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________________ १, १.] संत-पख्वणाणुयोगदारे गदि-आलाववण्णणं मणुसिणणं भण्णमाणे अत्थि चोद्दस गुणट्ठाणाणि, दो जीवसमासा, छप्पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अत्थि, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग अजोगो वि अस्थि, एत्थ आहारआहारमिस्सकायजोगा णत्थि । किं कारणं ? जेसिं भावो इत्थिवेदो दव्यं पुण पुरिसवेदो, ते वि जीवा संजमं पडिवजंति । दबित्थिवेदा संजमं ण पडिवजंति, सचेलत्तादो । भावित्थिवेदाणं दव्येण पुंवेदाणं पि संजदाणं णाहाररिद्धी समुप्पजदि दव-भावेहि पुरिसवेदाणमेव समुप्पञ्जदि तेणित्थिवेदे पि णिरुद्धे आहारदुगं णत्थि, तेण एगारह जोगा भणिया। इत्थिवेदो अवगदवेदो वि अत्थि, एत्थ भाववेदेण पयदं ण दव्ववेदेण । किं कारण ? ......................... वालोंका ग्रहण हो जाता है, अतः इस अपेक्षासे पर्याप्त मनुष्योंके आलाप सामान्य मनुष्यों के समान बतलाये गये हैं। परंतु जब मनुष्योंके अवान्तर भेदोंमेंसे पर्याप्त मनुष्योंका ग्रहण किया जाता है तब पर्याप्त मनुष्योंसे पुरुष और नपुंसक वेदी मनुष्योंका ही ग्रहण होता है, क्योंकि स्त्रीवेदी मनुष्योंका स्वतंत्र भेद गिनाया है। मनुष्यके अवान्तर भेदोंमें पर्याप्त शब्द पुरुष और नपुंसकवेदी मनुष्यों में ही रूढ है, इसलिये इस अपेक्षासे पर्याप्त मनुष्योंके आलाप कहते समय स्त्रीवेदको छोड़कर आलाप कहे हैं। मनुष्यनी ( योनिमती) स्त्रियोंके आलाप कहने पर-चौदहों गुणस्थान, संझी-पर्याप्त और असंशी-पर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां दशोंप्राण, सात प्राण; चारों संशाएं तथा क्षीणसंज्ञारूप भी स्थान है। मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योग तथा अयोगरूप भी स्थान है। इन मनुष्यनियोंके आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोग ये दो योग नहीं होते हैं। शंका-मनुष्य-स्त्रियोंके आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोग नहीं होनेका क्या कारण है? समाधान-यद्यपि जिनके भावकी अपेक्षा स्त्रीवेद और द्रव्यकी अपेक्षा पुरुषवेद होता है वे (भावस्त्री)जीव भी संयमको प्राप्त होते हैं। किन्तु द्रव्यकी अपेक्षा स्त्रीवेवाले जीव संयमको नहीं प्राप्त होते हैं, क्योंकि, वे सचेल अर्थात् वस्त्रसहित होते हैं। फिर भी भावकी अपेक्षा स्त्रीवेदी और द्रव्यकी अपेक्षा पुरुषवेदी संयमधारी जीवोंके आहारऋद्धि उत्पन्न नहीं होती है, किन्त द्रव्य और भाव इन दोनों ही वेदोंकी अपेक्षासे पुरुषवेदवाले जीवोंके ही आहारऋद्धि उत्पन्न होती है। इसलिए स्त्रीवेदवाले मनुष्योंके आहारकद्विकके विना ग्यारह योग कहे गए हैं। योग आलापके आगे स्त्रीवेद तथा अपगतवेद स्थान भी होता है। यहां भाववेदसे प्रयोजन है, द्रव्यवेदसे नहीं। इसका कारण यह है कि यदि यहां द्रव्यवेदसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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