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________________ १, १.] संत-परूवणाणुयोगदारे आलाववण्णणं [११५ रोपयोगो ज्ञानमार्गणायामनाकारोपयोगो दर्शनमार्गणायां ( अन्तर्भवति ) तयोनिदर्शनरूपत्वात्। न पौनरुक्त्यमपि; कथश्चित्तेभ्यो भेदात् । प्ररूपणायां किं प्रयोजनमिति चेदुच्यते, सूत्रेण सूचितार्थानां स्पष्टीकरणार्थ विंशतिविधानेन प्ररूपणोच्यते। तत्थ 'ओघेण अत्थि मिच्छाइट्ठी सिद्धा० चेदि'' एदस्स ओघ-सुत्तस्त ताव परूवणा बुच्चदे। तं जहा- *अत्थि चोद्दस गुणट्ठाणाणि चोद्दस-गुणट्ठाणादीद गुणहाणं पि अस्थि । अत्थि चोद्दस जीवसमासा । के ते ? एइंदिया दुविहा बादरा सुहुमा । अन्तर्भूत होते हैं। क्योंकि, वे दोनों ज्ञान और दर्शनरूप ही हैं। ऐसा होते हुए भी उक्त प्ररूपणाओंके स्वतन्त्र कथन करने में पुनरुक्ति दोष भी नहीं आता है; क्योंकि, मार्गणाओंसे उक्त प्ररूपणाएं कथंचित् भिन्न है। शंका-प्ररूपणा करनेमें क्या प्रयोजन है ? समाधान-सूत्रके द्वारा सूचित पदार्थोंके स्पष्टीकरण करनेके लिये वीस प्रकारसे प्ररूपणा कही जाती है। 'सामान्यसे मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरणप्रविष्ट-शुद्धि-संयतोंमें उपशमक और क्षपक, अनिवृत्तिकरण प्रविष्ट-शुद्धि-संयतों में उपशमक और क्षपक, सूक्ष्मसांपराय-प्रविष्ट-शुद्धि-संयतों में उपशमक और सपक, उपशांतकषाय-वीतराग-छद्मस्थ, क्षीणकषाय-वीतराग छद्मस्थ, सयोगकेवली और अयोगकेवली जीव होते हैं । तथा सिद्ध भी होते हैं।' पहले इस सामान्य सूत्रकी प्ररूपणा कहते हैं । वह इसप्रकार है-चौदहों गुणस्थान हैं और चौदह गुणस्थानोंसे अतीतगुणस्थान भी है । चौदहों जीवसमास हैं। शंका-वे चौदही जीवसमास कौनसे हैं ? * १ सागारी उवजोगी णाणे मग्गम्हि दसणे मग्गे। अणगारो उवजोगो लणिो त्ति जिणेहिं णिाइट।गो.जी. ७. २ जी. सं. सू. ९.२३. सामान्य जीवोंके सामान्य आलाप. गु.जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का.यो. वे. क.शा.सं. द. ले. म. स.। सं. । आ. उ. १४६५.६अ.१०,७ ६१५/३४८७/४ द्र.६ २ |६| २ | २ | २ ५५.५अ., ९,७ मा.६ म. सं. आहा. साका. ४५.४अ. ८,६ असं. अना. अना. तथा यु.उ. अ.गु. अ. जी. GG क्षणि स.. सि. ग.. अ.जा. अ. का. अ. यो. अपग.वे. अकषा. अनु. G अनु. अ.प. ४,२ अ.प्रा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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