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________________ १,१.] संत- परूवणाणुयोगद्दारे वेद-आलाववण्णणं [ ६९७ तेसिं चैव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ अपज्जतीओ, सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगदी, पंचिदियजादी, तसकाओ, वे जोग, णउंसयवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि णाण, असंजम, तिण्णि दंसण, दव्वेण काउसुक्कलेस्सा, भावेण जहणिया काउलेस्सा; भवसिद्धिया, दो सम्मत्तं, कदकरणिज्जं पडुच्च वेदगसम्मत्तं लद्धं । सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा । वेद-संजदासंजदाणं भण्णमाणे अत्थि एगं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, दो गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, णउंसयवेद, चत्तारि कसाय, तिष्णि णाण, संजमासंजम, तिण्णि दंसण, दव्वेण छ नपुंसकवेदी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर - एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, एक संज्ञी अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, सात प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणका योग ये दो योगः नपुंसकवेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे जघन्य कापोतलेश्याः भव्यसिद्धिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये दो सम्यक्त्व, होते हैं; यहां पर क्षायोपशमिक सम्यक्त्वके होनेका कारण यह है कि कृतकृत्यवेदककी अपेक्षासे यहां पर क्षायोपशमिकसम्यक्त्व पाया जाता है । संशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं । नपुंसक वेदी संयतासंयत जीवोंके आलाप कहने पर - एक देशविरत गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यचगति और मनुष्यगति ये दो गतियां, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग; नपुंसकवेद, चारों कषाय, आदिके तीन ज्ञान, संयमासंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं, भव्यंसिद्धिक, नं. ३२९ गु. जी. १ १ सं. अ. Jain Education International नपुंसक वेदी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप. प. प्रा. सं. ग. इं. का. यो. वे. | क. ज्ञा. | संय. | द. | ले. भ. स. शि. आ. ६ अ. ७ ४ १ १ १ २ १ ४ न. पं. त्र. वै.मि. न. कार्म. ३ १ ३ द्र. २ १ २ मति. असं. के. द. का. भ. क्षा. श्रुत. विना शु. क्षायो. अव. भा. १ का. For Private & Personal Use Only उ. 2 २ २ सं. आहा. साका. अना. अना. www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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