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षट्खंडागमकी प्रस्तावना
नयचतुष्काभिप्राय तश्चिन्त्यन्त इति भावना, एवमेवेत्यादिसूत्रम् । एवं चतस्रो द्वाविंशतयोऽष्टाशीतिः सूत्राणि भवन्ति ।
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इस विवरण से ज्ञात होता है कि उपर्युक्त वावीस सूत्रोंका चार प्रकारसे अध्ययन या व्याख्यान किया जाता था। प्रथम परिपाटी छिन्नछेदनय कहलाती थी जिसमें सूत्रगत एक एक वाक्य, पद या श्लोकका स्वतंत्रता से पूर्वापर अपेक्षारहित अर्थ लगाया जाता था । यह परिपाटी स्वसमय अर्थात् जैनियोंमें प्रचलित थी। दूसरी परिपाटी अछिन्नछेदनय थी जिसके अनुसार प्रत्येक वाक्य, पद या श्लोकका अर्थ आगे पीछेके वाक्योंसे संबंध लगाकर बैठाया जाता था । यह परिपाटी आजीविक सम्प्रदाय में चलती थी। तीसरा प्रकार त्रिकनय कहलाता था जिसमें द्रव्यार्थिक, पर्यायाथिक और उभयार्थिक व जीव, अजीब और जीवाजीव आदि उपर्युक्त त्रि-आत्मक व त्रिनय रूपसे वस्तुस्वरूपका चिन्तन किया जाता था । पूर्वोक्तानुसार यह परिपाटी आजीवकोंकी थी । तथा जो वस्तुचिन्तन पूर्वकथित चार नयोंकी अपेक्षासे चलता था वह चतुर्नय परिपाटी कहलाती थी और वह जैनियों की चीज़ थी । इस प्रकार निरपेक्ष शब्दार्थ और चतुर्नय चिन्तन, ये दो परिपाटियां जैनियोंकी और सापेक्ष शब्दार्थ तथा त्रिकनय चिन्तन, ये दो परिपाटियां आजीविकोंकी मिलकर बावीस सूत्रों के अठासी भेद कर देती थीं । आजीविक ज्ञानशैलीको जैनियोंने किस प्रकार अपने ज्ञानभंडार में अन्तर्भूत कर लिया यह यहां भी प्रकट हो रहा है ।
दिगम्बर सम्प्रदाय में सूत्रों के भीतर प्रथम जीवका नाना दृष्टियोंसे अध्ययन और फिर दूसरे अनेक वादोंका अध्ययन किया जाता था, ऐसा कहा गया है। इन वादों में तेरासिय मतका उल्लेख सर्व प्रथम है जिससे तात्पर्य त्रैराशिक - आजीविक सिद्धान्तसे ही है, जो जैन सिद्धान्तके सबसे अधिक निकट होनेके कारण अपने सिद्धान्तके पश्चात् ही पढ़ा जाता था । धवला में सूत्रके ८८ अधिकारोंका उल्लेख है जिनमें से केवल चारके नाम दिये हैं । जयधवलामें स्पष्ट कह दिया है कि उन ८८ अधिकारोंके अब नामोंका भी उपदेश नहीं पाया जाता । किन्तु जो कुछ वर्णन दिगम्बर सम्प्रदाय में शेष रहा है उसमें विशेषता यह है कि वह उन लुप्त ग्रंथों के विषयपर बहुत कुछ प्रकाश डालता है; श्वेताम्बर श्रुतमें केवल अधिकारोंके नाममात्र शेष हैं जिनसे प्रायः अब उनके विषयका अंदाज लगाना भी कठिन है ।
पुव्वगयके १४ भेद तथा उनके अन्तर्गत वत्थू और चूलिका
१. उपाय ( १० वत्थू + ४ चूलिआ ) २. अग्गाणीयं (१४ वत्थू + १२ चूलिआ ) ३. वीरिअं ( ८ " ४. अत्थिणत्थिष्पवायं
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+ ८ ( १८ + १० )
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पुव्वगयके १४ भेद तथा उनके अन्तर्गत वत्थू
( १० वत्थू )
१. उप्पाद
२. अग्गेणियं
( १९४ वत्थू )
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३. वीरियाणुपवादं ( ८ > ४. अत्थिणत्थिपवादं ( १८,, )
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