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________________ १, १.] संत-परूषणाणुयोगदारे काय-आलावषण्णणे (१११ बादरआउकाइयलद्धिअपअत्ताणं च जहाकमेण भंगो। णवरि तेउकाइयाणं दवण काउसुक्क तवणिजलेस्साओ। तेसिं चेव पजत्ताणं दव्वेण काउ-तवणिजलेस्साओं । एवं पजत्तणामकम्मोदयाण दोण्हं पि वत्तव्यं । बादरकाइयाणं तेउ-भंगो । एवं चेव सिंपज्जत्ताणं । णवरि दव्येण तवणिज्जलेस्सा । एवं पज्जत्तणामकम्मोदयाणं पि दव्व लेस्सा वत्तव्या। सुहुमतेउकाइयाणं सुहुमआउकाइयाणं सुहुम-भंगो । वाउकाइयाणं तेउ-मंगो। णवरि दवेण काउ-सुक्क-गोमुत्त-मुग्गवण्णलेस्साओ । तेसिं पज्जचाणं फाउ-गोमुत लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके आलापोंके समान यथाक्रमसे जानना चाहिए। विशेषार्थ-तैजस्कायिक जीवोंके आलाप अप्कायिक जीवोंके आलापोंके समान होते हैं, इस बातके ध्वनित करनेके लिये मूलमें 'इव' या 'सदृश' ऐसा के.ई प ठ नहीं दिया है। परंतु पहले अकायिक जीवोंके संपूर्ण भेद-प्रभेदोंके आलाप कह आये हैं और यहां तेजस्कायिक जीवोंके आल.पोंके कथन करनेका प्रकरण है, इसलिये प्रकृतमें तैजस्कायिक जीवोंके भेद-प्रभेदोंके आप अप्कायिक जीवोंके भेद-प्रभेदोंके आलापोंके समान बतलाये हैं यही समझना चाहिए । मूलमें आये हुए 'जहाकमेण' पदसे भी इसी कथनकी पुष्टि होती है। विशेष बात यह है कि तैजस्कायिक जीवोंके द्रव्यसे कापोत. शुक्ल और तपनीय लेश्या होती है। तथा उन्हीं पर्याप्तक सूक्ष्मजीवोंके द्रव्यसे कापोतलेश्या और पर्याप्तक बादरजीवोंके तपनीय लेश्या होती है। इसीप्रकार पर्याप्त नामकर्मके उदयवाले सामान्य और पर्याप्त इन दोनोंही प्रकारके तैजस्कायिक जीवोंके द्रव्यलेश्या कहना चाहिए । वादर तेजस्कायिक जीवोंके आलाप सामान्य तैजस्कायिकके आलापोंके समान जानना चाहिए । इसीप्रकार बादर तैजस्कायिक पर्याप्त जीवोंके आलाप भी होते हैं। विशेषता यह है कि इनके द्रव्यसे तपनीय अर्थात् शुक्ललेश्या होती है। इसीप्रकारसे पर्याप्त नामकर्मके उदयवाले तेजस्कायिक जीवोंके भी द्रव्यलेश्या कहना चाहिए। सूक्ष्म तैजस्कायिक जीवेंके आलाप सूक्ष्म अप्कायिक जीवेंके आलापोंके समान जानना चाहिए । वायुकायिक जोके आलाप तैजस्कायिक जीवोंके आलापोंके समान जानना चाहिए । विशेष बात यह है कि द्रव्यसे कापत, शुक्ल, गोमूत्र और मूंगके वर्णव.लो लेश्याएं होती हैं। उन्हीं पर्याप्तक सूक्ष्म जीवोंके कापोतलेश्या और बादर पर्याप्त जीवोंके गोमूत्र १बादरआऊतऊ सुक्का तेऊ यxx| गो. जी. ४९७. २ तत्र घनोदधयो मुद्गसन्निभाः, धनवाता गोमूत्रवर्णाः, अव्यक्तवर्णास्तनुवाताः। त. रा.वा. ३.... xx वायुकायाणं | गोमुत्तमुग्गवण्णा कमसो अश्वत्तवण्णो य । गो.जी. ४९७. गोमुत्तमुग्गणाणावण्णाण घणंबुषणतणूण हवे । वादाण वलयतयं रुक्खस्स तयं व लोगस्स ।। त्रि. सा. १२३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001396
Book TitleShatkhandagama Pustak 02
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1940
Total Pages568
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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