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बारहवें श्रुताङ्ग दृष्टिवादका परिचय ५. नाणप्पवायं (१२ वत्थू )
५. णाणपवादं (१२ वत्थू) ६. सच्चप्पवायं ( २ , )
६. सच्चपवादं (१२,) ७. आयप्पवायं (१६, )
७. आदपवादं (१६, ) ८. कम्मप्पवायं (३० ,, )
८. कम्मपवाद (२०, ) ९. पच्चक्खाणप्पवायं (२० , )
९. पच्चक्खाणं (३०, ) १०. विज्जागुप्पवायं (१५ , )
१०. विजाणुवादं
(१५ ११. अवंझं (१२ ,, )
११. कल्लाणवादं (१० १२. पाणाऊ (१३ , )
१२. पाणावायं (१०, १३. किरिआविसालं (३०,)
१३. किरियाविसालं (१०,) १४. लोकविंदुसारं (२५ , )
१४. लोकविंदुसार (१०,) दृष्टिवादके इस विभागका नाम पूर्व क्यों पड़ा, इसका समाधान समवायांग व नन्दीसूत्रक टीकाओंमें इसप्रकार किया गया है
अथ किं तत् पूर्वगतं ? उच्यते । यस्मात्तर्थिकरः तीर्थप्रवर्तनाकाले गणधराणां सर्वसूताधारत्वेन पूर्व पूर्वगतं सूत्रार्थं भाषते तस्मात् पूर्वाणीति भणितानि । गणधराः पुनः श्रुतरचनां विदधाना आचारादिक्रमेण रचयन्ति स्थापयन्ति च । मतान्तरेण तु पूर्वगतसूखार्थः पूर्वमहता भाषितो गणधरैरपि पूर्वगतश्रुतमेव पूर्वं रचितं, पश्चादाचारादि । नन्वेवं यदाचारनिर्युक्त्यामभिहितं 'सब्बोसं आयारो पढमो' इत्यादि, तत्कथम् ? उच्यते । तत्र स्थापनामाश्रित्य तथोक्तमिह त्वक्षररचनां प्रतीत्य भाणितं पूर्वं पूर्वाणि कृतानीति ।
. (समवायांग टीका) इसका तात्पर्य यह है कि तीर्थप्रवर्तनके समय तीर्थंकर अपने गणधरोंको सबसे प्रथम पूर्वगत सूत्रार्थका ही व्याख्यान करते हैं, इससे इन्हें पूर्वगत कहा जाता है। किन्तु गणधर जब श्रुतकी ग्रंथरचना करते हैं तब वे आचारादिक्रमसे ही उनकी रचना व व्यवस्था करते हैं, और इसी स्थापनाकी दृष्टि से आचारांगकी नियुक्तिमें यह बात कही गई है कि सब श्रुतांगोंमें आचारांग प्रथम है । यथार्थतः अक्षररचनाकी दृष्टिसे पूर्व ही पहले बनाये गये ।।
एक आधुनिक मतx यह भीहै कि पूर्वोमें महावीरस्वामीसे पूर्व और उनके समयमें प्रचलित मत-मतान्तरोंका वर्णन किया गया था, इस कारण वे पूर्व कहलाये ।
चौदह पूर्वोके नामोंमें दोनों सम्प्रदायोंमें कोई विशेष भेद नहीं है, केवल ग्यारहवें पूर्वको श्वेताम्बर · अवंझं' कहते हैं और दिगम्बर — कल्लाणवाद ' । अझंका जो अर्थ टीकाकारने अवंध्य अर्थात् ' सफल' बतलाया है वह 'कल्याण' के शब्दार्थके निकट पहुंच जाता है, इससे संभवतः वह उनके विषयभेदका द्योतक नहीं है । छठवें, आठवें, नवमें और ग्यारहसे चौदहवें तक इस
x डॉ. जैकोबी; कल्पसूत्रभूमिका.
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