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१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं
[ ४७५ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सणिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता हाँति अणागारुवजुत्ता वा ।
तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, सत्त जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ पंच पजत्तीओ चत्तारि पजत्तीओ, दस पाण णव पाण अट्ट पाण सत्त पाण छप्पाण चत्तारि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, एइंदियजादि-आदी पंच जादीओ, पुढविकायादी छक्काय, णव जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो दसण, दव-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छतं, सणिणो असणिणो, आहारिणो, सागारबजुत्ता होति अणागावजुत्ता वा ।
तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, सत्त जीवसमासा, छ
छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिकः मिथ्यात्व, संज्ञिक, असंज्ञिक आहारक, अनाहारका साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं सामान्य तिर्यंच मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादष्टि गुणस्थान, पर्याप्तसंबन्धी सातों जीवसमास, संज्ञीके छहों पर्याप्तियां, असंही और विकलत्रयोंके पांच पर्याप्तियां, एकेन्द्रियोंके चार पर्याप्तियां: संक्षीके दशों प्राण, असंहीके नौ प्राण, चतुरिन्द्रिय जीवोंके आठ प्राण, त्रीन्द्रिय जीवोंके सात प्राण, द्वीन्द्रिय जीवोंके छह प्राण और एकेन्द्रिय जीवोंके चार प्राण: चारों संज्ञाएं, तियंचगति, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकायादि छहों काय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग औदारिककाययोग ये नो योगः तीनों वद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक मिथ्यात्व, संशिक, असंज्ञिकः आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं सामान्य तिर्यंच मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपर्याकालसंबन्धी आलाप कहने परएक मिथ्याहाट गुणस्थान, अपर्याप्तसंबन्धी सातों जीवसमास, संझीके छहों अपर्याप्तियां,
नं. ६३
सामान्य तिर्यंच मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्त आलाप. म. जी प. प्रा. सं. ग. इं.का. यो. व. के. ज्ञा. संय. द. ले. भ. स. सनि। आ.
१०४ १५६ ९ ३ ४ ३ १ २ द्र.६२ १ २. i-५/९ ति. म. ४ अज्ञा. असं. चक्षु. भा. ६ भ. मि. सं. | आहा. व.४
असं ।
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उ, |
पर्या. 6
अच.
साका. अना.
औ. १
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