________________
षट्खंडागमकी प्रस्तावना धुत करनेका प्रयत्न किया जाता है । पर संक्षेप और विस्तार आपेक्षिक शब्द हैं, अतएव वर्गणाका प्ररूपण धवलामें संक्षेपसे किया गया है या विस्तारसे यह उसके विस्तारका अन्य अधिकारोंके विस्तारसे मिलान द्वारा ही जाना जा सकता है। अतएव उक्त अधिकारोंके प्ररूपण-विस्तार को देखिये । बंधसामित्तविचयखंड अमरावती प्रतिके पत्र ६६७ पर समाप्त हुआ है। उसके पश्चात् मंगलाचरण व श्रुतावतार आदि विवरण ७१३ पत्र तक चलकर कृतिका प्रारंभ होता है जिसका ७५६ तक ४३ पत्रोंमें, वेदनाका ७५६ से ११०६ तक ३५० पत्रों में, स्पर्शका ११०६ से १११४ तक ८ पत्रोंमें, कर्मका १११४ से ११५९ तक ४५ पत्रों में, प्रकृतिका ११५९ से १२०९ तक ५० पत्रोंमें और बंधन के बंध और बंधनीयका १२०९ से १३१२ तक १२३ पत्रोंमें प्ररूपण पाया जाता है । इन १२३ पत्रोंमेंसे बंधका प्ररूपण प्रथम १० पत्रों में ही समाप्त करदिया गया है, यह कहकर कि
'एस्थ उद्देसे खुद्दाबंधस्स एक्कारस-अणियोगद्दाराणं परूवणा कायब्बा'। इसके आगे कहा गया है कि
ण बंधणिज्ज-परूवणे कीरमाणे वग्गण-परूवणा णिच्छएण कायब्वा, अण्णहा तेवीस-वग्गणासु हमा चेव वग्गणा बंधपाओग्गा अण्णाओ बंधपाओग्गाओ ण होति सि अवगमाशुववत्तीदो। वग्गणाणमएमग्गणदाए तत्थ इमाणि अट्ठ अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति' इत्यादि ।
अर्थात् बंधनीयके प्ररूपण करनेमें वर्गणा की प्ररूपणा निश्चयतः करना चाहिये, अन्यथा तेईस वर्गणाओंमें ये ही वर्गणाएं बंधके योग्य हैं अन्य वर्गणाएं बंधके योग्य नहीं हैं, ऐसा ज्ञान नहीं हो सकता । उन वर्गणाओंकी मार्गणाके लिये ये आठ अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं । इत्यादि । . इस प्रकार पत्र १२१९ से वर्गणाका प्ररूपण प्रारंभ होकर पत्र १३३२ पर समाप्त होता है, जहां कहा गया है कि--
__ ' एवं विस्ससोवचयपरूवणाए समत्ताए बाहिरियवग्गणा समत्ता होदि।।
इसप्रकार वर्गणाका विस्तार ११३ पत्रोंमें पाया जाता है, जो उपर्युक्त पांच अधिकारोंमेंसे बेदनाको छोड़कर शेष सबसे कोई दुगुना व उससे भी अधिक पाया जाता है। पूरा खुद्दाबंधखंड १०५ से ५०६ तक १०१ पत्रोंमें तथा बंधसामित्तविचयखंड ५७६ से ६६७ तक ९१ पत्रोंमें पाया जाता है। किन्तु एक अनुयोगद्वारके अवान्तरके भी अवान्तर भेद वर्गणाका विस्तार इन दोनों खंडोसे अधिक है । ऐसी अवस्थामें उसका प्ररूपण संक्षिप्त कहना चाहिये या विस्तृत और उससे उसे खंड संज्ञा प्राप्त करने योग्य प्रधानत्व प्राप्त होसका या नहीं, यह पाठक विचार करें।
.
V
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org