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________________ संत-परूवणाणुयोगद्दारे आलाववण्णणं १,१. ] नयोर्भेदोऽभिधातव्य इति । सण चव्विहा आहार -भय- मेहुण- परिग्गह- सण्णा चेदि । मैथुनसंज्ञा वेदस्यान्तर्भवतीति चेन्न, वेदत्रयोदय सामान्यनिबन्धनमैथुनसंज्ञाया वेदोदयविशेषलक्षणवेदस्य चैकत्वानुपपत्तेः । परिग्रहसंज्ञापि न लोभेनैकत्वमा स्कन्दति; लोभोदयसामान्यस्यालीढबाह्यार्थलोभतः परिग्रहसंज्ञामादधानतो भेदात् । यदि चतस्रोऽपि संज्ञा आली ढबाह्यार्थाः, अप्रमत्तानां संज्ञाभावः स्यादिति चेन्न तत्रोपचारतस्तत्सच्चाभ्युपगमात् । स्वपरग्रहणपरिणाम उपयोगः । न स ज्ञानदर्शनमार्गणयोरन्तर्भवति; ज्ञानहगावरणकर्मक्षयोपशमस्य तदुभयकारणस्योपयोगत्वविरोधात् । अथ स्यादियं विंशतिविधा प्ररूपणा किमु सूत्रेणोक्ता उत नोक्तेति ? किं चातः १ यदि नोक्ता, नेयं प्ररूपणा भवति सूत्रानुक्तप्रतिपादनात् । अथोक्ता, जीवसमासप्राणपर्या दाननिमित्तक है, अतएव इन दोनोंमें भेद समझ लेना चाहिये । [ ४१३ संज्ञा चार प्रकारकी है; आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा । शंका- मैथुनसंज्ञाका बेदमें अन्तर्भाव हो जायगा ? समाधान – नहीं, क्योंकि, तीनों वेदोंके उदय सामान्यके निमित्तसे उत्पन्न हुई मैथुनसंज्ञा और वेदों के उदय- विशेष स्वरूप वेद, इन दोनोंमें एकत्व नहीं बन सकता है। इसीप्रकार परिग्रहसंज्ञा भी लोभकषायके साथ एकत्वको प्राप्त नहीं होती है; क्योंकि, बाह्य पदार्थोंको विषय करनेवाला होनेके कारण परिग्रहसंज्ञाको धारण करनेवाले लोभसे लोभकषायके उदयरूप सामान्य लोभका भेद है । अर्थात् बाह्य पदार्थोंके निमित्तसे जो लोभ होता है उसे परिग्रहसंज्ञा कहते हैं, और लोभकषायके उदयसे उत्पन्न हुए परिणामोंको लोभ कहते हैं । शंका- यदि ये चारों ही संज्ञाएं बाह्य पदार्थोंके संसर्गसे उत्पन्न होती हैं तो अप्रमत्तगुणस्थानवर्ती जीवों के संज्ञाओंका अभाव हो जाना चाहिये ? समाधान — नहीं, क्योंकि, अप्रमत्तोंमें उपचारसे उन संज्ञाओंका सद्भाव स्वीकार किया गया है । स्व और परको ग्रहण करनेवाले परिणामविशेषको उपयोग कहते हैं । वह उपयोग ज्ञानमार्गणा और दर्शनमार्गणामें अन्तर्भूत नहीं होता है; क्योंकि, ज्ञान और दर्शन इन दोनों के कारणरूप ज्ञानावरण और दर्शनावरणके क्षयोपशमको उपयोग माननेमें विरोध आता है । शंका- - यह वीस प्रकारकी प्ररूपणा रद्दी आओ, किन्तु यह बतलाइये कि यह प्ररूपणा सूत्रानुसार कही गई है, या नहीं ? Jain Education International प्रतिशंका- - इस प्रश्नसे क्या प्रयोजन है ? शंका- यदि सूत्रानुसार नहीं कहीं गई है तो यह प्ररूपणा नहीं हो सकती है, क्योंकि, यह सूत्र में नहीं कहे गये विषयका प्रतिपादन करती है । और यदि सूत्रानुसार कही गई है, तो जीवसमास, प्राण, पर्याप्ति, उपयोग और संज्ञाप्ररूपणाका मार्गणाओं में For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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