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________________ १, १. संत परूवणाणुयोगद्दारे आदसालाववण्णण पजत्तकाले सरीरलस्सा भवदि । विग्गहगदीए पुग जरइयादि-सव-जीवाणं दबलेस्सा सुक्का चेव भवदि, कम्म-विस्ससोवचयस्स धवलाणं मोत्तूण अण्ण-वण्णाभावादो । सरीर-गहिद-पढम-समय-पहुडि जाव अपजत्त-काल-चरिम-समओ त्ति ताव सरीरस्स काउलेस्सा चेव, संवलिद-सयल-वण्णादो । भावेण किण्हणील-काउलेस्साओ, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुबजुत्ता वा। तेसिं चेव पञ्जत्ताण भण्णमाणे अत्थि चत्तारि गुणट्ठाणाणि, एगो जीवसमासो, हर पजतीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, णबुसयवेदो, चत्तारि कसाय, छमाण , असंजमो, तिणि दंसण, दव्वेण कालाकालाभासलेस्साओ, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ शरीरलेश्या होती है। किन्तु विप्रहगतिमें नारकी आदि सभी जीवोंको द्रव्यलेश्या शुक्ल ही होती है, क्योंकि, कमाके विनलोपवयका धवलवणे छोड़कर अल्यवर्ण नहीं होता है, तथा शरीर महल करने के प्रथम समयसे लगाकर अपर्याप्तकाल के चरम समयतक शरीरकी कापोतगेश्या हो होती है, क्योंकि, उस समय शरीर संवलित सम्ल वर्णवाला होता है । भावकी अपेक्षा तो कृष्ण, नील और कागोतलेश्या होती है। लेश्या आलापके आगे भव्यसिद्धिक अभव्यसिद्धिक. छहों सम्यक्त्व, संशिक, आहारक. अलाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं। उन्हीं नारकियोंके पर्याप्तकालसंबन्धी ओघालाप कहने पर -आदिके चार गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, नौ योग, नपुंसकवेद, चारों कषायें, तीनों अज्ञान, और आदिके तीन शान इसप्रकार छह ज्ञान, असंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे कालाकालाभास कृष्णलेश्या और भावसे कृष्ण, नील और कापोतलेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, छहों सम्यक्त्व, संशिक, नं. २८ नारकसामान्य आलाप. गु. जी. प. प्रा सं. ग. ई.का. यो. । वे. क. ज्ञा. संय. द. ले. म. स. संज्ञि आ. उ. ४ २ ६ १०४१ ५५ १ ४६ १३ द्र.३२६ १२ । २ सं.प.प. ७. न.पं. व. म. ४ न. अज्ञा.३ असं. के.द. कृ. भ. सं. आहा. । साका. सं.अ.६ व. ४ ज्ञा. ३ विना. का. अ. अना. ! अना. कार्म, भा.३ अशु.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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