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________________ १, १.] संत-परूवणाणुयोगदारे ओधालाववण्णणं [४४५ सजोगिकेवलिस्प चत्तारि पाणा दो पाणा वा : खीणसण्णा, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, सत्त जोग, सच्चमणजोगो असच्चमोसमणजोगो सच्चवचिजोगो असच्चमोसवचिजोगो ओरालियकायजोगो कवाडगदस्स ओरालियमिस्सकायजोगो पदर-लोगपूरणेसु कम्मइयकायजोगो, एवं सजोगिकेवलिस्स सत्त जोगा भवंति । अवगदवेदो, अकसाओ, केवलणाण, जहाक्खादसुद्धिसंजमो, केवलदसण, दवण छ लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया, स्वइयसम्मत्तं, व सणिणो णेव असणिणो, आहारिणो अणाहारिणा, सागार-अणागारहिं जुगवदुवजुत्ता होति । अजोगिकेवलीणं भण्णमाणे अस्थि एवं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पञ्जतीओ, पुबिल्ल-पज्जत्तीओ तहा चेव विदाओ त्ति छ पजत्तीओ भणिदाओ । ण पुण पज्जत्ती-जणिद-कज्जमथि । आउ अ-पाणो एक्को चेव । केण कारणेण ? ण ताव णाणा अथवा दो ही प्राण होते हैं। प्राण आलापके आगे क्षीण संज्ञा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, सात योग होते हैं। वे सात योग कौनसे है ? आगे इसीका स्पष्टीकरण करते हैंसत्यमनोयोग, अनुभय-मनोयोग, सत्यवचनयाग, अनुभयवचनयोग, औदारिककाययोग, कपाट. द्वातगत केवलीके औदारिकमिश्रकाययोग और प्रतर तथा लोकपूरण समुद्धातगत केवलीके कार्मणकाययोग इस प्रकार सयोगिकेवलीके सात योग होते हैं। योग आलापके आगे अपगतवेद, अकषाय, केवलज्ञान, यथा च्यातशुद्धि संयम, केवल दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, और भावले शुक्ललेश्या, भव्यसिद्धिक, क्षायिक सम्यक्त्व, संज्ञी और असंज्ञी विकल्पसे रहित आहारी, अनाहारी; साकार तथा अनाकार इन दोनों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त होते हैं। अयोगिकेवली गुणस्थानवी जीवोंके ओघालाप कहनेपर ....एक चौदहवां गुणस्थान, एक पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां होती हैं। छहो पर्याप्लियों के होने का दः कारण है कि पूर्वसं आई हुई पर्यानियां तथैव स्थित रहती है, इसाले । यहाँपर छहां पयाप्तियां कही गई है। किन्तु यहापर पर्याप्नजानत कोई कार्य नहीं होता है, अतः आयुनामक एक ही प्राण होता है। शंका ... आयुाणके होने का क्या कारण है ! सभाधान शानावरण कर्मके श्योपशमस्वरूप पांच इन्द्रिय प्राण तो अयोगकेवलीके नं.२५ सयोगिकवलीके आलाप. का. यो. 'वे, क, ज्ञा. संय, द. ले. ग. जी. प. । प्रा.से. ग. इ. भ. स. संशि.अ. उ. । सं.प. प. क्षीणसं.. म. पंचे. स. म.२ अपग, ० के. यथा. के.द. भा. भ. क्षा. अनु. आहा. साका. अना. अना. अप. यु.उ. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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