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________________ वर्गणाखंड-विचार ३. वेदनाखंडके आदिका मंगलाचरण और कौन कौन खंडोंका है ? वेदनाखंडके आदिमें मंगलसूत्र पाये जाते हैं। उनकी टीकामें धवलाकारने खंडविभाग व उनमें मंगलाचरणकी व्यवस्था संबंधी जो सूचना दी है उसको निम्न प्रकार उद्धृत किया जाता है उवरि उच्चमाणेसु तिसु खंडेसु कस्सेदं मंगलं तिषणं खंडाणं । कुदो? वग्गणा-महाबंधाणमादीए मंगलकरणादो। ण च मंगलेण विणा भूदबलिभडारओ गंथस्स पारभदि, तस्स अणाइरियत्तपसंगादोxx कदि-पास-कम्म-पयडि-अणियोगद्दाराणि वि एत्थ परूविदाणि, तेसिं खंडगंथसण्णमकाऊण विपिण चैव खंडाणि त्ति किमर्ट उच्चदे ण, तेसिं पहाणत्ताभावादो । तं पि कुदो णब्धदे ? संखेवेण परूवणादो'। __ वर्गणाखंडको धवलान्तर्गत स्वीकार न करनेवाले विद्वान् इस अवतरणको देकर उसका यह अभिप्राय निकालते हैं कि-" वीरसेनाचार्यने उक्त मंगलसूत्रोंको ऊपर कहे हुए तीनों खंडों वेदना, बंधसामित्तविचओ और खुद्दाबंधो-का मंगलाचरण बतलाते हुए यह स्पष्ट सूचना की है कि वर्गणाखंडके आदिमें तथा महाबंधखंडके आदिमें पृथक् मंगलाचरण किया गया है, मंगलाचरणके विना भूतबलि आचार्य ग्रंथका प्रारंभ ही नहीं करते हैं। साथ ही यह भी बतलाया है कि जिन कदि, फास. कम्म, पयडि ( बंधण) अणुयोगद्वारोंका भी यहां ( एत्थ )-इस वेदनाखंडमें प्ररूपण किया गया है उन्हें खंडग्रंथ संज्ञा न देनेका कारण उनके प्रधानताका अभाव है, जो कि उनके संक्षेप कथनसे जाना जाता है। उक्त फास आदि अनुयोगद्वारों से किसीके भी शुरूमें मंगलाचरण नहीं है और इन अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा वेदनाखंडमें की गई है, तथा इनमेंसे किसीको खंडग्रंथकी संज्ञा नहीं दी गई यह बात ऊपरके शंका समाधानसे स्पष्ट है ।" अब इस कथनपर विचार कीजिये । ' उवरि उच्चमाणेसु तिसु खंडेसु ' का अर्थ किया गया है • ऊपर कहे हुए तीन खंड, अर्थात् वेदना, बंधसामित्त और खुद्दाबंध ' । हमें यहॉपर यह याद रखना चाहिये कि खुद्दाबंध और बंधसामित्त खंड दूसरे और तीसरे हैं जिनका प्ररूपण हो चुका है, और अभी वेदनाखंडके केवल मंगलाचरणका ही विषय चल रहा है, खंडका विषय आगे कहा जायगा । ' उवरि उच्चमाण' की संस्कृत छाया, जहांतक मैं समझता हूं · उपरि उभ्यमान ' ही हो सकती है, जिसका अर्थ ' ऊपर कहे हुए ' कदापि नहीं हो सकता । ' उच्यमान ' का तात्पर्य केवल प्रस्तुत या आगे कहे जानेवालेसे ही हो सकता है । फिर भी यदि ऊपर कहे हुए ही मानलें तो उससे ऊपरके दो और आगेके एक का समुच्चय कैसे हो सकता है ! ऊपर कहे हुए तीन खंड तो जीवहाण आदि तीन हैं, बाकी तीन आगे कहे जानेवाले हैं । इसप्रकार उपर्युक्त वाक्यका जो अर्थ लगाया गया है वह बिलकुल ही असंगत है। अब आगेका शंका-समाधान देखिये । प्रश्न है यह कैसे जाना कि यह मंगल उवरि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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