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१, १.] संत-परूवणाणुयोगदारे काय-आलाववण्णणं
[६१५ तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, चत्तारि पजत्तीओ, चत्तारि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, एइंदियजादी, पत्तेयसरीरवणप्फइकाओ, ओरालियकायजोगो, णउंसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, अचक्खुदंसण, दयण छ लेस्सा, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असण्णिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता हाँति अणागारूवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, चत्तारि अपज्जत्तीओ, तिणि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगई, एइंदियजादी, पत्तेयसरीरवणप्फइकाओ, दो जोग, णउंसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजमो, अचक्खुदंसण, दव्वेग काउ-सुकलेस्साओ, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्ताओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति
उन्हीं प्रत्येकशरीर-वनस्पतिकायिक जीवोंके पर्याप्त कालसंबधीआलाप कहने परएक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक प्रत्येकशरीर-वनस्पतिकायिक-पर्याप्त जीवसमास, चार पर्याप्तियां, चार प्राण, चारों संज्ञाएं, तिथंचगति, एकेन्द्रियजाति, प्रत्येकशरीर-वनस्पतिकाय, औदारिककाययोग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, अचक्षदर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं भव्यासिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, असंशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अना. कारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं प्रत्येकशरीर-वनस्पतिकायिक जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने परएक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक प्रत्येकशरीर-वनस्पतिकायिक-अपर्याप्त जीवसमास, चार अपर्याप्तियां तीन प्राण, चारों संज्ञाएं, तियचगति, एकेन्द्रियजाति, प्रत्येकशरीर-वनस्पतिकाय, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, अचक्षुदर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, असंशिक, नं. २२६
प्रत्येकवनस्पतिकायिक जीवोंके पर्याप्त आलाप. । गु. जी. | प प्रा. सं | ग. ई. का. यो. वे. क.। ज्ञा. | संय. द. । ले. म. स. संझि. आ.। उ.
द्र.६ |२|१११ मि प्रप.
- औदा. न. कुम. असं. अच. | मा. ३ भ. मि. असं. आहा. साका. कुश्रु.
अशु. अ.
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१४
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