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वर्गणाखंड-विचार करना तथा कृति आदि चौवीसों अनुयोगद्वारोंको वेदनाखंडान्तर्गत बतलाना बड़ा वेतुका, वे आधार और सारे प्रसंगको गड़बड़ीमें डालनेवाला है। यह सब कल्पना किन भूलोंका परिणाम है और उक्त अवतरणोंका सच्चा रहस्य क्या है यह आगे चलकर बतलाया जायगा ! उससे पूर्व शेष तीन युक्तियोंपर और विचार करलेना ठीक होगा।
४. वेदनाखंड समाप्तिकी पुष्पिका धवलामें जहां वेदनाका प्ररूपण समाप्त हुआ है वहां यह वाक्य पाया जाता है
एवं वेयण-अप्पाबहुगाणिओगहारे समत्ते वेयणाखंड समत्ता ।
इसके आगे कुछ नमस्कार वाक्योंके पश्चात् पुनः लिखा मिलता है 'वेदनाखंड समाप्तम् ' । ये नमस्कार वाक्य और उनकी पुष्पिका तो स्पष्टतः मूलग्रंथके अंग नही हैं, वे लिपिकार द्वारा जोडे गये जान पड़ते हैं । प्रश्न है प्रथम पुष्पिकाका जो मूल ग्रंथका आवश्यक अंग है । पर उसमें भी 'वेयणाखंड समत्ता' वाक्य व्याकरण की दृष्टिसे अशुद्ध है। वहां या तो 'वेयणाखंडो समत्तो' या · वेयणाखंडं समत्तं ' वाक्य होना चाहिये था। समालोचकका यह भी अनुमान गलत नहीं कहा जा सकता कि इस वाक्यमें खंड शब्द संभवतः प्रक्षिप्त है, उस शब्दको निकाल देनेसे 'वेयणा समत्ता' वाक्य भी ठीक बैठ जाता है। हो सकता है वह लिपिकार द्वारा प्रक्षिप्त हुआ हो । पर विचारणीय बात यह है कि वह कब और किस लिये प्रक्षिप्त किया गया होगा। इस प्रक्षेपको आधुनिक लिपिकारकृत तो समालोचक भी नहीं कहते। यदि वह प्रक्षिप्त है तो उसी लिपिकारकृत हो सकता है जिसने मूडविद्रीकी ताडपत्रीय प्रति लिखी । हम अन्यत्र बतला चुके हैं कि वह प्रति संभवतः शककी ९ वी १० वीं शताब्दिकी, अर्थात् आजसे कोई हजार आठसौ वर्ष पुरानी है । उस प्रक्षिप्त वाक्यसे उस समयके कमसे कम एक व्यक्तिका यह मत तो मिलता ही है कि वह वहां वेदनाखंडकी समाप्ति समझता था। उससे यह भी ज्ञात हो जाता है कि उस लेखककी जानकारोंमें वहींसे दूसराखंड अर्थात् वर्गणाखंड प्रारंभ हो जाता था, नहीं तो वह वहां वेदनाखंडके समाप्त होनेकी विश्वासपूर्वक दो दो वार सूचना देने की धृष्टता न करता । यदि वहां खंडसमाप्ति होनेका इसके पास कोई आधार न होता तो उसे जबर्दस्ती वहाँ खंड शब्द डालनेकी प्रवृत्ति ही क्यों होती ! समालोचक लिपिकारकी प्रक्षेपकप्रवृत्ति को दिखलाते हुए कहते हैं कि अनेक अन्य स्थलोंपर भी नानाप्रकारके वाक्य प्रक्षिप्त पाये जाते हैं । यह बात सच है, पर जो उदाहरण उन्होंने बतलाया है वहां, और जहांतक मैं अन्य स्थल ऐसे देख पाया हूं वहां सर्वत्र यही पाया जाता है कि लेखकने अधिकारोंकी संधि आदि पाकर अपने गुरु या देवता का नमस्कार या उनकी प्रशस्ति संबंधी षाक्य या पथ इधर उधर डाले हैं। यह पुराने लेखकोंकी शैली सी रही है। पर ऐसा स्थल
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