SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हडागमे जीवाणं ४४४ ] पज्जतं । अद्धारद्ध सरीरी अपज्जतो गाम ण व सजोगम्मि सरीर-पट्टवर्णमत्थि, तदो ण तस्स अपज्जत्तमिदि ण, छ-पज्जति सत्ति वज्जियस्स अपज्जत - ववएसादो । छहि इंदिएहि विणा चत्तारि पाणा दो वा दवेदिवाणं णिष्पत्ति पहुच के वि दस पाणे भगति ! तण घडदे | कुदो ? भाविंदियाभावादी । भाविदियं णाम पंचहमिंदियाणं खओवसमो । [ १, १. सो खीणावर अस्थि । अथ दविदियम्स जदि ग्रहणं कीरदि तो सण्गीणमपज्जत्तकाले सत्त पाणा पिंडिदूण दो चेव पागा भवंति, पंचण्हं दव्वेदियाणमभावादो । तम्हा सिद्ध हो जाता है । विशेषार्थ — सम्मामिच्छाइट्टि - संजदासंजद संजद-हाणे णियमा पजत्ता' इस सूत्रको अनित्य बतलाकर उत्तरशरीरको उत्पन्न करनेवाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संयतासंयतों को भी जो अपर्याप्तक सिद्ध किया है, इससे ऐसा प्रतीत होता है कि इस कथनसे टीकाकारका यह अभिप्राय होगा कि तीसरे गुणस्थानमें उत्तरवैक्रियिक और उत्तर- औदारिक तथा पांचवें गुणस्थानमें उत्तर-औदारिकको उत्पन्न करनेवाले जीव जबतक उस उत्तर- शरीरकी पूर्णता नहीं कर लेते हैं care अपर्याप्तक कहे गये हैं। जिसप्रकार तेरहवें गुणस्थानमें पर्याप्त नामकर्मक उद रहते हुए और शरीरकी पूर्णता होते हुए भी योगकी अपूर्णतासे जीव अपयीतक कहा जाता है, उसीप्रकार यहां पर भी पर्याप्त नामकर्मका उदय रहते हम, योगकी पता रहते हुए और मूल शरीरकी भी पूर्णता रहते हुए केवल उत्तर शरीरको अपूर्णतासे अपर्याप्तक कहा गया है। शंका --- जिसका आरंभ किया हुआ शरीर अर्ध अर्थात् अपूर्ण है उसे अपर्याप्त कहते हैं । परंतु सयोगी अवस्थामै शरीरका आरंभ तो होता नहीं, अतः सयोगीके अपर्याप्तपना नहीं बन सकता है ? Jain Education International समाधान -- नहीं, क्योंकि, कपादादि समुद्रात अवस्थामे सयोगी छह पर्याप्तिरूप शक्तिसे रहित होते हैं, अतएव उन्हें अपर्याप्त कहा है। योगी जिनके पांच भावेन्द्रियां और भावमन नहीं रहता है, अतः इन छहके विना चार प्राण पाये जाते हैं। तथा समुद्धातकी अपर्याप्त अवस्थामें वचनबल और श्वासोच्छ्वासका अभाव हो जानेसे, अथवा तेरहवें गुणस्थानके अन्तमें आयु और काय ये दो ही प्राण पाये जाते हैं । परंतु कितने ही आचार्य द्रव्येन्द्रियोंकी पूर्णताको अपेक्षा दश प्राण कहते हैं; परंतु उनका ऐसा कहना घटित नहीं होता है, क्योंकि, सयोगी जिनके भावेन्द्रियां नहीं पाई जाती हैं। पांचों इन्द्रियावरण कर्मोके क्षयोपशमको भावेन्द्रिय कहते हैं। परंतु जिनका आवरणकर्म समूल नष्ट हो गया है उनके वह क्षयोपशम नहीं होता है। और यदि प्राणोंमें द्रव्येन्द्रियों का ही ग्रहण किया जावे तो संशी जीवोंके अपर्याप्त कालमें सात प्राणोंके स्थानपर कुल दो ही प्राण कहे जायंगे, क्योंकि, उनके द्रव्येद्रियांका अभाव होता है । अतः यह सिद्ध हुआ कि सयोगी जिनके चार २ प्रतिषु सरीरादवण ' इति पाठः । २ प्रति दव्वंदियाणि भवंति ' इति पाठः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy