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१, १.] संत-परूवणाणुयोगदारे इंदिय-आलाववण्णणं
[५८७ सासणसम्माइटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति मूलोघ-भंगो । एवं सण्णिपंचिं. दियाणं पज्जत्त-णामकम्मोदयाणं मिच्छाइट्टिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति जाणिऊण सकलालावा वत्तव्या।
असण्णि-पंचिदियाणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, दो जीवसमासा, पंच पज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ, णव पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, चत्तारि जोग, तिण्णि वेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, दो दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्सा; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा।
तेसिं चेव पजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, पंच पजत्तीओ, णव पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, दो
सामान्य पंचेन्द्रिय जीवोंके सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तकके आलाप मूल ओघालापके समान जानना चाहिए। इसीप्रकार पर्याप्त नामकर्मके उदयवाले संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंके मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तकके समस्त आलाप जानकर कहना चाहिए।
असंशी पंचेन्द्रिय जीवोंके सामान्य आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, असंझी-पर्याप्त और असंशी--अपर्याप्त ये दो जीवसमास, पांच पर्याप्तियां, पांच अपर्याप्तियां; नौ प्राण, सात प्राण; चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, अनुभयवचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये चार योग; तीनों वेद, चारों कषाय, दो अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं: भव्यासिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व, असंशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
उन्हीं असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंके पर्याप्तक लसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक असंज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, पांच पर्याप्तियां, नौ प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति,
नं. २०७
असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंके सामान्य आलाप. | गु.) जी. प. प्रा. | सं./ ग.| ई. का. यो. । वे. क. ज्ञा. | संय. द. | ले. भ. स. संज्ञि. आ. उ. । 17 २ ५५. ९/४/१/११ ४ ३ ४ २ १ २ द्र. ६२ १ १ २ २ मि. असं.प. ५अ. ति. व. कुम. असं. अच. भा. ३भ. मि. असं. आहा. साका.
अनु. कुश्रु. अच. अशु. अ. | अना. अना.
पंचे. त्रस..
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