चार गुणस्थान, संशी-पंचेन्द्रिय जीवोंसे लेकर एकोन्द्रय जीवोंकी अपेक्षा अपर्याप्तकालभावी सात अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियांः प्रतर और लोकपूरण समुद्धातगत सयोगिकेवली की अपेक्षा आयु और cream ये दो प्राण होते हैं तथा शेष जीवोंके क्रमशः सात प्राण, सात प्राण, छह प्राण, पांच प्राण, चार प्राण और तीन प्राण होते हैं। चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंज्ञास्थान भी है, चारों गतियां, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छहों काय, कार्मणकाययोग, तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है, चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी
१ प्रतिषु ' काउ- सुक्कलेस्सा ' इति पाठः ।
नं. २८९
गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. । द.
६ ७ ४ १
म.
१
१ प्र. सं.अ. अ.
आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके आलाप.
पंचे. ७ :
१ ४ ३ २
१
त्रस. आ. मि. पु.
३ मति. सामा. के. द. श्रुत छेदो. विना.
अव.
ले. भ. स.
द्र. १ १ २ का. भ. क्षा. भा. ३ क्षायो.
शुभ.
*
| संज्ञि | आ.
उ.
१ १ २
सं. आहा. साका. अना.
Page #362
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.]
संत-परूवणाणुयोगदारे जोग-आलाववण्णणं कसाय अकसाओ वि अत्थि, मणपजव-विभंगणाणेहि विणा छ णाणाणि, जहाक्खादविहारसुद्धिसंजमो असंजमो चेदि दो संजम, चत्तारि देसण, दव्वेण सुक्कलेस्सा, अहवा छहि पजत्तीहि पजत्त-पुव्वसरीरं पेक्खिऊणुवयारेण दव्वेण छ लेस्साओ हवंति । भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, पंच सम्मत्तं, सणिणो असण्णिणो णेव सणिणो णेव असणिणो, अणाहारिणो, णोकम्मग्गहणाभावादो । कम्मग्गहणमत्थित्तं पडुच्च आहारित्तं किण्ण उच्चदि त्ति भणिदे ण उच्चदि; आहारस्त तिण्णि-समय-विरहकालोवलद्धीदो । सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा सागार-अणागारेहि जुगवदुवजुत्ता वा।
है, मनःपर्ययज्ञान और विभंगावधिज्ञानके विना छह शान, यथाख्यात विहारशुद्धिसंयम और असंयम ये दो संयम, चारों दर्शन, द्रव्यसे शुक्ललेश्या होती है। अथवा, केवलीके छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त पूर्व शरीरको देखकर उपचारसे द्रव्यकी अपेक्षा छहों लेश्याएं होती हैं । भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः सम्यग्मिथ्यात्वके विना शेष पांच सम्यक्त्व, संक्षिक, असंक्षिक तथा संज्ञिक और असंशिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी स्थान होता है। अनाहारक होते हैं। आहारक नहीं होनेका कारण यह है कि कार्मणकाययोगी जीव नोकर्मवर्गणाओंको ग्रहण नहीं करते हैं।
__ शंका-कार्मणकाययोगकी अवस्था में भी कर्मवर्गणाओंके ग्रहणका अस्तित्व पाया जाता है, इस अपेक्षा कार्मणकाययोगी जीवोंको आहारक क्यों नहीं कहा जाता?
समाधान-ऐसा शंकाकारके कहने पर आचार्य उत्तर देते हैं कि उन्हें आहारक नहीं कहा जाता है, क्योंकि, कार्मणकाययोगके समय नोकर्मणाओंके आहारका अधिक से अधिक तीन समयतक विरहकाल पाया जाता है।
आहार आलापके आगे साकारोपयोगी, अनाकारोपयोगी तथा साकार और अनाकार इन दोनों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त भी होते हैं।
..................
६अ.
नं. २९०
कार्मणकाययोगी जीवोंके सामान्य आलाप. | गु. जी. प. प्रा. | सं. ग. | इं.का. यो. वे. क. | झा. | संय. । द. ले. भ. स. | संलि. आ.| उ. |
। ६ २ ४द्र.१ २ ५ २ १ २
मन:, असं. शु. म. मि. सं. अना साका. सासा.
यथा. अथ. अ. सा. असं.
अना. अवि.
विना.
क्षा. अनु. यु.उ. सयो.
भा. ६ क्षायो.
| औप..
| म
अप.५"
क्षीणसं. .
कार्म.
my 'lable
अकषा.
Page #363
--------------------------------------------------------------------------
________________
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, १.
कम्मइयकायजोग-मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, सत्त जीवसमासा, छ अपत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण छ पाण पंच पाण चत्तारि पाण तिष्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, एइंदियजादिआदी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छक्काय, कम्मइयकायजोगो, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्त्रेण सुक्कलेस्सा, भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो असण्णिणो, अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
२९१
६७० ]
कम्मइयकाय जोग- सासणसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एगं गुणद्वाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगदीए विणा तिष्णि गदीओ, पंचिदियजादी, तसकाओ, कम्मइयकायजोगो, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्वेण सुक्कलेस्सा, भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया,
कार्मण काययोगी मिध्यादृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर - एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, अपर्याप्तकालभावी सात अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां; सात प्राण, सात प्राण, छह प्राण, पांच प्राण, चार प्राण और तीन प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छहों काय, कार्मणकाययोग, तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे शुक्ललेश्या, भावसे छहों लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः मिथ्यात्व, संशिक, असंशिकः अनाहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
कार्मणकाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर - एक सासादन गुणस्थानं, एक संज्ञी अपर्याप्त जीवसमासः छहों अपर्याप्तियां; सात प्राण: चारों संज्ञाएं, नरकगति के विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, कार्मणकाययोग, तीनों वेद, धारों कषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे शुकुलेश्या, भावसे छद्दों
नं. २९१
कार्मणकाययोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप.
गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. | वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ. १ ७ ६अ. ७ ४ ४ ५ ६ १ ३ ४ २ १ २ द्र. १ २ १ २ १ मि. अप. ५अ. ७ कुम. असं. चक्षु. शु. भ. मि. सं. अना. साका.
२
कार्म.
PRESENTATIONICARA SANTRALAY
४ अ ६
कुश्रु.
अ. भा. ६ अ.
असं.
अना.
Page #364
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.]
संत-पख्वणाणुयोगहारे जोग-आलाववण्णणं
[६७१ सासणसम्मत्तं, सणिणो, अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा"।
कम्मइयकायजोग-असंजदसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एगं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, कम्मइयकायजोगो, दो वेद, इत्थिवेदो णत्थि; चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजमो, तिण्णि दसण, दव्वेण सुक्कलेस्सा, भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सण्णिणो, अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संशिक, अनाहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
कार्मणकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, कार्मणकाययोग, पुरुष और नपुंसक ये दो वेद होते हैं, स्त्रीवेद नहीं होता है। चारों कषाय, आदिके तीन झान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे शुक्ललेश्या, भावसे छहों लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व, संशिक, अनाहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं. २९२ कार्मणकाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इ. का.। यो. । वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संशि. आ. । उ. | सा. सं. अ.अ. ति. स. काम. कुम. असे. चक्षु.शु म.सासा.सं. अना. साका.
1कुश्रु अच. भा.६
पंचे...
अना.
नं. २९३ कार्मणकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके आलाप. | गु. ( जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. (वे. क. सा. संय. द. ले. म. स. संक्षि. आ. उ. ।
पंचे. .in त्रस. -
अवि.सं.अ. अ.
कार्म. न.
पु.
मति. असं. के.द. शु. श्रुत. विना. भा. ६ अव.
भ. औप.
क्षा. क्षायो.
सं. अना. साका.
अना.
Page #365
--------------------------------------------------------------------------
________________
छक्खंडागमै जीवहाणं
[१, १. ___ कम्मइयकायजोग-सजोगिकेवलीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ अपजत्तीओ, दो पाण, खीणसण्णा, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, कम्मइयकायजोगो, अवगदवेदो, अकसाओ, केवलणाणं, जहक्खादसुद्धिसंजमो, केवलदंसण, दव्वेण सुक्कलेस्सा छ लेस्साओ वा, भावेण सुक्कलेस्सा चेवः भवसिद्धिया, खइयसम्मत्तं, णेव सण्णिणो णेव असण्णिणो, अणाहारिणो, सागार-अणागारेहि जुगवदुवजुत्ता वा। सुगममजोगीणं ।
एवं जोगमग्गणा समत्ता । वेदाणुवादेण अणुवादो जहा मूलोघो णीदो तहा णेदव्यो। णवरि णव गुणहाणाणि त्ति वत्तव्वं; वेदे णिरुद्धे उवरिमगुणट्टाणाभावादो। अत्थि खीणसण्णा, अवगदजोगो,
कार्मणकाययोगी सयोगिकेवलियोंके आलाप कहने पर-एक सयोगिकेवली गुणस्थान, एक अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, आयु और कायबल ये दो प्राण, क्षीणसंक्षा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, कार्मणकाययोग, अपगतवेद, अकषाय, केवलज्ञान, यथाख्यातविहारशुद्धिसंयम. केवलदर्शन, द्रव्यसे शुक्ललेश्या, अथवा औदारिकशरीरकी अपेक्षा छहों लेश्याएं होती हैं, किन्तु भावसे शुक्ललेश्या ही होती है। भव्यसिद्धिक, क्षायिकसम्यक्त्व, संशिक और असंशिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित, अनाहारक, साकार और अनाकार इन दोनों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त होते हैं। अयोगी जीवोंके आलाप सुगम ही हैं।
इसप्रकार योगमार्गणा समाप्त हुई। घेदमार्गणाके अनुवादसे कथन करने पर आलापोंका कथन जैसा मूल ओघालापमें लिया गया है पैला यहां पर भी लेना चाहिये । विशेष बात यह है कि यहां आदिके नौ गुणस्थान होते हैं ऐसा कहना चाहिए, क्योंकि वेदनिरुद्ध अवस्थामें अर्थात् वेदोंसे युक्त रहने पर ऊपरके गुणस्थानोंका अभाव है। तथा यहां पर क्षीणसंशा, अपगतयोग, अपगतवेद, अकषाय, अलेश्य,
१ अ प्रतौ ' तं जहा णेदव्वा ' क प्रतौ · जं जहा णेदव्या ' आ प्रती · तम्हा णेवव्वा' इति पाठः । मैं.१९४
कार्मणकाययोगी सयोगिकेवली जिनके आलाप. |गु. जी. । प. प्रा. सं. | ग.| ई. का. यो..। वे. क. ज्ञा. । संय. द. ले. म. स. संक्षि. आ.) उ...
u
सियो. अप.
आयु.
क्षीणसं. .
म. पं. स. काम.
bile
काय,
अपग. अकषा.
केव. यथा के. शु. म. क्षा. अनु. अना. साका. अथ.६
अना. भा.१
यु.उ.
Page #366
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगहारे वेद-आलाववण्णणं
[६७३ अवगदवेदो, अकसाओ, अलेस्सा, णेव भवसिद्धिया णेव अभवसिद्धिया, णेव सण्णिणो णेव असण्णिणो, सागार-अणागारेहि जुगवदुवजुत्ता वा होति त्ति एदे आलावा ण वत्तव्वा । केवलणाणं, केवलदसणं, सुहुमसांपराइयसुद्धिमंजमो जहाक्खादविहारसुद्धिसंजमो च अवणेदव्वा । अणिदिया वि अस्थि, अकाइया वि अस्थि, एदे वि आलावा ण वत्तव्वा ।
" इत्थिवेदाणं भण्णमाणे अत्थि णव गुणट्ठाणाणि, चत्तारि जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ पंच पज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण णव पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगदीए विणा तिण्णि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, आहार-आहारमिस्सकायजोगेहि विणा तेरह जोग, इत्थिवेद, चत्तारि कसाय, मणपञ्जव केवलणाणेहि विणा छ णाण, परिहार-सुहुमसांपराइय-जहाक्खादविहारसुद्धिसंजमेहि विणा चत्तारि संजम, तिणि दंसण, दव-भावेहि छ लेस्सा, भवसिद्धिया अभव
भव्यसिद्धिक और अभव्यसिद्धिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित स्थान, संचिक और असंक्षिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित स्थान, साकार और अनाकार उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त स्थान, इतने आलाप नहीं कहना चाहिए। तथा केवलज्ञान, केवलदर्शन, सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयम,
और यथाख्यातविहारशुद्धिसंयम इतने आलाप भी निकाल देना चाहिए। और अनिन्द्रिय भी होते हैं, अकायिक भी होते हैं, ये आलाप भी नहीं कहना चाहिए।
स्त्रीवेदी जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-आदिके नौ गुणस्थान, संक्षी-पर्याप्त, संक्षी-अपर्याप्त, असंही-पर्याप्त और असंही-अपर्याप्त ये चार जीवसमास, संक्षीके छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; असंहीके पांच पर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां संझीके दशों प्राण, सात प्राण; असंशीके नौ प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोगके विना शेष तेरह योग, स्त्रीवेद, चारों कषाय, मनःपर्यय और केवलज्ञानके विना शेष छ शान, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यातविहारशुद्धिसंयमके विना शेष चार संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, छहों सम्यक्त्व,
नं. २९५ । गु. जी. प.
स्त्रीवेदी जीवोंके सामान्य आलाप. प्रा. सं. ग.इ.का.) यो. वे. क. सा. संय. द. ले.
भ. स. संलि.
आ. । उ. ।
आदिके -
ति .
पंचे. .
आरा.२ स्त्री. | विना.
He. सं. प. ६अ
सं.अ. ५५. असं.प. अ./ असं.अ.
मनः. असं के द. भा. ६ म. केर. देश विना. विना समा.
दो..
सं. आहा. साका.
| अना. अना
Page #367
--------------------------------------------------------------------------
________________
६७४ ] छक्खंडागमे जौवट्ठाणं
[१, १. सिद्धिया, छ सम्मत्तं, सण्णिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
तेसिं चेव पजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि णव गुणट्ठाणाणि, दो जीवसमासा, छ पजत्तीओ पंच पञ्जत्तीओ, दस पाण णव पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिणि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दस जोग, इथिवेदो, चत्तारि कसाय, छ णाण, चत्तारि संजम, तिणि दंसण, दव्य-भावेहिं छ लेस्सा, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सण्णिणो असण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
इत्थिवेद-अपञ्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि वे गुणट्ठाणाणि, वे जीवसमासा, छ अपज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिणि गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, तिण्णि जोग, इत्थिवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो,
संक्षिक, असंक्षिक; आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
उन्हीं स्त्रीवेदी जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-आदिके नौ गुणस्थान, संक्षी-पर्याप्त और संशी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, पांच पर्याप्तियां, दशों प्राण, नौ प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, नसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग; स्त्रीवेद, चारों कषाय, मनःपर्यय और केवलज्ञानके विना शेष छह शान, असंयम, देशसंयम, सामायिक और छेदोपस्थापना ये चार संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; छहों सम्यक्त्व, संशिक, असंशिक; आहारक, साकारोपयोगी, और अनाकारोपयोगी होते हैं।
स्त्रीवेदी जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि ये दो गुणस्थान, संशी-अपर्याप्त और असंझी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां; सात प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिकमिश्रकाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये तीन योग; स्त्रीवेद, चारों कषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम, आदिके
नं. २९६ । गु. जी.
स्त्रीवेदी जीवोंके पर्याप्त आलाप. प. प्रा. सं. ग. ई.का. यो. वे. क. झा. | संय.| द. । ले. (म. स. संलि. आ.। उ. |
सं.प. ५ ९ असं.प.
ति.पं. त्र. म. ४ स्त्री.
सं. आहा. साका.
आदिके.
व.४
मन. असं. के.द. मा. ६ भ. केव. देश. विना. विना. सामा.
अना.
औ.१
छेदो.
Page #368
--------------------------------------------------------------------------
________________
१,१] संत-परूवणाणुयोगहारे वेद-आलाववण्णणं
[६७५ दो दंसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं सासणसम्मत्तमिदि दो सम्मत्तं, सण्णिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता हेति अणागारुवजुत्ता वा।
___इत्थिवेद-मिच्छाइट्टीणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, चत्तारि जीवसमासा, छ पजत्तीओ छ अपज्जत्तीओ पंच पजत्तीओ पंच अपजत्तीओ, दस पाण सत्त पाण णव पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिण्णि गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, तेरह जोग, इत्थिवेद, चत्तारि कसाय, तिणि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्व-भावेहि छ
दो दर्शन, द्रब्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भन्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व और सासादनसम्यक्त्व ये दो सम्यक्त्व, संक्षिक, असंशिक; आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और आनाकारोपयोगी होते हैं।
स्त्रीवेदी मिथ्यादृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, संझी-पर्याप्त, संशी-अपर्याप्त, असंही-पर्याप्त और असंज्ञी-अपर्याप्त ये चार जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; पांच पर्याप्तियां और पांच अपर्याप्तियां; दशों प्राण और सात प्राण, नौ प्राण और सात प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोगके विना शेष तेरह योग, स्त्रीवेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे
नं. २९७
स्त्रीवेदी जीवोंके अपर्याप्त आलाप. , गु.| जी. । प. प्रा. सं. | ग. इं.का. यो. वे. क. झा. संय. | द. | ले. भ. स. संझि. आ. | उ. २२ ६अ. ७ |४|३|११३१४ २ १ २ द्र.२/२२ | २ | मि. सं.अप.५ , ७ ति पं. त्र. औ.मि. स्त्री. कुम. असं. चक्षु. का. म. मि. सं. आहा. साका. सा. असं.
वै.मि. । । कुथु.
अच. शु. अ. सा. असं. अना. अना. कार्म.
भा.३
अशु.
नं. २९८
स्त्रीवेदी मिथ्यादृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग.) ई. का. यो. वे. क.सा.। संय. द. ले. म. स. संक्षि. आ. | उ..
र ४ ६५.१०४३ ११ १३ १ ४ ३ १ २ द्र.६ २१ २ २ । २ मि. सं. प. ६अ.७ ति.पं. स. आहा.२ स्त्री. अज्ञा. असं. चक्षु. मा. ६ म. मि. सं. आहा. साका. सं. अप. ५५.९ म. विना.
अ. असं. अना. अना. असं. प. ५अ./७ असं.अप.
|अच.
Page #369
--------------------------------------------------------------------------
________________
६७६ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, १.
लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
सिं चैव पञ्जत्ताणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, छ पजत्तीओ पंच पत्तीओ, दस पाण णव पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिण्णि गदीओ, पंचिदियजादी, तसकाओ, दस जोग, इत्थवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्व-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो असण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
२९९
सिं चेव अपत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, वे जीवसमासा, छ अपजत्तीओ पंच अपजत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिण्णि गदीओ, पंचिदियजादी, तसकाओ, तिण्णि जोग, इत्थिवेदो, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण,
छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः मिथ्यात्व, संज्ञिक, असंशिक; आहारक, अनाहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
उन्हीं स्त्रीवेदी मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, संशी-पर्याप्त और असंज्ञी-पर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां; पांच पर्याप्तियां; दशों प्राण, नौ प्राण; चारों संज्ञाएं, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रि यजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग; स्त्रीवेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः मिथ्यात्व, संज्ञिक, असंज्ञिक; आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
उन्हीं स्त्रीवेदी मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, संज्ञी अपर्याप्त और असंज्ञी - अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों अपर्या प्तियां, पांच अपर्याप्तियां; सात प्राण, सात प्राणः चारों संज्ञाएं, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिकमिश्रकाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये तीन योगः स्त्रीवेद, चारों कषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम, आदिके
नं. २९९
गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. १ १ ६ १० ४ ३ १ १
मि. सं. प. ५ ९ ति. पंचे. तस. म. ४ स्त्री.
असं.प.
म.
व. ४
स्त्रीवेदी मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप.
4
यो.
२
वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ. १० १ ४ ३ १ २ द्र. ६ २ १ २ १ अशा असं चक्षु. भा. ६ म. मि. सं. आहा. साका. अच. असं. अना.
अ.
Page #370
--------------------------------------------------------------------------
________________
१,१.]
संत - परूवणाणुयोगद्दारे वेद-आलाववण्णणं
[ ६७७
असंजमो, दो दंसण, दव्वेण काउ- सुक्कलेस्सा, भावेण किण्ह णील- काउलेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारु वजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा
३००
इत्थवेद - सासणसम्म इट्टीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्टाणं, वे जीवसमासा, छ पत्तीओ छ अपज्जतीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिण्णि गदीओ, पंचिदियजादी, तसकाओ, तेरह जोग, इत्थिवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्व-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अनाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा" ।
३०१
दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोतलेश्याएं: भव्यसिद्धिकः अभव्यसिद्धिक, मिथ्यात्व, संज्ञिक, असंज्ञिकः आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
1
स्त्रीवेदी सासादनसम्यग्दष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर - एक सासादन गुणस्थान, संज्ञी - पर्याप्त और संज्ञी अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण: चारों संज्ञाएं, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोगके विना शेष तेरह योग; स्त्रीवेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
१ प्रतिषु ' तेउ ' इत्यधिकः पाठः समस्ति ।
नं. ३००
गु. जी.
१ २ मि. सं. अप अ. ७ असं.,, ५
अ.
स्त्रीवेदी मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप.
प. प्रा. संग. ई. का. यो. वे. क. ज्ञा. | संय. द. १ ३ १ ૪ ति प त्रस औ मि. स्त्री.
म.
वै.मि. कार्म.
नं. ३०१ गु. जी.
| प. प्रा. | सं. ग. | इं.
१ २ ६ | १० | ४ | ३ १ सा. सं.प. प. ७ ति. पंचे.
म.
सं.अ. ६ अ.
ले. म. स. संज्ञि. आ.
उ.
२
द्र. २ २ १ २ २ का. भ. मि. सं. आहा. साका. अच. शु. अ. असं. अना. अना. भा. ३
अशु.
२
१ २ कुम. असं चक्षु. कुश्रु.
स्त्रीवेदी सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप.
का. यो. | वे.
क. ज्ञा. [ सं . द.
१ १३ १ ४ ३ १ २ आहा. स्त्री.
द्विक.
विना.
ले. भ. स. संज्ञि, आ.
उ. २
द्र. ६१ १ १. २
अशा असं चक्षु. भा. ६ म. सा. सं. आहा. सोका.
अच.
अना. अना.
Page #371
--------------------------------------------------------------------------
________________
६७८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिण्णि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दस जोग, इत्थिवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्व-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिण्णि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, तिण्णि जोग, इत्थिवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दसण, दव्वेण काउसुक्कलेस्साओ, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्साओ; भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सण्णिणो,
उन्हीं स्त्रीवेदी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने परएक सासादन गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, बसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग; औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग; स्त्रीवेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं स्त्रीवेदी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने परएक सासादन गुणस्थान, एक संशी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदा मिश्रकाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये तीन योग; स्त्रीवेद, चारों कषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संशिक, आहारक,
१ प्रतिषु ' तेउ' इत्यधिकः पाठः समास्ति ।
नं.३०२
स्त्रीवेदी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप. गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. झा. । संय. द. ले. भ. स. संनि. आ. उ. | ६ १०४ |३१११०१ ४ ३ १ २ द्र.६११११२
...म.४ स्त्री. अज्ञा. असं. चक्षु. भा. ६ म. सासा. सं. आहा. साका. व.४ अच.
अना.
पंचे. - त्रस. -
Page #372
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-पख्वणाणुयोगदारे वेद-आलाववण्णणं
[६७९ आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
इत्थिवेद-सम्मामिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिण्णि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दस जोग, इत्थिवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाणाणि तीहि अण्णाणेहि मिस्साणि, असंजमो, दो दंसण, दव्व-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, सम्मामिच्छत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
इत्थिवेद-असंजदसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एगं गुणहाणं, एओ जीवसमासो,
अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
स्त्रीवेदी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर-एक सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग; स्त्रीवेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञानोंसे मिश्रित आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यासद्धिक, सम्यग्मिथ्यात्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
स्त्रीवेदी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुण
नं. ३०३ स्त्रीवेदी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप. | गु. जी. | प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. वे.क. ज्ञा. संय. द. ले. म. स. संशि. आ.
उ. |
सा.सं.अ. अ.
ति.. म. दे.
स. औ.मि स्त्री.
वै.मि. कार्म.
कुम. असं. चक्षु. का.शु.म. सा.सं. आहा. साका. कुश्र. अच.भा.३
अना. अना. अशु.
नं.३०४
स्त्रीवेदी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप. गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. | ले. भ.
स.
संक्षि. आ.
उ. |
६१०
सम्य. 11 सं.प. 10
पंचे. 0 वस.
अला. असं. चक्षु. भा.६ म. सम्य...
अच.
आहा. साका.
अना.
" EFF
ज्ञान.
मिश्न.
Page #373
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ १, १.
६८०]
छक्खंडागमे जीवहाणं छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिण्णि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दस जोग, इत्थिवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजमो, तिण्णि दंसण, दव्य-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
३५ इस्थिवेद-संजदासंजदाणं भण्णमाणे अत्थि एगं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, दो गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव
स्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिक काययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग; स्त्रीवेद, चारों कषाय, आदिके तीन शान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
स्त्रीवेदी संयतासंयत जीवोंके आलाप कहने पर-एक देशसंयत गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति और मनुष्यगति ये दो गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और
नं. ३०५ स्त्रीवेदी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके आलाप. गु.। जी. प. प्रा. सं. ग. इं.का. यो. वे. क ज्ञा. संय. द. ले. म. स. संझि. | आ.
उ..
10
अवि.
सं. प.
ति.
पचे. - त्रस.
म.४ स्त्री.
व.४ औ.१
मति. अस. के.द. भा.६ म. औप. सं. आहा. साका. विना.
अना. अव.
श्रुत.
|क्षा. क्षायो.
नं. ३०६
स्त्रीवेदी संयतासंयत जीवोंके आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं.का. यो. वे. क. शा. ( संय. द. ले. भ. | स. संलि. आ. | उ. |
.सं.प.
ति. म. ४ स्त्री.
FFव.४
मति. देश. के.द. मा.३ म.
विना- शुभ. अव.
औप. सं. आहा. साका.
अना. क्षायो.
क्षा.
Page #374
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे वेद-आलाववण्णणं
[६८१ जोग, इत्थिवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, संजमासंजमो, तिणि दंसण, दवेण छ लेस्साओ, भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
___ इत्थिवेद-पमत्तसंजदाणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, आहारदुगं णत्थि । इत्थिवेदो, चत्तारि कसाय, मणपजवणाणेण विणा तिण्णि णाण, परिहारसंजमेण विणा दो संजम, कारणं आहारदुग-मणपज्जवणाण-परिहारसंजमेहि वेददुगोदयस्स विरोहादो । तिण्णि दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ; भवसिद्धिया, तिणि सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति
औदारिककाययोग ये नौ योग; स्त्रीवेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, संयमासंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
स्त्रीवेदी प्रमत्तसंयत जीवोंके आलाप कहने पर-एक प्रमत्तसंयत गुणस्थान, एक संज्ञीपर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग होते हैं किन्तु आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोग नहीं होता है। योग आलापके आगे स्त्रीवेद, चारों कषाय, मनःपर्ययज्ञानके विना आदिके तीन शान, परिहारविशुद्धिसंयमके विना आदिके दो संयम होते हैं। यहांपर आहारकद्विक मनःपर्ययज्ञान और परिहारविशुद्धिसंयमके नहीं होनेका कारण यह है कि आहारकद्विक, मनःपर्ययज्ञान और परिहारविशुद्धिसंयमके साथ स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके उदय होनेका विरोध है। संयम आलापके आगे आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी
नं.३०७
स्त्रीवेदी प्रमत्तसंयत जीवोंके आलाप. का. यो. वे. क. ना. संय. द. ले. भ. स.
गु.
जी.
संज्ञि. | आ.। उ.
प्रम. सं.प.
।।
म. पं.
स. ~
म. ४ स्त्री.
सं. आहा. साका.
मति. सामा के.द. मा. ३ भ. औ. श्रुत. छेदो. विना. शुभ. अव.
क्षायो.
अना.
Page #375
--------------------------------------------------------------------------
________________
६८२]
छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१,१.
अणागारुवजुत्ता वा।
इत्थिवेद-अप्पमत्तसंजदाणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, तिण्णि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, इत्थिवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, दो संजम, तिण्णि देसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ, भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
इत्थिवेद-अवुव्वयरणाणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, एओ जीवसमासो. छ पज्जत्तीओ, दस पाण, तिण्णि सण्णाओ; मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, इत्थिवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, दो संजम, तिणि दंसण, दव्वेण छ
और अनाकारोपयोगी होते हैं।
स्त्रीवेदी अप्रमत्तसंयत जीवोंके आलाप कहने पर-एक अप्रमत्तसंयत गुणस्थान, एक सशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दों प्राण, आहारसंशाके विना शेष तीन संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग; स्त्रीवेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, आदिके दो संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
स्त्रीवेदी अपूर्वकरण जीवोंके आलाप कहने पर-एक अपूर्वकरण गुणस्थान, एक संक्षीपर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, आहारसंक्षाके विना शेष तीन संक्षाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, असकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग; स्त्रीवेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, आदिके दो संयम, आदिके तीन दर्शन,
नं. ३०८
स्त्रीवेदी अप्रमत्तसंयत जीवोंके आलाप. | गु. जी, प. प्रा. सं. ग.ई. का. यो. | वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. सं. संज्ञि. आ. | उ. ।
.
.सं.प.
आहा. म. विना.
आहा. म.
पचे.
म. ४ स्त्री.
व.४
मति. सामा. के.द.भा.३ मा औप. सं. आहा. साका. श्रुत. छेदो. विना. शुभ. क्षा.
अना. अव.
क्षायो
Page #376
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-पख्वणाणुयोगद्दारे वेद-आलाववण्णणं
[६८३ लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा, भवसिद्धिया, वेदगेण विणा दो सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा ।
इत्थिवेद-अणियट्टीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, दो सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, इत्थिवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, दो संजम, तिण्णि दसण, दव्वण छ लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया, दो सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या; भव्यसिद्धिक, वेदकसम्यक्त्वके विमा औपशमिक और क्षायिक ये दो सम्यक्त्व; संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
__ स्त्रीवेदी अनिवृत्तिकरण जीवोंके आलाप कहने पर-एक अनिवृत्तिकरण गुणस्थान, एक संझी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, मैथुन और परिग्रह ये दो संज्ञाएं; मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग; स्त्रीवेद, चारों कषाय, आदिके तीन शान, आदिके दो संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या; भव्यसिद्धिक, औपशमिक और क्षायिक ये दो सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं. ३०९
स्त्रीवेदी अपूर्वकरण जीवोंके आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. म. स. संलि. आ. उ.। १ १ ६ १० ३ १ ९ १ ४ ३ २ ३ द्र. ६१ २ १ १ २ सं. प. आहा म. म. ४ स्त्री. मति. सामा. के.द. भा. १ भ. औप. सं. आहा. साका.
विना. व. ४ श्रुत. छेदो. विना. शुक्ल. क्षा.
•
- पंचे. 41.
स.
ite
अना.
औ.१
अव.
नं ३१०
स्त्रीवेदी अनिवृत्तिकरण जीवोंके आलाप. | गु.जी. प. प्रा.
सं. ग. ई. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. | ले. भ. स. संझि. आ. ह. म. पंचे. स. म. ४ स्त्री. मति. सामा.के.द. भा. भ. औप. सं. आहा. साका. श्रुत. छेदो. विना. शुक्ल.
अना. औ.१
अनि. ~ सं.प. -
क्षा.
अव.
Page #377
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१,१. पुरिसवेदाणं भण्णमाणे अत्थि णव गुणट्ठाणाणि, चत्तारि जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ पंच पज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण णव पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिणि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, पण्णारह जोग, पुरिसवेद, चत्तारि कसाय, सत्त णाण, पंच संजम, तिणि दंसण, दव्व-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सणिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा"।
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि णव गुणट्ठाणाणि, दो जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ पंच पज्जत्तीओ, दस पाण णव पाण, चत्तारि सण्णा, तिणि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, पुरिसवेद, चत्तारि कसाय, सत्त णाण, पंच संजम, तिण्णि दसण, दर-मावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं,
. पुरुषवेदी जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-आदिके नौ गुणस्थान, संशी-पर्याप्त, संक्षी-अपर्याप्त, असंशी-पर्याप्त और असंही-अपर्याप्त ये चार जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां, पांच पर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण, नौ प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, पन्द्रहों योग, पुरुषवेद, चारों कषाय, केवलज्ञानके विना शेष सात ज्ञान, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यातसंयमके विना शेष पांच संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भाषसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, छहों सम्यक्त्व, संक्षिक, असंक्षिक; आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी, और अनाकारोपयोगी होते हैं।
__ उन्हीं पुरुषवेदी जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-आदिके नौ गुणस्थान, संशी-पर्याप्त और संशी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, पांच पर्याप्तियां दशों प्राण, नौ प्राण; चारों संशाएं, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग, वैक्रियिककाययोग और आहारककाययोग ये ग्यारह योग पुरुषवेद, चारों कषाय, केवलज्ञानके विना शेष सात शान, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यातसंयमके विना शेष पांच संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य
नं. ३११
पुरुषवेदी जीवोंके सामान्य आलाप. । गु. नी. प. प्रा.सं. | ग. इ.का.। यो. वे. क. झा. संय. द. | ले. म. स. संलि., आ.। उ. |
११/१५/१/४/७५ असं. ३ द्र.६ २६२ २२ स. प. अ. ति.
पु. केत्र. देश. के.द. भा. ६ म. सं. आहा. साका. सं. अ. ५५. ९
विना. सामा. विना. अ. असं. अना. अना. असं.प.५अ.७
छेदो. असं.अ..
परि. ।
F१०,
NAM पंचे. त्रस.
आदिके
Page #378
--------------------------------------------------------------------------
________________
१,१.]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे वेद-आलाववण्णणं
सण्णिणो असण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चैव अपजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि चत्तारि गुणट्ठाणाणि, दो जीवसमासा, छ अपज्जत्तीओ पंच अपज्जतीओ, सत्त पाण, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिण्णि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, चत्तारि जोग, पुरिसवेद, चत्तारि कसाय, पंच णाण, तिण्णि संजम, तिणि दंसण, दव्त्रेण काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, पंच सम्मत्तं, सण्णिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता
और भावसे छहीं लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, छहों सम्यक्त्व, संज्ञिक, असंशिक; आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
उन्हीं पुरुषवेदी जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि और प्रमत्तसंयत ये चार गुणस्थान, संत्री-अपर्याप्त और असं अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छद्दों अपर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां; सात प्राण, सात प्राण: चारों संज्ञाएं, नरकगतिके बिना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिकमिश्र काययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग, आहारकामिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये चार योग, पुरुषवेद, चारों कषाय, कुमति, कुश्रुत और आदिके तीन ज्ञान इसप्रकार पांच ज्ञान, असंयम, सामायिक और छेदोपस्थापना ये तीन संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे छहों लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, सम्यग्मिथ्यात्व के विना शेष पांच सम्यक्त्व, संशिक, असंशिक आहारक, अनाहारक;
नं. ३१२
गु. जी.
९
आदिक
२
सं.प.
असं.प.
नं. ३१३
गु.
प. प्रा. संग इं. का.
६ १०४ | ३ | १
५९
१
ति. पं. त्र.
म.
जी.
४
२ | ६ अ.
मि. सं. अ. ५अ. ७ सा. असं.अ.
अवि.
प्रम.
७ ४
पुरुषवेदी जीवोंके पर्याप्त आलाप.
वे. क. ज्ञा. संय.
१ ४
Fi ms
यो.
११ म.४
व. ४ ओं. १
वै. १
आहा. १
पु.
पंचे. ०५
त्रस.
पुरुषवेदी जीवोंके अपर्याप्त आलाप.
५
२
प. प्रा. सं. ग. ] इं का. यो. वे. क. ज्ञा. संय द. ले. भ. स. संज्ञि. आ. ३ ३ द्र. २ २ ५ २ २ कुम. असं. के. द. का. भ. सम्य. सं. आहा. साका. कुश्रु. सामा. विना. शु. अ. विना असं अना. अना. मति. छेदो.
१ ४ पु.
भा. ६
श्रुत.
अव.
१५ असं.
द. ३ केव. देश. के. द. विना सामा. विना.
छेदो.
परि
औ.मि. वै.मि. आ.मि. कार्म.
[ ६८५
6 ू
ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ.
२
द्र.६ २ ६ २ १ मा.६ भ. सं. आहा. साका. अ. असं. अना.
उ.
Page #379
--------------------------------------------------------------------------
________________
६८६) छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. होति अणागारुखजुत्ता वा।
पुरिसवेद-मिच्छाइट्ठीण भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, चत्तारि जीवसमासा, छ पजत्तीओ छ अपजत्तीओ पंच पज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण णव पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिण्णि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, तेरह जोग, पुरिसवेद, चत्तारि कसाय, तिणि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुखजुत्ता वा ।
तेसिं चेव पजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, छ पञ्जतीओ पंच पजत्तीओ, दस पाण णव पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिण्णि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दस जोग, पुरिसवेद, चत्तारि कसाय, तिणि अण्णाण,
साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
पुरुषवेदी मिथ्यादृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, संशी-पर्याप्त, संझी-अपर्याप्त, असंज्ञी-पर्याप्त और असंक्षी-अपर्याप्त ये चार जीवसमास; छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां, पांच पर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां, दशों प्राण, सात प्राण, नौ प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोगके विना शेष तेरह योग; पुरुषवेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संनिक, असंज्ञिक; आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं पुरुषवेदी मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, संशी-पर्याप्त और असंझी-पर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियांपांच पर्याप्तियां दशों प्राण, नौ प्राण; चारों संज्ञाएं, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैफ्रियिककाययोग ये दश योग; पुरुषवेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो
नं. ३१४
पुरुषवेदी मिथ्यादृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप. । गु. जी. प. प्रा. सं. ग.इ.का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. म. स. संज्ञि. आ. ] उ. ।
२ ४६५.१०४/३१३१३ १४ ३ १ २ द्र.६ २१ २ २ २ मि. सं. प. ६अ.७ ति. आहा. पु. अज्ञा. असं. चक्षु. भा. ६ म. | मि. सं. आहा. साका. सं. अ.५५. ९
अच. अ. असं. अना. अना. असं.प.५१.७
विना. असं.अ. ।
पंचे..
द्विक..
Page #380
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.]
संत-पवणाणुयोगहारे वेद-आलाववण्णणं असंजमो, दो दंसण, दव्व-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो असणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
तेसिं चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, छ अपज्जत्तीओ पंच अपञ्जत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिण्णि गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, तिणि जोग, पुरिसवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दसण, दव्येण काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुखजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा । दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संक्षिक, असांशकः आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं पुरुषवेदी मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, संक्षी-अपर्याप्त और असंक्षी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, पांच अपत्तियां सात प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, नसकाय, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मणकाययोग ये तीन योग, पुरुषवेद, चारों कषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे छहों लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संक्षिक, असंक्षिक आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं। नं. ३१५
पुरुषवेदी मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप. गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई. | का.| यो. । वे. क. शा. ( संय. द._ ले. म. स. संक्षि. आ. | उ. ।
२ । ६ १०/४/३१११० | १४३१ २द्र. ६२१ ।२ | मि. स. प. ५ ९ ति . पंचे. त्रस. म. ४ पु. अशा. असं. चक्षु. भा.६ भ. मि. सं. आहा. साका. असं.प.।
अ. असं.
अना.
। अच.
|
ओ.१
नं.३१६
पुरुषवेदी मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप. गु. जी. प. प्रा. सं. ग. | ई.का. यो. वे. क. | झा. संय. द. ले. भ. स. | संलि. आ.। उ. | १२ ६.७/४/३/१/१३ |१४| २ | १२ द.२२/१२।२।२ मि. स. अ. ५ ७ ति. पं. त्र. औ.मि. पु. कुम. असं. चक्षु का. म. मि. सं. आहा. साका. असं.अ.
वै.मि. कु. अच. शु. अ. असं. अना. अना.। कार्म.
भा.
Page #381
--------------------------------------------------------------------------
________________
६८८]
छक्खंडागमे जीवहाणं - पुरिसवेद-सासणसम्माइटिप्पहुडि जाव पढम-अणियट्टि त्ति ताव मूलोघ-भंगो । णवरि सव्वत्थ पुरिसवेदो चेव वत्तव्यो । सासण-सम्मामिच्छा-असंजदसम्माइट्ठीणं तिण्णि गदीओ वत्तव्वाओ।
३"णqसयवेदाणं भण्णमाणे अत्थि णव गुणहाणाणि, चोद्दस जीवसमासा, छ पञ्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ पंच पजत्तीओ पंच अपजत्तीओ चत्तारि पजत्तीओ चत्तारि अपजत्तीओ, दस पाण सत्त पाण णव पाण सत्त पाण अट्ठ पाण छ पाण सत्त पाण पंच पाण छ पाण चत्तारि पाण चत्तारि पाण तिणि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिण्णि गदीओ देवगदी णत्थि, एइंदियजादि-आदी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छक्काया, तेरह जोग, णqसयवेद,
पुरुषवेदी जीवोंके सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके प्रथम भागतकके आलाप मूल ओघालापोंके समान होते हैं। विशेष बात यह है कि वेद आलाप कहते समय सर्वत्र एक पुरुषवेद ही कहना चाहिए । तथा सासादनसम्यराष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके गति आलाप कहते समय नरकगतिके विना शेष तीन गतियां कहना चाहिए।
नपुंसकवेदी जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-आदिके नौ गुणस्थान, चौदहों जीवसमास, संशी-पंचेन्द्रिय जीवोंके छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; असंही-पंचेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवोंके पांच पर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां; एकेन्द्रिय जीवोंके चार पर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां; संज्ञी-पंचेन्द्रिय जीघोंसे लगाकर एकेन्द्रिय जीवोंतक क्रमशः पर्याप्त अपर्याप्तकालमें दशों प्राण, सात प्राण; नौ प्राण, सात प्राण; आठ प्राण, छह प्राण; सात प्राण, पांच प्राण; छह प्राण, चार प्राण; चार प्राण और तीन प्राण; चारों संशाएं, नरकगति, तिर्यचगति और मनुष्यगति ये तीन गतियां होती हैं परंतु नपुंसकवेदी जीवोंके देवगति नहीं होती है। एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छहों काय, आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोगके विना तेरह योग; नपुंसकवेद, चारों कषाय, मनःपर्ययज्ञान
नं. ३१७
नपुंसकवेदी जीवोंके सामान्य आलाप. गु जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. । वे. क. ज्ञा. संय. । द. । ले. भ. स. संशि. आ. , उ. । १४६प. १०,७
आहा. मनः. | असं. के.द. भा. ६ भ. सं. आहा. साका. द्विक. केव. देश. विना. अ. असं. अना. अना. विना. विना. सामा.
९,७
आदिके.
Wom
छेदो.
Page #382
--------------------------------------------------------------------------
________________
[६८९
१, १.]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे वेद-आलावण्णणं चत्तारि कसाय, छण्णाण, चत्तारि संजम, तिणि दंसण, दव्व-भावेहि छ लेस्साओ, मवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सणिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।।
तेसिं चेव पजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि णव गुणहाणाणि, सत्त जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ पंच पजत्तीओ चत्तारि पजत्तीओ, दस पाण णव पाण अट्ठ पाण सत्त पाण छ पाण चत्तारि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिणि गदीओ, एइंदियजादि-आदी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छक्काय, दस जोग, णQसयवेद, चत्तारि कसाय, छ णाण, चत्तारि संजम, तिण्णि दसण, दव्व-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सण्णिणो असणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
और केवलज्ञानके विना शेष छह शान, असंयम, देशसंयम, सामायिक और छेदोपस्थापना ये चार संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; छहों सम्यक्त्व, संक्षिक, असंशिक; आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
- उन्हीं नपुंसकवेदी जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-आदिके नौ गुणस्थान, पर्याप्तकालभावी सात जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, पांच पर्याप्तियां, चार पर्याप्तियां दशों प्राण, नौ प्राण, आठ प्राण, सात प्राण, छह प्राण, और चार प्राण; चारों संक्षाएं, देवगतिके विना शेष तीन गतियां, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छहों काय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञानके विना छह ज्ञान, असंयम, देशसंयम, सामायिक और छेदोपस्थापना ये चार संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक छहों सम्यक्त्व, संशिक, असंशिक आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं. ३१८
आदिके. -
Fory
नपुंसकवेदी जीवोंके पर्याप्त आलाप. |सं. ग. इं. का. यो. वे. क. शा. संय. द. ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ. ।
मनः. असं. के.द. मा.६ भ. सं. आहा. साका. केव. देश. विना..
असं. विना.सामा.
छेदो.
अना.
४
|
-
Page #383
--------------------------------------------------------------------------
________________
६९.] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, १. तेंसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि तिण्णि गुणट्ठाणाणि, सत्त जीवसमासा, छ अपज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण छ पाण पंच पाण चत्तारि पाण तिण्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिण्णि गदीओ, एइंदियजादिआदी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छ काय, तिण्णि जोग, णqसयवेद, चत्तारि कसाय, पंच णाण, असंजमो, तिण्णि देसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण किण्ह-णील-काउ. लेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं सासण-खइय-वेदगमिदि चत्तारि समत्ताणि, सण्णिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारु: वजुत्ता वा।
णबुंसयवेद-मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, चोद्दस जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपजत्तीओ पंच पज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ चत्तारि पज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ दस पाण सत्त पाण णव पाण सत्त पाण अट्ठ पाण छह पाण
उन्हीं नपुंसकवेदी जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और अविरतसम्यग्दृष्टि ये तीन गुणस्थान, अपर्याप्तकालभावी सात जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां. पांच अपर्याप्तियां. चार अपर्याप्तियां: सात प्राण. सात प्राण, छह प्राण, पांच प्राण, चार प्राण और तीन प्राण; चारों संज्ञाएं, देवगतिके विना शेष तीन गतियां, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छहों काय, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण ये तीन योग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, आदिके दो अज्ञान और आदिके तीन ज्ञान इसप्रकार पांच झान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ललेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, सासादन, क्षायिक और वेदक इसप्रकार चार सम्यक्त्व, संशिक, असंक्षिक, आहारक, अनाहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं। . नपुंसकवेदी मिथ्यादृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, चौदह जीवसमास; छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां पांच पर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां चार पर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां दशों प्राण, सात प्राण; नौ प्राण, सात प्राण; आठ प्राण, छह प्राण;
नं. ३१९
नपुंसकंवेदी जीवोंके अपर्याप्त आलाप. शु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. म. स. [ संहि. आ. उ. |
७ ४३ ५६ ३१४५ कुम.१३ . २२ ४ २ २ २ न. औ.मि. न. कुश्रु. असं. | के.द का. म. मि. सं. आहा. साका.
मति. विना. शु. अ. सासा. असं. अनाअना. कार्म. भ्रत.
भा.३ क्षा. अव.
अशु. क्षायो.
अप. 6
5 60
वै.मि.
Page #384
--------------------------------------------------------------------------
________________
१,१.]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे वेद-आलाववण्णणं
[ ६९१
सत पण पंच पाण छ पाण चत्तारि पाण चत्तारि पाण तिष्णि पाण, चचारिं सण्णाओ, तिष्णि गदीओ, एइंदियजादि -आदी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छकाया तेरह जोग, णवुंसयवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्वभावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चैव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, सत्त जीवसमासा, पज्जत्तीओ पंच पज्जसीओ चत्तारि पज्जत्तीओ, दस पाण णव पाण अट्ठ पाण सत्त पाण छपाण चत्तारि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिण्णि गदीओ, एइंदियजादि -आदी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छ काय, दस जोग, णवुंसयवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्व-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया,
सात प्राण, पांच प्राणः छह प्राण, चार प्राण; चार प्राण, तीन प्राण; चारों संज्ञाएं, देवगतिके विना शेष तीन गतियां, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छहों काय, आहारक काययोगद्विकके विना शेष तेरह योग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः मिथ्यात्व, संशिक, असंज्ञिकः आहारक, अनाहारकः साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
उन्हीं नपुंसक वेदी मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, सात पर्याप्तक जीवसमास, छद्दों पर्याप्तियां, पांच पर्याप्तियां, चार पर्याप्तियां: दशों प्राण, नौ प्राण, आठ प्राण, सात प्राण, छह प्राण और चार प्राण; चारों संज्ञाएं, देवगतिके विना शेष तीन गतियां, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छद्दों काय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग; नपुंसकवेद चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः मिथ्यात्व, संज्ञिक, असंकि
नं. ३२०
गु. जी. प.
१ १४६५.
म.
प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. १३ १ ४ ३ आहा. द्विक.
विना.
१०, ७ ४
९,७
८,६
६अ.
५५.
५ अ.
७,५
४५. ६,४
४अ.
४, ३
नपुंसकवेदी मिथ्यादृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप.
३ ५ ६
ܚ
न.
ति.
म.
संय. द. ले. भ. स. शि. आ. १ द्र. ६ २ अज्ञा. असं चक्षु. मा. ६ म. मि. सं. आहो. सोका.
१
२
२ २
२
अच.
अ. असं अना. अना.
उ.
Page #385
--------------------------------------------------------------------------
________________
६९२ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १,१.
मिच्छत्तं, सण्णिणो असण्णिणो, आहारिणों, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुत्रजुत्ता वा ।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एगं गुणट्ठाणं, सत्त जीवसमासा, छ अपज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण छ पाण पंच पाण चत्तारि पाण तिष्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिणि गईओ, एइंदियजादि - आदी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छक्काया, तिष्णि जोग, णउंसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्येण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण किण्हणील-काउलेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
उन्हीं नपुंसक वेदी जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, सात अपर्याप्त जीवसमास, छद्दों अपर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां, चार अपर्याप्तयां: सात प्राण, सात प्राण, छह प्राण, पांच प्राण, चार प्राण और तीन प्राणः चारों संज्ञाएं, देवगति के विना शेष तीन गतियां, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छहों काय, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण ये तीन योग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, मिथ्यात्व, संज्ञिक, असंशिक; आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
नं. ३२१
गु. जी. | प. प्रा. १ ७ ६
मि. पर्या. ५
.नं. ३२२
४
१ ७ ६अ.
मि. ५अ.
नपुंसकवेदी मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप.
सं. ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ. १० ४ ३ ५ ६ १० १ ४ ३ १ २ द्र. ६ .२ १ २ १ २ म. ४ न. अज्ञा. असं चक्षु. भा. ६ भ. मि. सं. आहा. साका. व. ४ अच. अ. असं. अना.
गु. जी. प. प्रा.
क ४अ.
2 v w x
F99 w
७
.
७
७
६
५
४ ३
ܕ ܕ ܕ
१
नपुंसक वेदी मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप
यो. वे. क. ज्ञा. । संय. । द.
३
औ.मि. न. वै. मि. कार्म.
१ ४ २ १ २ कुम. असं. चक्षु. कुश्रु.
सं. ग. इं । का.
४ | ३ | ५
६
न.
ति.
म.
ले. भ. स. संज्ञि. आ.
उ. २
२ २
द्र. २ २ का. भ. मि. सं. आहा. साका. अच. शु. अ. असं. अना. अना.
भा. ३
अशु.
Page #386
--------------------------------------------------------------------------
________________
संत - परूवणाणुयोगद्दारे वेद-आलाववण्णणं
[ ६९३
सवेद - सास सम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एगं गुणट्ठाणं, वे जीवसमासा, छ पजत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिण्णि गईओ, चिदियजादी, तसकाओ, बारह जोग, सासणगुणेण जीवा णिरयगदीए ण उप्पज्जंति तेण वेउच्चियमिस्सकायजोगो णत्थि । णवुंसयवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, अजमो, दो दंसण, दव्व-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अनाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
१, १. ]
तेसिं चैव पञ्जाणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणड्डाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिण्णि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दस जोग, णउंसयवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्व
नपुंसकवेदी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर - एक सासादन गुणस्थान, संज्ञी - पर्याप्त और संज्ञी अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छद्दों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां: दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, देवगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, आहारककाययोगद्विक, और वैक्रियिकमिश्रकाययोगके विना शेष बारह योग होते हैं। यहां पर वैक्रियिकमिश्रके नहीं होनेका कारण यह है कि सासादन गुणस्थानसे मर कर जीव नरकगतिमें नहीं उत्पन्न होते हैं, इसलिए यहां पर वैक्रियिकमिश्रकाययोग नहीं है । नपुंसकवेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, अनाहारकः साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
नपुंसकवेदी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवों के पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर -- एक सासादन गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएँ, देवगति विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग; नपुंसकवेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छद्दों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक,
नपुंसकवेदी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप.
नं. ३२३ [गु. जी. प. प्रा. | सं. ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले भ
स.संज्ञि. आ. २ ६ १०४ ३ १ १ १२म. ४ १ ૪ ३ १ २ द्र. ६ १ १ १ २ २ सा. सं. प. प. ७ व. ४ न अज्ञा. असं चक्षु. भा. ६भ सासा. सं. आहा. साका. सं. अ ६ औ. २ अच. अना. अना.
ति
अ.
१
का. १
उ.
Page #387
--------------------------------------------------------------------------
________________
छक्खंडागमे जीवहाणं
[१, १. भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अशागारुवजुत्ता वा।
तेसिं चेव अपञ्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एगं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ अपजतीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, दो गदीओ, देव-णिरयगदी णत्थि । पंचिंदियजादी, तसकाओ, वे जोग, वेउव्वियमिस्सकायजोगो णत्थि । णउंसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्येण काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण किण्ह-णीलकाउलेस्साओ; भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारूवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
सासादनसम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नपुंसकवेदी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने परएक सासादन गुणस्थान, एक संज्ञी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति और मनुष्यगति ये दो गतियां होती हैं; किन्तु देवगति और नरक्रगति नहीं होती है। पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग होते हैं; किन्तु यहां पर वैक्रिायकमिश्रकाययोग नहीं है। नपुंसकवेद, चारों कषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं.३२४ नपुंसकवेदी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप. । गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. । वे. । क. ज्ञा. | संय. द. | ले. म. स. संज्ञि. आ. | उ.
सा.सं.प.
अस.
व. ४ नपुं.
न. पंचे. ति. म.
अज्ञा. असं. चक्षु. भा.६म. सा. सं. आहा.
अच.
साका. अना.
औ.१
नं. ३२५ नपुंसकवेदी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप. 1 ए. जी. प.प्रा. सं. ग. ई. का. यो. ( वे. क. शा. संय. द. ले. भ. स. संज्ञि. आ.
उ. |
सा.सं.अ. अ.
ति.पं.
स. औ.मि. न.
कार्म.
कुम. असं. चक्षु. का.शु.म. सा. सं. आहा. साका. - अच. भा.३
अना. अना.
Page #388
--------------------------------------------------------------------------
________________
संत-परूवणाणुयोगद्दारे वेद-आलावण्णणं
[ ६९५
णवुंसयवेद-सम्मामिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एगं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जतीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिष्णि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दस जोग, णउंसयवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाणाणि तीहिं अण्णाणेहिं मिस्साणि, अजमो, दो दंसण, दव्व-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, सम्मामिच्छत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
१,१.]
सय वेद- असजद सम्माहट्टीणं भण्णमाणे अत्थि एगं गुणट्ठाणं, वे जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपजत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिण्णि गदीओ, पंचिदियजादी, तसकाओ, बारह जोग, ओरालियमिस्सकायजोगो णत्थि । णउंसयवेद, चत्तारि कसाय, तिष्णि णाण, असंजमो, तिण्णि दंसण, दव्व-भावेहि छ लेस्साओ,
नपुंसकवेदी सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर - एक सम्यमिध्यादृष्टि गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञानोंसे मिश्रित आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, सम्यग्मिथ्यात्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नपुंसकवेदी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर - एक अविरत - सम्यग्दृष्टि गुणस्थान, संज्ञी-पर्याप्त और संज्ञी - अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां: दशों प्राण, सात प्राणः चारों संज्ञाएं, देवगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग, वैक्रियिककाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये बारह योग होते हैं । किन्तु यहां पर औदारिकमिश्रकाययोग नहीं होता । नपुंसकवेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक
नं. ३२६
गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क.
४
१
·keele
€1.9.~3
म.
नपुंसक वेदी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप.
पच.
शा. संय द.
१० १ ४ ३ १ २
म. ४ न.
ले. म. स. संज्ञि. आ. उ. द्र. ६ १ १ अज्ञा. असं चक्षु. भा. ६ म. सम्य. सं. आहा. साका.
१
१
२
३
अच.
अना.
ज्ञान. मिश्र.
Page #389
--------------------------------------------------------------------------
________________
६९६ ]
छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, १.
भवसिद्धिया, तिष्णि सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति
३२७
अणागारुवजुत्ता वा ।
सिं चेव पत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जतीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिष्णि गईओ, पंचिंदियजादी, तकाओ, दस जोग, वुंसयवेद, चत्तारि कसाय, तिणि णाण, असंजम, तिण्णि दंसण, दव्व-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, तिष्णि सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा 1
३२८
और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, अनाहारक साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
उन्हीं नपुंसक वेदी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां; दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योगः नपुंसकवेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
नं. ३२७
गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क ज्ञा. संय द. | ले. १ २ ६५ १० ४ ३ १ १ ३ १ ३ द्र. ६ सं.प. ६अ ७ मति. असं. के. द. भा. ६ क्र सं . अ. श्रुत. विना.
१२ १ ४ म. ४ न.
अव.
नं. ३२८
गु. जी, ( प. प्रा. सं.
१ ६१० ४
अवि.
सं.प.
नपुंसकवेदी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप.
उ.
२
R
भ. स. संज्ञि. आ. १ ३ १ भ. औप. सं. आहा. साका, अना. अना.
क्षा.
क्षायो,
कार्म. १
नपुंसकवेदी असंयत सम्यग्दृष्टि जीवों के पर्याप्त आलाप.
ग.) इं. | का. यो. । वे. क. | ज्ञा. संय. द. ले. भ. सं. संज्ञि | आ. १० ง ૪ ३ १ म. ४ न.
३ | ११
१ १
३ द्र. ६ | १ ३ मति. असं. के. द. मा. ६ | भ. औप. सं. श्रुत. विना. क्षा.
व. ४
१
अव.
क्षायो.
उ. २
आहा. साका' अना.
Page #390
--------------------------------------------------------------------------
________________
१,१.]
संत- परूवणाणुयोगद्दारे वेद-आलाववण्णणं
[ ६९७
तेसिं चैव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जतीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगदी, पंचिदियजादी, तसकाओ, वे जोग, णउंसयवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजम, तिण्णि दंसण, दव्वेण काउसुक्कलेस्सा, भावेण जहणिया काउलेस्सा; भवसिद्धिया, दो सम्मत्तं, कदकरणिज्जं पडुच्च वेदगसम्मत्तं लद्धं । सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
वेद-संजदासंजदाणं भण्णमाणे अत्थि एगं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, दो गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, णउंसयवेद, चत्तारि कसाय, तिष्णि णाण, संजमासंजम, तिण्णि दंसण, दव्वेण छ
नपुंसकवेदी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणका योग ये दो योगः नपुंसकवेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे जघन्य कापोतलेश्याः भव्यसिद्धिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये दो सम्यक्त्व, होते हैं; यहां पर क्षायोपशमिक सम्यक्त्वके होनेका कारण यह है कि कृतकृत्यवेदककी अपेक्षासे यहां पर क्षायोपशमिकसम्यक्त्व पाया जाता है । संशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
नपुंसक वेदी संयतासंयत जीवोंके आलाप कहने पर - एक देशविरत गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यचगति और मनुष्यगति ये दो गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग; नपुंसकवेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, संयमासंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं, भव्यंसिद्धिक,
नं. ३२९
गु. जी.
१
१ सं. अ.
नपुंसक वेदी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप.
प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. | क. ज्ञा. | संय. | द. | ले. भ. स. शि. आ.
६ अ. ७
४ १ १ १ २ १ ४ न. पं. त्र. वै.मि. न.
कार्म.
३
१ ३ द्र. २ १ २ मति. असं. के. द. का. भ. क्षा. श्रुत. विना शु. क्षायो.
अव.
भा. १
का.
उ.
2 २
२
सं. आहा. साका. अना. अना.
Page #391
--------------------------------------------------------------------------
________________
६९८ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. लेस्सा, भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा।
णउंसयवेद-पमत्तसंजदप्पहुडि जाव पढम-अणियट्टि ति ताव इत्थिवेद-भंगो । णवरि सव्वत्थ णउंसयवेदो वत्तव्यो।।
अवगदवेदाणं भण्णमाणे अत्थि छ गुणहाणाणि अदीदगुणहाणं पि अस्थि, दो जीवसमासा अदीदजीवसमासो वि अस्थि, छ पजत्तीओ छ अपज्जत्तीओ अदीदपज्जत्ती वि अस्थि, दस पाण चत्तारि पाण दो पाण एग पाण अदीदपाणो वि अत्थि, परिग्गहसण्णा खीणसण्णा वि अत्थि, मणुसगदी सिद्धगदी वि अस्थि, पंचिंदियजादी अणिदियत्तं पि अत्थिं, तसकाओ अकायत्तं पि अत्थि, एगारह जोग अजोगो वि अत्थि, अवगदवेदो,
औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नपुंसकवेदी जीवोंके प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके प्रथम भागतकके आलाप स्त्रीवेदी जीवोंके आलापोंके समान होते हैं। विशेष बात यह है कि वेद आलाप कहते समय सर्वत्र एक नपुंसकवेद ही कहना चाहिए।
अपगतवेदी जीवोंके आलाप कहने पर-अनिवृत्तिकरणके अवेद भागसे लेकर अन्तके छह गुणस्थान और अतीतगुणस्थान भी होता है, संज्ञा-पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो जीवसमास तथा अतीतजीवसमास स्थान भी होता है, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां तथा अतीतपर्याप्तिस्थान भी होता है, दशों प्राण, चार प्राण, दो प्राण, एक प्राण तथा अतीतप्राणस्थान भी होता है, परिग्रहसंज्ञा तथा क्षीणसंज्ञास्थान भी होता है, मनुष्यगति तथा सिद्धगति भी होती है, पंचेन्द्रियजाति तथा अतिन्द्रियस्थान भी होता है, त्रसकाय तथा अकायस्थान भी होता है, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग तथा कार्मणकाययोग ये ग्यारह योग और अयोगस्थान भी होता है, अपगतवेद, चारों कषाय
१ प्रतिषु पंचिंदिय अणिट्टियत्तं अत्थि ' इति पाठः ।
नं. ३३०
नपुंसकवेदी संयतासंयत जीवोंके आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ह. का. यो. / वे. क. ना. | संय. द. ले. भ.
स. संज्ञि. आ. | उ. |
देश. 04
पंचे... वस. -
. सं.प.
ति.
म.४ न.
मति. देश. के. द. भा.३ भ.
विना. शुभ- अव.
औप. सं. आहा. साका. क्षा..
अना. क्षायो.
-
Page #392
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १. ]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे कसाय - आलाववण्णणं
[ ६९९
चचारि कसाय अकसाओ वि अत्थि, पंच णाण, चत्तारि संजम णेव संजमो णेव असंजमो व संजमा संजमो वि अस्थि, चत्तारि दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा अलेस्सा वि अस्थिः भवसिद्धिया णेव भवसिद्धिया णेव अभवसिद्धिया वि अस्थि, दो सम्मत्तं, सण्णिणो णेव सण्णिणो णेव असण्णिणो वि अत्थि, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा सागार अणागारेहि जुगवदुवजुत्ता वा ।
कसायाणुवादेण ओघालावा मूलोघ-भंगा । णवरि दस गुणडाणाणि वत्तव्वाणि । अदीदगुणहाणं, अदीदजीवसमासो, अदीदपजत्तीओ, अदीदपाणा, खीणसण्णा, सिद्धगदी,
तथा अकषायस्थान भी होता है, मतिज्ञान आदि पांचों ज्ञान, सामायिक, छेदोपस्थापना, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात ये चार संयम तथा संयम, असंयम और संयमासंयम विकल्पों से रहित भी स्थान होता है, चारों दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या तथा अलेश्यास्थान भी होता है; भव्यसिद्धिक तथा भव्यसिद्धिक और अभव्यसिद्धिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी स्थान होता है, औपशमिक और क्षायिक ये दो सम्यक्त्व, संज्ञिक तथा संज्ञिक और असंक्षिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी स्थान होता है, आहारक, अनाहारक) साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी तथा साकार और अनाकार इन दोनों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त भी होते हैं ।
विदिय-अणियट्टिष्पहुडि जाव सिद्धा ति ताव मूलोघ- भंगो । एवं वेदमग्गणा समत्ता ।
अपगतवेदी जीवोंके अनिवृत्तिकरणके द्वितीयभागसे लेकर सिद्ध जीवतकके प्रत्येक स्थानके आलाप मूल ओघालापके समान जानना चाहिए ।
इसप्रकार वेदमार्गणा समाप्त हुई ।
कषायमार्गणा के अनुवादसे ओघालाप मूल ओघालापोंके समान हैं। विशेष बात यह है कि कषायमार्गणा में दश गुणस्थान कहना चाहिए। यहां पर अतीतगुणस्थान, अतीतजीवसमास, अतीतपर्याप्ति, अतीतप्राण, क्षीणसंज्ञा, सिद्धगति, अनिन्द्रियत्व, अकायत्व,
गु.
नं. ३३१
जी. | प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. २ ६५. १०,४ १ १ १ १ अनि सं. प. ६अ २,१ प. म. पं. त्र.
११ म. ४
से सं.अ.
च. ४.
अयो.
अती.
गु.
अती. प्रा.
अपगतवेदी जीवोंके आलाप.
संय. द.
० ४ ५ ४ ४ मति. सा.
क्षीणस
सिद्धग
अयो.
अव. सू. मनः. य.
केव. अनु.
ले. ( भ. स. संज्ञि. आ. उ.
द्र. ६ १ २ १ २ २ भा. १ भ. औ. सं. आहा. साका.
क्षा. अनु. अना. अना. यु.उ.
शु. अले.
अनु.
Page #393
--------------------------------------------------------------------------
________________
०० 1
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[१.१.
अदितं अकायतं, अजोगो, अकसाओ, केवलणाणं, जहाक्खादविहार सुद्धिसंजमो, केवलदंसणं, दव्व-भावेहि अलेस्साओ, णेव भवसिद्धिया, णेव सणिणो णेव असण्णिणो, सागार - अगागारेहिं जुगवदुवजुत्ता वा त्ति णत्थि ।
कोधकसायाणं भण्णमाणे अस्थि व गुणवाणाणि, चोहस जीवसमासा, छ पत्तीओ छ अपज्जत्तीओ पंच पातीओ पंच अपज्जत्तीओ चत्तारि पजत्तीओ चत्तारि अपजतीओ, दस पाण सत्त पाण णव पाण सत्त पाण अट्ठ पाण छ पाण सत्त पाण पंच पाण छ पाण चत्तारि पाण चत्तारि पाण तिष्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, एइंदियजादि-आदी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छ काय, पण्णारह जोग, तिणि वेद वदवेदो चि अत्थि, कोधकसाय, सत्त णाण, पंच संजम सुहुम- जहाक्खादसंजमा स्थि, तिणि दंसण, दव्व-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सणिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
अयोग, अकषाय, केवलज्ञान, यथाख्यातविहारशुद्धिसंयम, केवलदर्शन, द्रव्य और भावसे भलेश्यत्व, भव्यसिद्धिक विकल्पसे रहित, संज्ञिक और असंशिक इन दोनों विकल्पोंसे *रहित, साकार और अनाकार उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त इतने स्थान नहीं होते हैं ।
sोधकषायी जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर - आदिके नौ गुणस्थान, चौदह 'जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां पांच पर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां; चार 'पर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राणः नौ प्राण, सात प्राण; आठ प्राण, छह प्राण; सात प्राण, पांच प्राणः छह प्राण, चार प्राणः चार प्राण, तीन प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, एकेन्द्रिय जाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छहों काय, पन्द्रहों योग, तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है, क्रोधकषाय, केवलज्ञानके विना शेष सात ज्ञान, पांच संयम होते हैं, किन्तु यहां पर सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यातसंयम नही होते हैं; आदिके सीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः छद्दों सम्यक्त्व: संज्ञिक, असंशिक आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
१ आ प्रतौ ' अणियट्टियत्तं पि अस्थिं ' इति पाठः । नं. ३३२ क्रोधकषायी जीवोंके सामान्य आलाप.
७ ५
गु./जी. प. प्रा. सं. ग. इ. | का. यो. | वे. क. ज्ञा. | संय. ९ १४६ प. १०,७४ ४ ५ | ६ | १५ | ३ १ ६ अ. क्रो. केव सूक्ष्म. के. द. भा. ६ विना. यथा विनाविना.
९,७
८, ६
५.प.
५ अ.
१४ प.
४ अ.
उ. २ २
६ २
द. ले. भ. स. संज्ञि. आ. ३ द्र. ६ २ म. सं. आहा. साका. असं अना. अना.
अ.
७,५
६,४
४,३|
Page #394
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगदारे कसाय-आलाववण्णणं
तेसिं चेव पजत्ताणं भण्णमाणे अस्थि णव गुणवाणाणि, सत्त जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ पंच पजत्तीओ चत्तारि पजत्तीओ, दस पाण णव पाण अट्ठ पाण सक्त पाणछ पाण चत्तारि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, एइंदियजादि-आदी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छ काय, एगारह जोग, तिण्णि वेद अवगदवेदो वि अत्थि, कोधकसाओ, सत्त णाण, पंच संजम, तिण्णि दसण, दव्व-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सणिणो असण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुखजुत्ता वा।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि चत्तारि गुणहाणाणि, सत्त जीवसमासा, छ अपज्जतीओ पंच अपज्जतीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण छ पाण पंच पाण चत्तारि पाण तिण्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, एइंदियजादिआदी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छक्काय, चत्तारि जोग, तिणि वेद, कोधकसाओ,
उन्हीं क्रोधकषायी जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-आदिके नौ गुणस्थान, सात पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां पांच पर्याप्तियां चार पर्याप्तियां, दशों प्राण, नौ प्राण, आठ प्राण, सात प्राण, छह प्राण, चार प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियांः पृथिवीकाय आदि छहों काय, पर्याप्तकाल-भावी ग्यारह योग, तीनों वेद, तथा अपगतवेदस्थान भी है, क्रोधकषाय, केवलज्ञानके विना शेष सात ज्ञान, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यातसंयमके विना शेष पांच संयम, आदिके तीन वर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; छहों सम्यक्त्व, संशिक, असंशिक आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं क्रोधकषायी जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-मिथ्याष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि और प्रमत्तसंयत ये चार गुणस्थान, सात अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां; सात प्राण, सात प्राण, छह प्राण, पांच प्राण, चार प्राण, तीन प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छहों काय, औदारिकमिश्रकाययोग, वैक्रियिक
नं. ३३३
क्रोधकषायी जीवोंके पर्याप्त आलाप. गु. जी. प| प्रा. | सं. ग.ई. का. यो. वे. क. ना. | संय.। द. ले. भ. स. संलि. आ.| उ.. ९ ७६ १०४ ४ ५ ६ १२म.४ ३ १ ७ ५ । ३ द्र.६२६ २ १ २ ।
व. ४ क्रो. केव. सूक्ष्म. के.द. भा. ६ म. सं. आहा. साका. औ. १, विना. यथा. विना.. अ.
अना वे.
विना. आ.१
पर्या. ५
___ आदिके. 01
असं.
-
Page #395
--------------------------------------------------------------------------
________________
७०२ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, १.
पंच णाण, तिण्णि संजम, तिण्णि दंसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण छ लेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, पंच सम्मत्तं, सण्णिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ३३४ ।
कोधकसाय- मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, चोद्दस जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपजत्तीओ पंच पज्जत्तीओ पंच अपज्जतीओ चत्तारि पज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण णव पाण सत्त पाण अट्ठ पाण छ पाण सत्त पाण पंच पाण छ पाण चचारि पाण चत्तारि पाण तिष्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चचारि गदीओ, एइंदियजादि-आदी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छ काय, तेरह जोग, तिण्णि वेद, कोधकसाओ, तिणि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्त्र भावेहि छ लेस्साओ,
मिश्रकाययोग, आहारक मिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये चार योगः तीनों वेद, क्रोधकषाय, कुमति, कुश्रुत और आदिके तीन ज्ञान ये पांच ज्ञान; असंयम, सामायिक और छेदोपस्थापना ये तीन संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यले कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे छों लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, सम्यग्मिथ्यात्व के विना पांच सम्यक्त्व, संज्ञिक, असंज्ञिकः आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
क्रोधकषायी मिथ्यादृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर - एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, चोदद्दों जीवसमास, छद्दों पर्याप्तियां, छद्दों अपर्याप्तियां, पांच पर्याप्तियां; पांच अपर्याप्तियां; चार पर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां: दशों प्राण, सात प्राणः नौ प्राण, सात प्राण आठ प्राण, छह प्राणः सात प्राण, पांच प्राण; छह प्राण, चार प्राणः चार प्राण, तीन प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छद्दों काय, आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोगके विना शेष तेरह योग; तीनों वेद, क्रोधकषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छद्दों लेश्याएं,
नं. ३३४
1
गु.
४
मि.
सा.
अवि.
प्रम.
जी. प्रा. सं. ग. इं. का.
७
४ ४
५ ६
अप.
प.
६अ. ७
Alok of A 66 |
५अ. ७
क्रोधकषायी जीवों के अपर्याप्त आलाप.
४अ. ६
यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संज्ञि. आ. ४ औ.मि. वै. मि. आ.मि.
कार्म.
३ १
५
३
क्रो. कुम. असं. के. द. का. कुश्रु सामा. विना मति. छेदो.
श्रुत. अव.
उ. २
५
२ २
भ. सम्य. सं. आहा. साका शु. अ. विना असं अना. अना भा. ६
३ द्र. २ २
Page #396
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-पखवणाणुयोगद्दारे कसाय-आलाववण्णणं
[७०३ भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव पञ्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, सत्त जीवसमासा, छ पजत्तीओ पंच पज्जत्तीओ चत्तारि पज्जत्तीओ, दस पाण णव पाण अट्ठ पाण सत्त पाण छ पाण चत्तारि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, एइंदियजादि-आदी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छ काय, दस जोग, तिणि वेद, कोधकसाय, तिणि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दब-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो असणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिका मिथ्यात्व, संशिक, असंशिक आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं क्रोधकषायी मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, सात पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, पांच पर्याप्तियां, चार पर्याप्तियाँ दशों प्राण, नौ प्राण, आठ प्राण, सात प्राण, छह प्राण, चार प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छहों काय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग; तीनों वेद, क्रोधकषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भन्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संक्षिक, असंशिक; आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं. ३३५ गु. जी. प.
क्रोधकषायी मिथ्यादृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप. प्रा. । सं. ग. ई. का. यो. वे. क. ज्ञा. ( संय. द. । ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ.. १०,७४|४|५|६ | १३ |३| ३ | १२ द्र.६/२/१२ २ २ आहा.२ को. अज्ञा. असं. चक्षु. मा.६म.
आहा. साकाविना.
असं. अना. अना.
क्रोधकषायी मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप. जी. ] प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. । वे. क. सा. संय. द. ! ले. म. स. सनि. आ. | उ. |
७ ६१०४
म. ४
क्रो. अज्ञा. असं. | चक्षु. भा.६ म. मि. सं. आहा. | साका. अच.
असं. अना।
V
Page #397
--------------------------------------------------------------------------
________________
७०४ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. तेसिं चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, सत्त जीवसमासा, छ अपज्जत्तीओ पंच अपजत्तीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण छ पाण पंच पाण चत्तारि पाण तिण्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, एइंदियजादिआदी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छक्काय, तिण्णि जोग, तिण्णि वेद, कोधकसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा।
कोधकसाय-सासणसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, छ पजत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, तेरह जोग, तिणि वेद, कोधकसाओ, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दसण, दव्व-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सणिणो,
उन्हीं क्रोधकषायी मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, सात अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां पांच अपर्याप्तियां चार अपर्याप्तियां; सात प्राण, सात प्राण, छह प्राण, पांच प्राण, चार प्राण, तीन प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गातयां, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छहों काय, औदारिकमिश्रकाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और काणकाययोग ये तीन योग, तीनों वेद, क्रोधकषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे छहों लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संशिक, असंक्षिक; आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
__ क्रोधकषायी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक सासादन गुणस्थान, संशी-पर्याप्त और संशी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोगके विना शेष तेरह योग; तीनों वेद, क्रोधकषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं,
नं. ३३७ क्रोधकषायी मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप. गु. । जी. प. प्रा. सं. ग.ई. का. यो. वे. क. | झा. संय. द. | ले. भ. | स. , संलि. आ. | उ. ।
मि. अप. ५..
566
औ.मि. वै.मि. कार्म.
को. कुम. असं. चक्षु. का. भ. मि. सं. आहा. साका.
| कुश्रु. अच. शु. अ. असं. अना. अना.
Page #398
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-पख्वणाणुयोगदारे कसाय-आलाववण्णणं आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दस जोग, तिणि वेद, कोधकसाओ, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दसण, दव्य-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुषजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ
भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं क्रोधकषायी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने परएक सासादन गुणस्थान, एक संझी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग; औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग; तीनों वेद, क्रोधकषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन; द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं; भव्यासद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
___उन्हीं क्रोधकषायी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक सासादन गुणस्थान, एक संशी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों
द्र.६१
सासा. --
नं. ३३८ क्रोधकषायी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप. गु. जी. प. प्रा. सं | ग. इ.का. यो. वे. क. झा. | संयः । द. ले. ( म. स. संक्षि. १ २ ६५.१०४|४|१|१) १३ ३ १ ३ १ २ में सं.प. ५अ. ७ पं. त्र. आहा.२ को. अज्ञा. असं. चक्षु. मा.६
आहा. साका. विना.
अना. अना.
भ.
सासा. -
सं.अ.
अच.
नं. ३३९ क्रोधकषायी साासदनसम्यग्हाष्ट जीवोंके पर्याप्त आलाप. । यु. जी. प. प्रा. सं. ग.इ.का. यो.। वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. म. स. संक्षि. आ. | उ. |११६ १०४|४|
१ १०३१ ३ १/२ द्र.६ ११ ११ २ प. म.४ को. अशा. असं. चक्षु. मा.६ म. सासा. सं. आहा. साका. अच.
अना.
पंचे.. त्रस..
सासा.
व.
Page #399
--------------------------------------------------------------------------
________________
७०६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १,१. अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिण्णि गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, तिण्णि जोग, तिणि वेद, कोधकसाओ, दो अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्वेण काउसुक्कलेस्सा, भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुसा वा।
कोधकसाय-सम्मामिच्छाइहीणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ,, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दस जोग, तिण्णि वेद, कोधकसाय, तिण्णि णाणाणि तीहिं अण्णाणेहि मिस्साणि, असंजमो, दो दंसण, दव-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, सम्मामिच्छत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा"।
संज्ञाएं, नरकगतिको छोड़ कर शेष तीन गतियां; पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिकमिश्रकाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये तीन योग; तीनों वेद, क्रोधकषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे छहों लेश्याएं: भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
क्रोधकषायी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर एक सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग; तीनों वेद, क्रोधकषाय, तीनों अक्षानोंसे मिश्रित आदिके तीन शान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यासिद्धिक, सम्यग्मिथ्यात्व, . संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं। नं.३४० क्रोधकषायी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप. |गु. जी. प. प्रा. सं. ग. | ई. का. यो. | वे. क. सा. संय. द. ले. म. स. । संक्षि. आ.| उ. । |१|१६अ.७ ४ ३ १ १ ३ ३१ २ १ २ द.२१।१।। ति. पंचे. त्र. औ.मि. क्रो. कुम. असं. चक्षु. का. म.सासा. सं. आहा. साका. कुश्रु.
अना. अना.
.सं अ.
| अच.
वै.मि. कार्म.
शु. भा.६
नं. ३४१ क्रोधकषायी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप. गु. जी. प. प्रा. सं. ( ग.. का. यो. वे. क. झा. संय. द. | ले. | म. स. संशि. आ. उ. |
सं.प.
सम्य.
पंचे.. त्रस. -
म. ४ व. ४
को. ज्ञान. असं. चक्षु. भा. ६ म. सम्य. सं. आहा. साका. अच.
अना. अक्षा. मिश्र.)
Page #400
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे कसाय-आलाववण्णणं
कोधकसाय-असंजदसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एगं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, तेरह जोग, तिण्णि वेद, कोधकसाओ, तिणि णाण, असंजमो, तिण्णि दंसण, दव्व-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव पञ्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाण, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दस जोग, तिण्णि वेद, कोधकसाओ, तिण्णि णाण, असंजमो, तिण्णि दसण, दव्व-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होति
क्रोधकषायी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलापकहने पर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, संझी-पर्याप्त और संक्षी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; चारों संशाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति,
आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोगके विना शेष तेरह योग, तीनों वेद, क्रोधकषाय, आदिके तीन शान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रब्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
____ उन्हीं क्रोधकषायी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने परएक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग, तीनों वेद, क्रोधकषाय, आदिके तीन शान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशामिक ये तीन सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक,
नं ३४२ क्रोधकषायी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप, | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई.का. यो. वे. क. सा. संय. द. ले. भ. स. संझि. आ. ] उ. | १ | २ ३५. १०४ ४ ११. १३ ३ ३ ३ ३ ३ द्र.६ १ ३ । १
१ २ २ सं.प. ६अ.७
आहा.२ क्रो. मति. असं. के.द. भा. ६ म. औप. सं. | IV विना. भ्रत. विना.
अना. क्षायो.
अवि.469
पंचे. - त्रस.
अव.
Page #401
--------------------------------------------------------------------------
________________
606]
३४३
अणामास्वजुत्ता वा३ ।
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
तेर्सिं चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एगं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ अपअतीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, पंचिदियजादी, तसकाओ, तिण्णि जोग, दो वेद इत्थिवेदो णत्थि कोधकसाओ, तिण्णि णाण, असंजमो, तिण्णि दंसण, दव्वेण काउ- सुक्कलेस्साओ, भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया, तिष्णि सम्मतं, सणिणो आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
,
खाकारोपयोगी और अमाकारोपयोगी होते हैं ।
उन्हीं क्रोधकषायी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी - अपर्याप्त जीवसमास, छहीं अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिकमिश्रकाययोग, वैकियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये तीन योग; पुरुष और नपुंसक ये दो वेद होते हैं, किन्तु यहां पर स्त्रीवेद नहीं होता है; क्रोधकषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे छद्दों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, औपशमिक आदि तीन सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
नं. ३४४ गु. जी.
१
१
सं. अ.
न ३४३
क्रोधकषायी असंयत सम्यग्दृष्टि जीवों के पर्याप्त आलाप.
गु.) जी, (प. प्रा. सं. ग.) इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. | संय. द. ले | भ. सं. संज्ञि. आ. १६ | १० * १० ३ १ ३ १ ३ द्र. ६ १ ३ १ १ सं. प म. ४ क्रो. मति. अंस. के. द. मा. ६ श्रुत. विना.
४ १ ง
भ. औप. सं. आहा. साका'
व. ४
अना.
अव.
क्रोधकषायी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप.
ज्ञा. संय. द.
प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. |वे. 1 क. ६अ. ७ ४ ४ १ १ ३ २. १ ३ पं. त्र. औ मि. पु. क्रो. मति. असं
१
वै.मि. नं. कार्म.
भुत. अव.
[ १, १.
क्षा. क्षायो.
ले. भ. स. शि. आ.
उ. २
३ द्र. २ १ ३ १ २
के.द. का. भ. औप. सं. आहा. साका. विना. शु.
अना. अना.
भा. ६
क्षा. क्षायो.
उ.
Page #402
--------------------------------------------------------------------------
________________
संत-परूवणाणुयोगद्दारे कसाय-बालाववण्णणं
[७०९ कोधकसाय-संजदासंजदाणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, दो गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, तिण्णि वेद, कोधकसाय, तिणि णाण, संजमासंजमो, तिण्णि देसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
कोधकसाय-पमत्तसंजदाणं भण्णमाणे अत्थि एगं गुणहाणं, दो जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, (मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, तिण्णि वेद, कोधकसाओं,) चत्तारि णाण, तिणि संजम, तिण्णि दसण, दव्वेण छ लेस्सा, भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ; भव
क्रोधकषायी संयतासंयत जीवोंके आलाप कहने पर-एक देशविरत गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति और मनुष्यगति ये दो गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, और औदारिककाययोग ये नौ योग, तीनों वेद, क्रोधकषाय, आदिके तीन शान, संयमासंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, औपशमिक आदि तीन सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
क्रोधकषायी प्रमत्तसंयत जीवोंके आलाप कहने पर-एक प्रमत्तसंयत गुणस्थान, संक्षी. पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां, दशों प्राण, सात प्राण; चारों संक्षाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग, आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोग ये ग्यारह योगः तीनों वेद, क्रोधकषाय, आदिके चार ज्ञान, सामायिक, छेदोपस्थापना और परिहारविशुद्धि ये तीन संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं,
१ प्रतिषु कोष्ठकान्तर्गतपाठो नास्ति । नं. ३४५
शोधकषायी संयतासंयत जीवोंके आलाप. | गु. जी. प.प्रा.सं.) ग. ई.का. यो. के. क.| झा. । संय. द. ले. (म. | स. संलि.
आ.
..
सं.प.
पंचे. वस. -
म.४
औप.
स. आहा.साकार
को. मति. देश.के.द. भा.३ भ.
विना. शुभ. अव.
श्रुत
Page #403
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
छक्खंडागमे जीवहाणं
[१, १. सिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
कोधकसाय-अप्पमत्तसंजदाणं भण्णमाणे अत्थि एगं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पञ्जत्तीओ, दस पाण, तिण्णि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, तिणि वेद, कोधकसाओ, चत्तारि णाण, तिण्णि संजम, तिणि दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण तेउ-पम्म-मुक्कलेस्साओ; भवसिद्धिया, तिणि सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा"।
भव्यसिद्धिक, औपशमिक आदि तीन सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
क्रोधकषायी अप्रमत्तसंयत जीवोंके आलाप कहने पर-एक अप्रमत्तसंयत गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, आहारसंशाके विना शेष तीन संक्षाएं, मनुष्यगति, पंचन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग; तीनों वेद, क्रोधकषाय, आदिके चार ज्ञान, सामायिक, छेदोपस्थापना और परिहारविशुद्धि ये तीन संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, औपशमिक आदि तीन सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
.................
नं. ३४६
क्रोधकषायी प्रमत्तसंयत जीवोंके आलाप. गु.। जी. | प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संनि. | आ. | उ. |
२६प. १०४ १११११ ३ १ ४ ३ ३ द्र. ६ १ ३ १ १ - सं.प.६ अ.७ म. म. ४ को. मति. सामा. के.द. भा. ३ भ. औप. सं. आहा. | साका. श्रुत. छेदो. विना. शुभ. क्षा.
अना. औ.१ अव. परि.
क्षायो, मनः
पचे. - त्रस. -
सं.अ./
व.४
आ.२
नं. ३४७
क्रोधकषायी अप्रत्तसंयत जीवोंके आलाप. । गु.जी. प. प्रा. सं. ग. इं । का. यो. वे. क. ज्ञा.। संय. द. ले. भ. स. संलि. आ. | उ. ।
अप्र. 01
आहा. म. पं. स. म. ४ विना.
क्रो. मति. सामा. के.द. भा. ३ म. ऑप. सं. आहा. साका. श्रत. छेदो. विना. शुभ..
अना. अव. पार.
क्षायो, मनः.
-
Page #404
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगदारे कसाय-आलाववण्णणं [७११
कोधकसाय-अपुव्वयरणाणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाण, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, तिण्णि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, तिण्णि वेद, कोधकसाय, चत्तारि णाण, दो संजम, तिण्णि दसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्साओ; भवसिद्धिया, दो सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा" ।
कोधकसाय-पढमअणियट्टीणं भण्णमाणे अत्थि एगं गुणहाणं, एगो जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, दो सण्णा, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग,
क्रोधकषायी अपूर्वकरण जीवोंके आलाप कहने पर-एक अपूर्वकरण गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, आहारसंशाके विना शेष तीन संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग; तीनों वेद, क्रोधकषाय, आदिके चार ज्ञान, सामायिक और छेदोपस्थापना ये दो संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या; भव्यासिद्धिक, औपशमिक और क्षायिक ये दो सम्यक्त्व; संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।।
क्रोधकषायी प्रथम भागवर्ती अनिवृत्तिकरण जीवोंके आलाप कहने पर-एक अनिवृत्तिकरण गुणस्थान, एक संझी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, मैथुन और परिग्रह ये दो संज्ञाएं; मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, पूर्वोक्त नौ योग, तीनों
ज्ञा. संय.
नं. ३४८
क्रोधकषायी अपूर्वकरण जीवोंके आलाप. गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. वे. क. शा. संय. द. ले. भ. स. संक्षि. आ. उ. । ११.६ १० ३ १११ ९ ३ १ ४ । २ ३ द्र.६१ २ १ १ २ आहा म... म. ४ क्रो. मति. सामा. के द. भा. १ भ. औप. सं. आहा. साका.
श्रुत. छेदो. विना. शुक्ल. क्षा. औ १ अव.
मनः.
द्र.६ १
पंचे. - त्रस.
. आहा. साका.
ike
विना.
अना.
६१०
-
नं. ३४९ क्रोधकषायी प्रथम भागवर्ती अनिवृत्तिकरण जीवोंके आलाप. गु. जी. प. प्रा. | सं. ग. ई. का. यो. वे. क. झा. संय. द. ले. म. स. संक्षि. आ. उ.
३१ ४२ ३ द्र.६१ मै म.
को मति. सामा. के.द मा. म. औप. सं. आहा. साका.
श्रुत. छेदो विना. शुक्ल. अव. मन:,
૨.
पंचे. वस.
अनि. प्र.
प.
४
अना.
Page #405
--------------------------------------------------------------------------
________________
७१२
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, १.
तिणि वेद, कोधकसाय, चत्तारि णाण, दो संजम, तिण्णि दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया, दो सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति
अणागारुवजुत्ता वा ।
कोधकसाय - विदियअणियट्टीणं भण्णमाणे अत्थि एगं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, परिग्गहसण्णा, मणुसगदी, पंचिदियजादी, तसकाओ, णव जोग, अवगदवेदो, कोधकसाय, चत्तारि णाण, दो संजम, तिण्णि दंसण, दव्त्रेण छ लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा, भवसिद्धिया, दो सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा 1
एवं माण - मायाकसायाणं पि मिच्छाइट्टिप्पहुडिं जाव अणियट्टित्ति वत्तव्यं । वरि जत्थ कोधकसाओ तत्थ माण- मायाकसाया वत्तव्या । लोभकसायस्स कोधकसायभंग । वर ओघालावे भण्णमाणे दस गुणट्ठाणाणि, छ संजम, लोभकसाओ च वत्तव्वो ।
वेद, क्रोधकषाय, आदिके चार ज्ञान, सामायिक और छेदोपस्थापना ये दो संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या; भव्यसिद्धिक, औपशमिक और क्षायिक ये दो सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
क्रोधकषाय द्वितीय भागवर्ती अनिवृत्तिकरण जीवोंके आलाप कहने पर - एक अनिवृत्तिकरण गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, परिग्रहसंज्ञा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, पूर्वोक्त नौ योग, अपगतवेद, क्रोधकषाय, आदिके चार ज्ञान, सामायिक और छेदोपस्थापना ये दो संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या, भव्यसिद्धिक, औपशमिक और क्षायिक ये दो सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी, और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
इसीप्रकार से मानकषायी और मायाकषायी जीवोंके मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थानतकके आलाप कहना चाहिए। विशेष बात यह है कि कषाय आलाप कहते समय जहां ऊपर क्रोधकषाय कहा है, वहांपर मानकषाय और मायाकषाय कहना चाहिए। लोभshares आलाप क्रोधकषायके आलापोंके समान हैं। विशेष बात यह है कि लोभ कषायके ओघालाप कहने पर आदिके दश गुणस्थान, संयम आलाप कहते समय यथाख्यातसंयमके
नं. ३५०
क्रोधकषायी द्वितीय भागवर्ती अनिवृत्तिकरण जीवोंके आलाप.
गु. जी. | प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. | वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ. १४ मति २ ३ द्र. ६१ २ १ १ क्रो. श्रुत. सामा, के. द. मा. १ भ. औप. सं. आहा. साका. अव. छेदो. विना शुक्ल. क्षा.
१ १ ६ १० १ १ १ १ ९
२
सं.प.
प.
म. पं.
म. ४
अना.
मनः.
अनि.द्वि. /
त्रस.
०
अपग
Page #406
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे कसाय-आलाववण्णणं ३५अकसायाणं भण्णमाणे अत्थि चत्तारि गुणट्ठाणाणि अदीदगुणट्ठाणं पि अत्थि, दो जीवसमासा अदीदजीवसमासा वि अस्थि, छ पजत्तीओ छ अपज्जत्तीओ अदीदपज्जत्ती वि अत्थि, दस चत्तारि दो एग' पाण अदीदपाणो वि अत्थि, खीणसण्णा, मणुसगदी सिद्धगदी वि अस्थि, पंचिंदियजादी अणिदियत्तं पि अत्थि, तसकाओ अकायत्तं पि अत्थि, एगारह जोग अजोगो वि अत्थि, अवगदवेदो, अकसाओ, पंच णाण, जहाक्खादविहारसुद्धिसंजमो णेव संजमो णेव असंजमो णेव संजमासंजमो वि अत्थि, चत्तारि दसण. दव्वेण छ लेस्सा, भावेण सुक्कलेस्सा अलेस्ता वि अत्थिा भवसिद्धिया णेव भवसिद्धियां णेव अभवसिद्धिया, दो सम्मत्तं, सण्णिणो णेव सणिणो णेव असणिणो, आहारिणो
विना छह संयम और कषाय आलाप कहते समय लोभकषाय कहना चाहिए ।
अकषायी जीवोंके आलाप कहने पर-उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली ये चार गुणस्थान तथा अतीतगुणस्थान भी है, संक्षी-पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो जीवसमास तथा अतीतजीवसमासस्थान भी है, छहों पर्याप्तियां, छहों अपयोप्तियां तथा अतीतपर्याप्तिस्थान भी है। दशों प्राण, सयोगिकेवलीके संभवित चार प्राण और दो प्राण, अयोगिकेवलोके संभवित एक प्राण और सिद्ध जीवोंकी अपेक्षासे अतीतप्राणस्थान भी है; क्षीणसंशा, मनुष्यगति तथा सिद्धगति भी है, पंचेन्द्रियजाति तथा अनिन्द्रियत्वस्थान भी है, उसकाय तथा अकायत्वस्थान भी है, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योग तथा अयोगस्थान भी है, अपगतवेद, अकषाय, पांचों सम्यग्ज्ञान, यथाख्यातविहारशुद्धिसंयम तथा संयम, संयमासंयम और अंसंयम इन तीनोंसे रहित स्थान भी है, चारों दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या तथा अलेश्यास्थान भी है। भव्यसिद्धिक तथा भव्यसिद्धिक और अभव्यसिद्धिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी स्थान है, औपशमिक और क्षायिक ये दो सम्यक्त्व, संक्षिक तथा
१ आ. प्रतौ " एग १०-४-२-१" इति पाठः। नं. ३५१
अकषायी जीवोंके आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. | ग. इं. का. यो. । वे. क. ना. | संय. द. ले. भ. स.सनि. आ. उ. ४ २ ६ अ. २,१
म. ४ मति. यथा. भा.१ म. औ सं. आहा. साका. अती सं.अ. अती. अ
व. ४0 श्रुत. अनु. शुक्ल. क्षा. अनु. अना. अना. गु. अती.पर्या. प्राप
अले.
यु.उ. मन.
-
अंत. सं.प.
६५. १०,४/
क्षीणसं. .
अनि. AM अका.:
अकषा. 18
अनु.
अव.
जीव.
केव.
Page #407
--------------------------------------------------------------------------
________________
७१४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ('सागार-अणागारेहिं जुगवदुवजुत्ता वा ।) उवसंतकसायप्पहुडि जाव सिद्धा त्ति ओघ-मंगो।
एवं कसायमग्गणा समत्ता । णाणाणुवादेण ओघालावा मूलोघ-भंगा।
"मदि-सुदअण्णाणीणं भण्णमाणे अस्थि दो गुणट्ठाणाणि, चोद्दस जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ पंच पज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ चत्तारि पज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण णव पाण सत्त पाण अट्ठ पाण छ पाण सत्त
संशिक और असंज्ञिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी स्थान है, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी तथा साकार और अनाकार इन दोनों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त भी होते हैं।
__ अकषायी जीवोंके उपशान्तकषाय गुणस्थानसे लगाकर सिद्ध जीवोंतकके प्रत्येक स्थानके आलाप ओघालापके समान जानना चाहिए ।
इसप्रकार कषायमार्गणा समाप्त हुई। शानमार्गणाके अनुवादसे ओघालाप मूल ओघालापके समान जानना चाहिए।
मतिःश्रुत-अज्ञानी जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि ये दो गुणस्थान, चौदहों जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; पांच पर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां; चार पर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां, दशों प्राण, सात प्राण; नौ प्राण, सात प्राण; आठ प्राण, छह प्राण; सात प्राण, पांच प्राण; छह प्राण, चार प्राण;
१ प्रतिषु कोष्ठकान्तर्गतपाठो नास्ति ।
नं. ३५२
मति श्रुत-अज्ञानी जीवोंके सामान्य आलाप. गु. जी. प. प्रा. | सं. ग. इं.का. यो. वे. क. सा. | संय. द. ले. भ. स. संझि.) आ. उ. | २/१४६५.२०,७|४|४|५६ | १३ |३|४२ १ २ द्र.६/२/२ | २ | २ | २
आ.द्वि. कुम. असं. चक्षु. भा. ६)भ. | मि. | सं. | आहा. साका. विना.. कुध. | अच. अ. सासा. असं. अना. अना.
३
Page #408
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे णाण-आलाववण्णणं
[७१५ पाण पंच पाण छ पाण चत्तारि पाण चत्तारि पाण तिणि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, एइंदियजादि-आदी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छ काय, तेरह जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दमण, दव्य-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, दो सम्मत्तं, सणिणो असणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
३"तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि दो गुणट्ठाणाणि, सत्त जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ पंच पज्जत्तीओ चत्तारि पज्जत्तीओ, दस पाण णव पाण अट्ठ पाण सत्त पाण छ पाण चत्तारि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, एइंदियजादि-आदी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छ काय, दस जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दब-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, दो सम्म,
चार प्राण तीन प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां' पृथिवीकाय आदि छहों काय, आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोगके विना तेरह योग; तीनों वेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व और सासादनसम्यक्त्व ये दो सम्यक्त्व, संशिक, असंक्षिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी
और अनाकारोपयोगी होते हैं। • उन्हीं मति-श्रुत-अज्ञानी जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-आदिके दो गुणस्थान, सात पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, पांच पर्याप्तियां, चार पर्याप्तियां, दशों प्राण, नौ प्राण, आठ प्राण, सात प्राण, छह प्राण, चार प्राण; चारों संक्षाएं, चारों गतियां, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छहों काय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व और सासादनसम्यक्त्व ये दो सम्यक्त्व, संक्षिक, असंक्षिका
.....
नं. ३५३
मति-श्रुत अज्ञानी जीवोंके पर्याप्त आलाप. प्रा. सं. ग.) इं. | का. यो. (वे. क.सा. | संय. द. | ले. । म. स. संझि. आ. | उ. १.४४५ |६|१०|३४|२१२ द.६२२२१२
कुम. असं. चक्षु. भा. ६ म. मि. सं. आहा- साका.
अ.सा. असं.
अना.
म.४
।
क
Page #409
--------------------------------------------------------------------------
________________
७१६ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
सण असणणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि दो गुणट्ठाणाणि, सत्त जीवसमासा, छ अपज्जतीओ पंच अपज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जतीओ, सत्त पाण सत्त पाण छ पाण पंच पाण चत्तारि पाण तिष्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, एइंदियजादिआदी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छ काय, तिण्णि जोग, तिष्णि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्त्रेण काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, दो सम्मत्तं, सण्णिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
३५४
मदि- सुदअण्णाण - मिच्छाहट्टीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, चोद्दस जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपजत्तीओ पंच पज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ चत्तारि पज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण णव पाण सत्त पाण अट्ठ पाण
आहारक, लाकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
उन्हीं मति श्रुत- अज्ञानी जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - - आदिके दो गुणस्थान, सात अपर्याप्त जीवसमास, छद्दों अपर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां सात प्राण, सात प्राण, छह प्राण, पांच प्राण, चार प्राण, तीन प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छहों काय औदारिकमिश्रकाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये तीन योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदि के दो अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः मिथ्यात्व और सासादनसम्यक्त्व ये दो सम्यक्त्व, संज्ञिक, असंशिक आहारक, अनाहारकः साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
[ १,१.
मति श्रुतं - अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर - एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, चौदह जीवसमासः छद्दों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; पांच पर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां; चार पर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राणः नौ प्राण, सात
नं. ३५४
मति श्रुत- अज्ञानी जीवोंके अपर्याप्त आलाप.
ग्रु./जी. | प. प्रा.सं.ग. ई. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संज्ञि. | आ. २ ७ | ६ अ. ७ ४ ૪ ५ ६ ३ ३ ४ मि. अप. ५, ७ औ.मि. ४, ६ वै.मि.
सा.
कार्म.
उ.
२
R
२
१. २ द्र.२२ २ २ कुम. असं. चक्षु. का. म. मि. सं. आहा. साका. अच. शु. अ. सा. असं. अना. अना.
कुश्रु.
भा. ६
Page #410
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे णाण-आलाववण्णणं छ पाण सत्त पाण पंच पाण छ पाण चत्तारि पाण चत्तारि पाण तिण्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, एइंदियजादि-आदी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छ काय, तेरह जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दसण, दव-भावेहि छ लेम्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा"।
___ ३५ तेसिं चेव पजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, सत्त जीवसमासा, छ पजत्तीओ पंच पजत्तीओ चत्तारि पजत्तीओ, दस पाण णव पाण अट्ठ पाण सत्त पाण छ पाण चत्तारि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, एइंदियजादि-आदी पंच
प्राण; आठ प्राण, छह प्राण; सात प्राण, पांच प्राण, छह प्राण, चार प्राण; चार प्राण, तीन प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छहों काय, आहारककाययोगद्विकके विना तेरह योग, तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यासिद्धिक, अभव्यसिद्धिका मिथ्यात्व, संशिक, असंज्ञिक; आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
__उन्हीं मति-श्रुत-अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने परएक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, सात पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, पांच पर्याप्तियां चार पर्याप्तियां; दशों प्राण, नौ प्राण, आठ प्राण, सात प्राण, छह प्राण, चार प्राण; चारों
नं. ३५५ मति श्रुत-अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप. | गु.|जी। प. | प्रा. सं. |ग. | इ. का. यो. वे. क. बा. संय.। द. | ले. म. स.संलि. आ. | उ. | |१|१४६ ५.१०,७४|४|५|६| १३ | ३/४/२ १ । २ द्र.६|२| |२|२ २ | मि. ६ अ.
आ.द्वि. कुम. असं. | चक्षु. भा.६ म. मि. सं. आहा. साका. विना. कुथु: अच.
अ. असं. अना. अना. । ५ अ. ७,५
ur urrry
'अ.
४,३
नं. ३५६ मति-श्रुत-अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप. । गु.. जी. | प. प्रा. | सं. ग ई. | का. यो. । वे क. शा. संय. द. ले. म. स. सझि. आ.
Fa
१
म. ४
कु म. असं. चक्षु
अच.
भा.६ म. मि. सं. आहा.
अ. असं.
साका
.
Page #411
--------------------------------------------------------------------------
________________
छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. जादीओ, पुढवीकायादी छ काय, दस जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्व-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो असण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
तेसिं चेव अपञ्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, सत्त जीवसमासा, छ अपज्जत्तीओ पंच अपजत्तीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण छ पाण पंच पाण चत्तारि पाण तिण्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, एइंदियजादिआदी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छ काय, तिण्णि जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
संक्षाएं, चारों गतियां, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छहों काय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिका मिथ्यात्व, संशिक, असंशिक आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं मति-श्रुत-अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने परएक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, सात अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां; सात प्राण, सात प्राण, छह प्राण, पांच प्राण, चार प्राण, तीन प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छहों काय, औदारिकमिश्रकाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये तीन योग; तीनों घेद, चारों कषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संशिक, असंशिक आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं. ३५७ मति-श्रुत अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप. गु. जी. प. प्रा. सं.ग.। इं.का., यो. वे. क. शा. संय. द. ले. भ. | स. ,मंशि. आ.| उ. |
७६अ.७ ४४ ५ ६ ३ ३ ४ २ १२ द्र.२ २१ २२ २ मि. अप. ५,७
औ.मि. | कुम. असं चक्षु का. म. मि. सं. आहा. साका. वै मि.
अच. शु. अ. असं. अना. अना. कार्म.
मा. ६
Page #412
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे णाण-आलाववण्णणं
[ ७१९ मदि-सुदअण्णाण-सासणसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, छ पजत्तीओ छ अपजत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, तेरह जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो सण, दव्य-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता हति अणागारुवजुत्ता वा"।
३"तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ,
__ मति-श्रुत-अज्ञानी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर एक सासादन गुणस्थान, संशो-पर्याप्त और संझी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, आहारकद्विकके विना तेरह योग, तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं मति-श्रुत-अज्ञानी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर- एक सासादन गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग,
नं. ३५८ | गु. जी.
मति श्रुत-अज्ञानी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप. प. प्रा. सं | ग. इ.का.) यो._ वे. क. झा. | संय. । द. । ले. (म. स. संझि.
आ.
उ.
. सं.प. ५अ.७
।
सासा.
पं. व. आ. द्वि.
| विना.
सं.अ.
कुम. असं. चक्षु. मा.६ भ..
| अच.
सासा. .
आहा. साका. अंना. अना.
नं. ३५९ मति-श्रुत-अज्ञानी सासदनसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप. .. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग.इ.का. यो. । वे. क. ज्ञा. संग. द. ले. म. स. साश. आ. । उ.
१।१०।३ | ४ २ १ २ द्र.६ १ १ १ १
कुम. असं. चक्षु. भा.६ भ. सासा. सं. आहा. | साका कुथु
अना.
4.
पंचे..
सासा.
त्रस.
अच.
Page #413
--------------------------------------------------------------------------
________________
७२०) छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. दस जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो देसण, दव्य-मावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
...तेसिं चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगदीए विणा तिणि गदीओ, पंचिं. दियजादी, तसकाओ, तिण्णि जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा।
विभंगणाणाणं भण्णमाणे अत्थि दो गुणट्ठाणाणि, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ,
औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग; तीनों वेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं मति-श्रुत-अज्ञानी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक सासादन गुणस्थान, एक संशी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, अलकाय, औदारिकमिश्रकाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये तीन योग, तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
विभंगज्ञानी जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-आदिके दो गुणस्थान, एक संक्षीपर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति,
नं. ३६० मति श्रुत-अज्ञानी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप. शु. जी. प. प्रा. सं ग.ई. का. यो. वे. क. शा. संय. द. ले. म. स. । संलि. आ. उ. |
.सं अ..
| MEE
ति. पचे. त्र
औ.मि.
कुश्रु.
कुम. असं. चक्षु. का. भ.सासा. सं. आहा साका. अच. शु.
अना- अना. भा.६
कार्म
Page #414
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गाण-आलाववण्णणं
[.२१ दस जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, विभंगणाणं, असंजमो, दो दसण, दव-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, दो सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
विभंगणाणि-मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाण, एओ जीवसमासो, छ पञ्जत्तीओ, दस पाण, चत्वारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दस जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, विभंगणाण, असंजमो, दो दसण, दव्व-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
उसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योगः तीनों वेद, चारों कषाय, एक विभंगावधिज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिका मिथ्यात्व और सासादनसम्यक्त्व ये दो सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
विभंगवानी मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, पूर्वोक्त दश योग, तीनों वेद, चारों कषाय, विभंगावधिज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
.................
नं.३६१
विभंगज्ञानी जीवोंके सामान्य आलाप.
.
गु| जी. प. प्रा. सं. ग. का. यो. वे. क. झा. संय. द. ले. भ. स. संझि. आ. उ. । २१ ६ १० ४ ४ १२ १०३ ४ १ १ २ द. ६२२ र २ मि. सं.प.
म. ४ । विभं. असं. चक्षु. भा. ६ म. मि. सं. आहा. साका, अच. अ. सासा.
अना. औ.१
पंच -
व.४
नं. ३६२
विभंगशानी मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप. | ग.) जी. | प। प्रा. सं. ग. ई.) का. यो. । वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संलि. आ.| उ.
१ १०३ ४ १ १ २ द्र. २१ १ १ २ मि सं.प.
पं त्रसम.४ विभ. असं. चक्षु भा.६म. मि.स
६म. मि. सं. आहा. साका. अच.
अना.
Page #415
--------------------------------------------------------------------------
________________
७२२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. विभंगणाणि-सासणसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दस जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, विभंगणाण, असंजमो, दो दसण, दव्व-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
- आभिणियोहिय-सुदणाणाणं भण्णमाणे अस्थि णव गुणट्ठाणाणि, दो जीवसमासा, छ पजत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अत्थि, चत्तारि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, पण्णारह जोग, तिण्णि वेद अवगदवेदो वि अस्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अत्थि, दो णाण, सत्त संजम, तिण्णि दसण, दव्व-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो
विभंगज्ञानी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर-एक सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, पूर्वोक्त दश योग, तीनों वेद, चारों कषाय, विभंगावधिज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
____ आभिनिबोधिक और श्रुतज्ञ नी जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तकके नौ गुणस्थान, संशी-पर्याप्त और संक्षी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; चारों संक्षाएं तथा क्षीणसंज्ञास्थान भी है, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, पन्द्रहों योग, तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है, चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है, मति और श्रुत ये दो शान, सातों संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारक; साकारो
नं. ३६३ विभंगशानी सालादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके आलाप. । गु. | जी. | प. प्रा. सं.ग. । ई |का. यो. वे. क. झा. संय. द. | ले. | म. स. सति | आ.। उ.
सासा. सं. प.
विभ. असं. चक्षु. भा.६ म. सा.सं. आहा साका. अच.
अना.
Page #416
--------------------------------------------------------------------------
________________
संत-परूवणाणुयोगदारे णाण-आलाववण्णणं
[.२३ अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा"।
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि णव गुणट्ठाणाणि, एगो जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अत्थि, चत्तारि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, तिणि वेद अवगदवेदो वि अत्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अत्थि, दो णाण, सत्त संजम, तिण्णि दंसण, दव्व-भावहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा६५।
पयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
__ उन्हीं आभिनिबोधिक और श्रुतज्ञानी जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने परअविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे क्षीणकषाय तक नौ गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां दशों प्राण, चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंज्ञास्थान भी है, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, पर्याप्तकालसंबन्धी ग्यारह योग, तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है, चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है, मति और श्रुत ये दो ज्ञान, सातों संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, औपशमिक आदि तीन सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं. ३६४ | गु. । जी. प.
मति-श्रुतज्ञानी जीवोंके सामान्य आलाप. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क./ झा. | संय. द. ले.
म. स. (संन्नि./ आ. उ..
अवि. सं.प.
सं.अ.
अ. ७
अपग. May अकषा.
क्षीणसं.
मति. | श्रुत.
विना.
के.द. भा. ६ म. | औप. सं. आहा.साका.
क्षा.
अना. अमा.
क्षाया.
नं. ३६५
मति-श्रुतज्ञानी जीवोंके पर्याप्त आलाप. | गु. जी. प. प्रा.सं. | ग. ई. का. यो. वे. क. सा. ( संय. द. ले. [म. स. संलि. आ.| उ. | ४|१|१११ म.४३| २|७ ३ द्र.
६ ३ १ १ अवि. सं.प.
मति. के.द. भा.६ म. औप.. सं. आहा. साका.
क्षीणसं.
पंचे. 0 त्रस..
अकषा.
विना.
अना.
क्षायो.
|
आ.१
Page #417
--------------------------------------------------------------------------
________________
०२.] छक्खंडागमे जीवाणं
[१,१. तेसिं चेव अपज्जताणं भण्णमाणे अत्थि दो गुणहाणााण, एओ जीवसमासो, छ अपज्जतीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, पंचिंदियजादी, वसकाओ, चत्तारि जोग, इत्थिवेदेण विणा दो वेद, चत्तारि कसाय, दो णाण, तिण्णि संजम, तिणि दसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया, तीण सम्मनं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुखजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा
आभिणिबोहिय-सुदणाण-असंजदसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, छ पजत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, तेरह जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, दो णाण, असंजमो, तिण्णि दंसण, दव्व-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं,
___ उन्हीं आभिनिबोधिक और श्रुतमानी जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने परअविरतसम्यग्दृष्टि और प्रमत्तसंयत ये दो गुणस्थान, एक संक्षी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संशाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र, आहारकमिश्र और कार्मणकाययोग ये चार योग, स्त्रीवेदके विना शेष दो वेद, चारों कषाय, मति और श्रुत ये दो ज्ञान, असंयम, सामायिक और छेदोपस्थापना ये तीन संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे छहों लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, औपशमिक आदि तीन सम्यक्त्व, संशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं। _ आभिनिबोधिक और श्रुतज्ञानी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, संक्षी-पर्याप्त और संज्ञी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, आहारकद्विकके विना शेष तेरह योग, तीनों वेद, चारों कषाय, माति और श्रुत ये दो शान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं,
नं. ३६६
मति-श्रुतशानी जीवोंके अपर्याप्त आलाप. . जी.प.प्रा.सं. ग. ई.का.
। संय. द. ले. भ. स. संलि . आ. | उ |२१६७४ ४११ ४२४ २ ३३ द.२१ ३१२ २ अवि..
पं. स. औ.मि. पु. मति. असं. के.द. का. भ. औप. सं. आहा. साका.
वै. मि.न. श्रुत. सामा. विना. शु. क्षा. अना. अना. आ.मि.
छेदो.
भा.६ क्षायो, कार्म
सं.अ.
Page #418
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे णाण-आलाववण्णणं [७२५ सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव पन्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पंजत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दस जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, दो णाण, असंजमो, तिण्णि दंसण, दव्व-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
भन्यसिद्धिक, औपशमिक आदि तीन सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं आभिनिबोधिक और श्रुतज्ञानी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग, तीनों घेद, चारों कषाय, मति और श्रुत ये दो ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, औपशमिक आदि तीनों सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं ३६७ मति-श्रुतशानी असंयतसस्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई.का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. म. स. संझि. आ. | उ. | | १२६५. १०४ ४ २ १ १३ ३ ४ २ १ ३ द्र.६१ ३ १ २२
- आ. द्वि. मति. असं. के.द. भा. ६ म. औप. सं. आहा. साका. .अ. विना. श्रत. विना.
अना. अना. क्षायो.
पंचे. . त्रस..
क्षा.
नं ३६८ मति-श्रुतशानी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप. | गु. जी, | प. प्रा. सं. | ग. ई. का. यो. । वे. क. | झा. | संय. | द. | ले. | म. सं. संलि. आ. | उ. ।
मति. असं. के.द.भा.६ भ. औप. | सं. आहा. साका. विना.
क्षा. क्षायो.
.
अवि. 0
पंचे..
भूत.
अना.
.
.
Page #419
--------------------------------------------------------------------------
________________
७२९ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाण, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, तिण्णि जोग, दो वेद, चत्तारि कसाय, दो णाण, असंजमो, तिण्णि दंसण, दव्वेण काउसुक्कलेस्साओ, भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
___संजदासंजदप्पहुडिं जाव खीणकसाओ त्ति ताव मूलोघ-भंगो। णवरि आभिणिबोहिय-सुदणाणाणि वत्तव्याणि । एवमोहिणाणं पि वत्तव्यं । णवरि ओहिणाणं एकं चेव भाणिदव्वं । णाण-दसणमग्गण्णाआ जेण खओवसममस्सिऊण द्विआओ तेण मदिसुदणाणेसु णिरुद्धसु दोहि तीहि चउहि वा ओहि-मणपज्जवणाणेसु णिरुद्धेसु तीहि
उन्हीं आभिनिबोधिक और श्रुतज्ञानी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक अविरतसम्यग्दष्टि गुणस्थान, एक संक्षी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मणकाययोग ये तीन योगः पुरुषवेद और नपुंसकवेद ये दो वेद, चारों कषाय, मति और श्रुत ये दो ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे छहों लेश्याएंभव्यसिद्धिक, औपशमिक आदि तीन सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
___ संयतासंयत गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तकके मतिश्रुतज्ञानी जीवोंके आलाप मूल ओघालापोंके समान होते हैं। विशेष बात यह है कि ज्ञान आलाप कहते समय आमिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान ही कहना चाहिए । इसीप्रकार अवधिज्ञानके आलाप जानना चाहिए। विशेष बात यह है कि यहां पर पूर्वोक्त दो ज्ञानोंके स्थानमें एक अवधिज्ञान ही कहना चाहिए।
शंका-जब कि मतिज्ञानादि क्षायोपशमिक ज्ञानमार्गणा और चक्षुदर्शनादि क्षायोपशमिक दर्शनमार्गणाएं अपने अपने आवरणीय कर्मों के क्षयोपशमके आश्रयसे स्थित हैं, तब मतिखान और श्रुतज्ञान-निरुद्ध आलापोंके कहने पर दो, तीन अथवा चार ज्ञान तथा अवधिज्ञान नं. ३६९ मति श्रुतज्ञानी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप. गु. जी. । प. प्रा. सं. | ग.) ई.का. यो. वे. क. ना. संय.। द. | ले. म. | स. सझि. आ. | उ. ११ ६अ. ७|४|४|१|१३ २४ २ | १ | ३ द्र. २१ ३ १/२ । ।
पं. . औ.मि. पु. मति. असं. के.द. का. भ. औप. स. आहा. साका.
वै.मि. नं.। श्रुत. विना. शु. क्षा. अना. अना. कार्म.
भा.६ क्षायो.
अवि. -
सं.अ.
Page #420
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-पख्वणाणुयोगद्दारे णाण-आलाववण्णणं चउहि वा णाणेहि होदव्वमिदि सच्चमेदं, किंतु इयरेसु संतेसु वि ण विवक्खा कया, तेण विवक्खिय-णाण-वदिरित्त-णाणाणमवणयणं कयं ।
मणपज्जवणाणीणं भण्णमाणे अत्थि सत्त गुणट्ठाणाणि, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अस्थि, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, आहारदुगेण विणा णव जोग, पुरिसवेद, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अस्थि, मणपज्जवणाणं, परिहारसंजमेण विणा चत्तारि संजम, तिणि दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, वेदगसम्मत्तपच्छायद-उवसमसम्मत्तसम्माइट्ठिस्स पढमसमए वि मणपज्जवणाणुवलंभादो। मिच्छत्त
और मनःपर्ययज्ञान-निरुद्ध आलापोंके कहने पर तीन अथवा चार ज्ञान होना चाहिए?
विशेषार्थ-शंकाकारके कहने का यह भाव है कि जब मतिज्ञान आदि चार ज्ञान क्षायोपशमिक होनेके कारण मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञानके साथ अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान हो सकते हैं, तब विवक्षित किसी भी ज्ञानमार्गणाके आलाप कहते समय अपने सिवाय शेष बानोंको भी कहना चाहिए। अर्थात उमस्थ जीवोंके कमसे कम मतिज्ञान और श्रतज्ञान ये दो शान तो होते ही हैं। तथा इनके साथ अवधिज्ञान, अथवा मनःपर्ययज्ञान अथवा दोनों ही शान हो सकते हैं, इसलिये मति-श्रुतज्ञानी जीवोंके आलाप कहते समय मति और श्रुत ये दो अथवा मति, श्रुत और अवधि ये तीन अथवा, मति, श्रुत और मनःपर्यय ये तीन अथवा, मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ये चार ज्ञान कहना चाहिए । इसीप्रकार अवधिशानी और मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके आलाप कहते समय--क्रमशः मति, श्रुत और अवधि ये तीन तथा मति, श्रुत और मनःपर्यय ये तीन ज्ञान अथवा मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ये चार शान कहना चाहिए।
समाधान - आपका यह कहना सत्य है, किन्तु विवक्षित ज्ञानके साथ इतर शानोंके होने पर भी उनकी विवक्षा नहीं कि गई है। इसलिये विवक्षित ज्ञानसे अतिरिक्त अन्य शानोंको नहीं गिनाया गया है।
मनापर्ययज्ञानी जीपोंके आलाप कहने पर-प्रमत्तसंयतसे लेकर क्षीणकषाय तकके सात गुणस्थान, एक संधी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संक्षाएं तथा सीणसंज्ञास्थान भी है, मनुष्यगति, पंचन्द्रियजाति, प्रसकाय, आहारककाययोग और भाहारकमिश्रकाययोगके बिना नौ योग, पुरुषवेद, चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है, मन:पर्ययज्ञान, परिहारविशुद्धिसंयमके धिना चार संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं भावसे तेज, पन्न और शुक्ल लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, तीन सम्यक्त्व होते हैं। मनःपर्ययज्ञानीके भोपशमिकसम्यक्त्व कैसे होता है, इसका समाधान करते हुए आचार्य लिखते हैं कि जो
१ उसमचरियाहिमुहो वेदगसम्मो अणं विजोयित्ता। अंतोमुत्तकालं अधापमसो पमत्तोय ॥ ततो तिरयणविहिणा दंसणमोहं समं खु उवसमदि। ल. क्ष. २०३, २०४.
Page #421
--------------------------------------------------------------------------
________________
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १,१.
पच्छायद-उवसमसम्माइट्ठिम्मि मणपज्जवणाणं ण उवलब्भदे; मिच्छत्तपच्छाय दुक्कस्वसमसम्मकालादो चि गहियसंजम पढमसमयादो सव्वजहण्णमणपज्जवणाणुष्पायणसंजमकालस्स वहुत्तुवलंभादो । सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारु
७२८ ]
वेदकसम्यक्त्वसे पीछे द्वितीयोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होता है उस उपशमसम्यग्दाष्टके प्रथम समय में भी मन:पर्ययज्ञान पाया जाता है । किन्तु मिथ्यात्वसे पीछे आये हुए उपशमसम्यग्दृष्टि जीव मन:पर्ययज्ञान नहीं पाया जाता है, क्योंकि, मिथ्यात्वसे पीछे आये हुए उपशमसम्यग्दष्टिके उत्कृष्ट उपशमसम्यक्त्वके कालसे भी ग्रहण किये गये संयमके प्रथम समयसे लगाकर सर्व जघन्य मन:पर्ययज्ञानको उत्पन्न करनेवाला संयमकाल बहुत बड़ा 1
विशेषार्थ - ऊपर मन:पर्ययज्ञानीके तीनों सम्यक्त्व बतलाये गये हैं । क्षायिक और क्षायोपशमिकसम्यक्त्वके साथ तो मन:पर्ययज्ञान इसलिये होता है कि मन:पर्ययज्ञानकी उत्पत्ति में जो विशेष संयम हेतु पड़ता है वह विशेष संयम इन दोनों सम्यक्त्वों में हो सकता है । अब रही औपशमिकसम्यग्दर्शनकी बात, सो उसके प्रथमोपशमसम्यक्त्व और द्वितीयोपशमसम्यक्त्व ऐसे दो भेद हैं । उनमें प्रथमोपशमसम्यक्त्वको अनादि अथवा सादि मिथ्या
ही उत्पन्न करता है और उसके रहनेका जघन्य अथवा उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त ही है । यह अन्तर्मुहूर्त काल, संयमको ग्रहण करनेके पश्चात् मन:पर्ययज्ञानको उत्पन्न करनेके योग्य संयममें विशेषता लानेके लिये जितना काल लगता है उससे छोटा है । इसलिये प्रथमोपशमसम्यक्त्वके कालमें मन:पर्ययज्ञानकी उत्पत्ति न हो सकने के कारण मन:पर्ययज्ञानके साथ उसके होनेका निषेध किया गया है । द्वितीय। पशमसम्यक्त्व उपशमश्रेणी के अभिमुख विशेष संयमी ही होता है, इसलिये यहांपर अलगले मन:पर्ययज्ञानके योग्य विशेष संयमको उत्पन्न करने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती है और यही कारण है कि द्वितीयोपशमसम्यक्त्वके ग्रहण करनेके प्रथम समयमें भी मन:पर्ययज्ञानकी प्राप्ति हो सकती है । अथवा जिस संयमीने पहले वेदकसम्यक्त्वके कालमें ही मन:पर्ययज्ञानको ग्रहण कर लिया है उसके भी उपशमश्रेणी अभिमुख होनेपर द्वितीयोपशमसम्यक्त्वकी प्राप्ति हो जाती है, इसलिये भी द्वितीयोपशमसम्क्त्वके ग्रहण करनेके प्रथम समय में मन:पर्ययज्ञान पाया जा सकता है । ऊपर ढोका में ' पढमसमए वि' में जो अपि शब्द आया है उससे यह ध्वनित होता है कि द्वितीयोपशमसम्यक्त्वके ग्रहण करनेके द्वितीयादिक समयमें वर्द्धमान चारित्र रहता है, इसलिये वहां तो मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न हो ही सकता है, किन्तु प्रथम समय में भी संयममें इतनी विशेषता पाई जाती है कि वह मन:पर्ययज्ञानकी उत्पत्तिमें कारण हो सकता है। इस कथनका तात्पर्य यह हुआ कि प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अनन्तर या उसके साथ संयमकी उत्पत्ति होती है, इसलिये उसमें तो मनःपर्ययज्ञान नहीं उत्पन्न हो सकता है । परंतु द्वितीयो - पशमसम्यक्त्व संयमीके ही होता है, इसलिये उसमें मन:पर्ययज्ञानके उत्पन्न होनेमें कोई विरोध नहीं है । इसप्रकार मन:पर्ययज्ञानके साथ तीनों सम्यक्व तो होते हैं, किन्तु औपश
Page #422
--------------------------------------------------------------------------
________________
१,१. ]
वजुत्ता वा ।
मणपज्जवणाण- पमत्त संजदप्पहुडि जाव खीणकसाओ त्ति ताव मूलोघ - भंगो । वरि मणपज्जवणाणं एकं चैव वत्तव्यं । परिहारसुद्धिसंजमो वि णत्थि त्ति भाणिदव्वं ।
केवलणाणाणं भण्णमाणे अत्थि वे गुणट्ठाणाणि अदीदगुणट्ठाणं पि अस्थि, दो जीवसमासा एगो वा अदीदजीवसमासो वि अत्थि, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ अदीदीओ व अस्थि, चत्तारि पाण दो पाण एग पाण अदीदपणा वि अस्थि, खीणसणाओ, मणुसगदी सिद्धगदी वि अस्थि, पंचिदियजादी अणिदियं पि अस्थि, तसकाओ अकाओ वि अस्थि, सत्त जोग अजोगो वि अस्थि, अवगदवेद, अकसाओ, केवलणाणं, जहाक्खादसुद्धिसंजमो णेव संजमो णेव असंजमो णेव संजमा संजमा वि
संत-परूवणाणुयोगद्दारे णाण - आलाववण्णणं
मिकसम्यक्त्वमें द्वितीयोपशमका ही ग्रहण करना चाहिए, प्रथमोशमका नहीं । सम्यक्त्व आलापके आगे संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
मन:पर्ययज्ञानी जीवोंके प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानके आलाप मूल ओघालापके समान हैं। विशेष बात यह है कि ज्ञान आलाप कहते समय एक मन:पर्ययज्ञान ही कहना चाहिए। तथा संयम आलाप कहते समय परिहारविशुद्धिसंयम नहीं होता है, ऐसा कहना चाहिए ।
केवलज्ञानी जीवोंके आलाप कहने पर — सयोगिकेवली और अयोगिकेवली ये दो गुणस्थान तथा अतीतगुणस्थान भी हैं, पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो अथवा एक पर्याप्त जीवसमास है तथा अतीतजीवसमासस्थान भी है, छद्दों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां तथा अतीत पर्याप्तिस्थान भी होता है, वचनबल, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्रास ये चार प्राण, अथवा समुद्घातगत अपर्याप्तकालमें आयु और कायबल ये दो प्राण और अयोगिकेवलीके एक आयु प्राण तथा अतीतप्राणस्थान भी है, क्षीणसंज्ञा, मनुष्यगति तथा सिद्धगति भी है, पंचेन्द्रियजाति तथा अतीन्द्रियस्थान भी है, त्रसकाय तथा अकषायस्थान भी है, सत्य और अनुभय ये दो मनोयोग, ये ही दोनों वचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये सात योग तथा अयोगस्थान भी है, अपगतवेद, अकषाय, केवलज्ञान, यथाख्यात
नं. ३७०
गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. | का. यो. |वे. क. | ज्ञा. | संय.
१
७ १ ६ १० ४
प्रम. सं.प.
से.
क्षीण.
क्षीणसं. 4.
सन
मन:पर्ययज्ञानी जीवोंके आलाप.
पंच. .
स.
[ ७२९
म. ४ पु.
९ १ ४ १ ४ ३ द्र. ६ १ ३ मनः सामा. के. द. भा. ३ भ. औप. सं. छेदो. विना. शुभ.
सूक्ष्म.
यथा.
अकषा
द. ले. भ. स. संज्ञि. आ.
क्षा. क्षायो.
उ.
१
२
आहा. साका
अना.
Page #423
--------------------------------------------------------------------------
________________
७३.] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. अत्थि, केवलदसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा अलेस्सा वि अस्थि, भवसिद्धिया णेव भवसिद्धिया णेव अभवसिद्धिया वि अत्थि, खइयसम्मत्तं, णेव सणिणो णेव असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागार-अणागारेहिं जुगवदुवजुत्ता वा। सजोगि-अजोगि-सिद्धाणमालावा मूलोघो व्व वत्तव्वा ।
एवं णाणमग्गणा समत्ता । संजमाणुवादेण संजदाणं भण्णमाणे अत्थि णव गुणवाणाणि, दो जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस सत्त चत्तारि दो एक पाण, चत्वारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अत्थि, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, तेरह जोग अजोगो वि
विहारशुद्धिसंयम तथा संयम, असंयम और संयमासंयम इन तीनोंसे रहित भी स्थान है, केवलदर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या तथा अलेश्यास्थान भी है; भव्यसिद्धिक तथा भव्यसिद्धिक और अभव्यसिद्धिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी स्थान है, क्षायिकसम्यक्त्व, संशिक और असंक्षिकसे रहित स्थान, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोग और अनाकारोपयोगसे युगपत् उपयुक्त भी होते हैं।
केवलज्ञानकी अपेक्षा भी पयोगिकेवली अयोगिकेवली और सिद्ध जीवोंके आलाप मूल ओघालापके समान कहना चाहिए।
इसप्रकार ज्ञानमार्गणा समाप्त हुई। संयममार्गणाके अनुवादसे संयतोंके आलाप कहने पर-प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थानतक नौ गुणस्थान, संशी-पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; चार प्राण, दो प्राण, एक प्राण; चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंज्ञास्थान भी है, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, वैक्रियिककाययोग और वैक्रियिकमिश्रकाययोग इन दो योगोंके विना शेष तेरह योग तथा अयोग
नं. ३७१ । गु. जी.
केवलज्ञानी जीवोंके आलाप. सं.ग. इं.का.
। का. यो. । वे. क. झा. | संय. द. ले. भ. स.
प. | प्रा.
.
२
।
२
म.२
.
. क्षीणसं. .
अती. AM अतीतगु.
अतीतप. अतिजी.
अका. : अतीतप्रा. . सिद्धग.
अपग. . अकषा. .
केव. यथा. के. भा. १ भ. क्षा..
शुक्ल.
अनुभय.
अनु.
अले.
. उ.
कार्म.१ अयो.
Page #424
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-पलवणाणुयोगद्दारे संजम-आलाबवण्णणं
[.११ अस्थि, तिणि वेद अवगदवेदो वि अत्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अस्थि, पंच णाण, पंच संजम, चत्तारि दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण तेउ-पम्म-सुकलेस्साओ अलेस्सा वि अस्थिभवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सण्णिणो णेव सणिणो णेव असणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा सागार-अणागारेहि जुगवदुवजुत्ता वा होति।
पमत्तसंजदाणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, दो जीवसमासा, छ पज्जचीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, चत्वारि णाण, तिण्णि संजम, तिण्णि दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ; भवसिद्धिया, विण्णि
स्थान भी है, तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है, चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है, मतिज्ञानादि पांचों सुशान, सामायिकादि पांचों संयम, चारों दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेज, पन और शुक्ल लेश्याएं तथा अलेश्यास्थान भी है। भन्यसिद्धिक, औपशमिकादि तीन सम्यक्त्व, संशिक तथा संशिक और असंज्ञिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी स्थान है, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी, अनाकारोपयोगी तथा साकार और अनाकार उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त भी होते हैं।
संयममार्गणाकी अपेक्षा प्रमत्तसंयत जीवोंके आलाप कहने पर-एक प्रमत्तसंयत गुणस्थान, संझी-पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां दशों प्राण, सात प्राण, चारों संशाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, बसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग, आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोग ये ग्यारह योग, तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके चार ज्ञान, सामायिक, छेदोपस्थापना और परिहारविशुद्धि ये तीन संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रब्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेज, पत्र और शुक्ल लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, औपशमिक आदि तीन सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक,
नं. ३७२ | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. प्रम. सं.प.अ.
पंचे. - त्रस. -4
संयमी जीवोंके सामान्य भालाप. यो. वे. क. झा. संय. द. ले. म. स. संझि. | आ. | .
- मति. सामा. मा.३ म. औप. सं. आहा. विना. धुत. छेदो. शुभ. क्षा. अनु. अना. अना. अव. परि. अले.
मु. . मनः, सूक्ष्म. केव. यथा..
क्षीणसं.
अपग.. अकषा.
अयो.
Page #425
--------------------------------------------------------------------------
________________
७३२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
अप्पमत्तसंजदाणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पञ्जत्तीओ, दस पाण, तिण्णि सण्णाओ आहारसण्णा णत्थि, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, वसकाओ, णव जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, चत्तारि णाण, तिणि संजम, तिण्णि दसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा। . अपुव्वयरणप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ताव मूलोघ-भंगो।
साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
अप्रमत्तसंयत जीवोंके आलाप कहने पर-एक अप्रमत्तसंयत गुणस्थान, एक संझीपर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, भय, मैथुन और परिग्रह ये तीन संक्षाएं होती हैं किन्तु यहां पर आहारसंज्ञा नहीं है। मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके चार शान, सामायिकादि तीन संयम, आदिके तीन दर्शन, व्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, औपशमिकादि तीन सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
अपूर्वकरण गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थानतक संयमी जीवोंके आलाप मूल ओघालापोंके समान होते हैं।
नं. ३७३
संयमकी अपेक्षा प्रमत्तसंयत जीवोंके आलाप [गु. [ जी. प. प्रा. सं. ( ग. ई. का. यो. (वे. क. ज्ञा. संय. द. । ले. भ. स. संक्षि. आ. उ. | १ २ ६प. १० ४ १ ११ ११ ३ ४ ४ ३ ३ द्र. ६ १ ३ १ १ २
मति. सामा. के.द. भा. ३ भ. औप. सं. आहा, साका, श्रुत. छेदो. विना. शुभ. क्षा.
अना. अव. परि.
क्षायो. मनः
पंचे. .. त्रस. -
4
औ.१
आहा.२
नं.३७४
संयमकी अपेक्षा अप्रमत्तसंयत जीवोंके आलाप. गु. जी. प. प्रा. सं. | ग. ई. का. यो. वे. क. बा. संय. | द. ले. म. स. | संहि. आ.
उ.]
अप्र. सं.प. -
आहा म.
पंचे. .. वस. .
आहा. साका.
| अमा.
विना.
| मति. सामा. के.द. भा. ३ म. | औप. सं. भूत. छेदो. विना. शुभ. क्षा. अव. परि.
क्षायो. मनः.
Page #426
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.]
संत-परूबणाणुयोगद्दारे संजम - आळाबवण्णणं
[ ७३३
सामाइय सुद्धिसंजदाणं भण्णमाणे अत्थि चत्तारि गुणड्डाणाणि, दो जीवसमासा, छपजतीओ छ अपज्जतीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, तिण्णि वेद अवगदवेदो वि अस्थि, चत्तारि कसाय, चत्तारि णाण, सामाइयसुद्धिसंजमो, तिष्णि दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण तेज- पम्म- सुक्कलेस्साओ; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
३७५
पसंद पहुडि जाव अणियट्टित्ति ताव मूलोघ भंगो । एवं छेदोवडावणसंजमस्स वि वत्तव्यं ।
परिहारसुद्धिसंजदाणं भण्णमाणे अस्थि दो गुणट्ठाणाणि, एगो जीवसमासो, छ
सामायिक शुद्धिसंयत जीवोंके आलाप कहने पर - प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण ये चार गुणस्थान, संशी-पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छद्दों अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनायोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोग ये ग्यारह योग; तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है, चारों कषाय, आदिके चार ज्ञान, सामायिक शुद्धिसंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, औपशमिकादि तीन सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती सामायिक शुद्धिसंयतों के आलाप मूल ओघालापके समान हैं । विशेष बात यह है कि संयम आलाप कहते समय एक सामायिकशुद्धिसंयम ही कहना चाहिए । इसीप्रकार छेदोपस्थापना. संयमके भी आलाप जानना चाहिए; किन्तु संयम आलाप कहते समय एक छेदोपस्थापनासंयम ही कहना चाहिए ।
परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके आलाप कहने पर - प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत ये
नं. ३७५
| गु. | जी. ४ प्र. २ ६ | १०४
अप्र. सं.प. प. ७
अपू. सं.अ. ६ अनि..
अ.
सामायिक शुद्धिसंयत जीवोंके आलाप.
| प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. | संय. द.
१ | ११म. ४ | ३ | ४
१ म.पं.
व. ४
ले. म. स. संज्ञि. आ. उ.
४ मति. १ ३ द्र. ६१ ३ १ १ २ श्रुत. सामा, के. द. भा. ३ भ. ओप. सं. आहा. साका. विना. शुभ.
अव.
अना.
मनः.
क्षा. क्षायो.
Page #427
--------------------------------------------------------------------------
________________
०१. छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[१,१. पब्जचीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग आहाराहारमिस्सा णत्थि, पुरिसवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण मणपजवणाण पत्थि, कारणं आहारदुगं मणपज्जवणाणं परिहारसुद्धिसंजमो एदे जुगवदेव ण उप्पजंति । परिहारसुद्धिसंजमो, तिण्णि दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ; भवसिद्धिया, उवसमसम्मत्तं विणा दो सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा । .. पमत्त-अप्पमत्त-परिहारसुद्धिसंजदाणं पुध पुध भण्णमाणे ओघ-मंगो। णवरि आहारदुग-मणपजवणाण-उवसमसम्मत्त-सामाइय-छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजमा च णत्थि । परिहारसुद्धिसंजमो एको चेव संजमट्टाणे । वेदट्ठाणे पुरिसवेदो चेव वत्तव्यो।
दो गुणस्थान, एक संझी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संक्षाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिकफाययोग ये नौ योग होते हैं, किन्तु यहांपर आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोग नहीं होते हैं। पुरुषवेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान होते हैं, किन्तु यहांपर मनःपर्ययज्ञान नहीं है, क्योंकि, आहारकद्विक, मनःपर्ययज्ञान और परिहारविशुद्धिसंयम ये तीनों युगपत् नहीं उत्पन्न होते हैं। ज्ञान आलापके आगे परिहारविशुद्धिसंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रष्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, औपशमिकसम्यक्त्यके विना क्षायिक और क्षायोपशमिक ये दो सम्यक्त्व; संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
प्रमत्तसंयत-परिहारविशुद्धिसंयत और अप्रमत्तसंयत-परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके आलाप पृथक् पृथक् कहने पर उनके आलाप ओघालापके समान हैं। विशेष बात यह है कि यहां पर आहारककाययोगद्विक, मनःपर्ययज्ञान, औपशमिकसम्यक्त्व, सामायिकशुद्धिसंयम
और छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयम इतने आलाप नहीं होते हैं। संयमस्थान पर एक परिहारविशुद्धिसंयम ही होता है। तथा वेदस्थानपर एक पुरुषवेद ही कहना चाहिए।
१ प्रतिषु 'एदाओ' इति पाठः। नं. ३७६
परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके आलाप. । गु. जी. प. प्रा. | सं.) ग. ई. का. यो. । वे. क. झा. | संय. द. ले. भ. स. | संक्षि. आ.| उ. |
प्र. सं.प.
म. पं. स. म. ४ पु.]
मति. परि. के. द. भा.म. क्षा. सं. आहा. साका. विना. शुभ. क्षायो.
अना. अव.
औ.१
Page #428
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूषणाणुयोगदारे संजम-आलाबवण्णणं
[.१५ सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदाणं भण्णमाणे मूलोघ-भंगो।
जहाक्खादसुद्धिसंजदाणं भण्णमाणे अत्थि चत्तारि गुणट्ठाणाणि, दो जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जतीओ, दस चत्वारि दो एक पाण, खीणसण्णा, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, अवगदवेदो, अकसाओ, पंच णाण, जहाक्खादसुद्धिसंजमो, चत्तारि सण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा अलेस्सा वि अत्थि; भवसिद्धिया, वेदगसम्मत्तेण विणा दो सम्मत्तं, सण्णिणो णेव सण्णिणो णेव असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा सागार-अणागारेहिं जुगवदुवजुत्ता वा ।
उवसंतकसायप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि ति मूलोघ-भंगो। संजदासजदाण
सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत जीवोंके आलाप कहने पर उनके आलाप मूल ओघालापके समान ही जानना चाहिए ।
____ यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत जीवोंके आलाप कहने पर-उपशान्तकषाय, क्षीणकपाय, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली ये चार गुणस्थान, संक्षी-पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां दशों प्राण, चार प्राण, दो प्राण और एक प्राण; क्षणसंशा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योग, अपगतवेद, अकषाय, मतिज्ञानादि पांचों सुज्ञान, यथाख्यातविहारशुद्धिसंयम, चारों दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या तथा अलेश्यास्थान भी है। भव्यसिद्धिक, वेदकसम्यक्त्वके विना शेष दो सम्यक्त्व, संक्षिक तथा संशिक और असंशिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित स्थान, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी, अनाकारोपयोगी तथा साकार और भनाकार इन दोनों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त होते हैं। ___उपशान्तकषाय गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थानतकके यथाख्यातविहार
नं. ३७७
यथाख्यात शुद्धिसंयत जीवोंके आलाप. । गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई.का. यो. वे. क. सा. संय. . ले. (म.). स. संशि. आ. ६५.१०.
११ ०. ५ मति. १ ४ द्र.६ १/२ १ उ. सं.प. अ.४ .म.पं.त्र.
भ्रत. यथा. मा.१ भ. औप. अप.
६.व.
शुक्ल. क्षा. अनु. अना. अना. मनः.
अले.
अकषा. .
|
क्षीणसं. .
स.
ehke
का.
| केव.
Page #429
--------------------------------------------------------------------------
________________
छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. मोघ-भंगो।
असंजदाणं भण्णमाणे अत्थि चत्तारि गुणट्ठाणाणि, चोद्दस जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ पंच पज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ चत्तारि पज्जत्तीओ चत्वारि अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण णव पाण सत्त पाण अट्ठ पाण छ पाण सत्त पाण पंच पाण छ पाण चत्तारि पाण चत्तारि पाण तिणि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, एइंदियजादि-आदी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छ काय, तेरह जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, छ णाण, असंजमो, तिण्णि दंसण, दव्व-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सण्णिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
तेसिं चेव पजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि चत्तारि गुणट्ठाणाणि, सत्त जीवसमासा,
शुद्धिसंयत जीवोंके आलाप मूल ओघालापोंके समान होते हैं।
संपतासंयत जीवोंके आलाप ओघालापके समान होते हैं।
भसंयत जीवोंके मालाप कहने पर-आदिके चार गुणस्थान, चौदहों जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; पांच पर्याप्तियां, पांच अपप्तियां; चार पर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां दशों प्राण, सात प्राण; नौ प्राण, सात प्राण; आठ प्राण, छह प्राण; सात प्राण, पांच प्राणः छह प्राण, चार प्राणः चार प्राण और तीन प्राणः चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छहों काय, आहारककाययोगदिकके बिना तेरह योग, तीनों बेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान और आदिके तीन ज्ञान इसप्रकार छह शान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रब्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यासद्धिका छहों सम्यक्त्व, संक्षिक, असंशिक; आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं असंयत जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-आदिके चार गुणस्थान,
नं. ३७८
भसंयत जीवोंके आलाप. मु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई.का.यो. वे. क. झा. | संय. द. । ले. म. स. संशि.) आ.] उ. ।
४४५६ | १३ | ३/४६ १ ३ द्र.६ २६२ २ २
आ.द्वि. अक्षा. असं. के. द. भा. ६म. सं. आहा. साका. विना.। ।
|विना. अ. असे. अना. अना. शान.
३
अ.
Page #430
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे संजम-आलाववष्णणं
[७३० छ पजत्तीओ पंच पजत्तीओ चत्तारि पजत्तीओ, दस पाण णव पाण अट्ठ पाण सत्त पाण छ पाण चत्तारि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, एइंदियजादि-आदी पंध जादीओ, पुढवीकायादी छ काय, दस जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, छ णाण, असंजमो, तिण्णि दसण, दव-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सण्णिणो असण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुखजुत्ता वा।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि तिण्णि गुणड्डाणाणि, सत्त जीबसमासा, छ अपज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ चत्तारि अपजत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण छ पाण पंच पाण चत्तारि पाण तिण्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, एइंदियजादिआदी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छ काय, तिण्णि जोग, तिण्णि बेद, चत्तारि कसाय,
सात पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, पांच पर्याप्तियां चार पर्याप्तियां; दशों प्राण, नौ प्राण, आठ प्राण, सात प्राण, छह प्राण, चार प्राणः चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां. पृथिवीकाय आदि छहों काय, चारों मनोयोग, चारों: बचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग, तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों भक्षान और आदिके तीन शान इस प्रकार छह मान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; छहों सम्यक्त्व, संक्षिक, असंक्षिक; आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
__ उन्हीं असंयत जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-मिथ्याष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और अविरतसम्यग्दृष्टि ये तीन गुणस्थान, सात अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां; सात प्राण, सात प्राण, बह प्राण, पांच प्राण, चार प्राण, तीन प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छहों काय, औदारिकमिभकाययोग, वैक्रियिकमिभकाययोग, और कार्मणकाययोग ये तीन योग; तीनों वेद, चारों कषाय, कुमति, कुश्रुत और आदिक
नं. ३७९
असंयत जीवोंके पर्याप्त आलाप. । गु | जी. प. प्रा. । सं. ग. ई. का. यो. ने. क.सा. | संय. द. | ले.
म. स. संझि. म. |सं. आहा- साका.
अना..
पया.
सान. असं. के.द. भा.
३ बिना. अशा.
Page #431
--------------------------------------------------------------------------
________________
७३८] छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[१, १. पंच णाण, असंजमो, तिणि दंसण, दबेण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, पंच सम्मत्तं, सणिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा। मिच्छाइटिप्पहुडिं जाव असंजदसम्माइट्टि त्ति मूलोघ-भंगा ।
एवं संजममग्गणा समत्ता । दसणाणुवादेण ओघालावा मूलोघ-भंगो ।
चक्खुदंसणीणं मण्णमाणे अत्थि बारह गुणट्ठाणाणि, छ जीवसमासा, छ पजतीओ छ अपज्जत्तीओ पंच पञ्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण णव पाण सत्त पाण अट्ठ पाण छ पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अस्थि, चत्तारि गईओ,
............
...........................
तीन खान ये पांच ज्ञान; असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे छहों लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक सम्यग्मिथ्यात्वके बिना पांच सम्यक्त्व, संक्षिक, असंशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तकके असंयत जीवोंके आलाप मूल ओघालापोंके समान जानना चाहिए ।
इसप्रकार संयममार्गणा समाप्त हुई। दर्शनमार्गणाके अनुवादसे ओघालाप मूल ओघालापोंके समान होते हैं।
चक्षुदर्शनी जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-आदिके बारह गुणस्थान, चतुरि. न्द्रिय-पर्याप्त, चतुरिन्द्रिय-अपर्याप्त, असंक्षीपंचेन्द्रिय-पर्याप्त, असंहीपंचेन्द्रिय-अपर्याप्त, संक्षी. पंचेन्द्रिय-पर्याप्त और संक्षीपंचेन्द्रिय अपर्याप्त ये छह जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्यप्तियां पांच पर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; नौ प्राण, सात प्राण; आठ प्राण, छह प्राण, चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंशास्थान भी है चारों गतियां,
नं. ३८०
असंयत जीवोंके अपर्याप्त आलाप. | गु.जी. प. प्रा. सं. ग. | इं.का. यो. | वे.क. शा. संय. द. | ले. भ. स. संलि. आ. उ. |
| कुश्रु. असं. के. द. का. म. सम्य. सं. आहा. साका. वै.मि. मति बिना. शु. अ. विना. असं. अना. अना. कार्म. श्रुत.
| अव.
४४५
Page #432
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे दंसण-आलावषण्णणं
[७३९ चरिंदियजादि-आदी वे जादीओ, तसकाओ, पण्णारह जोग, तिणि वेद अवगदवेदो वि अत्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अस्थि, सत्त णाण, सत्त संजम, चक्खुदंसण, दव्व-भावहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सणिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव पञ्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि बारह गुणढाणाणि, तिण्णि जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ पंच पज्जत्तीओ, दस पाण णव पाण अह पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अस्थि, चत्तारि गदीओ, चउरिदियजादि-आदी दो जादीओ, तसकाओ, एगारह जोग, तिण्णि वेद अवगदवेदो वि अत्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अत्थि, सत्त णाण, सत्त संजम, चक्खुदंसण, दव-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सण्णिणो असण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता हाँति अणागारु
चतुरिन्द्रियजाति आदि दो जातियां, त्रसकाय, पन्द्रहों योग, तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है, चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है, केवलज्ञानके विना सात ज्ञान, सातों संयम, चक्षुदर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, छहों सम्यक्त्व, संशिक, असंशिक; आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
__ उन्हीं चक्षुदर्शनी जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-आदिके बारह गुणस्थान, चतुरिन्द्रिय-पर्याप्त, असंक्षीपंचेन्द्रिय-पर्याप्त और संक्षीपंचेन्द्रिय-पर्याप्त ये तीन जीवसमास; छहों पर्याप्तियां, पांच पर्याप्तियां दशों प्राण, नौ प्राण, आठ प्राण; चारों संक्षाएं तथा क्षीणसंज्ञास्थान भी है, चारों गतियां, चतुरिन्द्रियजाति आदि दो जातियां, त्रसकाय, पर्याप्तकालभावी ग्यारह योग, तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है, चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है, केवलज्ञानके विना सात ज्ञान, सातों संयम, चक्षुदर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकछहों सम्यक्त्व, संक्षिक,
A
केव.
चक्षु
नं. ३८१
चक्षुदर्शनी जीवोंके सामान्य आलाप. गु. जी. प. प्रा. | सं.ग. ई.का. यो. वे. क. झा. संय. द. | ले. भ. स. संहि. आ. उ.। १२/६ प. १०,७४/४२११५/३४ ७ । ७ मि. च. प. ६अ. ९,७..
.भा.६ भ. सं. आहा. साका. से च.अ. ५५. ८,६
विना
असं. अना. अना. क्षी. असं.प.५अ.
असं.अ. सं.प. सं.अ.
अपग. अकषा,
Page #433
--------------------------------------------------------------------------
________________
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[१, १. वजुत्ता वा।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि चत्तारि गुणहाणाणि, तिण्णि जीवसमासा, छ अपज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण छ पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, चउरिंदियजादि-आदी वे जादीओ, तसकाओ, चत्तारि जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, पंच णाण, तिणि संजम, चक्खुदंसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेष छ लेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, पंच सम्मत्तं, सणिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
असंक्षिक आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं चक्षुदर्शनी जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि और प्रमत्तसंयत ये चार गुणस्थान, चतुरिन्द्रिय-अपर्याप्त, असंधीपंचेन्द्रिय-अपर्याप्त और संक्षीपंचेन्द्रिय-अपर्याप्त ये तीन जीवसमासः छहों अपर्यालियां, पांच अपर्याप्तियां; सात प्राण, सात प्राण, छह प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, चतुरिन्द्रियजाति आदि दो जातियां, त्रसकाय, अपर्याप्तकालभावी चार योग, तीनों वेद, चारों कषाय, कुमति, कुश्रुत और आदिके तीन ज्ञान ये पांच शान, असंयम, सामायिक और छेदोपस्थापना ये तीन संयम, चक्षुदर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे छहों लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; सम्यग्मिथ्यात्वके विना पांच सम्यक्त्व, संक्षिक, असंक्षिक; आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
...............
नं.३८२
चक्षुदर्शनी जीवोंके पर्याप्त आलाप. गु. जी. प. प्रा. सं. ग.इ.का. यो. वे. क. झा. संय. द.। ल. भ. स. संज्ञि. आ. उ.
|२१११म.४३ ४ ७ ७१ द्र.६ २६ २१ २ मि. च.प.
च. व. ४ केव. चक्षु. भा. ६ म. सं. आहा. साका. से असं.प. ८ . औ.१ विना.
अ. असं. | अना. क्षी.सं.प.
| आ.१
क्षीणसं.
त्रस. -
अकषा.
नं. ३८३
चक्षुदर्शनी जीवोंके अपर्याप्त आलाप. आय. जी. प. प्रा. सं. ग. | ई. का. यो. वे. क. ज्ञा. । संय. द. ले. भ. स. | संज्ञि. आ. उ. | ४३ ६. ७४४ २ १४३ ४ ५ कुम. ३ १ द्र. २ २ ५ २ २ २
च, अ. ५अ.७ च. त्र. औ.मि. कुश्रु. असं. चक्षु. का. म. सम्य. सं. आहा. साका. सा. असं.अ.
वै.मि. । मति. सामा. शु. अ. विना. असं. अना. अना. आ.मि. भूत. छेदो. भा.६ ।
अव.
| कार्म.
Page #434
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे दंसण-आलाववण्णणं
[७११ चक्खुदंसण-मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणवाणं, छ जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ पंच पज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण णव पाण सत्त पाण अट्ठ पाण छ पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, चउरिदियजादिआदी वे जादीओ, तसकाओ, तेरह जोग, तिणि वेद, चत्वारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, चक्खुदंसण, दव्व-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छतं, सण्णिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा"।
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, तिण्णि जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ पंच पज्जत्तीओ, दस पाण णव पाण अट्ठ पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, चउरिदियजादि-आदी वे जादीओ, तसकाओ, दस जोग, तिणि वेद, चत्तारि
चक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, चतुरिन्द्रिय-पर्याप्त और अपर्याप्त, असंक्षीपंचेन्द्रिय-पर्याप्त और अपर्याप्त, संक्षीपंचेन्द्रिय-पर्याप्त और अपर्याप्त ये छह जीवसमास; छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां पांच पर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां दशों प्राण, सात प्राण; नौ प्राण, सात प्राण; आठ प्राण, छह प्राणः चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, चतुरिन्द्रियजाति आदि दो जातियां, प्रसकाय, आहारककाययोगद्विकके विना तेरह योग, तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षुदर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः मिथ्यात्व, संक्षिक, असंशिकः आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं चक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, चतुरिन्द्रिय-पर्याप्त, असंज्ञीपंचेन्द्रिय-पर्याप्त और संशीपंचेन्द्रिय पर्याप्त ये तीन जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, पांच पर्याप्तियां; दशों प्राण, नौ प्राण, माठ प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, चतुरिन्द्रियजाति आदि दो जातियां, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग; तीनों वेद,
नं. ३८४ चक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप. | गु. जी. । प. | प्रा. सं. ग. | इ. का. यो. वे. | क.सा. संय. द. | ले. [म. स.संन्नि. आ.| उ. | | १६ च.प.६ प. १०,७४|४|२|१| १३ | ३/४/३ | १ | द्र.६|२| |२| २ २ मि. च. अ. ६ अ. ९,७ च. त्र. आ.द्वि. अज्ञा. असं. चक्षु. भा.६ म. मि. सं. आहा. साका. असं.प. ५ प.
अ. असं. अना. अमा. असं.अ. ५ अ. |सं. प. |सं. अ.
| विना.
www.jainelibraty.org
Page #435
--------------------------------------------------------------------------
________________
७४२ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, १.
कसाय, तिणि अण्णाण, असंजमो, चक्खुदंसण, दव्व-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, साण्णणो असण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ५
1
" तेसिं चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणद्वाणं, तिण्णि जीवसमासा, छ अपज्जतीओ पंच अपज्जत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण छ पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, चउरिंदियजादि -आदी वे जादीओ, तसकाओ, तिण्णि जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, चक्खुदंसण, दव्वेण काउ- सुक्कलेस्साओ, भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो असण्णिणो, आहारिणो
चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षुदर्शन, द्रव्य और भावसे छद्दों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः मिथ्यात्व, संज्ञिक, असंज्ञिकः आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
उन्हीं चक्षुदर्शनी मिध्यादृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, चतुरिन्द्रिय- अपर्याप्त, असंज्ञी पंचेन्द्रिय- अपर्याप्त और संज्ञीपंचेन्द्रियअपर्याप्त ये तीन जीवसमासः छहों अपर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां: सात प्राण, सात प्राण, छह प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, चतुरिन्द्रियजाति आदि दो जातियां, त्रसकाय, औदारिकमिश्रंकाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये तीन योगः तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम, चभ्रुदर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे छद्दों
नं. ३८५
गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे क. ज्ञा. संय. द.
१ ३ ६ १० ४ ४ मि. च. प. ५ ९
असं. प सं. प.
नं. ३८६
गु. जी.
१
३ मि. च. अ. असं.अ.
सं. अ.
चदर्शनी मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप.
प. ६अ. ७ ५अ. ७ ६
ले.म.स. सनि. आ. 3.
१
२
२ १ १० ३ ४ ३ १ द्र. ६.२ १ २ १ चतु. त्र. म. ४ अज्ञा. असं चक्षु. भा. ६ म. मि. सं. आहा. साका अ. असं.
पंचे.
व. ४
अना.
वे. १
चक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप.
प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा.
४ ४ २ १ ३ ३ ४ च. त्र. ओ.मि. प. वै.मि.
कार्म.
२
कुम.
कुश्रु.
संय. द. १ १ असं. चक्षु.
१
ले. म. स. संज्ञि. आ. द्र. २ का. म. मि. शु. अ.
मा. ६
उ.
२ २ २
सं. आहा. साका. असं अना. अना.
Page #436
--------------------------------------------------------------------------
________________
१,१.]
अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
चक्खुदंसण- सासणसम्माइट्ठिप्प हुडि जाव खीणकसाओ त्ति मूलोघ-भंगो, णवरि चक्खुदंसणं ति भाणिदव्वं ।
संत-परूवणाणुयोगद्दारे दंसण आलावणणं
३८७
" अचक्खुदंसणाणं भण्णमाणे अत्थि बारह गुणट्टाणाणि, चोइस जीवसमासा, छ पजत्तीओ छ अपजतीओ पंच पज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ चत्तारि पज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जतीओ, दस पाण सत्त पाण णव पाण सत्त पाण अड्ड पाण छ पाण सत्त पाण पंच पाण छ पाण चत्तारि पाण चत्तारि पाण तिष्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अस्थि, चत्तारि गईओ, एइंदियजादि -आदी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छ काय, पण्णारह जोग, तिणि वेद अवगदवेदो वि अस्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अस्थि, सत्त णाण, सत्त संजम, अचक्खुदंसण, दव्व-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया,
लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः मिथ्यात्व, संज्ञिक, असंज्ञिकः आहारक, अनाहारकः कारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
चक्षुदर्शनी सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तकके आलाप मूल ओघालापके समान होते हैं। विशेष बात यह है कि दर्शन आलाप में 'चभ्रुदर्शन ' ऐसा कहना चाहिए |
अचक्षुदर्शनी जीवों के सामान्य आलाप कहने पर - - आदिके बारह गुणस्थान, चौदहों जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां पांच पर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां; चार पर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां: दशों प्राण, सात प्राणः नौ प्राण, सात प्राणः आठ प्राण, छह प्राण; सात प्राण, पांच प्राणः छह प्राण, चार प्राण; चार प्राण, तीन प्राण; चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंज्ञास्थान भी है, चारों गतियां, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छहों काय, पन्द्रहों योग, तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है, चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है, केवलज्ञानके बिना सात ज्ञान, सातों संयम, अचक्षुदर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः छहों सम्यक्त्व, संशिक, असंशिक;
नं. ३८७
गु. जी. प.
प्रा.
सं. ग. इं. का.
९ १४६ प. १०,७ ४ ४ ५ ६ १५
मि.
६अ. ९,७
से
५५. ८, ६
क्षीण.
५अ. ७,५
४५.
६,४
४ अ. ४, ३
क्षीणसं. २
अदर्शनी जीवोंके सामान्य आलाप.
यो.वे. क. ज्ञा. | संय. द.
[ ७४३
Im leble
३४ ७ ७ १
केव.
विना
द्र. ६ २ अच. भा. ६ भ.
अ.
ले. भ. स. संज्ञि. आ.) उ.
६
२ २ २ सं. आहा. साका. असं अना. अना.
Page #437
--------------------------------------------------------------------------
________________
७४४ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. छ सम्मत्तं, सण्णिणो असणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव पजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि बारह गुणहाणाणि, सत्त जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ पंच पज्जत्तीओ चत्तारि पज्जत्तीओ, दस पाण णव पाण अट्ठ पाण सत्त पाण छ पाण चत्तारि पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अत्थि, चत्तारि गदीओ, एंइदियजादि-आदी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छ काय, एगारह जोग, तिणि वेद अवगदवेदो वि अत्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अस्थि, सत्त णाण, सत्त संजम, अचक्खुदंसण, दव्य-भावहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सणिणो असण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि चत्तारि गुणहाणाणि, सत्त जीवसमासा, छ अपज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण छ पाण
आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं अचक्षुदर्शनी जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-आदिके बारह गुणस्थान, सात पर्याप्तक जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, पांच पर्याप्तियां, चार पर्याप्तियां: दशों प्राण, नौ प्राण, आठ प्राण, सात प्राण, छह प्राण, चार प्राण; चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंज्ञास्थान भी है. चारों गतियां. एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां पृथिवीकाय आदि छहों काय, पर्याप्तकालभावी ग्यारह योग, तीनों वेद, तथा अपगतवेदस्थान भी है, चारों कषाय अकषायस्थान भी है, केवलज्ञानके विना सात ज्ञान, सातों संयम, अचक्षुदर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; छहों सम्यक्त्व, संशिक, असंशिक आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
___उन्हीं अचक्षुदर्शनी जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि और प्रमत्तसंयत ये चार गुणस्थान, सात अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां; सात प्राण, सात प्राण,
नं.३८८
अचक्षुदर्शनी जीवोंके पर्याप्त आलाप. | गु. जी. प.। प्रा, सं. ग. इं.का. यो. वे. क. ज्ञा. | संय. द. | ले. ( भ. स. संज्ञि. आ. | उ.
११ म.४३ ४७ ७ / १ द्र.६२६ २ १ २ मि. पर्या. ५
व.४
- केव. अच. भा.६ भ. सं. आहा. साका. औ.१
क्षीणसं.
अपग. अकषा.
अना.
आ. १
-
Page #438
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे दंसण-आलाववण्णणं
[७४५ पंच पाण चत्तारि पाण तिणि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ', एइंदियजादिआदी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छ काय, चत्तारि जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, पंच णाण, तिणि संजम, अचक्खुदसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, पंच सम्मत्तं, सण्णिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा ।
___ अचक्खुदंसण-मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, चोद्दस जीवसमासा, छ पजत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, पंच पज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ चत्तारि पज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण णव पाण सत्त पाण अट्ठ पाण छ पाण सत्त पाण पंच पाण छ पाण चत्तारि पाण चत्तारि पाण तिण्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, एइंदियजादि-आदी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छ काय, तेरह जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, अचक्खुदंसण, दव्व-भावेहि छ
छह प्राण, पांच प्राण, चार प्राण, तीन प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छहों काय, अपर्याप्तकालभावी चार योग; तीनों वेद, चारों कषाय, कुमति, कुश्रुत और आदिके तीन ज्ञान ये पांच ज्ञान, असंयम, सामायिक और छेदोपस्थापना ये तीन संयम, अचक्षुदर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे छहों लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; सम्यग्मिथ्यात्वके विना पांच सम्यक्त्व, संज्ञिक, असंक्षिक आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
अचक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, चौदहों जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां पांच पर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां; चार पर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां दशों प्राण, सात प्राण; नौ प्राण, सात प्राण; आठ प्राण, छह प्राण; सात प्राण, पांच प्राण; छह प्राण, चार प्राण; चार प्राण, तीन प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, एकन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छहों काय, आहारककाययोगद्विकके विना तेरह योग तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान,
प्रतिषु चचारि गदीओ' इति पाठो नास्ति । ने. ३८९
अचक्षुदर्शनी जीवोंके अपर्याप्त आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं का. यो. वे. क. ज्ञा.। संय. द. ले. भ. स. संज्ञि. आ. | उ.
४.७६अ.७ ४ ४ ५ ६ ४ ३ ४ ५ कुम- ३ १ द्र. २ २ ५ २ २ २ | मि. अ.५अ.७
औ.मि. कुश्रु. असं. अच. का. म. सम्य. सं. आहा. साका. ४अ.६
वै. मि. मति. सामा. शु. अ. विना. असं. अना. अना. अवि.
आ.मि. श्रुत. छेदो. मा. ६ प्रम.!
कार्म.
अव.
सा.
Page #439
--------------------------------------------------------------------------
________________
' छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[१, १. लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो असणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा"।
तेसिं चेव पजताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, सत्त जीवसमासा, छ पजत्तीओ पंच पज्जत्तीओ चत्तारि पज्जत्तीओ, दस पाण णव पाण अट्ठ पाण सत्त पाण छ पाण चत्तारि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, एइंदियजादि-आदी पंचजादीओ, पुढविकायादी छ काय, दस जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, अचक्खुदंसण, दव्य-मावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया,
असंयम, अचक्षुदर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संक्षिक, असंक्षिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं अचक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, सात पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, पांच पर्याप्तियां, चार
प्राण, नो प्राण, आठ प्राण, सात प्राण, छह प्राण, चार प्राण; चारों संक्षाएं, चारों गतियां, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छहों काय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग; तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, अचक्षुदर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं,
नं ३९० अचक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप. । गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. । वे. क. ज्ञा. । संय. द. ले. भ. स. सन्नि. आ. उ. | | १ १४६५. १०,७४|४५६ १३ ३ ४ ३ १ १ द्र.६ २ १/२ २ २ मि. ६अ. ९,७
आ.द्वि. अज्ञा. असं. अच. मा.६ भ. मि. सं. आहा. साका. विना.
असं. अना. अना.
अ..
५अ.
mmG
४अ.
नं. ३९१
अचक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप. । गु. जी, | प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. । वे. क. | ज्ञा. | संय. द. ! ले. भ. सं. संल्लि. आ. | उ. | १७६ १०४/४५६ १०३४ ३ १ १ द्र.६ २ १ २ मि. पर्या. ५ ९
| असं. अच. मा.६ मि. सं. आहा. साका.
अना.
असं.
.
Page #440
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगदारे दंसण-आलाववण्णणं
[ur मिच्छत्तं सणिणो असण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, सत्त जीवसमासा, छ अपज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ चत्तारि अपजत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण छ पाण पंच पाण चत्तारि पाण तिण्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, एइंदियजादि-आदी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छ काय, तिणि जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, अचक्खुदंसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुखजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
सासणसम्माइटिप्पहुडि जाव खीणकसाओ ति ताव मूलोघ-मंगो। गवरि अचक्खुदंसणं ति भाणिदव्वं ।
भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संक्षिक, असंक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं अचक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, सात अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां; सात प्राण, सात प्राण, छह प्राण, पांच प्राण, चार प्राण, तीन प्राण, चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छहों काय, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मणकाययोग ये तीन योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम, अचक्षुदर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे छहों लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संक्षिक, असंक्षिका आहारक, भनाहारका साकारोपयोगी और अग्नकारोपयोगी होते हैं।
सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तकके अचभुदर्शनी जीवोंके आलाप मूल ओघालापके समान होते हैं। विशेष बात यह है कि दर्शन आलाप कहते समय ' अचक्षुदर्शन, ही कहना चाहिए।
नं. ३९२ अचक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई.का. यो. (वे.क. सा. संय. द. ले. भ. स. (संहि. आ. | स.
मि. अप. ५,
औ.मि. वै.मि. कार्म.
कुम. असं. अच. का. म. मि.|सं. आहा.साका. कुश्रु.
| शु. अ. असं. अनामना. मा.६
Page #441
--------------------------------------------------------------------------
________________
७१८] छक्खंडागमे जौबट्ठाणं
[१, १. ओहिदसणीणं भण्णमाणे अत्थि णव गुणट्ठाणाणि, दो जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अत्थि, चत्तारि गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, पण्णारह जोग, तिणि वेद अवगदवेदो वि अस्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अस्थि, चत्तारि णाण, सत्त संजम, ओहिदसण, दव्यभावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।।
तेसिं चेव पज्जताणं भण्णमाणे अत्थि णव गुणट्ठाणाणि, एगो जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अत्थि, चत्तारि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, तिण्णि वेद अवगदवेदो वि अत्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अस्थि, चत्तारि णाण, सत्त संजम, ओहिदंसण, दव्व-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति
अवधिदर्शनी जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तकके नौ गुणस्थान, संशी-पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंज्ञास्थान भी है, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, पन्द्रहों योग, तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है, चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है, आदिके चार शान, सातों संयम, अवधिदर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, औपशमिक आदि तीन सम्यक्त्व, संक्षिक, माहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी, और अनाकारोपयोगी होते हैं।
. उन्हीं अवधिदर्शनी जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषाय तकके नौ गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंशास्थान भी है, चारों गतियां, पंचेन्द्रिय जाति, बसकाय, पर्याप्तकालसंबन्धी ग्यारह योग; तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है, चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है, आदिके चार ज्ञान, सातों संयम, अवधिदर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यासिद्धिक, औपशमिक आदि तीन सम्यक्त्व, संशिक,
नं. ३९३
अवधिदर्शनी जीवोंके सामान्य आलाप. प. प्रा. सं. ग. ई.का. यो. वे. क. शा. संय. द. ले. (म. स. संक्षि.। आ. उ.। २६प.
०५ ३४ ६अ. ७
मतिः अब.मा.६ भ. औप. सं. आहा. साका.
क्षा
अना. अना. अव.
क्षायो. मनः .
क्षीणसं.
the
अकषा.
Page #442
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-पख्वणाणुयोगद्दारे दसण-आलाववण्णणं
[०४९ अणागारुवजुत्ता वा"।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि दो गुणट्ठाणाणि, एगो जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्वारि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, चत्तारि जोग, इत्थिवेदेण विणा दो वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, तिणि संजम, ओहिदंसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
____ उन्हीं अवधिदर्शनी जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-अविरतसम्यग्दृष्टि और प्रमत्तसंयत ये दो गुणस्थान, एक संक्षी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र, आहारकमिश्र और कार्मणकाययोग ये चार योग, स्त्रीवेदके विना पुरुषवेद और नपुंसकवेद ये दो वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, सामायिक और छेदोपस्थापना ये तीन संयम, अवधिदर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, औपशमिक आदि तीन सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारका साकारो पयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं. ३९४
अवधिदर्शनी जीवोंके पर्याप्त आलाप. | गु. जी. प. प्रा. | सं. ग. इं. का. यो. वे. क. सा. संय. द. ले. म. स. संहि. आ. उ. । ९ |
१ १० ४ ४ १ १ ११म.४ ३ ४ ४ ७ १ द्र. ६ १ ३ ११ २ अवि. सं.प.
व.४ . केव. अव. मा.६ म. औप. सं. आहा. साका. से. औ.१ विना.
क्षा. व. १
क्षायो. आ.१
क्षीणसं.
पंचे. . त्रस. 4
my 'lable
अकषा.
ना
.
क्षिीण.
अवधिदर्शनी जीवोंके अपर्याप्त आलाप. | गु. । जी. प. प्रा.सं. ग. ई.का. यो. |वे. क. झा. संय.। द. | ले. म. | स. | सनि. आ. | उ.। अवि.सं. अ..
पं.. औ मि.प./ मति. असं. अव. का. भ. औप. सं. आहा. साका. वै.मि. नं.। भुत. सामा.
अना.| अना. आ.मि.
अव. छेदो. मा.६/ क्षायो.. कार्म.
प्रम.
म.
क्षा.
Page #443
--------------------------------------------------------------------------
________________
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १,१.
असंजदसम्माइट्टिप्पहुडि जाव खीणकसाओ त्ति ताव ओहिणाण - भंगो | णवरि ओहिदंसणं ति भाणिदव्वं ।
केवल सणस्स केवलणाण - भंगो ।
७५० ]
एवं दंसणमग्गणा समत्ता ।
dear वादे ओघालावो मूलोघ- भंगो । णवरि अजोगिगुणट्ठाणेण विणा तेरह गुणाणाणि अस्थि, तेण अजोगिजिणं सिद्धे च पडुच्च जे आलावा ते ण भाणिदव्वा ।
किण्हलेस्सालावे भण्णमाणे अत्थि चत्तारि गुणट्ठाणाणि, चोद्दस जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जतीओ पंच पज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ चत्तारि पज्जत्तीओ चारि अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण णव पाण सत्त पाण अट्ठ पाण छ पाण सत्त पाण पंच पाण छ पाण चत्तारि पाण चत्तारि पाण तिष्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ,
अवधिदर्शनी जीवों के असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थानतक के आलाप अवधिज्ञानके समान होते हैं। विशेष बात यह है कि दर्शन आलाप कहते समय अवधिज्ञानके स्थान पर अवधिदर्शन कहना चाहिए ।
केवलदर्शनके आलाप केवलज्ञानके समान होते हैं । इसप्रकार दर्शनमार्गणा समाप्त हुई ।
श्यामार्गणा अनुवादले ओघालाप मूल ओघालापके समान होते हैं। विशेष बात यह है कि अयोगिकेवली गुणस्थानके विना तेरह गुणस्थान ही होते हैं, इसलिये अयोगिकेवलजिन और सिद्धभगवान्की अपेक्षासे जो आलाप होते हैं; वे नहीं कहना चाहिए ।
कृष्णलेश्यावाले जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर - आदिके चार गुणस्थान, चौदहों जीवसमास, छद्दों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; पांच पर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां; चार पर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; नौ प्राण, सात प्राण; आठ प्राण, छह प्राण; सात प्राण, पांच प्राण; छह प्राण, चार प्राण, चार प्राण,
तीन प्राण; चारों संज्ञाएं,
नं. ३९६
शु. जी. प.
रा
४ १४ ६१.
मि.
| ६अ.
सा.
स.
ar.
५५.
५अ. ७,५
४५. ६,४ ४ अ. ४, ३
कृष्णलेश्यावाले जीवोंके सामान्य आलाप.
वे. ] क. ज्ञा. | संय. द. १४ ६ १ 1 ३ अशा असं. के. द. ३ ज्ञान
३
प्रा.सं./ग. ई. का. यो. १०,७ ४ ४ ५ ६ १३ ९,७
आ.द्वि.
८,६
विना.
ले. भ. स. संज्ञि] आ. उ. द्र. ६ २ ६ २ २ २ मा. १ भ. सं. आहा. साका. विना | कृष्ण. अ. असं अना. अना.
Page #444
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगदारे लेस्सा-आलाववण्णणं
[७५१ चत्तारि गईओ, पंच जादीओ, छ काय, तेरह जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, छ णाण, असंजमो, तिण्णि दसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण किण्हलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सण्णिणो असणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
"तेसिं चेव पजत्ताणं भण्णमाणे अस्थि चत्तारि गुणड्डाणाणि, सत्त जीवसमासा छ पज्जत्तीओ पंच पज्जत्तीओ चत्तारि पजत्तीओ, दस पाण णव पाण अट्ठ पाण सत्त पाण छ पाण चत्तारि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिणि गईओ, देवगई णस्थि; देवाणं पञ्जत्तकाले असुह-ति-लेस्साभावादो । पंच जादीओ, छ काय, दस जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, छ णाण, असंजमो, तिणि दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण किण्हलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सण्णिणो असणिणो, आहारिणो,
चारों गतियां, पांचों जातियां, छहों काय, आहारककाययोगद्विकके विना तेरह योग, तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान और आदिके तीन शान इसप्रकार छह शान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावले कृष्ण लेश्याः भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक छहों सम्यक्त्व, संक्षिक, असंक्षिक; आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं कृष्णलेश्यावाले जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर--आदिके चार गुणस्थान, सात पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, पांच पर्याप्तियां, चार पर्याप्तियां दशों प्राण, नौ प्राण, आठ प्राण, सात प्राण, छह प्राण, चार प्राण; चारों संशाएं, नरकगति तिर्यंचगति और मनुष्यगति ये तीन गतियां, यहांपर देवगति नहीं हैं। क्योंकि, देवों के पर्याप्तकालमें अशुभ तीन लेश्याओंका अभाव है। पांचों जातियां, छहाँ काय, चारों मनो. योग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग, तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान और आदिके तीन झान ये छह झान, असंयम, भाविके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे कृष्णलेश्या; भव्यसिद्धिक, अभयसिद्धिक, छहों
नं. ३९७
कृष्णलेश्यावाले जीवोंके पर्याप्त आलाप. । गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. वे. क.सा. संय. द. ले. भ. स. सशि. आ. | उ. १०४ ३ ५६ २०३४६१३ द्र.६२६ २१ २
म.४
सान. असं. के.द. मा. १ म. सं. आहा-साका.
विना. कृष्ण. अ. असं.
:
अना.
म
AD
Page #445
--------------------------------------------------------------------------
________________
७५२ ]
छक्खंडागमे जीवट्ठाण सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि तिण्णि गुणट्ठाणाणि, सत्त जीवसमासा, छ अपज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण छ पाण पंच पाण चत्तारि पाण तिण्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, पंच जादीओ, छ काय, तिण्णि जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, पंच णाण, असंजमो, तिण्णि दंसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण किण्हलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं मिच्छत्तं सासणसम्मत्तं वेदगसम्मत्तं च भवदि; छट्ठीदो पुढवीदो किण्हलेस्सासम्माइद्विणो मणुसेसु जे आगच्छंति तेसिं वेदगसम्मत्तेण सह किण्हलेस्सा लब्भदि त्ति । सणिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा“।
सम्यक्त्व, संक्षिक, असंक्षिक; आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
. उन्हीं कृष्णलेश्यावाले जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और अविरतसम्यग्दृष्टि ये तीन गुणस्थान, सात अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां; सात प्राण, सात प्राण, छह प्राण, पांच प्राण, चार प्राण, तीन प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पांचों जातियां, छहों काय, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मणकाययोग ये तीन योग, तीनों वेद, चारों कषाय, कुमति, कुश्रुत और आदिके तीन शान ये पांच ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्णलेल्या; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, सासादनसम्यक्त्व और वेदकसम्यक्त्व ये तीन सम्यक्त्व होते हैं । कृष्णलेश्यावाले जीवोंके अपर्याप्तकालमें वेदकसम्यक्त्व होनेका कारण यह है कि छठी पृथिवीसे जो कृष्णलेश्यावाले अविरतसम्यग्दृष्टि जीव मनुष्योंमें आते हैं, उनके अपर्याप्तकालमें वेदकसम्यवत्वके साथ कृष्णलेश्या पाई जाती है। सम्यक्त्व आलापके आगे संशिक, असंक्षिक; आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं.३९८
कृष्णलेश्यावाले जीवोंके अपर्याप्त आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं.का. यो. वे. क. ना. संय. द. ले. भ. स. सनि. | आ.। उ.।
५अ.७
अ.
599urr»m
औ.मि. वै.मि. कार्म.
कुश्रुः
| कुम. असं. के.द. का. म. मि. सं. आहा. साका.
विना. शु. अ. सा. असं. अना. अना.
भा. १ क्षायो,
कृष्ण. अव.
मति
Page #446
--------------------------------------------------------------------------
________________
संत-परूवणाणुयोगद्दारे लेस्सा-आलाववण्णणं किण्हलेस्सा-मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, चोइस जीवसमासा, छ पजत्तीओ छ अपज्जत्तीओ पंच पज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ चत्तारि पज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण णव पाण सत्त पाण अट्ठ पाण छ पाण सत्त पाण पंच पाण छ पाण चत्तारि पाण चत्तारि पाण तिणि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, पंच जादीओ, छ काय, तेरह जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो सण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण किण्हलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा"।
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, सत्त जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ पंच पज्जत्तीओ चत्तारि पज्जत्तीओ, दस पाण णव पाण अट्ठ पाण सत्त पाण छ पाण चत्तारि पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदीए विणा तिण्णि गदीओ, पंच जादीओ,
..................
कृष्णलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक मिथ्याष्टि गुणस्थान, चौदहों जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां पांच पर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां चार पर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; नौ प्राण, सात प्राण; आठ प्राण, छह प्राण; सात प्राण, पांच प्राण; छह प्राण, चार प्राण; चार प्राण, तीन प्राण; चारों संक्षाएं, चारों गतियां, पांचों जातियां, छहों काय, आहारककाययोगद्विकके विना तेरह योग, ते
योग, तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे कृष्णलेश्या; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संक्षिक, असंशिक आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं कृष्णलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, सात पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, पांच पर्याप्तियां, चार पर्याप्तियां; दशों प्राण, नौ प्राण, आठ प्राण, सात प्राण, छह प्राण, चार प्राण; चारों संक्षाएं, देवगतिके विना शेष तीन गतियां, पांचों जातियां, छहों काय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग,
नं. ३९९ कृष्णलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप. । गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं.का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. म. स. संन्नि. आ. उ.. |१/१४६प. १०,७४|४|५|६| १३ ३ ४ ३ २ द्र. ६२१ । २ २ २ मि. अ. ९,७ | आ. द्वि. अज्ञा. असं. चक्षु. भा. म. मि. सं. आहा. साका.
विना.
अच. कृष्ण.अ. असं. अना. अना. ५अ. ७,५ ४प.] ४अ.. ४,३
६,४
Page #447
--------------------------------------------------------------------------
________________
७५४ ] छक्खंडागमे जीवहाणं
[१, १. छ काय, दस जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दब्वेण छ लेस्साओ, भावेण किण्हलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो असण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
'तेसिं चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, सत्त जीवसमासा, छ अपज्जतीओ पंच अपजत्तीओ चत्तारि अपञ्जत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण छ पाण पंच पाण चत्तारि पाण तिण्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, पंच जादीओ, छ काय, तिण्णि जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दसण, दवेण
औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग; तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रब्यसे छहों लेश्याएं, भावसे कृष्णलेश्या; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिका मिथ्यात्व, संशिक, असंक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं कृष्णलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने परएक मिथ्याटष्टि गुणस्थान, सात अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां; सात प्राण, सात प्राण, छह प्राण, पांच प्राण, चार प्राण, तीन प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पांचों जातियां, छहों काय, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मणकाययोग ये तीन योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम,
नं.४००
कृष्णलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप. | गु.] जो. | प. प्रा. | सं. ग. ई.)का. यो. । वे. क. झा. | संय. | द. ले. भ. स. संलि. आ.| उ. ।
१० ३/४ ३ १ २ द्र.६ २१ । २१२ मि पर्या. ५
म.४ अशा. असं. | चक्षु. भा. १ म. मि. सं. आहा. साका.
अच. कृष्ण. अ. असं. अना.
व.४
नं.४०१ कृष्णलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप. |गु. जी. प. प्रा. | सं. ग. ई.का./ यो. वे. क. सा. संय. द. ले. भ.स. । संलि. आ. उ. |
३४ २ १ २ द्र.२२१२२२ औ.मि. | कुम. असं. चक्षु. का. म. मि. सं. आहा. साका. वै. मि.
अच. शु. अ.! असं. अना. अना. कार्म.
मा.
अप.
५अ.
अ.
कुश्रु.
कृष्ण,
Page #448
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगदारे लेस्सा-आलाववण्णणं
[७५५ काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण किण्हलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो असणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुबजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
किण्हलेस्सा-सासणसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, दो जीवसमासा, छ पजत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ', पंचिंदियजादी, तसकाओ, तेरह जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्येण छ लेस्साओ, भावेण किण्हलेस्सा; भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुखजुत्ता होंति अणागारुखजुत्ता वा।
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एगं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगईए विणा तिण्णि गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दस जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो
आदिके दो दर्शन, द्रव्यले कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्णलेश्याः भन्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिका मिथ्यात्व, संज्ञिक, असंक्षिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
कृष्णलेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक सासाएनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, संक्षी-पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, आहारककाययोगद्विकके विना शेष तेरह योग, तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे कृष्णलेश्याः भव्यसिद्धिक. सासादनसम्यक्त्व, संशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं कृष्णलेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक सासादन गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं. देवगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग, तीनों वेद, चारों कषाय,
१ प्रतिषु ' चत्तारि गदीओ ' इति पाठो नास्ति । नं. ४०२ कृष्णलेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. । इ. का. यो. वे. क. सा. संय. द. | ले. | म. स. संझि. आ.| उ. | २२ ६ प.१०४ ४ १२ १३ ३/४ ३ | १२ द्र.६/
१ १२२ सा. सं. प. ६ अ. ७ . त्र. आ.द्वि. अज्ञा. असं. चक्षु. भा. म.सा.सं. आहा. साका. सं. अ.
विना. अच. कृष्ण
अना. अना.
Page #449
--------------------------------------------------------------------------
________________
७५६] छक्खंडागमै जीवट्ठाणं
[१, १. दसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण किण्हलेस्सा; भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अस्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगईए विणा तिणि गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, तिण्णि जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण किण्हलेस्सा; भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा" ।
तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे कृष्णलेश्या भन्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी
उन्हीं कृष्णलेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक सासादन गुणस्थान, एक संक्षी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिकमिश्र. वैक्रियिकमिश्र और कार्मणकाययोग ये तीन योगः तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके दा अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्णलेश्या, भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारका साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं.४०३ कृष्णलेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीर्वोके पर्याप्त आलाप. । घ. जी. प. प्रा. सं.ग.ई. का. यो. । वे. क. सा. ( संय.| द. ले. भ. स. सहि. आ. | उ. |
मा. सं. प.
न. पंचे. त्र. म.४
'
अज्ञा. असं. चक्षु. भा.१ म. सा. सं. आहा. | साका | अच. कृष्ण.
अना.
#. ४०४ कृष्णलेश्याधाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप. | ए. जी. प. प्रा. सं.ग.। ई.का. यो. वे. क. शा. संय. द. ले. म. स. । संशि. आ. उ.
१. ६अ./७४/३/११३ ३ ४ २ १ २ द.२ ११ १ २२ सा.सं.अ.
औ.मि.
कुम. असं. चक्षु. का. म. सासा. सं. आहा.साका. कुश्रु. अच. शु.
अना. अना. कार्म.
मा.१
Page #450
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगदारे लेस्सा-आलाववण्णणं
[७५७ ___ किण्हलेस्सा-सम्मामिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगईए विणा तिणि गईमो, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दस जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाणाणि तीहि अण्णाणेहिं मिस्ताणि, असंजमो, दो दंसण, दव्येण छ लेस्साओ, भावेण किण्हलेस्सा; भवसिद्धिया, सम्मामिच्छत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारवजुत्ता वा ।
किण्हलेस्सा-असंजदसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, छ पञ्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदीए विणा तिणि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, वेउब्धियमिस्सेण विणा बारह जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजमो, तिणि दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण
कृष्णलेश्यावाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर एक सम्यग्मिथ्यारधि गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग; तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञानोंसे मिश्रित आदिके तीन शाम, असंयम, दो दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे कृष्णलेश्याः भव्यसिद्धिक, सम्यग्मिथ्यात्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और मनाकारोपयोगी होते हैं।
कृष्णलेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीयोंके सामान्य आलाप कहनेपर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, संक्षी-पर्याप्त और संज्ञी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, देवगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और आहारककाययोगद्विकके विना शेष बारह योग, तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन वर्शन,
नं. ४०५ । गु.| जी. प.
कृष्णलेश्यावाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप. प्रा. सं.ग.। ई ।का.। यो... वे. क. ज्ञा. संय. द. | ले. म. स. संलि | आ.
उ. ।
सम्य. -
स.प.
अज्ञा. असं. चक्षु. भा. भ. सम्य. सं. आहा.साका. अच. कृष्ण.
अना. ज्ञान.
मिश्र.
Page #451
--------------------------------------------------------------------------
________________
.५८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, १. किण्हलेस्सा; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव पञ्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पञ्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदीए विणा तिण्णि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दस जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिणि णाण, असंजमो, तिण्णि दसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण किण्हलेस्सा; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुखजुत्ता वा।
द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे कृष्णलेश्याः भव्यसिद्धिक, औपशमिकसम्यक्त्व आदि तीन सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं कृष्णलेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संशाएं, देवगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रिथिककाययोग ये दश योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे कृष्णलेश्या; भव्यसिद्धिक, औपशमिकसम्यक्त्व आदि तीन सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं. ४०६ कृष्णलेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप. शु. [ जी. प. प्रा. सं. ग.ई. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ. | १ २ ६५.१० ४ ३ १९१२ म.४ ३ ४ ३ १ ३ द्र.६१ ३ १ २ २ अ. सं.प. ६अ. ७ न.
मति. असं. के.द भा. १ म. औप. सं. आहा. साका, सं.अ. ति.. औ. २
श्रूत. विना. कृष्ण. क्षा. अना. अना. अव.
क्षायो.
पंच. -..
का
नं. ४०७ कृष्णलेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप. । गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. | वे| क. झा. | संय. द. । ले. । म. स. संज्ञि. आ. उ. ११ ६१०|४|३|१|११०म४३ ४ ३ १ | ३ .६.१३ | १ | १ २ अवि. सं.प.
व.४
| मति. असं. के. द. भा. भ. औप. सं. आहा, साका. औ.१ श्रुत. विना. कृष्ण. क्षा. अना.
। क्षायो.. । ।
APAN
त्रस.
अव.
Page #452
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे लेस्सा-आलाववण्णणं
[७५९ तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, वे जोग, पुरिसवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजमो, तिणि दंसण, दव्वेण काउसुक्कलेस्साओ, भावेण किण्हलेस्सा; भवसिद्धिया वेदगसम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
___णीललेस्साए भण्णमाणे ओघादेसालावा किण्हलेस्सा-भंगा। णवरि सव्वत्थ णीललेस्सा वत्तव्वा ।
काउलेस्साणं भण्णमाणे अत्थि चत्तारि गुणट्ठाणाणि, चोदस जीवसमासा, छ पजत्तीओ छ अपज्जत्तीओ पंच पज्जतीओ पंच अपज्जत्तीओ चत्तारि पज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जतीओ, दस पाण सत्त पाण णव पाण सत्त पाण अट्ठ पाण छ पाण सत्त पाण पंच पाण छ पाण चत्तारि पाण चत्तारि पाण तिणि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि
. उन्हीं कृष्णलेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, पुरुषवेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्णलेश्याः भव्यसिद्धिक, वेदकसम्यक्त्व, संशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नलिलेश्याके आलाप कहने पर-ओघ और आदेश आलाप कृष्णलेश्याके आलापोंके समान होते हैं। विशेष बात यह है कि लेश्या आलाप कहते समय सर्वत्र नीललेश्या कहना चाहिए।
कापोतलेश्यावाले जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-आदिके चार गुणस्थान, चौदही जीवसमास. छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां: पांच पर्याप्तियां, पांच अप चार पर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां दशों प्राण, सात प्राण; नौ प्राण, सात प्राण; आठ प्राण, छह प्राण; सात प्राण, पांच प्राण; छह प्राण, चार प्राण; चार प्राण, तीन प्राण; चारों संशाएं, नं. ४०८ कृष्णलेश्यावाले असंयतसस्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप. गु. जी. प. प्रा. सं ग. | ई.का. यो. वे. क. सा..। संय. द. ले. म. स. । संझि. आ. उ. | ११ ६अ.७४११ १२ १४ ३ १ ३ द्र. २१११२ २ अ. सं. अ.
म.पं. . औ.मि. मति. असं. के.द. का. म.क्षायो. सं. आहा. साका. कार्मः श्रुत. विना. शु.
अना. अना.
पुरु.
अव.
भा.१ कृष्ण.
Page #453
--------------------------------------------------------------------------
________________
छक्खंडागमे जीवाणं
[१, १. गदीओ, पंच जादीओ, छ काय, तेरह जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, छ णाण, असंजमो, तिण्णि दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण काउलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्त, सण्णिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
तेसिं चेव पजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि चत्तारि गुणट्ठाणाणि, सत्त जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ पंच पज्जतीओ चत्तारि पज्जत्तीओ, दस पाण णव पाण अट्ठ पाण सत्त पाण छ पाण चत्तारि पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदीए विणा तिण्णि गदीओ, पंच जादीओ, छ काय, दस जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, छ णाण, असंजमो, तिणि दसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावण काउलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं,
चारों गतियां, पांचों जातियां, छहों काय, आहारककाययोगद्विकके विना तेरह योग; तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान और आदिके तीन शान ये छह मान, असंयम, आदिके तीन पर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे कापोतलेश्याः भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः छहों सम्यक्त्व, संशिक, असंनिक; आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारो. पयोगी होते हैं।
उन्हीं कापोतलेश्यावाले जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-आदिके चार गुणस्थान, सात पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, पांच पर्याप्तियां, चार पर्याप्तियां
शो प्राण, नौ प्राण, आठ प्राण, सात प्राण, छह प्राण, चार प्राण; चारों संशाएं, देवगतिके विना शेष तीन गतियां, पांचों जातियां, छहों काय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग,
औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योगः तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान और आदिके तीन बान इस प्रकार छह ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे म्हों लेश्याएं, भावसे कापोतलेश्या, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः छहों सम्यक्त्व, संक्षिक,
*.४०९
कापोतलेश्यावाले जीवोंके सामान्य आलाप. |गु. जी. प. प्रा. सं. ग.ई. का. यो. वे. क. ना. संय. द. ले. (म. स. संनि. आ. उ. । ४१४६ प.१०,७४|४५६ १३ ३ ४ ६ १३ द्र. ६ २६२ २ २
आ.द्वि. झान. असं. के.द. भा. भ. सं. आहा.साका. सासा. ५५.८६
विना.
विना. कापो. अ. असं. अना. अना. सम्य. ५अ.
अज्ञा. ४प. ६.४ ४ . ४,३
मि.
अ.
For Private & Persenal Use Only
Page #454
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-पखवणाणुयोगद्दारे लेस्सा-आलाववण्णणं सणिणो असण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
तेसिं चेव अपज्जचाणं भण्णमाणे अत्थि तिण्णि गुणहाणाणि, सत्त जीवसमासा, छ अपज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण छ पाण पंच पाण चत्तारि पाण तिणि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, पंच जादीओ, छ काय, तिण्णि जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, पंच णाण, असंजमो, तिणि दंसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण काउ-लेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, चत्तारि सम्मत्तं, सण्णिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारवजुत्ता वा। भसंक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं कापोतलेश्यावाले जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-मिथ्याहाट, सासादनसम्यग्दृष्टि और अविरतसम्यग्दृष्टि ये तीन गुणस्थान, सात अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां; सात प्राण, सात प्राण, छह प्राण, पांच प्राण, चार प्राण, तीन प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पांचों जातियां. छहों काय, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मणकाययोग ये तीन योग; तीनों वेद, चारों कषाय, कुमति, कुश्रुत और आदिके तीन शान ये पांच शान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यले कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कापोतलेश्या; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, सासादनसम्यक्त्व, क्षायिक और क्षायोपशामिक ये चार सम्यक्त्वः संशिक, असंशिका माहारक, अनाहारका साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
-
-
असं.
औ..
-
नं.४१०
कापोतलेश्यावाले जीवोंके पर्याप्त आलाप.. | गु. जी. प. प्रा.सं. | ग.ई.का./ यो. वे.क.सा. संय. द. |ले. (म. स. संशि. आः। 8. |
|३५/६ १०३/४ ६ १ ३ द्र.६२/६२१२ मि. पर्या. ५९ न. म.४ ज्ञान. असं. के. द. भा.१ म. सं. आहा. साका., सासा. |४८ ति . व.४ | ३ विना. कापो. अ..
अना.
अज्ञा. अवि.]
कापोतलेश्यावाले जीवोंके अपर्याप्त आलाप. | गु. जी. प. प्रा. | सं| ग. ई का यो. वे. क. झा. संय. द. ले. भ. स. संमि. आ. ३७६.७४|४|५६ ३ ३ ४ ५ कुम. १ ३ द्र. २ २ ४ २२ ५अ.७
औ.मि. कुश्रु. असं. के.द. का. भ. मि. सं. आहा. साका.
| मति विना. शु. अ. सा. असं. अना. अना. कार्म. श्रुत.
भा. १ क्षा .
मायो./
अप
वै. मि.
अब.
कापो.
Page #455
--------------------------------------------------------------------------
________________
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १,१.
काउलेस्सा-मिच्छाइट्ठीणं मण्णमाणे अत्थि एयं गुणद्वाणं, चोइस जीवसमासा, छ पत्तीओ छ अपजत्तीओ पंच पज्जत्तीओ पंच अपज्जतीओ चत्तारि पज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण णत्र पाण सत्त पाण अट्ठ पाण छ पाण सत्त पाण पंच पाण छ पाण चत्तारि पाण चत्तारि पाण तिष्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, पंच जादीओ, छ काय, तेरह जोग, तिण्गि वेद, चचारि कसाय, तिणि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्त्रेण छ लेस्साओ, भात्रेण काउलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो असणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुत्रजुत्ता होंति
अणागारुवजुत्ता वा ।
७६२ ]
तेसिं चेत्र पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, सत्त जीवसमासा, छ पज्जतीओ पंच पज्जत्तीओ चत्तारि पज्जत्तीओ, दस पाण णव पाण अट्ठ पाण सत्त पाण
कापोतलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर - एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, चौदहों जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां पांच पर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां: चार पर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राणः नौ प्राण, सात प्राणः आठ प्राण, छह प्राणः सात प्राण, पांच प्राण; छह प्राण, चार प्राण; चार प्राण, तीन प्राणः चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पांचों जातियां, छहों काय, आहारककाययोगद्विकके विना तेरह योग, तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे कापोतलेश्या; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः मिथ्यात्व, संज्ञिक, असंशिकः आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
उन्हीं कापोतले श्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवों के पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, सात पर्याप्त जीवसमास, छद्दों पर्याप्तियां, पांच पर्याप्तियां, चार पर्याप्तियां; दशों प्राण, नौ प्राण, आठ प्राण, सात प्राण, छह प्राण, चार प्राण; चारों
कापोतले श्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप.
प्रा.
सं. ग. इं. का. यो.
वे. क. ज्ञा. ३ | ४ ३
१४ ६५. १०,७ ४ ४ ५ ६ १३ ६ अ.
९,७
आ.द्वि. विना.
५प.
८,६
५ अ.
४५.
४ अ.
नं ४१२
गु. जी. प.
१
मि.
७,५
६,४
४,३
२
संय. द. ले. भ. स. संज्ञि. आ. १ २ ६. ६ २ १ २ २ अज्ञा. असं चक्षु. भा. १ भ. मि. सं. आहा. साका. अच कापो. अ. असं. अना. अना.
उ
Page #456
--------------------------------------------------------------------------
________________
संत - परूवणाणुयोगद्दारे लेस्सा-आलाबवण्णणं
[ ७१३
छ पाण चत्तारि पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगईए विणा तिष्णि गईओ, पंच जादीओ, छ काय, दस जोग, तिष्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्वेण छ लेस्सा, भावेण काउलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो असणणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
2,
१.]
"तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एगं गुणट्ठाणं, सत्त जीवसमासा, छ अपज्जतीओ पंच अपज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण छ पाण पंच पाण चत्तारि पाण तिणि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, पंच जादीओ, छ तिणि जोग, तिष्णि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दंसण,
काय,
संज्ञाएं, देवगतिके विना शेष तीन गतियां, पांचों जातियां, छहों काय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग; तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे छद्दों लेश्याएं, भावसे कापोतलेश्याः भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः मिथ्यात्व, संज्ञिक, असंशिक; आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
कापोतलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, सात अपर्याप्त जीवसमासः छहों अपर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां; सात प्राण, सात प्राण, छह प्राण, पांच प्राण, चार प्राण, तीन प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पांचों जातियां, छहों काय, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मणका योग ये तीन योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम, आदिके
नं. ४१३ गु. जी. प. प्रा. | सं. ग. इं. का. यो.
१ ७ ६ १० ४ ३ ५ ६ मि. पर्या. ५ ९
१० म. ४ व. ४
८
औ. १
१
नं. ४१४
गु. जी. प.
15
७ ६अ.
मि. ५अ.
४ अ.
6 ू
प्रा.
कापोतले श्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप.
७
७
६
५
न.
ति. म.
वे. क. | ज्ञा. संय. ३ ४ ३ १
द.
ले. भ. स. संज्ञि. आ.
उ.
२
द्र. ६ १२ १ २ १ २ अज्ञा. असं. चक्षु. भा. भ. मि. सं. आहा. साका. अच कापो.अ. अना.
असं
कापोतले श्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप.
सं. ग. इं. का. यो. वे. क.
ज्ञा. संय. द.
४ ४ ५ ६ ३
२
१ २
३ ४ औ. मि.
ले. भ. स. द्र. २ २ असं चक्षु. का. भ. अच. शु. अ.
कुम. कुश्रु.
वै. मि.
कार्म.
भा. १
कापो.
संज्ञि. | आ.
२
२
२
मि. सं. आहा. साका. असं. अना. अमा.
3.
Page #457
--------------------------------------------------------------------------
________________
छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
७६४]
[१, १. दब्वेण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण काउलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागावजुत्ता होति अगागारुवजुत्ता वा।
___ काउलेस्सा-सासणसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, तेरह जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिणि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण काउलेस्सा; भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एगं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जचीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदीए विणा तिण्णि गदीओ, पंचिंदियजादी,
दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कापोतलेश्या; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, मिथ्यात्व, संशिक, असंनिक; आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अना. कारोपयोगी होते हैं।
कापोतलेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक सासादन गुणस्थान, संशी-पर्याप्त और संशी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोग इन दो योगोंके विना तेरह योग, तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे कापोतलेश्या; भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
___ उन्हीं कापोतलेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक सासादन गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास. छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग,
नं. ४१५ कापोतलेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप. । गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं.का. यो. । वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संन्नि. आ. | उ. । २२ प. १०४/४ १२ १३ ३ ४ ३ १ २ द्र.६१ १ १ २ । २ सा.सं.प.६अ. ७ । । पं. त्र. आ. द्वि. अज्ञा. असं. चक्षु. मा.१ भ. सासा. सं. आहा. साका. सं.अ.
विना. अच. कापो.
अना. अना.
Page #458
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे लेस्सा-आलाववण्णणं तसकाओ, दस जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण काउलेस्सा; भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, संण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा ।
____ "तेसिं चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, . अपज्जतीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिणि गईओ, णिरयगई णस्थि । पंचिंदियजादी, तसकाओ, तिण्णि जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दवेण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण काउलेस्सा; भवसिद्धिया, सासणसम्मतं,
चारों वचनयोग; औदारेककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग; तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं; भावसे कापोतलेश्या; भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं कापोतलेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक सासादन गुणस्थान, एक संशी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, तिथंच, मनुष्य और देव ये तीन गतियां होती हैं; किन्तु नरकगति नहीं है । पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मणकाययोग ये तीन योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कापोतलेश्या; भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संबिक,
नं. ४१६ कापोतलेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप. । गु.) जी, | प. प्रा. सं. ग. ई.) का. यो. । वे. क. ना. | संय. द. | ले. | म. स. संझि.| आ. | उ. |
१६ १०४ ३१1१०३/४ ३ १ २ द्र.६ ११११२ सा.सं.प.
न. पं. व. म. ४ अज्ञा. असं. चक्षु. भा. भ. सासा. सं. आहा. साका. व.४ अच. कापो..
अना.
औ..
वै.१
नं. ४१७ कापोतलेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप. | गु. जी. | प. | प्रा. सं. | ग. इं.का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. म. स. संझि.। आ. | उ. ११ ६अ. ७/४/३२१ ३ ३ ४ २ १ २ द्र.२१११।२२ सा.सं.अ. ति. पं. त्र. औ.मि.
कुम. असं. चक्षु. का. म. सासा, सं. आहा. साका. वै.मि. कुश्रु. अच. शु.
|अना. अना. कार्म.
का.
( t to
मा.१
For Private &Personal use only
.
Page #459
--------------------------------------------------------------------------
________________
७६६ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
काउलेस्सा-सम्मामिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एगं गुणहाणं, एगो जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदीए विणा तिण्णि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दस जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाणाणि तीहिं अण्णाणेहिं मिस्साणि, असंजमो, दो दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण काउलेस्सा; मवसिद्धिया, सम्मामिच्छत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा"।
काउलेस्सा-असंजदसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगईए विणा तिण्णि गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, तेरह जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि
आहारक, अनाहारका साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
कापोतलेश्यावाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर-एक सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग, तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञानोंसे मिश्रित आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे कापोतलेश्या; भव्यसिद्धिक, सम्याग्मिथ्यात्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
कापोतलेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, संशी-पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, देवगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति,त्रसकाय, आहारककाययोगद्विकके विना शेष तेरह योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके
नं.४१८ कापोतलेश्यावाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप. गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. | वे. क. ज्ञा. [ संय. द. । ले. भ. स. संज्ञि. आ. । उ.
सम्य. सं.प.
न.पंचे.त्रस.म.४
सभ्य. -
.सं. आहा. साका.
अना.
अज्ञा. असं. चक्षु. भा. १
अच. का. ज्ञान. मिश्र.
व. ४
A
Page #460
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे लेस्सा-आलाववण्णणं
[७६७ णाण, असंजमो, तिण्णि दंसण, दव्येण छ लेस्साओ, भावेण काउलेस्सा; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा" ।
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगईए विणा तिण्णि गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दस जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजमो, तिण्णि दसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण काउलेस्सा; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे कापोतलेश्या; भव्यसिद्धिक, औपशमिकादि तीन सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारकः साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं कापोतलेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे कापोतलेश्या; भव्यासिद्धिक, औपशमिक आदि तीन सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयागी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं. ४१९ कापोतलेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इ.का. यो. वे. क.। ज्ञा. संय. द. | ले. (म. स. संलि. आ.। उ.।
१ २ ६५. १० ४ | ३ १२ १३ ३ ४ ३ १ | ३ द्र.६ १ ३ १ २ । २ अवि. सं.प. ६अ. ७ न. पं. त्र. आ,
द्वि म ति. अस. के.द. मा.१ भ. औप. सं. आहा. साका. सं अ.
विना. विना. का.
अना. अना. अव.
क्षायो.
श्रत.
नं. ४२० कापोतलेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप. | गु. जी. प. प्रा. | सं. ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. म. स. । संझि. आ. | उ. ।
अवि. सं.प.
पंचे. त्रस. - मक
म.४ व.४ औ.१
मति. अस. के.द.भा. १ भ. श्रुत. विना. का. अव.
औप. सं. आहा. साका. क्षा.
अना. क्षायो.
Page #461
--------------------------------------------------------------------------
________________
७६८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगईए विणा तिण्णि गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, तिण्णि जोग, इत्थिवेदेण विणा दो वेद, चत्तारि कसाय, तिणि णाण, असंजमो, तिणि दंसण, दव्येण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण काउलेस्सा; भवसिद्धिया, उवसमसम्मत्तेण विणा दो सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
तेउलेस्साणं भण्णमाणे अत्थि सत्त गुणट्ठाणाणि, दो जीवसमासा, छ पजत्तीओ छ अपजत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगदीए विणा तिण्णि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, पण्णारह जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, सत्त णाण, पंच संजम, तिण्णि दंसण, दवेण छ लेस्सा, भावेण तेउलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया,
उन्हीं कापोतलेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, औदारिकमिश्र, बैक्रियिकमिश्र, और कार्मणकाययोग ये तीन योग; स्त्रीवेदके विना शेष दो वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कापोतलेश्या; भव्यसिद्धिक, औपशमिकसम्यक्त्वके विना क्षायिक और क्षायोपशमिक ये दो सम्यक्त्व, संशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
तेजोलेश्यावाले जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-आदिके सात गुणस्थान, संशीपर्याप्त और संज्ञी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, पन्द्रहों योग, तीनों वेद, चारों कषाय, केवलज्ञानके विना शेष सात ज्ञान, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यातसंयमके विना शेष पांच संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेजोलेश्याः भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; छहों सम्यक्त्व, संशिक,
नं. ४२१ कापोतलेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप. | गु. | जी. प. प्रा.सं. ग. इं.कायो. |वे. क. हा. संय. । द. | ले. भ. | स. सनि. आ. | उ. ।
अवि.सं. अ.
न.पं.त्र.
औ.मि.
م في .
वै.मि. नं.
मति. असं. के.द. का. म. क्षा. सं. आहा. साका.
विना. शु. क्षायो. अना. अना. अव.
का.
भुत..
कार्म.
Page #462
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे लेस्सा-आलाववण्णणं
[७६९ छ सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि सत्त गुणट्ठाणाणि, एओ जीवसमासो, छ
आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
विशेषार्थ-गोमट्टसार जीवकाण्डके अन्तमें आलाप अधिकारके ऊपर पं. टोडरमल्लजी ने जो संदृष्टियां दी हैं उनमें इन्द्रियमार्गणाकी अपेक्षा असंशी पंचेन्द्रियके पर्याप्त अवस्थामें चार लेश्याएं, तेजोलेश्याके आलाप बताते हुए तेजोलेश्यामें संशी-पर्याप्त और अपर्याप्तके अतिरिक्त असंज्ञीपंचेन्द्रिय-पर्याप्त जीवसमास और संज्ञीमार्गणाके आलाप बतलाते हुए असंशियोंके चार लेश्याएं बतलाई हैं। परंतु जिस आलाप अधिकारके अनुसार पंडितजीने ये संदृष्टियां संग्रहीत की हैं उसमें केवल संज्ञीमार्गणाके आलाप बतलाते हुए ही असंशियोंके चार लेश्याएं बतलाई हैं। किन्तु इन्द्रियमार्गणाके आलाप बतलाते हुए असंशियोंके तीन अशुभ लेश्याएं और तेजोलेझ्याके आलाप बतलाते हुए संशी-पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो ही जीवसमास बतलाये हैं। किन्तु धवलामें सर्वत्र असंक्षियोंके तेजोलेश्याका अभाव या तेजोलेश्यामें असंक्षीपंचेन्द्रिय-पर्याप्त जीवसमासका अभाव ही बतलाया है। इससे इतना तो निश्चित हो जाता है कि गोमट्टसार जीवकाण्डमें संशीमार्गणाके आलाप बतलाते हुए असंक्षियोंके जो चार लेश्याएं बतलाई हैं वह कथन धवलाकी मान्यताके विरुद्ध है। परंतु गोमट्टसार जीवकाण्डके मूल आलाप अधिकारमें ही जो दो मान्यताएं पाई जाती हैं उसका कारण क्या होगा, इसका ठीक निर्णय समझमें नहीं आता है। एक बात अवश्य है कि पंडित टोडरमल्लजीने सर्वत्र एक ही मान्यता अर्थात् असंशियोंके तेजोलेश्या या तेजोलेश्यामें असंक्षीपंचे. न्द्रिय-पर्याप्त जीवसमासको स्वीकार कर लिया है, इसलिये उनके सामने सर्वत्र उक्त मान्यताका पोषक ही पाठ रहा हो तो कोई आश्चर्य नहीं। यदि पंडितजीने मूलमें दिये गये संक्षीमार्गणाके निर्देशके अनुसार ही सर्वत्र सुधार किया होता तो कहीं न कहीं उन्होंने उसका संकेत अवश्य किया होता । जो कुछ भी हो, फिर भी यह प्रश्न विचारणीय है।
उन्हीं तेजोलेश्यावाले जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-आदिके सात
नं. ४२२
तेजोलेश्यावाले जीवोंके सामान्य आलाप. । गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई.| का. यो. वे. क. ज्ञा.। संय. द. । ले.
भ. स. संशि. आ.
उ.
ति.पं. त्र.
| मि. सं. प. ६अ. ७
से.सं.अ. अप्र.
A
केव. सूक्ष्म. के. द. मा. १ भ. विना. यथा. विना. ते.
विना.
सं. आहा. साका.
अना. अना.
Page #463
--------------------------------------------------------------------------
________________
७७. ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगईए विणा तिण्णि गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, सत्त णाण, पंच संजम, तिण्णि दंसण, दव्वेण छ लेस्सा, भावेण तेउलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
___ "तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि चत्तारि गुणट्ठाणाणि, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, देव-मणुसगदि त्ति दो गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, चत्तारि जोग, णqसयवेदेण विणा दो वेद, चत्तारि कसाय, पंच
गुणस्थान, एक संशी पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, पर्याप्तकालसम्बंधी ग्यारह योग, तीनों वेद, चारों कषाय, केवल ज्ञानके विना शेष सात ज्ञान, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यातसंयमके विना शेष पांच संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेजोलेश्या; भव्यासद्धिक, अभव्यसिद्धिक; छहों सम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं तेजोलेश्यावाले जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि और प्रमत्तसंयत ये चार गुणस्थान, एक संज्ञी-अपर्याप्त जीवसमासः छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगति और मनुष्यगति ये दो गतियां, पंचोन्द्रयजाति, प्रसकाय, अपर्याप्तकालसंबन्धी चारों योग, नपुंसकवेदके विना शेष दो वेद, चारों कषाय, कुमति, कुश्रुत और आदिके तीन ज्ञान इसप्रकार पांच ज्ञान,
नं. ४२३
तेजोलेश्यावाले जीवोंके पर्याप्त आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इ.का. यो. । वे. क. ज्ञा. संय. | द. ल. भ. | स. संज्ञि. आ. | उ. 1
१६१०४ | ३१/१११म.४३४ ७ ५ असं. ३ | द्र.६ २६।११ मि. सं.प. ति. पं. त्र. व. ४ केव. देश. के.द. भा.१ भ. सं. आहा. साका.
औ.१ विना. सामा. विना. ते. अ.
। छेदो. आ.१
परि..
E
अना.
अप्र.
नं.४२४
तेजोलेश्यावाले जीवोंके अपर्याप्त आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संक्षि. | आ. । उ. । | ४ | ३ ६अ./७४ २११४ २४ ५ ३ ३ द्र.२२ ५१ २२
दे. पं. . औ.मि. पु.। कुम. असं. के.द. का. म. सम्य. सं. आहा. साका.
वै.मि. स्त्री. कुश्रु. सामा. विना. शु. अ. विना अ ना| अना.
आ.मि. मति. छेदो. प्रम.
कार्म. श्रुत.
अवि.
भा.
अव.
Page #464
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगहारे लेस्सा-आलाववण्णणं
[.७१ णाण, तिणि संजम', तिणि दंसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण तेउलेस्सा: भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, पंच सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारवजुत्ता होंति अगागारुघजुत्ता वा।
तेउलेस्सा-मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, छ पञ्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगईए विणा तिणि गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, ओरालियमिस्सेण विणा बारह जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिणि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्वेण छ लेस्सा, भावण तेउलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुघजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पजअसंयम, सामायिक और छेदोपस्थापना ये तीन संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे तेजोलेश्या; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, सम्यग्मिथ्यात्वके विना पांच सम्यक्त्व, संशिक, आहारक. अनाहारक; साकारोपयोगी और अमाकारोपयोगी
तेजोलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, संशी-पर्याप्त और संझी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, औदारिकमिश्र और आहारककाययोगद्विकके विना शेष बारह योगः तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यले छहों लेन्याएं, भावले तेजोलेश्या; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारका साका. रोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं तेजोलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर एक
१ प्रतिषु ' असजमो' इति पाठः । नं. ४२५ तेजोलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप. गु. जी. प. प्रासं. ग.) ईक'. यो. वे. क. ना. संय. द. ले. म. स.संलि. गा.
उ.
मि. म. प. ६अ..
सं.अ.
ति
त्र. म.४
।
xx
अज्ञा. असं. चक्षु. भा. १ भ. मि. सं. आहा. साका.
अच. ते. अ. अना. अना.
-
Page #465
--------------------------------------------------------------------------
________________
छक्खंडागमे जीवहाणं
[१,१. सीलो, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिणि गदीओ, णिरयगदी णस्थि; पंचिंदियजादी, क्सकायो, दस जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिणि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दब्वेण छ लेस्साओ, भावेण तेउलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
"तेसिं चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दो
मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंच, मनुष्य और देव ये तीन गतियां हैं, किन्तु नरकगति नहीं है । पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग; तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे छहों लेण्यापं. भावसे तेजोलेश्याः भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिका मिथ्यात्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं तेजोलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने परएक मिथ्यारष्टि गुणस्थान, एक संशी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संशाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, वैक्रियिकमिश्र और कार्मणकाययोग ये
४२६ तेजोलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप. ।य. जी. प. प्रा.सं. ग.ई.का. यो. वे. क. जा. । संय. द. | ले. भि. स. संज्ञि. आ.
उ. |
ति.पं.त्र.
म.४! व.४
औ.१
ज्ञान. असं चक्षु. भा. म. मि । सं. आहा. साका.
अच. ते.अ.
t
अना
वै.१]
नं. ४२७ तेजोलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं ग. ई का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. | ले. भ स. संक्षि | आ. | उ. १६.७४ १२ १२२/४ २ १ २ द्र २२ ११२ - २
देव.पं.त्र. वै. मि.पु. कुम. असं. चक्षु का. म. मि. सं. आहा साका. कार्म. स्त्री. । कुश्रु. अच. शु. अ.
अना. अना.
सं.अ. -
-
Page #466
--------------------------------------------------------------------------
________________
१,१.]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे लेस्सा- आलाववण्णणं
100%
जोग, दो वेद, णकुंमयवेदो णत्थिः चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो संसण, दव्त्रेण काउ- सुक्कलेस्साओ, भावेण तेउलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छ, सण्णिणो, आहारिणो अनाहारिणो, सागारुत्रजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेउलेस्सा- सासणसम्म इट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, छ पञ्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगईए विणा तिविण गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, ओरालियमिस्सेण विणा बारह जोग, विणि वेद, चत्तारि कमाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण तेउलेस्सा; भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुत्रजुत्ता वा ।
४२८
तेसिं चैव पञ्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पज
दो योगः पुरुष और स्त्री ये दो वेद होते हैं, किन्तु नपुंसकवेद नहीं होता है । चारों कषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे तेजोलेश्याः भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संज्ञिक, आहारक, अनाहारकः साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
तेजोलेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर - एक सासादन गुणस्थान, संज्ञी - पर्याप्त और संज्ञी अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छद्दों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगति के विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिकमिश्रकाययोग और आहारककाययोगद्विकके विना शेष बारह योग, तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे छहीं लेश्याएं, भावसे तेजोलेश्या; भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
उन्हीं तेजोलेश्या वाले सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्तकाल संबन्धी आलाप कहने
नं. ४२८
तेजोलेश्यावाले सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप.
गु.जी. प. प्रा. सं. ग. इ. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. (संज्ञि. आ. १ २ ६ प. १० १ १ १२ म.४ ३ ४ ३ १ R द्र. ६ १ १ १ २ २ सा.सं. प. ६ अ. ७ ति पं. त्र. व. ४ अशा असं चक्षु. भा. म. सा. सं. आहा. साका अच. ते.
सं. अ.
अना. अना.
का. १
उ.
Page #467
--------------------------------------------------------------------------
________________
७७१] . छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[१, १. पीओ, दस पाण, चत्वारि सण्णाओ, तिणि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दस जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण तेउलेस्सा; भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुबजुता होति अणागारुखजुत्ता वा। .. तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, एओ जीवप्समासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दो
पर-एक सासादन गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों ववनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग, तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेजोलेश्या, भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं। .. उन्हीं तेजोलेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक सासादन गुणस्थान, एक संझी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, वैक्रियकमिश्र और कार्मणकाययोग
नं. ४२९ । गु. जी.
तेजोलेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप. प्रासं.ग. ई. का. यो. । वे. क. शा. (संय. द. । ले. भ. स. सज्ञि. आ. | उ. !
प.
सा. सं. प.
.त्र
म,४
अज्ञा. असं. चक्षु. भा.म.सा. सं. आहा. साका अच. ते.
अना.
नं. ४३० । गु. जी.
1 सासं.अ.
तेजोलेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप. प. प्रा., सं.ग.। . का. यो. वे., क. ज्ञा. संय। द. | ले. म | स. संझि. आ.| उ. | अ.७ ४११।२२|४| २ १ २ द.२ 11 २२ दे. पं.त्र. वै.मि. पु. कुम. असं. चक्षु का. म. सासा. स. आहा. साका. | कार्म. स्त्री. कुश्रु. अच. शु.
अना. अना.
मा.१
Page #468
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १. ]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे लेस्सा-आलाववण्णणं
[ ७७५
जोग, कुंमयवेदेण विणा दो वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दवेण काउ- सुकलेस्साओ, भावेण तेउलेस्सा; भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं सण्णिणो, आहारिणो अनाहारिणो, सागारुत्रजुत्ता होंति अणागारुत्रजुत्ता वा ।
तेउलेस्सा-सम्मामिच्छाइट्ठीणं मण्णमाणे अस्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, निरयगईए विणा तिष्णि गदीओ, पंचिदियजादी, तसकाओ, दस जोग, तिष्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिष्णि णाणाणि तीहिं अण्णाणेहिं मिस्साणि, असंजमो, दो दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण तेउलेस्सा; भरसिद्धिया, सम्मामिच्छतं, सणिणो, आहारिणो, सागारुत्रजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
ये दो योग, नपुंसक वेदके विना शेष दो वेद, चारों कषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे तेजोलेश्याः भव्यसिद्धिक, सासादन सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, अनाहारकः साकारोपयोगी और अनाकारो• पयोगी होते हैं ।
तेजोलेश्यावाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर - एक सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छद्दों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, बसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग वे दश योग; तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञानोंसे मिश्रित आदि के तीन ज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे सेज लेश्या, भव्यसिद्धिक, सम्यग्मिथ्यात्व संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
नं. ४३१
गु. जी. | प. प्रा. सं. ग. इं का. यो.
१ १ ७ १० सम्य. मं.प.
४ ३ १ १ १० ति पं. त्र. म. ४
व. ४
तेजोलेश्यावाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप.
वे. क
३ *
३
१
२
ज्ञा. संग. द. ले. | भ. स. संज्ञि | आ. उ. २ द्र ६ १ १ १ १ अज्ञा, असं चक्षु. भा. १ भ. सम्य. सं. आहा. साका. ३ अच. ते. अना ज्ञान. मिश्र.
Page #469
--------------------------------------------------------------------------
________________
छक्खंडागमे जीवहाणं
[१, १. तेउलेस्सा-असंजदसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, छ पजचीओ छ अपजत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगईए विणा तिण्णि गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, तेरह जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजमो, तिण्णि देसण, दव्येण छ लेस्साओ, भावेण तेउलेस्सा; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मतं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुखजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा।
तेसिं चेव पजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिण्णि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दस जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजमो, तिण्णि दंसण, दवेण छ लेस्साओ, भावेण तेउलेस्सा; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारु
तेजोलेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, संज्ञी-पर्याप्त और संज्ञी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, आहारककाययोगद्विकके विना शेष तेरह योग, तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन शान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेजोलेश्या; भव्यसिद्धिक, औपशमिक आदि तीन सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं तेजोलेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, वशी प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग; तीनों घेद, चारों कषाय, आदिके तीन शान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेजोलेश्याः भव्यसिद्धिक, औपशमिक आदि तीन सम्यक्त्व, संक्षिक,
नं. ४३२ तेजोलेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप. |गु. जी. प. प्रा. सं. ग.ई. का. यो.. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ. ।
FEE
अ.सं प. ६अ.
पंचे. ~ त्रस. -
आ. द्वि. विना.
मति अस. के.द. भा. १ म. औप. सं. आहा, साका, श्रुत. वना. ते. क्षा. अना. अना.
अव..
क्षायो.
Page #470
--------------------------------------------------------------------------
________________
?, ?. ]
जुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा३३ ।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, देव मणुसगदि ति दो गदीओ, पंचिदियजादी, तसकाओ, तिणि जोग, पुरिसवेद, चत्तारि कसाय, तिष्णि णाण, असंजमो, तिणि दंसण, दव्वेण काउ- सुक्कलेस्सा, भावेण तेउलेस्सा; भवसिद्धिया तिण्णि सम्मत्तं, सणणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुत्रजुत्ता वा ।
तेउलेस्सा-संजदासंजदाणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ
नं. ४३३
गु. | जी.
१
१
अवि. सं.प.
आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
उन्हीं तेजोलेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संशी - अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगति और मनुष्यगति ये दो गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिकामिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मणकाययोग ये तीन योग; पुरुषवेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे तेजोलेश्याः भव्यसिद्धिक, औपशमिक आदि तीन सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, अनाहारक साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
तेजोलेश्यावाले संयतासंयत जीवोंके आलाप कहने पर - एक देशविरत गुणस्थान, एक
नं. ४३४
य.
जी. प.
१ १ ६अ
अ. सं. अ.
संत - परूवणाणुयोगद्दारे लेस्सा- आलाववण्णणं
प. प्रा. सं. ग. ई. का. ६ | १० | ४ | ३ | १ | १
ति. पं.
म.
तेजोलेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीवों के पर्याप्त आलाप.
यो. वे । क. ज्ञा. १०म.४ ३ ४ ३ व. ४ ओ. १
म.
तेजोलेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप.
प्रा. संग. इं. का. यो. वे. क.
१ ४
७ ४ २ १ १ ३ दे पं. त्र औ.मि.
वै.मि.
कार्म.
ले. भ. स. | संज्ञि. आ. | उ.
संय. द. १ | ३ द्र. ६१ ३ १ १ २ मति. असं के द. भा. शंभ. औप. सं. आहा. साका. श्रुत. विना ते. क्षा. अना. अव
क्षायो.
[vot
ज्ञा. ३
मति.
श्रुत.
अव.
उ
१
संय. द. ले. भ. स. संज्ञि. आ. ३ द्र. २ २ ३ १ २ २ असं के. द. का. भ. प. सं. आहा साका विना. शु. क्षा. अना. अना.
क्षायो.
भा. १ ते
Page #471
--------------------------------------------------------------------------
________________
ww८] छक्खंडागमे जीवट्ठाण
[१, १. पजचीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, दो गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, संजमासंजमो, तिण्णि दंसण, दवेण छ लेस्साओ, भावेण तेउलेस्सा; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
"तेउलेस्सा-पमत्तसंजदाणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिं. दियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, चत्तारि णाण, तिण्णि
संझी-पर्याप्त जीवतमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति और मनुष्यगति ये दो गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, संयमासंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेजोलेश्याः भव्यसिद्धिक, औपशमिक आदि तीन सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
तेजोलेश्यावाले प्रमत्तसंयत जीवोंके आलाप कहने पर-एक प्रमत्तविरत गुणस्थान, संक्षी-पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग, आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोग ये ग्यारह योगः तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके चार ज्ञान, सामायिक, छेदोपस्थापना और परिहारविशुद्धि ये
.............................
नं. ४३५
तेजोलेश्यावाले संयतासंयत जीवोंके आलाप. | गु. | जी. प. प्रा. सं.| ग.ई. का. यो. वे. क. ना. संय. द. ले. म. स.
मंन्नि. आ. उ. ।
देश. सं. प.
ति पं. त्र. म. ४
मति देश. के.द. भा. भ. औप. सं. आहा.साका. श्रुत विना.ते. । क्षा.
अना. क्षायो.
अव.
नं.४३६
तेजोलेश्यावाले प्रमत्तसंयत जीवोंके आलाप. गु. जी. प. पा | सं. ग. ह. | का. यो. वे. क. हा.। संय. द. ले. म. स..
-
सं.प.६अ.
पचे..
त्रस.
व.४
मति सामा के.द.मा. म. औप. सं. आहा. साका. श्रुत. छेद विना. ते. क्षा. अव परि.
क्षायो
अना.
औ.१ आ.२
मनः
Page #472
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.]
संत-परूवणाणुयोगदारे लेस्सा-आलावषण्णणं संजम, तिण्णि दंसण, दम्वेण छ लेस्साओ, भावेण तेउलेस्सा; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुखजुत्ता होंति अणागारुखजुत्ता वा ।
तेउलेस्सा-अप्पमत्तसंजदाणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाण, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, तिण्णि सण्णाओ, मणु मगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, चत्तारि णाण, तिणि संजम, तिणि दंसण, दवेण छ लेस्साओ, भावेण तेउलेस्सा; भवसिद्धिया, तिणि सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
पम्मलेस्साणं भण्णमाणे अत्थि सत्त गुणट्ठाणाणि, दो जीवसमासा, छ पञ्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगदीए विणा तिण्णि गदीओ,
तीन संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेज.लेश्या; भव्यासिद्धिक, औपशमिक आदि तीन सम्यक्त्व; संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
तेजोलेश्यावाले अप्रमत्तसंयत जीवोंके आलाप कहने पर-एक अप्रमत्तविरत गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, आहारसंज्ञाके विना शेष तीन संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके चार शान, अ.दिके तीन संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेजोलेश्याः भव्यसिद्धिक, औपशमिक आदि तीन सम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
पद्मलेश्यावाले जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-आदिके सात गुणस्थान, संक्षीपर्याप्त और संज्ञी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां दशों प्राण, सात प्राण, चारों संशाएं, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, पन्द्रहों
नं.४३७
तेजोलेश्यावाले अप्रमत्तसंयत जीवोंके आलाप. ग. जी. प. प्रा. सं. ग. ई. 'का । यो. | वे. | क. ज्ञा. | संय. | द. | ले. भ. स. संलि. आ. | उ. | १ १०३111१ ९ ३ ४ ४ ३ ३ द्र.६१ ३११२ भय. म. प. त्र. म. ४
मति. सामा. के.द.भा.भ. औ. सं. आहा. साका. श्रुत.. छेदो. विना. ते.
अना. परि. औ. १ अव. परि.
क्षायो. मनः
|- ''
| क्षा.
Page #473
--------------------------------------------------------------------------
________________
gs ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १,१.
पंचिदियजादी, तसकाओ, पण्णारह जोग, तिष्णि वेद, चत्तारि कसाय, सत्त गाण, पंच संजम, तिण्णि दंसण, दव्त्रेण छ लेस्साओ, भावेण पम्मलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा
४३८
सिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अस्थि सत्त गुणट्ठाणाणि, एओ जीवसमासो, छ पज्जतीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिष्णि गदीओ, पंचिदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, सत्त णाण, पंच संजम, तिण्णि दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण पम्मलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सण्णिणो,
योग, तीनों वेद, चारों कषाय, केवलज्ञानके विना शेष सात ज्ञान, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात संयम के विना शेष पांच संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छद्दों लेश्याएं, भावसे पद्मलेश्या भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः छद्दों सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
उन्हीं पद्मलेश्यावाले जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - आदिके सात गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगतिकै विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, पर्याप्तकालसंबन्धी ग्यारह योग, तीनों वेद, चारों कषाय, केवलज्ञानके विना शेष सात ज्ञान, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात संयम के विना शेष पांच संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे पद्मलेश्याः भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, छद्दों सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और
।
गु.
नं. ४३८
जी.
७
२
मि. सं. प. ६अ. से. सं. अ.
अप्र.
७
१
मि. सं.प.
से.
अप्र
पद्मलेश्यावाले जीवोंके सामान्य आलाप.
प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. १ १५ ६प १०४ ३ १ ३ ४ ७ ५ ३ ७ ति. पं. त्र. केव. असं. के. द. विना देश. विना.
सामा.
छेदो.
परि.
नं. ४३९
गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ह. का. यो.
१ ६ | १० | ४ | ३
mote hi hist
पद्मलश्यावाले जीवके पर्याप्त आलाप.
७
वे. क. ज्ञा. संय. द. ११ म. ४ ३ ४ ५ असं. ३ द्र. ६ २ ति. पं. त्र. व. ४ केत्र. देश. के. द भा. १ भ. विना सामा. विना. प. अ.
म.
औ. १ वै. १
छेदो. परि.
आ. १
ले. म. स. संज्ञि.] आ. द्र. ६ १ २ ६ भा. १ भ. सं. प. अ.
ल
उ.
२
२ आहा. साका. अना. अना.
भ. स. संक्षि आ.
६
उ.
१
२
१ सं. आहा. साका. अना.
Page #474
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.]
संत-परूवणाणुयोगदारे लेस्सा-आलाववण्णणं आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि चत्तारि गुणट्ठाणाणि, एओ जीवसमासो, छ अपज्जचीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, देव-मणुसगदि त्ति दो गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, चत्तारि जोग, पुरिसवेदो, चत्तारि कसाय, पंच णाण, तिण्णि संजम, तिण्णि सण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण पम्मलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, पंच सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुखजुत्ता वा।
पम्मलेस्सा-मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिण्णि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, ओरालियमिस्सेण विणा बारह जोग, तिणि वेद, चचारि
अनाकारोपयोगी होते है।
___ उन्हीं पद्मलेश्यावाले जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-मिथ्याडष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, अविरतसम्यग्हाष्ट और प्रमत्तसंयत ये चार गुणस्थान, एक संशी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगति और मनुष्यगति ये दो गतियां, पंचेन्द्रियजाति, बसकाय, अपर्याप्तकालसंबन्धी चार योग, पुरुषवेद, चारों कषाय, कुमति, कुश्रुत और आदिके तीन शान ये पांच ज्ञान, असंयम, सामायिक और छेदोपस्थापना ये तीन संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे पालेश्या; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; सम्यग्मिथ्यात्वके विना शेष पांच सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
पनलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, संशी-पर्याप्त और संज्ञी-अपर्याप्त ये दो जीपसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां दशों प्राण, सात प्राण; चारों संशाएं, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, औदारिकमिश्रकाययोग और आहारककाययोगद्विकके विना शेष बारह योग,
नं. ४४०
पनलेश्यावाले जीवोंके अपर्याप्त आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई.का. यो. वे. क. बा. संय. द. ले. म. स. संलि. | आ. | 8.1
सं.अ. -
दे. पं.. औ.मि पु.
सासा.
वै.मि.
अवि. प्रम.
आ.मि. कार्म.
कुम. असं. के.द. का. म. सम्य. सं. आहा. साका. कुश्रु. सामा. विना.शु. अ. विना. अना. अना. मति. छेदो. श्रुत. अव.
Page #475
--------------------------------------------------------------------------
________________
७८२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. कसाय, तिणि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण पम्मलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा " "तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पञ्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिण्णि गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दस जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण पम्मलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो, आहारिणो,
तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे पालेश्या; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संक्षिक, आहारक, अन हारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं पद्मलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संक्षाएं, मरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग; तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे पद्मलेश्या; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिका मिथ्यात्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारो
नं.४४१ . पद्मलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप. ..गु. । जी. । प. प्रा.सं. | ग. ई.का.यो. वे. क. ना. । संय.। द. । ले. भ. | स. संज्ञि. आ. | उ.|
१|२ ६१. १०४/३११ | १२ |३|४| ३ २ द्र. ६|२|१| | २ | २ मि. सं. प. ६अ. ति. पं. त्र. म. ४ अज्ञा असं. चक्षु भा.१ भ. | मि. सं. आहा. साका. सं. अ.
अच. प. अ.
अना. अना.
नं. ४४२ पद्मलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप. | ग. जी. प. प्रा. | सं. ग./ ई.का. यो. वे.क. ज्ञा. | संय। द. | ले. भ. स. संझि | आ.| उ. |
मि. सं.प.
MEE
म.४
अज्ञा. असं. | चक्षु. भा. १ म. मि . सं. आहा. माका.
अच. प.
अना.
Page #476
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १. ]
सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चचारि सण्णाओ, देवगदी, पंचिदियजादी, तसकाओ, दो जोग, पुरिसवेदो, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्त्रेण काउ- सुक्कलेस्साओ, भावेण पम्मलेम्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुत्रजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
संत-परूवणाणुयोगद्दारे लेस्सा-आलावण्णणं
पम्मलेस्सा- सासणसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, छ पज्जतीओ छ अपज्जतीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिष्णि गदीओ, पंचिदियजादी, तसकाओ, बारह जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्त्रेण छ लेस्साओ, भावेण पम्मलेस्सा; भवसिद्धिया, सासनसम्मतं,
पयोगी होते है ।
उन्हीं पद्मलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, वैक्रियिकमिश्र और कार्मणकाययोग ये दो योग; पुरुषवेद, चारों कषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे पद्मलेश्याः भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, मिध्यात्व, संशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं. ४४३
गु. जी. प.
१
१
६ अ
मि सं. अ
पद्मलेश्यावाले सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर - एक सासादन गुणस्थान, संज्ञी पर्याप्त और संज्ञी अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छद्दों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राणः चारों संज्ञाएं, नरकगतिके बिना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, औदारिकमिश्र और आहारककाययोगद्विकके विना शेष बारह योग, तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे छहीं लेश्याएं,
( ૭૮૨
૪
पद्मश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप.
प्रा. संग ई. का. यो. वे क.
१
१
२
१
४
दे. पं. त्र. वै.मि. पु.
कार्म.
शा. संय द.
R
१
२
१
१
ले. भ. स. संज्ञि. आ. द्र. २ १२ चक्षु. का. म. अच. शु. अ.
मि. सं.
कुम. असं कुश्रु.
भा. १ पं.
उ.
२
ર आहा. साका. अना. अमा.
Page #477
--------------------------------------------------------------------------
________________
७८४ __ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, १. सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा"।
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अस्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिण्णि गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दस जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिणि अण्णाण, असंजमो, दो दसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण पम्मलेस्सा; भवसिद्धिया, सासणसम्मत्रं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
भावसे पद्मलेश्या; भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं पालेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक सासादन गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संक्षाएं, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, वारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग; तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे पद्मलेश्या; भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं. ४४३ | गु. जी. प.
पद्मलेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप. प्रा. | सं. ग.| ई.का. यो. | वे. क. ज्ञा.। संय. द. ले. म. स. संलि.
आ. | 8. ।
MEE
ति. पं. त्र.
सा सं.प.६अ.
सं.अ.
म.
अज्ञा. असं. चक्षु. भा. भ. सासा. सं. आहा- पाका. अच. प.
अना. अना.
नं. ४४५ पद्मलेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवों के पर्याप्त आलाप. |गु | जी. प. प्रा. ) सं. ग.ई. का. यो. । वे. क.सा. । संय. | द. | ले. म. स. संशि. आ. | उ.
१०३|४| ३ | १ | २ द्र.६|१|१| |1|२ सा.सं.प. ति. पं. त्र. म.४ अक्षा. असं. चक्षु. मा. म.सासा.सं. आहा. साका.
अच. प.
HOM
अना.
Page #478
--------------------------------------------------------------------------
________________
१,१.]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे लेस्सा-आला ववण्णणं
[ ७८५
तेसिं चेव अपत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणद्वाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जतीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदी, पंचिदियजादी, तसकाओ, दो जोग, पुरिसवेदो, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्वेण काउ- सुक्कलेस्साओ, भावेण पम्मलेस्सा, भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
''पम्मलेस्सा-सम्मामिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणड्डाणं, एओ जीवसमासो, छत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिण्णि गदीओ, पंचिदियजादी, तसकाओ, दस जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिष्णि णाणाणि तीहिं अण्णाणेहिं मिस्साणि,
उन्हीं पद्मलेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - एक सासादन गुणस्थान, एक संज्ञी अपर्याप्त जीवसमास, छद्दों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, वैक्रियिकमिश्र और कार्मणकाययोग ये दो योग, पुरुषवेद, चारों कषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम, आदि के दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे पद्मलेश्याः भव्यसिद्धिक, सासादन सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
पद्मलेश्यावाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर - एक सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिक
नं. ४४६
प्रा. सं.
गु. जी. प. १ १ ६ अ. ७ ४ सा. सं.अ.
नं. ४४७
पद्मलश्यावाले सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप.
ग. इं. का. यो. (वे. क. ज्ञा.
१ १ १ २ १ ४ दे. पं. त्र. वै.मि. पु.
कार्म.
गु.
१
१
सम्य. सं. प.
पद्मलेश्यावाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप.
जी.प.प्रा.सं.ग. इं. का. यो. वे. क. शा. संय. द. ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ. ३ ४ ३ १ २ द्र. ६ १ अज्ञा. असं चक्षु, भा. १ भ. ३ अच. प. ज्ञान.
६ १० ४ ३ १ १ ति. पंचे. त्रस.
१० म. ४
मिश्र.
१
२
२
द. ले. भ. स. (संज्ञि. | आ. उ. द्र. २ १ का. भ. सासा, सं. आहा. साको. अना. अमा.
शु. भा. १ प.
संय १ २
२
कुम. असं. चक्षु. कुश्रु. अच.
१
२
सं. आहा. साका. अना.
१ १
Page #479
--------------------------------------------------------------------------
________________
७८६ ]
खंडागमे जीवद्वाणं
[ १,१.
असंजमो, दो दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण पम्मलेस्सा, भवसिद्धिया, सम्मामिच्छत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
पम्मलेस्सा-असंजदसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, वे जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जतीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिष्णि गदीओ, पंचिदियजादी, तसकाओ, तेरह जोग, तिष्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिणि णाण, असंजमो, तिष्णि दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण पम्मलेस्सा; भवसिद्धिया, तिष्णि सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जतीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिष्णि गदीओ, पंचिदियजादी, तसकाओ,
काययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग; तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञानोंसे मिश्रित आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे छद्दों लेश्याएं, भावसे पद्मलेश्या भव्यसिद्धिक, सम्यग्मिथ्यात्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
पद्मलेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीवों के सामान्य आलाप कहने पर - एक अविरत - सम्यग्दृष्टि गुणस्थान, संक्षी-पर्याप्त और संत्री-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तयां; दश प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, आहारककाययोगद्विकके विना शेष तेरह योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छद्दों लेश्याएं, भावसे पद्मलेश्या; भव्यसिद्धिक, औपशमिकादि तीन सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
उन्हीं पद्मलेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप क पर - एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दश प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, बसकाय, चारों मनोयोग,
नं. ४४८
गु. जी.
प. प्रा. सं
१ २
| ६१. १० ४ ३ १ १ १३ अवि सं.प. ६अ. ७ ति. पं. त्र. आ. द्वि
सं.अ.
विना.
पद्मलेश्यावाले असंयत सम्यग्दष्टि जीवोंके सामान्य आलाप.
ग
. इं. का.) यो. वे. क. ज्ञा.
३ ४ ३
| संय | द. १ ३ द्र. ६ १ ३ प. सं. क्षा.
क्षायो.
ले. | भ.) स. संज्ञि. आ.
१ २
मति. असं. के. द मा. १ भ. भत. त्रिना. प.
अब.
उ.
२
आहा. साका. अना. अना.
Page #480
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १. ]
संत - परूवणाणुयोगद्दारे लेस्सा-आलाववण्णणं
[ ७८७
दस जोग, तिष्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिष्णि णाण, असंजमो, तिष्णि दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण पम्मलेस्सा, भवसिद्धिया, तिष्णि सम्मतं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, देव- मणुसगदि ति दो गदीओ, पंचिदियजादी, तसकाओ, तिणि जोग, पुरिसवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजमो, तिण्णि दंसण, दव्त्रेण काउ- सुक्कलेस्साओ, भावेण पम्मलेस्सा, भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा " ।
चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योगः तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छद्दों लेश्याएं, भावसे पद्मलेश्याः भव्यसिद्धिक, औपशमिक आदि तीन सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयागी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
उन्हीं पद्मलेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी अपर्याप्त जीवसमास, छद्दों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगति और मनुष्यगति ये दो गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मणकाययोग ये तीन योगः पुरुषवेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे पद्मलेश्या; भव्यसिद्धिक, औपशमिक आदि तीन सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, अनाहारक)
नं. ४४९
गु. जी.
१
१
अवि. सं. प.
१ १ अ. सं. अ.
पद्मलेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप.
उ. १
३
१ १
प. प्रा.सं.ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संज्ञि, आ. १० म. ४ ३ ४ १ ३ द्र. ६१ ३ मति. असं. के. द. मा. १ भ. औप. सं. आहा. साका. श्रुत. विना. प. क्षा. अमा. क्षायो.
अव.
६ १० ४ ३ १ १ ति. पं.
व. ४
औ. १
१
नं. ४५०
1. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. १ १ ३ दे. पं. त्र. औ.मि.
६अ. ७ ४ २
१ ४
वै.मि.
म.
कार्म.
पद्मलेश्यावाले असंयतसस्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप.
ज्ञा. ३
मति.
श्रुत.
अव.
संय. द. ले. म. स. 1 संशि. आ.
उ.
१
१
२ २
३ द्र. २ २ ३ असं. के. द. का. भ. औप. सं. आहा. साका विना. शु. क्षा. अना. अना. क्षायो.
भा. १
प
Page #481
--------------------------------------------------------------------------
________________
छक्खंडागमे जीवाणं
[१, १. ___ पम्मलेस्सा-संजदासंजदाणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पजचीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, दो गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, संजमासंजमो, तिणि दंसण, दन्वेण छ लेस्साओ, भावेण पम्मलेस्सा; उत्तं च पिंडियाए
लेस्सा य दव्व-भावं कम्मं णोकम्ममिस्सयं दव्वं ।
जीवस्स भावलेस्सा परिणामो अप्पणो.जो सो ॥ २६८॥ भवसिद्धिया, तिणि सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
पम्मलेस्सा-पमत्तसंजदाणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, छ साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
पद्मलेश्यावाले संयतासंयत जीवोंके आलाप कहने पर-एक देशविरत गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास. छहों पर्याप्तियां. दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति और मनुष्यगति ये दो गतियां, पंचेन्द्रियजाति, अस काय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, सयमासंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे पद्मलेश्या होती है। पिंडिका नामके ग्रन्थमें कहा भी है:
लेश्या दो प्रकारकी है, द्रव्यलेश्या और भावलेश्या । नोकर्मवर्गणाओंसे मिश्रित कर्मवर्गणाओंको द्रव्यलेश्या कहते हैं। तथा जीवका कषाय और योगके निमित्तसे होनेवाला जो आत्मिक परिणाम है, वह भावलेश्या कहलाती है ॥ २२८॥
लेश्या आलापके आगे भव्यासिद्धिक, औपशमिक आदि तीन सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
पद्मलेश्यावाले प्रमत्तसंयत जीवोंके आलाप कहने पर-एक प्रमत्तसंयत गुणस्थान, संझी-पर्याप्त और संज्ञी-अपर्याप्तये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; दशों प्राण,
१ आ प्रतौ । पिटियाए ' इति पाठः। नं. ४५१
पालेश्यावाले संयतासंयत जीवोंके आलाप. | गु. । जी. प. प्रा. सं.| ग. ई. का. यो. वे. क. ना. संय. द. | ले. म. स. संमि. आ. उ. ११ ६ १०४२११९३४३ २ ३ द्र.
६३११२ देश. सं. प. ति. पं. त्र. म. ४ मति. देश. के.द. भा. १ म. | औप. सं. आहा. साका. श्रुत. विना. प.
क्षायो.
क्षा.
अना.
अव..
Page #482
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.]
संत-परूवणाणुयोगदारे लेस्सा-आलाववण्णणं
[७८९ पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिं. दियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, चत्तारि णाण, तिण्णि संजम, तिण्णि दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण पम्मलेस्सा; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
"पम्मलेस्सा-अप्पमत्तसंजदाणं भण्णमाणे अस्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, तिणि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव
सात प्राण; चारों संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग, आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोग ये ग्यारह योग; तीनों घेद, चारों कषाय, आदिके चार ज्ञान, सामायिक, छेदोपस्थापना और परिहारविशुद्धिसंयम ये तीन संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे पद्मलेश्या; भव्यसिद्धिक, औपशमिक आदि तीन सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
पद्मलेश्यावाले अप्रमत्तसंयत जीवोंके आलाप कहने पर-एक अप्रमतसंयत गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, आहारसंशाके विना शेष तीन संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदा
नं. ४५२
पद्मलेश्यावाले प्रमत्तसंयत जीवोंके आलाप. |. जी. | प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. । वे. क. झा. संय. द. | ले. भ. स. । संक्षि
आ. | उ. |
सं.प. ६अ. ७
म..
पंचे.
म. ४
वस.
केव. सामा के.द. भा. भ. औप. सं. आहा. साका./ विना छेदो. विना. प.
अना. परि.
क्षायो.
क्षा.
औ.१
आ.२
नं. ४५३
पद्मलेश्यावाले अप्रमत्तंसयत जीवोंके आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग.ई.का. यो. [वे. क. ज्ञा. संय. द. । ले. म.
स. संलि. आ.) उ. ।
अप्र. सं.प.
भय म.
म.४
।
HERa.४
केव. सामा. के.द. मा. १ म. औप. सं. आहा. साका. विना छेदो. विना. प.
|क्षा.
अना. परि.
क्षायो.
परि.
Page #483
--------------------------------------------------------------------------
________________
७९०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, चत्तारि णाण, तिण्णि संजम, तिणि दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण पम्मलेस्सा; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
सुक्कलेस्साणं भण्णमाणे अत्थि अजोगि विणा तेरह गुणट्ठाणाणि, दो जीवसमासा, छ पञ्जत्तीओ छ अपज्जत्तीआ, दस पाण सत्त पाण चत्तारि पाण दो पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अत्थि, तिणि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, पण्णारह जोग, तिणि वेद अवगदवेदो वि आत्थ, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अत्थि, अट्ठ णाण, सत्त संजम, चत्तारि दसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण सुकलेस्सा; भवसिद्धिया। अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सणिणो णेव सणिणो णेव असण्णिणो वि अत्थि, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा सागार-अणागारेहिं जुगवदुवजुत्ता वा।
रिककाययोग ये नौ योग, तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके चार ज्ञान, सामायिक, छेदोपस्थापना
और परिहारविशुद्धि ये तीन संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे पालेश्या; भव्यसिद्धिक, औपशमिक आदि तीन सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
शुक्ललेश्यावाले जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-अयोगिकेवली गुणस्थानके विना आदिके तेरह गुणस्थान, संझी-पर्याप्त और संज्ञी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां दशों प्राण, सात प्राण तथा सयोगिकेवलीकी अपेक्षा चार प्राण और दो प्राण; चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंशास्थान भी होता है, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचे. न्द्रियजाति, त्रसकाय, पन्द्रहों योग, तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी होता है, चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है। आठों ज्ञान, सातों संयम, चारों दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; छड़ों सम्यक्त्व, संशिक तथा संशिक और असंशिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी स्थान होता है, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी तथा साकार और अनाकार इन दोनों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त भी होते हैं। नं. ४५४
शुक्ललेश्यावाले जीवोंके सामान्य आलाप. । गु.। जी. प. प्रा.सं. ग. इ. का. यो. वे.क. ज्ञा. (संय. द. । ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ. | |१३ २ ६ प. १० ४ ३ १ १ १५ ३४ ८ ७ ४ द्र.६/२ ६. १ | २ २ अयो.सं. प. ६ अ.
भा.१ म. सं. आहा. साका. विना.सं.अ.
शु. अ. अनु. अना. अना.
तथा.
क्षीणसं. .
be
अकषा.
Page #484
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-पखवणाणुयोगद्दारे लेस्सा-आलाववण्णणं
[७९१ तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि तेरह गुणहाणाणि, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण चत्तारि पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अस्थि, तिण्णि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, तिण्णि वेद अवगदवेदो वि अत्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अस्थि, अट्ट णाण, सत्त संजम, चत्तारि दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सणिणो णेव सणिणो णेव असण्णिणो वि अत्थि, आहारिणो, सागारुखजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा सागार-अणागारेहि जुगवदुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि पंच गुणट्ठाणाणि, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण दो पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अत्थि, देव-मणुसगदि त्ति दो गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, चत्तारि जोग, पुरिसवेद अवगदवेदो वि अत्थि,
उन्हीं शुक्ललेश्यावाले जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-आदिके तेरह गुणस्थान, एक संझी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चार प्राण: चारों संशाएं तथा क्षीणसंज्ञास्थान भी होता है, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, पर्याप्तकालसंबन्धी ग्यारह योग; तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी होता है, चारों कषाय, तथा अकषायस्थान भी होता है, आठों ज्ञान, सातों संयम, चारों दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; छहों सम्यक्त्व, संक्षिक तथा संशिक और असंक्षिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी स्थान होता है, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी तथा साकार और अनाकार इन दोनों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त भी होते हैं।
उन्हीं शुक्ललेश्यावाले जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, प्रमत्तविरत और सयोगिकेवली ये पांच गुणस्थान; एक संक्षी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण और दो प्राण, चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंज्ञास्थान भी है। देवगति और मनुष्यगति ये दो गतियां, पंचन्द्रियजाति, त्रसकाय, अपर्याप्तकालसंबन्धी चारों योग, पुरुषवेद तथा अपगतवेदस्थान भी है, चारों कषाय तथा
नं.४५५
शुक्ललेश्यावाले जीवोंके पर्याप्त आलाप. | गु. | जी. प.प्रा | सं. ग. | ई. का. यो. । वे क. ना. | संय. द. | ले. भ. स. संझि, आ. | उ. । अयो. सं. प. ४ ति. पंचे. त्र. व.४
भा.१ भ. सं. आहा. साका विना
औ. १
शु. अ. अनु. अना.
तथा. आ.१
on
अपग. Nar अकषा.
क्षीणसं. <
»
यु.उ.
Page #485
--------------------------------------------------------------------------
________________
७९२) छक्खंडागमे जीवहाणं
[१,१. चत्तारि कसाय अकसाओ वि अत्थि, छ णाण, चत्तारि संजम, चत्वारि सण, दवेण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, पंच सम्मत्तं, सणिणो णेव सणिणो णेव असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा सागार-अणागारेहिं जुगवदुवजुत्ता वा ।।
___"सुक्कलेस्सा-मिच्छाइहीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, छ पजत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिणि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, ओरालियमिस्सकायजोगेण विणा बारह जोग, तिणि वेद,
अकषायस्थान भी है, विभंगावधि और मनःपर्ययज्ञानके विना शेष छह ज्ञान, असंयम, सामायिक, छेदोपस्थापना और यथाख्यात ये चार संयम; चारों दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, सम्यग्मिथ्यात्वके विना शेष पांच सम्यक्त्व, संक्षिक तथा संशिक और असंशिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी स्थान है, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी तथा साकार और अनाकार इन दोनों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त भी होते हैं।
शुक्ललेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, संक्षी पर्याप्त और संज्ञी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिकमिश्रकाययोग और आहारककाययोगद्विकके विना शेष बारह योग, तीनों वेद,
नं. ४५६
शुक्ललेश्यावाले जीवोंके अपर्याप्त आलाप. |गु. जी.प. प्रा., सं.ग.। इं.का. यो. के. क. सा. । संय. द.. ले. म. स. । संलि. आ.| उ. | ५मि. १ ६अ. ७ ४२/११४ १४ ६ ४ ४ द्र.२ २५१ २२ सा. सं.अ.
दे. पं.त्र. औ.मि. प. विभ. असं. का. म. सम्य सं. आहा. साका. अवि.
वै.मि. मनः. सामा. शु. अ. विना. अनु. अना. अमा. प्रम.
आ.मि. विना. छेदो.
मा.१ कार्म.
यथा. .. ।
| यु. उ.
क्षीणसं. २
अकषा.
तथा.
सयो.
नं.४५७ शुक्ललेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप. गु. । जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. | वे. क. ना. | संय. द. ले. भ. स. संशि. आ. | उ. | १२ प. १०४ | ३ १ १ १२ | ३ | ४ ३ १ २ द्र.६ २११२ २ सं. प. अ./७
पं.त्र. म.४ | अज्ञा. असं. चक्षु. मा.१ म. मि. सं. आहा. साका. सं. अ.
अच. शु. अ. अना. अना.
| MEE
वै.
Page #486
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे लेस्सा-आलाववण्णणं [७९३ चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
तेसिं चेव पञ्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिण्णि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दस जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, वे जोग, पुरिसवेदो, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दब्बेण काउ-सुक्कलेस्साओ, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या; भव्यासद्धिक, अभव्यसिद्धिकः मिथ्यात्व, संज्ञिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं शुक्ललेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर--एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संझी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग, तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं शुक्ललेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने परएक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संक्षी-अपर्याप्त जीवसमास; छंहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संशाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, वैक्रियिकमिश्र और कार्मणकाययोग ये दो योग; पुरुषवेद, चारों कषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और
नं. ४५८ शुक्ललेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप. | गु. जी. प. प्रा.सं.) ग. ई. ) का./ यो. वे. क. बा. । संय. द. ले. (म. स. संहि. आ. | उ. |
सं.प.
।
ति.पं. त्र.म.४
व. ४
अज्ञा. असं. चक्षु. भा. म. मि | सं. आहा. साका.
| अच. शु. अ.]
अमा.
औ.१
Page #487
--------------------------------------------------------------------------
________________
७९४ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. भावेण सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
सुक्कलेस्सा-सासणसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, छ पजत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिषिण गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, बारह जोग, ओरालियमिस्सकायजोगो णस्थि । कारणं, देवमिच्छाइद्वि-सासणसम्माइट्ठीणं तिरिक्ख-मणुस्सेसुप्पज्जमाणाणं अमुणिय-परमत्थाणं तिब्धलोहाणं संकिलेसेण तउ पम्म सुक्कलेस्साओ फिट्टिऊण किण्ह-णील-काउलेस्साणं एगदमा भवदि । सम्माइट्ठीणं पुण मणुस्सेसु चेव उप्पज्जमाणाणं मंदलोहाणं समुणिदपरमत्थाणं अरहंतभयवंतम्हि छिण्ण-जाइ-जरा-मरणम्हि दिण्णबुद्धीणं तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ चिरंत
शुक्ल लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
शुक्ललेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक सासादन गुणस्थान, संशी-पर्याप्त और संज्ञी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिकमिश्र और आहारककाययोगद्विकके विना शेष बारह योग होते हैं। किन्तु यहां पर औदारिकमिश्रकाययोग नहीं होता है । इसका कारण यह है कि, तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्न होनेवाले, परमार्थके अजानकार और तीव्र लोभकषायवाले ऐसे मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि देवोंके मरते समय संक्लेश उत्पन्न हो जानेसे तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं नष्ट होकर कृष्ण, नील और कापोत लेश्यामेंसे यथासंभव कोई एक लेश्या हो जाती है। किन्तु जो मनुष्यों में ही उत्पन्न होनेवाले हैं, मंद लोभकषायवाले हैं, परमार्थके जानकार हैं, और जिन्होंने जन्म, जरा और मरणके नष्ट करनेवाले अरहंत भगवन्तमें अपनी बुद्धिको लगाया है ऐसे सम्यग्दृष्टि देवोंके चिरंतन (पुरानी) तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं मरण करनेके
१ प्रतिषु । छिण्णबुद्धीणं' इति पाठः
नं. ४५९ शुक्ललेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं.का. यो. वे.क./ ज्ञा. । संय. द. ! ले. भ. स. संझि. आ. | उ. । १६.७४ १११२१/४ २ १ २ द्र.२२११२२ देव, पं. . वै. मि. पु. कुम. असं. चक्षु. का. म. मि. सं. आहा. साका. कुश्रु. अच. शु. अ.
अना. अना. मा.१
कामे.
Page #488
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.]
संत-पख्वणाणुयोगद्दारे लेस्सा-आलाववण्णणं गाओ जाव अंतोमुहुत्तं ताव ण णस्संति । तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा।
"तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पजचीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिण्णि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दस जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दसण, दव्वेण छ
अनन्तर अन्तर्मुहूर्त तक नष्ट नहीं होती हैं, इसलिए शुक्ललेश्यावाले मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके औदारिकमिश्रकाययोग नहीं होता है। योग आलापके आगे तीनों घेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या; भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं शुक्ललेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक सासादन गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राणा चारों संज्ञाएं, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग; तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या,
नं. ४६० शुक्ललेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप. | गु.| जी. | प. प्रा. सं. ग. इं.का. यो. | वे. क. शा. संय. द. | ले. भ. स. संजि. आ. | उ. १२६५.२०४|३|१|१।१२ ३ ४ ३ १ २ द्र.६.११ १२ सा.सं.प. अ. ७ .ति. पं. त्र. म. ४) अज्ञा. असं. चक्षु. मा. म. सासा. सं. आहा. साका. | सं.अ.
व.४
अच.शु. औ.१ वै. २ का.१
अना.
नं. ४६१ शुक्ललेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप. । गु.) जी. प. प्रा. सं. ग.) ई. का. यो. | वे. क. झा. । संय. ! द. ले. भ. स. संशि. आ. | उ.
/४/३/१
FIME
सा.सं.प.
३
अज्ञा. असं. चक्षु. मा.१|भसासा. सं. आहा. साका. अच. शु.
अना. ।
Page #489
--------------------------------------------------------------------------
________________
७९१] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दो जोग, पुरिसवेदो, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्येण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
सुक्कलेस्सा-सम्मामिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पञ्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिण्णि गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दस जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाणाणि तीहिं अण्णाणेहिं मिस्साणि, असंजमो, दो दसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया,
भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं शुक्ललेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक सासादन गुणस्थान, एक संक्षी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, वैक्रियिकमिश्र और कार्मणकाययोग ये दो योग, पुरुषवेद, चारों कषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या, भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
शुक्ललेश्यावाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर-एक सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संझी-पर्याप्त जीवसमास,' छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, वसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग; तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अक्षानोंसे मिश्रित आदिके तीन शान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे
..........................................
नं. ४६२ शुक्ललेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. | ग.ई.का. यो. | वे.क. झा. संय.। द. | ले. भ. स. संशि. आ. | उ.
सा.सं.अ.
द.
त्र. वै.मि.
कार्म.
कुम. असं. चक्षु. का. भ. सासा. सं. आहा.साका. कुश्रु. अच. शु. ।
अना. अना. मा.१
Page #490
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-पख्वणाणुयोगदारे लेस्सा-आलाववण्णणं
[७९७ सम्मामिच्छत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
सुक्कलेस्सा-असंजदसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिण्णि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, तेरह जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिणि णाण, असंजमो, तिण्णि दसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
शुक्ललेश्या; भव्यसिद्धिक, सम्यग्मिथ्यात्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अना. कारोपयोगी होते हैं।
शुक्ललेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, संक्षी-पर्याप्त और संज्ञी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, आहारककाययोगद्विकके विना शेष तेरह योग, तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या; भव्यसिद्धिक, औपशमिक आदि तीन सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारका साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं. ४६३ शुक्ललेश्यावाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप. । गु. । जी. प. प्रा. सं.ग. इं का.। यो..वे. क. ज्ञा. संय. द. | ले. म. स. संक्षि.| आ.
उ.
सम्य.सं.प.
ति. पं.त्र.म.४
nmore
| अज्ञा. असं. चक्षु. भा. भ. सम्य. सं. आहा. साका. अच. शुक्ल.
अना.
ज्ञान.
मित्र.
नं. ४६४ । गु. (जी.
शुक्ललेझ्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप. प. प्रा. सं. ग. ई.का. यो. . क.सा. संय. द. | ले. म. स. संलि. आ.
उ.
अवि. सं.प. ६अ. ७
सं.अ.
ति . पं. त्र.आ.द्वि.
Fri
विना.
मति. असं.के.द. मा.१ भ. औप. | सं. आहा. साका. | भुत. विना. शुक्ल. क्षा. अना. अना.
क्षायो.
अव.
Page #491
--------------------------------------------------------------------------
________________
छक्खडागमे जीवाणं
[१, १. तेसिं चे पज्जत्ताणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिण्णि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दस जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजमो, तिणि दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जचीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, देव-मणुसगदि त्ति दो गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, तिण्णि जोग, पुरिसवेदो, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजमो, तिण्णि दसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं,
उन्हीं शुक्ललेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग, तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या; भव्यसिद्धिक, औपशमिक आदि तीन सम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं शुक्ललेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संझी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगति और मनुष्यगति ये दो गतियां, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मणकाययोग ये तीन योग; पुरुषवेद, चारों कषाय, आदिके तीन शान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या भव्यसिद्धिक, औपशमिक आदि तीन सम्यक्त्व, संशिक, आहारक, अनाहारक;
नं. ४६५ शुक्ललेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप. । गु. बी. प. प्रा. सं.) ग.ई.)का. यो. वे. क. झा. | संय. द. | ले. | म. स. |संशि. आ.| उ. |
अवि. सं.प.
ति.प. त्र.
मति. असे. के. द. भा. १ भ. | औप. | सं. आहा. साका. श्रुत. विना. शुक्ल.
अमा. क्षायो.
FF
अव.
Page #492
--------------------------------------------------------------------------
________________
१,१.]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे लेस्सा-आकाववण्णण
सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा " ।
४६६
सुक्कलेस्सा-संजदासंजदाणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणद्वाणं, एओ जीवसमासो, छत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, दो गदीओ, पंचिदियजादी, तसकाओ, णव जोग, तिष्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, संजमासंजमो, तिण्णि दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुकजुत्ता वा 1
४६७
सुक्कलेस्सा-पत्तसंजदाणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, छ
साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
शुकुलेश्यावाले संयतासंयत जीवोंके आलाप कहने पर - एक देशसंयत गुणस्थान, एक संज्ञी - पर्याप्त जीवसमास, छद्दों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति और मनुष्यगति ये दो गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, संयमासंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या; भव्यसिद्धिक, औपशमिक आदि तीन सम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
शुक्ललेश्यावाले प्रमत्तसंयत जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर - एक प्रमत्तसंयत गुण
नं. ४६६
गु.
जी.प.प्रा.सं. ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ७ ४ २ अवि. सं.अ. अ.
१
१
१ १
३
१ ४
दे. पं. त्र. औ.मि. पु.
म.
वै. मि. कार्म.
नं. ४६७
शुक्ललेश्यावाले असंयत सम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप.
ले.
स.
भ. १ ३ ३ १ ३ १ द्र. २ मति. असं. के. द. का. भ. औप. सं. श्रुत. विना शु. क्षा. भा. १ क्षायो
अघ.
शुक्र.
.गु.
1
देश. सं. प.
जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा.
शुक्ललेश्यावाले संयतासंयत जीवोंके आलाप. संय. द. ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ. १ ३ द्र. ६ १ ३ मति. देश. के. द भा. १ भ. औप सं. आहा. साका. ( श्रुत. विना शुक्ल
१ ६ १० ४
१ १
२
२ १ १ ९ ३ ४ ३ ति. पं. त्र. म. ४
व. ४
अना.
औ.
क्षा. क्षायो.
( अव.
[ ७९९
म.
संज्ञि. आ.
उ
२
२
आहा. साका. अना. अना.
Page #493
--------------------------------------------------------------------------
________________
८००] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, चत्तारि णाण, तिण्णि संजम, तिणि दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा ८ ।
सुक्कलेस्सा-अपमत्तसंजदाणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणद्वाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, तिण्णि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव
..........
स्थान, संक्षी-पर्याप्त और संज्ञी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; चारों संक्षाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग, आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोग ये ग्यारह योग तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके चार ज्ञान, सामायिक, छेदोपस्थापना और परिहारविशुद्धि ये तीन संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या; भव्यसिद्धिक, औपशमिक आदि तीन सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
. शक्ललेश्यावाले अप्रमत्तसंयत जीवोंके आलाप कहने पर-एक अप्रमत्तसंयत गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, आहारसंशाके विना शेष तीन संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग
नं.४६८
शुक्ललेश्यावाले प्रमत्तसंयत जीवोंके आलाप. | गु. । जी. । प. प्रा.सं. ग. ई.का. यो. वे. क. सा. संय. द. | ले. भ. | स. सलि.| आ. | उ. |
१ २ ६५.१०४|१११११ ३४ ४ ३ ३ द्र.६१ ३ ११२ प्रम. सं. प. ६अ. म. पं. त्र. म. ४ मति. सामा. के.द.भा.१ भ. औप. सं. आहा. साका. सं. अ. श्रुत. छेदो. विना. शुक्ल. क्षा.
अना. औ.१ अव. परि.
क्षायो आ.२
मनः,
नं.४६९
शुक्ललेश्यावाले अप्रमत्तसंयत जीवोंके आलाप. गु. जी.प. प्रा. सं. ग. |इं. का. यो. | वे. ( क. झा. | संय. | द. | ले. | म. स. संक्षि. आ. | उ. | ||१६१० ३१/१/१ ९ ३ | ४ | ४ | ३ ३ द्र. ६ १ ३ १ १ २ भय. म. पं.त्र. म. ४
मति. सामा. के.द.भा. भ. औप. | सं. आहा. साका. श्रुत.. छेदो. विना.शुक्ल. क्षा.
अना. औ. १ अव. परि.
क्षायो. मनः
सं. प.
Page #494
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-पख्वणाणुयोगदारे भविय-आलाववण्णणं
[८०१ जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, चत्तारि णाण, तिण्णि संजम, तिण्णि दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
अपुव्ययरणप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ओघ-भंगो; तेसु सुक्कलेस्सा-वदिरित्तण्णलेस्साभावादो । अलेस्साणं अजोगि-सिद्धाणं ओघ-भंगो चेव ।
एवं लेस्सामग्गणा समत्ता । भवियाणुवादेण भवसिद्धियाणं भण्णमाणे मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ओघ-भंगो । णवरि भवसिद्धिया त्ति वत्तव्वं ।
अभवसिद्धियाणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, चोद्दस जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ पंच पज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ चत्तारि पज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण णव पाण सत्त पाण अट्ठ पाण छ पाण सत्त पाण पंच पाण छ पाण चत्तारि पाण चत्तारि पाण तिण्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, पंच जादीओ, छ काय, तेरह जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, और औदारिककाययोग ये नौ योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके चार ज्ञान, सामायिक, छेदोपस्थापना और परिहारविशुद्धि ये तीन संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या; भव्यसिद्धिक, औपशमिक आदि तीन सम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं। ___अपूर्वकरण गुणस्थानसे लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तकके शुक्ललेश्यावाले जीवोंके आलाप ओघ आलापके समान ही होते हैं, क्योंकि, इन गुणस्थानों में शुक्ललेश्याको छोड़कर अन्य लेश्याओंका अभाव है।
. लेश्यारहित अयोगिकेवली और सिद्ध जीवोंके आलाप ओघ आलापोंके ही समान होते हैं।
इस प्रकार लेश्यामार्गणा समाप्त हुई। भव्यमार्गणाके अनुवादसे भव्यसिद्धिक जीवोंके आलाप कहने पर मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तकके आलाप ओघ आलापोंके समान होते हैं। विशेष बात यह है कि भव्य आलाप कहते समय एक भव्यसिद्धिक आलाप ही कहना चाहिए।
अभव्यसिद्धिक जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, चौदहों जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां पांच पर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां; चार पर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; नौ प्राण, सात प्राण; आठ प्राण, छ प्राण; सात प्राण, पांच प्राण; छ प्राण, चार प्राण; चार प्राण और तीन प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पांचों जातियां, छहों काय, आहारककाययोगद्विकके विना शेष तेरह योग, तीनों घेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे
Page #495
--------------------------------------------------------------------------
________________
८०२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. असंजमो, दो दंसण, दव्य-भावेहिं छ लेस्साओ, अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चे पज्जत्ताण भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, सत्त जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ पंच पज्जत्तीओ चत्तारि पज्जत्तीओ, दस पाण णव पाण अट्ठ पाण सत्त पाण छ पाण चत्तारि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, पंच जादीओ, छ काय, दस जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिणि अण्णाण, असंजमो, दो सण, दव्व-भावहिं छ लेस्साओ, अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो असणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा"।
छहों लेश्याएं, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संक्षिक, असंशिक; आहारक, अनाहारक; साका. रोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं अभव्यसिद्धिक जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, सात पर्याप्त जीवसमास; छहों पर्याप्तियां, पांच पर्याप्तियां, चार पर्याप्तियां; दशों प्राण, नौ प्राण, आठ प्राण, सात प्राण, छह प्राण, चार प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पांचों जातियां, छहों काय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग; तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संशिक, असंक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं. ४७०
अभव्यसिद्धिक जीवोंके सामान्य आलाप. गु. जी. प. प्रा. | सं. ग.| ई. का. यो. वे. क. झा. | संय. द. ले. भ. स.संझि. आ. उ. । ११४६५. १०,७४/४५६ / १३ ३ ४ ३ १ २ द्र.६ १.१२ २ २
| आ.द्वि. अक्षा. असं. चक्षु. मा. ६ अ. मि. सं. आहा. साका. विना.
असं. अना. अना.
मि.
६अ.
९
अच.
90)
.
नं. ४७१
अभव्यसिद्धिक जीवोंके पर्याप्त आलाप, । गु. जी. प. प्रा. | सं. ग. इ.)का.। योः । वे. क. बा. संय. | द.ल. म. स. संहि. आ. ) उ. | मि. पर्या. ५ ९ ।
म. ४ अज्ञा. असं. चिक्षु. भा. ६ अ. मि. सं. आहा. साका.
अच.
असं.
अना.
Page #496
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-पख्वणाणुयोगद्दारे सम्मत्त-आलाववण्णणं
[८.१ तेसिं चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, सत्त जीवसमासा, छ अपज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण छ पाण पंच पाण चत्तारि पाण तिणि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, पंच जादीओ, छ काय, तिण्णि जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्येण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण छ लेस्साओ; अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो असणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा। णेव-भवसिद्धिय-णेव-अभवसिद्धियाणमोघ-भंगो।
एवं भवियमग्गणा समत्ता। सम्मत्ताणुवादेण सम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एगारह गुणहाणाणि अदीदगुणट्ठाणं पि अत्थि, वे जीवसमासा अदीदजीवसमासा वि अस्थि, छ पजत्तीओ छ
उन्हीं अभव्यसिद्धिक जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्याडष्टि गुणस्थान, सात अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां; सात प्राण, सात प्राण, छह प्राण, पांच प्राण, चार प्राण, तीन प्राण; चारों संक्षाएं, चारों गतियां, पांचों जातियां, छहों काय, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र, और कार्मणकाययोग ये तीन योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे छहों लेश्याएं; अभव्यसिद्धिक, मिथ्यात्व, संक्षिक, असंक्षिक; आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
भव्यसिद्धिक और अभव्यसिद्धिक विकल्पोंसे रहित सिद्ध जीवोंके आलाप ओघ आलापके समान जानना चाहिए।
___ इसप्रकार भव्यमार्गणा समाप्त हुई। सम्यक्त्वमार्गणाके अनुवादसे सम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थानतक ग्यारह गुणस्थान तथा अतीतगुणस्थान भी है, संशी-पर्याप्त और संशी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास तथा अतीतजीवसमास.
.........
नं. ४७२
अभव्यसिद्धिक जीवोंके अपर्याप्त आलाप. गु. जी. प. प्रा.
. ई.का./ यो. वे. ! क. ला. संय. द. ले. म. स. सहि. | आ.। २।७६अ./७४ ४ ५ ६ ३ ३ ४ २ १२ द्र.२११२ | २
| औ.मि. कुम. असं. चक्षु. का. अ. मि. सं. आहा. साका. वै.मि. कुश्रु. अच. शु. असं..अना. कार्म
भा.६
2 'ble
५अ.
m
Page #497
--------------------------------------------------------------------------
________________
८०४] छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[१,१. अपज्जतीओ अदीदपज्जत्ती वि अत्थि, दस पाण सत्त पाण चत्तारि दो एक पाण अदीदपाणा वि अस्थि, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अत्थि, चत्तारि गदीओ सिद्धगदी वि अस्थि, पंचिंदियजादी अणिदियत्तं पि अत्थि, तसकाओ अकायत्तं पि अस्थि, पण्णारह जोग अजोगो वि अस्थि, तिणि वेद अवगदवेदो वि अस्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अत्थि, पंच णाण, सत्त संजम व संजमो णेव असंजमो णेव संजमा. संजमो वि अस्थि, चत्तारि सण, दव-भावेहिं छ लेस्साओ अलेस्सा वि अत्थि, भवसिद्धिया णेव भवसिद्धिया णेव अभवसिद्धिया वि अत्थि, तिण्णि सम्मत्तं, सणिणो णेव सण्णिणो णेव असण्णिणो वि अस्थि, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा सागार-अणागारहिं जुगवदुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एगारह गुणट्ठाणाणि, एगो जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस चत्तारि दो एक्क पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अस्थि, स्थान भी है, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां और अतीतपर्याप्तिस्थान भी है, दशों प्राण, सात प्राण, चार प्राण, दो प्राण, एक प्राण तथा अतीतप्राणस्थान भी है। चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंशास्थान भी है, चारों गतियां तथा सिद्धगति भी है, पंचन्द्रियजाति तथा अनिन्द्रियत्वस्थान भी है, उसकाय तथा अकायत्वस्थान भी है, पन्द्रहों योग तथा अयोगस्थान भी है, तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है, चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है, पांचों शान, सातों संयम तथा संयम, असंयम और संयमासंयमसे रहित भी स्थान है, चारों दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं तथा अलेश्यास्थान भी है, भव्यासिद्धिक तथा भव्यासिद्धिक और अभव्यसिद्धिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी स्थान है, औपशमिक आदि तीन सम्यक्त्व, संक्षिक तथा संशिक और असंक्षिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी स्थान है, आहारक, अनाहारक; साकारोपयागी और अनाकारोपयोगी तथा साकार और अनाकार इन दोनों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त भी होते हैं।
___ उन्हीं सम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर--अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थानतक ग्यारह गुणस्थान, एक संझी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दश, चार, दो और एक प्राण; चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंज्ञास्थान भी है, चारों नं.४७३
सम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप. । गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इ. का. यो.
म. स. संशि. आ. उ. | ११अवि.२ सं.प. ६५.१० से. अयो. सं.अ. अ. ४.
|सं. आहा. साका. अनु. अना. अना.
अती.प्रा.....
क्षीणसं.. सिद्धग. 4 अनीन्द्रि...
how the
अयोग.
अकषा.
अनुभ . 0
अश्या अनुभ.
क्षायो.
तथा.
Page #498
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.]
संत-पखवणाणुयोगदारे सम्मत्त-बालावषण्णणं 'चत्तारि गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, वेउव्वियमिस्सेण विणा चोदह जोग अहवा एगारह जोग अजोगो वि अस्थि, तिणि वेद अवगदवेदो वि अस्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अस्थि, पंच गाण, सत्त संजम, चत्तारि सण, दव्व-भावहिं छ लेस्साओ अलेस्सा वि अस्थि, भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सण्णिणो णेव सणिणो णेव असणिणो वि अत्थि, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा सागारअणागारेहिं जुगवदुवजुत्ता वा"।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि तिण्णि गुणहाणाणि, एगो जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण दो पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अस्थि, चचारि
गतियां, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, वैक्रियिकमिश्रकाययोग के विना चौदह योग अथवा तीनों मिश्र योग और कार्मणकाययोगके विना शेष ग्यारह योग तथा अयोगस्थान भी है। तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है, चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है, पांचों शान, सातों संयम, चारों दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं तथा अलेश्यास्थान भी है, भव्यसिद्धिक, औपशमिक आदि तीन सम्यक्त्व, सीक्षक तथा संशिक और असंशिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी स्थान है, माहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी तथा साकार और अनाकार इन दोनों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त भी होते हैं।
विशेषार्थ-छठवें गुणस्थानकी आहारकसमुद्धात अवस्थामें और तेरहवें गुणस्थानकी केवलिसमुद्धात अवस्थामें पर्याप्तताके स्वीकार कर लेनेपर आहारकमिश्र, औदारिकमिश्र और कार्मणकाय ये तीन योग पर्याप्त अवस्थामें भी बन जाते हैं। इसीप्रकार सयोगकेवलीके दो प्राणों के संबन्धमें भी समझ लेना चाहिए।
___ उन्हीं सम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-अविरतसम्यग्दृष्टि प्रमत्तसंयत और सयोगिकेवली ये तीन गुणस्थान; एक संक्षी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण दो प्राण: चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंज्ञास्थान भी है, चारों गतियां, पंचेन्द्रिय
नं.४७४
सम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप. । ग. | जी. | प.प्रा.सं.ग. | ई. का. यो. |वे.क.सा. | संय. द. ले. म. स. | संक्षि. आ. | उ.,
११६१०४|४|११ १४ ||५७४द्र. ६१ अवि. सं.प. त्र. वै. मि.
भा.भ. औप. सं. आहा.साका. विना.
क्षा. अनु. अना. अना. अयो. अथवा
क्षायो. ११म.४
यु.उ. व.४ औ.१
क्षीणसं.
अपग. अकषा.
अलेश्य.
तथा.
आ
Page #499
--------------------------------------------------------------------------
________________
..... छक्खंडागमे जीवाणं
[१, १. गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, चत्तारि जोग, इत्थिवेदेण विणा दो वेद अवगदवेदो वि. अत्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अत्थि, चत्तारि णाण, चत्तारि संजम, चत्तारि दसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सण्णिणो अणुभया वा, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा तदुभएण वा ।
उवरि असंजदसम्माइट्टिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ताव मूलोघ-भंगो; तेसिं सम्वेसिं सम्मत्तसंभवादो।
जाति, प्रसकाय, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र, आहारकमिश्र और कार्मणकाययोग ये चार योग, स्त्रीवेदके विना शेष दो वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है, चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है, मति, श्रुत, अवधि और केवलज्ञान ये चार शान, असंयम, सामायिक, छेदोपस्थापना और यथाख्यातविहारशुद्धिसंयम ये चार संयम; चारों दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे छहों लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, औपशमिक आदि तीन सम्यक्त्व, संक्षिक तथा संक्षिक और असंज्ञिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी तथा साकार और अनाकार इन दोनों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त भी होते हैं।
विशेषार्थ-यहांपर सम्यक्त्वमार्गणाके अपर्याप्त आलाप बतलाते हुए भावसे छहों लेश्याएं बतलाई गई हैं, और गोमट्टसार जीवकाण्डके आलापाधिकारमें सम्यक्त्वमार्गणाके अपर्याप्त आलाप बतलाते हुए एक कापोत और तीन शुभ इसप्रकार चार लेश्याएं ही बतलाई हैं। परंतु गोमट्टसारमें ऐसा कथन क्यों किया यह कुछ समझमें नहीं आता, क्योंकि, आगे उसीमें वेदकसम्यक्त्वके अपर्याप्त आलाप बतलाते हुए छहों लेश्याएं कहीं गई हैं। संभव है यह लिपिकारकी भूल है जो बराबर यहां तक चली आई है। अस्तु, धवलाका कथन ठीक प्रतीत होता है।
ऊपर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि जीवोंके आलाप मूल ओघालापके समान होते हैं, क्योंकि, उन सभी गुणस्थानवी जीवोंके सम्यक्त्व पाया जाता है।
नं. ४७५
सम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप. । गु. जी. प. प्रा. सं.ग.। इं.का. यो. वे. । क.. शा. । संय. द. | ले. भ. | स. संक्षि. आ.| उ. |
|६अ./
"
अवि.सं.अ. प्रम. सयो
क्षीणसं.
औ.मि.पु.
अकषा.
मति. असं.
सामा. अब. छेदो. केव. यथा.
आ.मि. कार्म.
Elehle
का. भ. औपसं. आहा. साका.
| क्षा. अनु. अना. अना. भा.६ क्षायो.
तथा. यु. उ.
Page #500
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगदारे सम्मत-आलाववण्णणं
___ खइयसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एगारह गुणहाणाणि अदीदगुणहाणं पि अत्थि, दो जीवसमासा अदीदजीवप्तमासा वि अत्थि, छ पजतीओ छ अपज्जचीओ अदीदपज्जत्ती वि अस्थि, दस पाण सत्त पाण चत्तारि दो एक पाण अदीदपाणो वि अस्थि, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अत्थि, चत्तारि गईओ सिद्धगई वि अत्थि, पंचिंदियजादी अणिदियत्तं पि अत्थि, तसकाओ अकायत्तं पि अस्थि, पण्णारह जोग अजोगो वि अत्थि, तिण्णि वेद अवगदवेदो वि अत्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अत्थि, पंच णाण, सत्त संजम णेव संजमो व असंजमो णेव संजमासंजमो वि अस्थि, चत्तारि सण, दव्व-भावेहि छ लेस्साओ अलेस्सा वि अस्थि, भवसिद्धिया णेव भवसिद्धिया णेव अभवसिद्धिया वि अत्थि, खइयसम्मत्तं, सणिणो णेव सणिणो णेव असणिणो वि अस्थि, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुबजुत्ता वा सागार-अणागारेहिं जुगवदुवजुत्ता वा।
क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थानतक ग्यारह गुणस्थान तथा अतीतगुणस्थान भी होता है, संझीपर्याप्त और संशी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास तथा अतीतजीवसमासस्थान भी है, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां तथा अतीतपर्याप्तिस्थान भी है, दशों प्राण, सात प्राण, चार प्राण, दो प्राण और एक प्राण तथा अतीतप्राणस्थान भी है, चारों संशाएं तथा क्षीणसंज्ञास्थान भी है, चारों गतियां तथा सिद्धगति भी है, पंचन्द्रियजाति तथा अनिन्द्रियस्थान भी है, त्रस. काय तथा अकायस्थान भी है, पन्द्रहों योग तथा अयोगस्थान भी है, तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है, चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है, पांचों शान, सातों संयम तथा संयम, असंयम और संयमासंयमसे रहित भी स्थान है, चारों दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं तथा अलेश्यास्थान भी है, भव्यसिद्धिक तथा भव्यसिद्धिक और अभव्यसिद्धिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी स्थान है, क्षायिकसम्यक्त्व, संक्षिक तथा संशिक और असंशिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी स्थान है, आहारक, अनाहारका साकारोपयोगी और मनाकारोपयोगी तथा साकार और अनाकार इन दोनों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त मी होते हैं। नं. ४७६
क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप. गु। जी. प. प्रा. स. ग. ई. का. यो. । वे. क. झा. | संय. द. ले. भ. स.संहि. आ. , उ.। ११२६प.१० अवि. पं.प. अ.
मति. अनु. मा. ६ म. क्षा. सं. आहा. साका. ___ अले.
अनु. अना. अना.
तथा. यु.उ.
क्षीणसं.. सिद्धग. अनीन्द्रि.:अती.प्रा.
अयोग.
अपग. अकषा..
- 'hlele
अनु.
अती. प. अती. जी.
अव.
Page #501
--------------------------------------------------------------------------
________________
૮૮]
छक्खडागमे जीवद्वाणं
[ १,१.
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एगारह गुणट्ठाणाणि, एओ जीवसमासो, छ पज्जतीओ, दस चत्तारि एग पाण, चचारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अस्थि, चत्तारि गईओ, पंचिदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग अजोगो वि अस्थि, तिण्णि वेद अवगदवेदो वि अस्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अस्थि, पंच णाण, सत्त संजम, चत्तारि दंसण, दव्व-भावेहिं छ लेस्साओ अलेस्सा वि अत्थि, भवसिद्धिया, खइयसम्मतं, सणिणो णेव सष्णिणो णेव असण्णिणो वि अत्थि, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा सागार - अणागारेहिं जुगवदुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि तिण्णि गुणट्ठाणाणि, एओ जीवसमासो, छ अपजत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अस्थि, चत्तारि गईओ, पंचिदियजादी, तसकाओ, चत्तारि जोग, इत्थिवेदेण विणा देो वेद अवगदवेदो वि अत्थि,
उन्हीं क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - अविरत - सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक ग्यारह गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जविसमास, छद्दों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चार प्राण और एक प्राण: चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंज्ञास्थान भी है, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, पर्याप्तकालसंबन्धी ग्यारह योग तथा अयोगस्थान भी है, तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है, चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है, पांचों सम्यग्ज्ञान, सातों संयम, चारों दर्शन, द्रव्य और भाव से छद्दों लेश्याएं तथा अलेश्यास्थान भी है, भव्यसिद्धिक, क्षायिकसम्यक्त्व, संज्ञिक तथा संज्ञिक और असंशिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी स्थान है, आहारक, अनाहरकः साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी तथा साकार और अनाकार इन दोनों उपयोगों से युगपत् उपयुक्त भी होते हैं।
उन्हीं क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर -अविरतसम्यग्दृष्टि, प्रमत्तसंयत और सयोगिकेवली ये तीन गुणस्थान, एक संशी अपर्याप्त जीवसमास, छद्दों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं तथा क्षीण संज्ञास्थान भी है चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, जसकाय, अपर्याप्तकालसंबन्धी चारों योग, स्त्रीवेदके विना शेष दो वेद तथा
नं. ४७७
गु. जी | प. प्रा.सं.) ग. ई. का. यो. ११म ४
११ १ ६ | १० | ४ ४ १ १ अवि. सं. प.
पं. त्र.
व. ४
औ. १
से. अयो.
वै. १
आ. १
क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप.
वे.] क. ज्ञा. संय. द. ३ ४ ५ मात. ७
४
श्रुत
अव.
मनः.
कत्र
ले. भ. स. संशि- आ.
द्र. ६ १ १ १ भा. ६ म. क्षा. अले.
उ.
२ २ सं. आहा. साका. अनु. अना.
अमा.
तथा.
यु : उ
Page #502
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.]
संत-पखवणाणुयोगद्दारे सम्मत्त-आलावषण्णणं चत्वारि कसाय अकसाओ वि अत्थि, चत्तारि णाण, चत्तारि संजम, चत्तारि दसण, दब्वेण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण जहण्णकाउ-तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ भवसिद्धिया, खइयसम्मत्तं, सण्णिणो अणुभया वा, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा तदुभएण वा"।
"खइयसम्माइट्ठीणं असंजदाणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणहाणं, दो जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्वारि सण्णाओ, चत्वारि गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, तेरह जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असं
अपगतवेदस्थान भी है, चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है,मति,श्रुत, अवधि और केवल. शान ये चार शान; असंयम, सामायिक छेदोपस्थापना और यथाख्यातविहारशुद्धिसंयम ये चार संयम; चारों दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे जघन्य कापोत, तेज, पन्न और शुक्ल लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, क्षायिकसम्यक्त्व, संज्ञिक तथा अनुभयस्थान, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी तथा साकार और अनाकार इन दोनों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त भी होते हैं।
क्षायिकसम्यग्दृष्टि असंयत जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, संझी-पर्याप्त और संक्षी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; चारों संक्षाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय,
शानि
नं. ४७८
क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप. | गु. जी. प. प्रा./सं. ग. इंका । यो.वे. क. झा.। संय.। द. ले. म. स. संक्षि. आ. | उ.
४ ११ ४ |२|४| ४ | ४४ द्र २ का. ११२ । २ पं.. औ.मि. पु... मति असं. शु. भा.४ म. क्षा. सं. आहा. साका.
श्रुत सामा. का. तेज. अनु.अना. अना, आ.मि. "!अव. छेदो. | पद्म.
तथा |कार्मक
केत्र. पारे । शुक्ल.
सं. अ.
क्षीणसं.
अकषा.
नं. ४७९ क्षायिकसम्यग्दृष्टि असंयत जीवोंके सामान्य आलाप. । गु. । जी. प. प्रा. सं./ ग.ई. का. यो. वे. क. बा. संय. द. ले. म. स. सं शि| आ. उ. । १२ प.१०४|४११३ ३ ४ ३१३ द्र. ६ १ २२ अवि.सं.प अ. ७ । पं. त्र. आ.द्वि मति असं. के.द. मा. ६ म. क्षा. सं. आहा.साका. सं.अ.
विना. विना.
अना- अना.
Page #503
--------------------------------------------------------------------------
________________
८१०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. जमो, तिण्णि दसण, दव्व-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, खइयसम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
तेसिं चेव पञ्जचाणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पजतीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दस जोग, तिणि वेद, चत्वारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजमो, तिण्णि दसण, दव्व-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, खइयसम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुचा वा।
आहारककाययोगदिकके विना शेष तेरह योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन वर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, क्षायिकसम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं क्षायिकसम्यग्दृष्टि असंयत जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संक्षाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, बसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग; तीनों वेद चारों कषाय, आदिके तीन शान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, क्षायिकसम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं. ४८० क्षायिकसम्यग्दृष्टि असंयत जीवोंके पर्याप्त आलाप. |गु. | जी. प. प्रा. सं./ ग.ई. का. यो. वेक. सा. संय. द. | ले. । म. स. संशि. आ. उ.
६१०४|४|१ ११०म.४३ ४ ३ १ ३ द्र.६१ १ १ १ अवि. सं.प.
मति. असं. के. द. मा.६ म.क्षा. सं. आहा.साका.
| विना. अव..
A
अस.
नं. ४८१
क्षायिकसम्यग्दृष्टि असंयत जीवोंके अपर्याप्त आलाप.
गु.जी.प.प्रा.सं ग.
4.
.का.
सं.अ.-1
TRA
पं.
यो. वे.क. सा. |संय. द. ले. म. स. | संशि. आ. उ. ।
३ । १३ द्र२ का.११ १२२ । औ.मि. पु. | पति. असं.के द. शु. भा.४ म. क्षा. सं. आहा. साका. वै.मि. न. श्रत. विना.का. तेज.
अना. अना. कार्म. अब.
पद्म. शुक्ल.
Page #504
--------------------------------------------------------------------------
________________
१,१. ]
संत- परूवणाणुयोगद्दारे सम्मत्त आलाववण्णणं
[ ८११
तेसिं चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, पंचिदियजादी, तसकाओ, तिणि जोग, इत्थवेदेण विणा दो वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजमो, तिण्णि दंसण, दव्वेण काउ- सुक्कलेस्सा, भावेण जहण्णकाउ-तेउ पम्म सुक्कलेस्साओ; भवसिद्धिया, खइयसम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
खइयसम्माइट्ठीणं संजदासंजदाणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एगो जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, तिष्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, संजमासंजमो, तिण्णि दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण तेउ-पम्म- सुक्कलेस्साओ; भवसिद्धिया, खइयसम्मतं,
उन्हीं क्षायिकसम्यग्दृष्टि असंयत जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी अपर्याप्त जीवसमास, छद्दों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मणका योग ये तीन योग; स्त्रीवेदके विना शेष दो वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे जघन्य कापोत, तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं: भव्यसिद्धिक, क्षायिकसम्यक्त्व, संशिक, आहारक, अनाहारक) साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
क्षायिकसम्यग्दृष्टि संयतासंयत जीवोंके आलाप कहने पर - एक देशविरत गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छद्दों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग, तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, सयमासंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, क्षायिकसम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक,
नं. ४८१
गु.
१ १ अवि. सं. अ. अ.
ले. भ. स. संज्ञि. आ.
उ.
जी. प. प्रा. सं.ग.) इं. का. यो. वे.] क.) शा. संय. द. ४ १ १ ३ २ ४
દ ७
३
१ ३
२
पं. त्र. औ.मि. पु.
द्र. २ १ १ १ २ मति. असं. के. द. का.शु. भ. क्षा. सं. आहा. साका. श्रुत. विना. भा. ४ अना. अना.
वै.मि. न. कार्म.
अव.
क्षायिकसम्यग्दृष्टि असंयत जीवोंके अपर्याप्त आलाप.
का. तेज.
पद्म.
शुक्र.
Page #505
--------------------------------------------------------------------------
________________
८१२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१,१. सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
खइयसम्माइट्ठीणं पमत्तसंजदप्पहुडि सिद्धावसाणाणं मूलोघ-भंगो। णवरि सव्वत्थ खइयसम्मत्तं चेव वत्तव्यं ।
___ वेदगसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि चत्तारि गुणट्ठाणाणि, दो जीवसमासा, छ पज्जसीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, पण्णारह जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, चत्तारि णाण, पंच संजम, तिण्णि दसण, दन्व-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, वेदगसम्मत्तं,
साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर सिद्ध जीवों तकके प्रत्येक स्थानवर्ती क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके आलाप मूल ओघ आलापके समान होते हैं। विशेष बात यह है कि सम्यक्त्व आलाप कहते समय सर्वत्र एक क्षायिकसम्यक्त्व ही कहना चाहिए।
वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थानतक चार गुणस्थान, संज्ञी-पर्याप्त और संज्ञी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां दशों प्राण, सात प्राण; चारों संशाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, पन्द्रहों योग, तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके चार ज्ञान, असंयम, देशसंयम, सामायिक, छेदोपस्थापना और परिहारविशुद्धि ये पांच संयम, आदिके
नं. ४८२
क्षायिकसम्यग्दृष्टि संयतासंयत जीवोंके आलाप. य. जी.प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. | वे. | क. | झा. | संय. | द. | ले. भ. | स. संलि. आ. | उ. |
सं. प.
मति. देश.के.द.भा.३/म. | क्षा. श्रुत.! विना. शुभ.
सं. आहा.साका.
अना.
अव.
नं.४८३
वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप. |गु. जी. प. प्रा.सं. ग. ई.का. यो. वे.क./ ज्ञा. संय. द. | ले. भ. स. सलि. आ. | उ. | ४२ ६५.१०४|४|१११५ ३ ४ ४ ५ ३ द्र.६११ २ २ अवि.सं. प.६अ.७ पं.त्र.
| मति असं. के.द.भा.म. क्षायो | सं. आहा. साका. से. सं. अ.
श्रुत. देश. विना.
अना. अना. अप्र.
अव. सामा. मनः छेदो.
परि.
--
Page #506
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगदारे सम्मत्त-आलाववण्णणं [८१३ सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुखजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि चत्तारि गुणट्ठाणाणि, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, चत्तारि णाण, पंच संजम, तिणि दंसण, दव्व-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, वेदगसम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुखजुत्ता वा" ।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि दो गुणहाणाणि, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ; देवगदि-मणुसगदी । कदकरणिज्ज वेदगसम्माइहिं पडुच्च णिरय-तिरिक्खगईओ लभंति। पंचिंदियजादी, तसकाओ,
तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, वेदकसम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-अविरतलम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तकके चार गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, पर्याप्तकालभावी ग्यारह योग, तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके चार ज्ञान, असंयम देशसंयम, सामायिक, छेदोपस्थापना और परिहारविशुद्धि ये पांच संयम; आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, वेदकसम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-अविरतसम्यग्दृष्टि और प्रमत्तसंयत ये दो गुणस्थान, एक संझी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, चारों गतियां होती हैं, क्योंकि, वेदकसम्यग्दृष्टिके अपर्याप्तकालमें देवगति और मनुष्यगति तो पाई ही जाती हैं, किन्तु कृतकृत्य वेदकसम्यग्दृष्टिकी अपेक्षासे नरकगति और तिर्यचगति भी पाई जाती हैं। पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, अपर्याप्तकालभावी चार
नं. ४८४
वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप. । गु. जी. प. प्रा. सं. ग.| ई. का. यो. वे. क. झा. | संय. द. । ले. [म. स. संझि.] आ. | उ. |४१६१०/४/४|१|१, ११ ३ ४ ४ - ५। ३ द्र.६/११ ११ २ अवि. पं. न. म.४ | मति. असं.के. द. मा.६ भ. क्षायो- सं. आहा. साका. श्रुत. देश. विना.
अना. औ.१
अव. सामा. मनः. छेदो.
परि.
से.
Page #507
--------------------------------------------------------------------------
________________
८१४ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, १.
चत्तारि जोग, इत्थवेदेण विणा दो वेद, चत्तारि कसाय, तिष्णि णाण, तिण्णि संजम, तिण्णि दंसण, दव्वेण काउ- सुक्कलेस्साओ, भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया, वेदगसम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
४८५
वेद सम्माइट्टि - असंजदाणं भण्णमाणे अस्थि एयं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, छ पजत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, पंचिदियजादी, तसकाओ, तेरह जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिष्णि णाण, असंजमो, तिण्णि दंसण, दव्व-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, वेदगसम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा " ।
योग, स्त्रीवेद के विना शेष दो वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, सामायिक और छेदोपस्थापना ये तीन संयमः आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे छहों लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, वेदकसम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
वेदकसम्यग्दृष्टि असंयत जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर - एक अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान, संज्ञी-पर्याप्त और संज्ञी अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छद्दों अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राणः चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, आहारककाययोगद्विकके विना शेष तेरह योग, तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, संज्ञिक, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, वेदकसम्यक्त्व, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
नं. ४८५
वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप.
ग. इं. का. यो. (वे. क.
संय. द. ले.
ज्ञा. ३
गु. जी. प. प्रा. सं. १ १ ४ ६अ. ७ पं. त्र. औ. मि. पु.
४
४
३
२
२ ४
३
' अवि. सं.अ.
वै.मि. न. आ.मि. कार्म
मति. असं. के. द. त. सामा. विना. अव. छेदो.
प्रम.
नं. ४८६
वेदकसम्यग्दृष्टि असंयत जीवोंके सामान्य आलाप.
वे. क. ज्ञा.
प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो.
संय | द.
ले. भ. स. संज्ञि. आ.
गु. जी.
उ. २
१ ३
३
३ ४
१
१
Photos ie coloreness
२
१ २
६५. १० ४ ४ अबि. सं.प. ६अ. ७
व्र. ६ १ मति. असं. के. द. मा.६ भ. क्षायो. सं. आहा. साका.
विना.
सं.अ.
अना. अना.
भुत. अव.
१
१३ पं. त्र. आ.द्वि.
विना.
संज्ञि. | आ. उ. २ २
१
भ. स. द्र.२ १ का. भ. क्षायो, सं. आहा. साका. शु. अना. अना. मा. ६)
Page #508
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे सम्मत्त-आलाववण्णणं [ ८१५ तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पञ्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्वारि गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दस जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजमो, तिण्णि सण, दव्व-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, वेदगसम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
४ तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, तिण्णि जोग, दो वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजमो, तिण्णि दंसण, दव्वेण
उन्हीं वेदकसम्यग्दृष्टि असंयत जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति. त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन शान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, वेदकसम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं वेदकसम्यग्दृष्टि असंयत जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहनेपर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संझी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मणकाययोग ये तीन योग; पुरुष और नपुंसक ये दो वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान,
.......................
नं. ४८७ वेदकसम्यग्दृष्टि असंयत जीवोंके पर्याप्त आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग.| इं.का. यो. । वे. क. सा. संय. द. ले. म. स. | संझि. आ.| उ. । |११६१०४४/१११० ३ ४ ३ ३ द्र.६ ११ ११२ अवि. सं.प. प.त्र. म.४ मति. असं. के. द. भा. ६ म. क्षायो. सं. आहा. साका. श्रुत. विना.
अना.
अव.
नं. ४८८ वेदकसम्यग्दृष्टि असंयत जीवोंके अपर्याप्त आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग.ई. का. यो. वे. क. बा. संय. द. | ले. भ. | स. संझि. आ. | उ. | | ११६ ७४४१२ ३ ४ ३ १ ३ द.२|११ |१ २ २ अवि. सं.अ. अ.
पं. त्र. औ.मि. पु. मति. असं. के. द. का. म. क्षायो सं. आहा. साका. वै. मि.न. विना. शु.
अना. अना. कार्म.
भा.६
श्रुत.
अव.
Page #509
--------------------------------------------------------------------------
________________
८१६ ] छक्खंडागमे जीवहाणं
[१, १. काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया, वेदगसम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
__वेदगसम्माइटि-संजदासंजदाणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, दो गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिणि णाण, संजमासंजमो, तिणि दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ; भवसिद्धिया, वेदगसम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा ।
वेदगसम्माइटि-पमत्तसंजदाणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा छ पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, चत्तारि णाण,
असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे छहों लेश्याएं: भव्यसिद्धिक, वेदकसम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
__ वेदकसम्यग्दृष्टि संयतासंयत जीवोंके आलाप कहने पर-एक देशविरत गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवलमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति और मनुष्य गति ये दो गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, संयमासंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, वेदकसम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
वेदकसम्यग्दृष्टि प्रमत्तसंयत जीवोंके आलाप कहने पर-एक प्रमत्तसंयत गुणस्थान, संक्षी-पर्याप्त और संक्षी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग, आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोग ये ग्यारह योग;
नं. ४८९
वेदकसम्यग्दृष्टि संयतासंयत जीवोंके आलाप. । गु. । जी. । प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. वे. क.सा. संय. द. ले. । म. स. संझि.! आ. | उ. । ११ ६ १०४/२/११ ९ ३ ४ ३ १ ३ द्र. ६ ११११२ देश. सं.प.
मति. देश. के.द. मा. ३ म. क्षायो. सं. आहा.साका. विना. शुभ.
अना. औ. १ अव.
ति. पं. त्र. म.४
खुत.
Page #510
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगदारे सम्मत्त-आलाववण्णणं .
[ ८१७ तिणि संजम, तिण्णि दंसण, दव्वेण छ लेस्सा, भावेण तिण्णि सुहलेस्साओ; भवसिद्धिया, वेदगसम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
वेदगसम्माइट्ठि-अप्पमत्तसंजदाणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, तिण्णि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, चत्तारि णाण, तिण्णि संजम, तिणि दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण तिणि सुहलेस्साओ; भवसिद्धिया, वेदगसम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा"।
तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके चार ज्ञान, सामायिक आदि तीन संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तीन शुभ लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, वेदकसम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
वेदकसम्यग्दृष्टि अप्रमत्तसंयत जीवोंके आलाप कहने पर-एक अप्रमत्तसंयत गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, आहारसंशाके विना शेष तीन संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये ना योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके चार ज्ञान, सामायिक आदि तीन संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तीन शुभ लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, वेदकसम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
..........
नं. ४९०
वेदकसम्यग्दृष्टि प्रमत्तसंयत जीवोंके आलाप.
इं.का. यो. वे. क. शा. संय. द. ले. भ. स. सवि. आ. उ. २२६प. १०४|१११ ११ ३ ४ ४ । ३ । ३ द्र.६११११२
सं.प.६अ.७ म. .. म.४ मति. सामा. के.द. भा. ३ भ. क्षायो. सं. आहा. साका. सं.अ. श्रुत. छेदो. विना. शुभ.
अना. औ. १ अव. परि. आ.२
मनः
पचे..
नं. ४९१
वेदकसम्यदृष्टि अप्रमत्तंसयत जीवोंके आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ह. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द.। ले. भ. स. संहि. आ. उ. ।
पंचे. - वस. -18
२
अप्र. सं.प.
मय
व.४
मति- सामा. के.द. भा. ३ म.क्षायो. सं. आहा. साका, श्रुत. छेदो. विना. शुभ.
अना. अव. परि.
औ.१
Page #511
--------------------------------------------------------------------------
________________
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, १.
उaeमसम्माट्ठी भण्णमाणे अत्थि अट्ठ गुणड्डाणाणि, दो जीवसमासा, छ पजत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ उवसंत परिग्गहसण्णा वि अस्थि, चत्तारि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, ओरालियमिस्स आहार - आहारमिस्सेहि विणा बारह जोग, तिणि वेद अवगदवेदो वि अस्थि, चत्तारि कसाय उवसंतकसाओ व अस्थि, चत्तारि णाण, परिहारसंजमेण विणा छ संजम, तिण्णि दंसण, दव्वभावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, उवसमसम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
८१८ ]
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अस्थि अट्ठ गुणहाणाणि, एओ जीवसमासो, छ पज्जतीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ उवसंतपरिग्गहसण्णा वि अस्थि, चारि गदीओ, पंचिदियजादी, तसकाओ, दस जोग, तिष्णि वेद अवगदवेदो वि अस्थि, चत्तारि
उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर - अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर उपशान्तकषाय गुणस्थानतक आठ गुणस्थान, संज्ञी-पर्याप्त और संज्ञी अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छद्दों अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं तथा उपशान्तपरिग्रहसंज्ञा भी है, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिकमिश्रकाययोग आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोग इन तीन योगोंके विना शेष बारह योग, तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है, चारों कषाय तथा उपशान्तकषायस्थान भी है, आदिके चार ज्ञान, परिहारविशुद्धिसंयमके विना शेष छह संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, औपशमिक सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
उन्हीं उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - अवितसम्यदृष्टि गुणस्थान से लेकर उपशान्तकषाय गुणस्थानतक आठ गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं तथा उपशान्तपरिग्रहसंज्ञा भी है, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योगः तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है, चारों कषाय तथा
नं. ४९२
गु. | जी. | प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय द. ४ ६ ३
१२
૮ २ ६५. १० ४ ४ १ १ पं. त्र. म. ४
३ ४ परि. के. द. मा. ६ म. ओप. सं. आहा. साका.
अवि. सं. प ६अ ७
मति.
से. सं.अ.
श्रुत. विना. विना.
अना. अना.
उप.
अव.
मनः.
उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप.
每
ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ.
द्र. ६ १ १
१ २
२
Page #512
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.]
संत-परवणाणुयोगद्दारे सम्मत्त-आलावषण्णणं [ ८१९ कसाय उवसंतकसाओ वि अत्थि, चत्तारि णाण, छ संजम, तिण्णि देसण, दव्व-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, उवसमसम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ अपजत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दो जोग, पुरिसवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजमो, तिण्णि दंसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण तिपिण सुहलेस्साओ, भवसिद्धिया, उवसमसम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा"।
उपशान्तकषायस्थान भी है, आदिके चार शान, परिहारविशुद्धिसंयमके विना शेष छह संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक; औपशमिकसम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक अधिरतसम्यग्दृष्टि गणस्थान, एक संश्री-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण.चारी संशाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये नों योगः पुरुषवेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत
और शुक्ल लेश्याएं, भावसे तेज, पद्म और शुक्ल ये तीन शुभ लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, औपशमिकसम्यक्त्य, संशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं. ४९३
उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. वे. क. सा. संय. द. ले. म. स. संलि. | आ.। उ.
म. ४
सं.प.
उप. सं.
'lable
उप. क. Page #513
--------------------------------------------------------------------------
________________
छक्खंडागमे जीवाणं
[ १,१.
उवसमसम्माइट्ठि - असंजदाणं भण्णमाणे अत्थि एय गुणट्ठाणं, वे जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जतीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, पंचिदियजादी, तसकाओ, बारह जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिष्णि णाण, असंजमो, तिणि दंसण, दव्व-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, उवसमसम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ४९५ ।
८२० ]
सिं चेव पत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पत्रओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, पंचिदियजादी, तसकाओ, दस
उपशमसम्यग्दृष्टि असंयत जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर - एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, संज्ञी-पर्याप्त और संज्ञी अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग, वैक्रियिककाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये बारह योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, औपशमिकसम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
उन्हीं उपशमसम्यग्दृष्टि असंयत जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिक
नं. ४९५
गु. जी.
प. प्रा. सं. ग. इं. का. ६प १० ४ ४ १ १ अवि. सं. प. ६अ | ७ सं. अ.
१ २
पं. त्र.
नं. ४९६ गु. 1 जी.
१ १
अवि. सं. प.
उपशमसम्यग्दृष्टि असंयत जीवोंके सामान्य आलाप.
ले. भ. स. संज्ञि आ. उ.
१ २ २
१२ ३ ४ ३ म. ४
यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ३ द्र. ६ १ १ मति. असं. के. द. भा. ६ म. औप. सं. आहा. साका. विना. अना. अमा.
व. ४
ओ. १
वै. २
का. १
प. प्रा. सं. ग. इं. का. ६ १० | ४ * १ १
श्रुत.
अव.
उपशमसम्यग्दृष्टि असंयत जीवोंके पर्याप्त आलाप.
यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. १ ३ द्र. ६१ १
१० म. ४ ३ ૪ ३ व. ४
मति. असं. के. द. विना.
श्रुत.
अव.
संज्ञि. आ.
उ.
१ १ २
मा. ६ भ. औप सं. आहा. साका.
अना.
Page #514
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे सम्मत्त-आलाववण्णणं
[८२१ जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजमो, तिण्णि दसण, दव-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, उवसमसम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुखजुत्ता होंति अणागारुखजुत्ता वा।
तेसिं चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, देवगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दो जोग, पुरिसवेदो, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजमो, तिण्णि दसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण तिण्णि सुहलेस्साओ; भवसिद्धिया, उवसमसम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
उवसमसम्माइट्ठि-संजदासंजदाणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, चत्वारि सण्णाओ, दो गदीओ, पंचिंदियजादी,
काययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, औपशमिकसम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
उन्हीं उपशमसम्यग्दृष्टि असंयत जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने परएक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संक्षी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अंपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, पुरुषवेद, चारों कषाय, आदिके तीन शान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे तेज, पद्म और शुक्ल ये तीन शुभ लेश्याएं; भव्य. सिद्धिक, औपशमिकसम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अना. कारोपयोगी होते हैं।
उपशमसम्यग्दृष्टि संयतासंयत जीवोंके आलाप कहने पर-एक देशसंयत गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संशाएं, तिर्यंचगति और मनुष्यगति ये दो गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और
नं. ४९७ उपशमसम्यग्दृष्टि असंयत जीवोंके अपर्याप्त आलाप. | गु.जी. प. प्रा. सं. ग. | ई. का. यो. वे.' क. झा. | संयः । द. ले. (म. स. | संनि.| आ. उ. । अ. दे. पं. त्र. वै.मि. पु. मति. | असं. के. द. का. म. औप. सं. आहा. साका. कामें. । श्रत. विना. शु.
अना. अना. अव.
अवि. - सं.अ.0
भा.३ शुभ.
.
Page #515
--------------------------------------------------------------------------
________________
८२२] छक्खंडागमे जीवहाणं
[१,१ तसकाओ, णव जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, संजमासंजमो, तिण्णि दसण, दब्वेण छ लेस्साओ, भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ; भवसिद्धिया, उवसमसम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा" ।
उवसमसम्माइट्ठि-पमत्तसंजदाणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, चत्तारि णाण, मणपज्जवणाणेण सह उवसमसेढीदो ओयरिय पमत्तगुणं पडिवण्णस्स उवसमसम्मत्तेण सह मणपज्जवणाणं लब्भदि, ण मिच्छत्तपच्छागद-उवसमसम्माइट्ठि-पमत्तसंजदस्स; तत्थुप्पत्ति-संभवाभावादो । दो संजम, परिहारसंजमो णत्थि । कारणं, ण ताव मिच्छत्तपच्छागद-उवसमसम्माइट्ठि-संजदा
औदारिककाययोग ये नौ योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन शान, संयमासंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, औपशमिकसम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उपशमसम्यग्दृष्टि प्रमत्तसंयत जीवोंके आलाप कहने पर-एक प्रमत्तसंयत गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संशाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियः जाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, और औदारिककाययोग थे नौ योग; तीनों घेद, चारों कषाय, आदिके चार ज्ञान होते हैं। उपशमसम्यग्दृष्टिके मनःपर्ययज्ञा । होता है इसका कारण यह है कि मनःपर्ययज्ञानके साथ उपशमश्रेणीसे उतरकर प्रमत्तसंयत गुणस्थानको प्राप्त हुए जीवके औपशमिकसम्यक्त्वके साथ मनःपर्ययज्ञान पाया जाता है। किन्तु, मिथ्यात्वसे पीछे आये हुए उपशमसम्यग्दृष्टि प्रमत्तसंयत जीवके मनःपर्ययज्ञान नहीं पाया जाता है। क्योंकि, प्रथमोशमसम्यग्दृष्टि प्रमत्तसंयतके मनःपर्ययज्ञानकी उत्पत्ति संभव नहीं है। ज्ञान आलापके आगे सामायिक, और छेदोपस्थापना ये दो संयम होते हैं, किन्तु परिहारविशुद्धिसंयम नहीं होता है। इसका कारण यह है कि, मिथ्यात्वसे पीछे आये हुए प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टि संयत जीव तो परिहारविशुद्धिसंयमको प्राप्त होते नहीं है, क्योंकि, सर्वोत्कृष्ट भी
नं. ४९८
उपशमसम्यग्दृष्टि संयतासंयत जीवोंके आलाप.. | गु. जी. प. प्रा.सं.) ग. ई. का. यो. वे. क. झा. | संय. द. | ले. भ. स. संझि. आ. | उ. |
देश.सं.प.
पं.त्र.
म.४
व.४
| मति. देश. के. द. मा.३ भ. औप. सं. आहा. साका.
विना. शुम. अव.
अना.
Page #516
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगहारे सम्मत्त-आलाववण्णणं
[८२३ परिहारसंजमं पडिवज्जति; अइट्ठ-उवसमसम्मत्तकालभतरे तदुप्पत्तिणिमित्तगुणाणं संभवाभावादो । णो उवसमसेढिं चढमाणा; तत्थ पुव्वमेवमंतोमुहुत्तमत्थि ति उवसंहरिदविहारादो । ण तत्तो ओदिण्णाणं पि तस्स संभवो; णटे उवसमसम्मत्तेण विहारस्सासंभवादो । तिण्णि दंसण, दव्वेण छ लेस्सा, भावेण तिण्णि सुहलेस्साओ; भवसिद्धिया, उवसमसम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
___उवसमसम्माइट्ठि-अप्पमत्तसंजदाणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, तिण्णि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, चत्तारि णाण, दो संजम, परिहारसंजमो
प्रथमोपशमसम्यक्त्वकालके भीतर परिहारविशुद्धिसंयमकी उत्पत्तिके निमित्तभूत विशिष्टसंयम, तीर्थकर-चरणमूल-वसति, प्रत्याख्यानपूर्व-महार्णवपठन आदि गुणोंके होनेकी संभावनाका अभाव है। और न उपशमश्रेणीपर चढ़नेवाले द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके भी परिहारविशुद्धिसंयमकी संभावना है। क्योंकि, उपशमश्रेणिपर चढ़नेके पूर्व ही जब अन्तर्मुहूर्तकाल शेष रहता है तभी परिहारविशुद्धिसंयमी अपने गमनागमनादि विहारको उपसंहरित अर्थात् संकुचित या बन्द कर लेता है। और उपशमश्रेणीसे उतरे हुए भी द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि संयत जीवोंके परिहारविशुद्धिसंयमकी संभावना नहीं है। क्योंकि, श्रेणि चढ़नेके पूर्व में ही परिहारविशुद्धिसंयमके नष्ट हो जानेपर उपशमसम्यक्त्वके साथ परिहारविशुद्धिसंयमीका विहार संभव नहीं है। संयम आलापके आगे आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं भावसे तीन शुभ लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, औपशमिकसम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उपशमसम्यग्दृष्टि अप्रमत्तसंयत जीवोंके आलाप कहने पर-एक अप्रमत्तसंयत गुणस्थान, एक संझी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, आहारसंशाके विना शेष तीन संशाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके चार ज्ञान, सामायिक और छेदोपस्थापना ये दो संयम होते हैं, किन्तु, परिहारविशुद्धिसंयम नहीं होता है। नं. ४९९
उपशमसम्यग्दृष्टि प्रमत्तसंयत जीवोंके आलाप. । गु. जी. प. प्रा. ग. ग.) ई. का. यो. वे. क. ना. । संय. द. ले. म. स. संशि. आ. , उ..
११०४|१११ प्रम. सं.प. म. पं. त्र.
मति. सामा. के.द. मा. ३ भ. औप. | सं. आहा. साका. श्रुत. छेदो. विना. शुभ
अना. अव.
मनः,
Page #517
--------------------------------------------------------------------------
________________
८२.] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. णत्थि । उत्तं च
मणपजवपरिहारा उवसमसम्मत्त दोण्णि आहारा ।
एदेसु एक्कपयदे णत्थि त्ति य सेसयं जाणे ॥ २२९ ॥ तिणि दंसण, दव्वेण छ लेस्सा, भावेण तिण्णि सुहलेस्साओ; भवसिद्धिया, उवसमसम्मतं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
कहा भी है
___ मनःपर्ययज्ञान, परिहारविशुद्धिसंयम, प्रथमोपशमसम्यक्त्व, आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोग इनसे किसी एकके प्रकृत होनेपर शेषके आलाप नहीं होते हैं। ऐसा जानना चाहिए ॥ २२९ ॥
विशेषार्थ- गोमट्टसार जीवकाण्डमें भी यही गाथा पाई जाती है; परंतु उसमें 'उवसमसम्मत्त ' के स्थानमें 'पढमुवसम्मत्त' पाठ पाया जाता है जो संगत प्रतीत होता है; क्योंकि, प्रथमोपशमसम्यक्त्वके साथ मनःपर्ययज्ञान, परिहारविशुद्धिसंयम और आहारद्विक इन सबके होनेका विरोध है औपशमिकसम्यक्त्वके साथ नहीं। यद्यपि औपशमिकसम्यक्त्वके साथ परिहाराविशुद्धिसंयम और आहारद्विक नहीं होते हैं फिर भी द्वितीयोपशमसम्यक्त्वकी अपेक्षा औपशमिकसम्यक्त्वके साथ मनःपर्ययज्ञानका होना संभव है, इसलिये गाथामें 'उवसमसम्मत्त' ऐसा सामान्य पद रखनेसे औपशमिकसम्यक्त्वके साथ भी मनःपर्ययज्ञानके होनेका निषेध हो जाता है जो आगम विरुद्ध है। तो भी ‘उवसमसम्मत्त' पदका अर्थ प्रथमोपशमसम्यक्त्व कर लेने पर कोई दोष नहीं आता है यही समझकर पाठमें परिवर्तन नहीं किया है।
संयम आलापके आगे आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तीन शुभ लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, औपशमिकसम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
१ मणपज्जव परिहारो पटमुवसम्मत्त दोणि आहारा । एदेसु एकपगदे णत्थि त्ति असेसयं जाणे ॥
गो. जी. ७२९. नं. ५०० उपशमसम्यग्दृष्टि अप्रमत्तसंयत जीवोंके आलाप. । गु.जी..प्रा. सं. ग. इ.का. यो. | वे. क. सा. संय. | द. ल. म. स. । संजि. आ. उ. ।
आहा.म.पं.त्र.
म. ४
विना.
अना.
मति. सामा. के.द.मा.३ म. औप. सं. आहा. साका. शुत. छेदो. विना. शुभ. । अव. मनः.
Page #518
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १. ]
संत - परूवणाणुयोगद्दारे सण आलाववण्णणं
[ ८२५
अपुव्यरण पडुडि जाव उवसंतकसाओ त्ति ताव ओघ भंगो | णवरि सव्वत्थ उवसमसम्मत्तं भाणियव्वं ।
मिच्छत्त सासणसम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं ओघ मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि-सम्मामिच्छाइट्ठि-भंगो ।
एवं सम्मत्तमग्गणा समत्ता ।
पाण्णपदे अवलंबिज्जमाणे सव्वाणुवादाणं मूलोघ-भंगो होदि; तत्थ सव्ववियप - संभवादो | गुणणामे अवलंबिज्जमाणे ण होदि । पाधण्णपदे अणवलंबिज्जमाणे असं जमादीणं कथं गहणं ? णः वदिरेगमुहेण संजमादि-परूवणङ्कं तप्परूवणादो । तेण दोण व वक्खाणाणि अविरुद्धाणि । एसत्थो सव्वत्थ वतव्वो ।
सणियाणुवादेण सण्णीणं भण्णमाणे अत्थि बारह गुणट्ठाणाणि, दो जीवसमासा, छ पज्जतीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि
उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपूर्वकरण गुणस्थान से लेकर उपशान्तकषाय गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीवोंके आलाप ओघ आलापके समान होते हैं । विशेष बात यह है कि सम्यक्त्व आलाप कहते समय सर्वत्र उपशमसम्वत्व ही कहना चाहिए ।
मिथ्यात्व, सासादन सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के आलाप क्रमशः मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानके आलापोंके समान जानना चाहिए । इसप्रकार सम्यक्त्वमार्गणा समाप्त हुई ।
प्राधान्य पदके अवलंबन करनेपर सभी अनुवादोंके आलाप मूल ओघालापके समान होते हैं; क्योंकि, मूल ओघालाप में विधि प्रतिषेधरूप सभी विकल्प संभव हैं । किन्तु गौणनामपदके अवलंबन करनेपर सभी विकल्प संभव नहीं हैं; क्योंकि, इस नामपदकी दृष्टिसे गुणनाम भंगों के ही आलाप कहे जायेंगे, दूसरोंके नहीं ।
शंका- तो फिर प्राधान्यपदके अवलंबन नहीं करनेपर संयमादिके प्रतिपक्षी असंयमादिका ग्रहण कैसे किया जा सकता है ?
-
समाधान – नहीं; क्योंकि, व्यतिरेकद्वारसे संयमादि विकल्पोंकी प्ररूपणाके लिए ही असंयमादि विपक्षी विकल्पोंकी प्ररूपणा की जाती है; तभी विवक्षित मार्गणाद्वारा समस्त जीवोंका मार्गण हो सकता है, अन्यथा नहीं । इसलिए संयमादि अन्वयरूप और असंयमादि व्यतिरेकरूप दोनों ही व्याख्यान अविरुद्ध हैं । यही अर्थ सभी मार्गणाओंके विषयमें कहना चाहिए ।
संज्ञी मार्गणा के अनुवादसे संक्षी जीवोंके आलाप कहने पर - आदिके बारह गुणस्थान, संक्षी-पर्याप्त और संशी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छद्दों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां: दशों प्राण, सात प्राण, चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंज्ञास्थान भी है, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति,
Page #519
--------------------------------------------------------------------------
________________
८२६] छक्खंडागमे जीवहाणं
[१, १. अत्थि, चत्तारि गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, पण्णारह जोग, तिणि वेद अवगदवेदो वि अत्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अस्थि, सत्त णाण, सत्त संजम, तिण्णि दंसण, दव्व-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि बारह गुणट्ठाणाणि, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अत्थि, चत्तारि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, तिण्णि वेद अवगदवेदो वि अत्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अत्थि, सत्त णाण, सत्त संजम, तिणि दंसण, दव्व-भावेहिं छ
प्रसकाय, पन्द्रहों योग, तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है, चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है, केवलज्ञानके विना शेष सात शान, सातों संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक अभव्यसिद्धिक, छहों सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारका साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
___ उन्हीं संशी जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-आदिके बारह गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंज्ञास्थान भी है, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, पर्याप्तकालसंबन्धी ग्यारह योग, तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है, चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है, केवलज्ञानके विना शेष सात ज्ञान, सातों संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक,
नं. ५०१
संझी जीवोंके सामान्य आलाप.
| गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इ. का. यो. वे.क. सा. संय. द. | ले. म. स. संनि. आ. | उ. । १२ २ ६५. १० ४ ४|११ १५ ३/४७ ७ ३ द्र.६/२६ १ २ २ मि. सं.प. अ. ७
. केव. के.द. भा.६ म. सं. आहा. साका. से. सं.अ.
विना. विना.
अना. अना.
क्षीणसं.
अकषा.
नं. ५०२
संक्षी जीवोंके पर्याप्त आलाप. गु. | जी. प.प्रा.सं.)ग-1 ई. का. यो. वे क.सा. [ संय. द. ले. भ. स. | सनि. आ. | उ. । १२।१।६/१०४|४|११११म.४३७ ७ ३ द. ६:
२६११ मि. सं.प. ... पं. त्र. व.४ ।
के.द.भा.भ. सं. आहा. साका विना|
अना.
अपग.
केव.
क्षीणसं.
अकषा.
विना.
आ.१
Page #520
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगदारे सण्णि-आलाववण्णणं
[८२. लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुषा होति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि चत्तारि गुणट्ठाणाणि, एगो जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, चत्तारि जोग, तिग्णि वेद, चत्तारि कसाय, पंच णाण, तिणि संजम, तिण्णि दसण, दव्येण काउ-सुक्कलेस्सा, भावेश छ लेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, पंच सम्मत, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुषजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
सण्णि-मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, तेरह जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिणि अण्णाण,
अभव्यसिद्धिक, छहों सम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं संज्ञी जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि और प्रमत्तस्यत ये चार गुणस्थान, एक संझी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण. चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजानि, प्रसकाय, अपर्याप्तकाल संबन्धी चार योग, तीनों वेद, चारों कषाय, कुमति, कुश्रुत, और आदिके तीन ज्ञान ये पांच ज्ञान; असंयम, सामायिक और छेदोपस्थापना ये तीन संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे छहों लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिखिका सम्यग्मिथ्यात्वके विना शेष पांच सम्यक्त्व, संशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
संज्ञी मिथ्यादृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, संक्षी पर्याप्त और संज्ञी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां: दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, आहारककाययोग
नं.५०३
संक्षी जीवोंके अपर्याप्त आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं ग । ई का। यो. वे. | क. झा. | संय. द. ले. म. स. संजि. आ. ) .. ४ १६.४४२४ ३/४५ कुम. ३३ द्र.२२
कुशु. असं के.द. का. म. सम्य.
मति सामा. विना. शु. अविना. अना. अना.
आ.मि. |श्रत छेदो. प्रमः।
कार्म.
अव.
आहा. साका.
सासा
अवि.
Page #521
--------------------------------------------------------------------------
________________
८२८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. असंजमो, दो दंसण, दव्व-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पजचीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दस जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिणि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्व-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा।
द्विकके विना शेष तेरह योग, तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक; अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारका साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं संज्ञी मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यारष्टि गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संशाएं, चारों गतियां, पंचन्द्रियजाति, प्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग; तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिका मिथ्यात्व, संक्षिक, माहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं.५०४
संधी मिथ्यादृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप. |गु. जी. प. प्रा.सं. | ग. ई.का. यो. वे.[क.] झा. संय.| द. | ले. म. स. सशि. आ. | उ. | |१२ ६५.१०४|४|११| १३ | ३४ ३ १ २ द्र. ६२ १ १ २ २ मि. सं. प. ६अ.७ पं. . आ.द्वि. अज्ञा. असं. चक्षु. मा.६ म. मि. सं. आहा. साका. सं.अ.
अना.| अना.
विना.
अ.
नं. ५०५
संशी मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इ.का. यो. वे. क. बा. | संय. द. । ले. म. स. |संशि. आ.
उ.
| मि.
पं. न. म.४/
अज्ञा. असं. चक्षु. भा.भ. | मि. | सं. आहा. साका. अच.
अना.
Page #522
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.]
संत-पख्वणाणुयोगदारे सण्णि-आलाववण्णणं [ ८२९ तेसिं चेव अपज्जत्ताण भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, तिणि जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दब्वेण काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
५ (सण्णि'-) सासणसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणहाणं, दो जीवसमासा, छ पञ्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्वारि सण्णाओ, चत्वारि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, तेरह जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण,
उन्हीं संशी मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संक्षी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संबा, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मणकाययोग ये तीन योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रब्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे छहों लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिका मिथ्यात्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
संझी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक सासादन गुणस्थान, संशी-पर्याप्त और संक्षी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां वंशों प्राण, सात प्राण; चारों संशाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, आहारककाययोग
१ प्रतिष्वत्रान्यत्र कोष्ठकान्तर्गतपाठो नास्तीति नेयम् । नं. ५०६
संझी मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप. गु. जी. प. प्रा.सं. | ग.इं.का. यो. वे.क. सा. संय. द. ले. म. स. संझि. आ. | उ. ।
३४२ १२ द्र.२/२१।१।२।२। पं. त्र. औ.मि. कुम. असं. चक्षु. का. म. मि. सं. आहा. साका.
अना. अना. कार्म.
मा.६
मि. सं.अ.
वै.मि.
नं. ५०७ संझी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप. गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई.का. यो. वे. क. सा.। संय. द. | ले. म. स. (संक्षि. आ. | 8.
सा.सं.प.अ.
|
पं. त्र. आ.द्वि.
| बिना.
अज्ञा. असं. चक्षु. भा.म. सासा. सं. आहा. साका.
अना. अना.
अच.
-
Page #523
--------------------------------------------------------------------------
________________
८३०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. असंजमो, दो दमण, दव-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुखजुत्ता होंति अणागारुखजुत्ता वा ।
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दस जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दसण, दव्वभावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता हॉति अणागारुवजुत्ता वा।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सपणाओ, तिण्णि गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, तिणि जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दसण, दव्वेण
द्विक विना शेष तेरह योग, तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं संक्षी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक सासादन गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमाल. छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, अलकायचारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग; तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावले छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, सासादनसम्परत्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं संझी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकाल संबन्धी आलाप कहने पर-एक सासादन गुणस्थान, एक संजी-अपर्याप्त जीवतमाल, छह अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संक्षाएं, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मणकाययोग ये तीन योग, तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके दो अज्ञान,
नं. ५०८ संज्ञी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप. । गु. जी, /प. प्रा. सं. ग.) ई.) का | यो. । वे | क. | ज्ञा. । संय. | द. ले. । म | स. संज्ञि. | आ. | उ. | | ११६१०४|४|११० | ३ | ४ ३ । । २ द्र. ६ | 11 १ | १२ सा.सं.प. पं. त्र. म. ४ अज्ञा. अस. चक्षु भा.६ म. मासा. सं. आहा. साका.
अना. औ.
व.४
अच.
Page #524
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे सण्णि-आलाववण्णणं [ ८३१ काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुखजुत्ता वा ।
( सण्णि-)सम्मामिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाग, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दस जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिणि णाणाणि तीहि अण्णाणेहि मिस्साणि, असंजमो, दो दमण, दव्य-भावहिं छ लेस्साओ, मवसिद्धिया, सम्मामिच्छत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
असंयम, आदि के दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे छहों लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संशिक, आहारक, अनाहारका साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
संशी सम्यग्मिथ्याटष्टि जीवों के आलाप कहने पर-एक सम्यग्मिथ्यापि गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, चागे गतियां, पंचेन्द्रियजाति, बसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग; तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञानोंसे मिश्रित आदिके तीन ज्ञान, असंयम, अदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावले छहों लेश्याएं भव्यसिद्धिक, सम्यग्मिथ्यात्या, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
नं. ५०१ संज्ञी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलांप. । गु । जी. प. प्रा. मं. ग.) ई का.| यो. । वे. क. ज्ञा. संय.। द. | ले. भ. स. संज्ञि | आ. उ., सा, . अ. अ पं . व. ओ.मि कम. असं. चक्षु. | का. भ. सासा | सं. आहा. साका. कुश्रु. अच. शु.
अना अना. काम.
भा.६
वै.मि.
नं. ५१०
संशी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप.
गु
। जी.
प.प्रा.
इं.का.
यो.
सम्य सं.प.
वे.क.शा. संय. द. ले. म. स. संज्ञि. आ.उ.
। १ । २ ज्ञान. असं चक्षु. भा.६ म. सम्य. सं. आहा- साका. अच.
अना. अज्ञा. मिश्र
आ.
.
Page #525
--------------------------------------------------------------------------
________________
८३२] छक्खंडागमे जीवहाणं
[१, १. (सण्णि-) असंजदसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाण, दो जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपजत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, तेरह जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिणि णाण, असंजमो, तिणि दंसण, दव-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुखजुत्ता वा" ।
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ,
..........................................
संक्षी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, संशी-पर्याप्त और संशी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां दशो प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, आहारककाययोगद्विकके विना शेष तेरह योग, तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन शान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, औपशमिकसम्यक्त्व आदि तीन सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं संक्षी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिक
........
नं. ५११
संशी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप. । गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इ. का. यो. वे. क. शा. संय. द. । ले. भ. स. संलि. आ. उ. | |१| २ प. १०/४|४ |११३ ३ ४ ३ | १ | ३ | द्र.६१३१ २ अवि. सं.प. ६अ. ७ पं. त्र. आ.द्वि. मति. असं. के.द.मा.६ भ. औप. | सं. आहा. साका. सं.अ.
विना.
भुत. विना.
अना. अना. अव.
क्षायो.
नं. ५१२ संशी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई.)का. यो. _। वे.क. (झा. | संय. द. | ले. भ. स. संहि. आ.| उ. ।
अवि. सं.प.
प. त्र. म. ४
व.४
मति. असं. के. द. भा. ६ म. औप. सं. आहा. साका. विना.
अना. अव.
क्षायो.
| क्षा.
Page #526
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे सण्णि-आलाववण्णणं
[८३३ दस जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजमो, तिण्णि दसण, दव्वभावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ अपञ्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, तिण्णि जोग, दो वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजमो, तिण्णि सण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा।
संजदासजदप्पहुडि जाव खीणकसाओ त्ति ताव मूलोघ-भंगो।
...........................................
काययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन शान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, औपशमिक आदि तीन सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
____ उन्हीं संक्षी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मणकाययोग ये तीन योग, पुरुषवेद और नपुंसकवेद ये दो वेद, चारों कषाय, आदिके तीन शान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे छहों लेश्याएं भव्यसिद्धिक, औपशमिकसम्यक्त्व आदि तीन सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
__ संयतासंयत गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थानतकके संझी जीवोंके आलाप मूल ओघ आलापोंके समान होते हैं।
..........................................
नं. ५१३ संशी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप. | गु. | जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. | वे.क. सा. संय. द. | ले. भ. स. संक्षि. आ.
उ. |
अवि. सं.अ.अ.
पं. त्र. औ.मि. पु.
वै.मि.न. कार्म
मति. असं. के. द. का. भ. औप. सं. आहा. साका. विना.सु.
अना. अना. अव.
क्षायो
क्षा.
Page #527
--------------------------------------------------------------------------
________________
८३४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. असण्णीणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, बारह जीवसमासा, पंच पज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ चत्तारि पज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, णव पाण सत्त पाण अट्ठ पाण छ पाण सत्त पाण पंच पाण छ पाण चत्तारि पाण चत्तारि पाण तिणि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, पंच जादीओ, छ काय, चत्तारि जोग अच्चमोमवचिजोगो ओरालिय-ओरालियमिस्सकायजोगा कम्मइयकायजोगो चेदि, तिष्णि वेद, चत्तारि कसाय, विभंगणाणेण विणा दो अण्णाण, असंजमो, दो सण, दव्वेण छ लेस्सा, भावण किण्ह-णील-काउलेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा।
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, छ जीवसमासा, पंच पज्जत्तीओ चत्तारि पज्जत्तीओ, णव पाण अट्ठ पाण सत्त पाण छ पाण चत्तारि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, पंच जादी, छ काय, दो जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि
असंशी जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, संक्षी-पर्याप्त और संज्ञी-अपर्याप्तके विना शेष बारह जीवसमास, पांच पर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां; चार पर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां; नौ प्राण, सात प्राण; आठ प्राण, छह प्राण; सात प्राण, पांच प्राण; छह प्राण, चार प्राण; चार प्राण, तीन प्राण; चारों संज्ञाएं, तिथंचगति, पांचों जातियां, छहों काय, असत्यमृषावचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिकमिथकाययोग और कार्मण. काययोग ये चार योगः तीनों वेद, चारों कषाय, विभंगावधिज्ञानके विना शेष दो अज्ञान, अंसंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, असंज्ञिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं असंशी जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, सात पर्याप्त जीवसपासों में से एक संशी-पर्याप्तके विना शेष छह पर्याप्त जीवसमास, पांच पर्याप्तियां, चार पर्याप्तियां नौ प्राण, आठ प्राण, सात प्रण, छह प्राण, चार प्राण; चारों संशाएं, तिर्यंचगति, पांवों जातियां, छहों काय, अनुभयवचनयोग, और औदारिककाययोग ये
नं.५१४
असंझी जीवोंके सामान्य आलाप. ग. इं.का. यो. वे. क. ज्ञा। संय द. | ले.
1. जी.
प.
प्रा. |
म. स.
संज्ञि.
आ.
उ. |
व.अनु.१०
सं.
मि. सं.प.५अ.८,६
सं अ. ४प. ७,५ विना. ४ अ.६,४
कुम. असं. चक्षु. भा. भ.. मि. कुश्रु. अच. अशु.
आहा. साका. अना. अना.
कार्म. १
३
mar
.
Page #528
--------------------------------------------------------------------------
________________
१,१. ]
संत - परूवणाणुयागद्दारे सण आलावण्णणं
[ ८१५
कमाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दमण, दव्त्रेण छ लेस्मा, भावेण किण्हणील- काउलेमाओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असणिणो, आहारिणो, सागारुत्रजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, छ जीवसमासा, पंच अपज्जतीओ चत्तारि अपज्जतीओ, सत्त पाण छ पाण पंच पाण चत्तारि पाण तिष्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगई, पंचिंदियजादी, छ काय, दो जोग, तिणि वेद, चारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण किण्हणील- काउलेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा
५१६
दो येोगः तीनों वेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे छद्दों लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं: भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, मिथ्यात्व, असंशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
उन्हीं असंज्ञी जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, संक्षी - अपर्याप्त के विना शेष छह अपर्याप्त जीवसमाल, पांच अपर्याप्तियां, चार अपर्या तियां; सात प्राण, छह प्राण, पांच प्राण, चार प्राण, तीन प्राण; चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, पंचेन्द्रियजाति, छड़ों काय, औदारिकमित्र ओर कार्मण काययोग ये दो योगः तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम आदिके दो दर्शन, द्रव्यले कापोत और शुकु लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यनिद्धिका मिथ्यात्व, अलंशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते है ।
नं. ५१५
जी. प. प्रा. सं.
१ ६ ५ ९ मि. पर्या० ४ ८
७
सं प. विना.
४
1
अशी जीवों के पर्याप्त आलाप.
ग. इं. का. यो.
१ ५ ५ ति.
नं. ५१६
गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. १ ६ ५अ. ७ ४ १ ५ ६ मि. अप ४अ ६ ति.
सं अ. विना.
२ व. अनु. १ ओ. १
ले.
वे. क. ज्ञा. सय. द. भ. स. संज्ञि. आ. उ. ३ ४ २ १ २ द. ६ २ १ १ १
कुम. असं चक्षु मा ३ भ. मि. असं आदा, साका, कुश्रु. अच अशु. अ.
अना.
असं यो. वे. क. ज्ञा. संय. द.
२
२
३ ४ औ मि. कार्म.
१ २ कुम. असं चक्षु कुश्रु. अच
जीवोंके अपर्याप्त आलाप.
ले. (भ.
द्र. २ २ का. भ. शु. 34.
मा. ३
अशु.
स.संज्ञि. आ.
१
मि.
उ.
१ २ २ स. आहा. साका अना. अना
Page #529
--------------------------------------------------------------------------
________________
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
व सण-व- असण्णीणं सजोगि - अजोगि सिद्धाणं ओघ - भंगो । एवं सण्णिमग्गणा समत्ता ।
आहारावादेण आहाणं भण्णमाणे अत्थि तेरह गुणडाणाणि, चोदस जीवसमासा, छ पञ्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ पंच पज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ चत्तारि पज्जचीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण ( णव पाण सत्त पाण अट्ठ पाण छ पाण सत्त पाण' ) पंच पाण छ पाण चत्तारि पाण चत्तारि पाण तिष्णि पाण चत्तारि पाण दो पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अस्थि, चत्तारि गईओ, पंच जादीओ, छ काय, चोहस जोग कम्मइयकायजोगो णत्थि, तिणि वेद अवगदवेदो वि अस्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अस्थि, अट्ठ णाण, सत्त संजम, चत्तारि दंसण, दव्वभावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सण्णिणो असविणणो व सणणो णेव असणणो वि अस्थि, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा सागार - अणागारेहिं जुगवदुवजुत्ता वा
५१७
८३६ ]
से.
सयो.
1
संज्ञिक और असंज्ञिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित सयोगिकेवली, अयोगिकेवली और सिद्ध भगवान् के आलाप ओघ आलापोंके समान होते हैं ।
इसप्रकार संज्ञी मार्गणा समाप्त हुई ।
आहार मार्गणाके अनुवादसे आहारक जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर - आदिके तेरह गुणस्थान, चौदद्दों जीवसमास, छद्दों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां पांच पर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां; चार पर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राणः नौ प्राण, सात प्राण आठ प्राण, छह प्राण; सात प्राण, पांच प्राणः छह प्राण, चार प्राण; चार प्राण, तीन प्राणः सयोगिकेवली के चार प्राण और दो प्राण; चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंज्ञा स्थान भी है, चारों गतियां, पांचों जातियां, छद्दों काय, चौदह योग होते हैं; क्योंकि, यहांपर कार्मणकाययोग नहीं होता है। तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है, चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है, आठ ज्ञान, सातों संयम, चारों दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; छद्दों सम्यक्त्व, संज्ञिक, असंज्ञिक तथा संज्ञिक और असंज्ञिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी स्थान है, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी तथा साकार और अनाकार इन दोनों उपयोगों से युगपत् उपयुक्त भी होते हैं ।
१ प्रतिषु कोष्ठकान्तर्गतपाठो नास्ति । नं. ५१७
गु. जी. प. प्रा. १३ १४६५. १०,७ मि. ६अ. ९,७
५५.
८, ६
५अ.
७,५
४५. ६, ४
४ अ. ४, ३४, २
आहारक जीवोंके सामान्य आलाप. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ४ ८ ७ ४
४ ४ ५ ६ १४ काम. विना.
[ १, १०
ले. भ. स. सोझ. आ. उ. द्र.६ २ ६ भा.६ भ.
अ.
२
१ २
सं. आहा. साका. असं.
अना.
अनु.
तथा
पु.उ.
Page #530
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १. ]
संत- परूवणाणुयोगद्दारे आहार - आलाववण्णणं
[ ८३७
सिं चैव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि तेरह गुणड्डाणाणि, सत्त जीवसमासा, छ पजत्तीओ पंच पज्जत्तीओ चत्तारि पज्जत्तीओ, दस पाण णव पाण अट्ठ पाण सत्त पाण छ पाण चत्तारि पाण चत्तारि पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अस्थि, चत्तारि गईओ, पंच जादीओ, छ काय, एगारह जोग, ओरालिय-वेउन्त्रिय आहार मिस्स-कम्मइयकायजोगा णत्थि । तिणि वेद अवगदवेदो वि अस्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अस्थि, अड्ड णाण, सत्त संजम, चत्तारि दंसण, दव्व-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सण्णणो असण्णिणो णेव सणिणो णेव असण्णिणो वि अस्थि, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा सागार - अणागारेहिं जुगवदुवजुत्ता वा ।
५१८
तेसिं चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अस्थि पंच गुणट्ठाणाणि, सत्त जीवसमासा, छ अपजतीओ पंच अपज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जतीओ, सत्त पाण सत्त पाण छ पाण पंच पाण चत्तारि पाण तिष्णि पाण दोण्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अस्थि, चत्तारि
उन्हीं आहारक जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर -- आदिके तेरह गुणस्थान, सात पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, पांच पर्याप्तियां, चार पर्याप्तियां; दशों प्राण, नौ प्राण, आठ प्राण, सात प्राण, छह प्राण, चार प्राण, चार प्राण; चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंज्ञास्थान भी है, चारों गतियां, पांचों जातियां, छद्दों काय, पर्याप्तकालभावी ग्यारह योग होते हैं, क्योंकि, यहांपर औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र, आहारकमिश्र और कार्मणकाययोग नहीं होते हैं। तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है, चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है, आठों ज्ञान, सातों संयम, चारों दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिका छहों सम्यक्त्व, संशिक, असंज्ञिक तथा संशिक और असंज्ञिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी स्थान है, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी तथा साकार और अनाकार इन दोनों उपयोगों से युगपत् उपयुक्त भी होते हैं।
उन्हीं आहारक जीवों के अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, प्रमत्तसंयत और सयोगिकेवली ये पांच गुणस्थान; सात अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां: सात प्राण, सात प्राण, छह प्राण, पांच प्राण, चार प्राण, तीन प्राण, दो प्राण; चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंज्ञास्थान भी
नं. ५१८
गु. जी. प. प्रा. सं.ग. इं. का.) ४ ४ ५ ६
१३ ७
१०
मि. पर्या. ५
९
४
से. पयो.
८
आहारक जीवोंके पर्याप्त आलाप.
७
I
११म.४ व. ४ औ. १
यो. वे (क. ज्ञा. (सं.) द. ले. भ.स.संज्ञि. आ. ૪ ८ ७ ४ द्र. ६.२ ६ २ १ मा. ६ भ.
अ.
वै. १
आ. १
उ.
२
सं. आहा. साका.
असं.
अनु.
अना. तथा.
यु. उ.
Page #531
--------------------------------------------------------------------------
________________
८३८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. गदीओ, पंच जादीओ, छ काय, तिण्णि जोग, तिण्णि वेद अवगदवेदो वि अत्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अत्थि, छ णाण, चत्तारि संजम, चत्तारि सण, दव्वेण काउलेस्सा, भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, पंच सम्मत्तं, सण्णिणो असण्णिणो अणुभया वि, आहारिणो, सागारुखजुता होंति अणागारुवजुत्ता वा ( सागारअणागारेहि जुगवदुवजुत्ता वा)।
आहारि-मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अस्थि एयं गुणहाणं, चोद्दस जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ पंच पज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ चत्तारि पज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण (णव पाण सत्त पाण अह पाण छ पाण सत्त पाण' ) पंच पाण छ पाण चत्तारि पाण चत्तारि पाण तिणि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, पंच जादीओ, छ काय, बारह जोग, कम्मइयकायजोगो णत्थि । तिणि है, चारों गतियां, पांचों जातियां, छहों काय, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और आहारकमिश्रकाययोग ये तीन योग, तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है, चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है, विभंगावधि और मनःपर्ययज्ञानके विना शेष छह ज्ञान, असंयम, सामायिक, छदोपस्थापना और यथाख्यातविहारशुद्धिसंयम ये चार संयम; चारों दर्शन, द्रव्यसे कापोत लेश्या, भावसे छहों लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, सम्यग्मिथ्यात्वके विना शेष पांच सम्यक्त्व, संज्ञिक, असंज्ञिक तथा अनुभयस्थान भी है; आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी तथा साकार और अनाकार इन दानों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त भी होते हैं।
आहारक मिथ्याटि जीवों के सामान्य आलाप करने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, चौदहों जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां पांच पर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां, चार पर्याप्तियां च र अपर्याप्तियां दशों प्राण, सात प्राणः नौ प्राण, सात प्राण; आठ प्राण, छह प्राण; सात प्राण, पांच प्राणः छह प्राण चार प्राण; चार प्राण, तीन प्राणः चारों सैशाएं चारों गतियां, पांचों जातियां, छहों काय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग औदारिककाययोगद्विक और वैक्रियिककाययोगद्विक ये बारह योग होते हैं; किन्तु कार्मणकाययोग नहीं होता है। तीनों
.............................
१ कोष्ठकान्तर्गतपाठो नास्ति । मं.५१९
आहारक जीवोंके अपर्याप्त आलाप. | प्रा. ग. ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. । संय. द. ले. भ. स. |संशि. आ. , उ.
12 hke
क्षीणस. 12
औ.मि.
अपग. अकषा.
कुम. असं. | कुश्र. सामा.. मति. छेदो श्रुत. यथा.
अवि प्रम.
का. म. मि. सं. आहा. साका. भा. ६ अ. सासा. असं. अना. औप. अनु.
तथा. क्षा.
यु. उ. क्षायो
सयो.
अव.
केव.
Page #532
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.]
संत-परूवणाणुयोगदारे आहार-आलावषण्णणं [८१९ वेद, चत्तारि कसाय, तिणि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्व-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो असणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, सत्त जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ पंच पज्जत्तीओ चत्तारि पज्जत्तीओ, दस पाण णव पाण अट्ठ पाण सत्त पाण छ पाण चत्तारि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, पंच जादीओ, छ काय, दस जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिणि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दन्वभावहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवनिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो असणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा । वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, व्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संक्षिक, असंक्षिक; आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं आहारक मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, सात पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, पांच पर्याप्तियां, चार पर्याप्तियां दशों प्राण, नौ प्राण, आठ प्राण, सात प्राण, छह प्राण, चार प्राण; चारों संशाएं, चारों गतियां, पांचों जातियां, छहों काय, चारों मनोयोग, चागें वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग; तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, मिथ्यात्व, संक्षिक, असंशिक आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं। नं. ५२०
आहारक मिथ्यादृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप. 1 गु. जी. प. | प्रा. सं. ग. इं.का. यो. वे. क. बा. संय. द. ले. म. स. संहि. आ. | उ. २१४६१ १०,७ ४ ४ ५ ६ १२ ३ ४ ३ १ २ द्र.६२। २। । ९,७
अज्ञा. असं. चक्षु मा.६ भ. मि. सं. आहा. साका.
६अ.
५
.
अ.
असं.
५अब | ४प. ४अ.
७,५ ६.४ ४,३
नं. ५२१
आहारक मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप. २. जी.प. प्रा. सं. ग. 'ई. का। यो. वे. क. झा. | संय. द. । ले. [म. स. (संमि. आ. | उ. |
पर्या.
अज्ञा. असं. चक्षु. भा.६ म.
मि. सं. आहा. साका.
बना.
व.
४
असं./
Page #533
--------------------------------------------------------------------------
________________
८४० ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १,१.
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणद्वाणं, सत्त जीवसमासा, छ अपज्जतीओ पंच अपज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण छ पाण पंच पाण चत्तारि पाण तिणि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, पंच जादीओ, छ काय, दो जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्त्रेण काउलेस्सा, भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो असणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
"आहारि-सासणसम्म इट्टीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणद्वाणं, दो जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ,
उन्हीं आहारक मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, सात अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां सात प्राण, सात प्राण, छह प्राण, पांच प्राण, चार प्राण, तीन प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पांचों जातियां, छहों काय, औदारिकमिश्र और वैक्रियिकमिश्रकाययोग ये दो योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत लेश्या, भावसे छहों लेश्याएं भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, मिथ्यात्व, संज्ञिक, असंशिक; आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
आहारक सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर - एक सासादन गुणस्थान, संज्ञी पर्याप्त और संज्ञी अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छद्दों अपर्या प्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों आहारक मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप.
नं. ५२२
गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय.
द. / ले. म. स. संज्ञि. आ.
उ.
४
Poem By Estroges
५. ६.
*
१
२
१
१
३ ४
७ ६अ.
२
२
ર
१
२
मि. अपे. ५,
७ ७
औ. मि. वै.मि.
द्र. २ कुम. असं चक्षु. का. भ. मि. सं. आहा. साका.
४
६
कुश्रु.
अच्च. भा. ६ अ.
असं.
अमा.
५
४ ३
५९३
नं. ५२३
आहारक सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप.
गु.
जी. प.
प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ. ६प १० ४ ४ १ १ २ १२ ३ | ४ | ३ १ २ द्र. ६ १ १ २ सा. सं प ६ अ. ७ पं. त्र. म. ४ अज्ञा. अंस. चक्षु. भा. ६भ सासा. सं. आहा. साका.
१
१
१
सं. अ.
अच..
अना.
Page #534
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे आहार-आलाववण्णणं
[८४१ पंचिदियजादी, तसकाओ, बारह जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्व-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दस जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दंसण, दव्व-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा"।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ अपजत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिण्णि गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दो
मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोगद्विक और वैफ्रियिककाययोगद्विक ये बारह योग; तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं आहारक सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने परएक सासादन गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण; चारों संज्ञाएं चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग; तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्ही आहारक सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने परएक सासादन गुणस्थान, एक संझी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संशाएं, नरकगतिके विना शेष तीन गतियां, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, औदारिकमिश्र और
नं. ५२४ आहारक सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप. गु. जी. प.प्रा. सं. ग.ई. का. यो. । वे. क. शा. | संय. द. | ले. । म. स. । संशि.| आ. उ. । | १ ६१०४|४|१११०म.४३ ४ ३ १ २.६१ १ ११२ सा. सं.प.
अज्ञा. असं. चक्षु. मा.६ म. सासा. सं. आहा. साका. " और अच.| |
बना.
त्रस.
अच.
Page #535
--------------------------------------------------------------------------
________________
८१२) छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दंसग, दव्वेण काउलेस्सा, भावेण छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
आहारि-सम्मामिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अन्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दस जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिणि णाणाणि तीहि अण्णाणहि मिस्साणि, असंजमो, दो दसण, दन्व-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, सम्मामिच्छत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
..................
वैक्रियिकमिश्रकाययोग ये दो योग, तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम, मादिके दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत लेश्या, भावसे छहों लेश्याएं: भव्यसिद्धिक, सासादन' सम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
आहारक सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर-एक सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग; तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञानोंसे मिश्रित आदिके तीन ज्ञान, भसंयम, आदिके दो वर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, सम्यग्मिथ्यात्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
.......................
नं. ५२५ आहारक सासादनसस्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप.
प. प्रा. सं.ग. | ई.का. यो. वे.क. झा. | संय द. ले.भि. स. । संलि. आ.
2
उ.
सा.
सं.अ. -
अ.
ति.पं. त्र म.
औ मि. वै.मि.
कुम, | असं. | चक्षु. का. म.सासा. सं. आहा साका. । । कुश्रु. ! अच. भा.३
अना.
नं. ५२६
आहारक सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप. गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई.का. यो. वे. क.सा. संय. द. ले. भ. स. संझि. आ. | उ. |
२
सम्य. सं.प.
पं.त्र
म.४
झान. असं. चक्षु. भा. ६ म. सम्य. सं. आहा- साका.
अच.
अना.
अहा.
वं.१
मिश्र.
Page #536
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १, ]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे आहार - आलाववण्णणं
[ ८४१
आहार - असं जद सम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणद्वाणं, दो जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, पंचिदियजादी, तसकाओ, बारह जोग, तिष्णि वेद चत्तारि कसाय, तिष्णि गाण, असंजमो, तिष्णि दंसण, दव्त्र -भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा
५२७
1
. तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणद्वाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जतीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, पंचिदियजादी, तसकाओ,
आहारक असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर एक अविरतसम्यदृष्टि गुणस्थान, संज्ञी-पर्याप्त और संज्ञी अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छद्दों अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोगद्विक और वैक्रियिककाययोगद्विक ये बारह योग, तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, औपशमिक आदि तीन सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
उन्हीं आहारक असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्तकाल संबन्धी आलाप कहने पर --एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण,
नं. ५२७ गु. जी.
१ २ ६५. १० ४ ४ १ १ अवि. सं. प. ६अ ७
पं. त्र.
सं.अ.
आहारक असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके सामान्य आलाप.
१
२
प. प्रा.सं.ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ. १२ ३ ४ ३ १ ३ द्र. ६ १ ३ १ म. ४ मति. असं.के. द. मा.६ भ. औप. सं. आहा. साका. विना.
व. ४
अना.
क्षा. क्षायो.
नं. ५२८
आहारक असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप.
गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. 1 वे. ) क. ज्ञा. संय. द. ले. स.
१
अवि
१ ६१० ४ ४ १ १ १० ३ ૪
पं. त्र. म. ४
व. ४
सं. प.
१
श्रुत.
अव.
१
३ १ ३ द्र. ६१
मति. असं. के. द. मा.६ भ. विनी.
श्रुत.
अनं.
स. शि. आ.
३ १ १ २
औप. सं. आहा. साका.
अना.
क्षा. क्षायो.
उ.
Page #537
--------------------------------------------------------------------------
________________
८१४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. दस जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजमो, तिण्णि दसण, दव्वभावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ अपजत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दो जोग, इत्थिवेदेण विणा दो वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजमो, तिण्णि दंसण, दव्वेण काउलेस्सा, भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा ।
आहारि-संजदासंजदाणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, दो गईओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव
चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग, तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान; असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, औपशमिकसम्यक्त्व आदि तीन सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं आहारक असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने परएक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संशाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिकमिश्र और वैक्रियिकमिश्रकाययोग ये दो योग, स्त्रीवेदके विना शेष दो वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत लेश्या, भावसे छहों लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, औपशमिकसम्यक्त्व आदि तीन सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
आहारक संयतासंयत जीवोंके आलाप कहने पर एक देशसंयत गुणस्थान, एक संबी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति और मनुष्य
नं. ५२९ आहारक असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप. | गु. । जी. प. प्रा. सं. ग.ई. का. यो. | वे.क. झा. संय. द. ले. भ. स. संनि. आ. : उ. | ११६७४४११२ २ ४ ३ १ ३ द्र.११३११२ अंवि. सं.अ. अ. पं. त्र. औ.मि. प. मति. असं. के. द. का. भ. औप. सं. आहा. साका.
विना. भा.६ अव.
क्षायो.
वै.मि.न.
श्रुत.
अना.
Page #538
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगदारे आहार-आलाववण्णणं
[८१५ जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिणि णाण,संजमासंजमो, तिण्णि देसण, दव्वेण छ लेस्सा, भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ, भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुखजुत्ता वा।
१९आहारि-पमत्तसंजदाणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, छ पजत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, चत्वारि णाण, तिण्णि संजम, तिणि दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ; भवसिद्धिया,
गति ये दो गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, संयमासंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, औपशमिकसम्यक्त्व आदि तीन सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
आहारक प्रमत्तसंयत जीवोंके आलाप कहने पर-एक प्रमत्तसंयत गुणस्थान, संझीपर्याप्त और संज्ञी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और आहारककाययोगद्विक ये ग्यारह योग तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके चार ज्ञान, सामायिक, छेदोपस्थापना और परिहारविशुद्धि थे तीन संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं; भव्यसिद्धिक,
नं. ५३०
आहारक संयतासंयत जीवोंके आलाप. गु. जी.प.प्रा.सं. ग. ई.का. यो. वे. क. झा. | संय. द. | ले. (म. स. संज्ञि. आ. ड. ११६/१०/४/२१/१/९ ३/४३ १ ३ द.६१३ १ दिश. सं.प. ति. पं. त्र. म. ४ मति. देश. के. द. भा.३ म. औप. सं. आहा. साका. श्रुत. विना. शुम.
अना. अव.
क्षायो.
क्षा.
नं. ५३१
आहारक प्रमत्तसंयत जीवोंके आलाप. गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. भ.
स. संक्षि. आ. | उ. |
सं.प. ६अ. ७
म. पं. त्र. म. ४
सं.अ.
मंति. सामा. के द.मा.३ म. औप. सं. श्रुत. छेदो. विना. शुभ. अव. परि.
क्षायो. मन:
आहा. साका.
अना.
औ.१
आ.२
Page #539
--------------------------------------------------------------------------
________________
८१६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. तिण्णि सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा । .
एत्थ पज्जत्तापज्जत्ता आलावा वत्तव्वा । एवं सव्वत्थ ।
आहारि-अप्पमत्तसंजदाणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाण, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, तिणि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, चत्तारि णाण, तिण्णि संजम, तिणि दंसण, दव्येण छ लेस्सा, भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा ।
आहारि-अपुब्बयरणाणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ
औपशमिकसम्यक्त्व आदि तीन सम्यकत्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
इस आहारक प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें पर्याप्त और अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप भी कहना चाहिये । इसीप्रकार जहां पर संज्ञी-पर्याप्त और संशी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास होवें यहां भी सामान्य आलापके अतिरिक्त दोनों प्रकारके आलाप और कहना चाहिए ।
__ आहारक अप्रमत्तसंयत जीवोंके आलाप कहने पर-एक अप्रमत्तसंयत गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, आहारसंज्ञाके विना शेष तीन संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग, तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके चार ज्ञान, सामायिक आदि तीन संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, औपशमिकसम्यक्त्व आदि तीन सम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारो. पयोगी होते हैं।
आहारक अपूर्वकरण गुणस्थानवी जीवोंके आलाप कहने पर-एक अपूर्वकरण गुण
नं. ५३२
आहारक अप्रमत्तसंयत जीवोंके आलाप. | गु.जी. प. प्रा. सं. | ग. इ.)का. यो. । वे. क. झा. | संय. | द. | ल. भ. स. संज्ञि. आ.
उ. ।
आहा.म.पं. त्र. म. ४ विना.
व. ४
मति. सामा. के.द. भा.३ भ. औप. सं. आहा. साका. श्रुत. छेदो. विना. शुभ. क्षा.
अना. अव. परि. मनः.
क्षायो.
Page #540
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगदारे आहार-आलाववण्णणं [८१७ पज्जत्तीओ, दस पाण, तिण्णि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, पव जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, चत्तारि णाण, दो संजम, तिण्णि दंसण, दव्वेण छ लेस्सा, भावेण सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया, दो सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
५"आहारि-पढम-अणियट्टीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, दो सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, चत्तारि णाण, दो संजम, तिण्णि दसण, दब्वेण छ लेस्सा,
स्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, आहारसंशाके विना शेष तीन संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग, तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके चार ज्ञान, सामायिक आदि दो संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या; भव्यसिद्धिक, औपशामिक और क्षायिक ये दो सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
आहारक अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके प्रथम भागवर्ती जीवोंके आलाप कहने पर-एक अनिवृत्तिकरण गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, मैथुन और परिग्रह ये दो संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके चार ज्ञान, सामायिक आदि दो संयमः आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या; भव्य
नं. ५३३ आहारक अपूर्वकरणगुणस्थानवी जीवोंके आलाप. | गु. । जी. प. प्रा. सं. ग. ई.का. यो. वे. क. ज्ञा. संय.| द. | ले. भ. | स. | सनि. आ. | उ. ।
अपू. सं.प.
आहा.म.पं. प्र.म. ४ विना.
औ.१
मति. सामा. के.द. भा. भ. औप. सं. आहा. साका. श्रुत. छेदो. विना. शुक्लक्ष
अना. अव. मनः,
नं. ५३४ आहारक अनिवृात्तकरणके प्रथम भागवर्ती जीवोंके आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ह. का. यो. वे. क. झा.। संय. द. ले. म. स. संहि. आ..
.।
अनिप्रम...
SUMA
मै.म.पं.त्र. म. ४
म. औप. सं. आहा. साका./ क्षा.
अना.
औ.१
मति. सामा. के.द. भा. श्रुत. छेदो. विना. शुक्ल. अव. मनः,
-
Page #541
--------------------------------------------------------------------------
________________
८१८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
। १, १. भावेण सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया, दो सम्म, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
सेस-चदुण्हमणियट्टीणं ओघ-भंगो।
आहारि-सुहुमसांपराइयाणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पञ्जत्तीओ, दस पाण, सुहुमपरिग्गहसण्णा, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, अवगदवेदो, सुहुमलोहकसाओ, चत्तारि णाण, सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजमो, तिण्णि दसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा, भवसिद्धिया, दो सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
आहारि-उवसंतकसायाणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, उवसंतपरिग्गहसण्णा, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव
सिद्धिक, औपशमिक और क्षायिक ये दो सम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके शेष चार भागोंके आलाप ओघालापके समान होते हैं।
आहारक सूक्ष्मसाम्परायी जीवोंके आलाप कहने पर-एक सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, सूक्ष्म परिग्रहसंज्ञा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग; भपगतवेद, सूक्ष्म लोभकषाय; आदिके चार शान, सूक्ष्म साम्परायिकशुद्धिसंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रष्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या; भव्यसिद्धिक, औपशमिक और क्षायिक येदो सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
आहारक उपशान्तकषायी जीवोंके आलाप कहने पर- एक उपशान्तकषाय गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, उपशान्तपरिग्रहसंज्ञा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग,
नं. ५३५
आहारक सूक्ष्मसाम्परायी जीवोंके आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग.) ई. का. यो. वे. | क. झा. | संय. द. । ले. भ. स. संज्ञि. आ.
उ.
म. पं. न. म.४
अपग. .
मति. सूक्ष्म. के. द. मा.१ म. | औप. सं. | आहा. साका. |विना. शुक्ल.
। अना . अव. मनः.
Page #542
--------------------------------------------------------------------------
________________
१, १.] संत-परूवणाणुयोगदारे आहार-आलाववण्णणं
[८४९ जोग, अवगदवेदो, उवसंतलोहकसाओ, चत्तारि णाण, जहाक्खादविहारसुद्धिसंजमो, तिण्णि दसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया, दो सम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा" ।
आहारि-खीणकसायाणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, खीणसण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, अवगदवेदो, अकसाओ, चत्तारि णाण, जहाक्खादविहारसुद्धिसंजम, तिण्णि दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया, खइयसम्मत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा । अपगतवेद, उपशान्तलोभकषाय, आदिके चार ज्ञान, यथाख्यातविहारशुद्धिसंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या; भव्यसिद्धिक, औपशमिक और क्षायिक ये दो सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
___आहारक क्षीणकषायी जीवोंके आलाप कहने पर-एक क्षीणकषाय गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, क्षीणसंज्ञा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग, अपगतवेद, अकषाय, आदिके चार ज्ञान; यथाख्यातविहारशुद्धिसंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं; भावसे शुक्ललेश्या, भव्यसिद्धिक, क्षायिकसम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
..............
नं. ५३६
आहारक उपशान्तकषायी जीवोंके आलाप. | गु. जी, प. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. वे. क. झा. | संय. द. ! ले. भ. स. संझि.| आ. | उ. | | ११६ १०० उप. सं.प. पं. त्र. म.४ मति- यथा. के.द. भा. भ. औप. सं. आहा.साका. श्रुत. | विना. शुक्ल.
अना. अव. मनः.
उप. सं. ०
अपग. .
6. ' "be
नं. ५३७
आहारक क्षीणकषायी जीवोंके आलाप. | गु. | जी. प. प्रा. सं.ग. इं.का. यो. । वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. म. स. संलि.आ. ।१।१ ६१०१११ ९ ०.०४ १३ द्र.६११ ११ क्षीण.सं.प.
यथा. के द.भा. १ म. क्षा.सं. आहा. साका. व. ४ श्रुत. विना. शुक्ल.
अना. अव.
क्षीणसं. .
अपग. अकषा ०
औ..
मन:.
Page #543
--------------------------------------------------------------------------
________________
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १,१.
आहारि-सजोगिकेवलीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणद्वाणं, दो जीवसमासा, छ पज्जतीओ छ अपज्जतीओ, चत्तारि पाण दो पाण, खीणसण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ छ जोग, कम्मइयकायजोगो णत्थि अवगदवेदो, खीणकसाओ, केवलणाण, जहाक्खादविहार सुद्धिसंजमो, केवलदंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया, खइयसम्मत्तं, णेव सण्णिणो णेव असण्णिणो, आहारिणो, सागारअणागारेहिं जुगवदुवजुत्ता वा " ।
५३८
८५० ]
एवं पज्जत्तापञ्जालावा वत्तव्वा । एवं सव्वत्थ वत्तव्यं ।
अणाहारीणं भण्णमाणे अत्थि पंच गुणट्ठाणाणि अदीदगुणहाणं पि अस्थि, अट्ठ
आहारक सयोगिकेवली जिनके आलाप कहने पर - एक सयोगिकेवली गुणस्थान, पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छद्दों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; वचनबल, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये चार प्राण, तथा कायबल और आयु ये दो प्राणः क्षीणसंज्ञा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, सत्य और अनुभय ये दो मनोयोग, ये ही दो वचनयोग, औदारिककाययोग और औदारिकमिश्रकाययोग ये छह योग होते हैं; किन्तु कार्मण काय योग नहीं होता है । अपगतवेद, क्षीणकषाय, केवलज्ञान, यथाख्यातविहारशुद्धिसंयम, केवलदर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्याः भव्यसिद्धिक, क्षायिकसम्यक्त्व, संज्ञिक और असंशिक इन दोनों विकल्पोंसे मुक्त, आहारक, साकार और अनाकार इन दोनों उपयोगों से युगपत् उपयुक्त होते हैं।
इसीप्रकार से सयोगिकेवलीके पर्याप्त और अपर्याप्त आलाप कहना चाहिए । इसीप्रकार सर्वत्र कहना चाहिए ।
अनाहारक जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर - मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली ये पांच गुणस्थान तथा अतीतगुणस्थान भी है, सात अपर्याप्त और अयोगिकेवली गुणस्थानसंबन्धी एक पर्याप्त इसप्रकार आठ जीव
नं. ५३८
गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय.
१ २ ६५. ४ सयो. प. ६अ. २ अ.
क्षीणसं. 04.
आहारक सयोगिकेवली जिनके आलाप.
१ १
म. पं.
१ त्र.
म. २
व. २ आ. २
अपग.
अकषा. ०
द.
ले. भ.
१.
१ १ १ द्र. ६१ केव. यथा. के. द. मा.भ. क्षा. शुक्ल.
स.
साझ. आ.
१
२
अनु. आहा. साका
अनायु. उ.
য•
उ.
Page #544
--------------------------------------------------------------------------
________________
[८५१
१, १.]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे आहार-आलाववण्णणं जीवसमासा अदीदीवसमासा वि अत्थि, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ अदीदपज्जत्ती वि अस्थि, सत्त पाण सत्त पाण छ पाण पंच पाण चत्तारि पाण तिण्णि पाण दो पाण एग पाण अदीदपाण वि अत्थि, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अस्थि, चत्तारि गदीओ सिद्धगई वि अस्थि, पंच जादीओ अदीदजादी वि अस्थि, छ काय अकाओ वि अत्थि, कम्मइयकायजोगो अजोगो वि अत्थि, तिण्णि वेद अवगदवेदो वि अत्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अत्थि, छ णाणाणि, दो संजम व संजमो णेव असंजमो णेव संजमासंजमो वि अत्थि, चत्तारि दंसण, दव्व-भावेहिं छ लेस्साओ अलेस्सा वि अत्थि, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया णेव भवसिद्धिया व अभवसिद्धिया वि अस्थि, पंच सम्मत्तं, सणिणो असण्णिणो णेव सणिणो णेव असण्णिणो वि अस्थि, अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा सागार-अणागारेहिं जुगवदुवजुत्ता वा।
समास तथा अतीतजीवसमासस्थान भी है, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां तथा अतीतपर्याप्तिस्थान भी है, सात प्राण, सात प्राण, छह प्राण, पांच प्राण, चार प्राण, तीन प्राण, दो प्राण, एक प्राण तथा अतीतप्राणस्थान भी है। चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंशास्थान भी है, चारों गतियां तथा सिद्धगति भी है, पांचों जातियां तथा अतीतजातिस्थान भी है, छहों काय तथा अकायस्थान भी है, कार्मणकाययोग तथा अयोगस्थान भी है, तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है, चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है, विभंगावधि तथा मनःपर्ययज्ञानके विना शेष छह ज्ञान, असंयम और यथाख्यातसंयम ये दो संयम तथा संयम, असंयम और संयमासंयम इन तीनों से रहित भी स्थान है, चारों दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं तथा अलेश्यास्थान भी है, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक तथा भव्यासिद्धिक और अभव्यसिद्धिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी स्थान है, सम्यग्मिथ्यात्वके विना पांच सम्यक्त्व, संक्षिक, असंशिक तथा संज्ञिक और असंशिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी स्थान है. अनाहारका साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी तथा साकार और अनाकार इन दोनों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त भी होते हैं।
नं. ५३९ | गु. जी. प. प्रा. सं. ५ मि.८ अप. ६५.७ ४ सा.७ ६अ. ७.. अवि. अयो. ५, ६ सयो. प. १४, ५ अयो. अती. अती. ४ ३ अ.गु.जीव. प. |२१
अती. जा. F4 सिद्धग. 1 क्षीणसं,
अकाय. अयोग.
अनाहारक जीवोंके सामान्य आलाप. का. यो. वे. क. झा. | संय. द. ले. म. स. सील. आ.
१२ विभं. असं. भा.६ म. सम्य.
.सं. अना. साका. मनः. यथाः अले. अ. विना. असं. अना. विना. अनु.
तथा. यु.उ.
eble
अकषा.
अनु.
Page #545
--------------------------------------------------------------------------
________________
८५२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. अणाहारि-मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, सत्त जीवसमासा, छ अपजत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण छ पाण पंच पाण चत्तारि पाण तिण्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गदीओ, पंच जादीओ, छ काय, कम्मइयकायजोगो, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, दो दसण, दन्वेण सुक्कलेस्सा, भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो असण्णिणो, अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।।
प'अणाहारि-सासणसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एगो जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिणि गईओ, णिरयगदी पत्थि; पंचिंदियजादी, तसकाओ, कम्मइयकायजोगो, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण,
अनाहारक मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, सात अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तयां, चार अपर्याप्तियां; सात प्राण, सात प्राण, छह प्राण, पांच प्राण, चार प्राण, तीन प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पांचों जातियां, छहों काय, कार्मणकाययोग, तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे शुक्ललेश्या, भावसे छहों लेश्याएं; भव्यसिद्धिक; अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संशिक, असंशिक अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
__ अनाहारक सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर एक सासादन गुणस्थान, एक संझी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंच, मनुष्य और देव ये तीन गतियां होती हैं; किन्तु यहांपर नरकगति नहीं है । पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय,
नं. ५४०
अनाहारक मिथ्यादृष्टि जीवोंके आलाप. | गु. जी. | प. प्रा. सं. | ग. ई.का. यो. (वे. क. | ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. संझि. आ. | उ.
मि. अप.५,
७
कार्म
|
कुम. असं. चक्षु. शु. म. मि. सं. अना. साका. अच. मा.६ अ. असं.
अना.
नं. ५४१ अनाहारक सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके आलाप. | गु.जी. प. प्रा. सं. ग. इं.का. यो. वे. क. झा. | संय. । द. । ले. भ. स. | संलि. आ. उ. | ११६७४३११ १ ३/४ २ १ २ द्र.१११ ।११ २ ति.पं. त्र. का
कुम. | असं. | चक्षु. शु. म.सासा. सं. अना. साका. | अच. भा.६
अना.
सं.अ.
Page #546
--------------------------------------------------------------------------
________________
१,१.]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे आहार - आलाववण्णणं
[ ८५३
असंजमो, दो दंसण, दव्वेण सुक्कलेस्सा, भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया, सासणसम्मत्तं, सष्णिणो, अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
अणाहारि-असं जदसम्म इट्टीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणद्वाणं, एगो जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, पंचिदियजादी, तसकाओ, कम्मइयकायजोगो, इत्थवेदेण विणा दोणि वेदा, चत्तारि कसाय, तिष्णि णाण, असंजमो, तिण्णि दंसण, दव्वेण सुक्कलेस्सा, भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया, तिष्णि सम्मतं, सणिणो, अणाहारिणो, सागारुत्रजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा ।
अाहारि-सजोगिकेवलीणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, एगो जीवसमासो, छ अपज्जतीओ, दोणि पाण, मण वचि उस्सासपाणा णत्थि खीणसण्णा, मणुसगदी, पंचिदियजादी, तसकाओ, कम्मइयकायजोगो, अवगदवेदो, अकसाओ, केवलणाणं,
कार्मण काययोग, तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके दो अज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य से शुक्ललेश्या, भावसे छहों लेश्याएं: भव्यसिद्धिक, सासादनसम्यक्त्व, संज्ञिक, अनाहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
अनाहारक असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर - एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी - अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, कार्मणकाययोग, स्त्रीवेदके बिना दो वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे शुक्ललेश्या, भावसे छहों लेश्याएं। भव्यसिद्धिक, औपशमिकसम्यक्त्व आदि तीन सम्यक्त्व, संज्ञिक, अनाहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं ।
अनाहारक सयोगिकेवली जिनके आलाप कहने पर -- एक सयोगिकेवली गुणस्थान, एक अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, आयु और कायबल ये दो प्राण होते हैं; किंतु यहां पर मनोबल, वचनबल और श्वासोच्छ्वास प्राण नहीं हैं। क्षीणसंज्ञा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, काय, कार्मणकाययोग, अपगतवेद, अकषाय, केवलज्ञान, यथाख्यातविहारशुद्धि
नं. ५४२
गु. जी. प. प्रा. ग. ग. इं. का. यो.
१ ६अ. ७
४
४
१
अवि.
स. अ
अनाहारक असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके आलाप.
वे. क. ज्ञा. संय. द. | ले. भ. स. संशि. आ. उ.
१ १
२
औप. सं. अना. साका. क्षा.
अना.
क्षायो.
२ ४ ३
१
१ १ पं. त्र. कार्म. पु.
न.
१ ३
मति. असं. के. द. शु. म. विना. भा. ६
श्रुत.
अव.
द्र. १ १ ३
Page #547
--------------------------------------------------------------------------
________________
८५४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. जहाक्खादविहारसुद्धिसंजमो, केवलदंसण, दव्वेण सुक्कलेस्सा छ लेस्साओ वा', भावेण सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया, खइयसम्मत्तं, णेव सणिणो णेव असणिणो, सरीरणिप्पायणत्थं णोकम्मपोग्गलाभावादो अणाहारिणो, सागार-अणागारेहिं जुगवदुवजुत्ता वा होति ।
५"अणाहारि-अजोगिकेवलीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, एगो जीवसमासो, छ पजत्तीओ, एक पाण, खीणसण्णा, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, अजोगो, अवगदवेदो, अकसाओ, केवलणाणं, जहाक्खादविहारसुद्धिसंजमो, केवलदंसण, दव्वेण
संयम, केवलदर्शन, द्रव्यसे शुक्ल अथवा छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या; भव्यसिद्धिक, सायिकसम्यक्त्व, संशिक और असंज्ञिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित, शरीर-निष्पादनके लिये आने वाली नोकर्म पुगलवर्गणाओंके अभाव हो जानेसे अनाहारक, साकार और अनाकार इन दोनों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त होते हैं।
विशेषार्थ-ऊपर अनाहारक सयोगिकेवलियोंके लेश्या आलापका कथन करते समय सभी प्रतियों में 'व्वेण छ लेस्लाओ' इतना ही पाठ पाया जाता है परंतु पूर्वमें कार्मण
ययोगी सयोगिकेवलीके आलाप बतलाते समय द्रव्यसे शुक्ललेश्या अथवा छहों लेश्याएं कहीं गई हैं, इसलिये यहांपर भी उसीके अनुसार सुधार कर दिया गया है।
___ अनाहारक अयोगिकेवली जिनके आलाप कहने पर-एक अयोगिकेवली गुणस्थान, एक पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, एक आयु प्राण; क्षीणसंज्ञा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, अयोग, अपगतवेद, अकषाय, केवलज्ञान, यथाख्यातविहारशुद्धिसंयम, केवलदर्शन,
१ प्रतिषु · दवेण छ लेस्साओ' इति पाठः। नं. ५४३
अनाहारक सयोगिकेवली जिनके आलाप. गु. | जी. प. प्रा. [सं.ग. | इं. का. यो. । वे क. । ज्ञा. । संय. द. । ले. भ. स. संझि. आ. | उ. |
अप.ja
सयो,
अप.
क्षीणसं. /
.. म. पं. त्र. कार्म.
अपग.. अकषा..
केव. यथा. के द. शु. भ. क्षा. अनु. अना. साका अ.६
अनायु.उ.
मा.१
नं. ५४४ । गु. जी. प.
अनाहारक अयोगिकेवली जिनके आलाप. प्रा. सं. ग. ई. का. यो. वे. क. ना. संय. द. ले. भ. स. । संज्ञि. आ. उ. ।
अयो.प.
क्षीणसं. ०
अयोग. "
6 . the
- केव. यथा. के.द. भा.
अकषा.
अले.
भ. क्षा. अनु. अना.साका.
अनायु.उ.
Page #548
--------------------------------------------------------------------------
________________
१,१. j
संत-परूवणाणुयोगद्दारे आहार - आलाववण्णणं
[ ८५५
छ लेस्साओ, भावेण अलेस्सा; भवसिद्धिया, खइयसम्मत्तं णेव सण्णिणो णेव असण्णिणो, अणाहारिणो, सागार - अणागारेहिं जुगवदुवजुत्ता वा ।
अणाहारि-सिद्धाणं भण्णमाणे अस्थि अदीदगुणट्ठाणाणि, अदीदजीवसमासा, अदीदपञ्जतीओ, अदीदपाणा, खीणसण्णा, सिद्धगदी, अदीदजादी, अकाओ, अजोगो, अगदवेदो, अकसाओ, केवलणाणं, णेव संजमो णेव असंजमो व संजमासंजमो, केवलदंसण, दव्व-भावेहिं अलेस्सा, णेव भवसिद्धिया णेव अभवसिद्धिया, खइयसम्मत्तं, व सणणो व असणणो, अणाहारिणो, सागार - अणागारेहि जुगवदुवजुत्ता वा होंति ।
द्रव्य से छहों लेश्याएं, भावसे अलेश्या, भव्यसिद्धिक, क्षायिकसम्यक्त्व, संज्ञिक और अशिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित, अनाहारक, साकार और अनाकार इन दोनों उपयोगों से युगपत् उपयुक्त होते हैं।
एवं आहारमग्गणा समत्ता । तहेव च
संत - परूवणा समत्ता ।
अनाहारी सिद्ध जीवोंके आलाप कहने पर अतीत गुणस्थान, अतीत जीवसमास, अतीत पर्याप्ति, अतीतप्राण, क्षीणसंज्ञा, सिद्धगति, अतीतजाति, अकाय, अयोग, अपगतवेद, अकषाय, केवलज्ञान, संयम, असंयम और संयमासंयम विकल्पोंसे विमुक्त, केवलदर्शन, द्रव्य और भावसे अलेश्य, भव्यसिद्धिक और अभव्यसिद्धिक विकल्पोंसे रहित, क्षायिकसम्यक्त्व, संज्ञिक और असंक्षिक विकल्पोंसे अतीत, अनाहारक, साकार और अनाकार इन दोनों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त होते हैं।
नं. ५४५
गु. जी.
O
इसप्रकार आहारमार्गणा समाप्त हुई । और इसीप्रकार उसके साथ सत्प्ररूपणा भी समाप्त हुई ।
अनाहारी सिद्ध जीवोंके आलाप.
प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. क. शा. संय. द.
१
के. द.
१
कव.
ले.
भ.
०
स. संशि. आ.
१
क्षा.
उ.
० १ २ अना. साका.
अना. यु. उ.
Page #549
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #550
--------------------------------------------------------------------------
________________
__परिशिष्ट
Page #551
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #552
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्हत्
२८
३९०
१०२
८६
( यहां उन्हीं शब्दोंका संग्रह किया गया है जिनकी निर्दिष्ट पृष्ठपर परिभाषा
पाई जाती है।)
१ पारिभाषिक-शब्द-सूची शब्द पृष्ठ शब्द
पृष्ठ अयोगकवली
१९२ अकषाय
३५१ अयोगी
२८० अकायिक
२६६,२७७ अरतिवाक
११७ अग्रायणीय
अरिहंत
४२,४३ अचभुर्दर्शन
३८२ अचित्तमंगल
अलेश्य अज्ञान
३६३,३६४ अल्पबहुत्व (अनुयोग) अतीतपति
अवग्रह
३५४,३७९ अतीतप्राण
४१९ अवधि
३५९ अन्तकृद्दशा
अवधिज्ञान अन्तरात्मा
१२० अवधिदर्शन
३८२ मर्थनय
अवयवपद अर्थावप्रह
अवाय अधिराज
असत्यमन
२८१ अध्रुवावग्रह
३५७
असत्यमोषमनोयोग अर्धमण्डलीक
असद्भावस्थापना अनाहार
असंयत अनादिसिद्धान्तपद
असंयतसम्यग्दृष्टि अनिन्द्रिय
२६४
अस्तिनास्तिप्रवाद अनिवृत्ति मनिवृत्तिबादरसाम्पराय
आकाशगता अनुत्तरौपपादिकदशा. १०३ आक्षेपणी अपगतवेद
आगमद्रव्यमंगल
२१ अपर्याप्त
२६७,४४४ आचारांग अपर्याप्ति २५६,२५७ आचार्य
४८,४९ अपूर्वकरण १८०,१८१,१८४ आत्मप्रवाद
१९८ अकायिक
२७३ आत्मा
१४८ अप्रणतिवाक ११७ श्रादानपद
७५ अप्रमत्तसंयत
१७८ आनापानपर्याप्ति
२५५ अप्रवीचार
३३९ आमिनिबोधिकमान
९३,३५९ अबखालाप
आभ्यन्तर निवृत्ति
२३२ अभव्य
३९४ आहार
१५२,२९२ अभ्याख्यान
आहारक
२९४ अयोग
श्राहारककाययोग
२९२
२८१
७६
आ
३४२
Page #553
--------------------------------------------------------------------------
________________
(२)
आहारपर्याप्ति आहारमिश्रकाययोग आहारसंज्ञा
२५४ २९३,२९४ ४१४
१२१
इन्द्रिय इन्द्रियपर्याप्ति
१३६,१३७,२३२,
२५५ २९९
इषुगति
इंगिनीमरण
ईहा
4Me
३५४
कर्ममंगल कल्प्यव्यवहार कल्प्याकल्प्य कल्याणनामधेय कषाय कापोतलेश्या
२८९ . काय
१३८,३०८ काययोग
२७९,३०८ कार्मण
२९५ कार्मणकाय कार्मणकाययोग
२९५ कालमंगल
२९ कालानुयोग क्रिया क्रियाविशाल
१२२ । कृतिकर्म
९७ . कृष्णलेश्या
३८८ केवलज्ञान ९५,१९१,३५८,३६०,३८५ केवलदर्शन क्रोध
३५० क्रोधकषाय क्षपण क्षायिक
१६१,१७२ क्षायिकसम्यक्त्व
३९५ क्षायिकसम्यग्दृष्टि क्षायोपशामिक
१६१,१७२ क्षीणकषाय क्षीणकषायवीतरागमस्थ क्षीणसंज्ञा क्षेत्रमंगल
२८ क्षेत्र
१२० क्षेत्रानुयोग
उक्तावग्रह उत्तराध्ययन उत्पादपूर्व उत्पादानुच्छेद [परिशिष्ट भा. १] २८ उदीरणोदय [परिशिष्ट भा. २] १६ उपकरण उपक्रम उपधिवाक् उपयोग
२३६,४१३ उपशम उपशमसम्यग्दर्शन उपशमसम्यग्दृष्टि
१७१ उपशान्तकषाय
१८८,१८९ उपाध्याय उपासकाध्ययन
१०२
skAFTETTExaxexxAFFEEkks
७२
एकेन्द्रिय एवंभूत
२४८,२६४
१७
औदयिक औदारिककाययोग औदारिकमिश्रकाययोग भोपशमिक
क कर्ता कर्मप्रवाद
२८९,३१६ २९०,३१६ १६१,१७२
गुण गुणनाम गोमूत्रिकागति गौण्यपद
१२१
घ्राणनिति
२३५
Page #554
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४५,१४६,१४७,१४८ १४९,३८३,३८४,३८५
२०३ २०३
२६
चक्षुर्दर्शन चक्षुरिन्द्रिय चतुरिन्द्रिय चतुर्विशतिस्तव चन्द्रप्रज्ञप्ति चयनलब्धि च्यावित च्युत चैतन्य
१०९
(३)
दर्शन ३७९,३८२
दृष्टिवाद
देव २४४,२४८
देवगति देशसत्य द्रव्य द्रव्यमन
द्रव्यमल २२
द्रव्यमंगल १४५
द्रव्यार्थिक
द्रव्यानुयोग १८८,१९० द्रव्येन्द्रिय ३७२
द्वीन्द्रिय द्वीपसागरप्रज्ञप्ति
८३,३८६
२२
२०,३२
८३
छद्मस्थ छेदोपस्थापक छेदोपस्थापनशुद्धिसंयम
२३२ २४१,२४८,२६४
धारणा ध्रुवावग्रह
३५४ ३५७
१२०
११०
३४१,३४२
जनपदसत्य जन्तु जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति जलगता जाति जीव जीवसमास जीवस्थान ज्ञान ज्ञानप्रवाद
२०१,३०२ २०१ १०१
७९
३५३,३६३,३८४ १४२,१४३,१४६,१४७,३६४
७७
नपुंसक नय नरकगति नारकगति नाथधर्मकथा नामपद नाममंगल नामसत्य निकृतिवाक् निक्षेप निरतगति निर्वेदनी निषिद्धिका नीललेश्या नैगमनय नोगौण्यपद
१२७
२०२
२०१ १०५
तदुभयवक्तव्यता तिर्यग्गति तीर्थकर तेजोलेश्या तेजस्काय त्यक्त त्रसकाय त्रिखण्डधरणीश त्रीन्द्रिय
३८९ २७३
३८९
२४२,२४८,२६४
३९०
पालेश्या परसमयवक्तव्यता परिणाम
दशवैकालिक
Page #555
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३४
२४ १५०
३९२,३९४
४१५ । बाह्यनिर्वृत्ति ३७०,३७१,३७२ २५४,२६७
भक्तप्रत्याख्यान २५७
भव्य भव्यनोआगमद्रव्य
भव्यसिद्ध ३००
भावमन
भावमल ३४१
भावमंगल भावलेश्या भावसत्य भावानुयोग
भावेन्द्रिय २४६,२४८,२६४ २६४
भाषापर्याप्ति भोक्ता
३२ २९,३३
११९
परिग्रहसंज्ञा . . . परिहारशुद्धिसंयत . पर्याप्त पर्याप्ति पर्याय पर्यायार्थिक . पश्चादानुपूर्वी पाणिमुक्तागति पारिणामिक पुद्गल पुरुष पूर्वगत पूर्वानुपूर्वी पैशुन्य पंचेन्द्रिय पंचेन्द्रियजाति पुंवेद पुण्डरीक प्रतिक्रमण प्रतिपक्षपद् प्रवाचार प्रतीत्यसत्य प्रत्यक्ष प्रत्याख्यान प्रत्येकअनन्तकाय प्रत्यकशरीर प्रथमानुयोग प्रमत्तसंयत प्रमाणपद प्ररूपणा. प्रश्नव्याकरण प्राण प्राणावाय प्राणी प्राधान्यपद प्रायोपगमन
७६
३३८,३३९ ११८
१२१
३५४ ३५८
३०८ ९४,३५८,३६०
२५५ ३३९ २०३ २०२ २७९,३०८ ९८
२६८ ११२
१७६
७७ ४११ १०४ २५६,४१२ १२२
मतिज्ञान मत्यज्ञान मनस् मनःपर्यय मनःपर्याप्ति मनःप्रवीचार मनुष्य मनुष्यगति मनोयोग महाकल्प्य महापुंडरीक महामंडलीक महाराज मान मानकषाय मानी माया मायाकषाय मायागता मायी मार्गण
५८
५७
७६
३४९ १२० ३५० ३४९
११३
बादर बादरकर्म
२४९,२६७ २५३
१२० १३१
Page #556
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६२,२६२,२७४
নিম্যান मिथ्यादृष्टि मिश्रमंगल मैथुनसंज्ञा मोषमनोयोग
विद्यानुवाद विपाकसूत्र विभंगशान
१२१ १०७ ३५८
२८
४१५ ६८०,२८१
विष्णु
मंग
वीर्यानुप्रवाद वृत्ति
मंगल मंडलीक
३२,३३,३४
वेद
१३७,१४८ ११९,१४०,१४१
१७१ ३९५
यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत यथाख्यातसंयत यथातथानुपूर्वी
३७३
७३
योग
१४०.२९९
२९१ २९१ २९१,२९२
योगी
१२०
११७ २३५
वेदक वेदकसम्यग्दृष्टि वेदकसम्यक्त्व वेदनाकृत्स्नप्राभृत वैक्रियिक वैक्रियिककाययोग वैक्रियिकमिश्रकाययोग व्यवहार व्याख्याप्रज्ञप्ति व्यंजननय व्यंजनावग्रह
| অ शब्दनय शब्दप्रवीचार शरीरपर्याप्ति शरीरी शुक्ललेश्या श्रुतज्ञान श्रृताज्ञान श्रोत्र
रतिवाक् रसननिर्वृत्ति राजा रूपगता रूपप्रवीचार रूपसत्य
३५५
११३ ३३९
२३९
ल
लब्धि लांगलिका लेश्या लोकबिन्दुसार लोभ
२३६
२०० १४९,१५०,३८६४३१
१२२
१२०
३९० ९३,३५७,३५९
२४७
वक्ता
वचस्
३०८
१७४ ११६ २७९,३०८
वन्दना वस्तु वाग्गुप्ति वाग्योग वायुकायिक विक्षेपणी विक्रिया विग्रहगति
सचित्तमंगल सत्ता सत्यप्रवाद सत्यमन सत्यमनोयोग सत्यमोषमनोयोग सदनुयोग सद्भावस्थापना समभिरूढ समयसत्य
१२० ११६ ૨૮૨ २८०,२८१ २८०,२८१ १५८
२७३
२०
२९१
११८
Page #557
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
९९
११० १२०
१५२,२५९
१७३ १४४,१७६,३७४
११८
समवाय समवायद्रव्य सम्यक्त्व सम्यग्दर्शन सम्यग्दर्शनवाक् सम्यग्मिथ्यादृष्टि सयोग सयोगकेवली साधारणशरीर साधु सामायिक सामायिकशुद्धिसंयम सामायिकशुद्धिसंयत सासादन सासादनसम्यग्दृष्टि सिद्ध सिद्धिगति सुचक्रधर सूक्ष्म सूक्ष्मकर्म सूक्ष्मसांपराय सूक्ष्मसांपरायशुद्धिसंयत सूत्र
१०१ | सूत्रकृत्
सूर्यप्राप्ति १५१,३९५ संकुट
संग्रह संज्ञ संक्षी संयतासंयत संयम संयोगद्रव्य संयोजनासत्य
संवृतिसत्य ३६९,३७० संवेदनी ३७३
स्त्री १६३ स्त्रीवेद
स्थलगता
स्थानांग २०३ स्थापनामंगल
स्थापनासत्य २५०,२६७ स्पर्शन २५३ स्पर्शनानुगम ३७३ स्पर्शप्रवीचार १८६,३७१ स्वयंभू
स्वसमयवक्तव्यता
१०५ ३४० ३४०,३४१ ११३ १००
२३७ १५८ ३३८ १२०
१२
२ अवतरण-गाथा-सूची क्रम सं. गाथा पृ. अन्यत्र कहां क्रम सं. गाथा पृ. अन्यत्र कहां २१८ आहार-सरीरिदिय- ४१७ गो जी ११९२२७ तिण्हं दोण्हं दोण्ह ५३४ गो. जी. ५३४ २२२ काऊ काऊ काऊ ४५६ गो. जी. ५२९/२२६ तेऊ तेऊ तेऊ ५३४ गो. जी. ५३५ २२३ किण्हा भमरसवण्णा५३३ पञ्चसं १, १८३२२१ दस सण्णीणं पाणा ४१८ गो. जी. १३३ २१७ गुण जीवा पजत्ती ४१२ गो. जी, २ २२४ पम्मा पउमसवण्णा ५३३ पञ्चसं १,१८४ २१९ जह पुण्णापुण्णाई ४१७ गो जी. ११८२२०पंच वि इंदियपाणा ४१७ गो. जी. १३० २२५ णिम्मूलखंधसाहुव- ५३३ गो. जी. ५०८].
(अर्धसमता) २२९ मणपजव परिहारा ८२४ गो. जी. ७२९
Page #558
--------------------------------------------------------------------------
________________
(७)
३ प्रतियोंके पाठ-भेद पृष्ठ पंक्ति . अ
आ क स मुद्रित ४११ ४ सण्णि-असण्णीसु सणासु असण्णीसु सण्णि-असणीसु सण्णि-असण्णीसु ४११ ६ पण्णत्ती पजत्ती पण्णत्ती पजत्ती ४१२ ५ -मापेक्षया -मापेक्ष्य ,
-मापेक्षया ४१२ ११ -यस्यैकत्वाभावाच्च यस्य चैकत्वाभावात् ,,
-यस्य चैकत्वाभावात् ४१३ ३ -संज्ञायां
-संज्ञाया ४१३ ४ लोभोदयस्य लोभोदय
लोभोदय४१३ ७ संज्ञानसंज्ञाज्ञान
स ज्ञान४१४ १ -संज्ञानां
-संज्ञायां
-संज्ञानां ४१४ ८ मायाप्रेमयो
मायालोभयो४१४ १० -प्रभावा
-प्रभवा ४१५ ६ इंदिया
एइंदिया
܇ ܀ ܇ ܀ ܚ ܣ ܘ ܗ ܘ ܘ̄ ܙܘ ܀ ܚ ܥ ܚ ܬ ܠ ܐ ܚ ܚܝܵ ܚ ܘ ܀ ܣ ܣ ܘ
"
४१७ ३ -गत४१७ ४ -घद-गद
-घड४१८ ३ -आणापाणेहि
-आणापाणापाणेहि-आणापाणपाणहि ४१८ ८ पन्ज
अपज४१८ ११ -पजत्तस्स
पज्जत्तयस्स ४१९ ३ एदासिं एदेसिं पदासिं
एदार्सि ४२० ३ -विसिटे
-विसेसे
-विसिटे ४२० ११ -भावेण
-भावेहि ४२१ २ छण्णं भेदं छलेस्साभेदं छ-भेदं
छन्भेदं ४२१ सत्त पाण
सत्त पाण २ सत्त पाण सत्त पाण ४२२ ९ भणदि भणिदे
भण्णदे ४२५ ४ -त्ताणे -त्ताणं ४२६ ६ -जुत्ता जुत्ता वि हॉति
-जुत्ता वि अत्थि वि अस्थि , ४२६ ७ -णमोघालावे -णं भण्णमाणे -णमोघालावे
भण्णभाणे मोघालावे ४३६ ८ अपज्ज४२८ ४ अणाहारिणो अणावारणा , , अणाहा०
आहारिणो ४३० २ पज्जत्तीओ ,
अपज्जत्तीओ ४३० ७ -जीवाणं जीवा ण -जीवाणं
जीवाण ४३३ १ x -मोघालावे
-मोघालावे
"
-त्तोघे
ܘ ܫ ܚ ܘ
-मोटे
Page #559
--------------------------------------------------------------------------
________________
८)
ل
س
م
سم سم
ه
م
४३३ २ दंसण
सण्णाओ ४३६ ३ अस्थि
णस्थि ४३६ १० -दयाणं सदि
-दयो णस्सदि ४३८ ४ -माण
-माया४४३ २ णिव्वत्त
णिवत्त ४४४ भवंति हवति भवंति
भणंति ४४४
भवंति हवंति भवंति ४४६ अस्थि णत्थि लेषणेवसेव
लेव४४८ करणेत्ति
सज्योत्ति कण्हत्ति ४५३ णाण
अण्णाण ४५८ ३ पज्ज०
अपज्जत्तीमो ४५९
काउसुक्क४६० काउसुक४६० पज०
अपज्जत्तीयो ४७० तदिय
एवं तदिय४७० इंदियाणं
इंदयाणं एदो ओदो
एदाओ दो पंचिंदिय-अपज्जत्ता
पंचिंदियतिरिक्त-अपज्जत्ता अणाहारिणो
आहारिणो ४७६ ८ सत्त पाण ,
, दस पाण सत्त पाण , ४७८ २ पज्जत्तीओ ,
अपज्जतीमो ४७८ ६ सम्मामित्थाइट्ठीणं सम्माइट्ठीणं ,,
सम्मामिच्छाइट्रीणं ४८१ ३ -ज्जमाणं -जमाणाणं ज्जमाणं
-ज्जमाणं ४८२ ७ पंचिंदियतिरिक्खाणं पंचिंदियति-पंचिंदियतिरिक्ख० पंचिंदिय-तिरिक्खाण
रिक्खअपज्जत्ताणं ४८४ ७
साइयसम्मत्तं खइयसम्माइट्ठी खइयसम्मत्तं ४८८ ७ आहारिणो
आहारिणो अणाहारिणो, ४९२ ७ णव पाण
णव पाण सत्त पाण ४९७ ४ दवभावेहि दव्वभावेण दव्वभावेहि ४९८ २ असण्णिणीओ
सणिणीमो ४९८ ७-काउसुक्कलेस्सावि -काउसुक्कलेस्साओ -काउसुक्कले. काउलेस्साओ ५०० ८ सत्त पाण
सत्त पाण सत्त पाण
6 day ao & an aw a & r cand a wo u 6 & ao
ه
HTHE......... ६. 11: ::::
"
" सत्त पाण २
५०२
५
अजोगी
५०२ ७ असण्णिणो असणिणो मसणिणो
... वि अत्थि अणुभया वा वि अस्थि
णेव सण्णिणो णेव असणिणो वि अस्थि
|
Page #560
--------------------------------------------------------------------------
________________
(९)
कवल
तासि
"
५०४ ४ पंच णाण पंच णाण मणपज्जवकेवल
पंच णाण केवलणाकेवलणाणेण केवलणाणेण जाणेण विणा
णण छणाण छ णाण विणा छ णाण छ णाण ५१० ९ पज्ज
अपज्ज
अपज्जत्तीमओ ५११ ६ -लेस्साओ ,
-लेस्साहि ५१२ ४ सागारु० होति ,, सागार अणागारोहि
सागारुवजुत्ता हॉति अणा० वा जुगवदुवजुत्ता वा होति।
अणागारुवजुत्ता वा ५१२ ५ सम्मत्तसंजदप्पहुडि ,,
पमत्तसंजदप्पहुडि , ५१३ ७ वेदोपि ५१५ ४ तासिं
तस्सेव ५१५ ५ पज्जत्तीओ
अपज्जतीयो ५१५ ६४
x x
x चत्तारि कसाय ५१८ ८ सागारुवजुत्ता सागारअणा- सागार अणा
सागारुवजुत्ता होति होत अणागा- गारहिं जुग- गारेहिं अणु
अणागावजुत्तावा रुवजुत्ता वा वदुवजुत्ता वा भओ वा । ५२८ २ मणुसिणी-उवसंत-मणुसिणीसु-उवसंत-, ५३० ६ णेव सण्णिणाओ ,,
,
णेव सणिणीयो
व असणिणीमो, ५३१ ५ देवगदीए देवगदीणं देवगदीए
देवगदीप ५३२ ६ एदं ण घडदे एवं घडदे पदं ण घडदे ५३३ १ णीलाघण- णीलायण- णीलायणणीलगुलिय- णीलगुणिय- णीलगुलिय
णीलगुलिय५३३ ३ पउवसवण्णा ,
पउमसवण्णा ५३३ ६ वुश्चित्तु वुश्चिन्छु
बुधित्तु ५३३ ७ -लेस्साणं -लेस्साई -लेस्साणं
-लेस्लाणं ५३५ १ भावादो , ५३९ १ दो गदि
देवगदी ५४२ ७ पज्ज
अपज्ज५५२ २ आहारिणो अणाहारिणो ,,
भाहारिणो ५५२ ५ पज्जतीओ
अपज्जत्तीमो ५५४ ७ पज्जत्तीओ
अपज्जत्तीभो ५५५ ४ णाण
अण्णाण ५५५ ५वण काउ सुक्क ट्वेण काउसुक्क दब्बेण काउसुक्क० दब्वेण काउ-सुक
मजिसमा तेउलेस्सा मज्झिमा तेउ माझिमा तेउले० मज्झिम-तेउलेस्सा भावेण लेस्सा भावेण भावेण ।
भावेण मज्झिमा मज्झिमा तेउ
तेउलेस्सा लेस्साभो
णीला पुणः
भावदो
Page #561
--------------------------------------------------------------------------
________________
५५८
५५९ ६ - यारुहिय ५६० १ पुणेोहिणा
५६१ ७
५६४ ६ ५६८ ६-७
५६९
५६९
५६९
(१०)
१ दव्वेण काउसुक्क दव्वेण काउसुक्क दव्वेण काउसुक्क
लेस्सा
मज्झिमा तेउलेस्सा
३
20 & 5 word
५९८
४
५७०
५७१
५७४
५७५ ९
५८१
६
- सुक्क-उक्कस्स
जहण्ण
- पार्दिकर
एवं देवगदीए सिद्धमंगो
णेय असंजदा संजदा वि
कायव्वा
५८३ ७ दव्वेण छलेस्सा ५८६ ३ पजत्तीओ ५९१ १ कायाणुवादेण
८
पुण
सण्णिणो आहारिणो
सण्णिणो असंजमोस
२ एवं चउरिंदिय तेसिंचेव अपज्जत्ताणं अपजत्ताणं
अपज्जन्त्ता ।
पत्तेयं
39
"
33
39
39
35
39
35
33
पुढरवणफर पुढविवणप्फर पुढ वणप्र
-33
23
५९१ ३ अट्ठावीस वा ५९१ ४ चोवीस वा तेतीस वा,, चडतीस वा ५९१ ५ एतालीस
५९२ ३ णिव्वत्तिपज्जत्त५९२ १० तसकाइया पंचिदिया तसकाइया
"
""
33
""
""
पीदिंकर
33
33
"
39
33
13
".
39
39
"
33
पुणोहिणा
""
"
39
75
णिव्वत्तिअपज्जत्ततसकाइया दुविधा दुविहा पज्जन्ता दुविहा पंचिं- पज्जत्ता अपज्जत्ता अपज्जता । पंचिं- दिया दुविधा पंचिंदिया दुविहा दिया दुविहा सण्णी पज्जत्ता अप-सण्णिणो असअसण्णी सण्णी ज्जत्ता सण - णिणो । सणि० दुविधा पज्जन्त्ता अप-णो असण्णिणो दुविहो० पज्ज० ज्जत्ता | असण्णी दुविहो २ अपज्ज असण्ण दुविधा पज्जत्ता पज्जत्ता अप- दुविहो पज्ज० ज्जता । पत्तेयं पत्तेयं
- मारुहिय पुणादिण्णा सुक्क जहण्ण
वप्तव्वा
असश्वमोस
"
अपजत्तीओ
अपज्ज० । पत्तेयं
दव्वेण काउ- सुक्कमज्झिम- तेउलेस्सा
"
13
दग्वेण काउ-सुक्क उक्कस्स तेउ-जहण्ण
33
एवं देवगदी । सिद्धगदीप सिद्धभंगो। णेव असंजदा णेव संजदासंजदा वि ।
95
पुढवण असण्णिणो आहारिणो अणाहारिणो असणणो
39
39
दव्व-भावेहि छ लेस्सा
ܕܕ
काय वादे ओघालावे भण्णमाणे सोलस वा तेतीस वा, चउवीस वा
वायालीस
""
तसकाइया दुधिद्दा पंचिंदिया अपंचिंदिया। पंचिंदिया दुविहा सणणो असण्णिणो । सण्णिणो दुविधा पज्जत्ता अपज्जत्ता । असण्णिणो दुविधा पज्जत्ता
अपज्जन्ता ।
"}
Page #562
--------------------------------------------------------------------------
________________
दोषिण
"
"
"
(११) ६०० १ वीए ६०२ ३ तिण्णि ६०३ ४ अकसाआ
अकसाओ ६०४ २ मूलोघब्भुउज्जीव- , ,, मूलोघभुत्तजीव६०६ २ पजत्तीओ
अपजत्तीमो ६०६ , तिण्णिगदी
तिरि० गदि
तिरिक्खगदी. ६०९ ३ आहारिणो
आहारिणो .
अणाहारिणो, ६०९ १२ -मुवसाणिय
-मेव पाणीय६१० ३ एवं
एवं ६१० ६ -काइयणिवत्ति -काइयाणं
-काइयणिव्वत्तिपज्जत्ता- पजत्ता
पज्जत्तापजत्ताणं पजत्तापजत्तणा-,
पजत्तणामकम्मोदयमकम्मोदयाणं
तेउकाइयाणं ६११ २ वणिज
तवणिज६११ ,, पजत्ताणं पज्जत्तापज्जत्ताणं
पज्जत्ताणं ६१२ २ अण्णेयवण्णालावे ,,
अणेयवण्णा गुलिवसा।
तोवि रूढिवसा ७ भवसिद्धिया भवासाद्धया ,
भवसिद्धिया अभव
सिद्धिया, ६१५ ८ पज्जत्तीओ
अपज्जत्तीओ ६२० १० तेसिं २ तेसिं तेसि २
तेसिं ६२१ १ वणप्फहकाओ वणप्फा-भंगो ,
त्ति भंगो ६२२ ३ सत्त पाण
सत्त पाण२
सत्त पाण सत्त पाण ६२७ १ -इटिप्पहुडि -इट्ठिणप्पहुडि इटिप्पहुडि ६२७ ३ चदुगदिगदाओ चउगदिगदीओ चउगदिमदीदो ६२७ ५ व्व-भावाह
, व्व-भावहि अलस्सा " छ लेस्साओ ६३३ ४ इद्विदो
इदि दो ६३४ ४ -जोगीणं भंगो जोगी गो"
जोगि-भंगो ६३४ ८ ताजवि
ताओ वि ६५३ ३ सण्णित्तिब्भु , सपिणत्तम्भु ६५४ १ जोगोव उत्ताण जोगेव जोगेव उत्ताणं -जोगे वदृत्ताणं -जोगे वटुंताणं
उज्जत्ताणं ६५४ १ छठवण्णकालिय-,
छन्वण्णोरालिय परमाणाणं
परमाणूणं ६५४ २ परमाणाहि
परमाणूहि सह सहामिलिदाणं
मिलिदाणं
Page #563
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१२)
"
कालोद
कावोद६५४ ७ -केवलि
केवालस्स ६५८ ४ अयोग
आयु ६५९ २ समणा सभणा समणा समत्तो
समणा ६६० ५ एबंध- ___,, , बंध-. ६६९ ६ विरहाकालाव- ,
विरहकालोव६७२ ८ तंजहाणेदव्वा तम्हाणेदव्वा जंजहाणेवा जहा मूलोघो णीदो जहा मूलोघोणीदो
तं जहाणेदव्या तहाणेदव्वा ६८४ ८ सणिणो
सण्णिणो असण्णिणो १ अणिदियत्तं अणियाट्टियत्तं अणियट्टितं
अणिदियत्तं पि अस्थि ७०० २ छ लेस्साओ ,
अलेस्साओ ७०५ ५ आहारिणो ,,
आहारिणो अणाहारिणो ७१२ १० मुणं मुए ,
माण-माया७१३ ३ ४ १०.४.२-१ ७२६ ७ -णाणाणं ,
-णाणाणि बत्तवाणि वत्सब्वाणं ७२६ ८ तिष्णि
तेण ७२७ १इयक्केसु सत्तीसु,
इयरेसु संतेसु ७२७ २-विवक्खियाणाण-,
विवक्खियणाण७२७ ७ -तं पिच्छायद- ,
-तं पच्छायद- -त्तपच्छायद७३० ४ मूलोधोव्य मूलोघौव्व मूलोधौ
मूलोघो व्व ७३३ ७ विवट्टिदो ,
एवं छेदोवट्ठावणवट्टावण७५० १ खीणसण्णाविओ, वीणकसाओ ७५१ २ किण्ह-णील किण्णलेस्साओ किण्ण-णील.
काउलेस्साओ ७५४ २ भावण भावेण छ लेस्साओ ,,
भावेण किण्हलेस्ला विएवं ७६३ ७ पंचिंदियजादि ।
पंच जादीओ ७७८ ४
पिंडियाए ७९४ तिव्व लाहाणं ,
तिव्वलोहाणं ८०१ ४ अजोगि-केवलि जोगि-केवलि अजोगिकेवलि x सजोगिकेवलि ८०१ ५ अण्णलेस्साणं ,
अलेस्साणं ८१६ ८ वेदगसम्माइटि
- वेदगसम्माइट्टिप्पडि
" "
पमत्त
किण्हलेस्सा
x
पिटियाए
।
Page #564
--------------------------------------------------------------------------
________________
"
पच्छागद
८२३ ८२३
,
(१३) ८२२ ७ मोरालिय
ओयरिय ८२२ ८ तत्थुप्पत्तिहि- तत्थुप्पत्तीहिं
तत्थुप्पत्तिभवा- भवा
संभवा८२२ ९ पाच्छमद- , पछागद पडिवज्जति
पडिपज्जति उवसंघडिद- उवसंहरिद८२३ ३ तल्लो उदिण्णाणं ,,
तत्तो ओदिण्णाणं ८२४ ३ -सेसपज्जाणे
खेसयं जाणे ८२५ ९ एसस्था .......
एसत्थो ...... वत्तव्वा
वत्तवो सासणसम्माचत्तारि जोग. चत्तारि जोगः चत्तारिजोगसव्वजोगो असंजमो सव्व जोगो
सव्वजोगो
orrmwww
८३४
सण्णिसाखणसम्माचत्तारि जोगअसचमोसवचि
जोगो
पृष्ठ ४५५ ४६४ ५०८ ५२४ ५२९
पंक्ति प्रति
३ अ. ३ अ. आ. क. ७ अ. ७ आ. १ आ. ६ आ.
४ प्रतियोंमें छूटे हुए पाठ. कहांसे
कहांतक ओरालियकायजोगो
छ अपजत्तीको, मणुस्स-सम्मामिच्छाइट्टीणं
अणामारुवजुत्ता वा। मणुसिणी-विदिय
अणागावजुत्ता वा। दव्येण छ लेस्साओ
... केवलदसण,
खायसम्मत्तेण विणा तेसिं चेव पजत्ताणं
... अणागारवजुत्ता वा। एवमिस्थिपुरिस
... मालावो वत्तव्यो पजत्तकाले
... पम्मलेस्सा, मिच्छाइट्ठीण
... को तत्थ भावेण
काउलेस्सा, तसकाओ,
सत्त पाण, तसकाइया ... ... ... वियलिंदिया त्ति
५६६ ५७०
३ ९
भ. अ. आ. क.
५८६ ५९२
३ ५
अ. भा. क. अ. भा.
Page #565
--------------------------------------------------------------------------
________________
६०० ५ क.
६३० ५ अ. आ. क.
६३६
७ अ. आ. क.
६५४
९
अ.
६५६
आ.
६६२
क.
१ अ.
૬૭૮ ६८७ ३
६९८ ५
७०४ ९
अ. आ. क.
७०९ ७
अ. आ. क.
आ.
७१२ ૪ ७१२ १०
अ.
७१४ १
अ. आ. क.
७१६ ४
अ. आ. क.
६
अ. आ. क.
७१८ ७३६ ३
अ. आ. क. अ. आ. क.
७४५ १
अ. आ. क.
७५५ ४ ७६४ ४ अ. आ. क.
७६९ २
आ.
७७९
३ अ. आ.
७८४
१
अ.
७८४
२
क.
अ. आ. क.
559 v mr on an org
३
१
AAAA
७८५
८१६ ८ अ.
८१७
३ अ.
८
अ.
अ. आ. क.
( १४ )
एदियजादि -आदी तिण्णि अण्णाण असच्चामोस
कवाडगदओरालिय मिस्स कायजोगि वेडव्वियकायजोगि
तेसिं चेव पजत्ताणं तेसिं चेव अपजत्ताणं दो जीवसमासा
***
माणुसगदी
कोधकसाय - विदिय
लोभकसायरस
सागार
तेसिं चैव पज्जत्ताणं तेउलेस्सा-अप
सागारुव
तेसिं चेव पज्जत्ताणं तिष्णि णाणाणि
...
वेदकसम्माइट्टि - - पमत्त वेदक सम्माइट्ठि - अप्पअणाद्दारि-असंजद
...
...
...
4.4
...
...
अवगदवेदो वि अस्थि, चत्तारि कसाय, णवरि
चेव भवदि, तसकाओ,
...
...
⠀⠀⠀⠀⠀⠀
अणागारुवजुत्ता वा ।
अणागारुवजुत्ता वा ।
अणगारुवजुत्ता वा । - समासो वि अस्थि
छ अपज्जत्तीओ, कोधक साओ,
अणागारुवजुत्ता वा । वतन्वो
- दुवजुत्ता वा ।
चत्तारि गर्दीओ, चत्तारि गदीओ, छ अपज्जतीओ,
चचारि गदीओ, चत्तारि गदीओ, छ अपज्जतीओ
अणागारुवजुत्ता वा । अणागारुवजुत्ता वा । - रुवजुत्ता वा । अणागारुवजुत्ता वा । असंजमो, अणागारुवजुत्ता वा । अणागारुवजुत्ता वा । अणागारुवजुत्ता वा ।
Page #566
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृ०
१५७
४११
४३५
४४८
पं०
२
४
८
(१५)
५ विशेष टिप्पण ( पुस्तक १ )
66
ण च संतमत्थमागमेो ण परूवेह तस्स अत्थावयत्तप्पसंगादो आये हुए 'अत्थावयत्तत्पसंगादो' का अर्थ 'अर्थापदत्व अर्थात् अनर्थकपदत्वका प्रसंग प्राप्त हो जायगा ' ऐसा किया गया है । जयधवला अ. प्र. पृ. ५१२ में भी 'ण च संतमत्थं ण परुवेदि सुत्तं, तस्स अव्वावयत्तदोसप्पसंगादो' इस, प्रकारका वाक्य पाया जाता है। जिसमें आये हुए 'अव्वावयत्तदोसप्प संगादो का अर्थ 'अव्यापकत्वदोषका प्रसंग प्राप्त हो जायगा' होता है। धवलाके पाठसे जयधवलाका पाठ शुद्ध प्रतीत होता है ।
( पुस्तक २ )
पदासं विधिं पुध पुध उवसंदरिसणा परूवणा ।
जयध. अ. पृ. ६३१.
उदीरणाए चेव उदयो उदीरणोदओ त्ति ।
जयध. अ. पृ. ५२६.
"5
इस पंक्तिके अनुसार 'उदीरणामें ही होनेवाले उदयको उदीरणोदय कहते हैं' ऐसा अर्थ होता है । परन्तु हमने अर्थ करते समय उदीरणोदयका उदीरणा तथा उदय ऐसा अर्थ किया है। इसका कारण यह है कि आठवें, गुणस्थानके अन्तिम समयमें भय प्रकृतिकी उदीरणा व्युच्छित्ति तथा उदय व्युच्छित्ति होती है ।
१ 'णिरया किण्हा ' गो. जी. ४९६. णेरइया णं भंते! सब्वे समवन्ना ? गोयमा ! णो इणट्टे समट्टे । से केणट्टेणं भंते! एवं वुञ्चइ - नेरइया नो सव्वे समवन्ना । गोयमा ! णेरड्या दुविह पन्नत्ता, तं जहा - पुव्वोववन्नगा य पच्छोववन्नगा य । तत्थ णं जे ते पुग्वोववन्नगा ते णं विसुद्धवन्नतरागा, तत्थ णं जे ते पच्छोववन्नगा ते णं अविसुद्धवन्नतरागा । प्रज्ञा. १७.१.३.
Page #567
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #568
--------------------------------------------------------------------------
________________ जैन साहित्य उद्धारक फंड तथा कारंजा जैन ग्रंथ मालाओंमें प्रो. हीरालाल जैन द्वारा आधुनिक ढंगसे सुसम्पादित होकर प्रकाशित जैन साहित्यके अनुपम ग्रंथ प्रत्येक ग्रंथ सुविस्तृत भूमिका, पाठभेद, टिप्पण ब अनुक्रमणिकाओं आदिसे खूब सुगम और उपयोगी बनाया गया है। 1 पखंडागम-(धवलसिद्धान्त ) हिन्दी अनुवाद सहित भाग 1 पुस्तकाकार 10, शास्त्राकार 15 भाग 2 , 10 , 12) यह भगवान् महावीर स्वामीकी द्वादशांग वाणीसे सीधा संबन्ध रखनेवाला, अत्यन्त प्राचीन, जैन सिद्धान्तका खूब गहन और विस्तृत विवेचन करनेवाला सर्वोपरि प्रमाण ग्रंथ है। श्रुतपंचमीकी पूजा इसी ग्रंथकी रचनाके उपलक्ष्यमें प्रचलित हुई। 2 यशोधरचरित-पुष्पदंतकृत अपभ्रंश काव्य... इसमें यशोधर महाराजका अत्यंत रोचक वर्णन सुन्दर काव्यके रूपमें किया गया है / इसका सम्पादन डा. पी. एल. वैद्य द्वारा हुआ है। 3 नागकुमारचरित--पुष्पदंतकृत अपभ्रंश काव्य...... .... इसमें नागकुमारके सुन्दर और शिक्षापूर्ण जीवनचरित्र द्वारा श्रुतपंचमी विधानकी महिमा बतलाई गई है / यह काव्य अत्यंत उत्कृष्ट और रोचक है / 4 करकंडुचरित--मुनि कनकामरकृत अपभ्रंश काव्य... इसमें करकंडु महाराजका चरित्र वर्णन किया गया है, जिससे जिनपूजाका माहात्म्य प्रगट होता है। इससे धाराशिवकी जैन गुफाओं तथा दक्षिणके शिलाहार राजवंशके इतिहास पर भी अच्छा प्रकाश पड़ता है। 5 श्रावकधर्मदोहा--हिन्दी अनुवाद सहित... ... ... ... 2 // ) इसमें श्रावकोंके व्रतों व शीलोंका बड़ाही सुन्दर उपदेश पाया जाता है। इसकी रचना दोहा छंदमें हुई है। प्रत्येक दोहा काव्यकला पूर्ण और मनन करने योग्य है। 6 पाहुडदोहा--हिन्दी अनुवाद सहित... ... ... ... ... ...2 // इसमें दोहा छंदोंद्वारा अध्यात्मरसकी अनुपम गंगबहाई गई है जो अवगाहन करने योग्य है। an Education Intemational For Private & Personal use only www.lainelibrary.org