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________________ १, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदि-आलाववण्णणं [१५१ संपहि णेरइय-मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणट्ठाणं, दो जीवसमासा, छ पञ्जत्तीओ छ अपजत्तीओ, दस पाण सत्त पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोग, णबुंसयवेद, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजमो, दो सण, दव्वेण कालाकालाभास-काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण किण्ह-णीलकाउलस्साओ; भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, मिच्छत्तं, सण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा। तेसिं चेव पजत्ताणं भण्णमाणे आत्थि एयं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पज्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, णिरयगदी, पंचिदियजादी, तसकाओ, णव जोग, णqसयवेदो, चत्तारि कसाय, तिण्णि अण्णाण, असंजम, दो दंसण, दव्येण कालाकाला अब नारकी मिथ्यादृष्टिजीवोंके आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, संझीपर्याप्त और संशी-अपर्याप्त ये दो जीवसमास, छहों पर्याप्तियां और छहों अपर्याप्तियां, दशों प्राण और सात प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, वैक्रियिककाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योग, नपुंसकवेद, चारों कषायें, तीनों अज्ञान, असंयम, चक्षु और अचक्षु ये दो दर्शन, द्रव्यसे पर्याप्त-अवस्थाकी अपेक्षा कालाकालाभासलेश्या और अपर्याप्त-अवस्थाकी अपेक्षा कापोत और शुक्ल लेश्याएं, भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक; मिथ्यात्व संशिक, आहारक, अनाहारक; साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं। उन्हीं नारकी मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्तकालसम्बन्धी आलाप कहने पर-एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक संशी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और कार्मणकाययोग ये नौ योग, नपुंसकवेद, चारों कषायें, तीनों अज्ञान, असंयम, दो दर्शन, द्रव्यसे कालाकालाभासकृष्ण नं. ३१ नारकसामान्य-मिथ्यादृष्टि आलाप. । गु. जी. प. प्रा. सं.| गई. का. यो. | वे. क. ज्ञा.| संय. द. ले. म. स. |सलि. आ.. उ. १ २ ६१० ४ १ १ १ ११ १ ४ ३ १ २ द्र३ २ १ १ २ मि. स.प. प. प. न. म. ४ न. असं. च. कृ.भ. मिथ्या. सं. | आहा. साका. अ. का. अ | अना. अना. अ. अ. व.२ काम.१ भा३ अशु. 1. प. प. न. पंचे. . स. Ed.४ अज्ञा. VA Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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