SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 129
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४३६ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१,१. विदिय-ट्ठाण-विद-अणियट्टीणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, परिग्गहसण्णा, अंतरकरणं काऊण पुणो अंतोमुहुत्तं गंतूण वेदोदओ णट्ठो तेण मेहुणसण्णा णत्थि । मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, अवगदवेदो, चत्तारि कसाय, चत्तारि णाण, दो संजम, तिणि दंसण, दब्बेण छ लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया, दो सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा । तदिय-ट्ठाण-ट्ठिद-आणियट्टीणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पञ्जत्तीओ, दस पाण, परिग्गहसण्णा, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, अवगदवेदो, तिणि कसाय, वेदेसु खीणेसु पुणो अंतोमुहुतं गंतूण कोधोदयो णस्सदि तेण कोधकसाओ णत्थि । चत्तारि णाण, दो संजम, तिणि अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके द्वितीय भागवर्ती जीवोंके ओघालाप कहने पर एक नौवां गुणस्थान, एक संझी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, परिग्रहसंज्ञा होती है। एक परिग्रह संशाके होनेका यह कारण है कि अन्तरकरण करनेके अनन्तर अन्तर्मुहूर्त जाकर वेदका उदय नष्ट हो जाता है, इसलिये द्वितीय भागवर्ती जविके मैथुनसंज्ञा नहीं रहती है। संज्ञा आलापके आगे मनुष्यगति, पंचेद्रियजाति, त्रसकाय, पूर्वोक्त नौ योग, अपगतवेद, चारों कषायें, केवलज्ञानके विना चार ज्ञान, सामायिक, छेदोपस्थापना ये दो संयम, केवलदर्शनके विना तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं और भावसे शुक्ललेश्या, भव्यसिद्धिक, औपशमिक और क्षायिक ये दो सम्यक्त्व, संज्ञी, आहारी, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते है। __ अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके तृतीयभागवर्ती जीवोंके ओघालाप कहनेपर--एक नौवां गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, परिग्रहसंज्ञा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, पूर्वोक्त नौ योग, क्रोधकषायके विना तीन कषायें होती हैं। तीन कषायोंके होनेका यह कारण है कि तीनों वेदोंके क्षय हो जाने पर पुनः एक अन्तर्मुहूर्त जाकर क्रोधकषायका उदय नष्ट हो जाता है, इसलिये इस भागमें क्रोधकषाय नहीं है । आगे केवलज्ञानके विना चार ज्ञान, सामायिक और नं. १८ अनिवृत्तिकरण-द्वितीयभाग-आलाप. | गु. जी. प. | प्रा. | सं. ग. इ. ) का. ( यो. वे. क ज्ञा. ) संय. द. । ले. भ. स. संज्ञि. | आ. उ. | अनि.संप. परि. म.पंचे. स.भ.४. व ४ ble के. सा. के. द. द्र. | भ. औ. सं. आहा. साका विना. छे. विना. १ अना. क्षा. - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy