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________________ ३२ षट्खंडागमको प्रस्तावना उल्लेख भी हमें प्राप्त हो गया है। मूडविद्रीके पं. लोकनाथजी शास्त्रीने वीरवाणीविलास जैन सिद्धांतभवनकी प्रथम वार्षिक रिपोर्ट (१९३५) में मूडविदीकी ताडपत्रीय प्रतिपरसे महाधवल ( महाबंध ) का कुछ परिचय अवतरणों सहित दिया है । इससे प्रथम बात तो यह जानी जाती है कि पंडितजीको उस प्रतिमें कोई मंगलाचरण देखनेको नहीं मिला । वे रिपोर्ट में लिखते हैं " इसमें मंगलाचरण श्लोक, ग्रंथको प्रशस्ति वगैरह कुछ भी नहीं है।" पं. लोकनाथजी की यह रिपोर्ट महत्वपूर्ण है क्योंकि पंडितजीने ग्रंथको केवल ऊपर नीचे ही नहीं देखा-उन्होंने कोई चार वर्षतक परिश्रम करके पूरे महाधवल ग्रंथकी नागरी प्रतिलिपि तैयार की है जैसा कि हम प्रथम जिल्दकी भूमिकामें बतला आये हैं । अतएव उस ग्रंथका एक एक शब्द उनकी दृष्टि और कलमसे गुज़र चुका है । उनके मतसे पूर्वोक्त ' मंगलकरणादो' पदमें हमारे ‘मंगलाकरणादो' रूप सुधार की पुष्टि होती है दूसरी बात जो महाधवलके अवतरणोंमें हमें मिलती है वह खंडविभागसे संबंध रखती है । महाबंधपर कोई पंचिका भी उस प्रतिमें प्रथित है जैसा कि अवतरणकी प्रथम पंक्तिसे ज्ञात होता है 'वोच्छामि संतकम्मे पंचियरूवेण विवरणं सुमहत्थं' इसी पंचिकाकारने आगे चलकर कहा है-- 'महाकम्मपयडिपाहुडस्स कदि-वेदणाओ(दि) चौव्वीसमणियोगहारेसु तस्थ कदि-वेदणा त्ति जाणि अणियोगहाराणि वेदणाखंडम्हि, पुणो पास (-कम्म-पयडि-बंधणाणि) चत्तारि अणियोगदारेसु तत्थ बंध बंधणिज्जणामणियोगेहि सह वग्गणाखंडम्हि, पणो बंधविधाणमणियोगो खुदाबंधम्मि सप्पवंचेण परविदाणि । पुणो तेहिंतो सेसट्टारसणियोगद्दाराणि सत्तकम्मे सव्वाणि परविदाणि । तो वि तस्सइगंभीरत्तादो अस्थविसमपदाणमस्थे थोरुद्धयेण पंचियसरूवेण भणिस्सामो' | इस अवतरणमें शब्दोंमें अशुद्धियां हैं। कोष्टकके भीतरके सुधार या जोड़े हुए पाठ मेरे हैं । पर उसपरसे तथा इससे आगे जो कुछ कहा गया है उससे यह स्पष्ट जान पड़ा कि यहां निबंधनादि अठारह अधिकारोंकी पंजिका दी गई है। उन अठारह अधिकारोंका नाम ‘सत्तकम्म' था, जिससे इन्द्रनन्दिके सत्कर्मसंबंधी उल्लेखकी पूरी पुष्टि होती है। प्राप्त अवतरण परसे महाधवल की प्रति व उसके विषय आदिके संबंधमें अनेक प्रश्न उपस्थित होते हैं, और प्रतिकी परीक्षाकी बड़ी अभिलाषा उत्पन्न होती है, किन्तु उस सबका नियंत्रण करके प्रकृत विषयपर आनेसे उक्त अवतरणमें प्रस्तुतोपयोगी यह बात स्पष्ट रूपसे मालूम हो जाती है, कि कृति ......................... x यह अवतरण सं. प. जिल्द १ की भूमिका पृ. ६८ पर दिया जा चुका है। पर वहां भूलसे 'पुणोते. हिंडो' आदि बाथ छूट गया है। अतः प्रकृतोपयोगी उस अवतरणको यहां फिर पूरा दे दिया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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