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________________ १, १.] संत-पख्वणाणुयोगद्दारे णाण-आलाववण्णणं चउहि वा णाणेहि होदव्वमिदि सच्चमेदं, किंतु इयरेसु संतेसु वि ण विवक्खा कया, तेण विवक्खिय-णाण-वदिरित्त-णाणाणमवणयणं कयं । मणपज्जवणाणीणं भण्णमाणे अत्थि सत्त गुणट्ठाणाणि, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अस्थि, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, आहारदुगेण विणा णव जोग, पुरिसवेद, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अस्थि, मणपज्जवणाणं, परिहारसंजमेण विणा चत्तारि संजम, तिणि दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, वेदगसम्मत्तपच्छायद-उवसमसम्मत्तसम्माइट्ठिस्स पढमसमए वि मणपज्जवणाणुवलंभादो। मिच्छत्त और मनःपर्ययज्ञान-निरुद्ध आलापोंके कहने पर तीन अथवा चार ज्ञान होना चाहिए? विशेषार्थ-शंकाकारके कहने का यह भाव है कि जब मतिज्ञान आदि चार ज्ञान क्षायोपशमिक होनेके कारण मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञानके साथ अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान हो सकते हैं, तब विवक्षित किसी भी ज्ञानमार्गणाके आलाप कहते समय अपने सिवाय शेष बानोंको भी कहना चाहिए। अर्थात उमस्थ जीवोंके कमसे कम मतिज्ञान और श्रतज्ञान ये दो शान तो होते ही हैं। तथा इनके साथ अवधिज्ञान, अथवा मनःपर्ययज्ञान अथवा दोनों ही शान हो सकते हैं, इसलिये मति-श्रुतज्ञानी जीवोंके आलाप कहते समय मति और श्रुत ये दो अथवा मति, श्रुत और अवधि ये तीन अथवा, मति, श्रुत और मनःपर्यय ये तीन अथवा, मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ये चार ज्ञान कहना चाहिए । इसीप्रकार अवधिशानी और मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके आलाप कहते समय--क्रमशः मति, श्रुत और अवधि ये तीन तथा मति, श्रुत और मनःपर्यय ये तीन ज्ञान अथवा मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ये चार शान कहना चाहिए। समाधान - आपका यह कहना सत्य है, किन्तु विवक्षित ज्ञानके साथ इतर शानोंके होने पर भी उनकी विवक्षा नहीं कि गई है। इसलिये विवक्षित ज्ञानसे अतिरिक्त अन्य शानोंको नहीं गिनाया गया है। मनापर्ययज्ञानी जीपोंके आलाप कहने पर-प्रमत्तसंयतसे लेकर क्षीणकषाय तकके सात गुणस्थान, एक संधी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संक्षाएं तथा सीणसंज्ञास्थान भी है, मनुष्यगति, पंचन्द्रियजाति, प्रसकाय, आहारककाययोग और भाहारकमिश्रकाययोगके बिना नौ योग, पुरुषवेद, चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है, मन:पर्ययज्ञान, परिहारविशुद्धिसंयमके धिना चार संयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं भावसे तेज, पन्न और शुक्ल लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, तीन सम्यक्त्व होते हैं। मनःपर्ययज्ञानीके भोपशमिकसम्यक्त्व कैसे होता है, इसका समाधान करते हुए आचार्य लिखते हैं कि जो १ उसमचरियाहिमुहो वेदगसम्मो अणं विजोयित्ता। अंतोमुत्तकालं अधापमसो पमत्तोय ॥ ततो तिरयणविहिणा दंसणमोहं समं खु उवसमदि। ल. क्ष. २०३, २०४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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