________________
षट्खंडागमको प्रस्तावना वडर वायगवंसो जसवंसो अज-नागहस्थीणं ।
वागरण-करणभंगिय-कम्मपयडी-पहाणाणं ॥ ३०॥ अर्थात् व्याकरण, करणभंगी व कर्मप्रकृतिमें प्रधान आर्य नागहस्तीका यशस्वी वाचक वंश वृद्धिशील होवे ।
इसमें सन्देहको स्थान नहीं कि ये ही वे नागहत्थी हैं जो धवलादि ग्रंथोंमें आर्यमंखु के सहपाठी कहे गये हैं । उनके व्याकरणादिके अतिरिक्त ' कम्मपयडी' में प्रधानताका उल्लेख तो बड़ा ही मार्मिक है। श्वेताम्बर साहित्यमें कम्मपयडी नामका एक ग्रंथ शिवशर्मसूरि कृत पाया जाता है जिसका रचनाकाल अनिश्चित है। एक अनुमान उसके वि. सं. ५०० के लगभगका लगाया जाता है । अतएव यह ग्रंथ तो नागहस्ती के अध्ययनका विषय हो नहीं सकता। फिर या तो यहां कम्मपयडीसे विषयसामान्य का तात्पर्य समझना चाहिये, अथवा, यदि किसी ग्रंथ-विशेष से ही उसका अभिप्राय हो तो वह उसी कम्मपयडी या महाकम्मपयडिपाहुड से हो सकता है जिसका उद्धार पुष्पदन्त और भूतबलि आचार्योंने षटखंडागम रूपसे किया है।
तपागच्छ पट्टावलीसे कोई सवा तीनसौ वर्ष पूर्व वि. सं. १३२७ के लगभग श्री धर्मघोष सरि द्वारा संगृहीत ‘सिरि-दुसमाकाल-समणसंघ-थयं' नामक पट्टावली में तो 'वइर' के पश्चात् ही नागहथिका उल्लेख किया गया है । यथा
बीए तिवीस बरंच नागहत्थि च रेवईमित्तं ।
सीहं नागजुणं भइदिक्षियं कालयं वंदेx॥१३॥ ये वइर, वइर द्वितीय या कल्पसूत्र पट्टावलीके उक्कोसिय गोत्रीय वईरसेन हैं जिनका समय इसी पट्टावलीकी अवचूरीमें राजगणनासे तुलना करते हुए नि. सं. ६१७ के पश्चात् बतलाया गया है। यथा
पुष्पमित्र (दुर्बलिका पुष्पमित्र)२०॥ तथा राजा नाहडः॥१०॥ (एवं)६०५ शाकसंवत्सरः॥ अत्रान्तरे वोटिका निर्गता । इति ६१७ ॥ प्रथमोदयः । वयरसेण ३ नागहस्ति ६९ रेवतिमित्र ५९ बंभदीवगसिंह ७८ नागार्जुन ७८
पणसयरी सयाई तिग्नि-सय-समनिआई अइकमऊ।
विकमकालाओ तो बहुली (वलभी) भंगो समुप्पनी ॥१॥ इसके अनुसार वीरसंवत्के ६१७ वर्ष पश्चात् वयरसेनका काल तीन वर्ष और उनके अनन्तर नागहस्तिका काल ६९ वर्ष पाया जाता है ।
पूर्वोक्त उल्लेखोंका मथितार्थ इस प्रकार निकलता है-श्वेताम्बर पट्टावलियोंमें 'वर' नामके दो आचार्योंका उल्लेख पाया जाता है जिनके नाममें कहीं कहीं 'अज वइर' और 'अज वइरसेन'
४ पट्टानली समुच्चय, पृ. १६.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org