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________________ २६ षट्खंडागमकी प्रस्तावना पुव्वाणुपुवी पच्छाणुपुब्बी जत्थतत्थाणुपुची चेदि तिविहा आणुपुची। जं मूलादो परिवाडीए उच्चदे सा पुवाणुपुवी। तिस्से उदाहरणं 'उसहमजियं च वंदे'। इच्चेवमादि । जं उवरीदो हेट्रा परिवाडीए उच्चदि सा पच्छाणुपुवी । विस्से उदाहरणं-एस करेमि य पणमं जिणवरवसहस्स वड्डमाणस्स। सेसाणं च जिणाणं सिवसहखा विलोमेण ॥ यहां यह बतलाया है कि जहां पूर्वसे पश्चातकी ओर क्रमसे गणना की जाती है उसे पूर्वानुपूर्वी कहते हैं, जैसे 'ऋषभ और अजितनाथको नमस्कार'। पर जहां नीचे या पश्चात्से ऊपर या पूर्वकी ओर अर्थात् विलोमक्रमसे गणना की जाती है वह पश्चादानुपूर्वी कहलाती है जैसे मैं वर्द्धमान जिनेशको प्रणाम करता हूं और शेष ( पार्श्वनाथ, नेमिनाथ आदि ) तीर्थंकरोंको भी । यहां 'उवरीदो' से तात्पर्य 'आगे' से है और पीछे की ओरके लिये हेट्ठा [ अधः ] शब्दका प्रयोग किया गया है। धवलामें आगे बंधन अनुयोगद्वारकी समाप्तिके पश्चात् कहा गया है ' एत्तो उवरिमगंथो चूलिया णाम ' । अर्थात् यहांसे ऊपरके ग्रंथका नाम चूलिका है। यहां भी ' उवरिम' से तात्पर्य आगे आनेवाले ग्रंथविभागसे है न कि पूर्वोक्त विभागसे । और भी धवलामें सैकडों जगह ' उवरि' शब्दका प्रयोग हमारी दृष्टि में इसप्रकार आया है " उवरि भण्णमाणचुण्णिसुत्तादो," उवरिमनुत्तं भणदि ' आदि । इनमें प्रत्येक स्थलपर निर्दिष्ट सूत्र आगे दिया गया पाया जाता है। उवरिका पूर्वोक्तके अर्थमें प्रयोग हमारी दृष्टिमें नहीं आया इन उदाहरणोंसे स्पष्ट है कि उवरिका अर्थ आगे आनेवाले खंडोंसे ही हो सकता है, पूर्वोक्तसे नहीं। और फिर प्रकृतमें तो — उच्चमाण ' पद इस अर्थको अच्छी तरह स्पष्ट कर देता है क्योंकि उसका अभिप्राय केवल प्रस्तुत और आगे आनेवाले खंडोंसे ही हो सकता है । पर यदि आगे कहे जानेवाले तीन खंडोंका यह मंगल है तो इस बातका वर्गणा और महाबंधके आदिमें मंगलाचरणकी सूचनासे कैसे सामञ्जस्य बैठ सकता है ? यही एक विकट स्थल है जिसने उपर्युक्त सारी गड़बड़ी विशेषरूपसे उत्पन्न की है । समस्त प्रकरणपर सब दृष्टियोंसे विचार करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि धवलाकी उपलब्ध प्रतियोंमें वहां पाठ की अशुद्धि है । मेरे विचारसे ' वगणामहाबंधाणमादीर मंगल-करणादो' की जगह 'वागणामहाबंधाणमादीए मंगलाकरणादो' पाठ होना चाहिये। दीर्घ 'आ' के स्थानपर हस्व 'अ' की मात्रा की अशुद्धियां तथा अन्य स्वरों में भी व्हस्व दीर्घके व्यत्यय इन प्रतियोंमें भरे पड़े हैं। हमें अपने संशोधनमें इसप्रकारके सुधार सैकड़ों जगह करना पड़े हैं। यथार्थतः प्राचीन कन्नड लिपिमें हस्व और दीर्घ स्वरोंमें बहुधा विवेक नहीं किया जाता था ४ । हमारे अनुमान किये हुए सुधारके साथ पढ़नेसे पूर्वोक्त x डा. उपाध्ये, परमात्मप्रकाश, भूमिका, पृ. ८३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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