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________________ वर्गणाखंड - विचार ३१ इसप्रकार उक्त शंका समाधान से वेदनाखंडकी दोनों सीमायें निश्चित हो जाती हैं । कृति तो वेदनाखंडके अन्तर्गत है ही क्योंकि उक्त शंका समाधानकी सूचना के अतिरिक्त मंगलाचरणके साथ ही वेदनाखंडका प्रारंभ माना ही गया है । वेदनाखंडके विस्तारका एक और प्रमाण उपलब्ध है । टीकाकारने उसका परिमाण सोलह हजार पद बतलाया है । यथा, ' खंडगंथं पडुच्च वेयणाए सोलसपदसहस्साणि ' । यह पदसंख्या भूतबलिकृत सूत्र-ग्रंथकी अपेक्षा से ही होना चाहिये । अतएव जबतक यह न ज्ञात हो जावे कि पदसे यहां धवलाकारका क्या तात्पर्य है तथा वेदनादि खंडोंके सूत्र अलंग करके उन पर वह माप न लगाया जावे तबतक इस सूचनाका हम अपनी जांच में विशेष उपयोग नहीं कर सकते । तो भी चूंकि टीकाकारने एक अन्य खंडकी भी इसप्रकार पद संख्या दी है और उस खंडकी सीमादिके विषयमें कोई विवाद नहीं है इसलिये हमें उनकी तुलनासे कुछ आपेक्षिक ज्ञान अवश्य हो जायगा । धवलाकारने जीवट्ठाण खंडकी पद संख्या अठारह हजार बतलाई है - ' पदं पडुच अट्ठारहपदसहस्सं ' ( संत प. पू. ६० ). इससे यह ज्ञात हुआ कि वेदनाखंडका परिमाण जीवट्ठाणसे नवमांश कम है । जीवाण के ४७५ पत्रोंका नवमांश लगभग ५३ होता है, अतः साधारणतया वेदनाखंडकी पत्र संख्या ४७५-५३=४२२ के लगभग होना चाहिये । ऊपर निर्धारित सीमाके अनुसार वेदनाकी पत्र संख्या प्रत्यक्षमें ६६७ से ११०६ तक अर्थात् ४३८ है जो आपेक्षिक अनुमानके बहुत नजदीक पड़ती है । समस्त चौवीस अनुयोगद्वारोंको वेदना के भीतर मान लेनेसे तो जीवद्वाणकी अपेक्षा वेदनाखंड धवला के तिगुनेसे भी अधिक बड़ा हो जाता है । जब वेदनाखंडका उपसंहार वेदनानुयोगद्वार के साथ हो गया तब प्रश्न उठता है कि उसके आगे फास आदि अनुयोगद्वार किस खंडके अंग रहे ? ऊपर वेदनादि वर्गण निर्ण तीन खंडोंके उल्लेखोंके विवेचन से यह स्पष्ट ही है कि वेदनाके पश्चात् वर्गणा और उसके पश्चात् महाबंधकी रचना है । महाबंधकी सीमा निश्चितरूपसे निर्दिष्ट है क्योंकि धवला में स्पष्ट कर दिया गया है कि बन्धन अनुयोगद्वारके चौथे प्रभेद बन्धविधानके चार प्रकार प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबंधका विधान भूतबलि भट्टारकने महाबंध में विस्तारसे लिखा है, इसलिये वह धवला के भीतर नहीं लिखा गया । अतः यहाँतक वर्गणाखंडकी सीमा समझना चाहिये। वहांसे आगेके निबन्धनादि अठारह अधिकार टीकाकी सूचनानुसार चूलिका रूप हैं । वे टीकाकार कृत हैं भूतबलिकी रचना नहीं हैं । उक्त खंड विभागको सर्वथा प्रामाणिक सिद्ध करनेके लिये अब केवल उस प्रकारके किसी प्राचीन विश्वसनीय स्पष्ट उल्लेखमात्रकी अपेक्षा और रह जाती है । सौभाग्यसे ऐसा एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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