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१, १.] संत-परूषणाणुयोगदारे संजम-आलाबवण्णणं
[.१५ सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदाणं भण्णमाणे मूलोघ-भंगो।
जहाक्खादसुद्धिसंजदाणं भण्णमाणे अत्थि चत्तारि गुणट्ठाणाणि, दो जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ छ अपज्जतीओ, दस चत्वारि दो एक पाण, खीणसण्णा, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, अवगदवेदो, अकसाओ, पंच णाण, जहाक्खादसुद्धिसंजमो, चत्तारि सण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा अलेस्सा वि अत्थि; भवसिद्धिया, वेदगसम्मत्तेण विणा दो सम्मत्तं, सण्णिणो णेव सण्णिणो णेव असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा सागार-अणागारेहिं जुगवदुवजुत्ता वा ।
उवसंतकसायप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि ति मूलोघ-भंगो। संजदासजदाण
सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत जीवोंके आलाप कहने पर उनके आलाप मूल ओघालापके समान ही जानना चाहिए ।
____ यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत जीवोंके आलाप कहने पर-उपशान्तकषाय, क्षीणकपाय, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली ये चार गुणस्थान, संक्षी-पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, छहों अपर्याप्तियां दशों प्राण, चार प्राण, दो प्राण और एक प्राण; क्षणसंशा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, प्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योग, अपगतवेद, अकषाय, मतिज्ञानादि पांचों सुज्ञान, यथाख्यातविहारशुद्धिसंयम, चारों दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या तथा अलेश्यास्थान भी है। भव्यसिद्धिक, वेदकसम्यक्त्वके विना शेष दो सम्यक्त्व, संक्षिक तथा संशिक और असंशिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित स्थान, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी, अनाकारोपयोगी तथा साकार और भनाकार इन दोनों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त होते हैं। ___उपशान्तकषाय गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थानतकके यथाख्यातविहार
नं. ३७७
यथाख्यात शुद्धिसंयत जीवोंके आलाप. । गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई.का. यो. वे. क. सा. संय. . ले. (म.). स. संशि. आ. ६५.१०.
११ ०. ५ मति. १ ४ द्र.६ १/२ १ उ. सं.प. अ.४ .म.पं.त्र.
भ्रत. यथा. मा.१ भ. औप. अप.
६.व.
शुक्ल. क्षा. अनु. अना. अना. मनः.
अले.
अकषा. .
|
क्षीणसं. .
स.
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का.
| केव.
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