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________________ षट्खंडागमकी प्रस्तावना समाधान-क्योंकि इनमें प्रधानताका अभाव है। शंका--यह कैसे जाना ? समाधान-उनका संक्षेपमें प्ररूपण किया गया है इससे जाना । इस परसे यह बात स्पष्ट समझमें आजाती है कि उक्त मंगलाचरणका सम्बन्ध बंधसामित्त और खुद्दाबंध खंडोसे बैठाना बिलकुल निर्मूल, अस्वाभाविक, अनावश्यक और धवलाकार के मतसे सर्वथा विरुद्ध है । हम यह भी जान जाते हैं कि वर्गणाखंड और महाबंधके आदिमें कोई मंगलाचरण नहीं है, इसी मंगलाचरणका अधिकार उनपर चालू रहेगा। और हमें यह भी सूचना मिल जाती है कि उक्त मंगलके अधिकारान्तर्गत तीनों खंड अर्थात् वेदना, वर्गणा और महाबंध प्रस्तुत अनुयोगद्वारोंसे बाहर नहीं हैं। वे किन अनुयागद्वारोंके भीतर गर्भित हैं यह भी संकेत धवलाकार यहां स्पष्ट दे रहे हैं । खंड संज्ञा प्राप्त न होने की शिकायत किन अनुयोगद्वारोंकी ओरसे उठाई गई ? कदि, पास, कम्म और पयडि अनुयोगद्वारोंकी ओरसे । वेदणाअनुयोगद्वारका यहां उल्लेख नहीं है क्योंकि उसे खंड संज्ञा प्राप्त है। धवलाकारने बंधन अनुयोगद्वारका उल्लेख यहां जान बूझकर छोड़ा है क्योंकि बंधनके ही एक अवान्तर भेद वर्गणासे वर्गणाखंड संज्ञा प्राप्त हुई है और उसके एक दूसरे उपभेद बंधविधानपर महाबंधकी एक भव्य इमारत खड़ी है। जीवट्ठाण, खुद्दाबंध और बंधसामित्तविचय भी इसीके ही भेद प्रभेदोंके सुफल हैं। इसलिये उन सबसे भाग्यवान पांच पांच यशस्वी संतानके जनयिता बंधनको खंड संज्ञा प्राप्त न होने की कोई शिकायत नहीं थी। शेष अठारह अनुयोगद्वारोंका उल्लेख न करनेका कारण यह है कि भूतबलि भट्टारकने उनका प्ररूपण ही नहीं किया। भूतबलिकी रचना तो बंधन अनुयोगद्वारके साथ ही, महाबंध पूर्ण होने पर, समाप्त हो जाती है जैसा हम ऊपर बतला चुके हैं । इसी अवतरणसे ऊपर धवलाकारने जो कुछ कहा है उससे प्रकृत विषयपर और भी बहुत विशद प्रकाश पड़ता है । वह प्रकरण इसप्रकार है तत्थेदं किं णिबद्धमाहो अणिबद्धमिदि ? ण ताव णिबद्धमंगलमिदं महाकम्मपयडीपाहुडस्स कदियादि-चउवीसअणियोगावयवस्य आदीए गोदमसामिणा परुदिदस्स भूतवलिभडारएण वेयणाखंडस्स आ मंगलटुं तत्तो आणेदूण ठविदस्स णिबद्धत्तविरोहादो। ण च वेयणाखंड महाकम्मपयडीपाहुडं अवयवस्स अवयवित्तविरोहादो। ण च भूदवली गोदमो विगलसुदधारयस्स धरसेणाइरियसीसस्त भूदवलिस्स सयलसुधारयवड्डमाणतेवासिगोदमत्तविरोहादो । ण चाण्णो पयारो णिबद्धमंगलत्तस्स हेदुभूदो आथि । तम्हा अणिबद्धमंगलमिदं। अधवा होदु णिबद्धमंगलं । कथं वेयणाखंडादिखंडगयस्स महाकम्मपयडिपाहुडत्तं ? ण, कदिया (दि)चउवीस-अणियोगद्दारेहिंतो एयंतेण पुधभूदमहाकम्मपयडिपाहुडाभावादो। एदेसिमणियोगद्दाराणं कम्मपयडिपाहडते संते पाहुड-बहत्तं पसजदे ण एस दोसो, कथंचि इच्छिजमाणतादो। कधं घेयणाए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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