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________________ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, १. वरण-खओवसम-लक्षण-पंचिंदियपाणा तत्थ संति, खीणावरणे खओवसमाभावादो। आणावाण-भासा-मणपाणा वि णत्थि, पज्जत्ति-जणिद-पाण-सण्णिद-सत्ति-अभावादो। ण सरीरबलपाणो वि अस्थि, सरीरोदय-जणिद-कम्म-णोकम्मागमाभावादो। तदो एक्को चेव पाणो । उवयारमस्सिऊण एक्को वा छ वा सत्त वा पाणा भवंति । एस पाणो पुण .......................... हैं नहीं, क्योंकि, ज्ञानावरणादि कर्मोंके क्षय हो जानेपर क्षयोपशमका अभाव पाया जाता है। इसीप्रकार आनापान, भाषा, और मनःप्राण भी उनके नहीं हैं, क्योंकि, पर्याप्तिजनित प्राणसंज्ञावाली शक्तिका उनके अभाव है। उसीप्रकार उनके कायबल नामका भी प्राण नहीं है. क्योंकि, उनके शरीर नामकर्मके उदय-जनित कर्म और नोकर्मोके आगमनका अभाव है। इसलिये अयोगकेवलीके एक आयुप्राण ही होता है ऐसा समझना चाहिये। किन्तु उपचारका आश्रय लेकर उनके एक प्राण, छह प्राण अथवा सात प्राण भी होते हैं। विशेषार्थ-वास्तव में अयोगी जिनके एक आयु प्राण ही होता है फिर भी उपचारसे उनके यहां पर एक या छह या सात प्राण बतलाये हैं। जहां मुख्यका तो अभाव हो किन्तु उसके कथन करनेका प्रयोजन या निमित्त हो वहां पर उपचारकी प्रवृत्ति होती है ' उपचारकी इस व्याख्याके अनुसार यहां चौदहवें गुणस्थानमें क्षयोपशमरूप मुख्य इन्द्रियोंका तो अभाव है। फिर भी अयोगी जिनके पंचेन्द्रियजाति नामकर्मका उदय पाया जाता है और वह जीवविपाकी है, इस निमित्तसे उन्हें पंचेन्द्रिय कहना बन जाता है। इसलिये उनके पांच इन्द्रिय प्राणों का कथन करना भी सप्रयोजन है । इसप्रकार पांच इन्द्रियों में आयुको मिला देने पर छह प्राण हो जाते हैं। यहां पर इन्द्रियोंसे अभिप्राय उस शक्तिसे है जिससे अयोगी जिनमें पंचेन्द्रिय वहार होता है। परंतु उस शक्तिके सम्पादनका या पांच इन्द्रियाका आधार शरीर है, अतः इस निमित्तसे अयोगी जिनके कायबलका कथन करना भी सप्रयोजन है। इसप्रकार पूर्वोक्त छह प्राणों में कायबलके और मिला देने पर सात प्राण हो जाते हैं। यद्यपि उनके पहलेकी छह पयाप्तियां उसीप्रकारसे स्थित है, अतः वे पर्याप्तक कहे जाते हैं। तथा पर्याप्तक अवस्थामें मनःप्राण भी होता है, इसलिये उनके मनःप्राणका भी कथन करना चाहिये था। परंतु उसके कथन नहीं करनेका यह कारण प्रतीत होता है कि उनमें संजीव्यवहार लुप्त हो गया है। औपचारिक संशीव्यवहार भी उनमें नहीं माना गया है, अतः अयोगियोंके मनः प्राण नहीं कहा । इसीप्रकार वचनबल और श्वासोछ्वासके अभावका भी कारण समझ लेना चाहिये । ऊपर सयोगी जिनके जो पांच इंद्रियां और एक मन इसप्रकार छह प्राणोंका निषेध करके केवल चार ही प्राण बतलाये हैं वह मुख्य कथन है। अतः जिस उपचारकी अपेक्षा यहां छह अथवा सात प्राण कहे हैं वही उपचार वहां भी लागू होता है । आयु प्राण तो अयोगियों के मुख्य प्राण है फिर भी उसे भी उपचारमें ले लिया है, इसलिये इसे कथनका विवक्षाभेद ही समझना चाहि उपचारका प्रयोजन ऐसा प्रतीत होता है कि विवक्षित पर्यायमें रखना जो आयुका काम है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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