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________________ ६५२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १. १, अण्णाणेहि मिस्साणि, असंजमो, दो दंसण, दव्य-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, सम्मामिच्छत्तं, सण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा । ओरालियकायजोगि-असंजदसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, एगो जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, दो गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, ओरालियकायजोगो, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजमो, तिणि दंसण, दव्व-भावेहिं छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा" । संजदासंजदप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ताव कायजोगि-भंगो। णवरि सव्वत्थ ओरालियकायजोगो एको चेव वत्तव्यो । सजोगिकेवली च पजत्ता आहारि त्ति भणिदव्या । चारों कषाय, तीनों अज्ञानोंसे मिश्रित आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, सम्यग्मिथ्यात्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं। औदारिककाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके आलाप कहने पर-एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति और मनुष्यगति ये दो गतियां, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, औदारिककाययोग, तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं। . औदारिककाययोगी जीवोंके संयतासंयत गुणस्थानसे लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तकके आलाप काययोगी जीवोंके आलापोंके समान होते हैं। विशेष बात यह है कि सर्वत्र योग आलाप कहते समय एक औदारिककाययोग ही कहना चाहिए। और सयोगिकेवलीके जीवसमास कहते समय पर्याप्तक जीवसमास, तथा आहार आलाप कहते समय आहारक, इसप्रकार कहना चाहिए। नं. २७३ औदारिककाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई.का./ यो. । वे. क. ना. | संय. द. ले. भ. | स. संज्ञि. आ. | उ. । ........ ।.सं. प. अवि.. | ति पंचे.. वस.. औ. मति. अंस. के. द. भा.६ भ. धत. अव. विना. औप. सं. आहा. साका. अना. क्षायो. - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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