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________________ ५४ षट्खंडागमकी प्रस्तावना उठाकर उसे भूतबलि आचार्यने जैसाका तैसा वेदनाखंडके आदिमें रख दिया है, ऐसी धवलाकारकी सूचना है । इस मंगलाचरणमें ४४ नमस्कारात्मक सूत्र या पद हैं। इनमें बारहवें और तेरहवें सूत्रोंमें क्रमसे दशपूर्वियों और चौदह पूर्वियोंको अलग अलग नमस्कार किया गया है, जिसके रहस्यका उद्घाटन धवलाकारने इसप्रकार किया है---- णमो दसपुधियाणं ॥१२॥ एस्थ दसपुग्विणो भिण्णाभिण्णभेएण दुविहा होति । तत्थ एककारसंगाणि पढिऊण पुणो परियम्मसुत्तपढमाणियोगपुब्धगयचूलिया ति पंचहियारणिबद्धदिट्टिवादे पढिजमाणे उप्पायपुवमादिं कादूण पढ़ताण दसपुव्वीविजापवादे समत्ते रोहिणी-आदिपंचसयमहाविजाई अंगुटपसेणादिसत्तसयदहरविजाहि अणुगयाओ किं भयवं आणवेवत्ति दुक्कंति । एवं दुक्काणं सव्वविजाणं जो लोभो गच्छदि सो भिण्णदसपुवी । जो पुण ण तासु लोभं करेदि कम्मक्खयत्थी होतो सो अभिण्णदसपब्बी णाम । तस्थ अभिग्णदसपब्बीजिणाणं णमोकारं करेमि त्ति उत्तं होदि । भिण्णदसपुवीण कथं पडिणिविधी? जिणसहाणुववत्तीदो, ण च तेसिं जिणत्तमस्थि, भग्गमहब्वएसु जिणत्ताणुववत्तीदो। णमो चोदसपुब्बियाणं ॥ १३॥ जिणाणमिदि एत्थाणुवढदे । सयलसुदणाणधारिणो चोद्दसपुब्धिणो, तेसिं चोद्दसपुव्वणिं जिणाणं णमो इदि उत्तं होदि। सेसहेटिमपुव्वणिं णमोकारो किण्ण कदो ? ण, तेसि पि कदो चेव तेहिं विणा चोद्दसपुवाणुववत्तीदो। चोद्दसपुवस्सेव णामणिद्देसं कादूण किमढें णमोकारो कीरदे ? विजाणुपवादस्स समत्तीए इव चोहस्स पुव्वसमतीए वि जिणवयणपञ्चयदसणादो। चोद्दसपब्वसमत्तीए को पच्चओ? चोद्दसपुब्वाणि समाणिय रति काउस्सग्गेण टिदस्स पहादसमए भवणवासियवाणवेंतरजोदिसियकप्पवासियदेवेहि कयमहापूजा संखकाहलातूररवसंकुला । होदु एदेसु दोसु हाणेसु जिणवयणपच्चओवलंभो, जिणवयणतं पडि सवंगपुव्वाणि समाणाणि त्ति तसिं सवसिं णामणिद्देसं काऊण णमोक्कारो किण्ण कदो? ण, जिणवयणतणेण सवंगपुवंम्हि सरिसत्ते संते वि विज्जाणुप्पवादलोगबिदुसाराणं महल्लत्तमस्थि, एत्थेव देवपूजोवलंभादो । चोद्दसपुब्वहरो मिच्छत्तं ण गच्छदि तम्हि भवे असंजमं च ण पडिवज्जदि, एसो एदस्स विसेसो। यहां धवलाकारने दशपूर्वियों और चौदहपूर्वियोंको अलग अलग नामनिर्देशपूर्वक नमस्कार किये जानेका कारण यह बतलाया है, कि जब श्रुतपाठी आचारांगादि ग्यारह श्रुतोंको पढ चुकता है और दृष्टिवादके पांच अधिकारोंका पाठ करते समय क्रमसे उत्पादादि पूर्व पढ़ता हुआ दशम पूर्व विद्यानुवादको समाप्त कर चुकता है, तब उससे रोहिणी आदि पांच सौ महाविद्याएं और अंगुष्टप्रसेणादि सात सौ अल्प विद्याएं आकर पूछती हैं 'हे भगवन् , क्या आज्ञा है' ? इसप्रकार सब विद्याओंके प्राप्त हो जानेपर जो लोभमें पड़ जाता है वह तो भिन्नदशपूर्वी कहलाता है, और जो उनके लोभमें न पड़कर कर्मक्षयार्थी बना रहता है वह अभिन्नदशपूर्वी होता है। ये अभिन्नदशपूर्वी ही 'जिन' संज्ञाको प्राप्त करते हैं और उन्हींको यहां नमस्कार किया गया है । किन्तु जो महाव्रतोंका भंग कर देनेसे जिनसंज्ञाको प्राप्त नहीं कर पाते उन्हें यहां नमस्कार नहीं किया गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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