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________________ बारहवें श्रुताङ्ग दृष्टिवादका परिचय १३ किरियाविसालं-तत्र कायिक्यादयःक्रिया १३ किरियाविसालं लेखादिकाः द्वासप्ततिकलाः विशाल त्ति सभेदाः संयमक्रिया छन्दक्रिया- स्त्रैणांश्चतुःषष्टिगुणान् शिल्पानि काव्यगुणविधानानि च वर्ण्यन्ते । दोपक्रियां छन्दोविचितिक्रियां च कथयति । 1 ण्यन्त । १४ लोकबिंदुसारं-तच्चास्मिन् लोके श्रुतलोके १४ लोकबिंदुसारं अष्टौ व्यवहारान् चत्वारि वा बिन्दुरिवाक्षरस्य सर्वोत्तममिति, सर्वाक्षर- बीजानि मोक्षगमनक्रियाः मोक्षसुखं च सन्निपातप्रतिष्ठितत्वेन च लोकबिन्दुसारं कथयति । (१२५००००००) भणितम् । (१२५००००००) पूर्वोके अन्तर्गत विषयोंकी सूचना समवायांग व नन्दीसूत्रोंमें नहीं पायी जाती, वहां केवल नाम ही दिये गये हैं। विषयकी सूचना उनकी टीकाओंमें पायी जाती है। उपर्युक्त श्वेताम्बर मान्यताका विषय समवायांग टीकासे दिया गया है। उस परसे ऐसा ज्ञात होता है कि वहां विषयका अंदाज बहुत कछ नामकी व्युत्पत्ति द्वारा लगाया गया है । धवलान्तर्गत विषयसूचना कुछ विशेष है । पर विषयनिर्देशों शब्दभेदको छोड़ कोई उल्लेखनीय अन्तर नहीं है । अवन्ध्य और कल्याणवादमें जो नामभेद है, उसीप्रकार विषयसूचनामें भी कुछ विशेष है । धवलामें उसके अन्तर्गत फलित ज्योतिष और शकुनशास्त्रका स्पष्ट उल्लेख है जो अवन्ध्यके विषयमें नहीं पाया जाता। उसी प्रकार बारहवें प्राणावाय पूर्व के भीतर धवलामें कायचिकित्सादि अष्टांगायुर्वेदकी सूचना स्पष्ट दी गई है, वैसी समवायांग टीकामें नहीं पायी जाती। वहां केवल 'आयुपाणविधान' कहकर छोड़ दिया गया है । तेरहवें क्रियाविशालमें भी धवलामें स्पष्ट कहा है कि उसके अन्तर्गत लेखादि बहत्तर कलाओं, चौसठ स्त्री कलाओं और शिल्पोंका भी वर्णन है। यह समवायांग टीकामें नहीं पाया जाता। पदप्रमाण दोनों मान्यताओंमें तेरह पूर्वोका तो ठीक एकसा ही पाया जाता है, केवल बारहवें पूर्व पाणावायकी पदसंख्या दोनोंमें भिन्न पाई जाती है। धवलाके अनुसार उसका पदप्रमाण तेरह कोटि है जब कि समवायांग और नन्दीसूत्रकी टीकाओंमें एक कोटि छप्पन लाख ( एका कोटी षट्पञ्चाशच्च पदलक्षाणि ) पाया जाता है । प्रथम नौ पूर्वोका विषय तो अध्यात्मविद्या और नीति-सदाचारसे संबंध रखता है किन्तु आगेके विद्यानुवादादि पांच पूर्वोमें मंत्र तंत्र व कला कौशल शिल्प आदि लौकिक विद्याओंका वर्णन था, ऐसा प्रतीत होता है । इसी विशेष भेदको लेकर दशपूर्वी और चौदहपूर्वी का अलग अलग उल्लेख पाया जाता है। धवलाके वेदनाखंडके आदिमें जो मंगलाचरण है वह स्वयं इन्द्रभूति गौतम गणधरकृत और महाकम्मपयडिपाहुडके आदिमें उनके द्वारा निबद्ध कहा गया है। वहींसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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