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षट्खंडागमकी प्रस्तावना
उम्च्चमाण ' तीनों खंडोंका है ? इसका उत्तर दिया जाता है ' क्योंकि वर्गणा और महाबंध के आदिमें मंगल किया गया है ' । यदि यहां जिन खंडों में मंगल किया गया है उनको अलग निर्दिष्ट कर देना आचार्यका अभिप्राय था तो उनमें जीवट्ठाणका भी नाम क्यों नहीं लिया, क्योंकि तभी तो तीन खंड शेष रहते, केवल वर्गणा और महाबंधको अलग कर देनेसे तो चार खंड शेष रह गये । फिर आगे कहा गया है कि मंगल किये विना भूतबलि भट्टारक ग्रंथ प्रारंभ ही नहीं करते, क्योंकि उससे अनाचार्यत्वका प्रसंग आ जाता है । पर उक्त व्यवस्थाके अनुसार तो यहां एक नहीं, दो दो खंड मंगलके विना, केवल प्रारंभ ही नहीं, समाप्त भी किये जा चुके; जिनके मंगलाचरणका प्रबंध अब किया जा रहा है, जहां स्वयं टीकाकार कह रहे हैं कि मंगलाचरण आदिम ही किया जाता है, नहीं तो अनाचार्यत्वका दोष आ जाता है । इससे तो धवलाकारका
स्पष्ट है कि प्रस्तुत ग्रंथरचना आदि मंगलका अनिवार्य रूपसे पालन किया गया है। हमने आदिमंगलके अतिरिक्त मध्यमंगल और अन्तमंगलका भी विधान पढ़ा है । किन्तु इन प्रकारोंमेंसे किसी भी प्रकार द्वारा वेदनाखंडके आदिका मंगल खुदाबंधका भी मंगल सिद्ध नहीं किया जा सकता । इसप्रकार यह शंका समाधान विषयको समझाने की अपेक्षा अधिक उलझन में ही डालने वाला है।
आगे शंका समाधानकी और भी दुर्दशा की गई है । प्रश्न है कृति, स्पर्श, कर्म और प्रकृति अनुयोगद्वार भी यहां प्ररूपित हैं, उनकी खंडसंज्ञा न करके केवल तीन ही खंड क्यों कहे जाते हैं ? यहां स्वभावतः यह प्रश्न उपस्थित होता है कि यहां कौनसे तीन खंडोंका अभिप्राय है ? यदि यहां भी उन्हीं खुदाबंध, बंधसामित्त और वेदनाका अभिप्राय है तो यह बतलाने की आवश्यकता है कि प्रस्तुतमें उनकी क्या अपेक्षा है । यदि चौवीस अनुयोगद्वारोंमेंसे उत्पत्तिकी यहां अपेक्षा है तो जीवस्थान, वर्गणा और महाबंध भी तो वहीं से उत्पन्न हुए हैं, फिर उन्हें किस विचारसे अलग किया गया ? और यदि वेदना, वर्गणा और महाबंध से ही यहां अभिप्राय है तो एक तो उक्त क्रममें भंग पड़ता है और दूसरे वर्गणाखंडके भी इन्हीं अनुयोगद्वारों में अन्तर्भावका प्रसंग आता है । जिन अनुयोगद्वारोंकी ओरसे खंड संज्ञा प्राप्त न होने की शिकायत उठायी गई है उनमें वेदनाका नाम नहीं है । इससे जाना जाता है कि इसी वेदना अनुयोगद्वार परसे वेदनाखंड संज्ञा प्राप्त हुई है । पर यदि ' एत्थ ' का तात्पर्य " इस वेदनाखंड में " ऐसा लिया जाता है तब तो यह भी मानना पड़ेगा कि वे तीनों खंड जिनका उल्लेख किया गया है, वेदनाखंडके अन्तर्गत हैं । पयडिके आगे बन्धन और क्यों अपनी तरफसे जोड़ा गया जबकि वह मूलमें नहीं है, यह भी कुछ समझमें नहीं आता । इसप्रकार यह प्रश्न भी बड़ी गड़बड़ी उत्पन्न करनेवाला सिद्ध होता है ।
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. अतः वेदनाखंडके आदिमें आये हुए मंगलाचरणको खदाबंध और बंधसामितका भी सिद्ध
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