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छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, १.
त्युपयोगसंज्ञानां मार्गणासु यथान्तर्भावो भवति तथा वक्तव्यमिति । न द्वितीयपक्षोक्तदोषोऽनभ्युपगमात् । प्रथमपक्षेऽन्तर्भावो वक्तव्यश्चेदुच्यते । पर्याप्तिजीवसमासाः कायेन्द्रियमार्गण योर्निलीनाः; एक द्वित्रिचतुः पश्चेन्द्रिय सूक्ष्मवादरपर्याप्तापर्याप्तभेदानां तत्र प्रतिपादितत्वात् । उच्छ्रासभाषामनोबलप्राणाश्च तत्रैव निलीनाः तेषां पर्याप्तिकार्यत्वात् । कायबलप्राणोऽपि योगमार्गणातो निर्गतः; बललक्षणत्वाद्योगस्य । आयुः प्राणो गतौ निलीनः; द्वयोरन्योन्याविनाभावित्वात्। इन्द्रियप्राणा ज्ञानमार्गणायां निलीनाः भावेन्द्रियस्य ज्ञानावरणक्षयोपशमरूपत्वात्' । आहारे या तृष्णा कांक्षा साहारसंज्ञा । सा च रतिरूपत्वान्मोहपर्यायः । रतिरपि रागरूपत्वान्मायालो भयोरन्तर्भवति । ततः कषायमार्गणाया - माहारसंज्ञा द्रष्टव्या । भयसंज्ञा भयात्मिका । भयञ्च क्रोधमानयोरन्तलींनम्ः द्वेषरूपत्वात् । ततो भयसंज्ञापि कषायमार्गणाप्रभवा । मैथुनसंज्ञा वेदमार्गणाप्रभेदः; स्त्रीपुंनपुंसक वेदानां तीव्रोदयरूपत्वात् । परिग्रहसंज्ञापि कषायमार्गणोद्भूताः बाह्यार्थीलीढलो भरूपत्वात् । साका
जिसप्रकार अन्तर्भाव होता है उसप्रकार कथन करना चाहिये ?
समाधान - दूसरे पक्षमें दिया गया दूषण तो यहां पर आता नहीं है; क्योंकि, वैसा माना नहीं गया है । तथा प्रथम पक्षमें जो जीवसमास आदिके चौदह मार्गणाओं में अन्तर्भाव करनेकी बात कही है, सो कहा जाता है। पर्याप्ति और जीवसमास प्ररूपणा काय और इन्द्रिय मार्गणा में अन्तर्भूत हो जाती हैं; क्योंकि, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्तरूप भेदोंका उक्त दोनों मार्गणाओंमें प्रतिपादन किया गया द्वै । उच्छ्रःसनिःश्वास, वचनबल और मनोबल, इन तीन प्राणों का भी उक्त दोनों मार्गणाओं में अन्तर्भाव होता है; क्योंकि, ये तीनों प्राण पर्याप्तियों के कार्य हैं । कायबलप्राण भी योगमार्गणासे निकला है; क्योंकि, योग काय, वचन और मनोबलस्वरूप होता है । आयुप्राण गतिमार्गणा में अन्तर्भूत है; क्योंकि, आयु और गति ये दोनों परस्पर अविनाभावी हैं । अर्थात विवक्षित गतिके उदय होने पर तज्जातीय आयुका उदय होता है और विवक्षित आयुके उदय होने पर तज्जातीय गतिका उदय होता है । इन्द्रियमाण ज्ञानमार्गणा में अन्तर्लीन हो जाते हैं, क्योंकि, भावेन्द्रियां ज्ञानावरणके क्षयोपशमरूप होती हैं । आहारके विषय में जो तृष्णा या आकांक्षा होती है उसे आहारसंज्ञा कहते हैं । वह रतिस्वरूप होनेसे मोहकी पर्याय (भेद) है । रति भी रागरूप होने के कारण माया और लोभमें अन्तर्भूत होती है । इसलिये कषायमार्गणा में आहारसंज्ञा समझना चाहिये । भयसंज्ञा भयरूप है, और भय द्वेषरूप होनेके कारण क्रोध और मानमें अन्तर्भूत है, इसलिये भयसंज्ञा भी कषायमार्गणासे उत्पन्न हुई समझना चाहिये । मैथुनसंज्ञा वेदमार्गणाका प्रभेद है; क्योंकि, वह मैथुनसंज्ञा स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसक वेद के तीव्र उदयरूप है । परिग्रहसंज्ञा भी कषायमार्गणासे उत्पन्न हुई है; क्योंकि, यह संज्ञा बाह्य पदार्थोंमें व्याप्त लोभरूप है । साकार उपयोग ज्ञानमार्गणा में और अनाकार उपयोग दर्शनमार्गणा में
१ इंदियकाए लीणा जीवा पज्जति आणभासमणो । जोगे काओ णाणे अक्खा गदिमग्गणे आऊ ॥ गो. जी. ५. २ मायालोहे रदिपुव्वाहारं कोहमाणगम्हि भयं । वेदे मेहुणसण्णा लोहम्हि परिग्गहे सण्णा || गो. जी. ६.
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