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________________ ४७६] छक्खंडागमे जीवहाणं [१, १. अपज्जत्तीओ पंच अपञ्जत्तीओ चत्तारि अपज्जत्तीओ, सत्त पाण सत्त पाण छप्पाण पंच पाण चत्तारि पाण तिण्णि पाण, चत्तारि सण्णा, तिरिक्खगदी, एइंदियजादि-आदी पंच जादीओ, पुढविकायादी छक्काय, वे जोग, तिणि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, दो दसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण किण्ह-णील काउलेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा। तिरिक्ख-सासणसम्माइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, दो जीवसमासा, छ पज्जाओ छ अपज्जत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णा, तिरिक्खगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंही और विकलत्रयोंके पांच अपर्याप्तियां, एकेन्द्रियोंके चार अपर्याप्तियां, संत्रीके सात प्राण, असंज्ञीके सात प्राण, चतुरिन्द्रिय जीवोंके छह प्राण, त्रीन्द्रिय जीवोंके पांच प्राण, द्वीन्द्रिय जीवोंके चार प्राण और एकेन्द्रिय जीवोंके तीन प्राण; चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, पृथिवीकाय आदि छहों काय, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाय. योग ये दो योग, तीनों वेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अक्षान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील, और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, संशिक, असंशिक आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं। सामान्य तिर्यंच सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके ओघालाप कहने पर एक सासादनगुणस्थान, संशी-पर्याप्त और संझी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां; दशों प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योग; तीनों वेद, चारों कषाय, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और नं. ६४ सामान्य तिर्यंच मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. । वे. क. बा. संय. द. । ले. भ.स. संन्नि. | आ. | उ... 1/७ ६अप. ७ ४१५६ २ ३ ४ २ १ २ द्र. २ २१ २ २ । २ मि. अप. ५, ७ति . औ.मि. कुम. असं. च. का. भ.मि. सं. आहा. साका. कार्म. कुश्रु. अच. शु. अ. असं. | अना. अना. 99 tysxm] भा३ । अशु. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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