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________________ षट्लंडनगमकी प्रस्तावना एक भी देखनेमें नही आता जहां पर लेखकने अधिकार संबंधी सूचना गलत सलत अपनी ओरसे जोड़ या घटा दी हो । अतएव चाहे वह खंड शब्द मौलिक हो और चाहे किसी लिपिकार द्वारा प्रक्षिप्त, उससे वेदना खंडके वहां समाप्त होने की एक पुरानी मान्यता तो प्रमाणित होती ही है। ५ इन्द्रनन्दिकी प्रामाणिकता इन्द्रनन्दि और विवुध श्रीधरने अपने अपने श्रुतावतार कथानकोंमें षट्खंडागमकी रचना व धवलादि टीकाओंके निर्माणका विवरण दिया है। विबुध श्रीधरका कथानक तो बहुत कुछ काल्पनिक है, पर उसमें भी धवलान्तर्गत पांच या छह खंडोंवाली वार्ता में कुछ अविश्वसनीयता नहीं दिखती। इन्द्रनन्दिने प्रकृत विषयसे संबंध रखनेवाली जो वार्ता दी है उसको हम प्रथम जिल्दकी भूमिकामें पृ.३० पर लिख चुके हैं। उसका संक्षेप यह है कि वीरसेनने उपरितन निबन्धनादि अठारह अधिकार लिखे और उन्हें ही सत्कर्मनाम छठवां खंड संक्षेपरूप बनाकर छह खंडोंकी बहत्तर हजार ग्रंथप्रमाण, प्राकृत संस्कृत भाषा मिश्रित धवलाटीका बनाई । उनके शब्दोंका धवलाकारके उन शब्दोंसे मिलान कीजिये जो इसी संबंधके उनके द्वारा कहे गये हैं । निबन्धनादि विभागको यहां भी — उवरिम ग्रंथ ' कहा है और अठारह अनुयोगद्वारोंको संक्षेपमें प्ररूपण करनेकी प्रतिज्ञा की गई है । धरसेन गुरुद्वारा श्रुतोद्धारका जो विवरण इंद्रनन्दिने दिया है वह प्रायः ज्यों का त्यों धवलाकार के वृत्तान्त से मिलता है । यह बात सच है कि इन्द्रनन्दि द्वारा कही गयीं कुछ बातें धवळान्तर्गत वातासे किंचित् भेद रखती हैं। किन्तु उनपरसे इन्द्रनन्दिको सर्वथा अप्रामाणिक नहीं ठहराया जा सकता, विशेषतः खंडविभाग जैसे स्थूल विषयपर । यद्यपि इन्द्रनन्दिका समय निर्णीत नहीं है, पर उनके संबंधमें पं. नाथूरामजी प्रेमीका मत है कि ये वे ही इन्द्रनन्दि हैं जिनका उल्लेख आचार्य नेमिचन्द्रने गोम्मटसार कर्मकाण्डकी ३९६ वी गाथामें गुरुरूपसे किया है जिससे वे विक्रमकी ११ हवीं शताब्दिके आचार्य ठहरते हैं * । इसमें कोई आश्चर्य भी नहीं है । वीरसेन व धवलाकी रचनाका इतिहास उन्होंने ऐसा दिया है जैसे मानो वे उससे अच्छी तरह निकटतासे सुपरिचित हों। उनके गुरु एलाचार्य कहां रहते थे, वीरसेनने उनके पास सिद्धान्त पढ़कर कहां कहां जाकर, किस मंदिरमें बैठकर, कौनसा ग्रंथ साम्हने रखकर अपनी टीका लिखी यह सब इन्द्रनन्दिने अच्छी तरह बतलाया है जिसमें कोई बनावट व कृत्रिमता दृष्टिगोचर नहीं होती, बल्कि बहुत ही प्रामाणिक इतिहास जंचता ह । उन्होंने कदाचित् धवला जयधवलाका सूक्ष्मावलोकन भले ही न किया हो और शायद नोट्स ले रखनेका भी उस समय रिवाज़ न हो, पर उनकी सूचनाओंपरसे यह बात सिद्ध नहीं होती कि धवल * मा. दि. जै. ग्रंथमाला नं. १३, भूमिका पृ. २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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