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________________ ४४८ ] छक्रडागमे जीवद्वाणं व असणणो, अनाहारिणो, सागार - अणागारेहिं जुगवदुपजुत्ता वा होति । एवं मूलोवालावा समत्ता । आदेसेण गदियाणुवादेण निरयगदीए पेरइयाणं भण्णमाणे अत्थि चत्तारि गुणट्टणाणि, दो जीवसमासा, छ पजत्तीओ छ अपजतीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगदी, पंचिदियजादी, तसकाओ, ओरालिय-ओरालियमिस्स आहार - आहारमिस्सेहिं विणा एगारह जोग, णवंसयवेदो, रइया दव्व-भावेहिं णवंसयवेदा चेव भवंति त्ति । चत्तारि कसाय, छण्णाण, असंजमो, तिष्णि दंसण, दव्वेण कालाकालाभास- काउसुक्कलेस्साओ, दव्वलेस्सा कालाकालाभासा सुठुकण्हेत्ति' जं वृत्तं होदि । एसा रइयाणं विकल्पोंसे मुक्त अनाहारक, साकारोपयोग और अनाकारोपयोग से युगपत् उपयुक्त होते हैं । इसप्रकार मूल ओघालाप समाप्त हुए । आदेशकी अपेक्षा गतिमार्गणा के अनुवादसे नरकगतिमें नारकियोंके आलाप कहनेपरआदिके चार गुणस्थान, संश-पर्याप्त संज्ञी अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां पर्याप्तकालकी अपेक्षा दस प्राण और अपर्याप्तकालकी अपेक्षा सात प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग, आहारककाययोग, आहारकमिश्रकाययोग, इन चारों योगोंके विना ग्यारह योग. नपुंसकवेद होता है । एक नंपुसकवेदके होनेका यह कारण है कि नारकी जीव द्रव्य और भाव इन दोनों ही वेदों की अपेक्षा नपुंसकवेदी होते हैं । वेद आलापके आगे चारों कपायें, तीनों अज्ञान और तीन ज्ञान इसप्रकार छह ज्ञान, असयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यसे पर्याप्तत्वकी अपेक्षा कालाकालाभास लेश्या, और अपर्याप्तत्वकी अपेक्षा कापोत और शुक्ललेश्या होती है। पर्याप्तअवस्था में जो कालाकालाभास लेश्या कही है उसके कहने का यह ताल है कि पर्याप्त अवस्थामें कालाकालाभास अर्थात् अतिकृष्ण लेक्ष्या होती है । जारकियोंकी पर्याप्त अवस्थामें यह ९ मत करणेति ' इति पाठः । नं २७ गु. जी. प. c अ. गुअ. अ. प जी. Jain Education International प्र. 0 E सं. ग. इं. सिद्धों के आलाप. का. यो. वे. क. ज्ञा. संय. द. ले उ. सं. संज्ञि. आ. १ ० १ १ २ ० Co १ 0 के. अनु. के. द. अले अनु. क्षा. अनु. अना साका अना. यु. उ. ० 。 ० ० सि. अनिं. अका. अयो. ० [ १, १. か For Private & Personal Use Only भ. www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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