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________________ सत्प्ररूपणा विषय नकशा नं. पृष्ट नं. विषय नकशा नं. पृष्ठ नं. ८४० ८४९ ८४० ८४१ मिथ्यादृष्टि सामान्य ५२० पर्याप्त ५२१ अपर्याप्त ५२२ सासादनसम्यग्दृष्टि सामान्य ५२३ पर्याप्त ५२४ अपर्याप्त सम्यग्मिथ्यादृष्टि ५२६ असंयतसम्यग्दृष्टि सामान्य ५२७ पर्याप्त ५२८ अपर्याप्त ५२९ संयतासंयत ५३० प्रमत्तसंयत ५३१ अप्रमत्तसंयत ५३२ अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण ५३४ सूक्ष्मसाम्पराय उपशान्तकषाय ५३६ क्षीणकषाय ५३७ सयोगिकेवली अनाहारी ५३९ मिथ्याष्टि सासादनसम्यग्दृष्टि ५४१ असंयतसम्यग्दृष्टि ५४२ सयोगिकेवली ५४३ अयोगिकेवली सिद्धभगवान् ८५२ ८४३ ८५३ ८५४ ५४४ सत्प्ररूपणाके आलापान्तर्गत विशेष विषयोंकी सूची क्रम नं. विषय पृष्ठ नं. क्रम नं. विषय पृष्ठ नं. १ प्ररूपणाका स्वरूप और भेद- ८ अपर्याप्त काल में तीनों सम्यक्त्वोंके निरूपण ४११ | होनेका कारण २ प्राणका स्वरूप और प्राणोंका ९ भावलेश्याके स्वरूपमें मतभेद और पृथक् निदेश कथन ४१२ । उसका निराकरण ३ संज्ञाके भेद और उनका पृथक | १० अप्रमत्तसंयतके तीन संज्ञाओंके निर्देश होनेमें हेतु કરૂ૩ ४ उपयोगका स्वरूप और उसका ११ अपूर्वकरण गुणस्थानमें वचनयोग पृथक् निते और काययोगके होनेका कारण ४३४ ५ प्ररूपणाओंका सूत्रोक्तत्व-अनुक्तत्व- १२ उपशान्तकषायादि गुणस्थानोंमें विचार और भेदाभेद निरूपण ४१४ शुक्ललेश्या होनेका कारण ४३९ ६ अपर्याप्तकालमें द्रव्यलेश्या कापोत १३ कपाट, प्रतर और लोकपूरण समु. और शुक्ल ही क्यों होती है, इस द्धातगत केवलोके पर्याप्त-अपबातका विचार र्याप्तत्वका विचार ७ अपर्याप्त कालमें छहों भावलेश्याः १४ भावेन्द्रियका लक्षण और केवलीके ओंके होनेका कारण उसके अभावका समर्थन ४४४ ४२२] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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