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________________ ७५२ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाण सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा । तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि तिण्णि गुणट्ठाणाणि, सत्त जीवसमासा, छ अपज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण छ पाण पंच पाण चत्तारि पाण तिण्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, चत्तारि गईओ, पंच जादीओ, छ काय, तिण्णि जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, पंच णाण, असंजमो, तिण्णि दंसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण किण्हलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं मिच्छत्तं सासणसम्मत्तं वेदगसम्मत्तं च भवदि; छट्ठीदो पुढवीदो किण्हलेस्सासम्माइद्विणो मणुसेसु जे आगच्छंति तेसिं वेदगसम्मत्तेण सह किण्हलेस्सा लब्भदि त्ति । सणिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा“। सम्यक्त्व, संक्षिक, असंक्षिक; आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं। . उन्हीं कृष्णलेश्यावाले जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और अविरतसम्यग्दृष्टि ये तीन गुणस्थान, सात अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां, चार अपर्याप्तियां; सात प्राण, सात प्राण, छह प्राण, पांच प्राण, चार प्राण, तीन प्राण; चारों संज्ञाएं, चारों गतियां, पांचों जातियां, छहों काय, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मणकाययोग ये तीन योग, तीनों वेद, चारों कषाय, कुमति, कुश्रुत और आदिके तीन शान ये पांच ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्णलेल्या; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, सासादनसम्यक्त्व और वेदकसम्यक्त्व ये तीन सम्यक्त्व होते हैं । कृष्णलेश्यावाले जीवोंके अपर्याप्तकालमें वेदकसम्यक्त्व होनेका कारण यह है कि छठी पृथिवीसे जो कृष्णलेश्यावाले अविरतसम्यग्दृष्टि जीव मनुष्योंमें आते हैं, उनके अपर्याप्तकालमें वेदकसम्यवत्वके साथ कृष्णलेश्या पाई जाती है। सम्यक्त्व आलापके आगे संशिक, असंक्षिक; आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं। नं.३९८ कृष्णलेश्यावाले जीवोंके अपर्याप्त आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं.का. यो. वे. क. ना. संय. द. ले. भ. स. सनि. | आ.। उ.। ५अ.७ अ. 599urr»m औ.मि. वै.मि. कार्म. कुश्रुः | कुम. असं. के.द. का. म. मि. सं. आहा. साका. विना. शु. अ. सा. असं. अना. अना. भा. १ क्षायो, कृष्ण. अव. मति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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