________________
२३८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. तेसिं चेव पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्थि तेरह गुणट्ठाणाणि, सत्त जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ पंच पज्जत्तीओ चत्तारि पज्जत्तीओ, दस पाण णव पाण अट्ठ पाण सत्त पाण छ पाण चत्तारि पाण चत्तारि पाण, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अत्थि, चत्तारि गदीओ, एइंदियादी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छक्काय, वेउब्धियमिस्सेण विणा छ जोग तिण्णि वा, तिण्णि वेद अवगदवेदो वि अस्थि, चत्तारि कसाय अकसाओ वि अस्थि, अहणाण, सत्त संजम,चत्तारि देसण, दव-भावेहि छ लेस्सा, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, छ सम्मत्तं, सण्णिणो असण्णिणो णेव सण्णिणो णेव असण्णिणो, आहारिणो अणाहारिणो आहारिणो चेव वा, सागारुखजुत्ता होंति अणागारुवजुत्ता वा सागार-अणागारेहि जुगवदुवजुत्ता वा" ।
उन्हीं काययोगी जीवोंके पर्याप्तकालसंबन्धी आलाप कहने पर-आदिके तेरह गुणस्थान, पर्याप्तसंबन्धी सात जीवसमास, छहों पर्याप्तियां पांच पर्याप्तियां, चार पर्याप्तियां: वशी प्राण, नौ प्राण, आठ प्राण, सात प्राण, छह प्राण. चार प्राण और चार प्राण: चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंशास्थान भी है। चारों गतियां, एकेन्द्रियजाति आदि पांचों जातियां, . पृथिवीकाय आदि छहों काय, वैक्रियिकमिश्रकाययोगके विना छह काययोग अथवा औदारिककाययोग, वैक्रियिककाययोग और आहारककाययोग ये तीन काययोग; तीनों वेद तथा अपगतवेदस्थान भी है। चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी है। आठों ज्ञान, सातों संयम, चारों दर्शन, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, छहों सम्यक्त्व, संक्षिक असंशिक तथा संझी और असंही इन दोनों विकल्पोंसे रहित भी स्थान है; आहारक, अनाहारक अथवा आहारक ही होते हैं। साकारोपयोगी, अनाकारोपयोगी और साकार-अनाकार उप. योगोंसे युगपत् उपयुक्त भी होते हैं।
विशेषार्थ-ऊपर काययोगी जीवोंके पर्याप्तकालमें जो वैक्रियिकमिश्रके विना छह अथवा तीन योग बतलाये हैं। इसका कारण यह है कि छठवें और तेरहवें गुणस्थानमें माहारकसमुद्धात और केवलिसमुद्धातके समय भी विवक्षाभेदसे जब पर्याप्तता स्वीकार कर
नं. २५३
काययोगी जीवोंके पर्याप्त आलाप. । गु. जी. प. प्रा. ! सं. ग.ई. का. यो. वे. क. शा. संय० । द. | ले. भ. स. संक्षि. आ.
उ. |
अयो. पर्या. ५९ विना.
क्षीणसं..
भा. ६ भ.
व.म. विना अथ.
अपग. अकषा.
सं. आहा. साका. असं. अना. अना. अनु. अथ. यु.उ.
'आहा.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org