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________________ ५१०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, १. तिणि दंसण, दव्य-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा । तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजम, तिणि दंसण, दव्व-भावेहि छ लेस्साओ, भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुखजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा । तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जत्तीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दो जोग, पुरिसवेद । देव-णेरइअ मणुस्स-असंजदसम्माइद्विणो जदि मणुस्सेसु उप्पज्जति तो द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं। उन्हीं असंयतसम्यग्दृष्टि सामान्य मनुष्योंके पर्याप्तकाल संबन्धी आलाप कहने परएक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग; तीनों वेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व, संशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं। उन्हीं असंयतसम्यग्दृष्टि सामान्य मनुष्योंके अपर्याप्त काल संबन्धी आलाप कहने परएक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, एक पुरुषवेद होता है। केवल एक पुरुषवेद होनेका यह कारण है कि देव, नारकी और मनुष्य असंयतसम्यग्दृष्टि जीव मरकर यदि मनुष्योंमें उत्पन्न होते हैं, तो नं १११ सामान्य मनुष्य असंयतसम्यग्दृष्टियोंके पर्याप्त आलाप. 1. जी. प. प्रा. सं. ग. । इं. । का.। यो. । वे. क. ज्ञा. । संय. द. ले. भ. सं. संशि. आ. | उ. | | १ ६ १०४ १ १ १ ९ |३|४| ३ | १ २ द्र.६/१ ३ १ १ २ | म. पंचे. त्रस. म. ४ मति. असं.के.द. भा.६ म. आ. सं. आहा. साका. विना. अना. अव. श्रुत. डा क्षायो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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