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१, १.] संत-परूवणाणुयोगदारे गदि-आलाववण्णणं
[ ५११ णियमा पुरिसवेदेसु चेव उप्पज्जंति ण अण्णवेदेसु, तेण परिसवेदो चेव भणिदो । चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजम, तिण्णि दसण, दव्येण काउ-सुक्कलेस्सा, भावेण छ लेस्साओ। तं जहा-णेरइया असंजदसम्माइट्टिणो पढम-पुढवि आदि जाव छट्ठी-पुढविपज्जवसाणासु पुढवीसु हिदा कालं काऊण मणुस्सेसु चेव अप्पप्पणो पुढवि-पाओग्गलेस्साहि सह उप्पज्जंति त्ति किण्ह-गील-काउलेस्सा लब्भंति । देवा वि असंजदसम्माइट्ठिणो कालं काऊण मणुस्सेसु उप्पज्जमाणा तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साहि सह मणुस्सेसु उववज्जंति, तेण मणुस्स-असंजदसम्माइट्ठीणमपज्जत्तकाले छ लेस्साओ हवंति । भवसिद्धिया, उवसमसम्मत्तेण विणा दो सम्मत्तं, सण्णिणा, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा।
मणुस्स-संजदासंजदाणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ
निय नसे पुरुषवेदी मनुष्यों में ही उत्पन्न होते हैं, अन्यवेदवाले मनुष्यों में नहीं; इससे एक पुरुष वेद ही कहा है। घेद आलाप के आगे चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे छहों लेश्याएं होती हैं। अविरतसम्यग्दृष्टि अपर्याप्त मनुष्योंके छहों लेश्याएं होनेका कारण यह है कि प्रथम पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवीपर्यंत पृथिवियों में रहनेवाले असंयतसम्यग्दृष्टि नारकी मरण करके मनुष्यों में अपनी अपनी पृथिवीके योग्य लेश्याओंके साथही उत्पन्न होते हैं. इसलिये तो उनके कृष्ण, नील और कापोतलेश्याएं पाई जाती हैं। उसीप्रकार असंयतसम्यग्दृष्टि देव भी मरण करके मनुष्यों में उत्पन्न होते हुए अपनी अपनी पीत, पद्म और शुक्ल लेश्याओंके साथ ही मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं, इसलिए मनुष्य असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अपर्याप्तकालमें छहों लेश्याएं बन जाती हैं। सम्यक्त्व आलापके आगे भव्यसिद्धिक, औपशमिकसम्यक्त्वके विना दो सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
संयतासंयत सामान्य मनुष्योंके आलाप कहने पर-एक देशविरत गुणस्थान, एक
नं. ११२ सामान्य मनुष्य असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अपर्याप्त आलाप. |गु. जी. प. प्रा. सं | ग. ई. का. यो. वे. क. झा. | संय. द. ले. (म. स. सशि. आ. उ. । ११ ६ ७ ४|११|१.२ १४ | ३ | १ | ३ द्र.२|१| २ १ | २ | २ सं.अ. अ. म. स. औ.मि. पु. मति- असं. के.६. का. भ. क्षा. सं. आहा साका.
| कार्म. श्रुत. विनाशु. क्षायो. अना. अना.
अवि.
अव.
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