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________________ ५७१) छक्खंडागमे जीवहाणं [१, १. भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुखजुत्ता होति अणागावजुत्ता वा। तेसिं चेव पञ्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि एवं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, चत्तारि पजत्तीओ, चत्तारि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, सुहुमेहंदियजादी, पंच थावरकाय, ओरालियकायजोगो, णqसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, अमंजम, अचक्खुदंसण, दव्वेण काउलेस्सा, भावेण किण्ह-णील-काउलेस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, असणिणो, आहारिणो, सागारुखजुत्ता होंति अणागारवजुत्ता वा। तेसिं चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, चत्तारि अपज्जत्तीओ, तिणि पाण, चत्तारि सण्णाओ, तिरिक्खगदी, मुहमेइंदियजादी, पंच थावरकाय, दो जोग, गर्बुसयवेद, चत्तारि कसाय, दो अण्णाण, असंजम, अचक्खु और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक मिथ्यात्व, असंशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं। उन्हीं सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक सूक्ष्म-पर्याप्त जीवसमास, चार पर्याप्तियां, चार प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, सूक्ष्म एकेन्द्रियजाति, पांचों स्थावरकाय, औदारिककाययोग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, असंयम, अचक्षुदर्शन, द्रव्यसे कापोतलेश्या, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं; भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिका मिथ्यात्व, असंशिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं। उन्हीं सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंके अपर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यारष्टि गुणस्थान, एक सूक्ष्म-अपर्याप्त जीवसमास, चार अपर्याप्तियां, तीन प्राण, चारों संज्ञाएं, तिर्यंचगति, सूक्ष्म एकेन्द्रियजाति, पांचों स्थावरकाय, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये दो योग, नपुंसकवेद, चारों कषाय, कुमति और कुश्रुत ये दो अज्ञान, १ प्रतिषु ' काउसुक्कलेस्सा ' इति पाठः । सवेसिं सहुमाणं कावोदा. गो. जी. ४९७. नं. १९० सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंके पर्याप्त आलाप. गु. | जी.। प. प्रा. सं. ग. ई... का. यो. वे. क. | शा. संय. | द. | ले. भ. | स. | संशि. आ.| उ. | १४|४|४|११ ५ १ १४ २ १ १ द्र.१२१ ११२ ति. सू.ए. स. औदा. कुम. असं. अच. का. भ. मि. असं. आहा. साका. जाति- विना. कुश्रु. भा.३ अ. अना. अशु. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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