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________________ षट्खंडागमकी प्रस्तावना इसका तात्पर्य यह है कि जो सम्मग्दृष्टि होता है वह तो दश पूर्वोका अध्ययन कर लेता है और आगे भी बढता जाता है, किन्तु जो मिथ्यादृष्टि होता है वह कुछ कम दश पूर्वोतक तो पढता जाता है, किन्तु वह दशमेको भी पूरा नहीं कर पाता। इसका उदाहरण उन्होंने एक अभव्यका दिया है जो किसी ग्रंथि-देशपर आजानेसे उस ग्रंथिका भेदन नहीं कर पाता। पर टीकाकारने यह नहीं बतलाया कि कुछ कम दशवें पूर्वमें श्रुतपाठी कौनसी ग्रंथि पाकर रुक जाता है और उसका भेदन क्यों नहीं कर पाता । अनुयोगके दो भेद प्रथमानुयोगका विषय १. मूलपढमाणुओग पढमाणिओए चउवीस अत्याहियारा तित्थयर२. गणिआणुओग पुराणेसु सव्वपुराणाणमंतब्भावादो (जयधवला) __ मूलप्रथमानुयोगका विषय पढमाणियोगो पंच-सहस्सपदेहि (५०००) अरहंताणं भगवंताणं पुव्वभवा देवगमणाई आउं- पुराणं वण्णेदि । उत्तं चचवणाई जम्मणाई अभिसेआ रायवरसिरीओ पव्व- वारसविहं पुराणं जं दिटुं जिणवरेहि सव्वेहिं । जाओ तवा य उग्गा केवलनाणुप्पयाओ तित्थ- तं सव्व् वण्णेदि हु जिणवंसे रायवंसे य ॥१॥ पवत्तणाणि सीसा गणा गणहरा अज्जपवत्तिणीओ पढमो अरहंताणं विदियो पुण चक्कवट्टिवंसो संघस्स चउव्विहस्स जं च परिमाणं जिण मण दु । विज्जाहराण तदियो चउत्थओ वासुपज्जव आहिनाणी सम्मत्त सुअनाणिणो वाई देवाणं ॥२॥ चारणवसो तह पंचमो दु छट्ठो य अणुत्तरगई उत्तरवेउविण्णो मुणिणो जत्तिआ पण्णसमणाणं । सत्तमओ कुरुवंसो अट्ठमओ तह सिद्धा सिद्धीवहो जहदेसिओ जच्चिरं च कालं य हरिवंसो ॥३॥ णवमो य इक्खयाणं दसमो वि य पाओवगया जे जेहिं जात्तियाई भत्ताई छेइत्ता कासियाणं बोद्धव्वो। वाईणेक्कारसमो बारसमो अंतगडे मुणिवरुत्तमे तमरओघविप्पमुक्के मुक्ख- णाहवंसो दु ॥४॥ सुहमणुत्तरं च पत्ते एवमन्ने अ एवमाइभावा मूलपढ माणुओगे कहिआ। गंडिआणुओग गंडिआणुओगे कुलगर-तित्थथर-चक्कवट्टि-दसारवलदेव-वासुदेव-गणधर-भद्दवाहु-तवोकम-हरिवंसउस्सप्पिणी-चित्तंतर-अमर-नर-तिरिय-निरय-गइगमण-विविहपरियट्टणेसु एवमाइआओ गंडिआओ आघविज्जति पण्णविज्जति । श्वेताम्बर सम्प्रदायमें दृष्टिवादके चौथे भेदका नाम अणुयोग है जिसके पुनः दो प्रभेद होते हैं, मूलप्रथमानुयोग और गंडिकानुयोग । दिगम्बर सम्प्रदायमें प्रथमानुयोग ही दृष्टिवादका तीसरा भेद है। अनुयोगका अर्थ समवायांग टीकामें इसप्रकार दिया है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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