SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 499
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ..... छक्खंडागमे जीवाणं [१, १. गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, चत्तारि जोग, इत्थिवेदेण विणा दो वेद अवगदवेदो वि. अत्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अत्थि, चत्तारि णाण, चत्तारि संजम, चत्तारि दसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण छ लेस्साओ; भवसिद्धिया, तिण्णि सम्मत्तं, सण्णिणो अणुभया वा, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा तदुभएण वा । उवरि असंजदसम्माइट्टिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ताव मूलोघ-भंगो; तेसिं सम्वेसिं सम्मत्तसंभवादो। जाति, प्रसकाय, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र, आहारकमिश्र और कार्मणकाययोग ये चार योग, स्त्रीवेदके विना शेष दो वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है, चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है, मति, श्रुत, अवधि और केवलज्ञान ये चार शान, असंयम, सामायिक, छेदोपस्थापना और यथाख्यातविहारशुद्धिसंयम ये चार संयम; चारों दर्शन, द्रव्यसे कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे छहों लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, औपशमिक आदि तीन सम्यक्त्व, संक्षिक तथा संक्षिक और असंज्ञिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी तथा साकार और अनाकार इन दोनों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त भी होते हैं। विशेषार्थ-यहांपर सम्यक्त्वमार्गणाके अपर्याप्त आलाप बतलाते हुए भावसे छहों लेश्याएं बतलाई गई हैं, और गोमट्टसार जीवकाण्डके आलापाधिकारमें सम्यक्त्वमार्गणाके अपर्याप्त आलाप बतलाते हुए एक कापोत और तीन शुभ इसप्रकार चार लेश्याएं ही बतलाई हैं। परंतु गोमट्टसारमें ऐसा कथन क्यों किया यह कुछ समझमें नहीं आता, क्योंकि, आगे उसीमें वेदकसम्यक्त्वके अपर्याप्त आलाप बतलाते हुए छहों लेश्याएं कहीं गई हैं। संभव है यह लिपिकारकी भूल है जो बराबर यहां तक चली आई है। अस्तु, धवलाका कथन ठीक प्रतीत होता है। ऊपर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि जीवोंके आलाप मूल ओघालापके समान होते हैं, क्योंकि, उन सभी गुणस्थानवी जीवोंके सम्यक्त्व पाया जाता है। नं. ४७५ सम्यग्दृष्टि जीवोंके अपर्याप्त आलाप. । गु. जी. प. प्रा. सं.ग.। इं.का. यो. वे. । क.. शा. । संय. द. | ले. भ. | स. संक्षि. आ.| उ. | |६अ./ " अवि.सं.अ. प्रम. सयो क्षीणसं. </ औ.मि.पु. अकषा. मति. असं. सामा. अब. छेदो. केव. यथा. आ.मि. कार्म. Elehle का. भ. औपसं. आहा. साका. | क्षा. अनु. अना. अना. भा.६ क्षायो. तथा. यु. उ. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy