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षट्खंडागमकी प्रस्तावना
धारक तीर्थंकरोंने किया था उसीप्रकार संक्षेपमें व्याख्यान करने योग्य था । किन्तु आगे कालपरिहानिके दोषसे वे निर्युक्ति, भाष्य और चूर्णियां विच्छिन्न हो गई । फिर कुछ काल जाने पर यथासमय महाऋद्धिको प्राप्त पदानुसारी वइरसामी ( वैरस्वामी या वज्रस्वामी ) नामके द्वादशांग श्रुतके धारक उत्पन्न हुए । उन्होंने पंचमंगल महाश्रुतस्कंधका उद्धार मूलसूत्र के मध्य लिखा । यह मूलसूत्र सूत्रत्वकी अपेक्षा गणधरों द्वारा तथा अर्थकी अपेक्षासे अरहंत भगवान, धर्मतीर्थकर त्रिलोकमहित वीरजिनेंद्र के द्वारा प्रज्ञापित है, ऐसा वृद्धसम्प्रदाय है ।
यद्यपि महानिशीथसूत्र की रचना श्वेताम्बर सम्प्रदाय में बहुत कुछ पीछेको अनुमान की जाती है, तथापि उसके रचयिताने एक प्राचीन मान्यताका उल्लेख किया है जिसका अभिप्राय यह है कि इस पंचमंगलरूप श्रुतस्कंधके अर्थकर्ता भगवान् महावीर हैं और सूत्ररूप ग्रंथकर्ता गौतमादि गणधर हैं । इसका तीर्थंकर कथित जो व्याख्यान था वह कालदोषसे विच्छिन्न हो गया । तब द्वादशांग श्रुतधारी वइरस्वामीने इस श्रुतस्कंधका उद्धार करके उसे मूल सूत्रके मध्य में लिख दिया । श्वेताम्बर आगममें चार मूल सूत्र माने गये हैं- आवश्यक, दशत्रैकालिक, उत्तराध्ययन और पिंडनिर्युक्ति । इनमें से कोई भी सूत्र वज्रसूरि के नामसे सम्बद्ध नहीं है । उनकी चूर्णियां भद्रबाहुकृत कही जाती हैं । उन मूल सूत्रोंमें प्रथम सूत्र आवश्यक के मध्य में णमोकार मंत्र पाया जाता है । अतएव उक्त मान्यता के अनुसार संभवतः यही वह मूलसूत्र है जिसमें वज्रसूरिने उक्त मंत्रको प्रक्षिप्त किया ।
कल्पसूत्र स्थविरावली में
दूसरे के गुरु-शिष्य थे । यथा
वइर
' नामके दो आचार्योंका उल्लेख मिलता है जो एक
थेरस्स णं अज्ज-सीहगिरिस्स जाइस्सरस्स कोसियगुत्तस्स अंतेवासी थेरे अजवइरे गोयमसगुते । थेरस्स णं अज्जवइरस्स गोयमसगुत्तस्स अंतेवासी थेरे अजवइरसेणे उक्कोसियगुत्ते ।
अर्थात् कौशिक गोत्रीय स्थविर आर्य सिंहगिरिके शिष्य स्थविर आर्य वइर गोतम गोत्रीय हुए, तथा स्थविर आर्य वइर गोतम गोत्रीय के शिष्य स्थविर आर्य वइरसेन उक्को सय गोत्रीय हुए । विक्रमसंवत् १६४६ में संगृहीत तपागच्छ पट्टावली में वइरखामीका कुछ विशेष परिचय पाया जाता है । यथा—
तेरसमो वयरसामि गुरु |
व्याख्या - तेरसमोति श्रीसीह गिरिपट्टे त्रयोदशः श्रीवज्रस्वामी यो बाल्यादपि जातिस्मृतिभाग्, नभोगमनविद्यया संघरक्षाकृत्, दक्षिणस्यां बौद्धराज्ये जिनेन्द्र पूजानिमित्तं पुष्पाद्यानयनेन प्रवचनप्रभावनाकृत्,
× Winternity : Hist. Ind. Lit. II, P. 465.
* पट्टावली समुच्चय, (पृ. ३ )
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