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________________ १, १.! संत-परूवणाणुयोगदार आला 1 ४२१ छ लेस्साओ, अलेस्सा वि अत्थिः दव्वेण छ लेस्सत्ति भणिदे सरीरस्स छन्धण्णा घेसचा । भावेण छ लेस्सा ति भाणदे जोग-कसाया छब्भेदं हिदा घेत्तव्या* । भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, णेव भवसिद्धिया णेव अभवसिद्धिया णत्थिः छ सम्मत्ताणि, सणिणो असणिणो, णेव सणिणो णेव असणिणो वि अत्थि; आहारिणो अणाहारिणो, सागारूवजुत्ता वा अणागारुवजुत्ता वा, सागारणगारेहि जुगवईवजुत्ता वि अस्थि । संपहि अपजत्ति-पजाय-विसिट्टे ओघे भण्णमाणे अस्थि मिच्छाइट्टी सासणसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी पमत्तसंजदा सजोगिकेवलि ति पंच गुणाणाणि, सत्त जीव. समासा, छ अपज्जतीओ पंच अपजत्तीओ चत्तारि अपजत्तीओ, सत्त गाण सत्त पाण हैं और अलेश्यास्थान भी होता है। द्रव्यसे छहों लेश्याएं होती हैं ऐसा कथन करने पर शरीरसंबन्धी छह वणोंका ग्रहण करना चाहिये। भावसे नहीं लेश्याएं होती हैं। करने पर योग और कषायोंकी छह भेदोंको प्राप्त मिश्रित अवस्थाका ग्रहण करना चाहिये । भव्यसिद्धिक होते हैं और अभव्यसिद्धिक होते हैं, किंतु भव्यासिद्धिक और अभव्यसिद्धिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित स्थान नहीं होता है। छहों सम्यक्त्व होते हैं । संज्ञी होते है, असंज्ञी भी होते हैं, तथा तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानकी अपेक्षा संज्ञी और असंही विकल्प रहित भी जीव होते हैं । आहारक होते हैं और अनाहारक भी होते हैं। साकार उपयोगवाले होते हैं, अनाकार उपयोगवाले होते हैं और साकार तथा अनाकार इन दोनों उपयोगोंसे युगपन् उपयुक्त भी होते हैं। अब अपर्याप्ति-पर्यायसे युक्त अपर्याप्तक जीवोंके, ओघालाप कहने पर---मिथ्याष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, प्रमतसंयत और सयोगिकेवली ये पांच गुणस्थान होते हैं। अपर्याप्तरूप सात जीवसमास होते हैं। अपर्याप्त संज्ञीके छहों अपर्याप्तियां, अपर्याप्त असंही और विकल त्रयोंके पांच अपर्याप्तियां और अपर्याप्त एकेन्द्रिय जीवोंके चार अपर्याप्तियां होती हैं । संशी, असंझी, चतुर्मिन्द्रय, x वण्णोदयेण जणिदो सरीस्वण्णो दु दव्वदो लेस्सा | गो. जी. ४९४. * जोगपउत्ती लेस्सा कसायउदयाणरंजिया होई ॥ गो. जी. ४११. नं.१ पर्याप्त जीवोंके सामान्य आलाप. | गु.जी. प प्रा. सं. ग. इं.का. यो. 'वे. ज्ञा. संय ६. है. भ. स स ई. आ. उ. । १४. ७६५.१०९ ४ ४ ५ ६ ११३४ ८ । ७. ४ द. ६ २६२ २ प. ५५.८७। - ओ.मि. भा. म.. . अहा. साका. अगअर्स. अजालनाका आ.मि. कार्म. के विना be Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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