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________________ १, १. ] संत - परूवणाणुयोगद्दारे सण आलाववण्णणं [ ८२५ अपुव्यरण पडुडि जाव उवसंतकसाओ त्ति ताव ओघ भंगो | णवरि सव्वत्थ उवसमसम्मत्तं भाणियव्वं । मिच्छत्त सासणसम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं ओघ मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि-सम्मामिच्छाइट्ठि-भंगो । एवं सम्मत्तमग्गणा समत्ता । पाण्णपदे अवलंबिज्जमाणे सव्वाणुवादाणं मूलोघ-भंगो होदि; तत्थ सव्ववियप - संभवादो | गुणणामे अवलंबिज्जमाणे ण होदि । पाधण्णपदे अणवलंबिज्जमाणे असं जमादीणं कथं गहणं ? णः वदिरेगमुहेण संजमादि-परूवणङ्कं तप्परूवणादो । तेण दोण व वक्खाणाणि अविरुद्धाणि । एसत्थो सव्वत्थ वतव्वो । सणियाणुवादेण सण्णीणं भण्णमाणे अत्थि बारह गुणट्ठाणाणि, दो जीवसमासा, छ पज्जतीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपूर्वकरण गुणस्थान से लेकर उपशान्तकषाय गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीवोंके आलाप ओघ आलापके समान होते हैं । विशेष बात यह है कि सम्यक्त्व आलाप कहते समय सर्वत्र उपशमसम्वत्व ही कहना चाहिए । मिथ्यात्व, सासादन सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के आलाप क्रमशः मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानके आलापोंके समान जानना चाहिए । इसप्रकार सम्यक्त्वमार्गणा समाप्त हुई । प्राधान्य पदके अवलंबन करनेपर सभी अनुवादोंके आलाप मूल ओघालापके समान होते हैं; क्योंकि, मूल ओघालाप में विधि प्रतिषेधरूप सभी विकल्प संभव हैं । किन्तु गौणनामपदके अवलंबन करनेपर सभी विकल्प संभव नहीं हैं; क्योंकि, इस नामपदकी दृष्टिसे गुणनाम भंगों के ही आलाप कहे जायेंगे, दूसरोंके नहीं । शंका- तो फिर प्राधान्यपदके अवलंबन नहीं करनेपर संयमादिके प्रतिपक्षी असंयमादिका ग्रहण कैसे किया जा सकता है ? - समाधान – नहीं; क्योंकि, व्यतिरेकद्वारसे संयमादि विकल्पोंकी प्ररूपणाके लिए ही असंयमादि विपक्षी विकल्पोंकी प्ररूपणा की जाती है; तभी विवक्षित मार्गणाद्वारा समस्त जीवोंका मार्गण हो सकता है, अन्यथा नहीं । इसलिए संयमादि अन्वयरूप और असंयमादि व्यतिरेकरूप दोनों ही व्याख्यान अविरुद्ध हैं । यही अर्थ सभी मार्गणाओंके विषयमें कहना चाहिए । संज्ञी मार्गणा के अनुवादसे संक्षी जीवोंके आलाप कहने पर - आदिके बारह गुणस्थान, संक्षी-पर्याप्त और संशी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छद्दों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां: दशों प्राण, सात प्राण, चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंज्ञास्थान भी है, चारों गतियां, पंचेन्द्रियजाति, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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